आपदाग्रस्त होती न्यायिक व्यवस्था

Afeias
07 Jul 2021
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Date:07-07-21

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देश की न्याय प्रणाली में अनेक विसंगतियों का राज है। न्यायालयों में लंबित मामलों की संख्या दिनोदिन बढ़ती जा रही है। त्वरित व समय पर न्याय देने के लक्ष्य को पीछे छोड़ना किसी आपदा की ओर बढने जैसा है। न्याय-व्यवस्था को चुस्त-दुरूस्त करने के लिए कुछ सरल समाधान है –

1) न्यायिक पदों पर भर्ती की जाए –

एक विस्तृत विश्लेषण से पता चलता है कि 2006 और 2017 के बीच लंबित मामलों में औसत वृद्धि लगभग 2.5% प्रतिवर्ष थी। जबकि स्वीकृत न्यायिक पदों में औसत रिक्ति लगभग 21% थी। यदि स्वीकृत पदों को भरा गया होता, तो हर साल लंबित मामलों की संख्या कम हो जाती।

न्यायाधीशों के चयन की जिम्मेदारी काफी हद तक न्यायपालिका की ही होती है। ऐसा न कर पाने की स्थिति में उच्च न्यायालय और उच्चतम न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश को ही जिम्मेदार ठहराया जाना चाहिए।

2) न्यायालय के काम के लिए तकनीक का इस्तेमाल बढ़ाया जाना चाहिए –

उच्चतम न्यायालय की ई-समिति का अस्तित्व 2005 से है। समिति ने सुझाव दिए हैं, जिन पर जल्द-से-जल्द अमल किया जाना चाहिए।

  • केस लिस्टिंग , केस आवंटन और स्थगन पर निर्णय कम्प्यूटर एल्गोरिदम से लिया जाए। केवल 5% मामलों को न्यायाधीशों पर छोड़ा जाए।
  • सभी न्यायालयों में ई-फाइलिंग हो। समिति ने याचिकाओं, हलफनामे, शुल्क के भुगतान आदि को इलैक्ट्रॉनिक तरीके से किए जाने के लिए विस्तृत स्टैन्डर्ड ऑपरेटिंग प्रोसिजर बताया है।
  • वर्चुअल सुनवाई हो।

कोविड के चलते वर्चुअल सुनवाई की जो प्रथा शुरू हुई है, उसे बढ़ाया जाए। वर्ष 2020 में ही लंबित मामलों की संख्या बहुत बढ़ गई है। अतः समिति की सिफारिश है कि सभी न्यायालय तुरंत प्रभाव से वर्चुअल मोड को अपनाएं और कोविड संकट के बाद भी हाइब्रिड वर्चुअल न्यायालय का प्रावधान रखा जाए।

कोविड-संकट के दौर में भी स्वास्थ, शिक्षा, आयकर, डाक विभाग, पासपोर्ट, रेल आदि सेवाओं ने तकनीक के माध्यम से सेवा-प्रदान करने में तत्परता बनाए रखी है। केवल न्याय विभाग में ही गतिरोध देखा जा रहा है। इसे सुधारा जाना चाहिए। न्यायालयों को न्यायिक सेवाओं का दायित्व लेते हुए जवाबदेह बनना चाहिए, तभी इसे बचाया जा सकता है।

‘द टाइम्स ऑफ इंडिया’ में प्रकाशित शैलेश गांधी और अरूण जोशी के लेख पर आधारित। 22 जून, 2021