सत्ता के लिए अड़चन बना केशवानंद भारती मामला

Afeias
05 Oct 2020
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Date:05-10-20

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1973 में संसद और न्यायपालिका के बीच एक फैसले से ऐसा संतुलन कायम हो सका , जो इससे पहले 23 सालों में नही देखा गया था । इसका कारण केशवानंद भारती बनाम केरल राज्य के मामले में दिया गया एक ऐतिहासिक फैसला था। उन्हीं केशवानंद भारती की हाल ही में मृत्यु हो गई।

कुछ मुख्य बातें –

  • केरल की तत्कालीन वामपंथी सरकार भूमि सुधार के अंतर्गत आर्थिक असमानता कम करने के लिए कई कानून बनाकर जमींदारों और मठों की हजारों एकड़ जमीन अधिगृहीत कर रही थी। ऐसे में एडनीर मठ के युवा प्रमुख केशवानंद भारती ने मठ की जमीन के अधिग्रहण के विरूद्ध 1970 में अनुच्छेद 26 का हवाला देते हुए उच्च न्यायालय में याचिका दायर की।
  • इस याचिका में अनुच्छेद 26 के अंतर्गत अपनी धार्मिक संपदा का प्रबंधन करने का मूल अधिकार मांगा गया। अनुच्छेद 31 में प्रदत्त संपत्ति के मूल अधिकार पर पाबंदी लगाने वाले केंद्र सरकार के 24वें , 25वें और 29वें संविधान संशोधन को चुनौती दी गई।

केरल और केंद्र सरकार के भूमि सुधार कानूनों को भी चुनौती दी गई।

  • मामला जब उच्चतम न्यायालय में पहुँचा , तो न्यायालय ने माना कि संसद मौलिक अधिकारों में भी संशोधन कर सकती है , लेकिन ऐसा कोई संशोधन नहीं कर सकती , जिससे संविधान के मूलभूत ढांचे में कोई परिवर्तन हो या उसका मूल स्वरूप बदलता हो।
  • इस निर्णय से देश की संसद के ऊपर संविधान की सत्ता स्थापित हो गई। इसने देश की गणतांत्रिक व्यवस्था को सुरक्षित कर दिया।

इस फैसले के दो साल बाद इंदिरा गांधी ने आपातकाल लागू करके संविधान को पूरी तरह से बदल दिया था। लेकिन केशवानंद भारती फैसले के दम पर संविधान को उसके मूल स्वरूप में वापस लाया गया।

  • इसी कड़ी में राज नारायण , वामन राव और मिनरवा मिल्स जैसे मामलों का नाम आता है , जिसमें संविधान के मूल ढांचे को सुरक्षित रखा जा सका।

कुल मिलाकर इस फैसले में संविधान के 24वें संशोधन पर विचार करते हुए न्यायालय ने निर्णय दिया कि विधायिका अनुच्छेद 368 के तहत संविधान की मूल संरचना को नहीं बदल सकती। संविधान की सर्वोच्चता , धर्मनिरपेक्षता , व्यक्ति की स्वतंत्रता और गरिमा जैसे तत्वों को संविधान की आधारभूत संरचना का भाग बताया गया। मिनर्वा मिल्स मामले में न्यायिक समीक्षा के अलावा मौलिक अधिकारों तथा नीति निर्देशक सिद्धांतों के बीच संतुलन को संविधान के आधारभूत ढांचे का भाग माना गया।

वास्तव में संविधान की संरचना में कहीं-कहीं अस्पष्टता के कारण इसका निर्धारण न्यायपालिका के विवेक पर ही निर्भर करता है। यह सिद्धांत भी विवादों से अछुता नहीं है। हाल ही में न्यायिक नियुक्ति आयोग के गठन को संविधान के आधारभूत ढांचे के विरूद्ध बताना विवादास्पद हो गया , क्योंकि न्यायाधीशों की नियुक्ति की वर्तमान व्यवस्था शक्तियों के पृथक्करण के सिद्धांत के अनुकूल नहीं है। इसे सीमा मानकर संविधान के आधारभूत ढांचे के महत्व को कम नहीं किया जा सकता है। यह लोकतंत्र के आधार को सुदृढ़ रखने का सशक्त मार्ग है।

‘द इंडियन एक्सप्रेस’ में प्रकाशित उपेन्द्र बक्षी के लेख पर आधारित। 16 सितंबर , 2020