23-11-2019 (Important News Clippings)

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23 Nov 2019
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Date:23-11-19

केंद्र का सपना ग्रामीण विकास , सभी को आवास

नरेंद्र सिंह तोमर , (लेखक केंद्रीय कृषि एवं ग्रामीण विकास मंत्री हैं)

उत्तर प्रदेश में सिद्धार्थनगर जिले के एक गांव मेंश्रीमती अमरावती अपने छोटेबच्चों के साथ एक झोपड़ीमें रह रही थीं। वह अपनेगांव में कृषि मजदूर के तौरपर और मनरेगा में कामकरने वाली मजदूरी से होनेवाली आमदनी से अकेले हीअपने घर का खर्च चलायाकरती थी। मानसून के दौरानगुजारा करने में होने वालीकठिनाइयां यथा झोपड़ी मेंबारिश के पानी टपकने औरईंधन की लकड़ी सूखी बनाएरखने से लेकर बच्चों कीबीमारी से निपटने और इनसब की व्यवस्था करते हुएकाम के अवसर खो देनाउसकी नियति-सी बन गई थी। अमरावती के लिएअपने पूरे जीवन में इस तरहकी कठिनाइयों के बीचगरिमापूर्ण जीवन बितानाकल्पना से बाहर की बात थी और यह कहानी अकेलेअमरावती की ही नहीं है, ऐसे कई परिवार हैं जिनके लिएपके मकान में गरिमापूर्ण जीवन जीने का सपना भीदुर्लभ था। हमारे यशस्वी प्रधानमंत्री श्री नरेन्द्र मोदी केप्रेरणादायी नेतृत्व में शुरू की गई प्रधानमंत्री आवासयोजना (ग्रामीण) के अंतर्गत श्रीमती अमरावती एवंइनके जैसे 87 लाख से ज्यादा परिवार जरूरी सुविधाओंसे युत आवास पाकर आज गरिमापूर्ण जीवन जी रहे हैंऔर अब इससे आगे के सुनहरे जीवन की तरफ अग्रसरहैं। यह सब प्रधानमंत्री आवास योजना (ग्रामीण) केसफल क्रियान्वयन से संभव हो पाया है। भारत को गरीबीमुत बनाने और अपने गांवों में रह रहे सभी वंचितों कोगरिमापूर्ण जीवन उपलध कराने के स्वप्न के साथ हमवर्ष 2022 तक एक नए भारत की अपनी परिकल्पना में सभी ग्राम पंचायतों को गरीबी से मुत बनाने के मार्ग पर चल रहे हैं। प्रधानमंत्री की इसी परिकल्पना के साथ हम इस यात्रा के प्रमुख मील के पत्थर के तौर पर सभी को आवास उपलध कराने के लिए पूरी तरह तैयार हैं। हम जानते हैं कि शौचालय, एलपीजी सिलेंडर के साथ गैस कनेशन, बिजली और पेयजल जैसी मूलभूत सुविधाओं के साथ पके मकान की उपलधता गरिमापूर्ण जीवन के लिए बहुत महत्वपूर्ण है। इसे दृष्टि में रखते हुए तत्कालीन आवासीय कार्यक्रम-इंदिरा आवास योजना का पुनर्गठन कर उसे 01 अप्रैल, 2016 से प्रधानमंत्री आवास योजना (ग्रामीण) का स्वरूप दिया गया और माननीय प्रधानमंत्री जी ने उत्तर प्रदेश में आगरा से इसका शुभारंभ 20 नवंबर, 2016 को किया। इस कार्यक्रम का तात्कालिक उद्देश्य वर्ष 2016-17 से 2018-19 के बीच पहले चरण के अंतर्गत 1 करोड़ मकानों का निर्माण करना था। बाकी 1 करोड़ 95 लाख मकानों को दूसरे चरण के अंतर्गत वर्ष 2019-20 से वर्ष 2021-22 के बीच पूरा करने का लक्ष्य है। मुझे प्रसन्नता है कि सभी राज्य सरकारों की भागीदारी से ग्रामीण विकास मंत्रालय ने प्रधानमंत्री आवास योजना (ग्रामीण) के अंतर्गत अब तक 87 लाख से ज्यादा आवासों का निर्माण पूरा कर लिया है। इसके अतिरित हमारी सरकार ने पूर्ववर्ती आवास योजना के 40 लाख से ज्यादा आवासों को भी अप्रैल, 2016 से अब तक पूरा किया है। वर्ष 2019-20 में 60 लाख परिवारों को उनके मकानों के निर्माण में सहायता देने की योजना है। इनमें से अभी तक 36.70 लाख परिवारों को मकान स्वीकृत किए जा चुके हैं। हम इस बात को महत्व देते हैं कि पानी, गैस, शौचालय और बिजली जैसी बुनियादी सुविधाओं के साथ पके मकान का होना किसी भी परिवार का आत्म-सम्मान बढ़ाता है, योंकि इससे उस परिवार को दिन-प्रतिदिन की चिंताओं से मुति मिल जाती है और वह ज्यादा समय आर्थिक गतिविधियों के लिए निकाल पाता है। परिणामस्वरूप उस परिवार को और अधिक आर्थिक एवं सामाजिक स्वतंत्रता प्राप्त हो जाती है। नवनिर्मित मकानों से लोगों के जीवन की चिंता से मुक्त में भी सुधार आता है। आवास को एक केन्द्रीय इकाई मानते हुए प्रधानमंत्री आवास योजना (ग्रामीण) के अंतर्गत हम ये मूलभूत सुविधाएं भारत सरकार के विभिन्न कार्यक्रमों के साथ तालमेल (कन्वर्जेन्स) के जरिए उपलध करा रहे हैं। सरकार ने आवास विहीनता के मानदंडों पर आधारित सामाजिक-आर्थिक जातिगत जनगणना (एसईसीसी)-2011 के जरिए लाभार्थियों की पहचान करने का निर्णय लिया और इसके बाद ग्राम सभा स्तर पर सत्यापन प्रक्रिया अपनाई गई। इससे प्रधानमंत्री आवास योजना (ग्रामीण) के लाभार्थियों के चयन और स्थायी प्रतीक्षा सूची में पूर्ववर्ती क्रम के अनुसार मकानों के आवंटन में पारदर्शिता लाने में मदद मिली है। हम प्रत्यक्ष लाभ अंतरण (डी.बी.टी.) के माध्यम से लाभार्थियों के खातों में धनराशि के सीधे अंतरण द्वारा बीच में निधियों की लीकेज रोक पाने में भी सफल हुए हैं। प्रधानमंत्री आवास योजना (ग्रामीण) में निगरानी प्रक्रिया साक्ष्य-आधारित है।

एक अन्य महत्वपूर्ण पहल प्रत्येक राज्य / संघ शासित क्षेत्र में एकल नोडल खाता खोलने और संचालित करने की भी रही है। पहले की ग्रामीण आवास योजना में राज्य, जिला, लॉक और उप-लॉक के स्तर पर विभिन्न खातेहुआ करते थे और उनमें अनावश्यक रूप से निधियां पड़ी रहती थीं। इससे पात्र लाभार्थियों को फंड जारी नहीं हो पाते थे, योंकि वे किसी अन्य खाते में पड़े होते थे। नतीजतन, मकानों के निर्माण में विलंब होता था। एकल नोडल खाता प्रणाली से इस समस्या का समाधान हो गया है और इस खाते से राज्य के किसी भी हिस्से में लाभार्थी के खाते में धनराशि सीधे भेजी जा सकती है। इससे आवश्यकता के समय धनराशि का सुचारू प्रवाह सुनिश्चित हुआ है और मकानों के निर्माण में तेजी आई है। मेरे मंत्रालय ने प्रधानमंत्री आवास योजना (ग्रामीण) के अंतर्गत ग्रामीण राजमिस्त्री प्रशिक्षण कार्यक्रम शुरू किया है। इस प्रशिक्षण कार्यक्रम के तहत न केवल राजमिस्त्री से संबंधित प्रशिक्षण दिया जाता है बल्कि बार-बेंडिंग और शटरिंग इत्यादि का काम भी सिखाया जाता है। इस प्रशिक्षण कार्यक्रम से इन प्रशिक्षित व्यतियोंको रोजगार मिलने के अवसर भी बढ़े हैं। इस कार्यक्रम के तहत कुल 90,064 उम्मीदवारो को नामांकित किया गया और 53,370 उम्मीदवारो को प्रशिक्षित एवं प्रमाणित भी किया जा चुका है। प्रौद्योगिकी के प्रभावी उपयोग से मकान का निर्माण पूरा करने में लगने वाले दिनों की औसत संख्या भी घटी है। वर्ष 2015-16 में किसी मकान का निर्माण कार्य पूरा होने में औसतन 314 दिन लगते थे जो वर्ष 2017-18 में घटकर 114 दिन रह गए। इससे वार्षिक आधार पर पूरे किए जाने वाले मकानों की संख्या में वृद्धि हुई है।


Date:23-11-19

विनिवेश की राह पर बढ़ते कदम

सरकार विनिवेश की राह पर इसलिए भी बढ़ना चाहती है, ताकि विकास योजनाओं के लिए अतिरिक्त धन उपलब्ध हो सके।

डॉ. जयंतीलाल भंडारी , (लेखक अर्थशास्त्री हैं)

हाल ही में केंद्र सरकार ने भारत पेट्रोलियम कॉर्पोरेशन लिमिटेड (बीपीसीएल) समेत पांच सरकारी कंपनियों में अपनी हिस्सेदारी बेचने का ऐलान किया, जिसे अब तक का सबसे बड़ा विनिवेश का फैसला बताया जा रहा है। कहना होगा कि आर्थिक सुस्ती को थामने, राजकोषीय घाटे को नियंत्रित करने के मद्देनजर सरकार द्वारा उठाया गया यह एक अहम कदम है। विनिवेश की प्रक्रिया के तहत सरकार का यह निर्णय भी महत्वपूर्ण है कि अब वह चुनिंदा सरकारी कंपनियों में अपनी हिस्सेदारी 51 फीसदी से कम करेगी।

उल्लेखनीय है कि केंद्र सरकार ने मौजूदा वित्त वर्ष में विनिवेश के जरिए 1.05 लाख करोड़ रुपए जुटाने का लक्ष्य रखा है। हालांकि सरकार को चालू वित्त वर्ष में विनिवेश से अक्टूबर माह तक 12,995 करोड़ रुपए प्राप्त हुए। गौरतलब है कि सार्वजनिक यानी सरकारी क्षेत्र की कंपनियों/उपक्रमों में सरकारी हिस्सेदारी को बेचने की प्रक्रिया विनिवेश कहलाती है। दरअसल इस प्रक्रिया के तहत सरकार सार्वजनिक क्षेत्र की कंपनियों या उपक्रमों की कुछ हिस्सेदारी को शेयर या बांड के रूप में बेचती है। इस प्रक्रिया के तहत मिलने वाले धन का उपयोग सरकार या तो उस कंपनी को बेहतर बनाने में करती है या फिर अन्य योजनाओं में इसको लगाती है। किसी कंपनी के विनिवेश का प्रमुख मकसद पूंजी जुटाना तो होता ही है, साथ ही साथ यह ध्येय भी होता है कि उस कंपनी की स्थिति में सुधार हो। गौरतलब है कि सार्वजनिक क्षेत्र में करीब एक दर्जन ऐसे उपक्रम हैं, जिनमें सरकार की हिस्सेदारी 90 प्रतिशत से 99 प्रतिशत के बीच है।

हमारे देश में विनिवेश की प्रक्रिया की शुरुआत वर्ष 1991 में आर्थिक उदारीकरण के साथ ही हुई थी। तत्कालीन नरसिंह राव सरकार द्वारा उदार आर्थिक नीतियों को लागू किए जाने के बाद सार्वजनिक क्षेत्र के उपक्रमों में सरकार की हिस्सेदारी घटाने अर्थात विनिवेश की शुरुआत की गई। इसकी वजह ज्यादातर सार्वजनिक क्षेत्र के उपक्रमों का लंबे समय से घाटे में जाना रहा है, क्योंकि सरकार अपने दम पर लगातार इन उपक्रमों पर किया जाने वाला खर्च वहन नहीं कर सकती। दरअसल घाटे में जा रहे सार्वजनिक क्षेत्र के उपक्रमों की वजह से बजट घाटा बढ़ता है, जिसका सीधा असर सरकारी खजाने पर पड़ता है। नरसिंह राव सरकार के बाद अटल बिहारी वाजपेयी की सरकार ने स्ट्रेटेजिक विनिवेश के तहत कई सार्वजनिक क्षेत्र के उपक्रमों का मालिकाना हक निजी कंपनियों को दिया था। हालांकि वाजपेयी सरकार के बाद आई मनमोहन सरकार स्ट्रेटेजिक विनिवेश की योजना को अधिक आगे नहीं बढ़ा सकी। मोदी सरकार ने अपने आने के बाद कोई दस वर्ष से रुके हुए विनिवेश कार्यक्रम को फिर से आगे बढ़ाया। उसने राजकोषीय घाटे को कम करने और निजी निवेश को बढ़ाने और बिना कर्ज की पूंजी जुटाने के लिए विनिवेश कार्यक्रम को रफ्तार देना शुरू किया।

वस्तुत: विनिवेश के जरिए सरकार घाटे वाले सार्वजनिक क्षेत्र के उपक्रमों में अपनी हिस्सेदारी कम करना चाहती है, ताकि उन्हें निजी हाथों में सौंपते हुए फायदे में लाया जा सके। साथ ही बजटीय घाटे को भी कम किया जा सके और इससे मिलने वाले धन का उपयोग देश के विकास में किया जा सके। मौजूदा विनिवेश नीति के अनुसार सरकार इस फंड की रकम में से लगभग 75 फीसदी का नियोजन सामाजिक क्षेत्र और विकास के कामों में करती है। हालांकि विनिवेश प्रक्रिया के तहत किसी भी सार्वजनिक क्षेत्र के उपक्रमों में 51 फीसदी की हिस्सेदारी सरकार अपने पास रखती है।

लगता यही है कि आर्थिक सुस्ती ने जिस तरह देश का राजस्व गणित बिगाड़ा है, उसके कारण सरकार ने विनिवेश का अब तक का सबसे बड़ा कदम उठाया है। इस समय भारत का राजस्व घाटा (रेवेन्यु डेफिसिट) और राजकोषीय घाटा (फिस्कल डेफिसिट) तेजी से बढ़ता नजर आ रहा है। किसी वित्त वर्ष में राजस्व प्राप्ति और राजस्व व्यय के अंतर को राजस्व घाटा कहते हैं। जबकि राजस्व घाटे के साथ जब सरकार की उधारियां तथा अन्य देयताएं जोड़ देते हैं, तो उसे राजकोषीय घाटा कहा जाता है। बढ़ते राजस्व और राजकोषीय घाटे ने भारत की क्रेडिट रेटिंग संबंधी चिंताएं भी बढ़ाई हैं। पिछले दिनों प्रकाशित राजस्व आंकड़ों के अनुसार मौजूदा वित्त वर्ष की पहली छमाही (अप्रैल से सितंबर 2019) में केंद्र सरकार का राजकोषीय घाटा बजट अनुमान के 92.6 फीसदी पर पहुंच गया, जबकि इस अवधि के दौरान राजस्व घाटा बजट अनुमान के करीब 100 फीसदी पर पहुंच गया।

ऐसे परिदृश्य में निवेश और कारोबार की जो नई चुनौतियां बढ़ती जा रही हैं, उनके कारण विनिवेश महत्वपूर्ण हो गया है। हाल ही में वैश्विक रेटिंग एजेंसी मूडीज इन्वेस्टर सर्विस ने भारत की क्रेडिट रेटिंग ‘स्थिर से घटाकर ‘ऋणात्मक (निगेटिव) कर दी। रेटिंग घटाने के पीछे मूडीज ने भारतीय अर्थव्यवस्था में सुस्ती जारी रहने, ग्रामीण परिवारों पर वित्तीय दबाव, रोजगार सृजन कम होने और गैर-बैंकिंग वित्तीय कंपनियों में नकदी संकट का हवाला दिया। हालांकि मूडीज ने भारत की दीर्घावधि की सॉवरिन रेटिंग ‘बीएए2 को बरकरार रखा है। आसार यही हैं कि भारत में कॉर्पोरेट टैक्स सहित अन्य करों में लगातार छूट दिए जाने तथा कर संग्रह में कमी के कारण चालू वित्त वर्ष में सरकार का राजस्व घाटा बढ़ेगा तथा राजकोषीय घाटा भी सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) के 3.3 फीसदी के निर्धारित लक्ष्य से बढ़कर 3.7 फीसदी के स्तर तक पहुंच सकता है।

ऐसे में सरकार के लिए विनिवेश का फैसला इसलिए भी जरूरी हो गया था, क्योंकि उसने चालू वित्त वर्ष के लिए कर संग्रह का लक्ष्य 24.6 लाख करोड़ रुपए रखा है, लेकिन उसमें 2 लाख करोड़ रुपए की कमी की आशंका है। कर संग्रह उम्मीद से कम रहने की वजह मांग में गिरावट और उद्योग-कारोबार क्षेत्र को ऐतिहासिक राहत देना भी है। इसकी भी अनदेखी नहीं की जा सकती कि वर्ष 2019-20 के बजट में विभिन्न् वर्गों की उम्मीदों को पूरा करने के लिए जो प्रावधान सुनिश्चित हुए हैं, उन पर व्यय तुलनात्मक रूप से अधिक होते दिखाई दे रहे हैं। देश के उद्योग-कारोबार क्षेत्र में सुस्ती के मद्देनजर वस्तु एवं सेवा कर (जीएसटी) संग्रह में भी कमी दिखाई दे रही है। बीते अक्टूबर में जीएसटी संग्रह घटकर 95,380 करोड़ रुपए रहा, जबकि पिछले साल इसी अवधि में यह 1,00,710 करोड़ रुपए रहा था।

इस समग्र परिदृश्य को देखने के बाद कह सकते हैं कि सरकार ने विनिवेश की प्रक्रिया को आगे बढ़ाने तथा नीतिगत निवेश को गति प्रदान करने का प्रशंसनीय कदम उठाया है। विनिवेश के इस बड़े कदम से सरकार को पर्याप्त मात्रा में कर्जमुक्त पूंजी प्राप्त हो सकेगी। इससे राजकोषीय घाटा नियंत्रित होने की संभावना रहेगी। ऐसा होने पर वित्तीय स्थिरता दिखाई देगी। आर्थिक सुस्ती नियंत्रित होगी।


Date:22-11-19

नागरिकता रजिस्टर की व्यावहारिकता

अनुपमा रॉय

गृह मंत्री अमित शाह ने संसद में देशव्यापी राष्ट्रीय नागरिक रजिस्टर (एनआरसी) तैयार करने की घोषणा कर दी है। शाह के अनुसार, यह रजिस्टर असम में भी तैयार किया जाएगा। इसका अर्थ यह है कि ‘असम सम्मिलिता महासंघ’ और ‘असम पब्लिक वर्क्स’ की याचिका के संदर्भ में सुप्रीम कोर्ट के संरक्षण में तैयार हो रहा असम का एनआरसी रद्द हो जाएगा। यानी, पिछले चार वर्षों से करोड़ों रुपये की लागत से तैयार हो रहा यह एनआरसी, जिसे तैयार करने की प्रक्रिया में तमाम संस्थागत और मानव संसाधन शामिल थे और जिसमें नाम न दर्ज हो पाने के कारण लाखों लोगों ने बेहद त्रासद अनुभव किया था, उन सबको अब भुला दिया जाएगा? एक सवाल यह भी हो सकता है कि एनआरसी तैयार करने की प्रक्रिया की जिन बहुत सी खामियों का अनुभव असम ने कराया है, क्या अब उन्हें एक सीमित क्षेत्र से आगे बढ़ाकर पूरे भारत में लागू किया जाएगा?

राष्ट्रीय नागरिक रजिस्टर का प्रावधान नागरिक संशोधन अधिनियम-2003 के तहत अस्तित्व में आया। इसी संशोधन द्वारा जन्मजात नागरिकता को सीमित कर दिया गया। संशोधन के बाद भारत में जन्म के आधार पर वही व्यक्ति नागरिक बन सकता है, जिसके माता-पिता, दोनों भारतीय हों और उनमें से कोई भी देश के अवैध नागरिक न हों। यह संशोधन तत्कालीन राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन (एनडीए) सरकार लेकर आई थी। मौजूदा समय में नागरिकता पर उठे विवाद को 2003 के इसी संविधान संशोधन और इससे जुड़े वैचारिक व राजनीतिक प्रवृत्तियों के मजबूत होने के संदर्भ में समझा जाना चाहिए।

यह उल्लेखनीय है कि असम में एनआरसी तैयार करने को लेकर नेताओं और लोगों में जो आम उत्साह था, वह एनआरसी की आखिरी सूची के आने तक काफी ढीला पड़ गया था। इसका प्रमुख कारण यह है कि उम्मीदों के विपरीत अनगिनत ऐसे लोग भी इस सूची से बाहर हो गए थे, जो इसमें होने को लेकर पूरी तरह आश्वस्त थे और भारतीय जनता पार्टी की स्थानीय इकाई ने भी इसकी प्रक्रिया पर असंतोष जताया था। इस संदर्भ में प्रस्तावित नागरिकता संशोधन अधिनियम 2016 महत्वपूर्ण हो जाता है, क्योंकि इस संशोधन के माध्यम से सरकार न केवल एनआरसी-प्रक्रिया से उभरी ऐसे लोगों की चिंताएं खत्म कर सकती है, बल्कि खुद को फिर से राष्ट्र व राज्य के संरक्षक के रूप में स्थापित कर सकती है।

यहां पर यह याद रखना चाहिए कि 2016 का नागरिकता संशोधन विधेयक (सीएबी) 2003 के संशोधन द्वारा जन्मजात नागरिक बनने की प्रक्रिया को बाधित किए जाने से अवैध होने वाले लोगों और उनके बच्चों को नागरिक बनने की सुविधा देता है। यह बांग्लादेश, पाकिस्तान और अफगानिस्तान से मजहबी प्रताड़ना की वजह से पलायन करके भारत आए छह अल्पसंख्यक समुदायों (हिंदू, सिख, बौद्ध, जैन, पारसी और ईसाई) को अवैध प्रवासी होने के आरोप से मुक्त करता है। अवैध प्रवासियों की श्रेणी से कुछ धार्मिक समुदायों को छूट देकर सीएबी ने 2015 में सरकार द्वारा जारी कार्यकारी आदेशों और नियमों को कानूनी स्वरूप देने का प्रयास किया। 7 सितंबर, 2015 की गजट अधिसूचना ने पासपोर्ट अधिनियम व विदेशी अधिनियम में बदलाव करते हुए छूट के लिए अवैध प्रवासियों की पात्रता-तारीख 31 दिसंबर, 2014 कर दी। उल्लेखनीय है कि असम सम्मिलिता महासंघ द्वारा दायर याचिका में नागरिकता अधिनियम द्वारा राज्य के लिए निर्धारित तारीख 24 मार्च, 1971 को चुनौती दी गई थी, क्योंकि यह तिथि संविधान द्वारा निर्धारित तिथि 19 जुलाई, 1948 (जो देश के बाकी हिस्सों में लागू होती है) से भिन्न थी।

सीएबी 2016 पर विमर्श करने और संसद को सुझाव देने के लिए गठित संयुक्त संसदीय कमेटी ने इस साल की शुरुआत में अपनी रिपोर्ट संसद में पेश की थी। इसमें कमेटी के नौ सदस्यों ने सीएबी से अपनी असहमति व्यक्त की है। संयुक्त संसदीय समिति की यह रिपोर्ट देश में नागरिकता की अवधारणा में आए वैचारिक बदलाव और उसके राजनीतिक आधार की अभिव्यक्ति है। कानूनी नागरिकता और रक्त-संबंधों के बीच सामंजस्य बनाते हुए कमेटी ‘राष्ट्रीय’ नागरिकता और ‘प्राकृतिक’ नागरिकता के समन्वय की सिफारिश करती है। इस रिपोर्ट को मानें, तो राष्ट्रीय नागरिकता रक्त संबंधों पर आधारित आत्मीयता की अभिव्यक्ति है।

यह नागरिकता एकजुटता और एकीकरण के मॉडल पर आधारित है, जो नागरिकों को सीमाबद्ध समूह जैसा मानती है। यह समूह मिल-जुलकर रहने के लिए प्रतिबद्ध है। संयुक्त संसदीय कमेटी सीएबी को सांविधानिक उल्लंघन, मुख्यत: अनुच्छेद-14 के उल्लंघन के आरोप से बचाने के लिए तर्क पेश करती है। ये सभी तर्क सुप्रीम कोर्ट द्वारा 1952 में पश्चिम बंगाल राज्य बनाम अनवर अली सरकार मामले में सुनाए गए फैसले से जुड़े थे। संसदीय कमेटी को विश्वास था कि अनुच्छेद-14 के उल्लंघन की चुनौती का सामना इस आधार पर वह कर पाएगी कि समूहों के बीच भेदभाव असल में ‘तर्कसंगत’ व ‘व्यावहारिक’ हो। तर्कसंगतता और व्यावहारिकता इस आधार पर भी तय की जा सकती है कि कानून का लक्ष्य और ‘भेदभाव’ में सामंजस्य हो। हालांकि अनवर अली सरकार के मामले में शीर्ष अदालत ने दो शर्तें रखी थीं, जो अनुच्छेद-14 के प्रावधानों का सख्ती से पालन करने के लिए जरूरी थीं। इन दो शर्तों में से केवल एक ही भेदभाव की तार्किकता व व्यावहारिकता से संबंधित थी। दूसरी ज्यादा मूलभूत शर्त, जो ‘कानून के समक्ष समान संरक्षण’ की गारंटी से पैदा होती है, सभी व्यक्तियों का राज्य की विवेकहीन शक्ति से बचाव करती है।

इसी विषय पर सुप्रीम कोर्ट ने 2009 में नाज फाउंडेशन बनाम दिल्ली राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र मामले में अपनी सोच जाहिर की थी। इसमें फैसला सुनाते हुए अदालत ने व्यावहारिकता की एक और शर्त रखी, जो कानून के उददेश्य को भी सांविधानिक निगरानी के दायरे में लाती है। यह निगरानी सांविधानिक नैतिकता पर आधारित होगी और सिर्फ अनुच्छेद-14 नहीं, बल्कि संविधान की प्रस्तावना और सिद्धांतों के मापदंडों पर भी खरा उतरेगी। सांविधानिक नैतिकता एक ऐसी महत्वपूर्ण नैतिकता है, जो बहुसंख्यकवादी राजनीति के विरुद्ध सांविधानिक लोकतंत्र के मानदंडों को मजबूत करती है।


Date:22-11-19

Push for the better

Disinvestment in five PSUs is welcome and overdue. With tax revenues under pressure, government needs to do more

Editorial

On Wednesday, the Cabinet Committee on Economic Affairs (CCEA) approved the strategic disinvestment of five public sector enterprises, namely, Bharat Petroleum Corporation Ltd (BPCL), Container Corporation of India Ltd, Shipping Corporation of India, Tehri Hydro Power Development Corporation (THDC) and the North Eastern Electric Power Corporation (NEEPCO). The proceeds from these stake sales will help the Centre move closer to achieving its disinvestment target of Rs 1.05 lakh crore for this year. So far this year, the government has been able to garner only Rs 17,364 crore or 16.5 per cent of its budgeted disinvestment target as per data from the Department of Investment and Public Asset Management. Coming at a time when the Centre is facing huge shortfalls in both direct and indirect tax revenues, and its gross tax revenues have grown by a mere 1.5 per cent in the first half (April to September) of the current financial year, the determined push to meet its disinvestment target is welcome.

Of the five companies, the stake sale in BPCL is likely to be the biggest draw. The sale will be of interest not only to domestic firms, but also to major international players as well. According to some estimates, the government could fetch around Rs 63,000 crore from its stake sale in the company, more than half of its total disinvestment target for the year. Add to that proceeds from the stake sale in the Container Corporation and the Shipping Corporation, and the Centre may well end up earning more than Rs 70,000 crore through these three firms alone. But, with only four months to go, it is not clear whether these stake sales can be wrapped up by the end of the financial year. It should also not be another case of public sector firms stepping in to buy these entities in order to bail out the government. As it is, the sale of THDCIL and NEEPCO, the other two entities, to NTPC, is essentially a transfer of assets between various arms of the public sector.

The government would benefit from drawing up a more ambitious, better laid out, medium-term plan for disinvestment, rather than approaching it as merely an arrangement for plugging its revenue gaps. It should draw up a list of potential candidates and release an advance calendar, indicating the period of disinvestment. This would help draw in more buyers. Further, the proceeds from disinvestment should be used only for the creation of new assets, not to meet its revenue expenditure.


Date:22-11-19

No more NRC

Home Minister Shah’s ambition of renewing it in Assam, extending it to country, is flawed and divisive

Editorial

The updated National Register of Citizens, a four-year-long exercise monitored by the Supreme Court, costing Rs 1,600 crore, appears to have been relegated for all practical purposes. Union Home Minister Amit Shah told Parliament on Wednesday that the exercise will be undertaken across the country soon, including — afresh — in Assam. The updated Assam NRC, published on August 31, left 19 lakh people stateless and exposed to the prospect of being lodged in detention camps after exhausting appeals against their exclusion from the Register. The exercise turned the Northeast restive. With reports suggesting that a large part of those excluded are Hindus, the BJP rejected the Register, even after the Supreme Court endorsed it. By all accounts, the NRC in Assam has been a failure: It did not satisfy any section of the society, reopened faultlines of religion, language and ethnicity, and left millions of people on the edge. It is appalling that the government now wants to impose this divisive and tortuous exercise on the rest of the country.

Shah has been infatuated with the idea of the NRC for some time; he has threatened a nation-wide NRC in his election campaigns. Clearly, the BJP top brass seems ignorant of the history of the NRC, which was proposed in 1951 in the specific context of Assam witnessing a major demographic upheaval in the wake of Partition. The 1985 Assam Accord, signed between the Rajiv Gandhi government and the major players of the Assam Movement, gave it a new life. The Supreme Court directed the state government in 2013 to execute it and began monitoring it from December 2015. The point is that the NRC was a demand made by the state’s political leadership to address concerns specific to it. It was the product of a political imagination that privileged ethno-linguistic identity over more inclusive ideas of citizenship and rejected the notion that societies are shaped by the movement of people and capital. This resentful politics, centered on the fear of the Outsider, not surprisingly, resulted in violence and gave birth to an armed insurgency. The past few years have seen Assam emerge from this morass of violence and rebuild its economy. But the NRC, and its byproduct, the Citizenship Amendment Bill, have threatened a regression into a past that saw one section of society pitted against the other.

The NRC is a flawed idea and its limitations have been exposed in Assam. The exercise also bared the futility of pursuing a project of establishing identity through legacy in a country that has seen massive migrations, forced and voluntary. Shah and others must abandon their obsession, which, with its communal overtones, can only result in stoking new fears and anxieties.


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