18-09-2019 (Important News Clippings)

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18 Sep 2019
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Date:18-09-19

सरकारी प्रतीकों के निजी इस्तेमाल पर भी पाबंदी हो

संपादकीय

औपनिवेशिक मानसिकता और सदियों की दासता अभी भी व्यापक समाज पर अपना असर बनाए हुए है। राज्य का प्रतीक हमें डराता है उसी तरह जैसे मुगलों और अंग्रेजों के शासन में एक अदना-सा सिपाही डराता था। लिहाज़ा आपने अक्सर निजी वाहनों के पीछे के नंबर प्लेट के नीचे या ऊपर ‘भारत सरकार’, ‘मध्यप्रदेश सरकार’ या ‘उत्तरप्रदेश सरकार’ लिखा देखा। यह सब उन वाहनों पर भी होता है, जिन्हें किसी भी सरकार ने कभी भी नहीं खरीदा है। बिहार के मत्स्य पालन विभाग में चपरासी अगर अपनी मोटरसाइकिल के नंबर प्लेट पर ‘बिहार सरकार’ लिखवाता है तो यह क्या है? लार्ड मैकॉले 160 साल पहले भी भारतीय दंड संहिता (आईपीसी) बनाते वक्त ऐसा कोई प्रावधान नहीं दिया था, जिसमें उत्तरप्रदेश पुलिस के बुजुर्ग मां-बाप और बच्चों को माल में जाते वक्त ट्रैफिक नियम तोड़ने की सुविधा हो, लेकिन समझ में नहीं आता कि सरकार की गाड़ियों में तो छोड़िए, निजी वाहनों में राज्य के प्रतीक लिखवाने का क्या कारण है। मनोवैज्ञानिक विश्लेषण करें तो समझ में आएगा कि भारतीय समाज आज भी पहचान के संकट से ग्रस्त है। लिहाज़ा दिल का कोई प्रतिष्ठित डॉक्टर या इतिहास का प्रोफेसर या वैज्ञानिक अपने वाहन पर अपना व्यवसाय नहीं लिखवाता। दरअसल, पुलिस के प्रतीक का मतलब है कि दारू पीकर उल्टी दिशा से गाड़ी चलाकर एक पुलिस वाले का गुंडा रिश्तेदार प्रोफेसर की गाड़ी में टक्कर मारकर उसी प्रोफेसर या वैज्ञानिक को मारना शुरू कर सकता है। प्रोफेसर या वैज्ञानिक भी यह जानता है कि ‘कानून बताकर’ कुछ नहीं किया जा सकता। इसीलिए एक आईएएस/राज्य प्रशासनिक सेवा के अफसर की बीवी जब जूलरी शॉप में जाती है या बच्चा स्कूल तो साथ में सिपाही होता है ताकि दाम बताने के पहले दूकानदार और पढ़ाने में शिक्षक सतर्क रहें -भविष्य के खतरे से। देश में एक कानून यह बनना चाहिए कि सरकारी गाड़ी पर भी दूर-दूर तक कोई ऐसा संकेत न हो। क्योंकि सरकारी गाड़ी अगर किसी ‘साहेब’ को लेकर जा रही है और रास्ते में एक्सीडेंट कर देती है तो जुर्माना और सजा में कानून के हिसाब से कोई छूट नहीं है। फिर क्यों उन पर भारत सरकार लिखा जाए या राज्य सरकार लिखा जाए। निजी गाड़ियों पर ऐसा राज्य-सत्ता का प्रतीक लिखवाना तो आपराधिक कृत्य माना जाना चाहिए। इसे आईपीसी की धारा 416 में ‘प्रतिरूपण द्वारा छल’ का अपराध माना जाना चाहिए।


Date:18-09-19

सोच बदलने से ही अर्थव्यवस्था पटरी पर आएगी

चेतन भगत

अर्थव्यवस्था की हालत खराब है। इस बारे में बहस की गुंजाइश नहीं है। अत्यधिक स्थिर सरकार की दूसरी पारी में हमें अब तक तो दो अंकों वाली जीडीपी वृद्धि दर की उम्मीद होनी थी। इसकी बजाय हम गिरकर 5 फीसदी की दर पर आ गए हैं। अब हम दुनिया की सबसे तेज बढ़ती अर्थव्यवस्थाअों में नहीं हैं। अधिक व्यापक आधार वाली अमेरिकी अर्थव्यवस्था भी 3 फीसदी की दर से बढ़ रही है। हम जो 2 फीसदी की बढ़त दे रहे हैं वह सरकार के बाहर के जोखिम, नियम-कायदों संबंधी जोखिम और तीसरी दुनिया के उन अन्य जोखिमों के लिए पर्याप्त नहीं है, जो इस देश में बिज़नेस करने के लिए लेने पड़ते हैं। कर की दरें न सिर्फ बहुत ऊंची हैं बल्कि हर कुछ माहों में बदल भी जाती हैं। खासतौर पर कर अधिकारी पीछे पड़ते हैं लेकिन अपने बिज़नेस के हिसाब से जिन भी सरकारी विभागों से आपका पाला पड़ता है, वे भी आपके पीछे ऐसे पड़ जाते हैं जैसे आप कोई माफिया उद्योग चला रहे हों। वे पूरा प्रयास करते हैं कि आप पैसा न कमा पाएं। ईश्वर की कृपा से आप ऐसा करने में कामयाब हो भी जाएं, तो आपको कोई सुपर अचीवर नहीं कहेगा, आप सुपर रिच कहलाएंगे। और भारत में धनी लोगों का मतलब है बुरे लोग। फिर सुपर रिच तो सुपर-बैड यानी ज्यादा ही बुरे लोग हुए। इसलिए आपकी आय पर सबसे ज्यादा टैक्स लगेगा। इसके बाद भी कुछ और शुल्क-उपशुल्क वसूले जाएंगे। इस सबके बाद जो भी पैसा आपके पास बचता है, सरकार इसमें से तब बड़ा हिस्सा वसूल लेती है, जब उसे खर्च करने जाते हैं। अच्छे होटल में ठहरे हैं? फिर तो आप धनी हैं और धनी लोग तो बुरे होते हैं इसलिए जबर्दस्त टैक्स पहले ही झेल चुकी आय में से 28 फीसदी और दीजिए। कार खरीदना चाहते हैं? फिर सुपर-टैक्स से बची आय में से 28 फीसदी दीजिए। रोड टैक्स और इस तरह के कुछ अन्य शुल्क भी दीजिए। ऐसे में जब जीडीपी के आंकड़े आते हैं तो हम अचरज जताते हैं कि हमारी अर्थव्यवस्था बढ़ क्यों नहीं रही है? हमने तो ‘मेड इन इंडिया’ का इतना खूबसूरत लोगो बनाया है। हमने यह भी कहा कि भारत महान है। इन मूर्ख निवेशकों को हो क्या गया है? वे सब कहां चले गए हैं? हो सकता है वे दुबई में हों, जहां टैक्स दरें शून्य हैं (हां भाई, शून्य) और जहां निवेशकों का स्वागत होता है। या मुमकिन है वे सिंगापुर, हांगकांग या दक्षिण एशिया के किसी देश में हों, जहां कुल टैक्स दरें 10 से 20 फीसदी की रैंज में होती हैं। यह भी हो सकता है कि वे ऐसी किसी जगह पर हों, जहां टैक्स की ऊंची दरें देने में भी उन्हें कोई हर्ज नहीं है, क्योंकि सड़कें अच्छी हैं और सबकुछ बखूबी काम करता है। सबसे बड़ी बात तो यह है कि वे ऐसी जगह हों जहां निवेशकों, कामयाब लोगों, पूंजीपतियों और उद्यमियों को बुरे लोगों के रूप में नहीं देखा जाता, जिन्हें नियमित रूप से सबक सिखाना जरूरी हो ताकि वे अपनी हैसियत में रहें। मैं इस दुखती रग पर ज्यादा जोर नहीं देना चाहता पर मेरे कहने का आशय यह है कि हमारी अर्थव्यवस्था की समस्याएं हमने ही निर्मित की हैं। हमने निवेशक-विरोधी, संपदा निर्माण-विरोधी, उपलब्धि-विरोधी और सफलता-विरोधी संस्कृति इस तरह विकसित की है कि अब ये सारी चीजें हमसे दूर हो गई हैं। जब हमारा सामना संकट से होता है तो हम सिर्फ इतना करते हैं कि कुछ खराब नीतियों को वापस ले लेते हैं तथा कुछ और सरकारी योजनाओं की घोषणा कर देते हैं, जिन्हें और ज्यादा पैसे की जरूरत होती है, जिसके बदले में अचीवर्स से और भी वसूली होती है। यहां कुछ सुझाव हैं, जो अर्थव्यवस्था में रफ्तार भर सकते हैं। ये तुलनात्मक रूप से बड़े कदम है, लेकिन बड़ी समस्याओं का हल छोटी-मोटी कतरब्योंत से नहीं होता।

1. कैपिटल गैन्स टैक्स को हटाएं। निवेशकों को इससे नफरत है। ये भारत में मुनाफे को निवेश की स्पर्धा लायक नहीं छोड़ते। यह राजस्व वसूलने लायक नहीं है।

2. एक जीएसटी और एकदम सरल, कम टैक्स दरें। थोड़े रद्दोबदल से अर्थव्यवस्था का इलाज नहीं होता। जीएसटी दरें बदलने और ऑटो सेक्टर को ‘राहत देने’ से अर्थव्यवस्था को गति नहीं मिलेगी। जीएसटी की एक दर तय करके और कुछ सप्ताहों में इसे बदलने से बाज आए तो, अर्थव्यवस्था में जरूर सुधार होगा। आय और कॉर्पोरेट कर दरों में कोई शुल्क, सरचार्ज या जटिलताएं न हो। जीएसटी और कर दरें कम होनी चाहिए (सारे एशियाई देशों में न्यूनतम), सरल और एकदम फिक्स।

3. मानसिकता बदलें और धनी, उपलब्धियां हासिल करने वालों और पूंजीपतियों को अर्थव्यवस्था को गति देने वालों के रूप में देखें। उनके पास वह पूंजी होती है, जो रिसकर नीचे पहुंचती है, जॉब निर्मित करती है और अर्थव्यवस्था को विस्तार देती है। समानता व निष्पक्षता की झूठी धारणा के तहत इसे नष्ट करने से अर्थव्यवस्था नष्ट होगी। बढ़ती अर्थव्यवस्था में धनी और धनी होंगे तो इससे निपटना होगा। अपना फोकस गरीबों को धनी बनाने पर रखिए, धनी वर्ग को गरीब बनाने पर नहीं।

4. सुरक्षा से जुड़े उद्योग छोड़कर लगभग हर सेक्टर को शत-प्रतिशत विदेशी निवेश के लिए खोल दीजिए। आज की दुनिया में किसी और तरह से इसे करने का कोई कारण नहीं है। भारत का बिज़नेस सबके लिए खुला है।

5. अधिक से अधिक टैक्स वसूली का किसी उपलब्धि की तरह जश्न मनाना बंद कीजिए। निम्न कर दरों के कारण वसूली गिरती है तो गिरने दीजिए। कर वापस लौटेंगे, जब हम कहीं अधिक तेज गति से बढ़ेंगे।

6. महानगरों की दशा सुधारिए। जैसे धनी लोग अर्थव्यवस्था के केंद्र होते हैं वैसे ही महानगर भी होते हैं। यदि वरिष्ठ प्रबंधन, अचीवर, प्रतिभाशाली लोग वहां रहना नहीं चाहेंगे तो हमें उस तरह की आर्थिक वृद्धि नहीं मिलेगी, जो हम चाहते हैं। मुंबई, बेंगलुरू, कोलकाता- व्यस्त समय में वहां का ट्रैफिक आजमाकर देखिए। हम अपने जाम हो चुके महानगरों के कारण अपनी अर्थव्यवस्था जाम कर देते हैं। भारत बहुत आसानी के साथ तेजी से वृद्धि कर सकता है। हमारे समाज में फैली और सरकारी अधिकारियों में जमी बैठी सफलता-विरोधी और संपदा-विरोधी मानसिकता को बदलना होगा। इसने हमेशा ही भारत की आर्थिक वृद्धि को उसकी क्षमता से नीचे रखा है। सिर्फ छेड़छाड़ से काम नहीं चलेगा, बड़ी पहल करनी होगी। हम धनी राष्ट्र होने के हकदार है। आइए, उस दिशा में आगे बढ़ें।


Date:18-09-19

इसलिए जरूरी है समान नागरिक संहिता

हृदयनारायण दीक्षित, (उत्तर प्रदेश विधानसभा के अध्यक्ष हैं)

हम भारत के लोग’ भारतीय राष्ट्र राज्य की मूल इकाई हैं। संविधान की उद्देशिका ‘हम भारत के लोग’ से ही प्रारंभ होती है। इसके अनुसार भारत के लोगों ने ही अपना संविधान गढ़ा है। संविधान निर्माताओं ने प्रत्येक नागरिक को समान मौलिक अधिकार दिए हैं। मूल अधिकार न्यायालय द्वारा प्रवर्तनीय हैं। राष्ट्र राज्य को भी अनेक कर्तव्य सौंपे गए हैं। वे संविधान के भाग-चार में राज्य के नीति निदेशक तत्वों में वर्णित हैं। ये न्यायालय द्वारा प्रवर्तनीय नहीं हैं। इनमें व्यापक राष्ट्रीय आकांक्षा को ही सूचीबद्ध किया गया है।

ग्रेनविल ऑस्टिन ने ठीक लिखा है कि ‘राज्य की सकारात्मक बाध्यताओं की रचना करके संविधान सभा ने भारत की भावी सरकारों को उत्तरदायित्व सौंपे हैं।’ कुछ निदेशक तत्वों पर सकारात्मक काम हुआ है, लेकिन राष्ट्रीय एकता के लिए अपरिहार्य ‘एक समान नागरिक संहिता’ (अनुच्छेद 44) के प्रवर्तन में कोई प्रगति नहीं हुई है। सर्वोच्च न्यायपीठ ने तीखी टिप्पणी की है कि ‘समान नागरिक संहिता लागू करने के लिए अब तक कोई प्रयास नहीं हुआ है।’ न्यायालय ने इसके पहले 2003, 1995 और 1985 में भी संहिता पर जोर दिया था।

संविधान और विधि के प्रति निष्ठा प्रत्येक नागरिक का कर्तव्य है। समान नागरिक संहिता संविधान का भाग है। संविधान का आदर्श भी है। बावजूद इसके सांप्रदायिक कारण से इसका प्रवर्तन राष्ट्र की मुख्य चुनौती है। सर्वोच्च न्यायालय ने चौथी बार ध्यानाकर्षण किया है। उसने गोवा की प्रशंसा की है। गोवा में पंथिक विश्वास के परे समान नागरिक संहिता है। बेशक निदेशक तत्वों के प्रवर्तन में न्यायालय की अधिकारिता नहीं है, लेकिन जीवन स्तर उन्नत करने संबंधी निदेशक तत्व (अनुच्छेद 47) पर अच्छा काम हुआ है।

मोदी सरकार ने इस मोर्चे पर आशातीत प्रगति की है। कुटीर उद्योगों के निदेशक तत्व (अनुच्छेद 43) पर बड़ा काम हुआ है। ग्राम पंचायतें भी इसी सूची (अनुच्छेद 40) में हैं। इसे लेकर तमाम अधिनियम बने हैं। संविधान में संशोधन भी हुआ है। गरीबों में भूमि वितरण (अनुच्छेद 39ख) पर भी बात आगे बढ़ी है। अन्य निदेशक तत्वों पर भी प्रगति हुई है, लेकिन ‘समान नागरिक संहिता’ दूर की कौड़ी है। मूलभूत प्रश्न है कि आखिरकार एक राष्ट्र, एक विधि और एक समान नागरिक संहिता का स्वाभाविक सिद्धांत लागू क्यों नहीं हो सकता?

समान नागरिक संहिता राष्ट्रीय एकता का मूलाधार है। संविधान निर्माता इस तथ्य से परिचित थे। संविधान सभा में इस पर जोरदार बहस हुई थी। संप्रदाय विशेष के सदस्य संहिता को अपने निजी मजहबी कानूनों में हस्तक्षेप मानते थे। वैसे संहिता का प्रवर्तन कोई हस्तक्षेप नहीं था। कानून निजी नहीं होते। दुनिया के सारे कानून राज और समाज की संवैधानिक संस्थाओं से जन्म लेते हैं और उन्हीं पर लागू होते हैं, लेकिन सभा के कुछ सदस्य राष्ट्रीय विधि के निर्माण में निजी कानूनों को ऊपर बता रहे थे।

एक सदस्य मोहम्मद इस्माइल ने कहा, ‘यह उचित नहीं कि लोगों को उनके निजी कानून छोड़ने के लिए मजबूर किया जाए।’ महबूब अली ने कहा कि ‘साढ़े तेरह सौ साल से मुसलमान इसी कानून पर चलते रहे हैं। हम अन्य प्रणाली मानने से इन्कार कर देंगे।’ बी पोकर ने कहा कि ‘अंग्रेजों ने निजी कानूनों को मानने की अनुमति दी थी।’ इस बात को काटते हुए अल्लादि स्वामी अय्यर ने कहा ‘अंग्रेजों ने पूरे देश में एक ही आपराधिक कानून लागू किया। क्या उसे लेकर मुसलमानों ने अंग्रेजों के खिलाफ विद्रोह किया?’

पंथिक विश्वास नितांत निजी आस्था है, लेकिन संविधान सभा में पंथिक विश्वास को निजी कानून की शक्ल में पेश किया गया। कहा गया कि ‘समान नागरिक संहिता अल्पसंख्यकों के विरुद्ध अन्याय है। केएम मुंशी ने कहा कि किसी भी उन्नत देश में अल्पसंख्यक समुदाय के निजी कानून को अटल नहीं माना गया कि व्यवहार संहिता बनाने का निषेध हो।’ उन्होंने तुर्की और मिस्न के उदाहरण दिए कि ‘इन देशों में अल्पसंख्यकों को ऐसे अधिकार नहीं मिले। हमारी महत्वपूर्ण समस्या राष्ट्रीय एकता है। हम वास्तव में एक राष्ट्र हैं। मुस्लिम मित्र समझ लें कि जितना जल्दी हम अलगाववादी भावना को भूलते हैं, उतना ही देश के लिए अच्छा होगा।’

डॉ. आंबेडकर ने कहा, ‘मैं इस कथन को चुनौती देता हूं कि मुसलमानों का निजी कानून, सारे भारत में अटल तथा एकविधि था। 1935 तक पश्चिमोत्तर सीमा प्रांत में शरीयत कानून लागू नहीं था। उत्तराधिकार तथा अन्य विषयों में वर्हां ंहदू कानून मान्य थे। उसके अलावा 1937 तक संयुक्त प्रांत, मध्य प्रांत और बंबई जैसे अन्य प्रांतों में उत्तराधिकार के विषय में काफी हद तक मुसलमानों पर हिंदू कानून लागू था। मैं असंख्य उदाहरण दे सकता हूं। इस देश में लगभग एक ही व्यवहार संहिता है, एकविधि है। इस अनुच्छेद को विधान का भाग बनाने की इच्छा सुधार की है। यह पूछने का समय बीत चुका है कि क्या हम ऐसा कर सकते है?’ इसके बाद मतदान हुआ। संहिता का प्रस्ताव जीत गया। संहिता संविधान का हिस्सा बनी।

समूचा भारत समान नागरिक संहिता के पक्ष में है। आंबेडकर के अलावा डॉ. राममनोहर लोहिया भी इसके समर्थक थे। पर्सनल लॉ की बातें कालवाह्य हो रही हैं। समान नागरिक संहिता का विरोध करने के लिए ही 1972 में मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड बनाया गया था। बोर्ड राष्ट्र सर्वोपरिता में विश्वास नहीं करता। वह विधि सर्वोच्चता का सिद्धांत भी नहीं मानता। इसका विश्वास ‘पर्सनल लॉ’ में है, लेकिन बढ़ते राष्ट्रवाद के कारण इसका प्रभाव नगण्य हो चुका है। कुछेक दल वोट लोभ में संहिता के विरोधी हैं। वे चर्चित शाहबानो मामले में अदालती फैसले के खिलाफ थे। तब उस फैसले को निष्प्रभावी बनाने वाला कानून बना। ऐसे दल राष्ट्रीय महत्वाकांक्षा की तुलना में थोक वोट बैंक को ज्यादा तरजीह देते हैं। वे एक देश में दो तरह के कानूनों के पक्षधर हैं।

भारत बदल रहा है। तीन तलाक पर कानून बन गया है। अनुच्छेद 370 का अलगाववादी प्रेत अब अतीत बन चुका है। राष्ट्र सर्वोपरि अस्मिता है। संविधान भारत का राजधर्म है और भारतीय संस्कृति भारत का राष्ट्रधर्म। प्रत्येक भारतवासी संविधान और विधि के प्रति निष्ठावान हैं। अपने विश्वास और उपासना में रमते हुए संविधान का पालन साझा जिम्मेदारी है। एक देश में एक ही विषय पर दो कानूनी विकल्पों का कोई औचित्य नहीं। आखिरकार एकताबद्ध राष्ट्र में ‘निजी कानून’ का मतलब क्या है। संप्रति नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में देश में आशा और उमंग का माहौल है। राष्ट्रवादी संगठन पहले से ही भारत में ऐसी संहिता के पक्षधर हैं। सर्वोच्च न्यायालय के ध्यानाकर्षण से संहिता पर फिर से विमर्श का अवसर आया है। दलतंत्र राष्ट्रीय अभिलाषा पर ध्यान दें। निजी कानून के आग्रही मित्र देश और काल का आह्वान सुनें। संविधान निर्माताओं की इच्छा का सम्मान करें।


Date:18-09-19

कच्चे तेल का बाजार

संपादकीय

सऊदी अरब के तेल ठिकानों पर ईरान समर्थित हाउती विद्रोहियों के भीषण हमले के बाद कच्चे तेल के दामों में आया उछाल यही बताता है कि पश्चिम एशिया के विभिन्न देशों के बीच का टकराव किस तरह इस क्षेत्र के साथ-साथ पूरी दुनिया के लिए खतरा बनता है। हालांकि सऊदी अरब की इस घोषणा के बाद कच्चे तेल के दामों की बढ़त थमती दिख रही है कि बहुत जल्द तेल का उत्पादन पहले की ही तरह होने लगेगा, लेकिन इसके बावजूद ईरान के खिलाफ अमेरिका के तीखे तेवर दुनिया को चिंतित करने वाले हैैं। जहां सऊदी अरब को यह संदेह भर है कि हाउती विद्रोहियों के ड्रोन हमले के पीछे ईरान का हाथ है वहीं अमेरिकी राष्ट्रपति साफ तौर पर कह रहे हैैं कि यह हमला ईरान की ही कारस्तानी है।

पता नहीं सच क्या है, लेकिन यह ठीक नहीं कि अमेरिका ईरान की घेरेबंदी करने के लिए कोई भी मौका नहीं छोड़ रहा है। हालांकि ईरान के रुख-रवैये की सराहना नहीं की जा सकती, लेकिन कुछ समय पहले अमेरिका ने उसके साथ की गई परमाणु संधि को जिस तरह रद किया उससे यही साबित हुआ कि सऊदी अरब को खुश करने के फेर में वह पश्चिम एशिया को संकट में डालने का भी काम कर सकता है।

अमेरिका को यह आभास होना चाहिए कि उसकी नीतियों से पश्चिम एशिया पहले ही तमाम मुश्किलों से घिर चुका है। इराक और फिर सीरिया की जो तबाही हुई उसके लिए एक बड़ी हद तक अमेरिका की मनमानी नीतियां ही जिम्मेदार हैैं। मुश्किल यह है कि अमेरिकी राष्ट्रपति बिना सोच-समझे कदम उठाने, उन्हें बीच में रोक देने या फिर पीछे हटने की अपनी आदत का परित्याग नहीं कर रहे हैैं। ऐसा करके वह दुनिया के लिए संकट ही पैदा कर रहे हैैं और वह भी ऐसे समय जब वैश्विक अर्थव्यवस्था की हालत ठीक नहीं। चूंकि पश्चिम एशिया तेल बहुल क्षेत्र है इसलिए वहां जब भी अशांति उत्पन्न होती है वह दुनिया भर को प्रभावित करती है।

सबसे अधिक प्रभावित होते हैैं भारत सरीखे वे देश जो पेट्रोलियम पदार्थों की अपनी मांग को पूरा करने के लिए पश्चिम एशिया पर निर्भर हैैं। भारत कच्चे तेल की अपनी जरूरत का 83 फीसदी आयात करता है। कुछ समय पहले तक भारत इराक और सऊदी अरब के अलावा ईरान से बड़ी मात्रा में तेल का आयात करता था, लेकिन अमेरिका की ओर से ईरान पर पाबंदी लगाने के बाद भारत को न चाहते हुए भी उससे तेल खरीदना बंद करना पड़ा। भारत को अमेरिका के समक्ष यह स्पष्ट करना चाहिए कि वह उसकी ऊर्जा जरूरतों की परवाह करके ही अपने मित्रता धर्म का निर्वाह कर सकता है।


Date:18-09-19

रोजगारपरक उद्योगों को मिले बढ़ावा

जीएन वाजपेयी, (सेबी व एलआईसी के पूर्व चेयरमैन हैं)

भारत ने 1947 में आजादी हासिल की। इसके बावजूद करोड़ों भारतीय अभी भी आर्थिक उत्थान की बाट जोह रहे हैं। ऐसे में ‘सबका साथ, सबका विकास जैसा नारा प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के व्यापक दृष्टिकोण को दर्शाता है। उनके सभी कार्यक्रम मसलन जनधन, आधार, शौचालय, मुफ्त रसोई गैस और बिजली कनेक्शन, सबके लिए आवास, किसान सम्मान, मुद्रा, आयुष्मान भारत, सामाजिक सुरक्षा आवरण और पेंशन इत्यादि का लक्ष्य लोगों को गरीबी की जद से बाहर निकालना है। मुझे इन योजनाओं से जुड़ी कुछ बैठकों में भाग लेने का अवसर मिला है। एक बार साउथ ब्लॉक के गलियारों में प्रधानमंत्री से बातचीत का अवसर भी मिला। वह गरीबी को खत्म करने के बारे में सोचते रहते हैं।

देश में दृढ़ राजनीतिक इच्छाशक्ति के बिना आर्थिक स्वतंत्रता सुनिश्चित नहीं की जा सकती। राजनीतिक इच्छाशक्ति का संबंध सत्तारूढ़ दल और उसके नेता की ताकत और प्रतिबद्धता से होता है। भारत का आर्थिक उत्थान 2014 और 2019 में मोदी के चुनाव प्रचार अभियान के केंद्र में था। मतदाताओं ने भी पूर्ण बहुमत और मजबूत नेता के पक्ष में मतदान किया। प्रधानमंत्री मोदी ने अगले पांच वर्षों के दौरान भारतीय अर्थव्यवस्था को पांच ट्रिलियन डॉलर के स्तर पर ले जाने का लक्ष्य रखा है। अनेक अर्थशास्त्री, टिप्पणीकार और विपक्षी नेता इस लक्ष्य का उपहास उड़ा रहे हैं। उन्होंने 2014 में 272 सीटों और 2019 में 300 सीटों का लक्ष्य रखा और उससे अधिक की प्राप्ति यही दर्शाती है कि वर्ष 2024 तक उनका यह संकल्प भी पूरा हो सकता है। अर्थशास्त्रियों का मानना है कि अर्थव्यवस्था की वृद्धि विविध पहलुओं पर निर्भर करती है। इनमें घरेलू और विदेशी, दोनों कारक भूमिका निभाते हैं।

राजनीतिक सफलता दिलाने वाले कारकों से इनकी भूमिका एकदम अलग होती है। प्रबंधन का पहला सिद्धांत होता है कि कोई लक्ष्य तय किया जाए। इस लिहाज से उन्होंने यह कर लिया है। फिलहाल भारतीय अर्थव्यवस्था कुछ चुनौतियों से जूझ रही है। कुछ ढांचागत एवं चक्रीय पहलू भी उसकी राह में परेशानी खड़ी कर रहे हैं। ऐसे माहौल में अर्थव्यवस्था को ऊंची वृद्धि के दौर में दाखिल करना खासा जटिल काम है। इस मामले में सरकार को वैसा ही दृढ़ संकल्प दर्शाना होगा, जैसा उसने तीन तलाक को समाप्त करने और अनुच्छेद 370 एवं 35ए को हटाने में दिखाया।

मांग में सुस्ती और निवेश में ठहराव को दूर करने के लिए सरकार को कुछ साहसिक फैसले करने होंगे। इसके लिए ढांचागत सुधारों के साथ ही कुछ तात्कालिक कदम उठाने होंगे। ढांचागत सुधारों में भूमि एवं श्रम सुधारों के साथ ही सरकारी बैंकों के विनिवेश जैसे कुछ अनछुए पहलुओं पर काम करने की दरकार होगी ताकि निवेश के गुणात्मक प्रभाव को बढ़ाया जा सके। उत्पादकता को बढ़ाना ही सभी ढांचागत सुधारों के मूल में होना चाहिए। उत्पादकता ही ऊंची जीडीपी वृद्धि को दिशा देती है और यहां तक कि अपेक्षाकृत कमजोर निवेश के बावजूद यह तरीका कारगर होता है। कराधान सहित प्रत्येक नीतिगत मोर्चे पर स्पष्टता एवं निरंतरता भी सुनिश्चित करनी होगा। इस कड़ी को मजबूत करने से संस्थागत एवं विदेशी निवेशकों का भरोसा हासिल किया जा सकता है।

मौजूदा आर्थिक सुस्ती से निपटने के लिए सरकार का खास ध्यान उन उद्योगों को उबारने के इर्द-गिर्द केंद्रित होना चाहिए जो बड़े पैमाने पर रोजगार सृजन करते हैं या अन्य उद्योगों को प्रभावित करने की क्षमता रखते हैं। इनमें कृषि, भवन निर्माण, बुनियादी ढांचा, खाद्य प्रसंस्करण, स्वास्थ्य देखभाल, पर्यटन, रत्न एवं आभूषण और वाहन जैसे तमाम अन्य क्षेत्र शामिल हैं। फिलहाल ये सभी क्षेत्र मंदी की जकड़ में हैं। इन सभी के मर्ज के लिए इलाज की कोई एक ही पुड़िया नहीं है। मंदी के शिकंजे से बाहर निकालने के लिए प्रत्येक क्षेत्र की मदद के लिए प्रभावी उपाय करने होंगे। इन क्षेत्रों की वृद्धि से रोजगार के लाखों-लाख अवसर सृजित होंगे। इससे समग्र्र मांग में व्यापक रूप से इजाफा होगा। यह सीमेंट, इस्पात और अन्य सामग्र्री से संबंधित क्षेत्रों को भी फायदा पहुंचाएगा। इस कवायद में जहां वित्त मंत्रालय समन्वयक की भूमिका निभा सकता है, वहीं क्षेत्र विशेष से जुड़े मंत्रालय को ही कायाकल्प का पूरा जिम्मा संभालना होगा।

नौकरशाही और न्यायिक प्रक्रियाओं ने उत्पादकता की राह में गंभीर अवरोध पैदा किए हैं। 1990 के दशक में हुए आर्थिक सुधारों के चलते उदारीकरण और निजीकरण की बयार ने हालात बदलने का काम किया। इससे पूंजी और निवेश का एक अहम सिलसिला कायम हुआ। पूंजी और निवेश जैसे दो अहम स्तंभों का आधार फैसलों को सक्षम रूप से लागू करने पर टिका है। निवेश करते समय निवेशक जिन जोखिमों का आकलन करते हैं, उन्हें लेकर वे समायोजन जरूर कर सकते हैं, लेकिन करार को मूर्त रूप देने और परियोजनाओं में अनिश्चितता गवारा नहीं कर सकते। किसी भी नीति को जमीन पर साकार होने में कुछ वर्ष, यहां तक कि अक्सर दशक भी लग जाते हैं। भारत में तो यह चुनौती और बड़ी हो जाती है। इससे लागत बढ़ती जाती है, फायदा घटता जाता है और आर्थिक बोझ बढ़ जाता है।
अगर सांकेतिक जीडीपी वृद्धि आठ प्रतिशत हो तो 15 प्रतिशत की सांकेतिक वृद्धि के आधार पर अनुमानित राजस्व प्राप्तियों की उम्मीद नहीं की जा सकती। ऐसे में परिसंपत्तियों को भुनाने की तत्काल जरूरत महसूस होती है। टुकड़ों में बिक्री या स्वामित्व के मोर्चे पर बाजीगरी से काम नहीं चलने वाला। इसके बजाय रणनीतिक विनिवेश की राह अपनानी होगी।

सरकार को बुनियादी ढांचा क्षेत्र में निवेश के लिए खजाने का मुंह खोलना होगा। यह इसलिए जरूरी है ताकि इस निवेश का असर चालू वित्त वर्ष में ही महसूस हो और मंदी पर काबू पाया जा सके। यदि लगे तो राजकोषीय अनुशासन के मामले में कुछ छूट ली जा सकती है, लेकिन यह केवल बुनियादी ढांचा क्षेत्र में निवेश की शर्त पर ही हो। वैसे भी यह क्षेत्र शिद्दत से सुधार का इंतजार कर रहा है और इसमें अर्थव्यवस्था को व्यापक रूप से फायदा पहुंचाने की विपुल संभावनाएं हैं। कारों की खरीद को प्रोत्साहन देने से पहले सरकार को सड़कें बनाने में निवेश करना चाहिए।

प्रधानमंत्री को संवाद स्थापित करने की कला में महारत हासिल है। अपने इस कौशल का उपयोग उन्हें सभी क्षेत्रों के उद्यमियों और निवेशकों का प्रत्येक मोर्चे पर हौसला बढ़ाने में करना होगा। उन्हें ‘आधुनिक भारत का सपना इस तबके के बीच लोकप्रिय बनाना होगा। इस साल 15 अगस्त को पीएम मोदी ने लाल किले की प्राचीर से कहा था कि संपत्ति सृजित करने वालों का सम्मान करना होगा। प्रधानमंत्री को यह आश्वस्त करना होगा कि वास्तविक गलतियां और नुकसान स्वीकार्य होंगे तथा कानूनी ढंग से कमाई स्वागतयोग्य है। देश मोदी पर भरोसा करता है। निश्चित रूप से वह इन उम्मीदों पर खरे भी उतरेंगे।


Date:17-09-19

विशेष त्वरित अदालतें

संपादकीय

महिलाओं और बच्चों के खिलाफ अपराध के मामलों के विशेष न्यायालयों के गठन की ओर केंद्र सरकार की पहल स्वागतयोग्य है। सामान्य न्यायालयों में इन अपराधों की सुनवाई अन्य अपराधों की तरह होने से फैसले में काफी देर होती है और इसमें कई बार अपराधियों के बच निकलने की स्थिति भी तैयार हो जाती है। केंद्रीय कानून मंत्रालय के तहत न्याय विभाग द्वारा तैयार किए एक प्रस्ताव में महिलाओं और बच्चों के खिलाफ अपराध के मामलों की सुनवाई में तेजी लाने के लिए कुल 1,023 विशेष त्वरित अदालतों की स्थापना की बात कही गई है। हमारे पास जो आंकड़ा उपलब्ध है, उसके अनुसार देश में ऐसे 1 लाख 66 हजार 882 से अधिक मुकदमे लंबित हैं। जाहिर है, अगर इन मामलों की सुनवाई विशेष न्यायालयों में त्वरित गति से नहीं हो तो फिर संख्या बढ़ती जाएगी। सरकार ने बच्चों के प्रति अपराधों के कानूनों में बदलाव लाकर काफी सख्त सजा का प्रावधान कर दिया है, किंतु इसकी प्रासंगिकता तभी है, जब अपराधियों को सजा हो। इस नाते विशेष न्यायालय जरूरी है। गुणा भाग करके यह माना गया है कि प्रत्येक विशेष न्यायालय द्वारा हर साल कम-से-कम ऐसे 165 मामलों का निपटारा किया जा सकता है। ऐसा हुआ तो कुल 1023 विशेष त्वरित न्यायालय लंबित मामलों का एक वर्ष के अंदर निपटारा कर देंगे। ध्यान रखिए, सर्वोच्च न्यायालय ने भी सरकार से इसके लिए विशेष न्यायालयों की स्थापना करने के लिए कहा था। उसका ध्यान रखते हुए इन 1023 में से 389 न्यायालय खासतौर से ‘‘यौन अपराधों से बच्चों का संरक्षण (पॉक्सो) अधिनियम के तहत दर्ज मामलों की सुनवाई करेंगी। इसका कारण यह है कि इन 389 जिलों में पॉक्सो कानून के तहत दर्ज मामलों की संख्या 100 से अधिक है। शेष 634 न्यायालय या तो बलात्कार के मामलों या पॉक्सो कानून के मामलों की सुनवाई करेंगी। चूंकि इन न्यायालयों में अन्य मामलों की सुनवाई नहीं होंगी, इसलिए ये स्वयं गंभीर मामलों की छंटनी कर उनको प्राथमिकता में सुनने के लिए स्वतंत्र होंगी। इस प्रस्ताव के अमल में आने के साथ महिलाओं और बच्चों के साथ न्याय के वास्तविक नये युग की शुरु आत होगी। जिस तरह से महिलाओं और बच्चे-बच्चियों के प्रति सामान्य और जघन्य अपराधों में वृद्धि हुई है, उसे देखते हुए पूरा कानूनी ढांचा इसके लिए खड़ा करना जरूरी है।


Date:17-09-19

शांति की ओर

संपादकीय

देश के किसी भी इलाके में हिंसा रोकने के प्रति भारत सरकार की सजगता और वहां के लोगों की सुप्रीम कोर्ट में सुनवाई, दोनों ही भारतीय लोकतंत्र की सदैव स्वागतयोग्य विशेषताएं हैं। इस देश की व्यवस्था विधायिका, कार्यपालिका और न्यायपालिका की संयुक्त जिम्मेदारी है। समय-समय पर ये तीनों एक-दूसरे को प्रेरित-संशोधित करते रहे हैं और देश में संविधान के साये में लोकतंत्र प्रशंसनीय रूप में पलता आ रहा है। स्थापित व्यवस्थाओं के तहत ही सुप्रीम कोर्ट ने जम्मू-कश्मीर की स्थिति के बारे में सरकार से दो सप्ताह में जवाब मांगा है, तो यह स्वाभाविक है। कश्मीर में केंद्र सरकार की सावधानी के 40 दिन बीत चुके हैं।

इसमें कोई शक नहीं कि कोई भी व्यक्ति सुप्रीम कोर्ट में गुहार लगा सकता है। जम्मू-कश्मीर के संबंध में केंद्र सरकार से असहमत लोग सुप्रीम कोर्ट का दरवाजा खटखटा रहे हैं, तो कोई आश्चर्य नहीं। न्यायालय की मंशा स्पष्ट है, वह जम्मू-कश्मीर में जल्द से जल्द सामान्य जिंदगी की बहाली चाहता है। केंद्र सरकार भी यही चाहती है और अब समय आ गया है, जब जम्मू-कश्मीर की सुलझी हुई सभ्य राजनीतिक आवाजों को सक्रिय होने का मौका दिया जाए। कांग्रेस के वरिष्ठ नेता गुलाम नबी आजाद को अपने घर-परिवार से मिलने जाने देने की इजाजत इस दिशा में उठाया गया सराहनीय कदम है।

सुप्रीम कोर्ट में सोमवार को हुई सुनवाई के दौरान कुछ और चीजें भी स्पष्ट हुई हैं। न्यायालय में जम्मू-कश्मीर के पूर्व मुख्यमंत्री फारूक अब्दुल्ला को विशेष जन सुरक्षा कानून के तहत गिरफ्तार बताया गया है। इस कानून का इस्तेमाल कोई पहली दफा नहीं हुआ है। फारूक के पिता शेख अब्दुल्ला भी इस कानून के तहत बंद रहे हैं। सरकार ने यह भी कहा है कि घाटी में अखबार निकल रहे हैं, दूरदर्शन सहित सारे चैनल वहां काम कर रहे हैं।

कश्मीर में 88 प्रतिशत थाना क्षेत्रों में पाबंदी नहीं है। अपने जवानों और आम नागरिकों की केंद्र सरकार को चिंता है। इसके अलावा सुप्रीम कोर्ट में केंद्र सरकार ने यह भी याद दिलाया है कि वर्ष 2016 में भी एक कुख्यात आतंकवादी की मौत के बाद जम्मू-कश्मीर में तीन महीने फोन और इंटरनेट बाधित रहा था। याचिकाकर्ता की एक बड़ी शिकायत यह थी कि जम्मू-कश्मीर में उच्च न्यायालय तक पहुंचना आसान नहीं है। इसे प्रधान न्यायाधीश ने काफी गंभीरता से लेते हुए उच्च न्यायालय से रिपोर्ट मांगी है और कहा है कि जरूरत पड़ी, तो वह स्वयं श्रीनगर जाएंगे। हालांकि सरकार का यही कहना था कि कश्मीर में सभी अदालतें और लोक अदालतें अपना काम कर रही हैं। सुप्रीम कोर्ट की सक्रियता केंद्र सरकार के लिए प्रेरक साबित होनी चाहिए, वहां जल्द ही सामान्य जीवन की बहाली हो।

संविधान के तहत अदालत में की गई ऐसी कोशिशों से भारतीय लोकतंत्र ही मजबूत होगा। उम्मीद है कि सुप्रीम कोर्ट भी केंद्र के दबावों और उसकी मजबूरियों को समझेगा। सावधानी समय की मांग है, कहीं ऐसा न हो कि घाटी में पाबंदियों में ढील दी जाए और वहां हिंसा का नया दौर शुरू हो। सरकार को एक कदम आगे बढ़कर हरसंभव प्रयास करने होंगे कि इस दिशा में कश्मीरी भी अपने दायित्व को समझें। किसी को भी अपनी बात रखने के लिए पत्थरों और बंदूकों की कतई जरूरत न पड़े और भारतीय संविधान के तहत ही शांति आए और विकास हो।


Date:17-09-19

क्षमता और कार्रवाई

संपादकीय

सऊदी अरब के दो ऑयल क्षेत्र- अबकैक और खुराइस की अरामको रिफाइनरी पर हुए कायरतापूर्ण आतंकी हमले के बाद एक मजबूत अरब और अंतरराष्ट्रीय प्रतिक्रिया संभावित है। प्राथमिक रूप से राजशाही चिंतित है, क्योंकि आतंकियों ने सऊदी भूमि और तेल सुविधाओं को निशाना बनाया है।

वैसे यह केवल राजशाही नहीं, बल्कि पूरी दुनिया के लिए चिंता का विषय है कि तेल क्षेत्र जैसे महत्वपूर्ण ठिकाने पर हमला किया गया है। यह इस्लामी दुनिया पर किया गया हमला तो है ही, साथ ही, यह तेल के आयात-निर्यात से निरंतर प्रभावित होने वाली विश्व अर्थव्यवस्था पर भी हमला है। दुनिया में इसके राजनीतिक और आर्थिक, दोनों तरह के नतीजे होने हैं। राजशाही ही तेल क्षेत्रों की संरक्षक है और उसमें बचाव की पूरी क्षमता है।

इस तरह के कायर आतंकवादी हमले के बाद राजशाही को कमजोर नहीं पड़ना चाहिए। इन हमलों के नतीजों से निपटने की राजशाही को शक्ति और प्रेरणा मिले। अमेरिकी राष्ट्रपति के साथ अपने फोन कॉल में क्राउन प्रिंस ने यह भी दावा किया कि राजशाही के पास इस आतंकवादी आक्रमण का सामना करने और इससे निपटने की इच्छाशक्ति व क्षमता है।

शुक्र है, राजशाही का विश्वास कम नहीं हुआ है, वह अपने क्षेत्र और अपने लोगों का बचाव कर सकती है। यमन में सऊदी नेतृत्व वाले गठबंधन के प्रवक्ता ने घोषणा की है, हमले वाली जगह पर जो सुबूत मिले हैं, उनकी शुरुआती संयुक्त जांच कर ली गई है। संयुक्त जांच दल इस आतंकवादी हमले के लिए जिम्मेदार आतंकियों की पहचान करने की कोशिश में जुटा है।

यह घोषणा इंगित करती है कि आतंकवादी हमले के दोषियों और उन्हें समर्थन देने वालों की पहचान करने के लिए गहन कोशिशें जारी हैं। अमेरिकी विदेश मंत्री माइक पोम्पिओ ने साफ कहा है, ‘सऊदी अरामको तेल रिफाइनरी पर हमले के पीछे ईरान है।’ उन्होंने कहा कि ईरान इस क्षेत्र में अधिकांश आतंकवादी गतिविधियों के लिए जिम्मेदार है, और यह सबको पता है। यह प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से सक्रिय रहा है और उसकी यह कारस्तानी हमेशा नहीं जारी रह सकती।


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