कृषि से जुड़े कुछ कड़वे सच
Date:11-02-19 To Download Click Here.
वर्तमान में, खाद, बिजली, फसल बीमा एवं अन्य अनेक तरीकों से किसानों को लगभग 2.2 खरब रुपये की सब्सिड़ी दी जा रही है। इसके साथ हमने ऊपज की खरीद का एक लंबा-चैड़ा कार्यक्रम तय कर रखा है। 75 प्रतिशत ग्रामीण जनता को खाद्य पदार्थों में भारी सब्सिडी दी जा रही है। गांवों में 150 दिन की रोजगार गारंटी योजना चला रही है। उज्जवला योजना के माध्यम से निःशुल्क एलपीजी कनेक्शन दिए जा रहे हैं। 14 वर्ष तक के बच्चों को निःशुल्क शिक्षा दी जा रही है। और अब आयुष्मान भारत के माध्यम से स्वास्थ्य सेवाओं में भी विस्तार कर दिया गया है।
सात दशकों की इस विकास-यात्रा के बावजूद किसानों का असंतोष खत्म होने का नाम नहीं ले रहा है। आखिर ऐसा क्यों है, और इसके लिए क्या किया जाना चाहिए?
- स्वतंत्रता के बाद के चार दशक तो भारत ने अस्त-व्यस्त नीतियां बनाकर बर्बाद कर दिए हैं। यही कारण है कि अभी तक प्रति व्यक्ति आय इतनी कम रही है।
- इस समस्त अवधि में उद्येगों और सेवाओं की तुलना में कृषि में विकास गति बहुत धीमी रही है। 1951-52 से लेकर 2016-17 तक, उद्योगों की औसत वार्षिक विकास दर 6.1 प्रतिशत, सेवाओं की 6.2 प्रतिशत और कृषि की केवल 2.9 प्रतिशत रही है। विकास दर की इस असमानता के कारण सकल घरेलू उत्पाद में कृषि का प्रतिशत 1951-52 के 53.1 की तुलना में 2016-17 में गिरकर 15.2 प्रतिशत रह गया है।
इस प्रकार की विकास दर का चलन पूरे विश्व में है। यह असमान्य नहीं है। जिन देशों ने अपनी प्रति व्यक्ति आय में बहुत बढ़ोत्तरी कर ली है, उन देशों के सकल घरेलू उत्पाद में कृषि का प्रतिशत न्यून ही है; जैसे-कोरिया में 2 प्रतिशत, ताईवान में 1.6 प्रतिशत तथा अमेरिका और जापान में 1 प्रतिशत।
- भारत के साथ विडंबना यह है कि हमने जीडीपी में कृषि के घटते आंकड़ों के साथ-साथ इस पर रोजगार की निर्भरता को कम नहीं किया है। विश्व के देशों जैसे कोरिया में कृषि रोजगार मात्र 5 प्रतिशत, ताईवान में 3.5 प्रतिशत, अमेरिका में 2 प्रतिशत ही है। हमारे देश में यह निर्भरता अभी भी 45 प्रतिशत है।
अतः देश के कृषि-क्षेत्र में प्रति श्रमिक उतपादन, देश के सकल घरेलू उत्पाद में प्रति श्रमिक का केवल एक तिहाई है। यह स्वयं में बहुत कम है।
खेतों के आकार छोटे हो गए हैं। इन छोटे खेतों से प्रति श्रमिक उत्पादन कम होना स्पष्ट है।
- विपणन व्यवस्था में सुधार के प्रयास असफल रहे हैं। कुछ धनी व्यापारियों से लेकर बहुत सारे किसानों के बीच पुनर्वितरण करने की व्यवस्था से कुछ नहीं हो सकता।
- उत्पादन में बढ़ोत्तरी करके कोई लाभ नहीं है। भारत में पर्याप्त अन्न भंडार है। इसमें बढ़ोत्तरी करके विपणन और भंडारण की चुनौतियां ही खड़ी होंगी। देश में इन्हें खपाने के लिये कीमतें कम करनी पड़ेगी। निर्यात करने पर न्यूनतम समर्थन मूल्य जैसी सब्सिडी के कारण प्रतिकारी ड्यूटी अदा करनी पड़ेगी।
- विविधता लाने का प्रयत्न किया जा सकता है। परन्तु फल, सब्जियां एवं पशुपालन से थोड़े से ही किसानों का उद्धार हो सकता है। इनके प्रसंस्करण और निर्यात के बाद भी किसानों को ज्यादा लाभ नहीं होगा।
किसानों को ऋण माफी के मायाजाल में ऊलझाकर उनकी समस्याओं का समाधान नहीं किया जा सकता। कठोर सच्चाई यह है कि थोड़े से उत्पादन को बांटने वाले बहुत हैं, और कोई ऐसा हल नहीं है, जो एक साथ और एकदम से किसानों की बदहाली को दूर कर सके।
हमें किसानों के जीवन में व्यवस्थित रूप से परिवर्तन लाना होगा। कुछ नीतियों के द्वारा सीमांत कृषकों को इस रोजगार से बाहर लाया गया है। इसे जारी रखना होगा। साथ ही श्रम आधारित उद्योगों और सेवाओं का इस प्रकार से विस्तार करना होगा कि कृषकों को इनमें रोजगार दिया जा सके।
‘द टाइम्स ऑफ इंडिया’ में प्रकाशित अरविंद पनगढ़िया के लेख पर आधारित। 10 जनवरी, 2019