स्वतंत्र देश के स्वतंत्र नागरिक ?

Afeias
11 Sep 2018
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Date:11-09-18

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भारत की स्वतंत्रता की 71वीं वर्षगांठ के साथ ही एक चुभता हुआ प्रश्न मन-मस्तिष्क में उभरकर आता है कि हम 15 अगस्त, 1947 को अधिक स्वतंत्र थे या अब हैं? यह चुभता हुआ प्रश्न हमारे उन राष्ट्रवादियों के लिए है, जो यह मानते हैं कि हम स्वतंत्र हैं। इसको परखने की शुरूआत हम बड़े-बड़े लोगों से करते हैं। इनमें नेता सबसे पहल आते हैं। वर्तमान परिस्थितियों में जन-प्रतिनिधियों को उनके आकाओं द्वारा हांका जाता है। इससे भी ऊपर अच्छी हांक की नेता वर्ग में प्रशंसा भी की जाती है। इसके बावजूद कोई भी अपने रेवड़ में से भागने का प्रयत्न करे, तो उसको अनुशासित करने के लिए ‘व्हिप’ की भी व्यवस्था है।

यहाँ यह बताना अनिवार्य सा लगता है कि ‘व्हिप’ की प्रथा ग्रेट ब्रिटेन से ली गई है, और इसे हमारे देश में अनुदार और अप्रजातांत्रिक माना गया है। यह कैसी विडंबना है कि पिछली शताब्दी के प्रारंभिक दशकों में पृथ्वी के विशालतम साम्राज्य से टक्कर लेने वाले भारतीय नताओं को विचारों और अभियानों की स्वतंत्रता आज की तुलना में अधिक थी। उस काल में कट्टरपंथी भी थे, और वामपंथी भी; उदारवादी भी थे और अतिवादी भी; गांधीवादी भी थे और क्रांतिकारी भी। ये सभी दल अपने-अपने विचार खुलकर प्रकट करते थे, और उन पर अमल भी करते थे। नेताजी का महात्मा गांधी से विरोध रहता था। उन्होंने तो काँग्रेस के अध्यक्ष पद के लिए एक बार गांधीजी के उम्मीदवार को चुनौती तक दे डाली थी।

क्या आज किसी काँग्रेसी नेता में हिम्मत है कि वह सोनिया या राहुल के प्रभुत्व को चुनाती दे सके? क्या भाजपा में ऐसा कोई वातावरण है, जिसमें प्रधानमंत्री मोदी के नेतृत्व या अमित शाह के निर्णय के विरूद्ध बोला जा सके? वर्षों के अथक प्रयास से हमारे नेताओं ने देश को तो आजाद कर दिया, परन्तु अपनी आजादी को अपनी ही पार्टी के प्रबंधकों के हाथों गिरवी रख दिया है। यही हाल देश के उद्योगपतियों का है। एक समय था, जब जमनालाल बजाज जैसे उद्योगपति गुलाम देश में भी स्वतंत्रता से रहते थे। वे महात्मा गांधी के निकट सहयोगी थे। उन्होंने मजिस्ट्रेट और रायबहादुर की मानद उपाधियों का त्याग दिया था, और ब्रिटिश सरकार की आज्ञा मानने से इंकार कर दिया था। उन्होंने 1921 के असहयोग आंदोलन, 1929 में साइमन कमीशन के विरोध, 1930 में नमक सत्याग्रह एवं 1941 में युद्ध विरोधी अभियान में भाग लिया था।

उनकी ही तरह के जी.डी. बिड़ला जैसे अन्य उद्योगपतियों ने भी उनका अनुसरण करते हुए गांधीजी का साथ दिया। इन उद्योगपतियों और कांग्रेस के संबंध गोपनीय नहीं थे। फिर भी उन उद्योगपतियों पर कोई आँच नहीं आई। लेकिन क्या आज किसी उद्योगपति में इतना दम है कि वह खुलेआम विरोधी राजनैतिक दल का समर्थन कर सके? अमेरिका में ऐसा होना संभव है। वहाँ के एक अरबपति जार्ज सोरोस ने राष्ट्रपति ट्रंप को आत्म-प्रशंसक कहा है; वह भी ऐसा, जो विश्व को नष्ट करना चाहता है। वहाँ अकेले सोरोस ही ऐसे व्यवसायी नहीं हैं, जो इस प्रकार की राजनीतिक टिप्पणी करने की हिम्मत रखते हैं और भी हैं।

इस संदर्भ में यह कहना आवश्यक है कि भारतीय व्यवसायी स्वार्थी या संकीर्ण विचारों वाले ऐसे व्यक्ति नहीं हैं, जो सिर्फ अपने व्यवसाय और लाभ की चिन्ता करके चुप रहना श्रेयस्कर समझते हों। बल्कि नेताओं की तरह इन्हें भी पालतू बना लिया गया है। अगर देश के दिग्गजों का यह हाल है, तो आम जनता की हालत का अंदाजा लगाया जा सकता है। उसके लिए तो स्वतंत्रता की परिधि रोज ही छोटी होती जा रही है। स्वतंत्रता के दो मुख्य घटक होते हैं : अभिव्यक्ति और आस्था की स्वतंत्रता; तथा कार्य करने की स्वतंत्रता। पहली स्वतंत्रता के अंतर्गत किसी कलाकार को अपनी कला का प्रदर्शन करने, लेखक को लिखने, फिल्मकार को फिल्म बनाने आदि की स्वतंत्रता आती है। इससे यदि किसी को बुरा लगता है या भावना आहत होती है, तब भी इस स्वतंत्रता को बाधित नहीं किया जाना चाहिए। दूसरे प्रकार की स्वतंत्रता में आर्थिक या यौन संबंधी गतिविधियां आदि आती हैं। अगर ये दूसरे को हानि पहुँचाती है, तो इसे जरूर रोका जाना चाहिए।

ब्रिटिश काल में किसी को भी कुछ भी लिखने, चित्र या फिल्म बनाने की पूरी छूट थी; जब तक कि वह ब्रिटिश शासकों के लिए परेशानी का कारण न बने। अब तो नेता और उनके चमचे हर उस तथ्य पर प्रतिबंध की मांग करने लगते हैं, जो उनके अनुकूल नहीं होता। ‘दूसरे की भावना को आहत करने वाला’ बताकर किसी भी चीज को गैरकानूनी करार दिया जाता है। सरकार तो सोशल मीडिया को भी नियंत्रित करना चाहती थी, परन्तु उच्चतम न्यायालय ने ऐसा होने नहीं दिया। गरीबों की मदद के नाम पर किसानों, उद्यमियों और व्यवसायियों को अनेक नियंत्रणों और लालफीताशाही में उलझाकर लूटा जाता है। इसका ताजा उदाहरण ई-कामर्स पर प्रस्तावित नियम हैं। महाराष्ट्र सरकार तो मल्टीप्लेक्स की कार्यप्रणाली को भी नियंत्रित करना चाह रही है। इन सब स्थितियों के साथ स्वतंत्रता दिवस यानि 15 अगस्त, 1947 और आज की स्वतंत्रता की तुलना के विषय में क्या कहा जा सकता है?

‘द टाइम्स ऑफ इंडिया’ में प्रकाशित रविशंकर कपूर के लेख पर आधारित। 14 अगस्त, 2018

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