09-12-2025 (Important News Clippings)

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09 Dec 2025
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Date: 09-12-25

Big Breaking

Monopolies are bad, but whether, and when, to break them up are questions with no easy answers

TOI Editorials

When is a business too big for public good? It’s not a rhetorical question. We’ve just been through a week when an airline with almost 65% market share practically grounded the whole country. In the same week, the world’s largest streaming service sealed a deal to buy one of America’s biggest media companies, prompting Trump to caution that their combined market share “could be a problem”.

Although philosophers from the time of Adam Smith, and govts, have weighed in on the question of market dominance for centuries, there’s no easy formula to compute the threshold of unacceptability – the point at which a business’s dominance becomes socially or nationally undesirable. India’s MRTP Act drew the line at 25% market share, and it was a flawed piece of legislation, happily repealed now. All it proved was that monopoly cannot be measured by numbers alone. For example, even if 100% of the world’s Rubik’s Cubes were made by just one firm, it wouldn’t be a case for antitrust action. Because Rubik’s Cubes aren’t a necessity. But only one firm making all of the world’s sugar would indeed be a problem.

Monopolies, of course, need not be private. British India’s monopoly on salt comes to mind. It became a rallying cry under Gandhi. One of America’s most famous antitrust actions was against John Rockefeller’s Standard Oil, which at one point controlled 90% of US oil production and distribution. In 1911, US supreme court ordered it broken up into 34 independent companies. But only after its market-distorting size had done some good – Standard laid a nationwide pipeline network that reduced transportation costs. Likewise, US allowed telecom monopoly AT&T to persist untouched till1982 because it was needed to achieve universal service.

Monopolies are, no doubt, bad in the long run. They hurt customers with higher prices and reduced choice. What’s worse, they stifle innovation. If the competition cannot survive, how will it bring better products to market? But which monopoly to tackle, and when, are decisions best taken with an ear to the ground. In the IndiGo case, DGCA remained unresponsive to the airline’s inertia on new regulations. So, it was equally a regulatory failure, and an avoidable crisis. That’s why greater vigilance of monopolies – as the West has done with Microsoft, Google, Meta, etc, at different points – is vital. When that fails, the Standard Oil treatment becomes necessary.


Date: 09-12-25

हमें कायदे-कानून तो पता हैं, लेकिन पालन क्यों नहीं करते

संपादकीय

इंडिगो संकट अभी खत्म नहीं हुआ था कि गोवा के एक नाइट क्लब में भीषण आग से 25 लोगों की मृत्यु हो गई। दोनों घटनाएं न हों इसके लिए समुचित कानून थे, उन्हें अमल में लाने वाली रेगुलेटरी और प्रवर्तक एजेंसियां भी थीं और जिन्हें अमल में लाना था, उन्हें इनकी जानकारी भी थी। लेकिन न तो उन्होंने कानून या नियम की परवाह की, ना ही एजेंसियों ने शक्ति का प्रयोग कर उन्हें अनुपालन के लिए मजबूर किया। इंडिगो विवाद के बाद पता चला कि एयरलाइंस के लिए नए फ्लाइट ड्यूटी टाइम सीमा नियम दो साल पहले जारी किए गए थे, लेकिन इस सबसे बड़ी एयरलाइंस की दोनों वार्षिक रिपोट्र्स में इसका कहीं भी जिक्र नहीं था। डीजीसीए उसकी ताकत के आगे इतनी बेबस थी कि अनुपालन तो दूर, उसे समय पर समय देती गई। वहीं गोवा के क्लब में अग्निकांड की घटना के बाद पता चला कि क्लब भवन गैरकानूनी था, अग्निशमन विभाग से एनओसी नहीं थी, शराब बेचने की मंजूरी नहीं थी और संकट में बाहर निकलने का रास्ता भी नहीं था। इन दोनों घटनाओं के बाद सरकार ने तत्परता से जांच समितियां बैठाई और जल्दी रिपोर्ट देने को कहा। लेकिन क्या वजह है कि दो साल से एयरलाइंस फ्लाइट्स तो बढ़ाती रही लेकिन पायलट्स की संख्या नहीं? और क्या कारण था कि गोवा का क्लब चलता रहा, लेकिन किसी विभाग या अधिकारी ने एक्शन नहीं लिया?


Date: 09-12-25

नियम बनाकर उनसे पीछे हटने से क्या संदेश जाता है?

मिन्हाज मर्चेंट, (  प्रकाशक और सम्पादक )

इंडिगो की सैकड़ों उड़ानें रद्द होने से देश के हवाई अड्डों पर जो अराजकता पैदा हुई है, उसने मुख्यतया दो सवाल खड़े किए हैं। पहला, क्या डीजीसीए ने पायलटों और चालक दल पर नए नियम लागू करने में जरूरत से ज्यादा सख्ती दिखाई थी? दूसरा, क्या इन नियमों के पालन में लापरवाही के लिए इंडिगो जिम्मेदार है?

डीजीसीए को अपने नए दिशानिर्देश अस्थायी रूप से वापस लेने पड़े हैं। उन दिशानिर्देशों के अनुरूप पायलटों और चालक दल के रोस्टर की तैयारी के लिए इंडिगो के पास 20 महीने का समय था। पायलट-प्रति-विमान अनुपात के मामले में इंडिगो- एअर इंडिया और अन्य भारतीय एयरलाइनों की तुलना में सबसे नीचे है।

वास्तव में पायलटों की कम संख्या इंडिगो की लागत घटाने की रणनीति का हिस्सा है। इसी ने उसे दुनिया की सबसे ज्यादा मुनाफा कमाने वाली एयरलाइनों में शामिल किया है। 2024-25 में उसने 7,258 करोड़ रुपए का शुद्ध लाभ दर्ज किया था और उसकी मार्केट-कैप 2.08 लाख करोड़ रुपए पर पहुंच गई थी। एयर डेक्कन के जीआर गोपीनाथ ने एक लेख में कहा है कि डीजीसीए के नियम तय करते हैं, पायलट और केबिन-क्रू अधिकतम कितने घंटे काम, उड़ान व ड्यूटी पर रह सकते हैं।

नियम कह सकते हैं कि कोई पायलट एक वर्ष में 900 घंटे की उड़ान भर सकता है, लेकिन 28 दिनों में 100 घंटे से अधिक नहीं। या दो पायलटों के साथ 8 घंटे से अधिक उड़ान नहीं। जबकि 3-4 पायलटों के साथ एक दिन में 13-16 घंटे तक की ऐसी उड़ानें संभव हैं, जिनमें 5-6 से अधिक स्टॉपओवर और रात में अधिक लैंडिंग शामिल न हों।

लेकिन डीजीसीए-इंडिगो विवाद दिखाता है कि कैसे रेगुलेटरी अथॉरिटी व्यापारिक दक्षता बढ़ाने के मूल उद्देश्य को ही बाधित कर देते हैं। हाल में केंद्रीय संचार मंत्री ज्योतिरादित्य सिंधिया के नेतृत्व वाले दूरसंचार विभाग (डीओटी) ने मोबाइल फोन निर्माता कंपनियों के लिए संचार साथी एप को अनिवार्य रूप से प्री-इंस्टॉल करने का निर्देश जारी किया था। इसका उद्देश्य साइबर धोखाधड़ी रोकना था, लेकिन एक्टिविस्टों का कहना था कि इससे डेटा चोरी बढ़ सकती है।

परिणामस्वरूप, इंडिगो मामले की तरह सरकार को इसमें भी नियम में संशोधन करना पड़ा और संचार साथी एप की प्री-इंस्टॉलेशन को स्वैच्छिक कर दिया गया। अपने फैसलों से इस तरह लगातार पीछे हटने से संकेत मिलता है कि नियामक संस्थाएं नौकरशाही के नियंत्रण में फंस चुकी हैं।

प्रक्रियाओं को सरल बनाने के बजाय नए नियम अकसर उनके अनुपालन को कठिन बना देते हैं, जिससे अधिकारियों को अधिक शक्तियां मिल जाती हैं। यह ईज ऑफ डुइंग बिजनेस के लक्ष्य के विपरीत है। कई नए नियम तो बिना संभावित परिणामों का पर्याप्त अध्ययन किए लागू किए प्रतीत होते हैं। कुछ सप्ताह पहले ही सरकार को क्वॉलिटी कंट्रोल ऑर्डर्स (क्यूसीओ) वापस लेने पड़े थे, जिनसे अंतरराष्ट्रीय व्यापार व्यावहारिक रूप से दूभर हो गया था।

जरूरत से ज्यादा नियम लादने का मूल कारण यह है कि एआई और ऑटोमेशन के दौर में अधिकारी अपने-अपने डोमेन पर नियंत्रण बनाए रखना चाहते हैं। तकनीकी बदलावों ने वे रास्ते बंद कर दिए हैं, जिनके माध्यम से अधिकारी अपने विवेकाधिकार का उपयोग करके लाभ उठा सकते थे। जैसे-जैसे वे मौके समाप्त हो रहे हैं, नौकरशाही नए नियमों के जरिए फिर से कुछ अधिकार प्राप्त करने की कोशिश कर रही है। अनुपालन को कठिन बनाकर इन अवसरों की खिड़की को थोड़ा-सा खुला रखा जाता है।

मसलन, आधार कार्ड को लेकर हाल ही में किए गए बदलाव में केयर ऑफ विकल्प- जिसमें पिता का नाम दर्ज होता था- हटा दिया गया। इससे आधार केंद्रों पर भौतिक सत्यापन के लिए लंबी कतारें लग गईं और आरटीओ में भी लोगों को कठिनाई हुई, क्योंकि सभी विवरणों का मेल आवश्यक था। आमजन के काम को सरल बनाने की जगह ऐसे रेगुलेटरी बदलाव उसे और जटिल कर देते हैं।

इंडिगो-डीजीसीए विवाद ने इस एयरलाइन की साख के साथ-साथ डीजीसीए की निगरानी क्षमता पर भी आघात किया है। नागरिक उड्डयन नियामक पहले ही एयर इंडिया बोइंग दुर्घटना पर अपनी जल्दबाजी में तैयार रिपोर्ट को लेकर आलोचना का सामना कर रहा है। उस रिपोर्ट में अमेरिकी विमान निर्माता को लगभग दोषमुक्त दिखाया गया था और दोष पायलट पर मढ़ दिया गया था। आज डीजीसीए में स्टाफ की भारी कमी है और कार्यभार अत्यधिक है। प्रभावी नियमन के लिए दोनों समस्याओं का समाधान आवश्यक है, ताकि यात्रियों की सुरक्षा सुनिश्चित की जा सके और एविएशन की विश्वसनीयता बनी रहे।


Date: 09-12-25

अर्थव्यवस्था में नई जान फूंकते गांव

डॉ. जयंतीलाल भंडारी, ( लेखक अर्थशास्त्री हैं )

भारत ने 2024-25 में 35.77 करोड़ टन अनाज पैदा करके एक ऐतिहासिक रिकार्ड बनाया है। पिछले दस सालों में भारत का खाद्यान्न उत्पादन 10 करोड़ टन बढ़ा है। यह खेती में आत्मनिर्भरता और गांवों के विकास की तरफ देश की लगातार बढ़ती रफ्तार को दिखाता है। इस समय जहां वैश्विक सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) की वृद्धि दर लगभग तीन प्रतिशत है और जी-7 देशों की अर्थव्यवस्थाएं औसतन करीब 1.5 प्रतिशत की दर से बढ़ रही है, वहीं भारत में 2025-26 की दूसरी तिमाही में जीडीपी की वृद्धि दर 8.2 प्रतिशत रही है।

इन दिनों भारत के आर्थिक परिदृश्य से संबंधित विभिन्न अध्ययन रिपोर्टों में यह तथ्य रेखांकित हो रहा है कि चालू वित्त वर्ष 2025-26 में ग्रामीण भारत से अर्थव्यवस्था को मजबूती मिल रही है। इन रिपोर्टों के अनुसार गांवों में खपत तेजी से बढ़ रही है। ग्रामीण गरीबी में कमी, छोटे किसानों की साहूकारी कर्ज पर निर्भरता में कमी, ग्रामीण खपत में वृद्धि, किसानों का जीवन स्तर बढ़ने जैसी विभिन्न अनुकूलताओं से ग्रामीण भारत मजबूती की राह पर आगे बढ़ रहा है। रिजर्व बैंक ने मौद्रिक नीति समीक्षा की हालिया बैठक में कहा भी कि भारत में महंगाई घटने में कृषि उत्पादन और ग्रामीण विकास का महत्वपूर्ण योगदान है और आगे भी महंगाई नियंत्रण में खाद्यान्न उत्पादन की अहम भूमिका रहेगी।

विश्व बैंक की रिपोर्ट के मुताबिक ग्रामीण सुधार, बेहतर कृषि उत्पादन, ग्रामीण उपभोग में बढ़ोतरी तथा कर सुधार जैसे घटकों के दम पर भारत दुनिया की सबसे तेजी से बढ़ती प्रमुख अर्थव्यवस्था बना रहेगा। इसी तरह एसएंडपी ग्लोबल रेटिंग्स द्वारा प्रकाशित एशिया-पैसिफिक इकोनमिक आउटलुक रिपोर्ट 2025 के मुताबिक ग्रामीण भारत में विकास की सकारात्मकता है। महंगाई घटने और करों में कटौती से भारत की ग्रामीण खपत में सुधार हुआ है। रिजर्व बैंक द्वारा प्रकाशित ग्रामीण उपभोक्ता विश्वास सर्वेक्षण पर आधारित रिपोर्ट के अनुसार पिछले एक साल में 76.7 प्रतिशत ग्रामीण परिवारों में उपभोग वृद्धि और 39.6 प्रतिशत परिवारों में आय में वृद्धि सामने आई है। इसी तरह एसबीआइ रिसर्च द्वारा गरीबी पर जारी रिपोर्ट में कहा गया है कि गरीबी में कमी शहरी इलाकों की तुलना में ग्रामीण इलाकों में अधिक तेजी से आई है।

जहां 2011-12 में ग्रामीण गरीबी 25.7 प्रतिशत और शहरी गरीबी 13.7 प्रतिशत थी, वहीं 2023-24 में ग्रामीण गरीबी घटकर 4.86 प्रतिशत और शहरी गरीबी घटकर 4.09 प्रतिशत पर आ गई है। हाल में जारी नाबार्ड की सर्वेक्षण रिपोर्ट के अनुसार ग्रामीण क्षेत्रों में अब 54.5 प्रतिशत परिवार औपचारिक स्रोतों-क्षेत्रीय ग्रामीण बैंकों, सहकारी समितियों आदि से ऋण लेते हैं, जो अब तक का सबसे ऊंचा स्तर है। उल्लेखनीय है कि 2019 से शुरू की गई प्रधानमंत्री किसान सम्मान योजना भी करोड़ों छोटे और सीमांत किसानों को वित्तीय मजबूती दे रही है।

अप्रैल 2020 से शुरू की गई पीएम स्वामित्व योजना के तहत ग्रामीणों को उनकी जमीन का कानूनी हक देकर उनके आर्थिक सशक्तीकरण का नया अध्याय लिखा जा रहा है। ग्रामीण क्षेत्रों में औपचारिक ऋण व्यवस्था ने अच्छी प्रगति की है। गांवों में बैंक शाखाओं की संख्या मार्च 2010 के 33,378 से बढ़कर दिसंबर 2024 तक 56,579 हो गई है। इसके साथ ही किसान क्रेडिट कार्ड (केसीसी) कृषि इन्फ्रास्ट्रक्चर फंड, सहकारी समितियों और ग्रामीण क्षेत्रों में स्वयं सहायता समूह, ग्रामीण बैंकिंग व्यवस्था भी प्रभावी भूमिका निभा रही है। सरकार ने बीते 11 वर्षों में फसलों पर दी जाने वाली सब्सिडी और फसल बीमा राशि को बढ़ाया है।

हालांकि देश का कुल कृषि निर्यात 50 अरब डालर के पार पहुंच गया है, लेकिन हमें अभी भी ग्रामीण भारत के विकास और किसानों की प्रगति के लिए कई बातों पर ध्यान देना होगा। छोटे और सीमांत किसान आधुनिक खेती की तकनीक अपनाने में असमर्थता अनुभव कर रहे हैं। छोटे किसान आनलाइन खरीदारी में बहुत पीछे हैं। अभी भी ग्रामीण जनजीवन के करीब 22 प्रतिशत लोगों की कर्ज के लिए साहूकारों और अन्य अनौपचारिक स्रोतों पर निर्भरता बनी हुई है। यह वर्ग ऊंची ब्याज दर पर कर्ज देता है और उसकी औसत ब्याज दरें लगभग 17-18 प्रतिशत से भी अधिक होती हैं।

जब छोटे किसानों को मौसमी जोखिम और सरकार से पर्याप्त धन हस्तांतरण की कमी का सामना करना पड़ता है, तब वे भारी ब्याज के बावजूद साहूकारों की चौखट पर दस्तक देते हैं। कई बार छोटे किसान औपचारिक स्रोतों से ऋण लेना तो चाहते हैं, मगर इसमें दस्तावेजों की कमी, गारंटी दाता का अभाव एवं अन्य शर्तें बाधा डालती हैं। एक सर्वेक्षण के अनुसार लगभग 50 प्रतिशत कृषि परिवार अभी भी कर्ज में डूबे हुए हैं। ऐसे में गांवों में साहूकारों और अनौपचारिक ऋणों पर निर्भरता घटाने के लिए बैंक शाखा विस्तार के अलावा अन्य कदम उठाने की भी जरूरत है।

यह समय की मांग है कि ग्रामीण अर्थव्यवस्था के अंतिम छोर तक मजबूत गैर-बैंकिग वित्तीय कंपनियों (एनबीएफसी) की भूमिका को प्रभावी बनाया जाए। गांवों में प्रधानमंत्री स्वामित्व योजना का तेजी से विस्तार करना होगा। इससे छोटे किसानों की संस्थागत ऋण तक पहुंच बढ़ाई जा सकेगी। देश को 2047 तक विकसित बनाने के लिए सरकार को ग्रामीण अर्थव्यवस्था को और सशक्त बनाने की डगर पर भी आगे बढ़ना होगा।


Date: 09-12-25

तंत्रगत विफलता

संपादकीय

इंडिगो में उत्पन्न संकट उस बड़ी उथल-पुथल को दर्शाता है जो कंपनी क्षेत्र में बड़ी समस्याओं का कारण रही है। किंगफिशर एयरलाइंस से लेकर इन्फ्रास्ट्रक्चर लीजिंग ऐंड फाइनैंशियल सर्विसेज लिमिटेड (आईएलएफएसएल) तक में मचे बवाल की जड़ भी इसी से जुड़ी हुई है। इनमें कई स्तरों (कार्यकारी प्रबंधन और निदेशकमंडल के साथ-साथ क्षेत्रीय नियामक) पर सामूहिक विफलता खुलकर सामने आई है।

इससे भारतीय कंपनी संचालन ढांचे में व्याप्त खामियां उजागर होती हैं। इंडिगो ने समय सीमा के पालन के दबाव और ऊंची लागत से जूझते विमानन क्षेत्र में ऊंची उड़ान भरी और मुनाफा भी खूब कमाया। मौजूदा संकट शुरू होने से पहले कंपनी प्रतिदिन 700 गंतव्यों के लिए 2,700 से अधिक उड़ानें संचालित करती थी।

अन्य अधिसूचित विमानन कंपनियों के साथ इंडिगो को भी पिछले साल जनवरी में नागर विमानन महानिदेशालय (डीजीसीए) द्वारा अधिसूचित उन्नत उड़ान कार्य समय सीमा (एफडीटीएल) नियमों के अनुरूप पायलट भर्ती कार्यक्रम संचालित करने के लिए एक वर्ष से अधिक समय मिला था।

परिचालन के लिहाज से नए एफडीटीएल नियम वर्ष 2025 में किसी भी विमानन कंपनी के लिए एक महत्त्वपूर्ण निर्देश थे जिनके साथ तालमेल बैठाना उसके लिए अनिवार्य था। इंडियन एक्सप्रेस के अनुसार इंडिगो की 2023-24 और 2024-25 की सालाना रिपोर्ट में नए नियमों का कहीं उल्लेख नहीं था। न ही ये नियम इस विमानन कंपनी की जोखिम प्रबंधन रिपोर्ट में ही शामिल थे। इसका सीधा मतलब तो यही निकाला जा सकता है कि इंडिगो इन नए नियमों से उत्पन्न होने वाली परिचालन चुनौतियों का अंदाजा नहीं लगा पाई और न ही उनके लिए पर्याप्त रूप से तैयारी ही की। इस पूरे प्रकरण से इंडिगो की बुनियादी कार्य क्षमताओं पर सवाल उठता है।

इस विफलता से व्यापार एवं उद्योग जगत की नामी हस्तियों वाले इंडिगो बोर्ड की भूमिका पर भी गंभीर सवाल उठते हैं। इंडिगो के बोर्ड में भारतीय वायु सेना के एक पूर्व प्रमुख, अमेरिकी संघीय विमानन प्रशासन के एक पूर्व प्रमुख, एक अमेरिकी विमानन कंपनी के वर्तमान मुख्य परिचालन अधिकारी, शेल के एक पूर्व मुख्य कार्याधिकारी और भारतीय प्रतिभूति बाजार नियामक (सेबी) के पूर्व अध्यक्ष जैसी बड़ी हस्तियां शामिल हैं।

इंडिगो का कहना है कि उसके बोर्ड ने संकट शुरू होने के दिन से ही पूरे घटनाक्रम की निगरानी के लिए एक संकट प्रबंधन समूह का गठन किया। मगर आश्चर्य की बात यह है कि बड़े शूरमाओं खासकर विमानन उद्योग से ताल्लुक रखने वाले लोगों से खचाखच भरे कंपनी के बोर्ड ने अपने कर्तव्यों का पालन करने और संकट शुरू होने से पहले नए एफडीटीएल नियमों को लेकर प्रबंधन की योजनाओं पर सवाल उठाने की जहमत नहीं की।

इंडिगो संकट डीजीसीए को भी कठघड़े में खड़ा करता है। ऐसी खबरें हैं कि सरकार इस विमानन कंपनी के बोर्ड का पुनर्गठन चाह रही है जो लगातार कई दिनों से चले आ रहे विमानन क्षेत्र में इस संकट के प्रति उसकी चिंता को दर्शाती है। संसद में नागर विमानन मंत्री ने कहा कि डीजीसीए इस बात की निगरानी कर रहा था कि विमानन कंपनियां नए एफडीटीएल नियमों का अनुपालन कर रही हैं या नहीं।

मंत्री ने कहा कि 1 दिसंबर तक भी इंडिगो ने कोई मुद्दा नहीं उठाया था। यह पूरा घटनाक्रम इंडिगो की तरफ से सरासर धोखाधड़ी दर्शाता है जिसके लिए उसके खिलाफ तत्काल दंडात्मक कार्रवाई की जानी चाहिए। मगर नियामक को नवंबर की शुरुआत में ही इंडिगो के खिलाफ कार्रवाई करनी चाहिए थी जब उसने 1,200 से अधिक उड़ानें रद्द कर दी थीं। उड़ान संचालन में स्थिरता लाने के लिए इंडिगो को कुछ उड़ानें रोकने के लिए कहने के बजाय नियामक ने उसे कुछ नए मानदंडों से रियायत देकर सीईओ को ‘कारण बताओ’ नोटिस भेज दिया जो महज खानापूर्ति ही मानी जा सकती है।

मुक्त बाजार व्यवस्था के अंतर्गत काम करने वाले विमानन क्षेत्र में सरकार द्वारा इस तरह की छूट नियामक निष्पक्षता पर सवाल उठाती है। यह कदम उन विमानन कंपनियों के खिलाफ जाता है जिन्होंने नए एफडीटीएल नियमों का पालन करने में गंभीरता दिखाई थी। इतना ही नहीं, अब उन्हें नियामक के निर्देश के अनुसार एक अस्थायी किराया सीमा के तहत उड़ानें संचालित करनी हैं। संचालन व्यवस्था की ऐसी चौतरफा विफलता समग्र रूप से भारतीय कंपनी एवं उद्योग जगत के लिए अच्छी नहीं है।


Date: 09-12-25

लापरवाही की आग

संपादकीय

किसी भी हादसे का मुख्य सबक यह होना चाहिए कि उस तरह की घटना से बचने के लिए हर उपाय किए जाएं, ताकि वैसा दोबारा न हो मगर आए दिन लगभग समान दिखने वाले हादसों की खबरें आती रहती हैं उसमें नाहक लोगों की जान जाती है और कई बार एक ही प्रकृति की लापरवाही आम पाई जाती है। गोवा के एक नाइट क्लब में शनिवार रात जिस तरह आग लगी और उसमें कम से कम पच्चीस लोगों की जान चली गई, उससे फिर वही पता चलता है कि सुरक्षा और व्यवस्था संबंधी जरूरी पक्ष को लेकर लापरवाही के नतीजे क्या हो सकते हैं आग लगने के वास्तविक कारण जांच के बाद ही सामने आएंगे, मगर किसी भी जगह ऐसे हादसे में जानमाल की क्षति का मुख्य कारण बचाव के पर्याप्त इंतजाम न होने से आग का तेजी से फैलना होता है। खबरों के मुताबिक, गोवा के उस क्लब में भी आपात स्थिति में बाहर निकलने का रास्ता बेह संकरा था, जिसमें कई लोग फंस गए। विडंबना यह है कि नाइट क्लब वा ज्यादा लोगों के जमावड़े वाली जगहों पर चकाच पैच करने के लिए भारी खर्च किए जाते हैं, लेकिन आपात स्थिति में बचाव को लेकर अमूमन सभी जरूरी पहलुओं को लेकर घोर लापरवाही बरती जाती है। किसी भी हादसे की स्थिति में सबसे बुनियादी और प्राथमिक जरूरत बचाव का उपाय होती है। मगर जानमाल के व्यापक नुकसान की लगभग सभी घटनाओं में कारण के तौर पर एक विचित्र तरह की समानता पाई जाती है कि वहां अग्नि शमन की व्यवस्था वा तो नहीं थी या फिर वह काम नहीं कर रही थी। निश्चित तौर पर यह संबंधित भवन के मालिक और प्रबंधन की लापरवाही होती है लेकिन अक्सर लोगों के जना होने की जगहों पर आग लगने की स्थिति में बचाव इंतजामों की जांच करने के मामले में सरकार या संबंधित महकमों की जिम्मेवारी क्या होती है? गोवा को एक अहम पर्यटक स्थल और अपेक्षा एक सुरक्षित जगह के रूप में देखा जाता रहा है मगर नाइट क्लब में आग लगने से जिस तरह पच्चीस लोगों की जान चली गई, उसके बाद वहां के जोखिम को लेकर भी अब सवाल उठने लगे हैं। इस हादसे के बाद गोवा के बाकी क्लबों में भी अपि शमन सुरक्षा और बनाव के उपायों की स्थिति की जांच की मांग की जा रही है।

सवाल है कि आग लगने की स्थिति में बचाव वा सुरक्षा का इंतजाम एक अनिवार्य व्यवस्था क्यों नहीं होनी चाहिए. जिसमें मामूली लापरवाही को भी गुंजाइश न हो अब तो समूचा ढांचा ऐसा तैयार होना चाहिए जिसमें कोई सामान्य तकनीकी गड़बड़ी बड़े हादसे में तब्दील न हो। दूसरे किसी भी वजह से आग लगने की आशंका के मजर हर स्तर पर बचाव के ऐसे पुख्ता इंतजाम किए जाएं, ताकि उस पर तुरंत काबू पाया जा सके। यह भी सुनिश्चित किया जाना चाहिए कि सभी इमारतों तक अग्निशमन सेवा के वाहनों की आसान पहुंच हो। कई बार आग व्यापक तबाही का कारण इसलिए बनती है कि उस पर काबू पाने के उपाय अपर्याप्त होते हैं लोगों के बाहर भागने और अग्नि शमन वाहनों के घटनास्थल पहुंचने का रास्ता संकरा या बाधित होता है हादसे और उसमें लोगों की मौत के बाद सरकार तथा प्रशासन की ओर से कुछ लोगों के खिलाफ कार्रवाई और हताहतों या उनके परिजनों के लिए मुआवजे की घोषणा की औपचारिकता जरूर पूरी की जाती है लेकिन नियम-कानों पर अमल को लेकर अगर प्रशासनिक सक्रियता सामान्य दिनों में भी कायम रहे तो शाय कई त्रासदियों से बचा जा सकता है।


Date: 09-12-25

वंदेमातरम्

संपादकीय

लोकसभा में राष्ट्रगीत वंदेमातरम् की 150 वीं वर्षगांठ पर ऐतिहासिक चर्चा आवश्यक और प्रेरक रही। ऐसा मौका बहुत जरूरी है कि जब सभी नेता मातृभूमि के प्रेम या पक्ष में खड़े नजर आएं। भारत के राष्ट्रगीत वंदे मातरम् के रचनाकार बँकिमचंद्र चटर्जी और इस गीत से जुड़े अन्य महापुरुषों को जिस तरह से याद किया गया है, वह लोकसभा की कार्यवाही में स्वर्णिम अक्षरों में दर्ज हो गया है। आज से पचास साल बाद इस गीत के 200 वर्ष पर जब विशेष आयोजन होंगे, तब निस्संदेह वंदे मातरम् पर लोकसभा में अपने विचार रखने वाले नेताओं को याद किया जाएगा। लोकसभा में चर्चा की शुरुआत करते हुए प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने उचित ही स्वीकार किया कि वंदे मातरम् के मंत्र ने पूरे देश को शक्ति और प्रेरणा दी, स्वतंत्रता आंदोलन को ऊर्जावान बनाया। उन्होंने यह भी कहा कि आज वंदे मातरम् को याद करना इस सदन के सभी सदस्यों और देशवासियों के लिए सौभाग्य की बात है। प्रधानमंत्री ने अपने उद्बोधन में अफसोस भी जताया है कि जब इस गीत को सौ साल हुए थे, तब इसे बहुत भव्यता से याद करना चाहिए था, किंतु दुर्भाग्य से तब देश में आपातकाल लागू था और स्वतंत्रता खतरे में पड़ी हुई थी।

यह भी याद किया जाएगा कि प्रधानमंत्री ने आजादी की लड़ाई के दौर में वंदे मातरम् पर समझौता करने के लिए कांग्रेस की आलोचना की। यह एक चर्चित पहलू रहा है कि करीब नब्बे वर्ष से वंदे मातरम् को पूरा नहीं गाया जाता है। यह एक स्तर पर अफसोस और दुख की बात हो सकती है, लेकिन कई बार ऐसी मजबूरियां पैदा हो जाती हैं, जब समझौते करने पड़ते हैं। उस दौर के नेतृत्व ने देश को एकजुट रखने के प्रयासों के तहत वंदेमातरम् के कुछ हिस्सों से समझौता किया था। तब भी अल्पसंख्यकों में ऐसे नेता थे, जो वंदे मातरम् के मूल भारतीय भाव को नहीं समझ पाए थे और आज भी ऐसे नेता हैं। उन्हें इस गीत में अपने धर्म की हानि दिखी थी। तब भी कांग्रेस के नेताओं ने यह समझाने के प्रयास किए कि राष्ट्रभक्ति जगाने वाले गीत के प्रति सबका नजरिया व्यापक और उदार होना चाहिए। वैसे, सबसे जरूरी है, समन्वय और सद्भाव की रक्षा।

इस देश में कोई भी गीत किसी पर थोपा नहीं गया था और आज भी नहीं थोपा जा रहा है। फिर भी, वंदे मातरम् पर हुई चर्चा का महत्व इस संदर्भ में है कि बहुत से लोग अब कम से कम वंदे मातरम् का विरोध करना छोड़ देंगे। हां, हर नागरिक इस गीत को गाए, ऐसी आशा तो देश की तमाम मुख्य पार्टियों में हमेशा से रही है। इस ऐतिहासिक चर्चा में लोकसभा में नेता प्रतिपक्ष राहुल गांधी ने तो उद्बोधन नहीं दिया, किंतु कांग्रेस सांसद गौरव गोगोई ने उचित ही याद किया कि बंगाल के कई लेखकों और कवियों ने स्वतंत्रता आंदोलन के दौरान लोगों को प्रेरित करने वाले कई गीत लिखे। यह भी संयोग है कि हमारा राष्ट्रगान जन गण मन भी बंगाल में लिखा गया। वैसे, गोगोई ने अफसोस भी जताया कि प्रधानमंत्री ने अपने भाषण के दौरान बहस को राजनीतिक रंग देने की कोशिश की। प्रियंका गांधी ने भी अपने भाषण में सत्तारूढ़ भाजपा को घेरने का मौका हाथ से जाने न दिया । उन्होंने देश की अन्य समस्याओं की ओर भी ध्यान दिलाया। बहरहाल, समग्रता में सभी ने वंदेमातरम् के प्रति जो आभार प्रदर्शन किया है, उसे याद किया जाएगा। लोकसभा में बहस ही पर्याप्त नहीं है, देश के हर नागरिक को इस गीत से प्रेरणा लेनी चाहिए। आज जिस तरह के संकट मंडरा रहे हैं, उसमें वंदेमातरम् जैसे जीवंत गीत की जरूरत देश को कदम-कदम पर पड़ेगी ।


Date: 09-12-25

साझेदारी के नए आयाम तलाशते भारत रूस

संजय मयूख, ( राष्ट्रीय मीडिया सह – प्रमुख व प्रवक्ता, भाजपा )

वैश्विक राजनीति इन दिनों तेजी से बदल रही है। पुराने शक्ति-संतुलन खिसक रहे हैं, नई प्रतिस्पद्धाएं जन्म ले रही हैं, और वैश्विक गठबंधनों का स्वरूप धुंधलापड़ता जा रहा है। बहुध्रुवीय विश्व की परिकल्पना एक हकीकत बन रही है, हालांकि इस दिशा में अब भीलंबा सफर बाकी है। ऐसे में, यह अत्यंत महत्वपूर्ण है कि भारत अपने उन साझेदारों को साथ रखे, जिन्होंने उसकी रणनीतिक स्वायत्तता को मजबूती दी है। रूस ऐसा ही साझेदार है और राष्ट्रपति व्लादिमीर पुतिन की हालिया यात्रा ने इस पुराने भरोसे को नए वैश्विक संदर्भ में स्थापित किया है।

जब अमेरिका और चीन के बीच प्रतिद्वंद्विता तीखी हो रही है; रूस पश्चिमी प्रतिबंधों के बीच अपनी वैश्विक भूमिका को फिर से लिख रहा है और अंतरराष्ट्रीय संस्थान अपनी विश्वसनीयता पर प्रश्नचिह्न झेल रहे हैं, तब भारत-रूस संबंध एक स्थिर, संतुलित और विवेकपूर्ण विश्व व्यवस्था के लिए मजबूत साझेदार के रूप में काम कर रहे हैं। आज भी भारत-रूस रक्षा व्यापार दोनों देशों के संबंधों का सबसे मजबूत स्तंभ है। एस-400 मिसाइल प्रणाली से ब्रह्मोस क्रूज मिसाइल जैसी संयुक्त परियोजनाएं, सुखोई एसयू- 30 एमकेआई से लेकर टी-90 टैंक तक, रूस ने भारत की सैन्य संरचना के विकास में निर्णायक भूमिका निभाई है। पश्चिमी दबावों और सैन्य आपूर्ति की बदलती विश्व व्यवस्था के बावजूद, यह साझेदारी नए रूप में ढल रही है। राष्ट्रपति पुतिन की इस यात्रा में यह भी पुष्ट किया गया कि भारत अब केवल प्लेटफॉर्म- आधारित रक्षा आयात की ओर नहीं, बल्कि संयुक्त उत्पादन तकनीकी हस्तांतरण और दीर्घकालीन रक्षा औद्योगिक सहयोग की दिशा में आगे बढ़ना चाहता है। यह परिवर्तन न केवल रणनीतिक रूप से आवश्यक है, बल्कि भारत के ‘मेक इन इंडिया’ अभियान को वास्तविक मजबूती प्रदान करता है।

21वीं सदी का वैश्विक वातावरण इन संबंधों के पुनर्निर्माण की मांग करता है। भारत और रूस, दोनों के लिए आवश्यक है कि वे परंपरागत क्षेत्रों से आगे बढ़कर साझेदारी के नए आयाम विकसित करें। इसे पांच आधार पर समझा जा सकता है। सबसे पहले, संयुक्त तकनीकी अनुसंधान क्षेत्र । यह वह क्षेत्र है, जो दोनों देशों को भविष्य की रणनीतिक प्रतिस्पर्द्धा में मजबूती दे सकता है। क्वांटम तकनीक, आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस, साइबर सुरक्षा और उन्नत हथियार प्रणालियां आज की भू-राजनीति के मूल तत्व हैं। रूस इन क्षेत्रों में वैज्ञानिक दक्षता रखता है, जबकि भारत तेजी से उभरती डिजिटल शक्तियों में अग्रणी है। दोनों देशों की साझा प्रयोगशालाएं व अनुसंधान परियोजनाएं न सिर्फ पारंपरिक रक्षा सहयोग को आधुनिक बनाएंगी, बल्कि भविष्य की साझेदारी सुनिश्चित करेंगी।

दूसरा महत्वपूर्ण क्षेत्र है, डिजिटल व साइबर सुरक्षा । रूस विश्व की सबसे उन्नत साइबर क्षमता वाले देशों में से एक है, वहीं भारत दुनिया की सबसे तेजी से विकसित होती डिजिटल अर्थव्यवस्थाओं में एक। ये दोनों शक्तियां मिलकर वैश्विक डिजिटल शासन, साइबर खतरों से मुकाबले व सुरक्षित डाटा अवसंरचना के निर्माण में अहम भूमिका निभा सकती हैं। तीसरा, आपूर्ति श्रृंखला आज भू-राजनीतिका अहम हथियार बन चुकी है। अमेरिका- चीन तनाव, यूरोप की ऊर्जा निर्भरताव वैश्विक अस्थिरता इसके उदाहरण हैं। भारत-रूस सहयोग एशिया से यूरोप तक एक स्थिर व्यापारिक गलियारा स्थापित कर सकता है । चौथा प्रमुख आयाम है, अंतरिक्ष और परमाणु ऊर्जा । गगनवान मिशन, चंद्र अन्वेषण और परमाणु रिएक्टरों के क्षेत्र में रूसी तकनीकी विश्वसनीयता हमारी साझेदारी को और मजबूत कर सकती है।

पांचवां और उभरता हुआ क्षेत्र है आर्कटिक सहयोग | आर्कटिक क्षेत्र भविष्य की ऊर्जा, खनिज संसाधनों और नए नौवहन मार्ग के लिहाज से अहम बनता जा रहा है। रूस इस क्षेत्र का सबसे बड़ा खिलाड़ी है व भारत उभरता हुआ ध्रुवीय अनुसंधान भागीदार। इस क्षेत्र का सहयोग भारत की ऊर्जा सुरक्षा, वैज्ञानिक अनुसंधान व वैश्विक महासागरीय कूटनीति में नई भूमिका तय कर सकता है। राष्ट्रपति पुतिन की इस यात्रा ने दुनिया को संदेश दे दिया है। कि भारत-रूस संबंध भू-राजनीतिक परिस्थितियों के दवाब में ढहने वाला नहीं है। यह साझेदारी स्थायी है, क्योंकि यह परस्पर हितोंपर आधारित है और परिपक्व है।