26-11-2024 (Important News Clippings)
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पढ़ने के साथ समझना भी जरूरी
डॉ. विजय अग्रवाल, ( लेखक पूर्व सिविल सर्वेट है )
आने वाले कुछ महीनों में बोर्ड परीक्षाओं के अलावा आइएएस, एनडीए, सीडीएस, जेईई मेन और यूजीसी नेट समेत कई प्रतियोगी परीक्षाएं होने वाली हैं । इस दौरान ज्यादा से ज्यादा समय देने के साथ ही कान्सेप्ट को समझकर पढ़ाई करने की जरूरत होती है । आइए जानें, समझकर पढ़ाई करना कितना जरूरी है । इससे हमें क्या लाभ हो सकते हैं..
हमारे यहां ‘शब्द’ को ब्रह्म कहा गया है। ब्रह्म यानी कि इस संसार की रचना करने वाला। तो क्या शब्द भी ब्रह्म की तरह दुनिया का निर्माण करते हैं? आइए, इसे एक उदाहरण के जरिए समझते हैं। मान लीजिए, आप आराम से चुपचाप बैठे हुए हैं। कोईअचानक आकर यूं ही आपको गालियां देने लगता है। अभी तक आप शांत थे। गालियां सुनने के डा. विजय अग्रवाल बाद आपको गुस्सा आ गया। अब आपके अंदर की दुनिया क्या पहली जैसी ही शांत है ? नहीं न। वह बदल गई है और इस दुनिया को बनाने का काम मात्र कुछ शब्दों ने ही तो किया है। इससे यह सिद्ध होता है कि हम जो भी सुनते और बोलते हैं, उनका बहुत गहरा और सीधा संबंध हमारे विचारों और हमारी भावनाओं से होता है।
यदि आप एक छात्र हैं और मैं आपसे पूछूं कि आप फिलहाल कौनसा काम कर रहे हैं, तो आपका उत्तर होगा- ‘मैं पढ़ाई कर रहा हूं।’ हर छात्र और उनके माता-पिता इस काम को ‘पढ़ाई करना’ ही कहते हैं । लेकिन आपके लिए मेरी चिंता यह है कि आप ‘पढ़ाई’ कर रहे हैं या आप ‘अध्ययन’ ‘पढ़ाई’ कर रहे हैं या आप ‘अध्ययन’ कर रहे हैं। आप जब अपने कोर्स की किताबों के साथ होते हैं, तब आप उसे पढ़ रहे होते हैं, या उसकी स्टडी कर रहे होते हैं? आपके इस उत्तर से आपके अंतर्मन की स्थिति जुड़ी हुई है। जैसे कोई व्यक्ति उपन्यास पढ़ रहा है, लेकिन जब उसी उपन्यास को हिंदी साहित्य का विद्यार्थी अपने सिलेबस के कारण पढ़ता है, तो इन दोनों के पढ़ने के तरीके में बहुत अंतर आ जाएगा। वह व्यक्ति उस उपन्यास को मनोरंजन के लिए पढ़ रहा है। उसे न तो उपन्यास की घटनाओं को याद रखने की जरूरत है और न ही उसे उसकी समीक्षा करनी है। लेकिन हिंदी साहित्य के विद्यार्थी को उस उपन्यास के प्रति गंभीर होकर ध्यान से पढ़ना होगा और उसे समझना भी होगा। इसी तरह जब आप अपनी पढ़ाई गंभीर होकर करने लगते हैं, तब वह पढ़ाई अपने आप ही अध्ययन बन जाती है । इसलिए मेरे इस लेख का आपके लिए मूल सूत्र यह है कि आप अपने दिमाग में इस वाक्य को बैठा लें कि ‘मैं पढ़ाई नहीं अध्ययन कर रहा हूं।’ आपका यह वाक्य आपके अंदर एक ऐसी दुनिया की रचना कर देगा, जिसकी ग्रहण करने की क्षमता पहले की तुलना में कई गुना बढ़ जाएगी। इससे स्मरण शक्ति में भी इजाफा हो जाएगा।
पढ़ाई को बोझ न समझें: जब हम पढ़ने को अध्ययन में तब्दील कर देते हैं, तब हमें पढ़ाई बोझ लगना बंद हो जाती है। हमें उसमें मजा आने लगता है। तब पढ़ा हुआ समझ में आने लगता है और वह आप भूलते नहीं । रटने का संबंध सूचनाओं को अपने दिमाग में इकट्ठा करना है। जबकि समझने का अर्थ है, उसका हमारे दिमाग में रच-बस जाना। महान वैज्ञानिक आइंस्टीन ने ज्ञान के बारे में एक बहुत ही महत्वपूर्ण बात कही थी। उन्होंने कहा था कि ‘पढ़ने के बाद हम काफी कुछ भूल जाते हैं, लेकिन जो बच जाता है, वही ज्ञान है।’ उनके कहने का आशय यही था कि जिन्हें हम रटते हैं, वे गायब हो जाते हैं और जो हमारी समझ में आ जाते हैं, वे जिंदगी भर हमारे साथ रहते हैं।
Date: 26-11-24
जन-जन के मन का दस्तावेज है संविधान
भूपेंद्र यादव, ( लेखक केंद्रीय पर्यावरण, वन एवं जलवायु परिवर्तन मंत्री हैं )
भारतीय संविधान भारत के लोकतंत्र का मूल आधार है। आज भारत का आधुनिक लोकतंत्र 75 वर्ष की गौरवशाली यात्रा पूर्ण कर प्रगति पथ पर अग्रसर है। इस 75 वर्षीय यात्रा के केंद्र में हमारा संविधान प्रतिष्ठित रहा है। ध्यातव्य है कि हमारे संविधान निर्माताओं ने संविधान की रचना में भारतीय जीवन मूल्यों की मान्यताओं, आधुनिक शासन और भविष्य की आशाओं तथा आकांक्षाओं की पूर्ति को केंद्र में रखा था।इन लक्ष्यों की सिद्धि करने वाले दस्तावेज के रूप में हमारा संविधान 26 नवंबर 1949 को देश की जनता को समर्पित किया गया था। इस दृष्टि से 26 नवंबर भारतीय इतिहास में एक महत्वपूर्ण तारीख के रूप में दर्ज होना चाहिए था, लेकिन दुर्भाग्यवश लंबे समय तक ऐसा नहीं हो सका।स्वतंत्रता के पश्चात दशकों तक केंद्रीय सत्ता में रही कांग्रेस के विचार में 26 नवंबर का ऐतिहासिक महत्व कभी नहीं आया। वास्तव में, कांग्रेस नेतृत्व सत्ता पर प्रभुत्व एवं नियंत्रण स्थापित रखने को ही लोकतंत्र का प्रमुख उद्देश्य मानता था।वे स्वाधीनता दिवस (15 अगस्त) और गणतंत्र दिवस (26 जनवरी) तो मनाते रहे, पर ‘संविधान दिवस’ जैसे महत्वपूर्ण अवसर, जब देश ने संविधान को अंगीकार किया था, को मात्र न्यायपालिका तक सीमित कर दिया। संविधान केवल न्यायिक या वैधानिक दस्तावेज नहीं है, बल्कि वह भारत की जनता की आशाओं एवं आकांक्षाओं का प्रतिनिधित्व करता है। इस अर्थ में यह देश के जन-जन के मन का दस्तावेज है।
‘संविधान दिवस’ की उपेक्षा तो एक विषय है। अन्यथा कांग्रेस का रवैया हर प्रकार से संविधान विरोधी ही रहा है। संविधान को कमजोर करने वाले अनेक प्रयास कांग्रेस समय-समय पर करती आई है। कांग्रेस द्वारा अपने शासनकाल में इस पर संशोधन लाने का प्रयास किया गया कि सरकार संविधान में क्या-क्या परिवर्तन कर सकती है?उल्लेखनीय होगा कि इसी विषय पर सर्वोच्च न्यायालय में केशवानंद भारती मामले की ऐतिहासिक सुनवाई के दौरान सर्वोच्च न्यायालय की 13 न्यायाधीशों की संवैधानिक पीठ ने माना था कि ‘संशोधन करने की शक्ति में संविधान की मूल संरचना या रूपरेखा को बदलने की शक्ति शामिल नहीं है, जिससे कि इसका मूल ही बदल जाए।’तब जस्टिस सीकरी ने सुनवाई में कहा था कि संविधान में संशोधन’ शब्द संसद को मौलिक अधिकारों को निरस्त करने, छीनने या संविधान की मौलिक विशेषताओं को पूरी तरह से बदलने में सक्षम नहीं बनाता है, जिससे इसकी पहचान ही नष्ट हो जाए। बल्कि, इन सीमाओं के भीतर ही संसद हर अनुच्छेद में संशोधन कर सकती है।स्पष्ट है कि न्यायालय द्वारा संशोधन को लेकर मर्यादा निर्धारित की गई है। अन्यथा अतीत की कांग्रेस सरकारों की मंशा तो संविधान में मनमाने परिवर्तन की ही थी। आपातकाल के काले दौर में कांग्रेस द्वारा ऐसा किया भी गया, जब इंदिरा गांधी सरकार ने संविधान की मूल प्रस्तावना ही बदल डाली।स्पष्ट है कि कांग्रेस के लिए हमारा संविधान केवल सत्ता को साधने का एक उपकरण मात्र रहा है, संविधान के प्रति सम्मान की भावना कांग्रेस के चरित्र में नहीं है।
वर्ष 2014 में सत्तारूढ़ होने के बाद से प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की सरकार संविधान के सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक न्याय की संकल्पना को पूरा करने के लिए प्रयासरत है।भारतीय संविधान और लोकतंत्र को सुदृढ़ करने की मंशा से प्रधानमंत्री मोदी द्वारा अनेक कदम उठाए गए हैं। सत्ता में आने के अगले ही वर्ष यानी 2015 में प्रधानमंत्री मोदी ने दशकों से उपेक्षित 26 नवंबर को ‘संविधान दिवस’ के रूप में राष्ट्रीय स्तर पर मनाने की शुरुआत कर दी। यह दर्शाता है कि उनमें भारतीय संविधान के प्रति कितनी गहरी सम्मान भावना है।
केंद्र और राज्य के बीच संबंधों को नए सिरे से परिभाषित करते हुए एक बेहतर तालमेल और संवाद से युक्त व्यवस्था का निर्माण कर संविधान में निहित संघीय ढांचे को मजबूती देने का काम मोदी सरकार ने किया है। इतना ही नहीं, संविधान निर्माता बाबा साहेब आंबेडकर के सम्मान में उनसे संबंधित स्थलों को पंचतीर्थ के रूप में विकसित करने का कार्य भी प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की सरकार द्वारा किया गया है। यह सभी कार्य भारतीय संविधान के प्रति प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के सम्मान और प्रतिबद्धता को ही प्रकट करते हैं।
गणतंत्र, पंथनिरपेक्षता, सशक्त निर्वाचन पद्धति, संघीय ढांचा, मौलिक अधिकार, मूलभूत कर्तव्य, सामाजिक, आर्थिक व राजनीतिक न्याय संविधान के ऐसे कीर्तिमान हैं, जिसे पूरा करना प्रत्येक सरकार का कर्तव्य है। ये कोई शासन का आदेश नहीं, बल्कि भारत की संप्रभु जनता का किसी भी चुनी हुई सरकार को दिया गया जनादेश है। इसलिए, प्रश्न यह उठता है कि जब संविधान इतना स्पष्ट है तो क्या संविधान की मूल भावना पर केवल राजनीतिक स्वार्थ के लिए बहस खड़ी करना स्वस्थ लोकतंत्र का लक्षण है?
संविधान भारत में सभी नागरिकों के लिए दिग्दर्शक तत्व है। दुर्भाग्यपूर्ण है कि इस पवित्र ग्रंथ पर भी विपक्ष द्वारा अत्यंत निकृष्ट राजनीति की जा रही है। जो कांग्रेस शासन में रहते हुए कभी संविधान का सम्मान नहीं कर सकी, वह आज विपक्ष में बैठकर यह भ्रम फैलाने में लगी है कि मोदी सरकार संविधान को खत्म कर देगी। ऐसा असत्य और भ्रम फैलाना क्या लोकतंत्र के खिलाफ नहीं है?
सच तो यह है कि कांग्रेस जैसे दल आज अपने मूल राजनीतिक विचार को खो बैठे हैं और उनके पास यह कहने की क्षमता नहीं बची है कि ‘संविधान के अंतर्गत आखिर वो कैसे भारत का शासन चलाएंगे?’ कांग्रेस अपने गांधीवादी विचार और समाजवादी पार्टी जैसे दल समाजवाद और राम मनोहर लोहिया जी के मूलभूत विचारों को भूल चुके हैं।अब इनका लक्ष्य केवल किसी भी तरह सत्ता हथियाना ही रह गया है, लेकिन भारत की जनता बहुत विवेकवान है। वह विपक्ष के इन राजनीतिक प्रपंचों को बखूबी समझ भी रही है और समय-समय पर अपने मत की शक्ति से इनके प्रपंचों का समुचित उत्तर भी देती रहती है।
Date: 26-11-24
मेडिकल टूरिज्म का गढ़ बनता भारत
आरके सिन्हा, ( लेखक पूर्व सांसद और पूर्व संपादक हैं )
हाल में यूजीसी नेट में आयुर्वेद बायोलाजी को एक विषय के तौर पर शामिल करने का फैसला हो या फिर सुप्रीम कोर्ट के समक्ष पीएम जन आरोग्य योजना में पारंपरिक चिकित्सा पद्धति को भी शामिल करने की मांग, इससे यही पता चलता है कि आयुर्वेद और पारंपरिक चिकित्सा पद्धतियों की महत्ता बढ़ रही है।
इसका प्रमाण तब भी मिला था, जब यह खबर आई थी कि ब्रिटेन के किंग चार्ल्स बेंगलुरु के पास एक आधुनिक आरोग्यशाला में पत्नी कैमिला समेत स्वास्थ्य लाभ के लिए आए। इससे बेहतर और कुछ नहीं कि आधुनिक चिकित्सा पद्धति से सस्ते और सफल इलाज के साथ ही विदेशियों में भारत की परंपरागत चिकित्सा पद्धतियों जैसे-आयुर्वेद, प्राकृतिक चिकित्सा, आहार विज्ञान जैसे उपचार लोकप्रिय हो रहे हैं।योग तो पहले से ही दुनिया भर में लोकप्रिय है। इस संदर्भ में यह भी स्मरण किया जाना चाहिए कि केरल के एर्नाकुलम स्थित श्रीधरीयम आयुर्वेदिक नेत्र अस्पताल द्वारा प्रदान की गई चिकित्सा के चलते केन्या के पूर्व प्रधानमंत्री रैला ओडिंगा की पुत्री की आंखों की रोशनी वापस आ गई थी। यह किसी चमत्कार से कम न था। इसके बाद अफ्रीकी देशों से बड़ी तादाद में रोगी आयुर्वेदिक चिकित्सा के लिए भारत आने लगे।
मैं अक्सर देहरादून जाता रहता हूं। हर बार मुझे वहां अनेक विदेशी मिल जाते हैं। उनसे बातचीत करने पर पता चलता है कि अधिकांश हरिद्वार, ऋषिकेश, देहरादून या आसपास की आरोग्यशालाओं में आए होते हैं। कुछ तो महीनों के लिए आते हैं। इसकी अनदेखी नहीं की जा सकती कि कोरोना काल में दुनिया का आयुर्वेद पर भरोसा बढ़ा। इसके चलते विश्व के कई देशों में आयुर्वेदिक दवाओं की मांग बढ़ी है। आज करीब सौ देशों में भारत के हर्बल उत्पाद पहुंच रहे हैं।आयुर्वेद की महत्ता को विश्व स्वास्थ्य संगठन ने भी स्वीकार किया है। यह सही समय है कि आयुर्वेद के साथ अन्य पारंपरिक चिकित्सा पद्धतियों में शोध को बढ़ावा दिया जाए। अब यह सिद्ध होता जा रहा है कि खानपान के जरिये भी सेहत का ध्यान रखा जा सकता है। इनमें मोटे और छोटे अनाज की महती भूमिका है। मिलेट्समैन कहे जाने वाले पद्मश्री डा. खादरवली का दावा है कि मिलेट्स से अनेक रोगों का इलाज संभव है।उनका कहना है कि छह हफ्ते से लेकर छह महीने तक सिर्फ मिलेट्स के प्रयोग से कई बीमारियों के निदान में सफलता मिलती है।
भारत में बीते कुछ वर्षों से हृदय रोग, अस्थि रोग, किडनी एवं लिवर ट्रांसप्लांट और दिल की तमाम बीमारियों के सफल इलाज के लिए दक्षिण एशियाई देशों के अलावा अफ्रीका, मध्य एशिया और खाड़ी के देशों से लेकर पश्चिमी देशों से भी हर साल लाखों रोगी आ रहे हैं।कुछ वर्षों से दिल्ली-एनसीआर, मुंबई, बेंगलुरु, चंडीगढ़ आदि के आधुनिक अस्पतालों में इलाज कराने के लिए भारी संख्या में विदेशी आने लगे हैं। दुनिया भर में बसे भारतवंशी भी स्वदेश में अपना इलाज कराना पसंद कर रहे हैं। इससे भारत मेडिकल टूरिज्म का गढ़ बन रहा है। देश के नामी प्लास्टिक सर्जन बताते हैं कि उनके पास हर महीने विदेशी बर्न इंजरी के इलाज से लेकर हेयर ट्रांसप्लांट और अपनी ढीली पड़ती त्वचा को ठीक कराने के लिए आते हैं।हमें ऐसी नीतियां अपनानी चाहिए, जिससे अधिक से अधिक विदेशी रोगी इलाज के लिए भारत आएं। उनके भारत आने से देश को अमूल्य विदेशी मुद्रा भी प्राप्त होगी। जब भी एक रोगी भारत आता है तो उसके साथ दो-तीन तीमारदार भी आते हैं। वे महीनों यहां रहते हैं। भारत में विदेश से रोगी इसलिए भी आ रहे हैं, क्योंकि यहां पर मरीजों को सर्वश्रेष्ठ प्री और पोस्ट-सर्जरी सुविधाएं यूरोप या अमेरिका की तुलना में बहुत कम कीमत पर मिल जाती हैं।
भारत के पास योग्य चिकित्सा पेशेवर और अत्याधुनिक उपकरण हैं। इसके अलावा भारत स्वास्थ्य सेवाओं की गुणवत्ता से समझौता किए बिना अमेरिका और ब्रिटेन की तुलना में कम खर्चीला उपचार विकल्प प्रदान करता है। भारत में इलाज का खर्च अमेरिका के मुकाबले करीब एक चौथाई है। यदि हम इस मोर्चे पर संभल कर चले तो फिर विदेशी इलाज के लिए थाइलैंड, सिंगापुर और जापान जैसे देशों के बजाय भारत का ही रुख करने लगेंगे।
मेडिकल टूरिज्म अरबों डालर का सालाना कारोबार है। इस पर भारत को अपनी पकड़ मजबूत बनानी होगी। इस क्षेत्र में भारत के सामने तमाम संभावनाएं हैं, क्योंकि सारी दुनिया के लोग बेहतर इलाज के लिए अपने देशों की सरहद लांघने लगे हैं। गोवा में आयोजित जी-20 से जुड़े एक कार्यक्रम में बताया गया था कि 2022 में 14 लाख विदेशी इलाज के लिए भारत आए।यह आंकड़ा ही साबित करता है कि भारत की मेडिकल सुविधाओं को लेकर दुनिया में भरोसा बढ़ रहा है, लेकिन हमें 2030 तक अपने यहां हर साल एक करोड़ तक विदेशी रोगियों को इलाज के लिए बुलाने के उपाय करने होंगे। इस लक्ष्य को हासिल करने के लिए भारत को अंतरराष्ट्रीय मानकों के अनुरूप अस्पतालों और क्लीनिकों का निर्माण करके गुणवत्तापूर्ण चिकित्सा सेवाओं की उपलब्धता सुनिश्चित करनी चाहिए।
सरकार को मेडिकल टूरिज्म को बढ़ावा देने के लिए एक स्पष्ट नीति बनानी चाहिए, जिसमें उचित नियम-विनियमन और प्रोत्साहन शामिल हो। भारत को अपने मेडिकल टूरिज्म का प्रचार करने के लिए अंतरराष्ट्रीय स्तर पर मार्केटिंग अभियान भी चलाना चाहिए।
टेलीमेडिसिन, ई-परामर्श और अन्य डिजिटल स्वास्थ्य सेवाओं को अपनाकर भी भारत मेडिकल टूरिज्म को गति दे सकता है। भारत को आधुनिक चिकित्सा के साथ ही आयुर्वेद एवं अपनी अन्य परंपरागत चिकित्सा पद्धतियों के प्रचार-प्रसार पर और ध्यान देना होगा। इसका एक बड़ा लाभ यह होगा कि बड़ी संख्या में युवाओं को रोजगार मिलेंगे।
चुनाव जिताने वाले मॉडल से विकास की शर्तें पूरी होंगी?
संपादकीय
दो राज्यों के चुनाव परिणामों ने यह साफ कर दिया है कि राजनीतिक दलों का सत्ता पाने या सत्ता में बने रहने का नुस्खा एक ही है – लुभावने नाम देकर पैसे खाते में डालो। ‘लाडकी बहिन योजना’ और ‘मैया सम्मान योजना’ सत्ता में बने रहने की कुंजी निकली। विपक्ष ने इस राशि को दूना, तीन गुना करने की बात की, पर जो सत्ताधारी दल पहले से किस्तें दे चुका था उस पर भरोसा ज्यादा बना । दिल्ली में आप सरकार पानी-बिजली फ्री की और तबसे तमाम सरकारों को भी यह वोट पाने का सहज रास्ता लगा। पर क्या इससे विकास की शर्तें पूरी होंगी? यह सच है कि अगर आर्थिक नीतियों से गरीब-अमीर की खाई बढ़ रही हो तो असंतोष कम करने के लिए ‘डायरेक्ट कैश डिलीवरी’ एक फौरी तरीका है। लेकिन यह किसी भी गवर्नेस का शाश्वत मॉडल नहीं हो सकता। विकास होता है अंतर – संरचनात्मक ढांचे को व्यापक और पुख्ता करने से, स्वास्थ्य में राजकीय चिकित्सा प्रणाली में डॉक्टर- आबादी, अस्पतालों की संख्या, दवाओं की उपलब्धता बढ़ाने से । इसके लिए करोड़ों रुपए खर्च कर मेडिकल कॉलेजों की संख्या बढ़ानी होती है। शिक्षा को सुलभ, सस्ता और गुणात्मक बनाने के लिए यूनिवर्सिटी, कॉलेज और शिक्षकों की तादाद बढ़ानी होती है। क्या देश में पिछले कुछ वर्षों में केंद्र और राज्य के स्तर पर इन दो प्रमुख मदों में बजट का प्रतिशत बढ़ा है? सरकारों का जीवन पांच साल का होता है, लिहाजा सत्ताधारी दल की सोच दीर्घावधि परियोजनाएं जैसे सिंचाई और उद्यमिता विकास पर उतनी नहीं होती, जितनी ‘रेवड़ी’ बांटकर चुनाव जीतने में। यही कारण है कि 70 वर्षों की विकास-यात्रा में आज भी भारत में मात्र 42% कृषि भूभाग ही सिंचित है। जनता को सोचना होगा कि उसके लिए क्या श्रेयस्कर है- बेहतर शिक्षा, रोजगार और समुचित इलाज या हर महीने खाते में चंद रुपए ?
Date: 26-11-24
संकट बनाम सुविधा
संपादकीय
इसमें कोई दोराय नहीं कि जलवायु संकट आज विश्व भर में सभी देशों की चिंता में सबसे ऊपर है और इसके खतरे को कम करने या इससे पूरी तरह निपटने के लिए सभी देशों को अपनी ईमानदार इच्छाशक्ति जाहिर करनी होगी। मगर इससे बड़ी विडंबना क्या होगी कि दिनोंदिन गहराते जा रहे इस संकट और इसके प्रभाव पर सभी देश विमर्श तो करते हैं, मगर इससे पार पाने के उपायों को लेकर वही देश अपनी जिम्मेदारी से पल्ला झाड़ लेते हैं, जिनकी भूमिका इस मुश्किल को बढ़ाने में ज्यादा रही है । विकसित देशों का यह रुख अपने आप में परेशान करने वाला है कि वे पृथ्वी के जलवायु पर बढ़ते संकट के सवाल पर हर बार दोहरा रवैया अपनाते हैं और इस मसले पर होने वाली तमाम बैठकों का हासिल अपने किसी मकसद तक नहीं पहुंच पाता। इस बार अजरबैजान के बाकू में भी सीओपी – 29 की बैठक में उम्मीद जरूर की गई थी कि शायद ग्रीनहाउस गैसों के उत्सर्जन की वजह से बढ़ते वैश्विक तापमान और उससे निपटने केउपायों को जमीन पर उतारने को लेकर विकसित देश वास्तव में कुछ ठोस पहल करेंगे। मगर यह अफसोस की बात है कि इस विश्वव्यापी संकट के सवाल पर विकसित देशों को अपनी सुविधा कायम रखना ज्यादा अहम लगता है ।
गौरतलब है कि बाकू में संपन्न हुए जलवायु शिखर सम्मेलन में समृद्ध देशों ने जलवायु वित्त पोषण के रूप में हर वर्ष तीन सौ अरब डालर की सहायता देने पर समझौता किया, वह भी सन 2035 से जबकि विकासशील देशों की मांग तेरह सौ अरब डालर की थी। यानी एक तरह से विकासशील देशों की मांगों को अनसुना कर दिया गया। विकसित देशों के रुख और सहायता राशि में इतने बड़े अंतर पर विकासशील देशों के बीच गहरी निराशा पैदा हुई और इस पर मतभेद उभरना स्वाभाविक था । भारत की ओर से यह साफ तौर पर कहा गया कि वह इस प्रस्ताव को वर्तमान स्वरूप में स्वीकार नहीं करता है, क्योंकि प्रस्तावित राशि बहुत ही कम है और यह हमारे देश के अस्तित्व के लिए जरूरी जलवायु कार्रवाई को असंभव बनाएगी। भारत ने समझौते को अपनाने के तरीके को भी आपत्तिजनक और ‘पूर्व नियोजित’ बताया। समस्या के स्वरूप और उससे निपटने के उपायों के मद्देनजर भारत की आपत्ति को विकासशील देशों का समर्थन मिला, वहीं विकसित देशों के बीच एक विचित्र चुप्पी देखी गई।
यह सही है कि ग्रीनहाउस गैसों के उत्सर्जन की वजह से वैश्विक तापमान में इजाफा हो रहा है और इसमें सबसे ज्यादा बड़ी भूमिका दुनिया के समृद्ध या विकसित देश ही निभाते हैं। दूसरी ओर, ‘ग्लोबल साउथ’ के देशों की भूमिका में इसमें अपेक्षा कम है और विकास की निरंतरता को कायम रखने के लिए उनकी कुछ व्यावहारिक जरूरतें हैं। इसी के मद्देनजर विकासशील देशों को जलवायु परिवर्तन से उपजने वाले संकट से पार पाने में मदद के लिए विकसित देशों का वित्तीय और तकनीकी संसाधन जुटाने का दायित्व है। इसी जिम्मेदारी के तहत विकसित देशों ने सन 2020 से हर वर्ष सौ अरब डालर जुटाने की पेशकश की थी। वह दावा कितना पूरा हुआ, यह सभी जानते हैं मगर वक्त और जरूरत के मुताबिक तेरह सौ अरब डालर की मांग को सिर्फ तीन सौ अरब डालर तक समेट देने का औचित्य समझ से परे है। सवाल है कि अगर पृथ्वी के जलवायु पर बढ़ते संकट के मसले को विकसित देश वास्तव में गंभीर मानते हैं, तो उसके मुख्य कारकों और उसके हल के व्यावहारिक उपायों में अपनी सक्रिय सहभागिता निभाने के बजाय वे अपने कदम पीछे क्यों खींच लेते हैं !
Date: 26-11-24
भारत की आपत्ति जायज
संपादकीय
भारत का ‘ग्लोबल साउथ’ ((विकासशील, कम विकसित या अविकसित (देश) के लिए सालाना 250 अरब अमेरिकी डॉलर जलवायु वित्त पैकेज को खारिज करना बिल्कुल जायज कदम है। जलवायु खतरों से निपटने के लिए यह रकम काफी कम है और भारत के साथ ही विशेषज्ञों ने इसे अनुचित बताया है। विशेषज्ञों ने इसके तौर-तरीकों पर भी सवाल उठाए हैं। उनका मानना है कि राशि जुटाने की अवधि 2035 की बजाय 2030 होनी चाहिए। साथ ही यह रकम ज्यादा होनी चाहिए। जलवायु खतरा किस कदर गंभीर हो चला है, यह बताने की जरूरत नहीं है। विश्व के लगभग तमाम देश इस खतरे से जूझ रहे हैं और इससे लड़ने की जुगत में दिन-रात एक किए हुए हैं। लाजिमी है कि इस बड़ी लड़ाई लड़ने के वास्ते महज हर वर्ष 250 अरब अमेरिकी डॉलर की राशि बेहद कम है। और इससे कुछ हासिल नहीं होने वाला। इसके लिए तत्काल 500 अरब डॉलर जुटाए जाने की जरूरत है। चिंता की बात यह भी है। कि मौजूदा जलवायु कोष महज 100 अरब डॉलर का है। जबकि इसके लिए समग्र तौर पर 1.3 अरब डॉलर की वास्तविक जरूरत है। बहरहाल, भारत की आपत्ति का कई देशों (नाइजीरिया, मलावी, बोलीविया) ने भले समर्थन किया है, मगर ये छोटे देश हैं जिनकी आवाज को हमेशा से अनसुना किया गया है। दरअसल, विकसित देश अपनीजिम्मेदारियों से हमेशा से पीछे हटते रहे हैं, जबकि पर्यावरण को सबसे ज्यादा क्षति इन्होंने ही पहुंचाई है। विकसित देश कार्बन उत्सर्जन में कटौती करने में विफल रहे हैं। इसके उलट वे ग्लोबल साउथ पर अनर्गल बोझ डालने का दबाव बनाते रहते हैं। स्वाभाविक है कि अगर इतने बड़े मंच में अनैतिक तरीके से समझौते को अंगीकार करने की साजिश रची जाएगी तो जलवायु परिवर्तन से निपटने का कोई औचित्य नहीं रह जाएगा। सिर्फ अपनी बात रखने और उसे मनवाने की संयुक्त राष्ट्र जलवायु सम्मेलन ( कॉप-29) की कवायद वाकई अगंभीर नजरिये को परिलक्षित करती है। भारत जैसे विशाल देश को इस मंच पर अपनी बात नहीं रखने देना कहीं से भी ईमानदार और पारदर्शी आचरण नहीं कहा जाएगा। अगर सभी देशों को जलवायु खतरे से वाकई सच्चे दिल से लड़ना है तो उन्हें ऐसे धत् कर्म करने से बचना होगा। विकसित देशों को बड़ा दिल दिखाने से ही समस्या का समाधान होगा।
वैधानिक नैतिकता का विस्तार जरूरी
भीम राव आंबेडकर, ( संविधान निर्माता )
ग्रीस के प्रसिद्ध इतिहास – वेत्ता श्री ग्रोट ने कहा है किसी भी स्वतंत्र और शांतिपूर्ण सरकार के लिए यह अनिवार्य रूप से आवश्यक है कि वैधानिक नैतिकता का प्रसार न केवल वहां के बहुसंख्यक लोगों में हो, बल्कि देश के समस्त नागरिकों में किया जाए, क्योंकि कोई भी शक्तिशाली और दुःसाध्य, हठी अल्पमत वाला वर्ग, चाहे वह स्वयं इतना शक्ति संपन्न न हो कि शासन की बागडोर अपने हाथ में ले सके, पर स्वतंत्र शासन का कार्य संचालन दुरूह या कठिन तो बना ही सकता है।
वैधानिक नैतिकता से ग्रोट का अभिप्राय यह है : ‘विधान के स्वरूपों के प्रति ऐसी परम श्रद्धा हो, जो उन स्वरूपों के अधीन रहकर और उनके अंतर्गत कार्य करने वाले प्राधिकारियों की आज्ञाओं को मनवाती हो, किंतु साथ ही, निश्चित विधि प्रतिबंधों के अधीन भाषण तथा कार्य स्वतंत्रता की वृत्ति पैदा करती हो और साथ-साथ उन्हीं प्राधिकारियों के लोक-कार्यों के बारे में अबाधित आलोचना की सुविधा देती हो और इसके साथ ही, प्रत्येक नागरिक के मन में यह विश्वास भी पैदा करती हो कि दल-संघर्ष – जनित – कटुता के होते हुए भी संविधान के स्वरूपों के प्रति उसके विरोधियों के हृदय में वही आदर होगा, जो उसके हृदय में है ।
‘ इस बात को प्रत्येक व्यक्ति स्वीकार करता है कि प्रजातंत्रात्मक विधान को शक्तिपूर्वक चलाने के लिए नैतिकता का प्रसार आवश्यक है, किंतु इससे परस्पर जुड़ी दो बातें हैं, जिन्हें दुर्भाग्य से लोग नहीं जानते । उनमें एक तो यह है कि शासन पद्धति का विधान पद्धति से बड़ा सन्निकट सम्बंध है। शासन पद्धति भाव और स्वरूप, दोनों की ही दृष्टि से विधान पद्धति के अनुरूप होनी चाहिए। दूसरी बात यह है कि विधान के स्वरूप को बदले बिना ही, केवल शासन प्रणाली में परिवर्तन करके विधान को पूर्णतः उलट देना तथा शासन को विधान की भावना के अनुरूप और प्रतिकूल बना देना बिल्कुल संभव है। इससे यही निष्कर्ष निकलता है कि केवल वहीं पर, जहां लोगों में वैधानिक नैतिकता का प्रसार है, जैसा उपरोक्त इतिहास- वेत्ता ने बताया है, इस बात का जोखिम उठाया जा सकता है कि शासन के विस्तार की बातों को विधान में न रखकर उन्हें विधान मंडल पर छोड़ दिया जाए। अब प्रश्न है, क्या वैधानिक नैतिकता का प्रसार हम संभव मानते हैं? वैधानिक नैतिकता की भावना स्वाभाविक, प्रकृति जन्य नहीं होती। इसे अभ्यास द्वारा अपनाना होगा। हमें यह जानना चाहिए कि हमारे देशवासियों को अभी भी इसे सीखना है। भारतीय भूमि स्वभावतः ही अप्रजातांत्रिक है और यहां प्रजातंत्र सिर्फ ऊपरी आवरण है। ऐसी परिस्थिति में शासन संबंधी नियम तय करने का काम विधान मंडल पर न छोड़ना ही श्रेयस्कर है।
इस मसविदे के विरुद्ध दूसरी आलोचना यह की गई है कि इसमें कहीं भी भारत की प्राचीन राजनीति को कोई स्थान नहीं दिया गया है। यह कहा जाता है कि इस नवीन विधान का निर्माण प्राचीन हिंदू राज्य परंपरा के आधार पर होना चाहिए था और इसमें पाश्चात्य राजनीतिक सिद्धांतों का समावेश न कर, ग्राम और जिला पंचायतों की भित्ति पर इसे खड़ा करना चाहिए था। कुछ ऐसे लोग भी हैं, जिनकी विचारधारा बहुत आगे अति की ओर चली गई है। वे कोई भी केंद्रीय या प्रांतीय शासन नहीं चाहते। वे चाहते हैं कि भारत में केवल ग्राम सरकारें हों । बुद्धि संपन्न भारतीयों का ग्राम समाज के प्रति जो प्रेम है, वह यदि कारुणिक नहीं, तो असीम तो अवश्य ही है। जो लोग इन ग्रामों पर गर्व करते हैं, वे इस बात का विचार ही नहीं करते कि आखिर देश के भाग्य निर्माण में तथा उसके कार्यकलाप में इन ग्रामों ने कितना कम हाथ बंटाया है और क्यों ? …मुझे आश्चर्य होता है कि जो लोग प्रांतीयता की, सांप्रदायिकता की निंदा करते है, वही ग्रामों की इतनी प्रशंसा कर रहे हैं। हमारे ग्राम हैं क्या? ये कूप मंडूकता के परनाले हैं, अज्ञान, संकीर्णता एवं सांप्रदायिकता की काली कोठरियां हैं। मुझे तो प्रसन्नता है कि विधान के मसविदे में ग्राम को अलग फेंक दिया गया है और व्यक्ति को राष्ट्र का अंग माना गया है।
विधान के मसविदे की इसलिए भी आलोचना की गई है कि इसमें अल्पसंख्यकों के संरक्षण की व्यवस्थाएं रखी गई हैं। इस देश के बहुसंख्यक और अल्पसंख्यक, दोनों ही वर्ग एक गलत रास्ते पर चले हैं। बहुसंख्यक वर्ग की यह गलती है कि उसने अल्पसंख्यक वर्ग का अस्तित्व नहीं स्वीकार किया और इसी प्रकार अल्पसंख्यक वर्ग की यह गलती है कि उसने अपने को सदा के लिए अल्पसंख्यक बनाए रखा। अब एक ऐसा मार्ग निकालना ही होगा, जिससे ये दोनों गलतियां दूर हों। मार्ग ऐसा होना चाहिए, जो अल्पसंख्यकों का अस्तित्व मान कर आगे बढ़े। साथ ही, मार्ग ऐसा भी हो, जिससे एक दिन अल्पसंख्यक और बहुसंख्यक, दोनों वर्ग मिलकर एक हो जाएं।
विधान के इस मसविदे में मौलिक सिद्धांतों के बाद ही निर्देशात्मक सिद्धांत रखे गए हैं, ये सिद्धांत परिषदात्मक प्रजातंत्र के लिए निर्मित विधान की एक उल्लेखनीय विशेषता हैं।… यह कहा गया है कि ये सिद्धांत केवल पवित्र घोषणा के ही रूप में हैं। इनमें दायित्व आरोपित करने की शक्ति नहीं है। निश्चय ही यह आलोचना व्यर्थ और अनावश्यक है। स्वयं विधान में यह बात कई शब्दों में कही गई है।अगर यह कहा जाए कि इन निर्देशात्मक सिद्धांतों के पीछे कानून का कोई बल नहीं है, तो मैं इसे मानने को तैयार हूं, किंतु यह मानने को मैं कदापि तैयार नहीं हूं कि दायित्व आरोपित करने की इनमें कोई शक्ति है ही नहीं।
कोई भी विधान सर्वथा पूर्ण नहीं हो सकता और इसके अलावा स्वयं मसविदा समिति ने उसे और अच्छा बनाने के लिए कई संशोधनों का सुझाव रखा है, पर प्रांतीय विधान मंडलों में इसके संबंध में जो बहस हुई है, उसके आधार पर मैं यह कहने का साहस कर सकता हूं कि प्रस्तुत विधान, जैसा कि मसविदा समिति ने इसे स्थिर किया है, इस देश के कार्यारम्भ के लिए काफी अच्छा है : मैं ऐसा समझता हूं कि प्रस्तुत विधान व्यवहार योग्य है। यह लचीला है और इतना सबल है कि युद्ध एवं शांति, दोनों ही समय में देश को एक सूत्र में बांधे रख सकता है। मैं यह कहूंगा कि यदि नवीन विधान के अंतर्गत कोई गड़बड़ी पैदा होती है, तो इसका कारण यह नहीं होगा कि हमारा विधान खराब था, बल्कि यह कहना चाहिए कि अधिकारारूढ़ व्यक्ति ही अधम था । अध्यक्ष महोदय, इन शब्दों के साथ मैं प्रस्ताव करता हूं कि इस पर विचार किया जाए।
India White Collars, Be A-Pac Predators’!
Migrants will guide India’s ‘Act East’ policy
ET Editorials
Salary hikes are accelerating in the Asia-Pacific as infla- tion moderates, pointing to a talent shortage building up in the region. Companies diversifying out of China, as al- so new investments in A-Pac, are routing capital and cre- ating demand for high-skilled jobs the local economies are finding difficult to keep pace with. This poses an op- portunity for white-collar Indians who are acquiring wa- ge negotiating power not only from a domestic invest- ment boom, but also from improving job prospects in the neighbourhood. Given their intricate economic connec- tion to the Chinese economic machine, countries in Sout- heast Asia are an obvious choice of location for a ‘China plus-one’ supply chain strategy. India, too, is a contender for such global manufacturing investments. Either way, Indian job-seekers stand to gain.
Outside of China, India generates the highest volume of skills in demand in A-Pac. Where it runs into capacity constraints, Indian students make up sizeable popula- tions in neighbourhood university campuses. Gol is also tweaking educa- tion policy to reorient skills supply to emerging sectors such as climate change. This should widen the funnel. for skills as demand evolves in the region. Improving eco- nomic prospects, accommodative immigration policies and geographical proximity will strengthen Indian ex- port of high-skilled workers in A-Pac. This would be de- spite India’s reservations over integrating further with economies in the zone on account of an overwhelming Chinese presence. Migrant Indian workers will, at some point, guide India’s Act East policy.
Southeast Asia should be rooting for India’s emergen- ce as an economic counterweight to China. Besides, In- dia is a gateway for South Asia’s manufacturing exports to Europe. It would make eminent sense for Southeast Asia to welcome Indian professionals and students as it draws more global capital to move up the manufacturing value chain. This could be a second wave of migration. out of India that raises the region’s economic profile.
Date: 26-11-24
No Big Deal, But Still A Deal to Work On
ET Editorials
Best to use the term ‘damp squib’ rather than the less-polite acro- nym in Hindi to describe the New Collective Quantified Goal on Climate Finance (NCQG) released at Baku COP29. After a deca- de of anticipation, two weeks of intensive negotiations and poli- tical bargaining, the deal is too little, too distant. It aims to triple finance to developing countries from the previous goal of $100 bn to $300 bn annually… by 2035. In the process, it shifts responsibi- lity, relying on MDBs. The result? More loans, fewer grants, whi- le developing countries shoulder the real action to adapt to cli- mate impacts, address L&D, mitigate emissions and grow their economies all without adding to their fiscal distress.
Yet, the deal is also perhaps the best possible outcome under the circumstances. Rich countries insis- ted high-income, high-emitting develo- ping countries also contribute-anon-ne- gotiable stance for the EU. The US, poised to exit the Paris Agreement with Trump waiting in the wings with a jerry can, re- quired a deal they could return to. Sensing shifting dynamics, China backed a deal that recognised its role without imposing additional burdens. Gulf states prioritised a transition that wouldn’t be onerous for their oil and gas economies. Developing countries failed to uni- te and advocate for the deal they truly needed-more grants- leaving individual groups to negotiate their own concessions. India must move beyond being a conscientious objector. It can help shape the $1.3 tn promise into a reality that addresses developing countries’ needs. With the Baku-to-Belem (host of COP30) roadmap for scaling up finances set for discussion over the next year, India must strategically engage to deliver for the ‘global south’.
Date: 26-11-24
The Constitution still thrives, let it show India the way
But a speech that should haunt all Indians is that of its principal draftsman on the eve of the Constitution’s adoption – on people and political parties making it work
Shashi Tharoor, ( a fourth-term Indian National Congress Member of the Lok Sabha for Thiruvananthapuram, and the award-winning author of 26 books, including’The Battle ofBelonging: On Nationalism, Patriotism and What it Means to be Indian’ (2021). He is a member of the Congress Working Committee )
This month marks the 75th anniversary of the adoption by the Constituent Assembly of the draft Constitution of India, on November 26, 1949. The Union government has announced that it intends to commemorate this momentous occasion with a special joint sitting of Parliament. There are bound to be several self-congratulatory speeches, from all sides of our fractious political divide. But the speech that should haunt us all is that of the principal draftsman of the Constitution, B.R. Ambedkar, on the eve of the Constitution’s adoption. On November 25, 1949, in his magisterial summation of the work of the Drafting Committee he chaired, and before commending its work to the Assembly, he pointedly observed: “however good a Constitution may be, it is sure to turn out bad because those who are called to work it, happen to be a bad lot. However bad a Constitution may be, it may turn out to be good if those who are called to work it, happen to be a good lot.”
The working of the Constitution, Dr. Ambedkar pointed out, depended on how the people and the political parties applied it. The drafters had made provision for relatively easy amendment, so as to permit the document to keep up with the needs of the times. But the rest depended on the way successive generations of its custodians chose to implement it.
The lacunae that B.R. Ambedkar identified
Dr. Ambedkar highlighted the fact that “there is complete absence of two things in Indian society” – equality and fraternity. “On the 26th of January 1950,” he declared, “we are going to enter into a life of contradictions. In politics we will have equality and in social and economic life we will have inequality. In politics we will be recognizing the principle of one man one vote and one vote one value. In our social and economic life, we shall, by reason of our social and economic structure, continue to deny the principle of one man one value. How long shall we continue to live this life of contradictions? How long shall we continue to deny equality in our social and economic life?”
In calling for a social and not merely political democracy to emerge from the Constitution, Dr. Ambedkar stressed the absence of fraternity as the second major ingredient that was missing in India. “Fraternity means a sense of common brotherhood of all Indians – of Indians being one people. It is the principle which gives unity and solidarity to social life.” But thanks to the caste system – the entire structure of caste, he averred,was ‘anti-national’ – religious divisions and the absence of a common sense of nationhood among some Indians, fraternity had not yet been achieved. But it was indispensable, since liberty, equality and fraternity were all intertwined and could not flourish independently of one another. “Without equality,” he pointed out, “liberty would produce the supremacy of the few over the many. Equality without liberty would kill individual initiative. Without fraternity, liberty would produce the supremacy of the few over the many. Without fraternity, liberty and equality could not become a natural course of things. It would require a constable to enforce them.”
What has changed
Today, 75 years later, it is well worth asking what progress we have made to achieve the aims of the Constitution’s drafters, and in particular to fill the lacunae that Dr. Ambedkar identified. Equality has advanced, no doubt, with the abolition of untouchability being accompanied by the world’s oldest and farthest-reaching affirmative action programme, in the form of reservations, initially for Scheduled Castes and then for the Other Backward Classes (OBC). These reservations, which were initially intended to be temporary, have now been entrenched in our system and may be said to be politically unchallengeable. But the task of promoting social and economic equality, which Dr. Ambedkar pointed to, is far from complete. The clamour for further opportunities for those who believe that Indian society continues to deny them the equality of outcomes that the numbers warrant, continues to roil our politics. The escalating demand for a caste census is bound to have further implications for the evolution of India’s constitutional practice.
As for fraternity, the mobilisation of votes in our contentious democracy in the name of caste, creed, region and language have ensured that the social and psychological sense of oneness that Dr. Ambedkar spoke about, is still, at best, a work in progress. But there is no doubt that the sense of nationhood that he felt had not yet come into existence has now become embedded across the country. One only needs to look at the crowds at a cricket match involving the Indian team, or the national outrage and mourning after an international conflict such as the Kargil war (1999) or the Galwan incident (2020), to be aware that there is a strong sense of nationhood despite the persistence of local or sectarian identities.
Yet, by reifying caste reservations, India has promoted equality but arguably undermined fraternity. Fraternity had a special place in Dr. Ambedkar’s vision; the word was, in many ways, his distinctive contribution to India’s constitutional discourse. It also had an economic dimension, with the implicit idea that the assets of the better-off would be used to uplift the untouchables and other unfortunates. Fraternity would both result from and lead to the erosion of social and caste hierarchies. But, as the sociologist Dipankar Gupta has argued, the extension of reservations to the OBCS saw caste as ‘an important political resource to be plumbed in perpetuity’. Professor Gupta avers that this ‘is not in the spirit of enlarging fraternity, as the Ambedkar proposals are’; while Dr. Ambedkar’s ultimate aim was the annihilation of caste from Indian society, for Mandal, caste was not to be “removed”, but to be “represented”? It entrenched caste rather than eliminating it from public life.
Highs and worrying lows
This debate may well go on. Still, we can be grateful that the ascent to power of the very elements of Indian politics who had initially rejected the Constitution has not resulted in its abandonment. There is a certain irony to a Bharatiya Janata Party government celebrating a document that its forebears in the Rashtriya Swayamsevak Sangh and the Jana Sangh had found “un-Indian” and devoid of soul. That soul has evolved over 75 years and 106 amendments, and the Constitution still thrives. But the hollowing out of many of the institutions created by the Constitution, the diminishing of Parliament, pressures on the judiciary and the undermining of the democratic spirit – leading to the V-Dem Institute labelling India as an “electoral autocracy”, policed by the “constable” Dr. Ambedkar warned against – mean that much still remains to be done by its custodians.
“Independence,” Dr. Ambedkar said in concluding his memorable speech, “is no doubt a matter of joy. But let us not forget that this independence has thrown on us great responsibilities. By independence, we have lost the excuse of blaming the British for anything going wrong. If hereafter things go wrong, we will have nobody to blame except ourselves.” Seventy-five years later, let us vow to the reduce the number of things we need to blame ourselves for- and let the Constitution show us the way.
Date: 26-11-24
Feminist ideology in India’s constitutional discourse
The fact that the founding mothers’ of the Indian Republic too painstakingly co-authored the Constitution of India has been brushed over
Faisal C.K., ( Deputy Law Secretary to the Government of Kerala )
In the Indian scenario, even calling the framers of the Constitution of India as ‘founding fathers’ is very patriarchal and paternalistic. The fact that the ‘founding mothers’ of the Indian Republic, the eminent women in the Constituent Assembly, too painstakingly co-authored the Constitution, has been spitefully hidden from the popular imagination. Achyut Chetan writes in his Founding Mothers of the Indian Republic: Gender Politics of the Framing of the Constitution (2022): “It is through the dynamics of will, consent, and, frequently enough, dissent, that women members carried the feminist movement through and beyond the Constituent Assembly. Each article of the Constitution, therefore, is a point of diffraction in the history of Indian feminism. The Constitution is drafted not just by the consent of women but also by their will.”
However, Christine Keating in her Framing the Postcolonial Sexual Contract: Democracy, Fraternalism, and State Authority in India (2007) demonstrated how the ‘founding fathers’ constitutionally subjugated the woman: “The Constituent Assembly struggled to reconcile their commitment to an egalitarian polity with their efforts to build consent for the political authority of the new Indian state…the assembly settled on a compromise, what I call the postcolonial sexual contract, to resolve that dilemma: they established equality in the public sphere as a fundamental right for women yet sanctioned discriminatory personal laws that maintained women’s subordination in the family in order to secure fraternal acquiescence to the centralized rule.”
The beginnings
The founding mothers cobbled an intersectional alliance with B.R. Ambedkar for the realisation of social revolution. They shared his sceptical attitude towards the romantic celebration of Indian culture which is deeply anchored in the brahmanical patriarchy. Amrit Kaur, a prominent founding mother of the Constitution, asserted in 1932 that the women of India were no longer willing to submit to standards, whether local, political, or ethical, which had been set for them by the male conscience of the community. The founding mothers laboured in and out of the Constituent Assembly to break the patriarchal ecosystem. But the nation has failed them deplorably.
Fight against a goliath
The founding mothers conceived the Fundamental Rights not just as injunctions against the state but also as a social charter that restores their inherent freedoms curtailed by the behemoths in the private sphere such as religion and family which enjoyed privileged insulation from political interventions. Hansa Mehta and Amrit Kaur demanded that a Uniform Civil Code capable of arresting the aggrandising social-patriarchal power must be included in the Fundamental Rights.
And when the Uniform Civil Code was relegated to the Directive Principles, they played a remarkable role in bringing a prelude to the Directive Principles, that they are ‘fundamental in the governance of the country and the state has a duty to apply them in making laws’. This prelude, incorporated at the behest of the founding mothers, played a vital role in the ascendancy of the Directive Principles in the constitutional jurisprudence of India in the 1980s.
Begum Aizaz Rasul articulated that secularism was the most outstanding feature of the Constitution. In the Sub Committee on Fundamental Rights, Hansa Mehta tried to limit the right to religion as she believed that it would curtail women’s right to equality and social reforms such as the abolition of child marriage. Hansa Mehta and Amrit Kaur demanded the term ‘free practice of religion’ be replaced by ‘freedom of religious worship’ as a constitutional carte blanche for religion would impede Indian women’s emancipation. In Amrit Kaur’s note of dissent on the ‘Freedom of Religion’, she vigorously underscored the anti-woman tendency of religious practices: “[unbridled freedom of religion] would not only bar the future legislation but would even invalidate past legislations such as the Widow Remarriage Act, the Sarda Act or even law abolishing sati. Everyone is aware how many evil practices which one would like to abolish, are carried on in the name of religion, for example, purdah, polygamy…dedication of girls to temples, to mention a few.” A disheartening chapter in the life of the Indian Republic is that the man’s right to religion conquered the woman’s right to equality and dignity.
Still a struggle
Kamaladevi Chattopadhyay believed that the Constitution heralded a new beginning for women in India as it guaranteed equality and justice for them. But this euphoria did not last for long. The Government of India’s official report, “Towards Equality: Report of the Committee on the Status of Women in India’ (1974), concluded that the Indian Republic had failed to achieve equality for its womenfolk even after two decades of the promise made in the Preamble.
After the passing away of the ‘founding mothers’, Indian feminist constitutionalism has been affected. Despite strong women leaders in politics, India has not been blessed with a feminist stateswoman or jurist. Women’s presence in the corridors of power remains abysmal. The Uniform Civil Code designed to dispel gender injustice has been a cheque drawn in favour of the Indian woman by the founding fathers and mothers. But it has been dishonoured by the Republic’s political bankers despite sufficient jurisprudential funds at their disposal.