26-03-2024 (Important News Clippings)

Afeias
26 Mar 2024
A+ A-

To Download Click Here.


 Date:25-03-24

Phony Joys

When the young are less happy than the old, personal tech could be the reason

TOI Editorials

It’s a near-universal phenomenon: The cult of youth. Books to movies and music, most countries’ cultural indicators would have us believe that it is their young who are really living it up. While the elders are sighing it down. In reality, the picture is rather uneven. This is an interesting aspect of World Happiness Report 2024. It highlights a wider social science finding that there is divergence between countries on whether the young or the old report greater life satisfaction. India, interestingly, is an outlier among its income-group peers.

Happy old men | Generally, high-income countries report overlapping increases in age and life satisfaction. Highly representative of this income-group is US, with those under 30 seriously lagging those 60 and older. Many experts put the blame squarely on social media and an overall decline in “pro-social behaviour”. India is at a very different stage of economic development. What would explain younger people already showing lower life satisfaction here?

Happier old women | Equally interestingly, higher levels of life satisfaction are reported for older Indian women than older men. Here, too, a crucial hinge is older women’s wider and more diverse social networks, including more friends and confidants. Loneliness can be hydra-headed in its impact on perception and memory, leading one to attach more importance to the negative aspects of one’s life.

Group pic | Thinking seriously about these fuzzy matters is quite important. Not to lock everyone into the same idyllic picture of youth or age. Or push some draconian mass treatment. Individual experience of well-being forms the bedrock of the collective experience. Policymakers need to learn the right lessons, to nudge the collective in the direction of greater overall well-being.

Young and stuck | The shortage of quality jobs has to be taking a toll. Fixing this is obviously imperative. But another reason Indian and US youth could be experiencing something similar despite living in different-stage economies, is that the smartphone became our nerveline at the same time. In both countries, influencers could be shaping unrealistic expectations of work-life balance to comparable degrees.

Holi-by-self | There will be infinite Holi selfies today. And these will tell us little about how much happy exchange of colours is taking place between family, friends and strangers. Watching cricket on a personal screen is one thing, playing it in the neighbourhood gully quite another, endorphins wise.


 Date:25-03-24

राजनीति की भी आदर्श आचार संहिता बने

हृदयनारायण दीक्षित, ( लेखक उत्तर प्रदेश विधानसभा के पूर्व अध्यक्ष हैं )

उत्सवधर्मी भारतीय संस्कृति में रंग पर्व होली के साथ ही विश्व के सबसे बड़े लोकतांत्रिक महोत्सव ‘आम चुनाव’ की प्रक्रिया भी आरंभ हो गई है। इस चुनाव में करीब 97 करोड़ मतदाता हैं। निर्वाचन आयोग द्वारा चुनाव घोषणा के साथ ही आदर्श चुनाव आचार संहिता भी लागू हो गई है। स्वतंत्र, निष्पक्ष और निर्भीक चुनाव निर्वाचन आयोग का संवैधानिक कर्तव्य है। निष्पक्ष, निर्भीक और स्वतंत्र चुनाव में धनबल एक बड़ी चुनौती बनकर उभरा है। वोट के बदले नोट की घटनाएं होती रही हैं। प्रशासन अवैध धन और शराब आदि की धरपकड़ की चुनौती से जूझता है। इसमें कई बार निर्दोष भी उत्पीड़न का शिकार होते हैं। निष्पक्ष चुनाव के लिए आदर्श चुनाव आचार संहिता ही एकमात्र उपाय है, लेकिन ऐसी संहिता के पीछे कानून की शक्ति नहीं है। उसका उल्लंघन करने वालों को दंडित करने की कानूनी शक्ति का अभाव है। बेशक आचार संहिता के पालनीय नियम लोक प्रतिनिधित्व कानून, चुनाव नियम और अन्य अधिनियमों का सार हैं, लेकिन राजनीति के खिलाड़ी प्रायः खेल के नियम नहीं मानते। आदर्श आचार संहिता के उल्लंघन की घटनाएं लगातार बढ़ी हैं।

आचार संहिता का उल्लंघन करने वालों पर भारतीय दंड विधान, दंड प्रक्रिया संहिता या लोक प्रतिनिधित्व अधिनियम के प्राविधानों में कार्रवाई होती है। आचार संहिता में संहिता उल्लंघन पर दंडात्मक विधिक कार्रवाई का कोई प्राविधान नहीं है। निष्पक्ष चुनाव साधारण कर्तव्य नहीं है। चुनाव लोकतंत्र का प्राण है। चुनाव से सरकार बनती है। चुनाव से जिम्मेदार विपक्ष एवं सत्तापक्ष को जनादेश मिलता है। ब्रिटिश राज में भारत शासन अधिनियम, 1935 बना था। इसकी धारा 201 में चुनाव संबंधी सामान्य प्राविधान थे। संविधान निर्माताओं की दृष्टि में सामान्य प्रविधान अपर्याप्त थे। उन्होंने निष्पक्ष चुनावों के लिए स्वतंत्र चुनाव संस्था गठित करने पर विचार किया। संविधान सभा में डा. आंबेडकर ने स्वतंत्र निर्वाचन आयोग का प्रस्ताव रखा। यह कनाडा के निर्वाचन कानून 1920 जैसा था। चुनाव में धांधली और अनुचित साधनों के दुरुपयोग की चर्चा संविधान सभा में भी हुई। डा. आंबेडकर ने मताधिकार को पवित्र बताया और उससे वंचित करने को निंदनीय। हृदयनाथ कुंजरू ने सारगर्भित टिप्पणी की, दोषपूर्ण चुनाव से जनतंत्र विषाक्त होगा। लोग चुनाव से यही सीखेंगे कि षड्यंत्र आधारित दलों का निर्माण कैसे होता है।’ सभा ने स्वतंत्र निर्वाचन आयोग संबंधी प्रस्ताव पारित किया। इसके बाद लोक प्रतिनिधित्व अधिनियम बना।

देश में हुए पहले चुनाव में कोई आचार संहिता नहीं थी। 1961 में चुनाव के नियम बने। आयोग ने 1968 में ‘चुनाव चिह्न आरक्षण एवं आवंटन आदेश’ जारी किया। यह एक साधारण आदेश था, लेकिन कानूनी शक्ति संविधान, लोक प्रतिनिधित्व कानून एवं चुनाव नियम 1961 में निहित थी। आदर्श चुनाव संहिता तब अस्तित्व में नहीं थी। चुनाव धांधलियां जारी रहीं। धांधली भी केवल चुनावों के समय ही चर्चा में रहती है। चुनाव सुधार की मांग भी महत्वपूर्ण नहीं बन पाई। आयोग लगभग असहाय था। जब टीएन शेषन मुख्य चुनाव आयुक्त बने तब उन्होंने चुनाव को सचमुच निष्पक्ष बनाने के लिए अनेक आदेश जारी किए। उन्होंने ही पहली बार ‘आदर्श चुनाव आचार संहिता’ शीर्षक से एक प्रशासनिक पत्र जारी किया। आचार संहिता में दलीय विचार नीति एवं कार्यक्रम को लेकर आलोचना की अनुमति है। व्यक्तिगत आरोपों और प्रत्यारोपों पर सख्त रोक है, लेकिन व्यवहार में दलों की विचारधारा साम्यवाद, राष्ट्रवाद और पूंजीवाद पर बहस नहीं होती। आचार संहिता की धारा एक उपशीर्षक ‘सामान्य आचरण’ में ‘जाति, संप्रददाय, पंथ या भाषाई समूहों के मध्य अलगाव बढ़ाने वाले कृत्यों का निषेध है।’ यह स्वागतयोग्य है, लेकिन चुनाव अभियान में जाति और मजहबी तुष्टीकरण की बातें खुल्लमखुल्ला चलती हैं। आदर्श आचरण अल्पकालिक नहीं होते। सदाचरण सहस्त्रों वर्षों के सांस्कृतिक विकास का परिणाम होते हैं। भारत के दलतंत्र की कोई आचार संहिता नहीं है। केवल चुनावों के दौरान आदर्श आचार संहिता की बात करना व्यर्थ है। चुनावी आचार संहिता केवल चुनाव के समय ही चर्चा में आती है। शेष समय राजनीतिक दलों पर किसी आचार संहिता का अनुशासन नहीं होता। वे संविधान के नीति निदेशक तत्वों एवं संवैधानिक कर्तव्यों पर भी ध्यान नहीं देते। दल अपने कार्य संचालन में किसी आचार संहिता के बंधन में नहीं होते। बेशक आदर्श चुनाव आचार संहिता के सभी तत्व प्रशंसनीय हैं, लेकिन इन कर्तव्यों के पालन की अपेक्षा केवल चुनाव के दिनों में ही की जाती है। वस्तुत:, राजनीतिक व्यवस्था में व्यापक सुधार जरूरी है।

राजनीतिक और सामाजिक व्यवस्थाएं एक दूसरे पर प्रभाव डालती हैं। सामाजिकृसांस्कृतिक उत्थान से जुड़े महानुभाव सामाजिक आदर्श आचार संहिता का विकास करते हैं। समाज की आदर्श आचार संहिता का पालन प्रायः सब लोग करते हैं, लेकिन राजनीति इससे मुक्त रहती है। प्रश्न है कि आदर्श चुनाव आचार संहिता या ऐसी ही कोई अन्य संहिता प्रत्येक समय राजनीतिक दलों पर क्यों लागू नहीं हो सकती? चुनाव के समय ही आदर्श आचरण की जरूरत और शेष समय सदाचरण मुक्त होने का औचित्य क्या है? कुछेक दल अपने राजनीतिक अभियानों में अलगाववाद, तुष्टीकरण एवं जातिभेद की चर्चा करते हैं। जबकि कुछ दल हर समय राष्ट्रीय संप्रभुता एवं अखंडता को चुनौती देते रहते हैं। ऐसे दलों से केवल चुनाव के समय आदर्श आचरण की उम्मीद कैसे की जा सकती है? आदर्श दलतंत्र से ही आदर्श आचार चुनाव संहिता के पालन की उम्मीद की जा सकती है। दलतंत्र का बड़ा हिस्सा नियमविहीन है। औसत दल राष्ट्रीय जीवन मूल्य नहीं मानते। अधिकांश दलों के अपने संविधान भी नहीं हैं। अधिकांश दलों में आजीवन अध्यक्ष हैं। वे दल प्राइवेट प्रापर्टी बन गए हैं।

राजनीति वस्तुतः लोकमंगल की साधना है। दलतंत्र को सदैव आदर्श आचार संहिता के दायरे में होना चाहिए। चुनाव को निर्भीक और निष्पक्ष बनाने के लिए आदर्श चुनाव आचार संहिता जरूरी है, लेकिन आचार संहिता का उल्लंघन करने वालों के विरुद्ध कड़े कानूनों पर भी विचार किया जाना चाहिए। हालंकि, सिद्धांतनिष्ठ, विचारनिष्ठ दलतंत्र के लिए राजनीतिक आचार संहिता का कोई विकल्प नहीं। राजनीतिक दल चुनाव के अलावा शेष समय में भी पार्टी संचालन और जनअभियानों के दौरान राजनीतिक आचार संहिता का पालन करें तो शुभ होगा। आदर्श चुनाव आचार संहिता पर्याप्त नहीं है, इसे कानून की शक्ति चाहिए। देश को प्रत्येक समय प्रवर्तित आदर्श राजनीतिक आचार संहिता की आवश्यकता है।


 Date:25-03-24

शांत पड़ोसी की दरकार

संपादकीय

भारत आतंकवाद की समस्या को नजरंदाज करने के कतई पक्ष में नहीं है। विदेश मंत्री डॉक्टर जयशंकर ने सिंगापुर राष्ट्रीय विश्वविद्यालय दक्षिण एशियाई अध्ययन संस्थान में कहा। अपनी पुस्तक वाई भारत मैटर्स पर व्याख्यान सत्र के बाद आयोजित सवाल-जवाब के सत्र के दौरान ये विचार रखे। पाकिस्तान के साथ भारत के संबंधों पर उन्होंने कहा हर देश स्थिर पड़ोसी चाहता है, और कुछ नहीं तो कम-से-कम आप शांत पड़ोस तो चाहते ही हैं। दुर्भाग्य से भारत के साथ ऐसा नहीं है। उन्होंने स्पष्त रूप से कहा कि भारत के खिलाफ पाकिस्तान आतंकवाद को प्रायोजित कर रहा है। ऐसे पड़ोसी से आप कैसे निपटेंगे, जो खुलेआम स्वीकारता है कि आतंकवाद को शासन के साधन के रूप में इस्तेमाल करता है। उन्होंने सख्ती से कहा कि मेरे पास अब कोई त्वरित समाधान नहीं है, लेकिन भारत अब इन समस्याओं को नजरंदाज नहीं करेगा। अरुणाचल प्रदेश पर चीन के दावे को भी उन्होंने खारिज करते हुए कहा कि यह दावा शुरू से ही बेतुका है। विदेश मंत्री पहले भी विभिन्न मौकों पर वैश्विक मंचों से पाकिस्तान को उसकी हरकतों के कारण लताड़ लगाते रहे हैं। कुछ दिन पहले उन्होंने पाकिस्तना को चेतावनी देते हुए कहा था कि कोई भी देश कभी मुश्किल स्थिति से बाहर नहीं निकल सकता। जब तक समृद्ध शक्ति न बन जाए। स्पष्ट है कि पड़ोसी देशों के प्रति सरकार का दृष्टिकोण बदला है। जयशंकर ने विभिन्न चुनौतियों का बेहतर ढंग से निपटारा कर सरकार का रुख दुनिया के समक्ष पेश किया है। राजनेता न होने के बावजूद उन्होंने अपने फैसलों व बयानों से पाकिस्तान को विभिन्न मंचों से सख्त चेतावनी देने में कभी संकोच नहीं किया। वे बार-बार सलाह देते रहे हैं कि गंभीर आर्थिक संकट से निकलने के लिए नीतिगत विकल्प खोजने चाहिए। जयशंकर दूसरे बड़बोले नेताओं की तरह नहीं हैं। उनकी छवि धीर-गंभीर व सख्त लहजे में अपना मत रखने वालों की है। उनके रवैये को इसी से समझा जा सकता है कि वे अपनी सरकार द्वारा विकल्प देने व समर्थन के लिए राजी रहने की बात करते हैं। मगर इस तथ्य को झुठलाया नहीं जा सकता कि सारी मशक्कत के बावजूद देश पाक व चीन से सीमा विवाद को लेकर किसी नतीजे में नहीं पहुंचा है। न ही आतंकवादी गतिविधियों पर लगाम ही कसी जा सकी है। यह मुश्किल है पर नामुमकिन नहीं ।


 Date:25-03-24

न्यायिक सक्रियता के मायने

विनीत नारायण

हाल में देश की शीर्ष अदालत द्वारा दिए गए कई अहम फैसलों से देश में न्यायिक सक्रियता अचानक बढ़ी है। इसके पीछे देश के मुख्य न्यायाधीश जस्टिस डॉ. डी वाई चंद्रचूड़ की अहम भूमिका को देखा जा रहा है। हाल ही में मुख्य न्यायाधीश जस्टिस चंद्रचूड़ का एक राष्ट्रीय टीवी चैनल को दिया गया इंटरव्यू चर्चा में आया है। जब से जस्टिस चंद्रचूड़ ने भारत के मुख्य न्यायाधीश का पद सम्भाला है तभी से देश की शीर्ष अदालत में कई परिवर्तन देखने को मिले हैं। ऐसे कई क्रांतिकारी कदम उठाए गए हैं जो वकीलों, याचिकाकर्ताओं, पत्रकारों और आम जनता के लिए फायदेमंद साबित हुए हैं।

देश भर के नागरिकों को संदेश देते हुए मुख्य न्यायाधीश जस्टिस चंद्रचूड़ ने कहा, ‘सुप्रीम कोर्ट हमेशा भारत के नागरिकों के लिए मौजूद है। चाहे वे किसी भी धर्म के हों, किसी भी सामाजिक स्थिति के हों, किसी भी जाति अथवा लिंग के हों या फिर किसी भी सरकार के हों। देश की सर्वोच्च अदालत के लिए कोई भी मामला छोटा नहीं है।’ इस संदेश से उन्होंने देश भर के आम नागरिकों को यह विश्वास दिलाया है कि न्यायपालिका की दृष्टि में कोई भी मामला छोटा नहीं है। जस्टिस चंद्रचूड़ आगे कहते हैं कि, “कभी-कभी मुझे आधी रात को ई-मेल मिलते हैं। एक बार एक महिला को मेडिकल अबॉर्शन की जरूरत थी। मेरे स्टाफ ने मुझसे देर रात संपर्क किया। हमने अगले दिन एक बेंच का गठन किया। किसी का घर गिराया जा रहा हो, किसी को उनके घर से बाहर किया जा रहा हो, हमने तुरंत मामले सुने।’

इससे यह बात साफ है कि देश की सर्वोच्च अदालत देश के हर नागरिक को न्याय दिलाने के लिए प्रतिबद्ध है। सूचना और प्रौद्योगिकी का हवाला देते हुए मुख्य न्यायाधीश जस्टिस चंद्रचूड़ ने यह भी संदेश दिया कि देश की सर्वोच्च अदालत अब केवल राजधानी दिल्ली तक ही सीमित नहीं है। इंटरनेट के जरिये अब देश के कोने-कोने में हर कोई अपने फोन से ही सुप्रीम कोर्ट से जुड़ सकता है। आज हर वो नागरिक चाहे वो याचिकाकर्ता न भी हो देश की शीर्ष अदालत में हो रही कार्यवाही का सीधा प्रसारण देख सकता है। इस कदम से पारदर्शिता बढ़ी है। जस्टिस चंद्रचूड़ ने कहा कि, ‘अदालतों पर जनता का पैसा खर्च होता है, इसलिए उसे जानने का हक है। पारदर्शिता से जनता का भरोसा हमारे काम पर और बढ़ेगा।’ टेक्नोलॉजी पर बात करते हुए जस्टिस चंद्रचूड़ ने कहा कि, ‘टेक्नोलॉजी के जरिए आम लोगों तक इंसाफ पहुंचाना मेरा मिशन है। टेक्नोलॉजी के जमाने में हम सबको साथ लेकर चलने की कोशिश कर रहे है। हर किसी के पास महंगा स्मार्टफोन या लैपटॉप नहीं है। केवल इस कारण से कोई पीछे ना छूटे, इसके लिए हमने देश भर की अदालतों में 18000 ई-सेवा केंद्र’ बनाए हैं। इन सेवा केंद्रों का मकसद सारी ई-सुविधाएं एक जगह पर मुहैया कराना है।’ यह एक अच्छी पहल है जो स्वागत योग्य है। जरा सोचिए पहले के जमाने में जब किसी को किसी अहम केस की जानकारी या उससे संबंधित दस्तावेज चाहिए होते थे तो उसे दिल्ली के किसी वकील से संपर्क साध कर कोर्ट की रजिस्ट्री से उसे निकलवाना पड़ता था, जिसमें काफी समय खराब होता था, परंतु आधुनिक टेक्नोलॉजी के जमाने में अब यह काम मिनटों हो जाता है।

टेक्नोलॉजी के अन्य फायदे बताते हुए जस्टिस चंद्रचूड़ ने कहा कि, ’29 फरवरी 2024 तक वीडियो कॉन्फ्रेंसिंग के जरिये देश भर की अदालतों में लगभग 3.09 करोड़ केस सुने जा चुके हैं। इतना ही नहीं देश भर के करीब 21.6 करोड़ केसों का सारा डेटा इंटरनेट पर उपलब्ध है। इसके साथ ही क़रीब 25 करोड़ फैसले भी इंटरनेट पर उपलब्ध हैं। यह देश की न्यायपालिका के लिए उठाया गया एक सराहनीय कदम है। महिला सशक्तिकरण को लेकर जस्टिस चंद्रचूड़ ने कहा कि, ‘फरवरी 2024 में सुप्रीम कोर्ट में 12 महिला वकीलों को वरिष्ठ वकील की उपाधि दी गई। अगर आजादी के बाद से 2024 की बात करें तो सुप्रीम कोर्ट में केवल 13 वरिष्ठ महिला अधिवक्ता थीं। यह एक बड़ी उपलब्धि है। इतना ही नहीं आज सुप्रीम कोर्ट में काम कर रही महिला रजिस्ट्रार देश के कोने- कोने से आई हुई हैं। ये वो न्यायिक अधिकारी हैं, जो जिला अदालत की वरिष्ठ न्यायाधीश होती हैं। वे अपने अनुभव के आधार पर सुप्रीम कोर्ट के कई जजों की सहायता कर रहीं हैं। इनके अनुभव पर ही सुप्रीम कोर्ट को देश भर की अदालतों के लिए योजनाएं बनाने में मदद मिलती है जो न्यायिक प्रक्रिया को जनता के लिए लाभकारी बनाती है।

इसके साथ ही हम इस बात पर भी ध्यान देते हैं कि महिलाओं को कोर्ट में काम करते समय एक सुरक्षित व सम्मानित वातावरण भी मिले।’ इस साक्षात्कार का सबसे रोचक पक्ष है जस्टिस चंद्रचूड़ दिनचर्या का खुलासा । वे गत 25 वर्षों से रोज सुबह 3.30 बजे उठते हैं। फिर योग, ध्यान, अध्ययन और चिंतन करते हैं। वे दूध से बने पदार्थ नहीं खाते बल्कि फल सब्जियों पर आधारित खुराक लेते हैं। हर सोमवार को व्रत रखते हैं। इस दिन साबूदाना की खिचड़ी या फिर अधिक मात्रा में रामदाना प्रयोग करते हैं, जो कि सबसे सस्ता, हल्का और सुपाच्य खाद्य है। रोचक बात ये है कि उनकी पत्नी, जिन्हें वे अपना सबसे अच्छा मित्र मानते हैं, इस दिनचर्या में उनका पूरा साथ निभाती है। आज के दौर में जब प्रदूषण व मिलावट के चलते हर आम आदमी जहर खाने को मजबूर है और तनाव व बीमारियों से ग्रस्त है, जस्टिस चंद्रचूड़ का जीवन प्रेरणास्पद है।

जस्टिस चंद्रचूड़ को शायद याद होगा कि 1997 से 2000 के बीच सर्वोच्च अदालत के मुख्य न्यायाधीशों के अनैतिक आचरण पर मैंने कई बड़े खुलासे किए थे। जिनकी चर्चा दुनिया भर के मीडिया में हुई थी तब मेरी उम्र मात्र 42 वर्ष थी। इसलिए तब मेरा विरोध ‘अदालत की अवमानना कानून के दुरूपयोग’ को लेकर भी बहुत प्रखर था । इस पर मैंने एक पुस्तक भी लिखी थी जो अब मैं जस्टिस चंद्रचूड़ को इस आशा से भेजूंगा कि वो इस मामले पर भी सर्वोच्च अदालत की तरफ़ से निचली अदालतों को स्पष्ट निर्देश जारी करें। अदालतों की पारदर्शिता स्थापित करने में ये एक बड़ा कदम होगा।


Subscribe Our Newsletter