30-09-2020 (Important News Clippings)
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Date:30-09-20
A Costly Pause
Delay in appointing external members to the monetary policy committee was avoidable, creates needless uncertainty
Editorial
In an unusual move, the Reserve Bank of India (RBI) on Monday postponed the bi-monthly meeting of the monetary policy committee (MPC), which was scheduled to be held from September 29 to October 1. While the central bank did not cite any specific reason for doing so, the postponement is presumably due to the fact the government is yet to announce the three external members of the six-member MPC. The four-year term of the last three external members — Chetan Ghate, Ravindra Dholakia and Pami Dua — had ended recently. Considering that the timeline for the departure of the external members was known well in advance, the delay in appointing the new members to the committee is inexplicable. The ensuing uncertainty was best avoided.
It has been argued that with headline retail inflation continuing to be elevated, the delay in appointing the new members to the MPC is unlikely to matter as the new members are likely to maintain status quo on rates. But that would be a myopic argument. Firstly, the new members will need time to not only arrive at an informed view on the stance of monetary policy at this critical juncture, but also to be familiarised with the procedures and working of the committee. Secondly, the MPC statement serves as an important document on two counts: One, for providing greater clarity over the state of the economy, and two, for providing forward guidance. Considering that since the onset of the COVID-19 pandemic, the central bank, while providing some directional guidance, has repeatedly refused to provide any firm estimate of either inflation or growth, this would have been an opportune moment for the RBI/MPC to present its own estimates, and lay out the trajectory going forward.
The RBI had previously sought an extension for the three external members until March due to the ongoing pandemic. This would have given the government ample time to select their successors. Inexplicably, again, this request was not accepted. While reportedly, the search committee for selecting the external members, headed by Cabinet Secretary Rajiv Gauba, has recommended a list of candidates, the process of selection appears to have been held up by bureaucratic hurdles. This delay should have been anticipated and avoided. Possible issues of conflict of interest could also have been addressed in time. It is unfortunate that such delays in appointments to key positions are becoming increasingly common. In the past, for example, there have been delays in the appointment of deputy governors of the RBI. There are costs, such instances inject more uncertainty in an already insecure environment. More so, when arguments for modifying the inflation targeting regime are gaining ground.
Date:30-09-20
मोदी सरकार किसान आंदोलन से बेपरवाह क्यों हैं ?
मोदी और उनके रणनीतिकारों को लगता है कि यह किसान आंदोलन न बहुत दूर तक जाएगा और ना ही दूर तक फैलेगा
अभय कुमार दुबे , सीएसडीएस ,दिल्ली में प्रोफ़ेसर और भारतीय भाषा कार्यक्रम के निदेशक
नरेंद्र मोदी के साढ़े छह साल के कार्यकाल में उनके खिलाफ दूसरा किसान आंदोलन शुरू हो गया है। पहला आंदोलन तब हुआ था जब 2014 में सत्ता में आने के फौरन बाद मोदी ने अध्यादेश लाकर कॉर्पोरेट इस्तेमाल के लिए उनकी ज़मीनों के अधिग्रहण की कोशिश करनी चाही थी। इस बार भी किसानों को वही अंदेशा है कि उनकी पैदावार की खरीद का लंबे अरसे से चला आ रहा बंदोबस्त बदलने का आखिरी नतीजा उनसे उनकी ज़मीन छिनने में निकलेगा। किसानों की नाराज़गी के पीछे समझ यह है कि न्यूनतम समर्थन मूल्य (एमएसपी) पर अनाज की सरकारी खरीद बंद हो जाने से उन्हें बाज़ार और बड़ी पूंजी के रहमो-करम पर रह जाना पड़ेगा। खेती से होने वाली आमदनी उत्तरोत्तर अनिश्चित होती चली जाएगी। अंत में होगा यह कि वे कांट्रेक्ट फार्मिंग और कॉर्पोरेट फार्मिंग के चंगुल में फंस जाएंगे। यह नई स्थिति किसानों के तौर पर उनकी पहचान को हमेशा के लिए संकटग्रस्त कर देगी और कुल मिलाकर खेती पर आधारित अर्थव्यवस्था का चेहरा पूरी तरह से बदल जाएगा।
सवाल यह है कि कृषि मंत्री और प्रधानमंत्री के आश्वासनों के बावजूद पंजाब, हरियाणा, पश्चिमी उत्तप्रदेश, कर्नाटक, मप्र और छत्तीसगढ़ के किसान अपनी यह राय बदलने के लिए तैयार क्यों नहीं हैं? इस सवाल के जवाब में खेती के मामलों के जानकार 1998 में जारी की गई विश्व बैंक की डेवलपमेंट रपट का हवाला देते हैं। इस रपट में इस संस्था ने भारत सरकार को डांट लगाई थी कि उसे 2005 तक चालीस करोड़ ग्रामीणों को शहरों में लाने की जो जिम्मेदारी दी गई थी, उसे पूरा करने में वह बहुत देर लगा रही है। विश्व बैंक की मान्यता स्पष्ट थी कि भारत में देहाती ज़मीन ‘अकुशल’ हाथों में है। उसे वहां से निकालकर शहरों में बैठे ‘कुशल’ हाथों में लाने की जरूरत है। जब ऐसा हो जाएगा तो न केवल जमीन जैसी बेशकीमती चीज़ औद्योगिक पूंजी के हत्थे चढ़ जाएगी, बल्कि उस ज़मीन से बंधी ग्रामीण आबादी शहरों में सस्ता श्रम मुहैया कराने के लिए आ जाएगी। मोदी सरकार विश्व बैंक द्वारा दिए गए इस दायित्व को अटल बिहारी वाजपेयी की भाजपा सरकार और मनमोहन सिंह की कांग्रेस सरकार के मुकाबले अधिक उत्साह से पूरा करने में जुटी हुई है। दोनों पिछली सरकारें शायद राजनीतिक नुकसान के डर से विश्व बैंक की लताड़ खाती रहीं, पर काम पूरा नहीं कर पाईं। नरेंद्र मोदी को राजनीतिक नुकसान का कोई खास डर नहीं है। पुराने सहयोगी अकाली दल के सरकार छोड़ देने से भी वे विचलित नहीं हैं। भाजपा पहले से ही अकालियों के ढींढसा गुट के साथ जुड़ने के बारे में सोच रही थी। नागरिकता कानून के सवाल पर भी अकालियों का समर्थन सरकार को नहीं मिला था। वैसे भी अकाली पंजाब में एक के बाद एक तीन चुनावों में मोदी की लहर का फायदा उठाने में नाकाम रहकर अपनी उपयोगिता खोते जा रहे थे। जाहिर है कि अब भाजपा पंजाब में नए सिरे से राजनीतिक पेशबंदी करेगी।
दूसरे, मोदी और उनके रणनीतिकारों को लगता है कि यह किसान आंदोलन न बहुत दूर तक जाएगा और ना ही दूर तक फैलेगा। कारण यह कि मौजूदा अंदेशे मुख्य तौर पर मंझोले और बड़े किसानों तक सीमित हैं और देश के 80% से ज्यादा किसान छोटे और सीमांत श्रेणी में आते हैं। मोदी सरकार का मानना है कि इन किसानों को संतुष्ट रखने के लिए उसके पास सीधे इन खातों में रुपया पहुंचाने से लेकर मुफ्त अनाज बांटने जैसी युक्तियां हैं। मोटे तौर पर भाजपा की यह रणनीति ठीक लगती है। लेकिन, अगर मंझोले और बड़े किसानों का आंदोलन उग्र हो गया तो उससे बनने वाली विषम राजनीतिक परिस्थिति को एक संगीन सांसत में डाल सकती है। क्या इस रणनीति ने ऐसी परिस्थिति का काट भी सोच लिया है।
Date:30-09-20
गलत संकेत
संपादकीय
भारतीय रिजर्व बैंक (आरबीआई) के पास मौद्रिक नीति समिति (एमपीसी) की बैठक को तय शुरुआत से एक दिन पहले टालने के अलावा कोई अन्य विकल्प नहीं था। ऐसा इसलिए करना पड़ा क्योंकि सरकार तीन नए स्वतंत्र बाहरी सदस्यों की नियुक्ति करने में नाकाम रही। जानकारी के मुताबिक खोज समिति ने नाम तय कर लिए थे लेकिन कुछ प्रक्रियात्मक अनिवार्यताओं के कारण प्रक्रिया स्थगित कर दी गई। यह बात विचित्र है कि सरकार प्रक्रिया को समय पर पूरा नहीं कर सकी जबकि 2016 में एमपीसी के गठन के साथ ही यह भी तय हो गया था कि बाहरी सदस्यों का कार्यकाल कब समाप्त हो रहा है। ऐसे हालात में जब आर्थिक अनिश्चितता बहुत अधिक हो तब सरकार को ऐसी गड़बड़ी से बचने के लिए अतिरिक्त सतर्कता बरतनी चाहिए थी। नियुक्ति में देरी से न केवल केंद्रीय बैंक की विश्वसनीयता प्रभवित हुई बल्कि इससे यह संकेत भी निकलता है कि देश का नीतिगत प्रतिष्ठान उभरती चुनौतियों से निपटने के लिए तैयार नहीं है। आदर्श स्थिति में सरकार को बाहरी सदस्यों की नियुक्ति कुछ सप्ताह का समय रहते हुए ही कर लेनी चाहिए थी। ऐसा करने से इन सदस्यों को भी आर्थिक हालात और नीतिगत संभावनाओं पर विचार-विमर्श करने का समय मिल जाता। यह कहा जा सकता है कि देरी होने से नीतिगत मोर्चे पर कोई बदलाव नहीं होगा लेकिन यह सवाल बनता है कि यदि बाहरी सदस्यों का कार्यकाल कुछ माह पहले समाप्त हो जाता तो क्या होता? तब बैठक के यूं स्थगित होने का आरबीआई की अर्थव्यवस्था की मदद करने की क्षमता पर बुरा असर पड़ता। वह भी ऐसे समय पर जब मौद्रिक नीति से काफी काम करने की आशा थी। सरकार को नियुक्ति प्रक्रिया को यथाशीघ्र पूरा करना चाहिए।
नीतिगत कदमों के संदर्भ में देखें तो अधिकांश अर्थशास्त्री दरें निर्धारित करने वाली समिति से यह आशा करते हैं कि वह नीतिगत दरों में इस बार कोई बदलाव नहीं करेगी। मुद्रास्फीति पिछले कई महीनों से आरबीआई के लक्षित दायरे से ऊपर है। इसके अलावा व्यवस्था में अतिरिक्त नकदी बनी हुई है और यह बात भी मुद्रास्फीति संबंधी नतीजों को प्रभावित कर सकती है। चूंकि निकट भविष्य में पूंजी प्रवाह अधिशेष बना रहने की आशा है तो ऐसे में मुद्रा बाजार में आरबीआई का हस्तक्षेप रुपये की तरलता बढ़ाएगा। इस संदर्भ में केंद्रीय बैंक के लिए बेहतर यही होगा वह स्पष्ट करे कि वह आयातित मुद्रास्फीति को नियंत्रित करने के लिए रुपये में कितना अधिमूल्यन होने देना चाहता है। हालांकि नकदी और मुद्रा प्रबंधन एमपीसी के दायरे में नहीं आता लेकिन ये दोनों कारक मुद्रास्फीति संबंधी नतीजों को प्रभावित कर सकते हैं। ऐसे में संबद्ध जोखिमों का सावधानीपूर्वक प्रबंधन करना चाहिए।
इसके अलावा जानकारी यह भी है कि सरकार मांग में नई जान फूंकने के लिए एक और प्रोत्साहन पैकेज पर विचार कर रही है। यदि एमपीसी अगला नीतिगत कदम उठाने के पहले राजकोषीय रुख के और अधिक स्पष्ट होने की प्रतीक्षा करे तो बेहतर होगा। यह बतौर सरकारी ऋण भी प्रबंधक आरबीआई के लिए महत्त्वपूर्ण होगा, खासकर ऐसे समय जब वह सरकारी बॉन्ड को वांछित कीमत पर नहीं बेच पा रहा है। सरकारी उधारी में इजाफा और निरंतर उच्च मुद्रास्फीति मौद्रिक नीति की आर्थिक गतिविधियों के समर्थन की क्षमता को प्रभावित करेगा। बाजार केंद्रीय बैंक से यह अपेक्षा करेंगे कि वह मुद्रास्फीति और वृद्धि संबंधी पूर्वानुमान पेश करे। केंद्रीय बैंक ने महामारी के दस्तक देने के बाद से ऐसा नहीं किया है। यह देखना महत्त्वपूर्ण होगा कि केंद्रीय बैंक आने वाली तिमाहियों में मुद्रास्फीति और वृद्धि को लेकर क्या अनुमान रखता है। खासतौर पर मौजूदा हालात में। इससे उसके निर्णयों को विश्वसनीयता मिलेगी और अनुमानों के प्रबंधन में सहायता भी होगी।
Date:30-09-20
महिला किसानों के हक की बात कौन सुनता है
ऋतु सारस्वत,समाजशास्त्री
किसान फिर चर्चा में हैं। सड़क से लेकर मंचों तक कई बार किसानों ने अपने अधिकारों के लिए प्रदर्शन किए हैं, परंतु उन प्रदर्शनों में महिलाएं बहुत कम नजर आ रही हैं। दरअसल, हमारी पितृ-सत्तात्मक व्यवस्था महिलाओं को सिरे से किसान मानने से ही इनकार कर देती है। उसकी दृष्टि में वे सिर्फ ‘सहायिका’ हैं। कुछ लोगों की यह भी दलील होती है कि महिला किसान की बात अलग से करने की जरूरत ही नहीं, क्योंकि महिला किसानों की दिक्कतें पुरुष किसानों से अलग नहीं हैं। यह तर्क महिला-पुरुष के विभेद को बहुत ही सुंदर तरीके से नकारते हुए इस असत्य को स्थापित करने की चेष्टा करता है कि किसान का तात्पर्य किसान है, चाहे वह पुरुष हो या स्त्री, पर यह झूठ है। महिला किसानों का मुद्दा कर्जमाफी और न्यूनतम समर्थन मूल्य से कहीं अधिक है।
भारत में 73.2 प्रतिशत ग्रामीण महिला श्रमिक कृषि में संलग्न हैं, परंतु 12.6 प्रतिशत के पास ही जमीन का स्वामित्व है। ‘द रिव्यू ऑफ एग्रेरियन स्टडीज’ की रिसर्च में यह बात सामने आई है कि ग्रामीण क्षेत्रों में महिला किसानों की भागीदारी बढ़ी तो है, परंतु भेदभाव भी बढ़ा है। सन 1998 से 2017 के बीच महिला किसानों की मजदूरी मर्दों के मुकाबले बहुत कम बढ़ी है। राष्ट्रीय नमूना सर्वेक्षण कार्यालय की रिपोर्ट के मुताबिक, भारत में 18 फीसदी खेतिहर परिवारों का नेतृत्व महिलाएं करती हैं।
कृषि का कोई ऐसा काम नहीं, जिसमें महिलाओं की भागीदारी न हो। एफएओ के शोध के अनुसार, हिमालयी क्षेत्र में एक ग्रामीण महिला प्रतिवर्ष औसतन 3,485 घंटे प्रति हेक्टेयर काम काम करती है, वहीं पुरुष औसतन 1,212 घंटे काम करते हैं। यह स्थिति संपूर्ण भारत की है। खेती के लिए मिट्टी तैयार करने से फसल उगाने तक का कार्य महिलाओं का है। फिर भी वे किसान नहीं हैं। ‘द नेशनल पॉलिसी फॉर फार्मर्स 2007 के मुताबिक, जो कोई भी आजीविका के लिए कृषि पर आश्रित है, वह किसान है, पर सरकार की परिभाषा भूमि के स्वामित्व पर आधारित है। राजस्व विभाग भूमि के रिकॉर्ड के आधार पर किसानों को परिभाषित करता है और कृषि विभाग भी राजस्व विभाग की परिभाषाओं का अनुपालन करता है, इसीलिए अधिकांश योजनाओं के लिए लाभार्थियों के आधार को सीमित कर भूमि शीर्षक रिकॉर्ड जमा करने की जरूरत होती है। संस्थागत ऋण की पहुंच भी भूमि के स्वामित्व के साथ सीमित है।
इन तमाम सरकारी उलझनों के बीच महिला किसानों के अधिकारों का प्रश्न उत्पन्न ही नहीं हो पाता, क्योंकि उनके पास जमीन का स्वामित्व नहीं होता। विभिन्न अध्ययन यह स्पष्ट कर चुके हैं कि जिन महिलाओं के पास जमीन है, उनके पास बेहतर आर्थिक और सामाजिक सुरक्षा है। संयुक्त राष्ट्र की 2013 की एक रिपोर्ट बताती है कि ‘जबरन बेदखली या गरीबी के खतरे को कम करके प्रत्यक्ष और सुरक्षित भूमि अधिकार, महिलाओं की घर में उनकी सौदेबाजी की शक्ति को बढ़ाते हैं और उनकी सार्वजनिक भागीदारी के स्तर में सुधार करते हैं।’ दुर्भाग्य से भारतीय ग्रामीण किसान महिलाएं अपने पति या अपने घर के अन्य पुरुष सदस्यों की दया पर निर्भर रहती हैं।
घरेलू हिंसा को अपने जीवन का हिस्सा मानने वाली ये महिलाएं यौन उत्पीड़न का भी शिकार होती हैं। 2018 में हुए एक अध्ययन के मुताबिक, 78 प्रतिशत महिला किसानों को यौन दुव्र्यवहार का सामना करना पड़ता है। कानूनी अधिकारों के बावजूद, सामाजिक परंपराएं औरतों को भूमि के स्वामित्व से वंचित करती हैं। महिला किसान प्रवेश मंच, जो महिला किसानों के अधिकारों को सुरक्षित करने की अनौपचारिक आधार भूमि प्रदान करता है, के अनुसार (2018 में) आत्महत्या करने वाले कर्जदार किसानों में से 29 प्रतिशत की विधवा अपने पति की जमीन को अपने नाम कराने में सक्षम नहीं थीं।
इन्हीं पीड़ाओं की गठरी सिर पर लिए देश भर से आई महिला किसानों ने नवंबर 2018 में दिल्ली के रामलीला मैदान से संसद तक मार्च किया था। उल्लेखनीय है कि ‘वीमन फार्मर्स एंटाइटेलमेंट बिल 2011’ नामक एक विधेयक को मई 2012 में संसद में पेश किया गया था। राजनीतिक इच्छा-शक्ति की कमी के चलते यह निजी विधेयक कृषि वैज्ञानिक एमएस स्वामीनाथन द्वारा पेश किया गया, जो संसद में ही समाप्त हो गया और आज भी भारतीय किसान महिलाएं हाशिये पर हैं।