19-03-2020 (Important News Clippings)

Afeias
19 Mar 2020
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Date:19-03-20

Takes All To Tango

Deglobalisation can neither defeat Covid-19 nor keep the world economy afloat

TOI Editorial

When asked why as a healthy individual he volunteered to participate in the coronavirus vaccine trial in Washington state, Neal Browning said, “It’s to make this end as quickly as possible for the rest of the world.” People in the frontline of the war against Covid-19 understand well that not only does this virus not stop at national borders, its antidote can only be found by international teamwork. Not just vaccine research but even treatment protocols are very much outcomes of global cooperation networks.

But since global travel and tourism have spread the virus, it’s also fuelling a pandemic of deglobalisation. Blame games are being built around populist nationalism. For example, in China there’s surreal propaganda that Covid-19 was smuggled into Wuhan by the American army, and in America there’s loaded labelling of it as “the Chinese virus”. But while both countries have stumbled in their early encounters with the virus, neither country can make it through difficult days to come without the other’s resources, institutions, expertise.

Covid-19 has brought India and Pakistan back to the same table. There are joint training sessions taking place for Israeli and Palestinian healthcare professionals. As WHO director-general Tedros Adhanom Ghebreyesus has underlined, there’s a common enemy and we need to fight in unison. Countries have needed masks, protective gear and test kits from each other. Poorer countries will need extra help in managing the crisis. As much as the last few decades of globalisation have created much prosperity, if the outcome of Covid-19 is a lift to forces of populism and deglobalisation, then gains in poverty reduction worldwide, including in India, stand to be reversed.

India of course has intimate experience of the sad fruits of protectionism, licence raj, import substitution and hatred of expertise. It’s far from a growth friendly mix. While a closing of borders is essential at this point to fight the pandemic, this must be strictly proportionate to the threat and not lead to greater insularity, xenophobia, stigmatisation of victims or an ideological closing of the mind. Instead of walls all countries need rules based multilateralism now more than ever, both to fight the pandemic and to keep the world economy afloat. There’s an obvious analogy to climate change here, where too it’s witless to think in terms of just national defences. The thing to remember is that we all share this one planet. This is not a romantic notion, it’s hard reality.


Date:19-03-20

किसानों की लागत घटने से होगा अर्थव्यवस्था को लाभ

संपादकीय

भले ही 2022 तक किसानों की आय दूनी होने का सरकारी दावा हकीकत न हो, लेकिन इसमें कोई दो राय नहीं कि खेती की आय, थोड़ी ही सही पर बढ़ी है। इसके संकेत इस बात से मिलते हैं कि देश में इस वर्ष अनाज पैदावार में रिकॉर्ड वृद्धि का अनुमान है और दूसरी ओर रासायनिक खाद की खपत में पिछले दो वर्षों में लगातार कमी हुई है, यानी किसानों ने कम लागत में ज्यादा अनाज पैदा किया। ताजा आर्थिक सर्वेक्षण में बताया गया है कि यूरिया (नाइट्रोजन) की खपत इस काल में गिरी है, जबकि अन्य दो प्रमुख तत्वों फॉस्फेट और पोटाश की बढ़ी है। पिछले पांच साल की सरकारी मेहनत रंग लाई है। केंद्र सरकार ने भू-मृदा परीक्षण कार्ड (स्वायल हेल्थ कार्ड) के जरिये किसानों की जमीन की उर्वरा शक्ति की जांच का अभियान शुरू किया है, हालांकि काफी क्षेत्रों में किसानों को यह कार्ड अभी तक नहीं मिला है, यह कहा जा सकता है कि किसानों पर इस अभियान का असर पड़ा है। दरअसल, तमाम ऐसे खेतों में जहां पहले से नाइट्रोजन जमीन में है और यूरिया या अन्य नाइट्रोजन वाली खादें डालने पर जमीन की उर्वरा शक्ति ख़त्म हो रही है। सरकार इसे रोकना चाहती थी। देर से ही सही, शायद अब किसानों को यह बात समझ में आने लगी है और अब वे अन्य दो प्रमुख तत्वों फास्फेट और पोटाश का प्रयोग करने लगा है। इसकी वजह से जमीन की उर्वरा शक्ति में तीनों तत्वों का संतुलन बना रहेगा और उत्पादन में आशातीत वृद्धि हो सकेगी। अगर किसानों की पैदावार कम लागत से ज्यादा होगी तो देश के इस 68 प्रतिशत आबादी वाले वर्ग के पास न केवल पैसा आएगा, बल्कि वह इसे तेल, साबुन या अन्य सामान्य उपभोग के सामान पर खर्च करेगा। इन सामानों को बनाने वाले कारखाने बड़े उद्यमों के मुकाबले दस गुना ज्यादा नौकरियां देते हैं, लिहाज़ा यह सेक्टर बेहतर होगा तो युवाओं को ज्यादा रोजगार मिलेंगे और फिर वे भी रोजमर्रा का सामान खरीदेंगे। इससे अर्थव्यवस्था की गाड़ी पटरी पर आने लगेगी। ताजा त्रैमासिक आंकड़े बताते हैं कि विकास दर में पिछले सात साल में सबसे ज्यादा गिरावट आई है। अर्थशास्त्री मानते हैं कि अगर किसान आम उपभोग की वस्तुएं नहीं खरीदेगा तो यह गिरावट और ज्यादा होगी।


Date:19-03-20

भारत तो स्वतंत्र है पर हमारी शिक्षा नहीं

दो स्तरों पर सुधार की जरूरत : निजी स्कूलों को स्वायत्तता मिले व सरकारी की गुणवत्ता बढ़े

गुरचरण दास

अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रम्प द्वारा पिछले महीने की अपनी यात्रा के दौरान भारत की प्रशंसा किए जाने पर हमें खुश होना ही चाहिए, लेकिन हमें इसमें बह नहीं जाना चाहिए। असल में हमारी आकांक्षाओं और वास्तविकता में बहुत बड़ा अंतर है। सबसे बड़ा अंतर तब नजर आता है, जब हम स्कूलों की ओर देखते हैं। पिछले 70 सालों से हम चाहते हैं कि हमारे बच्चे एक स्वतंत्र सोच, आत्मविश्वास और इनोवेटिव भारतीय की तरह बड़े हों। लेकिन हमारे शिक्षा तंत्र ने वह सबकुछ किया है, जिससे उन्हें दबा हुआ और अधिकारहीन रखा जाए। यह दुखद है कि साल-दर-साल अभिभावकों को बच्चों को अच्छे स्कूलों में एडमिशन दिलाने के लिए लंबी लाइनों में लगना पड़ता है। इनमें अधिकतर को मायूसी ही मिलती है, क्योंकि अच्छे स्कूलों में पर्याप्त सीटें नहीं हैं। शिक्षा की स्थिति पर वार्षिक रिपोर्ट (एएसईआर) में हर बार यह बुरी खबर आती है कि कक्षा पांच के आधे से भी कम बच्चे ही एक पैराग्राफ को पढ़ सकते हैं या कक्षा दो की किताब से गणित का सवाल हल कर सकते हैं। कुछ राज्यों में 10% से भी कम शिक्षक पात्रता परीक्षा को पास कर पाते हैं। यूपी और बिहार में तो चार में से तीन शिक्षक पांचवीं की किताब से प्रतिशत का सवाल नहीं कर सकते।

इसकी वजह अच्छे स्कूलों की कमी है। अभिभावकों को अपने बच्चे निजी स्कूलों मेंं भेजने के लिए मजबूर किया जाता है। सरकारी आंकड़ों के मुताबिक 2011 से 2015 के बीच सरकारी स्कूलों में नामांकन 1.1 करोड़ कम हुआ, इसके विपरीत निजी स्कूल में 1.6 करोड़ बढ़ा। इस ट्रेंड के आधार पर 2020 में देश में 1,30,000 अतिरिक्त निजी स्कूलों की जरूरत है, लेकिन वे नहीं खुल रहे हैं। क्यों? इसके कई कारण हैं। पहला यह कि किसी ईमानदार के लिए स्कूल खोलना बहुत मुश्किल है। इसके लिए राज्य के अनुसार 30 से 45 अनुमतियों की जरूरत होती है और इनमेंं से अधिकांश के लिए रिश्वत देनी पड़ती है। सबसे अधिक रिश्वत स्कूल बोर्ड से मान्यता हेतु असेंशियलिटी सर्टीफिकेट (यह साबित करना कि स्कूल की जरूरत है) के लिए देनी होती है। इस कमी की दूसरी वजह फीस पर नियंत्रण है। समस्या शुरू होती है शिक्षा का अधिकार कानून से। जब सरकार को लगा कि सरकारी स्कूल विफल हो रहे हैं तो उसने निजी स्कूलों में 25 फीसदी सीटें गरीबों के लिए आरक्षित करने को कहा। यह एक अच्छा विचार था, लेकिन इसे खराब तरीके से लागू किया गया। क्योंकि सरकार निजी स्कूलों को इन आरक्षित सीटों के बदले ठीक से मुआवजा नहीं दे सकी, जिसकी वजह से फीस देने वाले 75 फीसदी बच्चों पर बोझ बढ़ा। इसका अभिभावकों ने विरोध किया। कई राज्यों ने फीस पर नियंत्रण लगा दिया, जिससे लगातार स्कूलों की वित्तीय स्थिति खराब हो गई। जिंदा रहने के लिए कई स्कूलों ने खर्चे कम किए, जिससे गुणवत्ता में कमी आई और कई स्कूल तो बंद ही हो गए।

स्कूलों की स्वायत्तता पर नया हमला निजी प्रकाशकों की किताबों को प्रतिबंधित करना है। 2015 में मानव संसाधन विकास मंत्रालय ने स्कूलों को सिर्फ एनसीईआरटी की किताबें ही इस्तेमाल करने का निर्देश दिया है। इससे किताबों की कीमत में तो कमी आई है, लेकिन अभिभावक इनकी गुणवत्ता व देरी को लेकर चिंतित हैं। यद्यपि एनसीईआरटी की किताबें बेहतर हुई हैं, लेकिन पढ़ाई का पुराना तरीका कायम है। शिक्षक हैलो इंग्लिश और गूगल बोलो जैसे आश्चर्यजनक एप्स से अनजान हैं, जो भारतीय बच्चों को तेजी से अंग्रेजी बोलना सिखा सकते हैं। शिक्षाविदों की चिंता है कि इस प्रतिबंध से भारतीय बच्चे दुनिया में हो रही क्रांतियों के बारे में जानने से वंचित हो सकते हैं, विशेषकर डिजिटल लर्निंग के क्षेत्र में। इससे वे ज्ञान अर्थव्यवस्था के क्षेत्र में राेजगार के अवसरों से भी वंचित हो सकते हैं।

दुखद है कि एशिया का उच्च प्रदर्शन वाला शैक्षिक तंत्र एक उदार बहुपुस्तक नीति के विपरीत दिशा में चला गया है। इसने एक किताब और एक परीक्षा की कड़ी को तोड़कर विद्यार्थियों के प्रदर्शन को बेहतर बनाया था। चीन ने 1980 के आखिर में ही राष्ट्रीय पुस्तक नीति को छोड़ दिया था और बच्चों को कई किताबें इस्तेमाल करने के लिए प्रोत्साहित किया, ताकि वे आधुनिक समाज के वास्तविक अनुभवों से जुड़ सकें।

गणतंत्र बनने के 70 साल के बाद अब समय है कि निजी स्कूलों को स्वयत्तता दी जाए। 1991 के सुधारों ने उद्योगों को स्वायत्तता दी, लेकिन हमारे स्कूलों को नहीं, जो आज भी लाइसेंस राज के नीचे कराह रहे हैं। इसके बावजूद भारत के विकास में निजी स्कूलों का योगदान अमूल्य है। इनमें पढ़े लोग हमारे प्रोफेशनल, सिविल सेवा और व्यापार में उच्च पदों पर हैं। यह समय है कि भारत को अब अपना वह सामाजिक पाखंड छोड़ देना चाहिए, जाे निजी स्कूलों को लाभ कमाने से रोकता है। जिंदा रहने के लिए उसे लाभ कमाना ही होगा और इससे ही गुणवत्ता बढ़ेगी व अच्छे स्कूलों की मांग पूरी हो सकेगी। इन्हें केवल नॉन प्रॉफिट से प्रॉफिट क्षेत्र में बदलने से क्रांति आ सकती है। इससे शिक्षा के क्षेत्र में निवेश आएगा और इनकी गुणवत्ता बढ़ेगी। आज भारतीय अच्छी शिक्षा के लिए खर्च करने को तैयार हैं। एक स्वतंत्र देश मेंं किसी को एक अच्छे स्कूल या बेहतर किताब पर खर्च करने से क्यों रोका जाना चाहिए?

निजी स्कूलों पर अधिक नियंत्रण की बजाय सरकार को सरकारी स्कूलों को बेहतर बनाने पर फोकस करना चाहिए। इसकी शुरुआत मंत्रालय को दो कार्यों को अलग करके करनी चाहिए- 1. शिक्षा का नियमन बिना पक्षपात के करने के लिए सार्वजनिक व निजी दोनों ही क्षेत्रों पर समान मानदंड लागू करना। 2. सरकारी स्कूलों को चलाना। आज हितों के टकराव की स्थिति है, जो प्रशासक को भ्रमित करती है और उसका परिणाम गलत नीतियां होती हैं। समय आ गया है, जब निजी स्कूलों को अधिक स्वतंत्रता दी जाए, सरकारी स्कूलों की गुणवत्ता सुधारी जाए और उस दिन का इंतजार किया जाए जब एडमिशन के लिए ये लाइनें छोटी होंगी और हमारी आकांक्षाएं हकीकत के निकट होंगी। हो सकता है कि तब कोई अमेरिकी राष्ट्रपति हमारी शिक्षा की गुणवत्ता के लिए हमारी प्रशंसा करे।


Date:18-03-20

विजुअल एक्सप्लोजन के समय शब्दों की भूमिका

धनंजय चोपड़ा

जब हमने बार-बार यह दोहराना शुरू किया था कि एक फोटो हजार शब्द के बराबर होता है, तब हमें यह कतई अंदाजा नहीं था कि एक दिन ऐसा भी आएगा कि हम फोटोग्राफ की दुनिया में इतने ज्यादा डूबते चले जाएंगे कि शब्द खारिज होने लगेंगे। आज यह स्थिति आ गई है कि हम फोटोग्राफ खींचने और उसे लोगों तक पहुंचाने की होड़ में इस तरह शामिल हो गए हैं कि हमारे हिस्से से बहुत से जरूरी शब्द या तो खारिज हो चुके हैं या फिर धीरे-धीरे हम उन्हें बिसरते जा रहे हैं। समाज विज्ञान के सुजान हमारे इस समय को ‘विजुअल एक्सप्लोजन’ का समय कह रहे हैं, तो साहित्य के सुजान इसे ‘शब्द संकोच’ का समय कहने से नहीं चूक रहे। कहा कुछ भी जाए, लेकिन यह तो तय है कि हमारे कहने-समझने और खासकर कुछ भी अभिव्यक्त करने के तरीकों में बहुत तेजी से बदलाव आ रहा है।

पिछले दिनों हिंदी के कुछ शब्दों को अंग्रेजी भाषा की एक डिक्शनरी का हिस्सा बनाया गया, तो हिंदी के लोग खिल से गए। हर किसी को लगा कि हिंदी विश्व स्तर पर आगे बढ़ रही है। यह सही भी माना जा सकता है। मगर इस सच्चाई से मुंह नहीं फेरा जा सकता कि हमने पिछले कुछ वषार् में अपनी हिंदी भाषा के कई जरूरी शब्दों को खारिज किया है। कई जरूरी शब्दों के हिज्जों को ही जरूरी नहीं समझा गया, तो कई शब्दों की जगह इमोजी या फिर फोटो लगाकर काम चला लेने का चलन बढ़ गया। वास्तव में डिजिटल हो गया हमारा समय फोटोग्राफी के मामले में कुछ अधिक संवेदनशील हो चुका है। स्मार्टफोन पास में होने का अर्थ ही यह रह गया है कि अपने हर समय को उसमें दर्ज करते हुए जीना। रोचक तथ्य यह है कि अब हर किसी को विजुअल कम्युनिकेशन यानी चित्रों के माध्यम से संवाद करने की आदत पड़ती जा रही है और यही आदत हमें ‘शब्द संकोच’ की स्थिति में धकेल रही है। ऐसी स्थिति में हमारे अपने शब्द या तो खारिज कर दिए जा रहे हैं या फिर बेमानी करार दिए जा रहे हैं।

इंटरनेट पर नजर रखने वाली एजेंसियों के आंकड़ों पर विश्वास करें, तो अकेले फेसबुक पर प्रतिदिन तीन सौ मिलियन फोटोग्राफ अपलोड किए जा रहे हैं। यही आंकड़ा 2,43,000 प्रति मिनट का है। पूरी दुनिया में प्रति सेकंड 8,847 ट्वीट हो रहे हैं और लगभग इतनी ही हाजिरी फेसबुक पर लग रही है। इंस्टाग्राम पर तो 500 मिलियन लोग हर दिन सक्रिय रहते हैं और फोटो-दर-फोटो संवाद करते हैं। एक आंकड़ा यह भी है कि हर साल दुनिया के हर आदमी के हिस्से में औसतन छह सौ डिजिटल फोटोग्राफ आ जाती हैं। रोमांच भर देने वाली बात यह है कि भारतीयों की औसत हिस्सेदारी इससे कहीं अधिक है। ऐसे ही ढेर सारे आंकड़े हैं, जो यह तस्दीक करते हैं कि दुनिया फोटो-ज्वर का शिकार हो गई है। तस्वीरें और इमोजी अब लोगों को रेडीमेड अभिव्यक्ति के नए विकल्प दे रही हैं। जबकि पहले इसके लिए शायरी या कविताओं का इस्तेमाल होता था।

सवाल यह है कि क्या हम फोटो के खेल में अपने शब्दों के साथ खिलंदड़ी करना भूलते जा रहे हैं? यह सवाल तब और भी महत्वपूर्ण बनता जा रहा है, जब डिजिटल टेक्नोलॉजी ने बोलने-बतियाने का हमारा प्यारा शगल ही छीन लिया है। हमारा बाजार, हमारा खाना, हमारी दवाई, हमारी पढ़ाई, हमारा बैंक… सब कुछ हमारे स्मार्टफोन पर सिमट सा गया है। अब हम में से ज्यादातर लोग रेल टिकट बुक कराने या बिजली-पानी का बिल भुगतान करने वाली लाइन के हिस्से नहीं होते। उन लाइनों में लगकर आपस में बोलने-बतियाने का सुख हमसे छिन सा गया है। हमारी यात्राओं में पत्रिकाओं को पढ़ने और आपस में यूं ही बतियाने की परंपरा का स्थान स्मार्टफोन की स्क्रीन ने ले लिया है। चिट्ठियां तो खैर बहुत पहले ही हमने लिखनी और पढ़नी छोड़ दी थी। और तो और, अब हम वास्तविक सोशल एक्टिविस्ट की जगह सोशल मीडिया एक्टिविस्ट होना अधिक पसंद करने लगे हैं। जाहिर है, शब्दों की गूंज कहीं खोती जा रही है। यह सोचना चाहिए कि दुनिया में बड़े-बड़े बदलाव लाने में कामयाब रहने वाली हमारी शब्द-सत्ता कहीं तकनीक के रास्ते ओझल होने की ओर तो नहीं बढ़ चली है। अगर ऐसा है, तो समय रहते हमें चेत जाना होगा और अपने ‘शब्द समाज’ को फिर से पाना व बचाना होगा।


Date:18-03-20

स्त्री का हक

संपादकीय

एक महीने के भीतर यह दूसरा मौका है जब स्त्री और पुरुष के बीच बराबरी की मांग पर आधारित एक अहम लड़ाई को बड़ी कामयाबी मिली है। पिछले महीने सुप्रीम कोर्ट ने सेना में शॉर्ट सर्विस कमीशन के तहत आने वाली महिला अफसरों को स्थायी कमीशन पाने का हकदार होने के पक्ष में फैसला दिया था। अब नेवी यानी नौसेना में भी अदालत ने महिलाओं के हक में फैसला सुनाते हुए साफ लहजे में कहा कि जब केंद्र सरकार ने एक बार महिला अधिकारियों की भर्ती के लिए वैधानिक अवरोध हटा दिया तो उसके बाद नौसेना में महिलाओं को स्थायी कमीशन प्रदान करने में लैंगिक भेदभाव नहीं किया जा सकता। यों इसके पहले महिलाओं की भर्ती को लेकर जिस तरह के अवरोध थे, वे भी महज सामाजिक पूर्वाग्रहों पर आधारित थे और उसे हटाना एक सभ्य और लोकतांत्रिक समाज की जिम्मेदारी थी। लेकिन जब उन अवरोधों पर विचार करके उन्हें खत्म किया गया, तो लैंगिक स्तर पर भेदभाव वाली परंपरा को कायम रखने का कोई मतलब नहीं था। इसलिए सुप्रीम कोर्ट ने अगर ऐसे आग्रहों को मानने से इनकार किया और बराबरी के हक में फैसला दिया तो इसे व्यवस्था में बदलाव को जगह देने की प्रक्रिया कहा जा सकता है। विडंबना यह है कि एक लोकतांत्रिक और विकासमान समाज में जहां सरकारों और समूचे सत्ता-संस्थानों को अपनी ओर से सामाजिक गैर-बराबरी के पैमानों को खत्म करके समानता आधारित समाज की जमीन मजबूत करने की पहलकदमी करनी चाहिए, वहीं कई बार इसके खिलाफ दलीलें पेश करके जड़ता और यथास्थिति बनाए रखने की कोशिश की जाती है। पहले सेना में और फिर नौसेना में महिला अधिकारियों को स्थायी कमीशन देने के मसले पर सरकार ने जैसा संकीर्ण रुख अपनाया, वह अफसोसजनक है। अदालत में सरकार ने महिलाओं को स्थायी कमीशन देने का विरोध करने के लिए सामाजिक स्तर पर पारंपरिक मानसिकता, पूर्वाग्रहों का ही हवाला दिया! मसलन, सरकार का कहना था कि रूसी जहाजों में महिलाओं के लिए शौचालय नहीं होने की वजह से नौसेना में महिलाओं को समुद्री ड्यूटी नहीं दी जा सकती। सवाल है कि किसी व्यक्ति या महिलाओं को अवसर देने के लिए कसौटी के तौर पर किसी जहाज में ढांचागत कमी और संसाधनों के अभाव को बहाना कैसे बनाया जा सकता है? अदालत ने भी इस पर हैरानी जताई और कहा कि सशस्त्र बलों में लैंगिक समानता नहीं देने के लिए एक सौ एक बहाने नहीं हो सकते। यों भी महिलाओं ने मौका मिलने पर अमूमन हर मोर्चे पर अपनी शारीरिक और मानसिक क्षमताओं के साथ यह साबित किया है कि वे किसी भी मामले में कमतर नहीं हैं, बल्कि बेहतर ही हैं। ऐसे में खुद सरकार की ओर से महिलाओं को महज स्थायी कमीशन से वंचित रखने के लिए उनकी शारीरिक सीमाओं का हवाला देना विचित्र दलील थी। इसलिए स्वाभाविक ही शीर्ष अदालत ने केंद्र की दलील को सीधे तौर पर लैंगिक रूढ़ियों का मामला बताते हुए कहा था कि सामाजिक और मानसिक कारण बता कर महिला अधिकारियों को अवसर से वंचित रखना बेहद भेदभावपूर्ण रवैया है और यह बर्दाश्त के काबिल नहीं है। इसके पहले भी सरकार ने ज्यादातर पुरुष सैनिकों के ग्रामीण पृष्ठभूमि से आने और उनके किसी महिला के आदेश के तहत काम करने की मुश्किलों का हवाला दिया था। लेकिन क्या ये प्रश्न महज प्रशिक्षण की कामयाबी या नाकामी से जुड़े हुए नहीं हैं? प्रतिकूल स्थितियों का सामना करने के मकसद से क्षमता का विकास, अभ्यास और कौशल से लेकर पिछड़ी सोच वाले पुरुषों के भीतर लैंगिक बराबरी का मानस तैयार करना बहुस्तरीय प्रशिक्षण से संभव है। यथास्थिति बनाए रख कर ऐसी मानसिकता और पूर्वाग्रह में कोई बदलाव नहीं लाया जा सकता।


Date:18-03-20

Mr R Gogoi, MP

Supreme Court is larger than one judge but by saying yes to government, former Chief Justice has hurt it

Editorial

There can be no doubt that former Chief Justice of India Ranjan Gogoi could be a distinguished presence in the Rajya Sabha. His experience and wisdom, and the stature that comes with having led the institution of the higher judiciary, would embellish its proceedings. Yet, it is equally true, if not more, that the institution that Justice Gogoi served and led now comes under a deeper shadow. And that no amount of whataboutery is going to take away from this reality. Yes, Justice Gogoi is not the first judge to have accepted what looks suspiciously like a post-retirement benefit from government, and not even the first Chief Justice of India to do so. Justice Ranganath Misra retired as CJI in 1991, and was made NHRC chairman and some years later, Rajya Sabha MP on a Congress ticket. As far back as in 1958, the chief justice of Bombay High Court, MC Chagla, was appointed as India’s ambassador to the US and then High Commissioner to the UK in the Nehru regime. In its first term in power, the Modi government appointed another former CJI, Justice P Sathasivam, as Kerala governor. There are other examples, too. Yet, when Justice (retired) Madan B Lokur asks if the “last bastion” has “fallen” today, his words have a special resonance. Because the several wrongs of the past do not make this right. In his first comments, Justice Gogoi has said that the legislature and judiciary must “at some point of time work together for nation-building.” That’s a deeply problematic formulation coming from someone who should know better. Because in its timing — Justice Gogoi retired a mere four months ago — and in its setting — the independence of the judiciary has seemed especially precarious in his own tenure as CJI, and in times of a political executive that weaponises its large mandate — the fact that the government offered and Justice Gogoi accepted, is a fell blow and a taint.

Justice Gogoi was one of the four senior-most judges who held the historic press conference in January 2018 questioning then CJI Dipak Misra and his running of the top court. He has been articulate and eloquent about the imperative to protect and strengthen the integrity of the judicial institution, at the heart of which lies its independence. Delivering the third Ramnath Goenka Memorial Lecture in July 2018, he spoke of the precious freedom to speak truth to power, and the need for the judiciary to remain “uncontaminated”, “independent” and “fierce” to “preserve its moral and institutional leverage”. He spoke of the necessity of “independent journalists and sometimes noisy judges”. He quoted Alexander Hamilton: “civil liberties. will have everything to fear from the union of the judiciary with either of the other two branches” of executive and legislature.
VDO.AI

Now, as he accepts the RS nomination, so soon after presiding over politically sensitive cases in which the government was a party — Assam NRC, Sabarimala, Ayodhya, Rafale, CBI — he invites serious questions, not just on himself but on the institutional operationalisation of the separation of powers. The judiciary’s credibility, its finality, rests not just on justice being done, but on its being seen to be done. Of course, the Supreme Court is larger than one judge. But by saying yes to the government, Justice Gogoi becomes complicit in the hurt caused to both the institution and its image.


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