05-10-2020 (Important News Clippings)

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05 Oct 2020
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Date:05-10-20

A commission misguided

The national child rights body seems to be deriving its priorities from the political agenda of the day

Vandana Prasad & Shantha Sinha, [ Vandana Prasad, a community pediatrician and public health professional, is former member, NCPCR; and Shantha Sinha is former Chairperson of the NCPCR ]

The National Commission for Protection of Child Rights (NCPCR) is the apex body for upholding, monitoring and facilitating child rights in the country. However, as persons previously associated with this esteemed body, we note with great concern some of the recent actions of the Commission that suggest a grave departure from its primary duty to ensure the well-being of all children, especially children in need of care and protection.

Major concerns

Amongst its significant powers and duties, the NCPCR has been specifically charged with the monitoring of Child Care Institutions (CCIs) and was instructed to carry out a social audit of the same by the Supreme Court. The social audit was initiated in 2015 and upon its completion, the NCPCR, in its wisdom, directed District Magistrates in eight States to ensure that all children within CCIs be de-institutionalised, repatriated and rehabilitated within a specified period. Civil society organisations have raised several obvious concerns about this, especially because most of these children are in CCIs due to abusive conditions in the family, and a mandated repatriation without an adequate case-by-case assessment plan within a short period of time would likely place the children again at grave risk of abuse, exploitation and neglect. They also point to the sheer inadequacy of current systems to organise adoption and foster care.

Juxtaposed with this diktat is the disturbing report of raids being undertaken on the eve of Gandhi Jayanti by the NCPCR in select NGO-run CCIs, in order to establish whether foreign funds have been misused in any manner. Not only is monitoring of the FCRA regulations outside of the mandate of the NCPCR, but the raids also seem to target individuals who have been outspoken in the criticism of the Central government on issues such as the National Register of Citizens and the Citizenship (Amendment) Act. Such raids seem to have communal overtones as an enquiry led by none less than the Chairperson reportedly delved into whether the previously homeless children in the CCIs belonged to a particular community (Rohingya), and what religious practices they engaged with, even as the institutions are known to maintain a secular character.

A lot to be done

The pandemic has exacerbated existing issues of child malnutrition, child labour, child abuse, child marriage and mental illness. We would have expected the NCPCR to show concern for the gross violation of children’s rights during the lockdown and in its aftermath. The NCPCR could have used its authority and power to issue recommendations to relieve these grave conditions by reiterating the need for strengthening all child-related institutions (government and non-government) through adequate funds, and appreciating the relief measures that many civil society organisations, including the ones being raided and instructed to close down, were engaged in.

As citizens concerned with the rights and welfare of children, we have also been appalled at the daily reports of Dalit children and young women being raped and murdered, with gross irregularities by the very institutions that are charged with their protection. We would have expected the NCPCR to exhibit its priorities better by taking suo motu cognisance of the rape and murder of a 14-year-old girl in Bhadohi in Uttar Pradesh, to make a test case of the lack of systems to fight crimes against children instead of moving to undermine and dismantle whatever little does exist for their protection. Undoubtedly, CCIs need monitoring and reforms; the Commission should be in the vanguard to ensure the support that would necessarily be required to implement these reforms. Yet, it seems to be deriving its priorities from the political agenda of the day rather than upholding a steadfast and fair commitment to the welfare of children.


Date:05-10-20

किसानों को बरगलाने वाली मुहीम

कृष्णमूर्ति सुब्रमणियन ,(लेखक भारत सरकार के मुख्य आर्थिक सलाहकार हैं)

कृषि क्षेत्र में हुए आधारभूत सुधारों का विरोध घिसे-पिटे निरर्थक आर्थिक मॉडल के आधार पर ही किया जा रहा है। यह वही मॉडल है, जिसने हमें प्रतिस्पर्धी बाजार के लाभों से वंचित रखा। समाजवाद की बेस्वाद चाशनी में डूबे इस मॉडल ने कभी भी भारत का उसकी नियति से साक्षात्कार नहीं होने दिया। भारत को कैसे इस निरर्थक मॉडल के चलते दशकों तक समृद्धि के मोर्चे पर भारी कीमत चुकानी पड़ी, यह समझने के लिए हमें ब्रिटिश अर्थशास्त्री एंगस मैडिसन के आर्थिक इतिहास संबंधी अध्ययन को समझना होगा। उन्होंने बताया है कि ज्ञात मानवीय आर्थिक इतिहास के एक बड़े हिस्से में वैश्विक जीडीपी में एक तिहाई योगदान करने वाली भारतीय अर्थव्यवस्था ने कैसे अपनी चमक खो दी। उनके अनुसार इसमें पहले ब्रिटिश राज और बाद में समाजवादी प्रभाव वाली हमारी नीतियों का बड़ा योगदान रहा, जिन्होंने बाजार व्यवस्था को खोखला कर दिया। वित्त वर्ष 2019-20 की आर्थिक समीक्षा में इसे स्पष्ट रूप से दर्शाया है। उसका सार यही है कि अतीत में भारत को जो आर्थिक बढ़त हासिल थी, उसमें भरोसे के भाव के साथ बाजार की जुगलबंदी का अहम योगदान था, जिसे भारत की परंपराओं से शक्ति मिलती रही।

1991 के बाद यदि 2004 से 2014 के बीच गंवाए अवसर को छोड़ दिया जाए तो इस पूरी अवधि में विभिन्न सरकारों ने उदारीकरण और आर्थिक सुधारों को गति देने का काम किया। इससे मूलभूत आर्थिक सिद्धांतों की ओर हमारी वापसी हुई है। कौटिल्य कृत अर्थशास्त्र और तिरुवल्लुवर रचित तिरुक्कुरल जैसे समृद्ध भारतीय साहित्य में इन शाश्वत सिद्धांतों का उल्लेख है। इनकी छाप उस आर्थिक समृद्धि में दृष्टिगत भी होती है, जो वर्ष 1991 के बाद संभव हुई। यहां तक कि चीनी आर्थिक चमत्कार भी बाजारों की भूमिका का प्रमाण है, जिसने अपने नागरिकों के लिए आर्थिक समृद्धि के द्वार खोले। कृषि सुधारों को लेकर जो विरोध रहा है, वह उसी निरर्थक आर्थिक मॉडल से कुप्रेरित है, जो बाजारों की भूमिका को खोखला कर निहित स्वार्थी तत्वों का राजनीतिक समर्थन करता है। यही कारण है कि लंबे अर्से तक अपने संकीर्ण हितों को पोषित करने वाली यथास्थिति कायम रखने के लिए निहित स्वार्थी तत्व किसी भी हद तक जाकर कृषि सुधारों का विरोध कर रहे हैं। वास्तव में कृषि क्षेत्र में सुधार लंबे समय से अपनी बारी का इंतजार कर रहे थे। पुरानी व्यवस्था ने किसानों को स्थानीय मंडी और उनमें सक्रिय बिचौलियों की शोषक नीतियों में जकड़ा हुआ था। देश में अन्य उत्पादकों को कहीं भी अपने उत्पाद बेचने की आजादी थी, लेकिन छोटे किसानों के हिस्से में यह सुविधा नहीं थी। एपीएमसी मंडियों वाली व्यवस्था में स्थानीय आढ़तियों बिचौलियों का वर्चस्व उन्हें और समृद्ध करता गया। इसकी कीमत छोटे किसानों ने चुकाई। चूंकि छोटे किसानों के पास न तो अपनी उपज के भंडारण की व्यवस्था थी और न ही कहीं भी अपनी उपज बेचने की आजादी, इसलिए वे बिचौलियों की कृपा के मोहताज ही बनकर रह गए।

लोगों को मशहूर फिल्म ‘ए ब्यूटीफुल माइंड’ जरूर याद होगी। इस फिल्म का तानाबाना अर्थशास्त्र के लिए नोबेल पुरस्कार जीतने वाले जॉन नैश के चरित्र के आधार पर बुना गया है। नैश ने अपने शोध में दर्शाया कि किसी विक्रेता के पास विकल्प बढ़ने का क्या असर होता है? यदि कोई विक्रेता पूरे भरोसे के साथ खरीदार ‘क’ के बजाय खरीदार ‘ख’ को अपना उत्पाद बेच सकता है तो इससे उसे अपने उत्पाद के लिए बेहतर कीमत मिल सकती है। यदि विक्रेता के पास कोई विकल्प ही नहीं होगा तो खरीदार अपने एकाधिकार का मनमाना इस्तेमाल करेगा। मध्यम या बड़े किसानों के लिए ज्यादा समस्या नहीं, क्योंकि वे अपने उत्पाद का भंडारण कर माकूल मौका पाकर उसे बेच सकते हैं या किसी किसी अन्य मंच पर उसकी बिक्री कर सकते हैं। भारतीय प्रबंध संस्थान, अहमदाबाद के प्रोफेसरों (शर्मा और वर्धन) ने अपने शोध में इस रुझान को अहम साक्ष्यों के जरिये दर्शाया है। उनके शोध के अनुसार सीमांत किसानों को गेहूं के विपणन अधिशेष का मात्र 2.7 फीसद ही हासिल हो पाता है, जबकि मध्यम और बड़े किसान उसी अधिशेष का 30 फीसद तक हासिल करते हैं। ऐसे में सीमांत किसानों से सौदे के मामले में बिचौलिये और विक्रेता 97.3 फीसद हिस्सा हड़प जाते हैं। कारोबार में ऐसा एकाधिकार भी धान के बजाय गेहूं के मामले में अधिक है। यह अंतर इसलिए और अहम है, क्योंकि गेहूं मुख्य रूप से पंजाब और हरियाणा जैसे मंडी बहुल सूबों में उगाया जाता है, जबकि धान मुख्य रूप से आंध्र जैसे उन राज्यों में, जहां मंडी व्यवस्था पंजाब और हरियाणा के मुकाबले उतनी मजबूत नहीं। क्या मौजूदा ढांचे में छोटे किसानों के शोषण को दर्शाने के लिए इससे बेहतर और कोई सुबूत हो सकता है?

कृषि सुधार वास्तव में प्रतिस्पर्धा को बढ़ाएंगे, जो छोटे किसानों की आमदनी बढ़ाने के लिए अनिवार्य हैं। अब छोटे किसान किसी खाद्य प्रसंस्करण इकाई को भी सीधे अपनी उपज बेच सकते हैं। वहीं अगर किसान को अभी भी स्थानीय मंडी में उपज बेचना सही लगता है तो स्वाभाविक रूप से वह ऐसा कर सकता है, लेकिन यह स्पष्ट है कि अब उसके लिए विकल्प बढ़ गए हैं और वह मंडियों का ही मोहताज नहीं रह गया है। अब किसानों की सौदेबाजी की क्षमता बढ़ेगी, जिससे वे अपने उत्पाद की बेहतर कीमत हासिल कर सकते हैं। इस बदलाव के साथ ही राष्ट्रीय कृषि बाजार यानी ई-नाम व्यवस्था और प्रभावी होगी, जिससे किसानों की दूसरे बाजारों में भी पहुंच बढ़ेगी। देश भर की मंडियों में उत्पादों की हर समय सटीक कीमत की जानकारी के साथ छोटे किसान अपने उत्पादों के लिए बेहतर सौदा कर सकते हैं। ऐसे में प्रश्न उठता है कि इन सुधारों से किसका अहित हो रहा है? इसमें बिचौलिये और उनसे फायदा उठाने वालों का ही नुकसान है। सुधारों का खासतौर से पंजाब और हरियाणा जैसे उन राज्यों में खासा विरोध हो रहा है, जहां मंडियां बहुत ताकतवर हैं। इन राज्यों में मंडियों के जरिये ही सबसे ज्यादा खरीद होती है और मंडियों पर लेवी के जरिये राज्य सरकारों को काफी राजस्व मिलता है। कुल मिलाकर छोटे किसानों को बरगलाने वाली हर एक बात वास्तव में जहर बुझी मीठी गोली ही है। किसानों को बरगलाने वाली सियासी मुहिम केवल निहित स्वार्थी तत्वों को ही लाभ पहुंचाएगी।


Date:05-10-20

लैंगिक समानता का मनमाना मतलब

डॉ. ऋतु सारस्वत , (लेखिका समाजशास्त्री हैं)

पिछला महीना कुछ ऐसे प्रश्नों को छोड़ गया, जिस पर शायद ही समुचित ध्यान दिया गया हो। दो महत्वपूर्ण खबरें समाचार पत्र में छपीं, पर पूर्वाग्रहों से ग्रसित समाज का ध्यान उन पर नहीं गया, क्योंकि ये खबरें सनसनी नहीं फैलाती थीं। पहली खबर उच्चतम न्यायालय के उस फैसले से जुड़ी है, जिसमें लिव इन रिलेशन में रहने वाली युवती ने अपने साथी पर दुष्कर्म का आरोप लगाया था। इस मामले में झारखंड उच्च न्यायालय ने युवक को सजा दी थी। उच्चतम न्यायालय ने फैसले को पलटते हुए कहा कि महिला का आरोप है कि उसका यौन शोषण हुआ, लेकिन तथ्यों को देखकर यह कहा जा सकता है कि कोई भी महिला चाकू की नोक पर यौन शोषण होने के बाद आरोपित को प्रेम पत्र नहीं लिखेगी और न ही उसके साथ चार साल तक लिव-इन में रहेगी। दूसरी खबर दिल्ली की विभिन्न अदालतों में ऐसे नौ मामलों के सामने आने से संबंधित थी, जिनमें पीड़िताओं ने दुष्कर्म के साथ अन्य अत्याचारों का हवाला देकर मुकदमा दर्ज कराया, लेकिन जब अदालत में बयान दर्ज कराने की बारी आई तो उनकी ओर से कहा गया कि उन्होंने गुस्से में मुकदमा दर्ज कराया था। अदालत ने ऐसे मामलों को गंभीरता से लेने की बात कही। इस तरह के मामले तेजी से बढ़ रहे हैं, क्योंकि हमारे यहां लैंगिक समानता का सीधा सा मतलब है महिलाओं को बराबरी का हक। इस अधूरे अर्थ को स्थापित करने की कोशिश में पुरुषों के सिर्फ अधिकार ही नहीं पीछे छूट रहे हैं, हम उनके प्रति इतने निष्ठुर होते जा रहे हैं कि हर एक नकारात्मकता के लिए सिर्फ उन्हें ही जिम्मेदार मानते हैं और उनके ऊपर शोषक होने का आरोप मढ़ देते हैं। यह भी पढ़ेंधर्म और लिंग के आधार पर न हो किसी से भेदभावलैंगिक समानता का अर्थ सिर्फ स्त्री के अधिकारों की बात नहीं है। यह तो वह अवस्था है, जब सभी मनुष्य अपने जैविक अंतर के बावजूद सभी अवसरों के लिए आसान और समान पहुंच प्राप्त कर सकें। हमारा संविधान भी इसी विचार भूमि पर खड़ा है कि जाति, धर्म और लिंग के आधार पर किसी से भेदभाव न हो, पर क्या स्वयं हमारी वैधानिक व्यवस्था पुरुषों से भेद करती नहीं दिखाई देती?

दिसंबर 2012 में हुए निर्भया कांड के बाद सरकार ने दुष्कर्म की परिभाषा में बदलाव किया। पुलिस के लिए इसके हर मामले को दर्ज करना अनिवार्य बनाया गया। साल 2013 में दिल्ली में दुष्कर्म के 1636 मामले दर्ज किए गए, जबकि 2012 में 706 मामले दर्ज कराए गए थे। आधिकारिक आंकड़ों के मुताबिक दिल्ली में दुष्कर्म के मामलों में सजा की दर 2012 में 49 फीसद थी, जो 2013 में घटकर 27 फीसद हो गई। अदालतों में दर्ज दुष्कर्म के प्रतिशत मामलों में न्यायालय ने पाया कि संबंध सहमति से स्थापित किए गए थे। ऐसे अधिकांश मामलों में महिला के माता-पिता ने शिकायत दर्ज कराई। कई मामले ऐसे होते हैं कि पुरुष मित्रता या सगाई के बाद शादी के वादे से मुकर गए तो उनके विरुद्ध दुष्कर्म के मामले दर्ज हो जाते हैं। यदि आपसी रजामंदी से संबंध बनाए जाएं और रिश्ता किसी कारण से टूट जाए तो क्या वह दुष्कर्म का आधार मान लिया जाना चाहिए? इस संबंध में इसी साल मई में ओडिशा उच्च न्यायालय ने एक महत्वपूर्ण टिप्पणी करते हुए कहा था कि शादी का वादा कर शारीरिक संबंध बनाना दुष्कर्म के समान नहीं है।

बीते कुछ वर्षों में ऐसे मामलों की बाढ़ आ गई है, जहां महिलाएं अपनी मांगें पूरी न होने या गुस्सा होने पर दुष्कर्म का मामला दर्ज करा रही हैं। 2016 में करीब 40 प्रतिशत मामले अदालत में ऐसे आए, जिनमें महिलाएं वास्तविक पीड़िता नहीं थीं, बल्कि बदला लेने की मानसिकता के चलते उन्होंने दुष्कर्म के झूठे आरोप लगाए। दुष्कर्म के एक झूठे मामले में दिल्ली की एक अदालत ने कहा था कि अब समय आ गया है कि दुष्कर्म के झूठे आरोपों का सामना कर रहे पुरुषों की सुरक्षा और उनकी प्रतिष्ठा बहाल किए जाने के लिए कानून बनाया जाए, क्योंकि हर कोई सिर्फ महिलाओं का सम्मान बचाने के लिए संघर्ष कर रहा है। न्यायालय ने इस बात पर गंभीर चिंता जाहिर की थी कि कोई भी पुरुष के सम्मान और गरिमा की बात नहीं करता और हर कोई महिलाओं के सम्मान और गरिमा के लिए संघर्ष कर रहा है। इसमें संदेह नहीं कि महिलाओं की सुरक्षा के लिए तमाम कानून बने हैं। इनका कोई भी महिला दुरुपयोग कर सकती है, लेकिन ऐसी महिलाओं से पुरुषों के बचाव के लिए कानून कहां हैं? शायद अब समय आ गया है कि ऐसे मामलों के भुक्तभोगी पुरुषों के बचाव के लिए भी कानून बनाया जाए।

उक्त सुझाव कागजों में दबकर रह गया, लेकिन यदि आने वाला समय पुरुषों के प्रति यूं ही पूर्वाग्रहों से ग्रस्त रहा तो समाज का संतुलित विकास संभव नहीं हो पाएगा। हमें यह समझना होगा कि शारीरिक भेद के आधार पर भावनाओं का बंटवारा किसी भी दृष्टि से उचित नहीं है। इसकी अनदेखी नहीं की जानी चाहिए कि स्त्रियों में भी पुरुषों की ही भांति क्रोध, ईर्ष्या, द्वेष, प्रेम और घृणा जैसी भावनाएं प्रवाहित होती हैं। ऐसे में हर मामले में केवल पुरुष को ही शोषक मानने की प्रवृत्ति कहां तक उचित है? क्या यह सोच मानव अधिकारों के विरुद्ध नहीं है। हमारी यही मानसिकता समाज को दो भागों में बांट रही है। कथित महिलावादी समूहों ने पुरुषों को शोषक सिद्ध करने का कोई प्रयास नहीं छोड़ा है, परंतु एकपक्षीय सोच घातक है, क्योंकि अपमान शारीरिक भेद नहीं देखता। इसमें तनिक संदेह नहीं कि पुरुषसत्तात्मक व्यवस्था में महिलाएं स्वयं को बचाने के लिए कठोर संघर्ष कर रही हैं और दुष्कर्म के मामले थम नहीं रहे, परंतु इसका तात्पर्य यह नहीं कि एक के हित की बात दूसरे के हित का शोषण करने वाली साबित हो ।


Date:05-10-20

खामियों पर हो पुनर्विचार

संपादकीय 

सरकार देश में निजी हवाई अड्डों की तादाद बढ़ाने की अपनी योजना पर लगातार काम कर रही है। यह अच्छी खबर है, हालांकि महामारी ने विमानन और पर्यटन क्षेत्र के मुनाफे और उसके स्थायित्व को काफी प्रभावित किया है। जानकारी के मुताबिक पिछले दौर के निजीकरण की आलोचना के बाद निजीकरण नीति में कुछ बदलाव लाए जाएंगे। आलोचना करने वालों में हवाई अड्डों के संचालन के लिए उत्तरदायी सरकारी संस्थान भारतीय विमानपत्तन प्राधिकरण के कर्मचारी भी शामिल थे। आलोचना मोटे तौर पर दो बातों के इर्दगिर्द केंद्रित थी। पहली, इस बात को लेकर चिंता जताई गई कि पिछले वर्ष जिन छह हवाई अड्डों लखनऊ, अहमदाबाद, जयपुर, मंगलूरु, तिरुवनंतपुरम और गुवाहाटी की नीलामी की गई, उन सभी की बोली एक ही बोलीकर्ता अदाणी इंटरप्राइजेज को हासिल हुई। अदाणी ग्रुप की राजनीति उजागर है, उस पर भारी कर्ज है और उसे हवाई अड्डों के संचालन का कोई अनुभव नहीं है। हालांकि अदाणी समूह को बोली प्रक्रिया से बाहर रखने की कोई वजह नहीं है। परंतु इस प्रकार के एकाधिकार को लेकर चिंता लाजिमी है। ऐसे में आलोचना जायज थी।

दूसरी चिंता वह है जो निजीकरण के मामलों में प्राय: देखने को मिलती है। खासतौर पर उस समय जब निजीकरण में बड़े सरकार नियंत्रित क्षेत्र या उपक्रम की परिसंपत्तियों के एक समूह की बिक्री की जाती है या उसे लीज पर दिया जाता है। चिंता की बात यह है कि निजी क्षेत्र केवल उन्हीं हवाई अड्डों की बोली लगाएगा जिनमें मुनाफा कमाना तय हो। ऐसे में बाकी हवाई अड्डों का क्या होगा। जाहिर है निजीकरण की नीति के चलते समय के साथ भारतीय विमानपत्तन प्राधिकरण के पास केवल वही हवाई अड्डे रह जाएंगे जो मुनाफे में नहीं चल रहे हों। जबकि मुनाफे वाले सारे हवाई अड्डे निजी क्षेत्र के पास चले जाएंगे। जानकारी के मुताबिक सरकार ने इन दोनों आलोचनाओं को तवज्जो दी है। एकाधिकार को लेकर जताई गई चिंता को देखते हुए निर्णय लिया गया है कि अगले छह हवाई अड्डों की नीलामी एक साथ नहीं की जाएगी। इसके बजाय एक समय पर दो हवाई अड्डों की बोली लगाई जाएगी और हर बोली के विजेता को अगले दौर की बोली से बाहर रखा जाएगा। यह अच्छी बात है कि सरकार आलोचना पर ध्यान दे रही है। बहरहाल, उसे उस प्रक्रिया पर पुन: ध्यान देना चाहिए जहां उसने छह हवाई अड्डे एक ही बोलीकर्ता को सौंप दिए। उसे देखना चाहिए कि क्या कोई ऐसा तरीका है जिससे इस एकाधिकार के परिणाम को किसी तरह सीमित किया जा सके।

दिक्कत यह है कि दूसरी आलोचना का जवाब देते हुए बोली में मुनाफे वाले एक हवाई अड्डे के साथ एक ऐसे हवाई अड्डे को शामिल किया गया है जो घाटे में चलने वाला है। उदाहरण के लिए लखनऊ के साथ कुशीनगर हवाई अड्डा। सरकार को लग रहा होगा कि यह गैर मुनाफे वाले हवाई अड्डों की नीलामी का अच्छा तरीका है लेकिन यह अदूरदर्शी है। सार्वजनिक वित्त का एक बुनियादी नियम यह है कि सब्सिडी यथासंभव पारदर्शी होनी चाहिए ताकि अंकेक्षक, जनप्रतिनिधि और मतदाता उनका समुचित आकलन कर सकें। इस मामले में बिना मुनाफे वाले हवाई अड्डों की सब्सिडी, मुनाफे वाले हवाई अड्डों के यात्रियों द्वारा चुकाए जाने वाले ऊंचे किराये में छिपी होगी। यह बुनियादी रूप से गलत है और उस नीति की याद दिलाता है जब पूर्वोत्तर के हवाई मार्गों को प्रमुख मार्गों के साथ जोड़ा गया था। एक हवाई अड्डे को लाभदायक बनाना या जरूरी लगने पर गैरलाभदायक हवाई अड्डे को सब्सिडी देना सरकार का निर्णय है। इसकेलिए एक व्यापक क्षेत्रीय वृद्धि योजना की आवश्यकता है, न कि बोझ को निजी क्षेत्र पर डाल देना। निजीकरण नीति के इस पहलू पर भी पुनर्विचार किया जाना चाहिए।


Date:05-10-20

डिजिटल युग और ग्रामीण विकास

सतीश सिंह

वर्ष 2011 में राष्ट्रीय आप्टिकल फाइबर नेटवर्क (एनओएफएन) के रूप में शुरू की गई योजना को वर्ष 2014 में भारतनेट के नाम से पहचान मिली थी। लेकिन इस योजना को मूर्त रूप नहीं दिया जा सका। हालांकि इस योजना को सफल बनाने के लिए दूरसंचार मंत्रालय ने भारत ब्रॉडबैंड नेटवर्क (बीबीएनएल) नाम से एक कंपनी वर्ष 2012 में बनाई थी। इस कंपनी का काम भारतनेट योजना के प्रबंधन, स्थापना और परिचालन का काम देखना था। उस समय इस योजना का लक्ष्य था देशभर की ढाई लाख से ज्यादा ग्राम पंचायतों को एक-दूसरे से जोड़ना। अब सरकार इस योजना का विस्तार करके ग्रामीणों को सशक्त बनाना चाहती है। बीते 15 अगस्त को राष्ट्र को संबोधित करते हुए प्रधानमंत्री ने छह लाख गांवों को एक हजार दिनों के भीतर ऑप्टिकल फाइबर नेटवर्क से जोड़ने की बात कही थी। इसका यह अर्थ हुआ कि इस अवधि में आप्टिकल फाइबर के जरिए ग्रामीण क्षेत्रों में ब्रॉडबैंड की पहुंच मुहैया कराई जाएगी। इसके तहत प्रत्येक ग्राम पंचायत को कम से कम एक सौ मेगाबाइट प्रति सेकंड का बैंडविड्थ उपलब्ध कराया जाएगा। ऐसा करने से हर पंचायत में आनलाइन सेवाओं को शुरू करना आसान हो जाएगा। गांवों को आप्टिकल फाइबर नेटवर्क से जोड़ने का सबसे बड़ा फायदा तो यह होगा कि प्रत्येक ग्रामीण की ई-शासन, ई-कॉमर्स, ई-शिक्षा, ई-बैंकिंग, ई-स्वास्थ्य सेवाओं तक पहुंच बनने लगेगी। इस योजना की मदद से एक देश, एक राशन कार्ड योजना को भी लागू किया जा सकेगा। आज ज्यादातर ग्रामीण क्षेत्रों में बिजली उपलब्ध है। इसलिए इस योजना को अमलीजामा पहनाना आसान है। कोरोना महामारी के कारण शिक्षा की दशा और दिशा दोनों में आमूलचूल बदलाव आया है। गांवों के बच्चे भी आज आनलाइन शिक्षा हासिल कर रहे हैं। कोरोना महामारी से मुक्ति के बाद गांवों के स्कूलों में आप्टिकल फाइबर नेटवर्क की मदद से स्मार्ट कक्षाएं शुरू की जा सकती हैं।

आप्टिकल फाइबर नेटवर्क योजना के दूसरे चरण को अमलीजामा पहनाने के लिए केंद्रीय मंत्रिमंडल ने इस साल जनवरी में सिफारिश की थी। इस योजना का कुल बजट 42,068 करोड़ रुपए का है, जिसमें से 18,792 करोड़ रुपए को दूसरे चरण में खर्च किया जाएगा। फिलहाल आठ राज्यों ने इस योजना को अपने यहां लागू करने का फैसला किया है, जबकि जटिल भौगोलिक क्षेत्रों वाले राज्य अपने यहां उपग्रह-आधारित मॉडल को लागू करेंगे। एनओएफएन पैनल की वर्ष 2015 में आई रिपोर्ट के आधार पर दूसरे चरण की योजना बनाई गई थी, जिसे सरकार, निजी क्षेत्र और सार्वजनिक उपक्रम मिल कर मूर्त रूप देंगे। इसमें लोगों को इंटरनेट से जोड़ने से लिए आप्टिकल फाइबर, रेडियो और उपग्रह जैसे माध्यमों का इस्तेमाल किया जाए। इसके अलावा अंतिम चरण की पहुंच सुनिश्चित करने के लिए वाई-फाई तकनीक का सहारा लिया जाएगा, ताकि घर, दफ्तर हर जगह इंटरनेट की सुविधा सुचारू रूप से मिलती रहे।

इसमें कोई संदेह नहीं कि एनओएफएन योजना को मूर्त रूप देने से डेटा की मांग बढ़ेगी। इससे ग्रामीण क्षेत्र में कृषि आधारित उद्योगों के विकास में भी सहायता मिलेगी होगी, क्योंकि इससे किसानों और उद्योग मालिकों के बीच संपर्क आसान हो जाएगा। एक अनुमान के मुताबिक अगले दो-तीन साल में डेटा खपत में काफी उछाल आ सकता है। कोरोना महामारी के दौर में भारत के ग्रामीण क्षेत्रों में डेटा की खपत दोगुने से भी ज्यादा बढ़ी है। बढ़त का यह दौर आगे भी कायम रहने वाला है। वर्ष 2025 तक भारत का कुल डेटा उपभोग दोगुना होने और डेटा का प्रति उपभोक्ता मासिक उपभोग 25 जीबी तक पहुंचने का अनुमान है। डिजिटलीकरण की तरफ ग्रामीणों का रुझान बढ़ने से वे अपने कारोबार को बढ़ा सकेंगे। ग्रामीण भारत के सूचना एवं शिक्षा संपन्न होने से ग्रामीणों के लिए रोजगार एवं उद्यमशीलता के अधिक अवसर पैदा होंगे, जिससे ग्रामीण क्षेत्र की आर्थिक वृद्धि का रास्ता खुल सकेगा। भारतीय दूरसंचार नियामक प्राधिकरण (ट्राई) की ओर से जारी आंकड़ों के अनुसार इस साल मई तक देश भर में ब्रॉडबैंड उपभोक्ताओं की संख्या 68.37 करोड़ पहुंच चुकी थी। सरकारी दूरसंचार कंपनी भारत संचार निगम लिमिटेड (बीएसएनएल) समेत पांच बड़े सेवा प्रदाताओं का बाजार के 98.93 प्रतिशत हिस्से पर कब्जा है। भारत के पास आप्टिकल फाइबर के विनिर्माण की पर्याप्त घरेलू क्षमता भी है, लेकिन भारतीय कंपनियां 4जी उपकरणों के लिए विदेशी कंपनियों पर निर्भर हैं। हालांकि, भारतीय कंपनियों को भरोसा है कि वे आगामी दो साल में 4जी उपकरणों के उत्पादन की क्षमता को हासिल कर सकते हैं। आज देश में इंटरनेट पहुंच के अभाव के अलावा भी दूसरों कारणों से लोग आनलाइन सेवाओं का उपयोग नहीं कर पा रहे हैं। स्मार्टफोन की कमी, देश के दूर-दराज इलाकों में मोबाइल टावर नहीं होना, देश में ब्रांडबैंड की सीमित उपलब्धता आदि ऐसे कारण हैं। ऐसे में देश में शत-प्रतिशत डिजिटलीकरण के सपने को मूर्त रूप देना कहीं ज्यादा चुनौतीभरा है।

अंतरराष्ट्रीय संस्था मैरी मीकर ने इंटरनेट के इस्तेमाल पर 2019 में एक रिपोर्ट जारी की थी, जिसके अनुसार भारत में चीन के बाद सबसे अधिक इंटरनेट का इस्तेमाल किया जाता है। अमेरिका इस मामले में तीसरे स्थान पर है। रिपोर्ट में कहा गया है कि दुनिया भर में लगभग 3.8 अरब लोग इंटरनेट का इस्तेमाल कर रहे हैं। इस साल के अप्रैल के आंकड़ों के अनुसार चीन में पिच्यासी करोड़ इंटरनेट उपभोक्ता हैं, जबकि अमेरिका में यह संख्या लगभग तीस करोड़ है। आनलाइन बाजार का इस्तेमाल करने के मामले में भी भारत का स्थान दूसरा है। पहले स्थान पर चीन काबिज है। यह स्थिति तब है, जब भारत में इंटरनेट की पहुंच मात्र चालीस प्रतिशत आबादी के बीच है। चीन में इंटरनेट की पहुंच इकसठ प्रतिशत आबादी के बीच है, जबकि अमेरिका में यह अट्ठासी प्रतिशत है। भारत के महानगरों में इंटरनेट की पहुंच पैंसठ प्रतिशत आबादी के बीच है, जबकि इंटरनेट के सक्रिय उपभोक्ताओं की संख्या कुल आबादी का लगभग तैंतीस प्रतिशत ही है। सक्रिय इंटरनेट उपभोक्ता उसे कहते हैं, जो एक महीने में कम से कम एक बार इंटरनेट का इस्तेमाल करते हैं।

वैश्विक संदर्भ में देखें तो दुनिया में इंटरनेट के कुल उपभोक्ताओं में भारत की हिस्सेदारी बारह प्रतिशत है, जिसका एक बड़ा कारण निजी कंपनियों द्वारा उपभोक्ताओं को पहले मुफ्त और बाद में सस्ती दर पर मोबाइल डेटा उपलब्ध कराना रहा है। इंटरनेट एंड मोबाइल एसोसिएशन ऑफ इंडिया एंड नीलसन द्वारा नवंबर 2019 में जारी एक रिपोर्ट के अनुसार भारत के ग्रामीण क्षेत्रों में लगभग तेईस करोड़ इंटरनेट के सक्रिय उपभोक्ता थे, जबकि शहरों में इंटरनेट के सक्रिय उपभोक्ताओं की संख्या इक्कीस करोड़ है। भारत की कुल आबादी के मुकाबले इंटरनेट का उपयोग करने वाले लोगों की संख्या बहुत कम है। लेकिन विगत पांच वर्षों से इस संख्या में तेजी आ रही है। इसका कारण चीन की मोबाइल कंपनियों का भारतीय बाजार पर कब्जा और कम कीमत पर स्मार्टफोन बेचना है। फिर भी, गरीबी और निरक्षरता की वजह से भारत में इंटरनेट का इस्तेमाल करने वालों की संख्या में अपेक्षित वृद्धि नहीं हो रही है। दिसंबर 2019 के अंत तक भारत में लगभग पचास करोड़ लोगों के पास स्मार्टफोन था, लेकिन इनमें से कुछ लोग इंटरनेट का इस्तेमाल कभी-कभार या कभी भी नहीं कर रहे थे। बदले परिवेश में डिजिटलीकरण समय की मांग है। कोरोना महामारी ने डिजिटलीकरण की महत्ता को अभूतपूर्व तरीके से बढ़ाया है। आज लोग बैंकिंग लेनदेन, खरीददारी, डॉक्टर से सलाह-मशविरा आदि वीडियो काल के जरिए कर रहे हैं। ऐसे में ग्रामीण क्षेत्रों को आप्टिकल फाइबर नेटवर्क से जोड़ने की योजना अगर कामयाब होती है तो ग्रामीण क्षेत्र में विकास के दरवाजे पूरी तरह से खुल जाएंगे।


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