30-05-2019 (Important News Clippings)
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Date:30-05-19
It’s Now Or Never
Modi can seal his legacy by transforming India’s economy in his second term.
TOI Editorials
It’s now or never. Prime Minister Narendra Modi’s second term, where he came back with a massive majority, should be one where he seals his legacy and place in the history books by putting the Indian economy in a different orbit, away from the ‘Third World’ space it currently occupies. Modi’s first term was spent on political consolidation, which has been achieved by now. Going for blockbuster, double digit growth that makes India a pre-eminent power and ushers in ‘acche din’ for Indians is a worthy aim for the second term.
Speaking for BJP ally Akali Dal Naresh Gujral, who also chairs the parliamentary standing committee on commerce, has strongly advocated bold economic reforms for the government. As Gujral suggests, Margaret Thatcher transformed the UK economy from being the “sick man of Europe” to a ferociously competitive one through bold reforms: Modi can do the same for India. In which case the current moment – when the NDA government is set to enjoy a honeymoon period, Modi stands unchallenged and the opposition is in disarray – is the best time to act.
India’s economic reforms in 1991 focussed on enhancing competition in the market for products by opening it up to the private sector. The next stage of reforms needs to play out in the market for factors of production such as land, labour and capital. Unless these areas see reform, Indian manufacturing and services are unlikely to be globally competitive. Legislative powers over factor markets, particularly land and labour, are divided between Centre and states. Therefore, comprehensive reform requires both levels of government to work together and remove onerous regulations.
Unless the land market is unlocked, Indian manufacturers will be unable to scale up to global levels. This must be complemented by imparting flexibility in the labour market, which will pave the way for more labour intensive manufacturing and jobs. India needs to take a leaf out of Vietnam’s playbook. In a space of about three decades, it has moved from collectivised agriculture to another Asian tiger in the making on the back of market-oriented reforms. Agriculture is another area crying out for market-oriented policy. There’s no time to waste if Modi’s earlier promise of “minimum government, maximum governance” is to be realised. Among other things, it will assure BJP a third term as the fruits of big bang reforms will have come in by 2024.
Date:30-05-19
चीन के साथ संवाद की पहल से दूसरी पारी की शुरुआत
संपादकीय
प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने अपने दूसरे कार्यकाल के शपथ समारोह में बंगाल की खाड़ी से लगे देशों के राष्ट्राध्यक्षों को आमंत्रित करने के साथ चीन के राष्ट्रपति शी जिनपिंग से वुहान में अकेले में हुई मुलाकात जैसी बैठक का प्रस्ताव भी रख दिया है। यह उनकी उस पहल के अनुरूप ही है, जिसमें उन्होंने सभी मंत्रालयों को सौ दिन का ब्ल्यू प्रिंट बनाने को कहा है। यानी वे पहले दिन से ही सक्रिय होने का संदेश देना चाहते हैं। ईरान पर अमेरिकी प्रतिबंधों के शिकंजे और चीन के साथ उसके व्यापार युद्ध ने भारत के सामने जटिल परिस्थिति पैदा कर दी है। उधर, चीन को भी व्यापार के क्षेत्र में मुश्किलों के बीच भारत में उम्मीद दिखाई देती है। मोदी ने सितंबर 2014 में शी को अहमदाबाद आमंत्रित किया था। बदले में शी ने मई 2015 में अपने गृह प्रदेश शांक्शी की राजधानी शियान में आमंत्रित किया। अप्रैल 2018 में दोनों के बीच चीन के वुहान में अनौपचारिक बैठक हुई, जिसमें दोनों ने दो दिन साथ बिताए। लेकिन, इन सारी बहु प्रचारित मुलाकातों का नतीजा सिफर ही रहा बल्कि मसूद अजहर को वैश्विक आतंकी घोषित करने के मसले पर अड़ंगा लगाकर और डोकलाम में टकराव की नौबत लाकर चीन ने सारी कवायद पर पानी फेर दिया। इसके बाद चीन के प्रति मोदी का रुख भी ठंडा हो गया। अब अंतरराष्ट्रीय परिस्थितियों ने बिल्कुल अलग ही करवट ले ली है।
हालांकि, जून के पहले पखवाड़े में किर्गीज गणतंत्र की राजधानी बिशकेक में शंघाई सहयोग संगठन की बैठक में दोनों नेताओं की मुलाकात होगी। इस मुलाकात को सुविचारित द्विपक्षीय बैठक का रूप देने के प्रयास हो रहे हैं। सारी कवायद में चीन की गहरी रुचि नज़र आ रही है। अमेरिका से व्यापार में हो रहे घाटे की पूर्ति वह भारत में देख रहा है। हालांकि, इसकी गुंजाइश कम है, क्योंकि चीन के साथ व्यापार में भारत को पहले ही 60 अरब डॉलर के विशाल व्यापार घाटे का सामना करना पड़ रहा है। दोनों देश इस मसले को कैसे सुलझाते हैं यह देखने की बात है। दूसरा मसला बेल्ट एंड रोड का चीनी कार्यक्रम है। हाल में हुई इसकी बैठक में भारत के न जाने से चीन की काफी किरकिरी हुई। चीन बेल्ट एंड रोड में किसी तरह की भारतीय मौजूदगी के लिए भी कोशिश कर सकता है। हमें उसके सामने यह स्पष्ट करना होगा कि सीमा पर दबाव बनाने की रणनीति से उसे बाज आना होगा और रिश्तों को भारत के लिए भी फायदेमंद बनाने की दिशा में सहयोग करना होगा।
Date:30-05-19
इक्कीसवीं सदी में भारत की जाति व्यवस्था ?
मिहिर शर्मा
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने आम चुनाव में विजय के पश्चात जो संबोधन दिया उसमें एक पंक्ति विशिष्ट थी। 21वीं सदी के भारत को लेकर अपना नजरिया पेश करते हुए प्रधानमंत्री ने कहा कि भविष्य में दो ही जातियां रहने वाली हैं: एक तो वे जो गरीब हैं और दूसरी वो जो गरीबों के उद्घार के लिए काम करती हैं। उनके इस वक्तव्य को कई तरह से देखा जा सकता है। पहली बात, यह वक्तव्य शायद राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के अनिवार्य आदर्श का प्रतिनिधित्व करता है। ध्यान रहे यही वह संगठन है जिसने मोदी को वैचारिक रूप से तैयार किया है। इसकी दूसरी व्याख्या एक तरह से माक्र्सवादी है जो जातीय गौरव और जातीय अंतर को खत्म करने की बात कहती है। अगर वे बरकरार भी रहें तो भी उनको वर्ग से प्रतिस्थापित किया जा सकता है। अपवाद केवल यह है कि उद्घार की जगह वर्ग संघर्ष की धारणा ले लेगी। देश में गरीबी को लेकर बहस के जो और रूप हैं, वे कुछ मायनों में इसके विरोधाभासी हैं। मोदी यहां सशक्तीकरण के बजाय परोपकार की बात कर रहे हैं। वह ऐसा नहीं कहते कि इन दो जातियों में एक अमीर है और दूसरी वह जो जल्दी ही अमीर होगी।
मोदी और उनके नजरिये को देश की तमाम जातियों और वर्गों में बड़ी जीत मिली है। केवल धार्मिक अल्पसंख्यक ही अपवाद हैं। ऐसे में मोदी जिस सामाजिक बदलाव का नेतृत्व कर रहे हैं, उसके और जातीय पदसोपान के आपसी रिश्ते पर विचार करना अत्यंत आवश्यक है। मोदी ने अपने ओबीसी होने का मुद्दा भी बनाया और उन्हें इसका फायदा भी मिला। पहले उन्हें इसका लाभ उत्तर प्रदेश की जातीय राजनीति में मिला जहां समाजवादी पार्टी को गैर यादव ओबीसी का साथ नहीं मिला और दूसरा उन्होंने खुद को ब्राह्मणवादी नेतृत्व तथा संघ की ऐसी परंपराओं से दूर रखा। अतीत में उन्होंने कुछ चौंकाने वाली बातें कहीं हैं। खासतौर पर हाथ से मैला ढोने और दलितों को खासकर वाल्मीकि समुदाय को लेकर। उन्होंने कहा था कि हाथ से मैला ढोना उन पर थोपी गई आजीविका नहीं बल्कि एक आध्यात्मिक गतिविधि है जो उन्होंने पीढिय़ों से चुन रखी है। उनका यह विचार संघ की सोच के करीब है। हालांकि अब वह इस कुप्रथा के खात्मे की बात कहने लगे हैं।
इन सारी बातों के बीच मोदी ने भारत जैसे जातीय विभाजन में घिरे हुए देश को लेकर जो दावा किया है वह किसी आकांक्षा से अधिक एक तरह का अपमार्जन नजर आता है। दलित लेखक और बौद्घिक चंद्रभान प्रसाद ने ट्विटर पर मोदी को लेकर उपजे इस आंदोलननुमा जनमत को सवर्ण उभार का नाम दिया है। उनका कहना है कि अगर संविधान को अंगीकृत करने की तारीख यानी 26 जनवरी क्रांति थी तो यह एक प्रतिक्रांति है। प्रसाद का मानना है देश के तमाम आर्थिक तबकों से आने वाले दलित पीडि़त की तरह बात कर सकते हैं तो देश के उच्च वर्ण के लोग भी आज उसी तरह बात कर सकते हैं। सवर्णों को लगता है कि अतीत के भारत को पुनर्जीवित किया जा सकता है। मेरी दृष्टि में प्रसाद का सोचना सही है। वह कहते हैं कि पूर्वी उत्तर प्रदेश में नई पीढ़ी के सवर्णों को उनके घर के बुजुर्ग अतीत के गौरव की याद दिलाते हैं। आंबेडकर को संविधान के लिए, नेहरू को जमींदारी प्रथा के अंत के लिए खलनायक के रूप में पेश किया जाता है। ऐसे में उच्च वर्ग के युवाओं में एक नए तरह की चेतना का उभार हो रहा है जो अपना पुराना गौरव वापस चाहते हैं।
प्रसाद कहते हैं कि दलित, जनजातीय और मुस्लिम पहचान वाले दलों का जो सफाया हुआ है वह इस प्रति क्रांतिकारी एकजुटता की बदौलत हुआ है। इसके लिए धर्म और राष्ट्रवाद को हथियार बनाया गया। इससे न केवल उच्च वर्ग के हिंदू मतों को भाजपा के पक्ष में लामबंद किया गया बल्कि अन्य गठबंधनों का हिस्सा रहे अत्यधिक पिछड़ा वर्ग, गरीब ओबीसी आदि को भी अपनी ओर आकर्षित कर लिया जाए। प्रसाद उल्लेख तो नहीं करते लेकिन युवा गैर जाटव दलित भी भाजपा की ओर खिंच गए। यह एकीकृत हिंदू वोट बैंक अतीत के गौरव की वापसी की कामना करने वाले उच्च वर्ग और इन नए छिटके हुए समुदायों से बना था। ये समुदाय हिंदुत्व और संस्कृतिकरण के माध्यम से सामाजिक परिदृश्य में अपनी नई जगह बनाना चाहते थे। इस नए गठजोड़ को पराजित कर पाना संभव नहीं था। यह मोदी और शाह की असली राजनीतिक उपलब्धि है। उन्होंने भारतीय राजनीति में अब तक का सबसे बड़ा और भरोसेमंद वोट बैंक तैयार किया है। ऐसा करने के लिए उन्होंने एक पुराना तरीका अपनाया है: सामाजिक विभाजन को नकारना और ऐसा दिखाना मानो उसका कोई अस्तित्व ही नहीं हो। बहरहाल सच तो यही है कि जाति से मुक्त उत्तर प्रदेश मुख्यमंत्री आदित्यनाथ के अधीन प्रमुख रूप से ठाकुरों द्वारा ही चलाया जा रहा है। पुराने बुर्जुआ वर्ग द्वारा चलाई जा रही प्रति क्रांति एक बड़ी ताकत है।
अमेरिका में डॉनल्ड ट्रंप के निर्वाचन में ओबामा के कार्यकाल के बाद श्वेत समुदाय में उभरी नाराजगी की अहम भूमिका थी। मोदी ने वही काम बहुत व्यापक पैमाने पर किया है। इतना ही नहीं उन्होंने इसे बेहद सक्षम तरीके से अंजाम दिया है। जाहिर सी बात है मुस्लिम इसमें शामिल नहीं हैं। सबका साथ, सबका विकास का जो नारा दिया गया था उसका तात्पर्य यह था कि इससे पहले के सत्ता प्रतिष्ठान कुछ समूहों को प्राथमिकता देते रहे और इस प्रकार उच्च वर्ण के प्रतिभाशाली हिंदू वंचित रह गए। ऐसी ही लेकिन कम नजर आने वाली प्रक्रिया दलितों और आदिवासियों के बीच भी घटित हो सकती है। पुराने जाति आधारित दल मसलन बहुजन समाज पार्टी और लोहियावादी समाजवादी इसका मुकाबला करने को तैयार नहीं दिखते। काफी हद तक ऐसा इसलिए है क्योंकि उन्होंने विचारधारा और चेतना बढ़ाने वाली राजनीति की जगह संरक्षणवादी राजनीति को बढ़ावा दिया। मैं इन दलों या इनके उत्तराधिकारियों को कोई सलाह देने की स्थिति में नहीं हूं। अत: यह सच है और हमेशा सच रहा है कि एक विचारधारात्मक लड़ाई चल रही है जिसमें वे अपना काफी कुछ गंवा रहे हैं।
Date:30-05-19
कौशल विकास से ही बनेगी युवाओं की बात
देश के युवा ऐसे रोजगार चाहते हैं जहां उन्हें आगे बढऩे के अवसर मिल सकें। हमारी कौशल विकास योजनाओं का स्वरूप भी ऐसा होना चाहिए कि युवाओं की यह इच्छा पूरी हो सके।
राजीव कुमार , (लेखक नीति आयोग के उपाध्यक्ष हैं।)
हमारे देश में एक बड़ा विरोधाभास यह है कि यहां की अर्थव्यवस्था में श्रम का आधिक्य है लेकिन कौशल की काफी कमी है। जबकि इसी बीच हम कुछ कौशल और पेशेवर प्रतिभाओं का निर्यात भी करते हैं। सन 2018 में हमने ऐसा करके 790 करोड़ डॉलर की मुद्रा अर्जित की। ऐसे में कहा जा सकता है कि कुछ क्षेत्रों में कौशल की कमी काफी हद तक घरेलू अर्थव्यवस्था में कम वेतन भत्तों की बदौलत भी है। दूसरे क्षेत्रों की बात करें तो वहां आपूर्ति की कमी इसकी वजह हो सकती है।
विश्व स्तर पर गहन सरकारी हस्तक्षेप का वैश्विक अनुभव हमें बताता है कि मानव संसाधन विकास की सार्वजनिक प्रकृति के बीच आपूर्ति क्षेत्र की दिक्कत बाजार आधारित कौशल विकास व्यवस्था की जरूरत को अपरिहार्य बनाती है। इससे वेतन भत्तों की लागत में इजाफा होता है। यह देश के जनांकीय और कार्यबल के स्वरूप की तुलना में काफी अधिक हो जाता है। इन कारणों से ही भारत सरकार ने शिक्षा के स्तर पर गहन हस्तक्षेप किया है ताकि पर्याप्त कौशल उपलब्ध हो सके। इन प्रयासों के फलस्वरूप सन 2008 में निजी सार्वजनिक भागीदारी के आधार पर राष्ट्रीय कौशल विकास निगम (एनएसडीसी) की स्थापना की गई। सन 2015 में उसे कौशल विकास एवं उद्यमिता मंत्रालय (एमएसडीई) के अधीन कर दिया गया। अब एनएसडीसी की 49 फीसदी हिस्सेदारी एमएसडीई के पास है। बहुलांश हिस्सेदारी निजी साझेदारों के पास है। स्किल इंडिया योजना की घोषणा भी सन 2015 में की गई थी। अपनी स्थापना के बाद से ही एनएसडीसी ने देश भर में अपनी पहुंच बनाई। इस प्रक्रिया में उसने 443 प्रशिक्षण साझेदार तैयार किए, 8,503 प्रशिक्षण केंद्र स्थापित किए और 38 कौशल परिषद के साथ मिलकर 1,870 तरह के रोजगार चिह्नित किए। इसके अलावा करीब 99 लाख लोगों को प्रशिक्षित किया गया।
प्लेसमेंट का रिकॉर्ड बताता है कि इसके निजी क्षेत्र के प्रशिक्षण साझेदारों के 47 फीसदी प्रशिक्षुओं को रोजगार मिल गया। अन्य सरकारी योजनाओं के तहत प्लेसमेंट की दर केवल 15 से 18 फीसदी रही। इसके अलावा 19 मंत्रालय 44 अन्य योजनाएं संचालित करते हैं। कुछ योजनाएं एमएसडीई के सहयोग से चलती हैं तो अन्य की शुरुआत हाल ही में स्किल इंडिया तथा कृषि, स्वच्छता एवं पेयजल आदि मंत्रालयों के सहयोग से हुई। विभिन्न योजनाओं के अधीन प्रशिक्षित हुए लोगों के लिए रोजगार की तलाश करना आसान नहीं रहा है। या तो उपलब्ध रोजगार प्रशिक्षुओं की आकांक्षाओं के अनुरूप नहीं हैं या फिर उन्होंने जो कौशल अर्जित किया है वह औद्योगिक आवश्यकताओं के अनुरूप नहीं है। ऐसा इसलिए भी है क्योंकि घरेलू उद्योगों पर नई तकनीक अपनाने का दबाव पहले से बहुत अधिक है। अर्थव्यवस्था के विभिन्न क्षेत्रों में तमाम तरह के कौशल की मांग का आकलन करना बहुत मुश्किल काम है। तकनीकी उन्नति वाली अर्थव्यवस्था में उभरते कौशल की मांग का अनुमान लगाना कतई आसान नहीं है। यह बात भी ध्यान देने लायक है कि मौजूदा कौशल कार्यक्रम ऐसे नहीं हैं जो कौशल में निरंतर उन्नयन की पहचान कर सकें। ऐसे में तेजी से आगे बढ़ती दुनिया में वे कहीं पीछे छूट जाते हैं।
इस बात का भी जोखिम है कि एनएसडीसी का व्यापक प्रशिक्षण नेटवर्क कहीं नई तालीम की गति को न प्राप्त हो। नई तालीम योजना की शुरुआत सन 1950 के दशक के उत्तराद्र्ध में की गई थी लेकिन जाकिर हुसैन और केडी श्रीमाली जैसे बड़े नाम जुड़े होने के बावजूद यह अकाल मृत्यु को प्राप्त हो गया। ऐसा इसलिए हुआ क्योंकि इस योजना के तहत प्रशिक्षण प्राप्त करने वालों के कौशल में भविष्य के बदलावों के मुताबिक सुधार की गुंजाइश नहीं थी। ऐसे में विकल्पों पर विचार करने की आवश्यकता है। प्रशिक्षण के साथ निरंतर शिक्षा देने पर विचार करना होगा ताकि उम्मीदवार अपने कौशल और शिक्षा स्तर में लगातार सुधार करता रह सके। सन 1961 में नैशनल अप्रेंटिसशिप लॉ बनाया गया था ताकि कुल कर्मचारियों में कम से कम 2.5 फीसदी प्रशिक्षु हों और इसे आगे चलकर 10 प्रतिशत तक पहुंचाया जा सके। मौजूदा दौर में कुल श्रमशक्ति में उनकी हिस्सेदारी बमुश्किल 0.3 फीसदी है। चीन में यह 1.3 फीसदी और जर्मनी में 3.7 फीसदी है। फिलहाल सरकार की ओर से दिया जाने वाला प्रशिक्षु भत्ता मात्र 1,500 रुपये है। इसे बढ़ाकर दोगुना और तीन गुना करने और श्रम निरीक्षकों पर प्रभावी नियंत्रण करने से इस योजना को बेहतर बनाया जा सकता है।
परंतु इससे बेहतर उपाय भी उपलब्ध है। देश का पहला सुपर कंप्यूटर परम विकसित करने वाला विभाग, सीडैक के पूर्व उप प्रमुख डॉ. विवेक सावंत ने चुनौती को सवीकार करते हुए महाराष्ट्र नॉलेज कॉर्पोरेशन लिमिटेड (एमकेसीएल) में बदलाव लाने का निर्णय लिया। इसकी स्थापना पुणे में 2001 में पीपीपी आधार पर की गई थी। सन 2012 से एमकेसीएल अप्रेंटिशशिप और शिक्षा को साथ जोड़कर जारी रखने का सफल प्रयोग किया। जुलाई 2019 तक कुल 204 छात्र एमकेसीएल की अंशकालिक पेशकश के तहत तीन वर्ष के पाठ्यक्रम के तहत यशवंतराव चव्हाण महाराष्ट्र मुक्त विश्वविद्यालय से बीबीए की डिग्री हासिल कर लेंगे। ये तमाम छात्र समाज के निचले तबके से आते हैं और सप्ताह में पांच दिन पुणे की कंपनियों में प्रशिक्षु के रूप में काम करते हैं। उन्हें नौकरी की तैयारी के साथ डिजिटल कौशल, अंग्रेजी और अन्य चीजों का प्रशिक्षण दिया जाता है। उनको 8,000 रुपये का प्रशिक्षण भत्ता दिया जाता है। यह राशि उन गरीब युवाओं के आकर्षण का केंद्र है जो इसकी मदद से अपने मातापिता की सहायता करते हैं। यह राशि कंपनियों द्वारा दी जाती है। सभी प्रशिक्षुओं को लैपटॉप दिया गया है। उन्हें अनुभव प्रमाणपत्र भी दिया जाता है। इसके अतिरिक्त सप्ताहांत पर उन्हें एमकेसीएल के पाठ्यक्रम में सैद्घांतिक जानकारियां भी दी जाती हैं। इन तमाम युवाओं को फेडरल एक्सप्रेस, टाटा, एमेजॉन, एनईसी आदि कंपनियों में औसतन 12,000 रुपये मासिक का रोजगार मिला है। इनकी पदोन्नति की संभावना भी काफी कम है। फिलहाल यहां 400 विद्यार्थी नामांकित हैं। सबक यह है कि भारत का युवा अब किसी भी रोजगार से संतुष्ट नहीं है। उनको अच्छा रोजगार चाहिए जहां आगे की शिक्षा और बेहतर भविष्य की गुंजाइश हो। ऐसे में तमाम कौशल योजनाओं को इसी मुताबिक तैयार करना होगा।
एमकेसीएल की यह प्रायोगिक परियोजना राष्ट्रीय स्तर पर शुरू किए जाने के लिए तैयार है। एमकेसीएल इसका नेतृत्व करने को तैयार है। विश्वविद्यालय अनुदान आयोग को अब आगे बढ़कर एमकेसीएल को मजबूत बनाना चाहिए और राष्ट्रीय स्तर पर ऐसा कार्यक्रम पेश किया जाना चाहिए। स्किल इंडिया भी इस कार्यक्रम को पूरे देश में सफल बनाने में मददगार हो सकता है। उम्मीद की जानी चाहिए कि इस वित्त वर्ष में हमें ऐसा देखने को मिलेगा।
Date:29-05-19
दागियों का दबदबा
संपादकीय
आपराधिक छवि वालों को राजनीति से दूर रखने को लेकर पिछले कई सालों से आवाजें उठ रही हैं। सर्वोच्च न्यायालय ने भी आपराधिक रिकॉर्ड वाले जनप्रतिनिधियों को लेकर समय-समय पर गंभीर चिंता जताई है, लेकिन इस समस्या से निपटने की जिम्मेदारी संसद को ही सौंप दी। दागियों के मामलों की सुनवाई करते हुए पिछले साल एक फैसले में सर्वोच्च न्यायालय ने कहा था कि आपराधिक छवि वालों को चुनाव लड़ने से रोकने के लिए संसद ही कानून बनाए। शीर्ष अदालत के इस फैसले से यह उम्मीद बंधी थी कि राजनीतिक दल इस गंभीर और संवेदनशील मामले को प्राथमिकता में रखेंगे और ऐसे कानून बनाए जाएंगे, ताकि चुनावों में अपराध की पृष्ठभूमि वालों को टिकट न मिल पाए। लेकिन ऐसा कुछ होता दिखा नहीं। उलटे, सारे दलों ने ऐसे लोगों को टिकट देने में कमी नहीं की। नतीजा यह है कि इस बार नई लोकसभा में दागी जनप्रतिनिधियों की संख्या पिछली बार के मुकाबले काफी ज्यादा है। जाहिर है, राजनीतिक दल ही इस दुष्प्रवृत्ति को बढ़ावा दे रहे हैं। यह गंभीर चिंता का विषय है।
एसोसिएशन फॉर डेमोक्रेटिक रिफॉर्म्स (एडीआर) की ताजा रिपोर्ट बता रही है कि इस बार लोकसभा के लिए चुने गए नए सांसदों में तैंतालीस फीसद ऐसे हैं जिनके खिलाफ आपराधिक मामले चल रहे हैं। यानी लोकसभा के कुल सदस्यों में से आधे से सिर्फ सात फीसद कम। दागी जनप्रतिनिधियों की यह संख्या मामूली नहीं है। यह इतना बड़ा आंकड़ा है जो यह सोचने पर मजबूर कर रहा है कि अगर दागियों को चुनाव लड़ने से रोकने के ठोस प्रयास जल्द ही नहीं किए गए तो कहीं हमारी संसद दागियों के गढ़ में तो तब्दील नहीं हो जाएगी! चिंता की बात यह है कि राजनीति को साफ-सुथरा बनाने के लिए हम जितनी गंभीरता से बात और प्रयास कर रहे हैं, दागियों की संख्या कम होने के बजाय बढ़ती ही जा रही है। इस बार नई लोकसभा में सबसे ज्यादा एक सौ सोलह यानी उनतालीस फीसद दागी सांसद भारतीय जनता पार्टी के हैं। इसी तरह कांग्रेस के उनतीस, जनता दल (एकी) के तेरह, द्रमुक के दस और तृणमूल कांग्रेस के नौ सांसद दागदार छवि के हैं। इनमें उनतीस फीसद मामले हत्या, हत्या की कोशिश और बलात्कार जैसे जघन्य अपराध वाले हैं। चौंकाने वाली बात यह है कि 2009 के मुकाबले 2019 में गंभीर आपराधिक रिकॉर्ड वाले सांसदों की संख्या में एक सौ नौ फीसद का इजाफा हुआ है। अगर विधानसभाओं की बात करें तो इस बार ओड़ीशा विधानसभा में भी दागी जनप्रतिनिधियों की संख्या पिछली बार के मुकाबले बढ़ी है। और आंध्र प्रदेश में एक सौ चौहत्तर में से एक सौ इक्यावन विधायकों पर कोई न कोई मामला दर्ज है।
दूसरी ओर, बहुजन समाज पार्टी के एक नवनिर्वाचित सांसद को बलात्कार के एक मामले में सर्वोच्च न्यायालय ने गिरफ्तारी से किसी प्रकार का संरक्षण प्रदान करने से इनकार कर दिया है। ऐसा कर अदालत ने यह संदेश दिया है कि वह जघन्य अपराधों में शामिल किसी जनप्रतिनिधि के मामले में कोई नरमी नहीं बरतने वाली है। कानून अपना काम करेगा। अब सवाल राजनीतिक दलों के सामने है कि वे ऐसे मामलों में क्या रुख अपनाते हैं। जिन विधायकों पर पहले से ही कई मामले दर्ज हों, उन्हें सिर्फ जीतने के लिए चुनाव लड़ाना संसद को अपराधियों का गढ़ बनाना है और यह स्वस्थ लोकतंत्र के लिए बड़ा खतरा है। सवाल है कि जब हमारे जनप्रतिनिधि हत्या, हत्या की कोशिश, अपहरण, बलात्कार जैसे संगीन अपराधों में लिप्त रहने वाले लोग होंगे तो उनसे देश किस तरह के भविष्य की उम्मीद करेगा।
Date:29-05-19
Eastward Course
Bay of Bengal outreach is a well-judged attempt to expand regionalism, not let SAARC hold it hostage.
Editorial
It is tempting to see Prime Minister Narendra Modi’s invitation to the leaders of a Bay of Bengal forum for the inauguration of his second term, as a “snub to Pakistan”. After all five years ago, the PM had invited the leaders of the South Asian forum, SAARC, including Pakistan’s Prime Minister Nawaz Sharif, for his swearing-in ceremony. But the talk of a snub misses the story of the larger regional dynamic that has emerged over the last few years. When he travelled to the Kathmandu summit of the South Asian Association for Regional Cooperation in Kathmandu at the end of 2014, PM Modi may have figured out that the future of SAARC was bleak. At the summit, Nawaz Sharif pulled out of regional connectivity agreements that were ready for signature. Officials from Islamabad were very much part of the prolonged and painful negotiations to finalise the agreements. Quite clearly, the Pakistan Army in Rawalpindi had pulled the plug at the very last minute.
The fiasco at Kathmandu evidently led the PM to shift the focus to India’s sub-regional cooperation within South Asia with Bangladesh, Bhutan, Nepal. PM Modi saw that Pakistan is not ready for regional integration with India and that summits are not going to get the Pakistan horse to drink at the SAARC waters. Instead of holding the rest of the region hostage, India chose to expand regionalism with the BBIN forum. The PM also looked beyond SAARC to revive the moribund BIMSTEC regional forum that brings together five South Asian countries (Bangladesh, Bhutan, India, Nepal, Sri Lanka) and two South East Asian countries (Myanmar and Thailand).
That it is not invited to the PM’s oath-taking ceremony on Thursday does not mean Pakistan will disappear from India’s foreign policy agenda. During the last few years, Modi has demonstrated his political will for either peace or war with Pakistan. If he travelled to Lahore on short notice at the end of 2015, he was ready to attack a terror camp at Balakot in February 2018. Modi will have an opportunity to engage Pakistan Prime Minister Imran Khan at a Central Asian summit in Bishkek, Kyrgyzstan next month. Any productive meeting with the Pakistani leadership needs significant preparation and hopefully there are back channel conversations underway. While Pakistan to the west is a big challenge that needs to be carefully managed, the east is full of opportunities — marked by the economic resurgence of Bangladesh and Myanmar that form a bridge to the dynamic region of East Asia. Modi has talked the talk on BIMSTEC in the first term. He must now walk the walk, by committing substantive resources for the strengthening of BIMSTEC and removing the multiple obstacles within India for the rapid economic integration of the Bay of Bengal littoral.