30-04-2025 (Important News Clippings)

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30 Apr 2025
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Date: 30-04-25

अगर समय पर न्याय चाहिए तो जजों की संख्या बढ़ानी होगी

जस्टिस मदन लोकुर, ( सर्वोच्च न्यायालय के सेवानिवृत्त न्यायमूर्ति )

सहलेखक वलय सिंह, ( इंडिया जस्टिस रिपोर्ट के सह-संस्थापक हैं )

आखिरकार भारत में कितने जज होने चाहिए? इस सवाल का जवाब कई बार दिया जा चुका है। 40 साल पहले, वर्ष 1987 में जब देश में औसत प्रति 10 लाख आबादी पर मात्र 10.5 जज थे, तब 120वें लॉ कमीशन ने समय पर न्याय दिलाना सुनिश्चित करने के लिए प्रति 10 लाख आबादी पर 50 जजों की सिफारिश की थी। लेकिन आज भी देश में प्रति दस लाख लोगों पर 16 ही जज हैं और जजों की स्वीकृत संख्या लगभग 27 हजार है। कई राज्यों में जजों की स्वीकृत संख्या के एक-तिहाई पद खाली हैं। जजों की संख्या का सवाल इसलिए अहम हो जाता है क्योंकि देश की अदालतों में आज 5 करोड़ से ज्यादा केस लंबित हैं। इनमें 45 करोड़ केस निचली अदालतों में ही हैं।

पेंडिंग केसों की बात करें तो 22 राज्यों की अधीनस्थ अदालतों में इंडिया जस्टिस रिपोर्ट 2022 से 2025 तक 5 साल से अधिक समय से लंबित मामलों का प्रतिशत बढ़ा है। 2025 की रिपोर्ट का पूर्वानुमान कहता है कि निचली अदालतों और हाई कोर्ट में 2030 तक पेंडिंग केस 15% की दर से बढ़ेंगे। निचली अदालतों के लंबित केस वर्ष 2030 तक 5.12 करोड़ हो सकते हैं।

लंबित केसों का सीधा असर हर जज के कार्यभार पर पड़ता है। अलग-अलग राज्यों में 2024 के अंत तक प्रति जज औसत कार्यभार 2200 केस तक पहुंच गया था। कर्नाटक में प्रति जज लगभग 1,750 केस, केरल में 3,800 केस और उत्तर प्रदेश में 4,300 केसों का कार्यभार था। केवल सात राज्यों और केंद्र शासित प्रदेशों में कार्यभार 300 केस प्रति जज से कम था।

ये मूलतः उच्च न्यायालयों की जिम्मेदारी है कि जजों के खाली पदों पर नियमित नियुक्ति हो और बढ़ते कार्यभार के अनुरूप जजों की निर्धारित संख्या भी बढ़ती रहे। लेकिन कई समितियों और कमीशंस की रिपोर्ट के बावजूद हालात जस के तस हैं। इसकी एक वजह वित्तीय संसाधनों की कमी बताई जाती है। जजों की संख्या बढ़ने के साथ ही उनके स्टाफ, कोर्टहॉल और जजों और उनके ज्युडिशियल स्टाफ के लिए आवास की भी जरूरत होती है।

जिला अदालतों में हर नए जज के लिए रजिस्ट्रार, स्टेनोग्राफर और दो क्लर्क समेत आठ का स्टाफ चाहिए हालांकि, न्यायपालिका में निवेश से लाभ को समझना है तो न्यायिक प्रक्रिया में देरी के अर्थव्यवस्था पर पड़ने वाले असर को देखा जाना चाहिए। इसलिए सरकारी धन को कम जरूरी या अनावश्यक जगहों के बजाय सही जगहों पर लगाना जरूरी है। जजों की संख्या बढ़ाने में चुनौती वित्तीय भार की ही नहीं है, बल्कि राज्य सरकारें और न्यायपालिका भी इसके लिए जिम्मेदार हैं। दोनों ने कभी ऐसा स्पष्ट तरीका नहीं अपनाया जिससे पूरी व्यवस्था का वर्कफोर्स बढ़ता रहे।

जिला अदालतें हमारी न्याय व्यवस्था की रीढ़ रही हैं, लेकिन इसे मजबूत करने के लिए हमने क्या किया? अत्यधिक केसों के बोझ से दबे ज्यादातर जिला जजों को नए मामलों की तैयारी और उसमें दाखिल हुए दस्तावेजों को देखने, उनकी समीक्षा करने के लिए समय नहीं मिलता। उदाहरण के लिए, अगर किसी नए आपराधिक केस में दर्जनों गवाह है तो जज महत्ता के आधार पर उनका अलग-अलग वर्गीकरण करना चाहेंगे। लेकिन अत्यधिक कार्यभार से दबे जजों के पास स्थगन और जल्दबाजी में आदेश देने जैसे अनुचित विकल्प बचते हैं, जिनमें न्यायिक विवेक की पर्याप्त झलक नहीं होती। वित्तीय मामलों से जुड़ी सुनवाई में और समय लगता है।

हाई कोर्ट और सुप्रीम कोर्ट की तर्ज पर राज्य सरकारों या हाई कोर्ट की तरफ से देश के लगभग सभी 600 न्यायिक जिलों में कम से कम दो जजों के लिए एक-एक पेड ज्युडिशियल क्लर्क या रिसर्च एसोसिएट नियुक्त किए जा सकते हैं। इनमें एक प्रधान जिला न्यायाधीश और दूसरे सबसे अधिक कार्यभार वाले जज हों। हर क्लर्क को 25,000 रुपए भी दिए जाएं तो 600 न्यायिक जिलों में 1,200 ज्युडिशियल क्लर्क पर सालाना 36 करोड़ रुपए से अधिक खर्च नहीं होंगे। लेकिन इससे मुकदमे जल्दी निपटने, अधिक गुणवत्तापूर्ण फैसले और समय पर न्याय मिलने जैसे फायदे होंगे।.


Date: 30-04-25

स्वस्थ उम्रदराज जनसंख्या के लाभ!

संपादकीय

अक्सर उम्रदराज होते समाजों को धीमी वृद्धि और बढ़ते राजकोषीय दबाव के साथ जोड़ा जाता है लेकिन अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष (आईएमएफ) के ताजा विश्व आर्थिक दृष्टिकोण (डब्ल्यूईओ) को देखें तो एक ऐसा नज़रिया सामने आता है जो स्वस्थ ढंग से उम्रदराज होती जनसंख्या के संभावित आर्थिक लाभांशों को सामने लाता है। वैश्विक स्तर पर बढ़ती उम्र के लोगों के साथ एक ऐसा कथानक जुड़ा हुआ है जो बढ़ती स्वास्थ्य सेवा कीमतों और पेंशन देनदारियों से संबंधित राजकोषीय निहितार्थों के इर्दगिर्द घूमता है। भारत भी इसका अपवाद नहीं है। डब्ल्यूईओ के अनुमानों में उल्लिखित अध्ययन बताता है कि 2025 से 2050 के बीच देश के सकल घरेलू उत्पाद में होने वाली वृद्धि में उम्रदराज लोगों के कारण 0.7 फीसदी की कमी हो सकती है। सदी के उत्तरार्द्ध में जैसे-जैसे भारत जनांकिकी परिवर्तन बिंदु को पार करेगा, यह गिरावट बढ़ेगी।

बहरहाल, स्वस्थ ढंग से उम्रदराज होने में एक उम्मीद की किरण भी छिपी है। अध्ययन बताता है कि हाल के वर्षों में बुजुर्ग होने वाले लोग अपने पुराने समकक्षों की तुलना में शारीरिक रूप से मजबूत और संज्ञानात्मक रूप से बेहतर हैं । उभरती बाजार अर्थव्यवस्था वाले देशों समेत 41 देशों में किया गया अध्ययन बताता है कि 2022 में 70 वर्ष के व्यक्ति में औसतन उतनी ही संज्ञानात्मक क्षमता थी जितनी कि 2000 में 53 वर्ष के व्यक्ति में रहती थी।

यह सकारात्मक रुझान काम करने की अवधि बढ़ा सकता है, उत्पादकता में इजाफा कर सकता है और इस प्रकार आर्थिक वृद्धि में योगदान कर सकता है। वास्तव में कुछ विपरीत तथ्यात्मक आकलन से तो यह पता चलता है कि आबादी के बेहतर ढंग से उम्रदराज होने के कारण श्रम की आपूर्ति और मानव संसाधन में जो सुधार होगा वह 2050 तक वैश्विक जीडीपी में सालाना 0.4 फीसदी का योगदान कर सकता है। भारत में यह सालाना उत्पादन में 0.6 फीसदी की वृद्धि कर सकता है जिससे उम्रदराज होने का असर काफी हद तक सीमित हो सकेगा। इस बीच अमीर देशों में लंबी आयु प्रदान करने से संबंधित क्लीनिक एक सांस्कृतिक बदलाव को रेखांकित कर रहे हैं। अब उम्रदराज होने की प्रक्रिया को उलटने की कोशिशें तेज हो रही हैं। सिलिकन वैली के कई अधिकारी और स्वास्थ्य को लेकर काम करने वाले इन्फ्लुएंसर लोगों के लिए व्यक्तिगत रूप से विकसित स्वास्थ्य मानकों, प्लाज्मा ट्रांसफ्यूजन में निवेश और सेल्युलर रिप्रोग्रामिंग की वकालत कर रहे हैं। ये रुझान विवादास्पद हैं लेकिन ये सक्रिय स्वास्थ्य प्रबंधन को लेकर लोगों की बढ़ती भूख को दर्शाते हैं।

स्वास्थ्य के क्षेत्र में निवेश, उम्रदराज कर्मियों के लिए रोजगार के अवसर बढ़ाना, लैंगिक भेद को कम करना और तकनीक की मदद ना जनांकिकी संबंधी बदलाव में प्रभावी ढंग से मददगार साबित हो सकता है। 65 वर्ष से अधिक आयु के लोगों की श्रम शक्ति भागीदारी बढ़ाने पर भी विचार किया जा सकता है। इससे भी महत्वपूर्ण बात यह है कि भारत को श्रम शक्ति भागीदारी में लैंगिक अंतर को पाटना चाहिए। यह सही है कि देश की श्रम शक्ति में महिलाओं की भागीदारी की दर 2017-18 के 23.2 फीसदी से बढ़कर 2023- 24 में 41.7 फीसदी हो गई। इसके बावजूद यह पुरुषों की 77.2 फीसदी की श्रम भागीदारी दर से काफी कम है। यह 50 फीसदी की वैश्विक महिला भागीदारी से भी कम है। पेंशन सुधारों की भी उम्रदराज होती आबादी की मदद में अहम भूमिका है। न्यू पेंशन सिस्टम को अपनाना हाल के दशकों में देश के सबसे बड़े सुधारों में से एक है। हालांकि, कुछ राज्यों ने दोबारा पुरानी पेंशन योजना को अपनाया है। जिसका प्रबंधन समय के साथ मुश्किल हो सकता है।

तकनीक, खासतौर पर आर्टिफिशल इंटेलिजेंस जैसी तकनीक स्वास्थ्य संबंधी समस्याओं से बचाव बढ़ाने में अहम भूमिका निभा सकती है। उदाहरण के लिए अध्ययन में भारत के एक निजी स्वास्थ्य सेवा प्रदाता का उल्लेख है जिसने एआई आधारित टूल की मदद से लाखों लोगों के रेटिना की जांच की है जिससे कि डायबिटिक रेटिनोपैथी का पता लगाया जा सके। ऐसे नवाचारों को राष्ट्रीय स्वास्थ्य रणनीतियों में शामिल किया जाना चाहिए। ग्रामीण इलाकों में ऐसा करने की खास आवश्यकता है जहां स्वास्थ्य सुविधाएं सीमित हैं।


Date: 30-04-25

शहरों के विकास में नागरिकों की भागीदारी अहम

अमित कपूर, ( लेखक इंस्टीट्यूट फॉर कंपेटटिवनेस के अध्यक्ष हैं )

मीनाक्षी अजित

अगर आप शहर में रहते हैं तो किसी कोने में जमा कूड़े के ढेर, सड़कों पर इधर से उधर उड़ती प्लास्टिक थैलियों और सार्वजनिक नलों से टपकते पानी से जरूर रूबरू हुए होंगे। शहर की आपा-धापी की जिंदगी में हम यह सोच कर इनकी अनदेखी कर जाते हैं कि किसी न किसी का ध्यान तो इस पर जाएगा ही।

अर्थशास्त्री एडम स्मिथ के अनुसार मुक्त बाजार व्यवस्था अदृश्य ताकतों से संचालित होती है मगर शहरों के मामले में यह बात लागू नहीं होती है। शहरों के रंग-रूप एवं वहां रहने वाले लोगों की जीवन शैली और उनकी गतिविधियों पर निर्भर करते हैं। हाल में ही जापान की पर्यटक अकी दोई का एक वीडियो सामने आया है जिसमें उन्हें ओडिशा के शहर पुरी में गलियों को साफ करते देखा गया है। उन्हें किसी ने ऐसा करने के लिए नहीं कहा था बल्कि वह स्वतः ही रोज सार्वजनिक स्थलों एवं जगन्नाथ मंदिर को जाने वाली गलियों को झाडू से साफ कर रही थीं। यह स्व-प्रेरित अभियान सार्वजनिक स्थानों खासकर शहरों में नागरिक उत्तरदायित्वों की याद दिलाने वाला शक्तिशाली औजार नागरिकों की भागीदारी के बिना भारत के शहरों को नया रूप देने का अभियान अधूरा रह जाएगा। शहर केवल कंक्रीट और इस्पात का ढांचा नहीं होते हैं बल्कि वे इनके सभी नागरिकों की आदतों एवं रहन सहन के तौर-तरीकों को भी प्रतिबिंबित करते हैं।

अनुमानों के अनुसार वर्ष 2036 तक भारतीय शहरों में लगभग 60 करोड़ लोग रहने लगेंगे, जो देश की आबादी का 60 फीसदी हिस्सा होगा। भारत में आने वाले वर्षों में शहरों में आबादी बढ़ने के अनुमान के साथ अब नजरें बुनियादी ढांचे, तकनीक विकास एवं निवेश पर टिक गई हैं। शहरों के विस्तार की इस चकाचौंध और शोरगुल के बीच नागरिकों के उत्तरदायित्व एवं उनकी सक्रिय भागीदारी बदलाव को बढ़ावा देने वाले अहम कारक हैं। राज्य स्मार्ट शहरों का निर्माण जारी रख सकते हैं और निजी उद्यम भी नई मेट्रो लाइन और स्काईलाइन के लिए रकम मुहैया कराना जारी रख सकते हैं मगर अंत में नागरिकों का व्यवहार ही यह तय करेगा कि कौन सा शहर आगे बढ़ेगा या और कौन पिछड़ जाएगा। नागरिक उत्तरदायित्व का अभाव एक अदृश्य संकट है जिससे सार्वजनिक स्थलों एवं पर्यावरण को नुकसान पहुंच रहा है और सामाजिक बिखराव का कारण बन रहा है। नागरिक उत्तरदायित्व भारत के शहरी जीवन को दोबारा जीवंत बनाने का एक प्रमुख जरिया है। भारत का ग्रामीण क्षेत्र भ ही कई खामियों से जूझ रहा है मगर यह संयुक्त भागीदारी की एक मूल्यवान नजीर पेश कर रहा है। ग्रामीण क्षेत्रों में जल प्रबंधन सामुदायिक कुओं के माध्यम से होता है, त्योहारों में लोग जमकर एक दूसरे का सहयोग करते हैं। और स्थानीय स्तर पर पंचायती राज सामुदायिक स्तर पर लोगों के बीच परस्पर सहयोग सुनिश्चित करता है। जो भी निर्णय लिए जाते हैं उनके समाज के लिए सकारात्मक परिणाम तुरंत दिखने लगते हैं और इससे कुछ हद तक सभी को अपनी जिम्मेदारी का भी एहसास होता है।

मगर इसके उलट शहरी क्षेत्र में यह सामुदायिक ताना- बाना बिखरा नजर आता है। शहरों में लोगों का एक दूसरे से अनजान होकर रहना अलगाव को बढ़ावा देता है। एकजुट होकर रहने के बजाय शहरों को केवल विभिन्न आधुनिक सेवाएं हासिल करने की जगह मानने की सोच नागरिकों को सार्वजनिक स्थलों की जिम्मेदारी उठाने से रोक देती है। जलवायु परिवर्तन के खतरों और सार्वजनिक स्वास्थ्य संकट के कारण नागरिकों की जवाबदेही सुनिश्चित करने की आवश्यकता और अधिक बढ़ जाती है। मुंबई और चेन्नई जैसे शहरों में आई बाद केवल भारी वर्षा का ही नतीजा नहीं थी बल्कि बंद नालों और जल निकायों के अतिक्रमण भी इसका कारण थे। कोविड- 19 महामारी के दौरान मास्क पहनने और सामाजिक दूरी बरतने की अनिवार्यता ने साबित कर दिया कि किस तरह नागरिकों का व्यवहार सार्वजनिक स्वास्थ्य नतीजों को सकारात्मक ढंग से प्रभावित कर सकता है। इस बात के साक्ष्यों की कमी नहीं है कि सक्रिय प्रबंधन से शहरों की सूरत बदली जा सकती है। इंदौर इसका एक उदाहरण है जो वर्ष 2017 से लगातार स्वच्छ भारत सर्वेक्षण में सबसे स्वच्छ शहरों में पहले स्थान पर रहा है। इंदौर की सफलता शहरों के कायाकल्प में नागरिकों की जिम्मेदारी की ताकत का एक उम्दा प्रमाण है। जब यह महसूस किया गया कि नगर निकायों की व्यापक असफलता से अविश्वास का वातावरण तैयार हुआ है तो इसके समाधान के लिए इंदौर शहर में 311 मोबाइल ऐप्लिकेशन शुरू किए गए जिसके जरिये नागरिकों को स्वच्छता से जुड़े मुद्दे तत्काल उठाने एवं इसकी जवाबदेही तय करने के लिए एक सीधी एजेंसी तक पहुंच आसान हो गई। इस तकनीक के अलावा इंदौर में 800 से अधिक महिला स्वयं सहायता समूह भी काम कर रहे हैं जो स्थानीय स्तर पर खास प्रभाव रखने वाले लोगों के साथ मिलकर स्वच्छता में सभी की भागीदारी सुनिश्चित करने के लिए व्यापक स्तर पर जागरूकता अभियान चला रहे हैं। नागरिकों को केवल लाभार्थी बनाने के बजाय शहरों में समस्याओं के समाधान में सहायक मानते हुए इंदौर ने लोगों की निष्क्रियता को सक्रिय भागीदारी में तब्दील कर दिया है। इससे यह साबित हो गया है कि अगर नागरिक उत्तरदायित्व को बढ़ावा दिया जाए तो शहरों में व्यापक बदलाव हो सकते हैं।

मुंबई और बेंगलूरु जैसे भारतीय शहरों में भी ऐसे कई उदाहरण है। हालांकि, उनमें ज्यादातर प्रयास स्थानीय स्तर तक ही सीमित हैं। बड़े महानगरों में ऐसी पहल को आगे बढ़ाना एवं उन्हें बरकरार रखना वास्तव में चुनौतीपूर्ण होगा मगर यह शहरों को सफल एवं टिकाऊ बनाने के लिए जरूरी है।

अब समय गया है कि हम स्कूलों में शुरू से ही नागरिक शिक्षा एवं सामुदायिक कार्यक्रमों को शामिल करें ताकि एक ऐसी पीढ़ी तैयार हो सके जो शहरों को रहने की महज एक जगह के रूप में न देखें बल्कि उन्हें एक सामूहिक वातावरण के तौर पर देखें। शहरों का खाका तैयार करते वक्त भी इस बात का पूरा ख्याल रखा जाए कि ऐसी जगहों की व्यवस्था की जाए जहां आपसी विषयों एवं सामूहिक दायित्व (सार्वजनिक पार्क, सामुदायिक केंद्र, शहरी साझा क्षेत्र जहां नागरिक एक दूसरे के साथ बातचीत कर सकें और अपने एवं अपने इर्द-गिर्द के अनुभव साझा कर सकें) पर चर्चा हो सके । सहभागी संचालन को बढ़ावा देना भी उतना ही महत्त्वपूर्ण है जिससे वार्ड समितियां एवं निवासी कल्याण संघ सामुदायिक स्तर पर जरूरी अर्थपूर्ण कदम उठा सकें। तकनीक का लाभ लेना भी काफी फायदेमंद हो सकता है। निकाय सहभागी प्लेटफॉर्म, मोबाइल ऐप, ई-गवर्नेस तकनीक और डिजिटल टाउन हॉल नागरिकों एवं प्राधिकरणों के बीच दूरी को कम कर सकते हैं जिससे सबकी भागीदारी सुनिश्चित एवं पारदर्शी हो पाएगी।

शहरी कायाकल्प का मार्ग केवल नीतिगत उपायों या तकनीकी हस्तक्षेप पर नहीं बल्कि यह मूल रूप से इसके नागरिकों की सक्रिय भागीदारी एवं सक्रियता पर निर्भर करता है। स्वच्छता, जल प्रबंधन, टिकाऊ आवास और समावेशी सार्वजनिक स्थानों में सुधार तभी नजर आएंगे जब शहरी संचालन के मुख्य स्तंभ के रूप में नागरिकों को उनकी जवाबदेही के प्रति जागरूक बनाया जाएगा।

टिकाऊ एवं सक्षम शहरों और तंत्रगत विफलताओं के कारण परेशान शहरों के बीच अंतर इस बात से तय होगा कि किस सीमा तक नागरिकों की सक्रिय भागीदारी को प्राथमिकता दी जाती है और भारत के शहरी बदलाव के ताने-बाने में इसे कैसे शामिल किया जाता है।