29-12-2020 (Important News Clippings)

Afeias
29 Dec 2020
A+ A-

To Download Click Here.


Date:29-12-20

Go for a Bad Bank, Not an AMC

ET Editorials

The government is reportedly considering an asset management entity to facilitate transfer of non-performing assets (NPAs) from public sector banks (PSBs) to asset reconstruction companies (ARCs), without creating a separate bad bank that will house the bad loans. This is not a great idea. The sensible thing to do is for the State-owned banks to come together and jointly set up a bad bank, to which the bad loans on the banks’ books can be offloaded and resolved at leisure. Why set up a bad bank? Credit offtake is quite low, in spite of low rates and plenty of liquidity. Paucity of demand for credit is the primary constraint.

Why not simply sell the bad loans to the many ARCs that already exist? Why create a new bad bank? Because of the political economy of State-owned banks. Managers worry that the discount to the nominal value of the original loan at which its NPA avatar is sold to an ARC could invite charges of causing loss to the exchequer and enriching the ARC. That is why an ARC that is jointly owned by the PSBs is needed. It can offer the patient capital needed to resolve bad loans optimally, and the gains made over the cost of acquiring the bad loans would accrue to the banks themselves. Unless the resolution process in the new bad bank is crookedly designed to sell off assets cheap, it would recoup a fair bit of the value lost by the banks when they transfer their assets to the bad bank in the first place, and these gains would be passed on to the PSBs that own the bad bank.

To insulate managers further from arbitrary criminalisation of NPA sales, third parties, say, a firm of chartered accountants, could be asked to fix the minimum value of the assets to be transferred. Such double layers of reassurance would be afforded only by a new bad bank, not an asset management entity.


Date:29-12-20

Systems Challenge

As policymakers give shape to NEP and Atmanirbhar Bharat, they must nurture institutional frameworks that enable research

Editorial

In September, speaking on the New Education Policy (NEP), Prime Minister Narendra Modi underlined the importance of the knowledge economy. “We are working to make India a knowledge economy, to tackle brain drain,” he said. The policy, indeed, talks of “nurturing creativity”, enhancing “employability” and inviting foreign institutions to set up campuses. But these should be seen as only the first steps towards building capacities. As an investigation by this paper — which tracked 86 men and women who stood first in India, between 1996 and 2015, in their Class 10 and 12 exams — has shown, creating an atmosphere that can cater to the aspirations of youngsters wanting to pursue cutting edge research will require addressing multiple challenges. These pertain to funding, academic autonomy, designing robust processes for recruitment of faculty, counselling arrangements for early-career researchers, and systems to help overcome the many barriers to equality and diversity.

The number of universities in the country has grown nearly 40 times since independence. Unfortunately, however, an overwhelming majority of these institutions are veritable rubber stamps for degree certificates. A handful of research institutes, the Tata Institute of Fundamental Research, the Indian Institute of Science or some of the IITs, for example, do conduct cutting edge research. But these institutes are, by and large, outside the university system. Most Indian universities are too encumbered by regulatory shackles to have the freedom to design courses, find creative ways to raise funds, engage with other institutions — in the country and elsewhere — and devise mechanisms of collaboration with industry. As this paper’s investigation shows, an academic system that does not encourage the free flow of ideas between industry and academia does not fit the bill for several bright minds of the generation that has come of age after the country opened up in the 1990s. A contrasting example is that of the US — the preferred destination for most students interviewed by this paper — where universities have incubated cutting edge research. The role of Stanford University’s engineering department in building Silicon Valley’s tech-boom is well-known. In return, the university’s entrepreneurial alumni have created an endowment system that has strengthened Stanford’s links with the information economy. Similarly, the pharma major, Pfizer, and the University of California in San Diego have created systems to combine academic thinking with drug development expertise.

Translating the NEP’s emphasis on research to honing creativity will require a fundamental shift in university admission processes. The unrealistically high cut-offs speak of an education system that does not encourage creative learning. For those hobbled by caste, class and gender, this system creates another cycle of deprivation and in so doing, robs academia of the diversity required to create thriving knowledge hubs. Such a milieu is also likely to be at odds with the government’s thrust on self-reliance, Atmanirbhar Bharat. In the coming months and years as policymakers finetune the NEP and give shape to Atmanirbhar Bharat they will have to find ways to circumvent several social and institutional roadblocks, shed a lot of baggage.


Date:29-12-20

जीएसटी में रिसाव की टीस

भरत झुनझुनवाला

उत्पाद शुल्क बिक्री और चुंगी जैसी पुरानी व्यवस्था के कारण पनपी भ्रष्टाचार की समस्या पर काबू पाने के लिए देश में वस्तु एवं सेवा कर यानी जीएसटी को लागू किया गया। उम्मीद की गई कि इससे व्यवस्था में पारदर्शिता आएगी और भ्रष्टाचार पर अंकुश लगेगा, लेकिन आज उस पर पानी फिर गया है। नंबर दो का कारोबार खुलेआम हो रहा है। देश में दो समानांतर व्यवस्थाएं बन गई हैं। एक व्यवस्था कागजी है जो कंप्यूटर में दिखती है। दूसरी कंप्यूटर के बाहर चल रही है। उद्यमी नंबर दो में कच्चा माल खरीदता है, नंबर दो में बिजली खरीदता है, नंबर दो में श्रमिकों को रखता है और नंबर दो में माल बेचता है। ट्रक वाला नंबर दो में माल दुकानदार को पहुंचाता है और दुकानदार भी नंबर दो में ग्राहकों को बेचता है। हालांकि इस भ्रष्टाचार को रोकने के लिए सरकार ने ई-वे बिल की व्यवस्था बनाई, ताकि रास्ते में जांच हो सके कि माल पर टैक्स अदा किया गया है कि नहीं, लेकिन कुछ भ्रष्ट कारोबारियों ने इसका भी तोड़ निकाल लिया है। आज एक ई-वे बिल पर कई बार माल का आवागमन हो रहा है। जैसे दिल्ली से फरीदाबाद के ई-वे बिल की मियाद 24 घंटे होती है। इस अवधि में चार बार माल की ढुलाई हो रही है। एक बार की ढुलाई जीएसटी देकर और तीन बार की ढुलाई नंबर दो में। अन्य दूसरे तरीकों से भी जीएसटी की चोरी हो रही है। जैसे-कई व्यापारी माल के कम मूल्य घोषित कर टैक्स बचा रहे हैं। कई जीएसटी की ऊंची दर पर कच्चे माल की खरीद दिखा उससे कम दर वाले तैयार माल की बिक्री दिखा रहे हैं। जैसे 18 प्रतिशत जीएसटी वाले रबर की खरीद दिखाई और पांच प्रतिशत जीएसटी वाली हवाई चप्पल की बिक्री दिखाई और इनके बीच 13 प्रतिशत के जीएसटी के अंतर का रिफंड ले लिया।

इन तमाम फर्जी गतिविधियों को केवल तकनीक से नहीं रोका जा सकता है। यदि एक उद्यमी नंबर दो में कच्चा माल खरीदकर नंबर दो में बेचता है तो अधिकारी को ही मौके पर जाकर इसकी जांच करनी होगी। कंप्यूटर इसकी जांच नहीं कर सकता। यदि एक ई-वे बिल पर तीन बार माल ढुलाई की जा रही है तो ड्राइवर से पूछताछ करके ही अधिकारी इसका खुलासा कर सकता है। जीएसटी में व्याप्त ये खामियां इसलिए दूर नहीं हो पा रही हैं, क्योंकि कुछ अधिकारियों की रुचि घूस लेने में ज्यादा है। इसी क्रम में सरकार ने मन बनाया है कि ई-वे बिल के साथ फास्ट टैग की व्यवस्था अनिवार्य कर दी जाए जिससे ट्रक कितनी बार बैरियर को पार करता है इसका आंकड़ा भी सरकार के पास उपलब्ध हो जाए, लेकिन ऐसा करने से बैरियर पर भी भ्रष्टाचार का एक रास्ता खुल जाएगा। अंतत: जीएसटी चोरी रोकने के लिए सरकार को टैक्स अधिकारियों पर ही किसी तरह अंकुश लगाना होगा।

अच्छी बात है कि सरकार ने इस दिशा में कई कारगर कदम उठाए हैं। कई अधिकारियों को बर्खास्त किया गया है, लेकिन अन्य भ्रष्ट अधिकारियों को चिन्हित कर पाना सरकार के लिए कठिन हो रहा है। जाहिर है सरकार को इसके लिए नए तरीके से सोचना होगा। इस संबंध में कुछ अध्ययन मददगार साबित हो सकते हैं। पहला, यूनिवर्सिटी ऑफ मैरीलैंड के प्रोफेसर जॉन जोजफ वालिस ने बताया है कि अमेरिका के संविधान निर्माताओं ने विशेष जोर जनता की आवाज को बुलंद करने पर दिया था। जैसे-जनता का प्रतिनिधित्व सुनिश्चित करना, जनता की अधिकारियों और नेताओं तक पहुंच सुलभ करना, सरकार के कार्य में निष्पक्षता बनाए रखना इत्यादि। इसीलिए अमेरिकी नौकरशाही में भ्रष्टाचार कम है। उनका ध्यान ऊपर से सिस्टम को चलाने का नहीं, बल्कि नीचे से जनता द्वारा सिस्टम पर निगरानी को सुलभ बनाना था। दूसरा, वल्र्ड डेवलपमेंट पत्रिका ने अपने एक लेख में विश्व में भ्रष्टाचार निरोधी व्यवस्थाओं की समीक्षा की थी। उसमें पाया था कि भ्रष्टाचार निरोधी ‘संस्थाएं’ तो असफल हैं, पर भ्रष्टाचार ‘ऑडिट’ सफल है। दरअसल भ्रष्टाचार घूस लेने और देने वाले की आपसी सहमति से होता है। इसलिए भ्रष्टाचार निरोधी संस्थाएं तभी कारगर होती हैं जब दोनों में कुछ अनबन हो जाए, लेकिन ऑडिट का अर्थ हुआ कि जांच अधिकारी संबंधित कंपनी के दफ्तर में जाकर जांच करे। चोर चोरी के सुराग तो छोड़ता ही है, लेकिन यह ऑडिट भी तभी सफल होगा जब सरकार बाहर के किसी ऑडिटर को नियुक्त करे।

तीसरा, भारतीय प्रबंध संस्थान, अहमदाबाद के एरोल डिसूजा कहते हैं कि भ्रष्टाचार को रोकने में प्रेस, सिविल सोसायटी और न्यायालयों की अहम भूमिका है। जैसे यदि प्रेस को सुदृढ़ किया जाए तो वे भ्रष्ट अधिकारियों और मंत्रियों के कार्यों पर सवाल उठाते हैं। यदि अदालतों को सुदृढ़ किया जाए तो वे भ्रष्ट अधिकारियों और मंत्री दोनों पर अंकुश लगाते हैं। चूंकि इससे सरकारें स्वयं असुरक्षित हो जाती है इसलिए अक्सर देखा गया है कि वे प्रेस, सिविल सोसायटी और अदालतों को दबाती हैं जिससे मंत्रियों पर प्रश्न न उठाए जाएं। चौथा, पांचवें वेतन आयोग की संस्तुति में कहा गया था कि वेतन वृद्धि को उस हालत में ही लागू किया जाए जब साथ में समूह-ए अधिकारियों का प्रत्येक पांच वर्ष पर बाहरी मूल्यांकन किया जाए। चूंकि उन्हीं अधिकारियों को पांचवें वेतन आयोग को लागू करना था। लिहाजा उन्होंने वेतन वृद्धि की संस्तुतियों को तो लागू करा दिया, लेकिन बाहरी मूल्यांकन की संस्तुति को ठंडे बस्ते में डलवा दिया। इनका निष्कर्ष यही है कि सिर्फ सरकार व्यवस्था को ठीक नहीं कर सकती है, बल्कि इसके लिए ऊपर से सरकार और नीचे से जनता की भी सक्रिय सहभागिता चाहिए। नीचे से जनता की सहभागिता बढ़ेगी तो लोग सरकार से भी सवाल पूछेंगे। मंत्रियों को खुद उनका जवाब देना होगा। इससे व्यवस्था में पारदर्शिता आएगी और उसमें व्याप्त भ्रष्टाचार पर नियंत्रण होगा। अंतत: इससे जीएसटी में फर्जीवाड़े पर भी अंकुश लगेगा।


Date:29-12-20

अराजकता की राह

संपादकीय

देश के कई हिस्सों में सामाजिक मसलों पर जातीय या खाप पंचायतों के फैसलों के बाद स्थानीय स्तर पर ही किसी व्यक्ति या परिवार के साथ अराजक बर्ताव की खबरें अक्सर आती रहती हैं। निश्चित रूप से ऐसे मामलों में देश की कानून-व्यवस्था को ताक पर रख दिया जाता है और मान लिया जाता है कि न्याय और सजा का यही रास्ता है। जबकि यह कानूनी तौर पर अपराध है और कई बार इस क्रम में किसी पीड़ित या फिर आरोपी के साथ बेहद अमानवीय बर्ताव किया जाता है। राजस्थान में झालावाड़ जिले के एक गांव में यौन उत्पीड़न के एक आरोपी के साथ कुछ लोगों ने जैसा व्यवहार किया, वह किसी अराजक समाज की याद दिलाता है, जहां कानूनी रास्तों का सहारा लेना जरूरी नहीं समझा जाता है। गांव के कुछ लोगों ने घर में अनाधिकार प्रवेश और एक महिला के यौन उत्पीड़न के आरोपी व्यक्ति को पकड़ कर उसकी सार्वजनिक रूप से पिटाई की, उसे जूतों की माला पहनाई गई। फिर निर्वस्त्र करके उसकी परेड निकाली गई। मामले की शिकायत के बाद पुलिस ने ऐसा करने वाले आठ लोगों को गिरफ्तार किया। यौन उत्पीड़न के आरोपी को भी गिरफ्तार किया गया है।

हालांकि वहां के क्षेत्राधिकारी के मुताबिक शुरुआती जांच में यह सामने आया है कि एक व्यक्ति ने एक विवाहित महिला को फोन भेंट किया था और उनके बीच प्रेम संबंध होने का शक है। लेकिन हैरानी की बात यह है कि अगर कुछ लोगों को ऐसा लगा कि आरोपी व्यक्ति का महिला के साथ कोई भी संबंध या फिर अवांछित व्यवहार सामाजिक मर्यादा या कानून के खिलाफ था, तो वे कानूनी प्रक्रिया का सहारा ले सकते थे। खासतौर पर अगर महिला के यौन उत्पीड़न का मामला है, तो ऐसे मामलों से निपटने के लिए सख्त कानूनी प्रावधान किए गए हैं। लेकिन पुलिस को सूचना देने या कोई वैध रास्ता अख्तियार करने के बजाय कुछ लोगों ने स्थानीय स्तर पर ही यौन उत्पीड़न के आरोपी को जिस तरह पिटाई करते हुए निर्वस्त्र करके घुमाया, यह भी कानून-व्यवस्था को भंग करना है। सवाल है कि ग्रामीण इलाकों में या कहीं भी लोग कानून अपने हाथ में लेने से पहले यह क्यों ध्यान नहीं रख पाते हैं कि ऐसा करने का नतीजा क्या हो सकता है! आवेश में आकर वे किसी मामले के आरोपी को खुद ही सजा तो देना चाहते हैं, लेकिन उन्हें अंदाजा नहीं होता है कि उनका यह कृत्य भी कानूनी तौर पर अपराध की श्रेणी में आता है।

ऐसे मामले सुर्खियों में रहे हैं जब किसी इलाके में दो अलग जाति या समुदायों के युवक-युवती के बीच प्रेम संबंधों के मामले में दखल देकर स्थानीय तौर पर कुछ लोगों या फिर खाप पंचायतों ने बेहद बर्बर फैसले सुनाए और उन पर अमल भी किया गया। अव्वल तो प्रेम संबंधों के मामले में ऐसे फैसले न केवल बेजा दखल और दो वयस्कों के संवैधानिक अधिकारों का हनन होते हैं, बल्कि संवेदनशील समाज के लिहाज से अमानवीय भी होते हैं। यह देश में कानून के राज के बरक्स अपनी समांतर सत्ता चलाने की तरह है, जहां कुछ लोग खुद को कानूनी प्रक्रिया और संविधान से ऊपर मानने लगते हैं। सामाजिक नियम-कायदों, मर्यादाओं में अगर कोई ऐसी गतिविधि सामने आती है, जिससे पारंपरिक मानस में जीने वाले समाज या कुछ लोगों को शिकायत होती है तो उसकी भी कानूनी व्याख्या की गई है, संबंधित पक्षों के संवैधानिक अधिकार सुनिश्चित किए गए हैं और उसका हल कानून के मुताबिक ही निकालने की व्यवस्था है। लेकिन अगर लोग कानून हाथ में लेकर अपने स्तर पर मध्ययुगीन चलने के मुताबिक फैसले करके सजा देने लगे तो इसका खमियाजा खुद उन्हें भी भुगतना पड़ सकता है।


Date:29-12-20

सौर ऊर्जा से चमकेगी दुनिया

अभिषेक कुमार सिंह

पांच साल पहले वर्ष 2015 में पेरिस जलवायु परिवर्तन सम्मेलन में उल्लेखनीय पहल करते हुए भारत ने सूर्यपुत्र सौ देशों का एक सौर गठबंधन बनाने की घोषणा की थी। इसका उद्देश्य एक ओर सौर ऊर्जा के हिसाब से धनी (जिन देशों में ज्यादा धूप रहती है) एक सौ दो देशों को एक मंच पर लाना और अंतरराष्ट्रीय सौर बाजार को आगे बढ़ाना था, तो दूसरी ओर भारत में भी सौर बिजली उत्पादन में उल्लेखनीय इजाफा करना था। तब कहा गया था कि अगर यह गठजोड़ मुकम्मल रूप में सामने आता है तो दुनिया की काया पलटने के साथ-साथ भारत की तकदीर भी बदल सकता है। सबसे ज्यादा असर खुद भारत के अंदर ही होने की उम्मीद जताई गई थी, क्योंकि तब इसमें अगले सात वर्षों में (यानी 2022 तक) एक लाख मेगावाट (एक सौ गीगावाट) बिजली भारत में सूरज से बनाने का लक्ष्य रखा गया था। हाल के एक घटनाक्रम को देखें तो कह सकते हैं कि भारत इस दिशा में काफी तेजी से बढ़ रहा है।

इसी महीने गुजरात के कच्छ क्षेत्र में बनने वाले दुनिया के सबसे बड़े नवीकरणीय ऊर्जा पार्क (रिन्यूएबल एनर्जी पार्क) की नींव रखी गई। भारत-पाकिस्तान सीमा के पास भुज से बहत्तर किलोमीटर उत्तर की ओर खावड़ा में पूरी तरह से बंजर जमीन पर बनने वाला यह सौर ऊर्जा पार्क बहत्तर हजार से अधिक हेक्टेयर जमीन पर फैला होगा। सौर बिजली बनाने की इन कोशिशों का एक मतलब यह निकलता है कि भारत और ऐसी पहल करने वाले दुनिया के अन्य देश पृथ्वी पर कार्बन उत्सर्जन से होने वाली समस्याओं में कमी लाने की कोशिश कर रहे हैं।

ऊर्जा के लिए सूरज पर निर्भरता की कई वजहें हैं। पहली तो यही है कि ऊर्जा प्राप्त करने के जो दूसरे साधन हैं उनकी या तो भंडार क्षमता बहुत सीमित है या फिर उनके कई खतरे हैं। जैसे ताप बिजली संयंत्रों में तेल अथवा कोयले को जला कर बिजली पैदा की जाती है और ये दोनों ही स्रोत भविष्य में खत्म हो सकते हैं। इसके अलावा इनसे कार्बन डाईआक्साइड आदि ग्रीन हाउस गैसों का उत्सर्जन होता है जिससे वैश्विक तापमान बढ़ने जैसी समस्याएं उठ खड़ी हुई हैं। इसके बाद पानी से विशालकाय टर्बाइन चला कर जो जलविद्युत परियोजनाएं चलाई जा रही हैं, उनकी भी अपनी सीमाएं हैं। जरूरत बढ़ने पर उनके लिए बांधों का आकार बढ़ाया जा रहा है, लेकिन भूकंप में उनके ढहने और प्रलय जैसे हालात बन जाने का खतरा हमेशा खड़ा रहता है। साथ ही, इन बड़े बांधों में जमा गाद (तलहटी में जमा मिट्टी और वनस्पति के अंश) से भारी मात्रा में मीथेन गैस निकलती है जो ग्रीनहाउस गैसों की मात्रा बढ़ाती है।

जहां तक बात है परमाणु बिजली संयंत्रों की, तो इनसे स्वच्छ ऊर्जा तो मिलती है जिसका कोई सीधा पर्यावरणीय प्रभाव पैदा नहीं होता, लेकिन दूसरे खतरे काफी ज्यादा हैं। जैसे, भूकंप, सुनामी या युद्ध की स्थिति में यदि परमाणु संयंत्र को कोई नुकसान पहुंचता है तो उससे होने वाले रिसाव से खतरनाक विकिरण फैल सकता है, जो सभी जीवधारियों के लिए संहारक हो सकता है। इसके अलावा परमाणु संयंत्रों से निकलने वाले रेडियोएक्टिव कचरे के सुरक्षित निपटान की समस्या भी पैदा होती है। ऐसे में नाभिकीय ऊर्जा एक सुरक्षित विकल्प नहीं मानी जाती। वैसे तो जैव ईंधन (बायोफ्यूल), पवन ऊर्जा और भूतापीय ऊर्जा जैसे कुछ और ऊर्जा उत्पादन के विकल्प हैं, लेकिन ये उतने कारगर नहीं साबित हुए हैं जितनी सौर ऊर्जा। सौर बिजली पैदा करने के लिए हमारे देश में राजस्थान और गुजरात में विशालकाय संयंत्र लगाए जा रहे हैं। हालांकि सौर ऊर्जा हासिल करने के लिए जरूरी नहीं कि बड़े प्लांट ही लगाए जाएं। घरों की छतों पर भी छोटे-छोटे प्लांट स्थापित किए जा सकते हैं।

बहरहाल, ऊर्जा के सारे स्रोतों की क्षमता और उनके सकारात्मक-नकारात्मक पहलुओं का अध्ययन जिस एक निष्कर्ष पर जाकर ठहरता है, वह यह है कि भविष्य में सूरज ही हमारा कल्याण करेगा। खास तौर से विषुवत रेखा से कर्क रेखा के बीच पड़ने वाले करीब सौ देशों के लिए सौर ऊर्जा एक वरदान ही साबित हो सकती है क्योंकि इन देशों में वर्षा ऋतु को छोड़ कर पूरे साल अच्छी धूप खिली रहती है। ये देश अगर सौर ऊर्जा का इस्तेमाल बढ़ा दें तो न सिर्फ ये अपनी काफी सारी ऊर्जा जरूरतें एक अक्षय ऊर्जा स्रोत से पूरी करेंगे, बल्कि दुनिया के कार्बन उत्सर्जन में भी जबर्दस्त कटौती देखने को मिलेगी।

पृथ्वी पर सूरज से आने वाली धूप की ताकत का अंदाजा लगाते हुए इंटरनेशनल एनर्जी एजेंसी (आइईए) ने वर्ष 2014 में एक रिपोर्ट पेश की थी, जिसका अनुमान यह है कि सन 2050 तक सौर ऊर्जा से ही सबसे ज्यादा मात्रा में बिजली बनाई जा रही होगी। इस आकलन के मुताबिक सौर ऊर्जा की एक तकनीक सोलर फोटोवोल्टिक (पीवी) सिस्टम से 2050 तक दुनिया की जरूरत की सोलह फीसद बिजली संसार में पैदा की जा रही होगी। इसकी दूसरी तकनीक- सोलर थर्मल इलेक्ट्रिसिटी (एसटीई) से करीब ग्यारह फीसद बिजली अलग मिल रही होगी। इन दोनों सौर तकनीकों से 2050 तक इतनी बिजली मिल सकेगी जिससे लगभग छह अरब टन कार्बन डाईऑक्साइड का उत्सर्जन हर साल रोका जा सकेगा। यह मात्रा मौजूदा समय में ही पूरे विश्व के परिवहन क्षेत्र द्वारा छोड़ी जा रही कार्बन डाईऑक्साइड के बराबर है।

इस समय भारत में सबसे ज्यादा उनसठ फीसद बिजली कोयले से बनाई जाती है। इसे ताप (थर्मल) बिजली कहा जाता है। इसकी वजह यह है कि कोयले से मिलने वाली बिजली सबसे सस्ती पड़ती है। देश में सत्रह फीसद बिजली जलविद्युत परियोजनाओं से, नौ फीसद प्राकृतिक गैस से, तीन फीसद नाभिकीय संयंत्रों से और बारह फीसद अक्षय ऊर्जा स्रोतों यानी हवा या सूरज से पैदा की जाती है। परमाणु संयंत्रों से मिलने वाली बिजली के बारे में भी कहा जाता है कि दूसरे स्रोतों की तुलना में यह भविष्य में काफी सस्ती पड़ेगी। लेकिन जो लोग सौर ऊर्जा के पैरोकार हैं, वे इसके गणित को समझते हुए कहते हैं कि जैसे-जैसे सौर ऊर्जा का विस्तार होगा, उसकी लागत घटती जाएगी और निकट भविष्य में यही ऊर्जा का सबसे सस्ता विकल्प होगा। फिलहाल हमारे देश में उत्पादित होने वाली सौर बिजली की प्रति यूनिट औसत कीमत 6.50 रुपए पड़ती है जो कोयले से मिलने वाली बिजली के मुकाबले औसतन चौदह फीसद ज्यादा है। भारत में अभी सोलर बिजली इसलिए महंगी है क्योंकि इसके उत्पादन से जुड़ी परियोजनाओं पर काम देरी से शुरू हुआ। जर्मनी में सौर बिजली का उत्पादन वर्ष 2001 में ही शुरू हो गया था और अब वहां छत्तीस हजार मेगावाट बिजली पैदा की जाती है, जबकि भारत में इसकी शुरुआत 2012 में हुई और तब के पच्चीस मेगावाट उत्पादन से हाल तक बढ़ोत्तरी सिर्फ 1760 मेगावाट तक हो पाई है।

दुनिया को सौर ऊर्जा का पक्षधर सिर्फ इसलिए नहीं होना चाहिए कि वह धीरे-धीरे सस्ती होती जाएगी, बल्कि इसकी जरूरत इसलिए भी है कि बांध बना कर या ताप बिजली घर लगा कर भी भविष्य की ऊर्जा जरूरतों को पूरा नहीं किया जा सकता है। इसके बरक्स पृथ्वी हर साल लगभग एक लाख बीस हजार टेरावाट (सौर ऊर्जा को नापने वाली एक इकाई) सौर ऊर्जा प्राप्त करती है, जबकि पूरी दुनिया की बिजली की सालाना खपत फिलहाल 15-20 टेरावॉट ही है। अनुमान तो यह भी लगाया जाता है कि इंसान को इस वक्त जितनी बिजली की आवश्यकता पूरे साल सभी कार्यों के लिए है, उतनी सौर ऊर्जा तो एक ही दिन में पृथ्वी पर पहुंच जाती है। जाहिर है, यदि हम सूरज से आने वाली सारी ऊर्जा को समेट सकें तो अपनी जरूरतें ही पूरी नहीं कर सकेंगे, बल्कि पृथ्वी जैसे सैकड़ों ग्रहों को भी जगमग कर सकते हैं।


Date:29-12-20

नागरिक सुशासन मतलब ईज ऑफ लिविंग

सुशील कुमार सिंह

दुनिया की 50 फीसद से अधिक आबादी अब शहरों में रह रही है। इसके 2050 तक 70 प्रतिशत बढ़ने की उम्मीद है और भारत पर भी कमोबेश यही छाप दिखाई देती है। देश के इतिहास में साल 2005 ऐसा साल था, जब शहरों की आबादी गांव से ज्यादा हो गई थी। इतना ही नहीं 2028 तक भारत दुनिया में सबसे अधिक जन घनत्व वाला देश होगा। जाहिर है सर्वाधिक जनसंख्या वाला पड़ोसी चीन भी इस मामले में पीछे छूट जाएगा। ऐसे में जीवन की जरूरतें और जिंदगी आसान बनाने की कोशिशें चुनौती से भरी होंगी यह कहना वाजिब है।

ईज ऑफ लिविंग का मतलब महज नागरिकों की जिंदगी में सरकारी दखल कम और इच्छा से जीवन बसर करने की स्वतंत्रता ही नहीं बल्कि जीवन स्तर ऊपर उठाने से है। यदि गांव और छोटे कस्बों में इतना बदलाव नहीं हुआ है कि आमदनी इतनी हो सके कि वहां के बाशिंदों की जिंदगी आसान हो तो ईज ऑफ लिविंग व सुशासन का कितना भी ढिंढोरा पीटा जाए; जीवन आसान बनाने की कवायद अधूरी ही कही जाएगी। गौरतलब है 5 जुलाई 2019 को बजट पेश करते समय वित्तमंत्री अरुण जेटली ने आम लोगों की जिंदगी आसान करने अर्थात ईज ऑफ लिविंग की बात कही थी, जबकि प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी पुराने भारत से नये भारत की ओर पथगमन पहले ही कर चुके हैं। ईज ऑफ लिविंग और सुशासन का गहरा नाता है। जब स्मार्ट सरकार जन सामान्य को बुनियादी तत्व से युक्त करती है तो वह सुशासन की संज्ञा में चली जाती है, जो लोक सशक्तिकरण का पर्याय है; जहां संवेदनशीलता और पारदर्शिता के साथ जन उन्मुख भावना निहित होती है। रहन-सहन बेहतर बनाने का प्रयास ईज ऑफ लिविंग की सामान्य परिभाषा है जो सुशासन से ही संभव है। भूमण्डलीय अर्थव्यवस्था में हो रहे अनवरत परिवर्तन को देखते हुए न केवल दक्ष श्रम शक्ति और स्मार्ट सिटी बल्कि स्मार्ट गांव की ओर भी भारत को बढ़ाने की बात रहेगी और यह पूरी तरह तब सम्भव है जब विकास दर भी स्मार्ट हो जो वर्तमान में अपने न्यूनतम स्तर पर है। मौजूदा समय में बेरोजगारी बहुतायत में व्याप्त है जिसके चलते रोटी, कपड़ा, मकान सहित शिक्षा, चिकित्सा आदि बुनियादी तत्व काफी हद तक हाशिये पर हैं।

मानव विकास सूचकांक 2020 की हालिया रिपोर्ट को देखें तो भारत 189 देशों में पिछले साल की तुलना में 2 नंबर पीछे जाते हुए 129 से 131वें पर खिसक गया है। ईज ऑफ लिविंग की मात्र शहरी परिभाषा की सीमा में बांधना उचित नहीं है बल्कि इसका विस्तार दूरदराज गांव तक हो जिसके लिए स्मार्ट सिटी के साथ स्मार्ट गांव की आवश्यकता पड़ेगी। जहां ढाई लाख पंचायतें और साढ़े छह लाख गांव कई बुनियादी विकास की बाट जोह रहे हैं। भारत सहित दुनिया के कई देशों में एक बेहतरीन शहर बसाने की कवायद जोर-शोर से जारी है। आधारभूत संरचना के मामले में यह शहर कितने आधुनिक हैं ये यहां के ऑप्टिकल फाइबर नेटवर्क, सड़क, रेल और सौर बिजली, कचरा निपटान व सुरक्षित तथा स्वचालित व्यवस्था आदि से आंका जा सकता है।

आवासन और शहरी विकास मंत्रालय द्वारा जारी ईज ऑफ लिविंग इंडेक्स 2018 में रहन-सहन बेहतर बनाने के मामले में आंध्र प्रदेश को अव्वल करार दिया था, जबकि ओडिशा और मध्य प्रदेश क्रमश: दूसरे और तीसरे पर थे। इस इंडेक्स का संदर्भ राट्रीय और अंतरराष्ट्रीय मानकों के आधार पर शहरों के विकास और प्रबंधन से जुड़े नियोजन को बेहतर तरीके से लागू करने से है ताकि दुनिया के बेहतरीन शहरों में स्वयं को साबित कर सकें। गौरतलब है कि भारत में अर्थव्यवस्था और सामाजिक ताने-बाने दोनों की दृटि से पलायन पिछले कई दशकों से सबसे बड़ी समस्या है।

देश की जनसंख्या शहर में ला खड़ा कर देना ईज ऑफ लिविंग को ही चुनौती है और सुशासन की दृटि से भी यही सही नहीं है। इसके लिऐ ग्रामीण इन्फास्ट्रक्चर पर जोर, डिजिटल इंडिया को देश के कोने-कोने तक ले जाना, गांव और कस्बों में रोजगार की सम्भावना विकसित करना, जीवन-यापन में सुधार की अन्य गुंजाइशें खोजना न कि शहरी विकास और उद्योगों को मजबूत करने का एक तरफा काज हो। समावेशी और सतत् विकास की आधारभूत संरचना भी ईज ऑफ लिविंग की वृहद् व्याख्या में आ सकती है। यह जितना व्यापक होगा सुशासन उतना सशक्त होगा। दूसरे अर्थों में सरकार लोक चयन दृटिकोण को जितना तवज्जो देगी उतना ईज ऑफ लिविंग विस्तार लेगा। जाहिर है दोनों का परस्पर सरोकार शासन को सुशासन के पथ पर ले जाता है।


Date:29-12-20

अपेक्षा और उपेक्षा के बीच फंसे हम

विभूति नारायण राय, पूर्व आईपीएस अधिकारी

पिछली तीन शताब्दियों में राज्य बहुत शक्तिशाली हुआ है। इस शक्ति ने जहां उसे नागरिकों की जिंदगी में दखल देने के असीमित अधिकार दे दिए हैं, वहीं उसकी हद में रहने वाले निवासियों की अपेक्षाएं भी इस सीमा तक बढ़ गई हैं कि सुरक्षा, परिवहन, शिक्षा या स्वास्थ्य जैसे हर मसले पर वे राज्य के सकारात्मक हस्तक्षेप की उम्मीद करने लगे हैं। यह राज्य के प्रभावी दखल का ही नतीजा है कि कोविड-19 महामारी पूर्व की प्लेग, हैजा या सौ साल पहले फैली स्पेनिश फ्लू जैसी बीमारियों सा तांडव नहीं कर सकी। पुराने अनुभवों के अनुसार, दशकों में तैयार होने वाला टीका भी एक वर्ष से कम में तैयार हो गया। भारत में भी पिछले कुछ वर्षों में राज्य शक्तिशाली तो हुआ और नागरिकों की अपेक्षाएं भी बढ़ीं, पर दोनों के बीच के द्वंद्व से बड़ी दिलचस्प स्थितियां भी पैदा होती रही हैं।

पिछले एक हफ्ते में कई सौ यात्री लंदन से भारत आए और आशंका के अनुसार उनमें से कुछ कोरोना पॉजिटिव भी निकले। हवाई अड्डों पर उनकी जांच और संक्रमित मरीजों को अस्पताल तक ले जाने के लिए एंबुलेंस की व्यवस्था भी थी। लेकिन अमृतसर, दिल्ली या बेंगलुरु हवाई अड्डों पर जो कुछ हुआ, वह भयावह हद तक मनोरंजक था। दुनिया के किसी भी सभ्य समाज में एक मरीज की सबसे स्वाभाविक प्रतिक्रिया यही होगी कि जैसे ही उसे पता चलेगा, वह बीमार है; वह तुरंत डॉक्टर से संपर्क करना चाहेगा। यहां कुछ ऐसा हुआ कि बहुत से मरीजों को जब खुद के कोरोना पॉजिटिव होने का पता चला, तब वे सामने खडे़ डॉक्टरों से मुंह चुराकर भाग खडे़ हुए। यह अविश्वसनीय व्यवहार जनजातीय इलाकों के भोले-भाले निवासियों का नहीं, बल्कि विलायत पलट महानगरों में रहने वालों का था। पर ध्यान से देखें, तो यह काफी हद तक स्वाभाविक भी था।

कोरोना-काल कई अर्थों में देश की स्वास्थ्य सेवाओं के लिए चुनौती जैसा रहा। पहले चक्र में ही स्पष्ट हो गया था कि पिछले सत्तर वर्षों में हमने चिकित्सा-क्षेत्र में जरूरी निवेश नहीं किया है और हमारी सुविधाएं किसी बड़ी महामारी के दौरान भारी संख्या में मरीजों की देखभाल करने में समर्थ नहीं हैं। दूसरा दौर उन उपकरणों के अभाव की शिनाख्त का था, जो किसी संक्रामक रोग से लड़ने के लिए जरूरी हैं। इसे राज्य की शुरुआती सफलता कहेंगे कि कुछ हफ्तों में ही अस्पतालों में बेड, वेंटीलेटर या डॉक्टरों के लिए पीपीई किट जैसी जरूरी सामग्रियां जुटा ली गईं, पर उस खौफ का क्या करेंगे, जिसके चलते मरीज डॉक्टर को देखते ही भाग खडे़ होते हैं! सन 1950 या 60 के दशक में कुंभ जैसे बडे़ मेलों में खौफनाक सी दिखने वाली हैजे की सूइयों को देखकर कांपते-भागते ग्रामीणों के चित्र देखकर हंसने वाले शहरी खुद भी कोरोना अस्पतालों को देखकर क्यों भाग रहे हैं, इसे समझने के लिए चंद उदाहरण काफी हैं।

उत्तर प्रदेश की राजधानी लखनऊ में सबसे प्रतिष्ठित चिकित्सा संस्थान में राज्य के मंत्री और पूर्व क्रिकेटर चेतन चौहान को जब अस्पताल कर्मियों के व्यवहार का सीधा अनुभव हुआ, तो वह वहां से भाग खड़े हुए और राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र के एक निजी अस्पताल में भर्ती हुए। दुर्भाग्य से वह वहां भी जीवित नहीं बचे, पर जिन कारणों से सरकारी अस्पताल से भागे थे, उनसे तो उन्हें छुट्टी मिली ही होगी। इन कारणों को समझना हो, तो पूर्व आईएएस अधिकारी और जाने-माने मानवाधिकार कार्यकर्ता हर्ष मंदर के अनुभवों को पढ़ना उचित होगा।

हर्ष कोरोना मरीज के रूप में राजधानी के एक राष्ट्रीय महत्व के संस्थान में भर्ती हुए। उनके दिल दहलाने वाले अनुभव सोशल मीडिया पर गश्त कर रहे हैं और बकौल उनके ये आधी से भी कम तकलीफों को बयां करते हैं। इनके मुताबिक, इस संस्थान के लिए मरीज भेड़-बकरी से अधिक कुछ नहीं हैं। उन्हें वार्ड रूपी जेलों में भर्ती करके संस्थान के कर्मचारी गायब हो जाते हैं। होटलों के बंद होने से बेरोजगार हुए बैरों को इन वार्डों में सेवा के लिए भर्ती कर लिया गया है, जो बिना किसी प्रशिक्षण, पापी पेट के लिए अपनी जान हथेली पर रखकर, मरीजों की जान से खिलवाड़ कर रहे हैं। लगभग हर दूसरे दिन किसी न किसी न्यूज चैनल पर कोरोना ज्ञान बांटते इस संस्थान के निदेशक से पूछा जाना चाहिए कि वे मोटे-मोटे वेतन पाने वाले अपने डॉक्टरों और नर्सों को मरीज देखने के लिए क्यों नहीं मजबूर कर सकते? अगर महंगे सुरक्षा उपकरणों से लैस होकर भी इनकी जान खतरे में है, तो निजी अस्पतालों के कर्मी कैसे मरीजों को देखते हैं या अप्रशिक्षित गरीब होटल बैरों की जान की क्या कोई कीमत नहीं है? यह भी पूछा जा सकता है कि मरीजों के वार्डों में सफाई क्यों नहीं होती या जनता की गाढ़ी कमाई से खरीदे गए वेंटीलेटर काम क्यों नहीं करते? पर इन सवालों को पूछ सकने में सक्षम प्रभु वर्ग तो खुद के कोरोना ग्रस्त होते ही निजी अस्पतालों की ओर लपकता है।

भारतीय नागरिकों की राज्य से अपेक्षाएं और राज्य की संस्थाओं से हासिल होने वाली निराशा दिन-प्रतिदिन इसलिए भी बढ़ रही है, क्योंकि लोकतंत्र ने उनकी उम्मीदें बढ़ा तो दी हैं, पर उसी रफ्तार से संस्थाओं का प्रदर्शन नहीं सुधरा है। आप किसी भी सरकारी दफ्तर में जाएं, आम जनता अभी भी याचक है। पुलिस साधारण नागरिक के साथ दुव्र्यवहार करती है और आदतन मुकदमे नहीं लिखती, सरकारी विद्यालयों में शिक्षक अपवाद-स्वरूप ही पढ़ाते हैं या दफ्तरों में कर्मचारियों को देर से आकर भी काम न करते और गप्प लड़ाते देखकर किसी को आश्चर्य नहीं होता। आम आदमी की मुसीबतें इसलिए भी बढ़ जाती हैं कि निजी क्षेत्र सिर्फ मुनाफे के लिए काम करता है और अधिक धन कमाने के वास्ते कुछ भी कर सकता है। निजी अस्पताल या शिक्षण संस्थान आम जन की पहुंच के बाहर हैं।

यह एक सभ्यता-संबंधी समस्या है। हमें इस पर गंभीरता से विचार करना होगा कि मनुष्य हमारी चिंता के केंद्र में कब आएगा? अगले कुछ वर्षों में हम विश्व की चौथी बड़ी अर्थव्यवस्था होंगे, पर तब भी मानव विकास के सूचकांक पर दुनिया के निचले पायदान पर शायद सबसे पिछडे़ मुल्कों के साथ खड़े होंगे। 21वीं शताब्दी की तीसरी दहाई कुछ ही दिनों में शुरू होने जा रही है, तो क्या हमें प्रयास नहीं करना चाहिए कि जनता की बढ़ती अपेक्षाओं के अनुकूल सरकारी संस्थाओं का आचरण भी एक सभ्य समाज के अनुकूल हो? निस्संदेह, यह हमारे इतिहास की एक लंबी और मुश्किल यात्रा होगी।