29-07-2025 (Important News Clippings)

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29 Jul 2025
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Date: 29-07-25

IT, Couple of Bumpy Quarters Ahead

Smaller firms have more headroom for growth

ET Editorials

Economic uncertainty in the US and Europe are showing up in muted growth of India’s infotech sector: Sober guidance accompanied the latest quarterly results of top IT companies dealing with clients who are demanding more for less. Tariff negotiations are dragging on between the US and its principal trading partners, and American companies are treading cautiously over tech budgets. On its part, generative AI is dialling down the need for outsourcing business processes to large teamsoperated by vendor companies in India. Indian IT firms are likely to see flat topline growth over the financial year, although they will be able to protect margins by retooling operations.

IT companies have already dialled down hiring, and attrition rates are stabilising. The wage bill is in control through moderating salary growth and AI-optimised staffing. Also, top-tier IT firms are skilling their staff as they chase new AI-driven business. Restructuring organisations to deliver AI-assisted services opens up more opportunities to compress costs. Indian IT industry has demonstrated its resilience in a shifting technological landscape, and should be able to manage the latest transition.

Investors have turned cautious about the immediate upside in Indian IT stocks. Valuations are rich and deal- making is sedate as overseas enterprise clients squeeze discretionary spending. Yet, there are pockets of strong activity among industry verticals, and smaller IT firms have more headroom for growth. IT firms declared their unimpressive results in the middle of broad-based selling of Indian equity by FIIS. Overall corporate performance has been subdued, but IT stocks have taken a mauling. The Nifty IT and FMCG indices have faced sustained pressuresincethe results, and valuations may have to correct some more before sector rotation begins to work to their advantage. Business outlook could improve for IT companies with clarity over Trump’s reciprocal tariffs and their impact on US growth and inflation. There may be a couple of bumpy quarters ahead.


Date: 29-07-25

Lessons from past

The Chola legacy includes good governance, not just grand temples

Editorials

The visit of Prime Minister Narendra Modi to Tamil Nadu had a subtle political message. In his address at the valediction of the annual Aadi Thiruvathirai festival at Gangaikonda Cholapuram to mark the birth anniversary of Rajendra Chola I, he focused on the legacy of the Chola emperor and his father Rajaraja Chola I to underline that contemporary India would be as enterprising as ancient India under the imperial Cholas, in expanding trade, and in guarding India’s sovereignty. The festival was also organised to commemorate 1,000 years of the maritime expedition of Rajendra Chola to south-east Asia as well as the construction of the iconic temple, a World Heritage Site. The grandeur of the Chola dynasty is fascinating to recall, but there are other mundane facets of the Chola rule which are of modern relevance its water management, tax and land revenue collection, and democratic processes.

In creating infrastructure, especially, the Cholas hold many lessons. In recent months, there have been fatal accidents involving civic struc tures. The resilience of the Brihadisvara temples, which have stood tall for over 1,000 years, could provide learnings. Studies show that the southern peninsula was the epicentre of several earthquakes in the last 200-odd years. Archaeologists are of the view that the superstructure of the temples holds the key to modern building techniques when it comes to seismic resilience. A close study of the temples for structural stability can be of immense value in the contemporary context. Apart from focusing on the heritage and culture of the Cholas, India could try and replicate their success in administration. Management of water resources, especially, could be an important learning. The Cauvery delta, where Gangaikonda Cholapuram is located, may experience floods, with a large volume of water draining into the sea without being harnessed for periods of scarcity. More than 30 years have passed since the adoption of the 73rd and 74th Amendments to the Constitution, but a large number of local bodies, even in the major cities, are functioning without elected representatives. The celebration is an opportunity for an analysis of the functioning of grassroots-level democratic bodies. Mr. Modi announced that the Centre would install the statues of Rajaraja Chola and Rajendra Chola to remind the country of its historical consciousness. But this exercise would have greater purpose if it reminds the country of the administrative acumen of the Cholas, and nudges those in governance to address many of the chronic flaws and problems.


Date: 29-07-25

अनाज में घटते पोषक तत्वों पर हमें नीति बनानी होगी

संपादकीय

मृदा विज्ञान संस्थान द्वारा एक तिहाई से ज्यादा खेतों में जिंक की कमी पाई गई। भास्कर इंवेस्टिगेशन ने अपनी रिपोर्ट में बताया कि इसके कारण अनाज में इस तत्व की कमी से बच्चे नाटेपन, महिलाएं बांझपन और आम लोग इम्युनिटी ह्रास के शिकार हो रहे हैं। अलग-अलग जमीनों में अलग खनिज तत्वों की कमी वहां के अनाज में भी मिलती है। राज्यसभा में सरकार ने बताया है कि देश में पांच वर्ष से नीचे के 37% बच्चे नाटेपन के शिकार हैं और 17% कम वजन के इन दोनों अक्षमताओं का मूल कारण कुपोषण यानी समुचित मात्रा में पोषक तत्वों का न मिलना है। नाटेपन के शिकार बच्चों का सबसे ज्यादा प्रतिशत यूपी में (46.83) है, जबकि झारखण्ड, बिहार और एमपी में यह प्रतिशत क्रमशः 43.26, 42.68 और 42.09 है। सरकार जहां उत्पादन बढ़ाने के उपाय कर रही है, उसे विज्ञान की नई जानकारी के आधार पर अब दो नए मोचों पर लड़ना होगा- जमीन में नाइट्रोजन और अन्य खनिजों की कमी और पर्यावरण बदलाव के कारण गेहूं और चावल में लगातार गिरते प्रोटीन के प्रतिशत- जिसे ग्रेन – मिनरल डेंसिटी के तौर पर मापा जाता है, को बढ़ाना। एक शोध के अनुसार पिछले 166 वर्षों के अनाजों का विश्लेषण करने के बाद पाया गया है कि गेहूं में प्रोटीन की मात्रा 32 से घटकर मात्र 16 प्रतिशत रह गई है। नेचर मैगजीन में छपे इस शोध ने दुनिया की सरकारों की आंखें खोल दी हैं।


Date: 29-07-25

राज्यसभा सभापति खिलाड़ी नहीं, अम्पायर की तरह हों

डेरेक ओ ब्रायन, ( राज्यसभा में टीएमसी के नेता )

आयुष्मान डे

चौदह साल पहले दिल्ली की वो उमस भरी सुबह मुझे आज भी याद है। जीवन में पहली बार में संवैधानिक पद पर बैठे किसी व्यक्ति से मिला था। वे तत्कालीन उपराष्ट्रपति हामिद अंसारी थे। वह संसद में मेरा पहला दिन भी था। शपथ ग्रहण के बाद उन्होंने पहली बार सांसद बने हम कुछ नेताओं को कॉफी पर बुलाया। बातचीत चलती रही। जब उन्होंने देखा कि गपशप करते हुए 15 मिनट से अधिक हो गए हैं, तो उन्होंने हमें चर्चा जारी रखने के लिए अपने घर पर बुलाया। हम कुछ दिनों बाद उनके घर भी गए। यह हमारे लिए रोमांचक था कि दूसरे सर्वोच्च संवैधानिक पद पर बैठे व्यक्ति ने हम जैसे नए सांसदों से मिलने के लिए समय निकाला।

एक राजनयिक के रूप में हामिद अंसारी का लंबा और प्रतिष्ठित करियर रहा था। वे भारत सरकार के चीफ ऑफ प्रोटोकॉल, ऑस्ट्रेलिया में उच्चायुक्त, संयुक्त राष्ट्र में स्थायी प्रतिनिधि, अफगानिस्तान, ईरान और सऊदी अरब में राजदूत रहे थे। फिर वे भारत के 12वें उपराष्ट्रपति बने। कोलकाता में जन्मे अंसारी के बारे में जो बात कम ही लोग जानते हैं, वो ये है कि वे अपने कॉलेज के लिए मध्य क्रम के विकेटकीपर बल्लेबाज भी थे। वास्तव में ईरान में राजदूत रहते हुए उन्होंने भारतीय दूतावास के कर्मचारियों के लिए क्रिकेट शुरू करवाया था। यह भी कहा जाता है कि उन्होंने ईरान में इस खेल को लोकप्रिय बनाया।

राज्यसभा के सभापति के तौर पर अंसारी ने विधान परिषदों में कई इनोवेशन किए। संसद सत्र के दौरान अंसारी रोज सुबह 10:30 से 10:55 तक कॉफी मीटिंग करते थे। सदन के नेताओं के साथ इस अनौपचारिक बातचीत से सत्तापक्ष और विपक्ष को दिन भर की कार्यवाही में सामंजस्य बनाने में मदद मिलती थी। सभापति के तौर पर अंसारी का एक नियम अटल था कोई भी विधेयक हंगामे के बीच पारित नहीं होगा इससे यह सुनिश्चित हुआ था कि तत्कालीन सरकार कोई भी कानून जबरन नहीं थोप सकती थी। प्रश्नकाल और शून्यकाल के समय में बदलाव का पूरा श्रेय भी अंसारी को ही जाना चाहिए। बीते छह दशकों से प्रश्नकाल सुबह 11 बजे शुरू होता आ रहा था। इसके बाद दोपहर 12 बजे से शून्यकाल होता था। अंसारी को लगा कि प्रश्नकाल अकसर हंगामे की भेंट चढ़ता है, क्योंकि सदस्य दिन की शुरुआत में ही महत्वपूर्ण मुद्दों को उठाना चाहते हैं। 2014 में अंसारी ने इसमें बदलाव किया। अब राज्यसभा में पहले 11 बजे से शून्यकाल होता है, जिसमें सदस्य तात्कालिक जनहित के मुद्दे उठाते हैं। 12 बजे से प्रश्नकाल शुरू होता है।

अंसारी के दृष्टिकोण को इस कथन से समझा जा सकता है- ‘राज्यसभा का सभापति खिलाड़ी नहीं, बल्कि अम्पायर है… यदि आप खिलाड़ी बनते हैं तो पक्षपाती हो जाते हैं।’ सेवानिवृत्ति के बाद वे दिल्ली में सुखद जीवन बिता रहे हैं। उन्होंने कई किताबें लिखी हैं।

दूसरे जिन उपराष्ट्रपति के सम्पर्क में मुझे आने का सौभाग्य मिला, वे थे वेंकैया नायडू एक अनुभवी सांसद, जो ग्रामीण विकास, शहरी विकास, आवास और शहरी गरीबी उन्मूलन, सूचना और प्रसारण के साथ संसदीय कार्य मंत्रालय के मंत्री भी रहे थे। इतिहास नायडू के प्रति उदार रहेगा, क्योंकि उन्होंने 20 सितम्बर 2020 को उस दिन सदन की अध्यक्षता नहीं की थी, जब विवादित कृषि कानून जबरन पारित कराए गए थे। शायद इसलिए क्योंकि वे कृषक परिवार में जन्मे थे।

उनका चैम्बर हो या सदन, दोनों ही जगह नायडू हर किसी से एक ही लहजे में बात करते थे फिर चाहे वे सत्तापक्ष के सदस्य हों या विपक्ष के यह सराहनीय है। जब भी वे हमें उपराष्ट्रपति भवन में भोजन पर आमंत्रित करते थे तो वहां मिलने वाले आंध्रप्रदेश के स्वादिष्ट भोजन के लिए श्रीमती नायडू को भी बराबर का श्रेय जाता है। एक बार उन्होंने कहा था कि भले ही वे बाहर सभापति होंगे, लेकिन घर में उनका भी एक गृहमंत्री है।

नायडू को चुटीले ‘वन लाइनर’ बहुत पसंद थे। एक बार जब विद्यार्थी उच्च शिक्षा के लिए बाहर जा रहे थे तो उन्होंने कहा था- ‘लर्न, अर्न एंड रिटर्न यानी सीखना, कमाना और फिर लौट आना। जब उनसे राष्ट्रपति बनने की महत्वाकांक्षा के बारे में पूछा गया तो उन्होंने कहा वे ‘उषापति’ बनकर ही खुश हैं। उनकी पत्नी का नाम उषा है। उनका एक और मशहूर कथन था- ‘द लेफ्ट कैन नेवर बी राइट नायडू का हास्यबोध जितना अच्छा था, वे उतने ही भावुक भी थे। जब भावनात्मक मुद्दों पर चर्चा होती, उनकी आंखें नम हो जाया करती थीं।

14वें उपराष्ट्रपति जगदीप धनखड़ भी मेरे कॉलम का विषय होंगे। लेकिन किसी और दिन ।


Date: 29-07-25

भविष्य के संकेत

संपादकीय

सूचना प्रौद्योगिकी सेवा क्षेत्र की देश की सबसे बड़ी कंपनी टाटा कंसल्टेंसी सर्विसेज (टीसीएस) ने रविवार को घोषणा की कि कंपनी वैश्विक स्तर पर अपने मझोले और वरिष्ठ कर्मचारियों की संख्या में दो फीसदी की छंटनी करने जा रही है। यह इस बात का स्पष्ट संकेत है कि कंपनियां खासकर सूचना प्रौद्योगिकी क्षेत्र की कंपनियां कारोबारी माहौल में बदलाव को लेकर किस प्रकार प्रतिक्रिया दे रही हैं। टीसीएस की इस घोषणा का अर्थ है कि वह अपने कुल 6 लाख कर्मचारियों में से करीब 12,000 की छंटनी करेगी। कंपनी ने अपने वक्तव्य में कहा कि वह स्वयं को भविष्य के लिए तैयार कर रही है। इसमें नई तकनीक के क्षेत्रों में निवेश और बड़े पैमाने पर आर्टिफिशल इंटेलिजेंस का इस्तेमाल शामिल है। इनका इस्तेमाल कंपनी अपने उपभोक्ताओं के लिए भी करेगी और अपने स्तर पर भी। हालांकि यह आंशिक तौर पर चुनौतीपूर्ण कारोबारी माहौल की बदौलत भी हो सकता है लेकिन विश्लेषक इस कदम की व्याख्या एआई के कारण हो रहे ढांचागत बदलाव के रूप में कर रहे हैं।

यकीनन कई बड़ी प्रौद्योगिकी कंपनियां मसलन माइक्रोसॉफ्ट, आईबीएम और इंटेल ने भी अपने-अपने कर्मचारियों की तादाद कम करने की योजनाओं की घोषणा की है। इस रुझान को समझने में चूक नहीं की जा सकती है। प्रौद्योगिकी जगत तेजी से बदल रहा है और एआई को अपनाने तथा उसकी वृद्धि के साथ न केवल प्रौद्योगिकी कंपनियां बल्कि तमाम क्षेत्रों के कारोबार इसे अपना रहे हैं। इस संदर्भ में टीसीएस प्रबंधन की सराहना की जानी चाहिए कि वह भविष्य की तैयारी कर रहा है और तेजी से बदलते माहौल में प्रासंगिक बने रहने के लिए कड़े निर्णय लेने को तैयार है। केवल वही संगठन मूल्यवर्धन करने, रोजगार तैयार करने और दीर्घावधि में वृद्धि में योगदान कर पाएंगे जो तेजी से बदलते तकनीकी और कारोबारी माहौल को अपनाने के लिए तैयार हों। यह बात भी ध्यान देने लायक है कि तकनीकी चुनौतियों के अलावा वैश्विक कारोबारी माहौल भी अनुकूल नहीं है अमेरिका द्वारा अपनाई गई नीतियों से उपजी अनिश्चितता दुनिया भर में निवेश को प्रभावित कर रही है।

बहरहाल, एआई को अपनाने से कारोबार में बहुत परिवर्तन आ रहा है और भारत जैसे देश के लिए नीतिगत चुनौतियां भी उत्पन्न हो रही हैं क्योंकि भारत को बड़े पैमाने पर रोजगार तैयार करने की आवश्यकता है। उदाहरण के लिए एक बड़ी प्रौद्योगिकी कंपनी के शीर्ष अधिकारी ने हाल ही में इस समाचार पत्र से कहा कि वे ऐसे बिंदु पर पहुंच रहे हैं जहां एक ही मॉडल कई ऐसे काम में सहायता करेगा जिन्हें केवल इंसान कर सकते हों। एक बार जब कारोबार ऐसे मॉडल को अपना लेंगे तो वे बहुत बड़े पैमाने पर इंसानों की जगह लेने लगेंगे। परिणामों के मामले में एआई या स्वचालन को अपनाना संतुलन को श्रम के बजाय पूंजी के पक्ष में और अधिक झुका देगा। हालांकि कई क्षेत्रों में यह पहले ही हो रहा है लेकिन मध्यम अवधि में इसमें बहुत अधिक इजाफा होने वाला है। ऐसे में बड़ा सवाल यह है कि भारत जैसे देश में नीतिगत स्तर पर इसे लेकर क्या प्रतिक्रिया दी जानी चाहिए? दुर्भाग्यवश इनके कोई आसान उत्तर नहीं हैं नीतियां कंपनियों को तकनीक को अपनाने से नहीं रोक सकती हैं क्योंकि उनके प्रतिस्पर्धी बने रहने के लिए ये आवश्यक हैं। बहरहाल, इससे इंसानी श्रम की मांग जरूर कम होगी।

यकीनन इनके प्रबंधन और संचालन के लिए जरूर प्रतिभाओं की जरूरत होगी। भारत को इन क्षेत्रों में अपनी विशाल तकनीकी श्रम शक्ति को नए सिरे से निर्देशित करके शायद फायदा हो सकता है। शीर्ष इंजीनियरिंग संस्थानों में प्रशिक्षण को भी अनुकूलित करने की जरूरत हो सकती है। प्रौद्योगिकी को अपनाने से विभिन्न प्रकार के कार्य भारत आ सकते हैं। बेशक ये सब केवल संभावनाएं हैं। और कुछ भी तय ढंग से नहीं कहा जा सकता है। इस समय यकीनन एक व्यापक नीतिगत बहस की आवश्यकता है कि भारत व्यापारिक गुटबाजी और प्रौद्योगिकी द्वारा तेजी से श्रम का स्थान लेने की बढ़ती संभावनाओं के माहौल में जनांकिकी का लाभ कैसे उठा सकता है।


Date: 29-07-25

जीएसटी में सुधार के विकल्प और समाधान

कविता राव, ( लेखिका एनआईपीएफपी की निदेशक हैं )

वस्तु एवं सेवा कर (जीएसटी) में सुधारों के अगले चरण को लेकर काफी उम्मीदें की जा रही हैं। ऐसी जानकारी आ रही है कि प्रधानमंत्री कार्यालय (पीएमओ) ने जीएसटी में बदलाव को सैद्धांतिक मंजूरी दे दी है। अब जीएसटी परिषद में इस पर चर्चा होने के साथ ही निर्णय लिए जाएंगे। यह वास्तव में राजस्व से जुड़ी बातों पर ध्यान केंद्रित करते हुए संभावित सुधारों के विकल्पों और उनके प्रभावों का पता लगाने के लिए एक वैचारिक प्रयोग है।

सरकारें और करदाता एवं उपभोक्ता दोनों ही जीएसटी में इन सुधारों से प्रभावित होंगे। सरकारों के लिए, प्रभावी कर दर बढ़ाने की आवश्यकता हो सकती है। 11 फरवरी, 2025 को लोक सभा में एक प्रश्न के उत्तर में, वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण ने बताया था कि वर्ष 2023-24 के लिए औसत जीएसटी दर 11.64 फीसदी थी जबकि जीएसटी से पहले के दौर में यह 15.8 फीसदी थी। काम से काम, मौजूदा औसत दर और राजस्व के प्रदर्शन को बरकरार रखने की आवश्यकता है। वहीं दूसरी तरफ अपेक्षित तौर पर करदाताओं और उपभोक्ताओं की चिंताओं को देखते हुए कर दरों में कमी की वकालत पर जोर दिया जा सकता है।

इन चिंताओं के समाधान के लिए जीएसटी परिषद के पास दो उपाय हैं: कर की दरों की संख्या यानी कर स्लैब में कमी और क्षतिपूर्ति उपकर में बदलाव करना । जीएसटी लागू होने के बाद से ही कर स्लैब की संख्या कम करना हमेशा से ही जीएसटी सुधारों की चर्चा का एक हिस्सा रहा है। पूर्व वित्त मंत्री अरुण जेटली ने जीएसटी के तहत राजस्व की स्थिति स्थिर होने के बाद 12 और 18 फीसदी की ‘मानक दरों’ को एक ही दर में मिलाकर, दरों की संख्या कम करने की आवश्यकता पर जोर दिया था।

यह तर्क दिया जाता है कि कई कर दरें,वास्तव में अनुपालन लागत और प्रशासनिक लागत बढ़ाती हैं क्योंकि वे गलत वर्गीकरण के साथ-साथ उलटे शुल्क ढांचे की गुंजाइश बनाती हैं।

कर दरों की संख्या कम करने के संभावित विकल्पों की खोज करते समय विचार करने योग्य दो महत्त्वपूर्ण पहलू हैं: कर दरों के कारण बनी कर राजस्व की संरचना और मांग में उतार-चढ़ाव की संभावित समझ, यानी कर दरों में बदलाव के प्रति मांग की संवेदनशीलता । कीमतों में लचीलेपन से जुड़ी जानकारी आसानी से उपलब्ध नहीं होती, लेकिन कर राजस्व की संरचना पर कुछ जानकारी उपलब्ध है।

संसद में एक अन्य प्रश्न के उत्तर में, वित्त राज्य मंत्री पंकज चौधरी ने बताया कि वर्ष 2023-24 में जीएसटी राजस्व संग्रह का लगभग 70-75 फीसदी हिस्सा 18 फीसदी वाले कर स्लैब से आया, जबकि केवल 5-6 फीसदी हिस्सा 12 फीसदी के कर स्लैब से आया। इसके अलावा, 5 फीसदी स्लैब से सिर्फ 6-8 फीसदी राजस्व आया और 28 फीसदी के उच्चतम कर स्लैब ने पिछले वित्त वर्ष में राजस्व में 13-15 फीसदी का योगदान दिया था।

इन आंकड़ों से यह स्पष्ट है कि 5 फीसदी और 12 फीसदी दोनों स्लैब, उच्च कर स्लैब की तुलना में कुल राजस्व में बहुत कम योगदान करते हैं। कर दरों में संशोधन करते समय, यदि इन स्लैब पर ध्यान रहा तो राजस्व जोखिम कम से कम हो सकता है। यदि लक्ष्य, कर स्लैब की संख्या कम करनी है तब 18 और 28 फीसदी स्लैब में बदलाव करना मददगार नहीं होगा।

ऐसे में कुछ इन विकल्पों पर विचार किया जा सकता है:

(क) 5 फीसदी और 12 फीसदी स्लैब का विलय कर एक 8 फीसदी स्लैब बनाया जा सकता है। चूंकि इन स्लैब का राजस्व में योगदान समान है ऐसे में राजस्व पर प्रभाव न्यूनतम हो सकता है।

(ख) अगर 12 फीसदी स्लैब को खत्म कर दिया जाता है तब कुछ वस्तुओं को कम दर पर लाया जा सकता है जबकि अन्य को उच्च दर पर ले जाया जा सकता है ताकि राजस्व तटस्थता बनाई रखी जाए।

(ग) 12 फीसदी स्लैब को समाप्त किया जा सकता है और इसकी सभी वस्तुओं को 5 फीसदी स्लैब के दायरे में ले जाया जा सकता है। इससे सरकारों को राजस्व का नुकसान होगा, जो जीएसटी के 5-6 फीसदी के बराबर होगा।

पहले और दूसरे विकल्पों में कुछ राजनीतिक-आर्थिक विचार सामने आ सकते हैं और उन क्षेत्रों से विरोध भी जताया जा सकता है जिनकी कर दरों में वृद्धि होती है। विकल्प ग, सरकारों की लागत बढ़ाता है लेकिन यह बात करदाता – उपभोक्ता समुदाय को स्वीकार्य होगी।

जीएसटी सुधार के लिए दूसरे घटक, उदाहरण के तौर पर क्षतिपूर्ति उपकर में बदलाव करते हुए कुछ पृष्ठभूमि की जानकारी ध्यान में रखी जा सकती है। यह उपकर जीएसटी व्यवस्था के तहत संग्रह किए गए कुल राजस्व में महत्त्वपूर्ण योगदान देता है। जीएसटी व्यवस्था में कोई भी सुधार जिसमें उपकर को समाप्त करना शामिल है। उससे राजस्व में कमी आएगी। इसका अर्थ है, वर्ष 2023-24 में 1.44 लाख करोड़ रुपये और वर्ष 2024-25 में 1.49 लाख करोड़ रुपये, या जीएसटी के तहत शुद्ध राजस्व के 7.6 फीसदी की कमी। पहले पांच वर्षों के लिए, राज्यों के ‘राजस्व घाटे’ को ध्यान में रखते हुए उपकर से हासिल राजस्व की व्यवस्था की गई थी। बाद के वर्षों में, इसका इस्तेमाल केंद्र सरकार को राजस्व हानि के लिए मुआवजे की प्रतिबद्धताओं को पूरा करने से जुड़े ऋणों की भरपाई के लिए हुआ। दूसरे शब्दों में, पिछले दो वर्षों में, न तो केंद्र और न ही राज्यों की मौजूदा व्यय आवश्यकताओं को पूरा करने के लिए राजस्व मिला है। इस संदर्भ को देखते हुए, यह तर्क दिया जा सकता है कि उपकर से मिला राजस्व या इसके बदलाव से मिलने वाला राजस्व, अतिरिक्त उपलब्ध राजस्व होगा। जीएसटी सुधार के ढांचे में इस धारणा को शामिल करने से विकल्पों का दायरा बढ़ सकता है।

क्षतिपूर्ति उपकर को जीएसटी की शीर्ष दरों में मिलाया जा सकता है। यह क्षतिपूर्ति उपकर, मुख्यतौर पर लक्जरी वस्तुओं व सेवाओं, प्रदूषण फैलाने वाले सामान और हानिकारक वस्तुओं पर लगता है। ऐसे में इन करों को बनाए रखना उचित और न्यायोचित माना जाता है। इसका अर्थ यह है कि केंद्र और राज्य सरकारों की राजस्व संग्रह में समान हिस्सेदारी होगी। उपकर से मिलने वाला राजस्व, 12 फीसदी के स्लैब से मिलने वाले राजस्व के बराबर है। ऐसे में ऊपर दिया गया विकल्प ग राजस्व के लिहाज से तटस्थ हो सकता है यानी इससे सरकारों के राजस्व को कोई नुकसान नहीं होगा। एक और विकल्प यह है कि उपकर को खत्म कर दिया जाए। इससे केंद्र और राज्य के राजस्व में कोई बदलाव नहीं आएगा। हालांकि जीएसटी को तर्कसंगत बनाने के उपाय के तौर पर यह उपाय अपने आप में आम आदमी को पसंद नहीं आता और निष्पक्षता की चिंताओं को अनदेखा कर देता है। जाहिर है, यह उपाय आकर्षक नहीं है।


Date: 29-07-25

कब रुकेंगी त्रासदियां

जयसिंह रावत

हरिद्वार के प्रसिद्ध मनसा देवी मंदिर में 27 जुलाई रविवार को जो कुछ हुआ, वह किसी अप्रत्याशित घटना की तरह नहीं था। यह हादसा एक बार फिर से उस सच्चाई को सामने लाता है कि धार्मिक आस्था का उफान जब प्रशासनिक विवेक, स्थान की क्षमता और वैज्ञानिक भीड़ प्रबंधन पर भारी पड़ता है, तो आस्था का यह सैलाब त्रासदी में बदल सकता है। उस दिन मंदिर के मुख्य मार्ग की सीढ़यों पर अचानक भगदड़ मच गई। कहा गया कि किसी ने यह अफवाह फैला दी कि रेलिंग में करंट दौड़ रहा है । नतीजा यह हुआ कि 8 श्रद्धालुओं की मौके पर मौत हो गई और लगभग 30 श्रद्धालु घायल हो गए। यह घटना हमें बताती है कि हम आज भी उन्हीं भूलों को दोहरा रहे हैं जिनका इतिहास दशकों पुराना है।

मनसा देवी मंदिर पहाड़ी पर स्थित एक अत्यधिक लोकप्रिय शक्तिपीठ है, जहां सावन और नवरात्र जैसे पर्वो श्रद्धालुओं की भीड़ कई गुना बढ़ जाती है, लेकिन इस भीड़ को नियंत्रित करने के लिए जो व्यवस्था होनी चाहिए, वह अक्सर उतनी ही कमजोर साबित होती है जितनी कि श्रद्धा प्रबल। यह पहली बार नहीं है जब हरिद्वार में ऐसा हुआ हो। इससे पहले 1986 के कुंभ मेले की भगदड़ में लगभग 200 लोगों की मृत्यु हुई थी। 2011 में हर की पैड़ी पर भी एक भगदड़ में 20 लोग मारे गए थे। इसी प्रकार 8 नवम्बर 2011 को ही शांतिकुंज के एक कार्यक्रम में भी भगदड़ में 20 श्रद्धालुओं की मौत और 30 घायल हो गए थे। इन हादसों का पैटर्न लगभग एक जैसा रहा है, अत्यधिक भीड़, संकरे रास्ते, अफवाहें और प्रशासनिक लापरवाही । भगदड़ हादसों के मामले में हरिद्वार अकेला नहीं है। देश के अन्य धार्मिक स्थलों पर भी इसी तरह की घटनाएं बार-बार होती रही हैं। 2024 में उत्तर प्रदेश के हाथरस में एक स्वयंभू बाबा के सत्संग में भगदड़ मची, जिसमें 121 लोगों की मृत्यु हो गई थी। 2022 में वैष्णो देवी मंदिर में भी नववर्ष के मौके पर भगदड़ मचने से 12 श्रद्धालुओं की जान गई। 2008 में हिमाचल प्रदेश के नैना देवी मंदिर में चट्टान खिसकने की अफवाह से भगदड़ मची थी जिसमें 162 लोग मारे गए थे। 2023 में रामनवमी के अवसर पर वहीं एक और भगदड़ हुई, जिसमें 36 श्रद्धालु मरे। इसी महीने मध्य प्रदेश के बागेश्वर धाम में गुरु पूर्णिमा महोत्सव के दौरान टेंट गिरने और दीवार ढहने से दो लोगों की मौत हुई। ये आंकड़े महज संख्याएं नहीं, बल्कि व्यवस्थागत असफलताओं के प्रमाण हैं। प्रश्न यह है कि आखिर ये घटनाएं बार-बार क्यों घट रही हैं? एक कारण तो यह जरूर है कि भीड़ को आयोजन और आयोजन स्थल की सफलता का मापदंड माना जाता है। सरकारें और धार्मिक संस्थाएं जितनी अधिक भीड़ जुटा पाती हैं, उसे उतनी ही बड़ी उपलब्धि के रूप में प्रचारित करती हैं। श्रद्धालुओं की संख्या को लाखों और करोड़ों में गिनाया जाता है, और यह मान लिया जाता है कि आस्था जितनी व्यापक होगी, उतनी ही मान्यता और चढ़ावा भी मिलेगा, परंतु इस मानसिकता में यह भूल जाती है कि किसी भी स्थल की एक सीमा होती है, जिसे कैरीइंग कैपेसिटी कहा जाता है। कैरीइंग कैपेसिटी का अर्थ है किसी स्थल की वह अधिकतम सीमा जहां तक वह पर्यावरणीय, भौगोलिक और संरचनात्मक रूप से भीड़ को सुरक्षित रूप से संभाल सकती है। मनसा देवी मंदिर जैसे स्थलों पर यह सीमा सीमित होती है, सीढ़ियां संकरी हैं, रेलिंग पुरानी हैं, और ऊपर-नीचे आने-जाने का मार्ग एक ही है। ऐसी स्थिति में यदि हजारों की संख्या में लोग एक साथ एक ही दिशा में बढ़ते हैं और अचानक अफवाह या घबराहट फैलती है, तो भगदड़ अवश्यंभावी हो जाती है। प्रशासनिक दृष्टि से देखा जाए तो भारत में अधिकांश धार्मिक स्थलों पर ऐसी स्पष्ट कैरीइंग कैपेसिटी निर्धारित नहीं की जाती और न ही भीड़ को उसी अनुसार रोका जाता है। जब तक यह वैज्ञानिक आधार पर तय नहीं किया जाएगा कि किस पर्व पर किस स्थल पर कितने लोग एक समय में प्रवेश कर सकते हैं, तब तक सुरक्षा सिर्फ भाग्य पर आधारित होगी।

प्रशासन कई बार दावा करता है कि उसने पर्याप्त इंतजाम किए थे, सीसीटीवी कैमरे लगाए थे, पुलिस बल तैनात किया गया था, रूट प्लान तैयार था, परंतु जब हादसा हो जाता है, तो यही व्यवस्थाएं कागजों में ही सीमित पायी जाती हैं। मनसा देवी मंदिर की घटना में भी यही हुआ। एक अफवाह ने समूची व्यवस्था को ध्वस्त कर दिया। दूसरी ओर, धार्मिक संस्थाओं की भूमिका भी सवालों के घेरे में है। कई बार आयोजक भीड़ को लेकर कोई वैज्ञानिक अनुमान नहीं लगाते, न ही किसी प्रकार की पूर्व अनुमति की प्रक्रिया का पालन करते हैं। हाथरस की घटना इसका ज्वलंत उदाहरण है। न आयोजन का कोई नियंत्रण था, न किसी एजेंसी से सहमति ली गई थी, और न ही आपातकालीन प्रबंधन की कोई योजना थी। धार्मिक आस्था को आंकड़ों, भीड़ या प्रचार का माध्यम नहीं, बल्कि विवेक और जिम्मेदारी के साथ जोड़ना होगा। जब तक भीड़ को आयोजन की सफलता और चढ़ावे का पैमाना माना जाता रहेगा, तब तक मनसा देवी, नैना देवी, हाथरस या वैष्णो देवी जैसी त्रासदियां दोहराई जाती रहेंगी।


Date: 29-07-25

शतरंज की दुनिया में सबसे नया सितारा दिव्या देशमुख

मनोज चतुर्वेदी, ( वरिष्ठ खेल पत्रकार )

दिव्या देशमुख ने मात्र 19 साल की उम्र में जॉर्जिया में आयोजित महिला शतरंज विश्व कप का खिताब जीतकर इतिहास रच दिया है। वह भारत के लिए यह खिताब जीतने वाली पहली महिला हैं। दिव्या के लिए यह खिताब इसलिए भी अहम है कि उन्होंने अपने से दोगुनी उम्र की कोने हम्पी को हराकर इसे जीता है। इस खिताबी जीत से वह ग्रैंडमास्टर बनने वाली भारत की चौथी महिला खिलाड़ी बन गई हैं।

इससे पहले यह गौरव उनसे फाइनल में हारने वाली हम्पी, डी हरिका और वैशाली रमेशबाबू को ही हासिल था। अब दिव्या के सामने मुख्य चुनौती कैंडिडेट्स टूर्नामेंट जीतकर विश्व चैंपियन को चुनौती देने का अधिकार हासिल करना होगा। वह यदि विश्व चैंपियन बन जाती हैं, तो भारत के पास पुरुष और महिला वर्ग, दोनों के विश्व चैंपियन हो जाएंगे। अभी कुछ माह पहले ही डी गुकेश ने पुरुष वर्ग में विश्व चैंपियन बनने का गौरव हासिल किया है। दिव्या देशमुख और कोनेरू हम्पी के बीच पहली दो बाजियां क्लासिकल शतरंज में बराबर रहने पर टाईब्रेकर में मुकाबला खेला गया, जहां रेपिड बाजियों में दिव्या ने विजय पाकर यह उपलब्धि हासिल की है। दिव्या के लिए रेपिड बाजियों में हम्पी को फतह करने के खास मायने हैं। इसकी वजह यह है कि हम्पी पिछले दिसबंर में ही रेपिड शतरंज की दूसरी बार चैंपियन बनी थीं। वैसे भी वह रैंकिंग में पांचवें स्थान पर हैं और दिव्या तो शीर्ष दस खिलाड़ियों में भी शामिल नहीं थीं। हालांकि, भारत की इन दो खिलाड़ियों के बीच फाइनल खेले जाने से इस खेल में चीनी दबदबे की कहानी पर भी काफी हद तक विराम लग गया है।

यह सही है कि भारत में सही मायनों में शतरंज की अलख जगाने वाले विश्वनाथन आनंद हैं। उन्होंने बोरिस स्पास्की की अगुआई वाले सोवियत संघ (मौजूदा रूस) के दबदबे को तोड़कर भारत को इस खेल में अग्रणी बनाया था। मगर सही मायनों में शतरंज भारतीय दबदबे को डी गुकेश, प्रगनानंद, एरिगेसी की अगुवाई वाली पीढ़ी ने स्थापित किया है। इस तिकड़ी की वजह से पहली बार शतरंज की शीर्ष दस खिलाड़ियों में भारत के चार खिलाड़ी शामिल हुए। अब यह सिलसिला दिव्या के खिताब जीतने से महिला वर्ग में भी शुरू हो गया है। यह सही है कि हम्पी 38 साल की होने की वजह से अपने करियर के अंतिम पड़ाव पर हैं, पर वैशाली रमेशबाबू दिव्या की तरह ही युवा हैं और यह जोड़ी भी शतरंज में धमाका मचाने की कुव्वत रखती है।

दिव्या के बारे में कहा जाता है कि वह दुर्घटनावश शतरंज खिलाड़ी बनी हैं। उनके हिसाब से उनकी बड़ी बहन बैडमिंटन खेलती थीं और माता-पिता उसके साथ जाते थे। दिव्या उस समय चार-पांच साल की थीं, तो वह भी साथ जाने लगीं, पर उनके बैडमिंटन खेलने में उनका नेट तक भी नहीं पहुंच पाना बाधा बनने लगा । इस कारण उसी हॉल में एक स्थान पर शतरंज होता था, उसे देखने लगीं। शतरंज देखने से उसमें ही मन रम गया और वह शतरंज खिलाड़ी बन गईं। दिव्या के शतरंज में जगे इस शौक को पिता डॉक्टर जितेंद्र और माता नम्रता ने अपने प्रयासों से नई ऊंचाइयां देने में मदद की। उन्होंने नागपुर के अपने निवास के नजदीक एक शतरंज अकादमी में उनका रजिस्ट्रेशन करा दिया। हमारे यहां कहा जाता है कि पूत के पांव पालने में दिखते हैं, दिव्या ने भी मात्र दो साल की कोचिंग में रंग दिखाना शुरू कर दिया । वह 2012 में पुडुचेरी में राष्ट्रीय शतरंज में अंडर- 7 का राष्ट्रीय खिताब जीतने में सफल हो गईं। इसके बाद उन्होंने कभी पीछे मुड़कर नहीं देखा।

दिव्या 2020 आते-आते भारतीय ओलंपियाड टीम की नियमित सदस्य बन गईं और उनकी गिनती देश की दिग्गज खिलाड़ियों में होने लगी। इसका फायदा यह हुआ कि उन्हें नियमित तौर पर विश्वनाथन आनंद की सलाह मिलने लगी। उन्होंने पिछले शतरंज ओलंपियाड में तो व्यक्तिगत बोर्ड का स्वर्ण पदक भी जीता था। बहरहाल, इस उपलब्धि को हासिल करने के लिए उन्होंने झूजिनेर, तान झोंगयी व द्रोणावल्ली हरिका जैसी दिग्गजों को हराया है। वह जबर्दस्त क्षमता वाली खिलाड़ी हैं। इसलिए यह अप्रत्याशित नहीं है कि लोगों को उनसे यह उम्मीद थी और उन्होंने यह करके दिखा दिया है।