29-04-2023 (Important News Clippings)
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Date:29-04-23
Wrestling Injustice
Protests are integral to a democracy – and vital
TOI Editorials
Indian Olympic Association president PT Usha, an Indian sporting legend, feels wrestlers protesting in public are sullying the image of the country. The wrestlers’ protests, the second time this year, are to express their dissatisfaction with the administration’s response to their sexual harassment complaint against the sidelined president of the Wrestling Federation, Brij Bhushan Singh. It can’t be easy for Olympic medallists and serious sportspeople to take to the streets and put up with the attendant discomfort. This should make Usha and other sports administrators think again.
Protests are inherent to a democracy. No grievance redressal mechanism can be perfect. Sometimes they fall far short of qualifying as even acceptable. In a democratic framework, a protest is the default option to express deep dissatisfaction. Remember Colin Kaepernick, an American football quarterback who in 2016 began to kneel during his country’s national anthem as a show of protest against racial injustice? It catalysed conversation globally and even the Indian cricket team took the knee five years later. To reiterate the point that protesters are the ones taking the risk, keep in mind Kaepernick’s sports career ended prematurely. Therefore, instead of accusing protesters of tarnishing India’s image, IOA should make a sincere effort to understand their fear.
Protests don’t affect a country’s image. It’s the insensitivity of people in power – sports administrators in this case – that reflects poorly on reputation. A protest is a symptom of an underlying problem. It also acts as a pressure relief valve. The decision of Delhi Police to register an FIR on the basis of the sexual harassment allegations is a step in the right direction. It does, however, beg the question: Shouldn’t it have happened without the protest? And since it didn’t, Usha and others should understand why protests are necessary – and sometimes vital.
Gifting Beyond the Confines of ‘Family’
Allow tax design to expand the ‘familial’
ET Editorials
Unlike in the West, the notion of what comprises ‘family’, or individuals who share similar levels of familiality, is more expansive in India. A distant cousin, an ‘honorary’ niece, even an unrelated ‘rakhi’ brother/sister can be as close as ‘bloodline’. In this context, the solitary window for tax-free gifts at weddings, though significant, may not be adequate. Gift tax in India has been used principally as an anti-abuse mechanism. Yet, the policing intent behind taxing gifts to unrelated individuals blocks the path for sincere gifts above a limit. This neither reconciles with India’s innate notion of extra-familial ‘family’ nor with its position on estate duties.
Assets can be willed to any person outside a donor’s legal heirs without inviting tax. The tax system favours gifting to an unrelated individual only afterthe death of the donor. This can lead to unwarranted delay as the decision to give is almost always taken during the donor’s lifetime. The gift tax emerged as a regulatory backstop to curb avoidance in countries that have an inheritance tax. In the Indian context, it merely stymies gifting. GoI should consider expanding the definition of ‘family’ in the Companies Act and allow, say, three persons of the gifter’s choice, regardless of whether they fall under the straight and narrow category of ‘kith and kin’ or not.
High net-worth individuals face another set of constraints imposed by the Companies Act on transfer of assets beyond family members. Disclosures by board members on relatives leave no scope to include unrelated individuals who may become the beneficiaries of asset transfer. Corporate governance would be better served if directors are allowed to disclose their intent to transfer shareholding to beneficiaries beyond their immediate family. To the extent that this encourages wealth dispersion, the tax treatment of gifts can provide a lighter touch to regulation than a blunt instrument like an inheritance tax. Carve-outs have been provided for gifts to institutions. Individuals are the beneficiaries of gifts intermediated thus. Tax design should allow for interpersonal gifts beyond the tight term of ‘family’.
मैन्युफैक्चरिंग सेक्टर में नौकरियों की भरमार है
पंकज बंसल, ( डिजिटल रिक्रूटमेंट प्लेटफॉर्म और वर्क यूनिवर्स के सह-संस्थापक )
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने कहा था कि मेक इन इंडिया की बात करते समय हम न केवल कम्पनियों को भारत में कॉस्ट-इफेक्टिव मैन्युफेक्चरिंग के लिए निमंत्रित करते हैं, बल्कि उन्हें अपने उत्पादों के लिए एक बड़ा बाजार मुहैया कराने का अवसर भी देते हैं। भारत का मैन्युफेक्चरिंग सेक्टर तेज गति से आगे बढ़ रहा है। मैन्युफेक्चरिंग निर्यात 418 अरब डॉलर के स्तर को छू चुके हैं, जो कि विगत वर्ष की तुलना में 40% का उछाल है। भारत में मैन्युफेक्चरिंग का ग्लोबल-हब बनने की क्षमता है। भारत के पास मैन्युफेक्चरिंग के उच्च गुणवत्ता और कम लागत वाले विकल्प मौजूद हैं और उसके पास कुशल कामगारों की भी कमी नहीं। मैन्युफेक्चरिंग सेक्टर भारत की जीडीपी में 16% का योगदान देता है और उसके कारण 2.7 करोड़ लोगों को रोजगार मिला है। विकास और रोजगार को और बढ़ावा देने के लिए सरकार वर्ष 2030 तक बुनियादी ढांचे पर सौ ट्रिलियन रुपए खर्च करने की योजना बना रही है। अध्ययन बताते हैं अकेले मोबाइल मैन्युफेक्चरिंग से डेढ़ लाख तक नए अवसर रचे जा सकेंगे।
लॉकडाउन का असर
कोविड-19 ने ग्लोबल मैन्युफेक्चरिंग सेक्टर पर खासा असर डाला था। खासतौर पर चीन को इससे बहुत झटका लगा। एक समय चीन को दुनिया की फैक्टरी कहा जाता था। लेकिन कोविड के कारण वैश्विक सप्लाई-चेन बुरी तरह से प्रभावित हुई थी। इससे दुनियाभर की कम्पनियों को पता चला कि किसी एक देश पर जरूरत से ज्यादा निर्भरता के कितने खतरे हैं। यही कारण है कि आज अनेक देश चीन के विकल्प की तलाश कर रहे हैं। इसे चाइना-प्लस-वन रणनीति कहा जा रहा है। इसके तहत कम्पनियां अपने मैन्युफेक्चरिंग ऑपरेशंस को चीन के बजाय भारत जैसे देशों की ओर ले जा रही हैं ताकि अपने जोखिम को कम कर सकें। इन बदलावों का लाभ उठाकर भारत सक्रियतापूर्वक खुद को मैन्युफेक्चरिंग निवेश के नए केंद्र की तरह प्रमोट कर रहा है। मिसाल के तौर पर, हाल के समय में सेमीकंडक्टर इंडस्ट्री में बहुत तेजी आई है। इसी परिप्रेक्ष्य में कर्नाटक और तेलंगाना जैसे राज्यों में सेमीकंडक्टर फैक्टरियां स्थापित करने को लेकर फॉक्सकॉन जैसी ग्लोबल कम्पनी ने रुचि दर्शाई है। परिणामस्वरूप, अनुमान हैं कि सेमीकंडक्टर इंडस्ट्री में 12 से 15 प्रतिशत की वैश्विक तेजी दर्ज की जाएगी और भारत में भी नौकरियों के नए अवसर निर्मित होंगे।
रोजगार के अवसर
आने वाले वर्षों में मैन्युफेक्चरिंग सेक्टर के तमाम सेगमेंट्स में नौकरियों के अवसर निर्मित होंगे। हनीवेल की निर्देशक दीप्ति विज के मुताबिक टेक्नोलॉजी और डिजिटलाइजेशन के सुमेल से इंजीनियरिंग और मैन्युफेक्चरिंग इंडस्ट्री तेजी से विकसित हो रही है। इससे टेक्नोलॉजी, सॉफ्टवेयर, इंजीनियरिंग, हेल्थकेयर आदि में नौकरियों के नए अवसर निर्मित हो रहे हैं। अब जब ग्लोबल मैन्युफेक्चरिंग सेक्टर इंडस्ट्री 4.0 की ओर बढ़ रहा है तो उत्पादकता, गुणवत्ता और दक्षता बढ़ाने के लिए संस्थान टेक्नोलॉजी की मदद लेना चाहते हैं। ऑटोमेशन, रोबोटिक्स, एआई की मदद से सेक्टर में बुनियादी बदलाव आ रहे हैं। इससे एआई, एमएल, आईओटी, बिग डाटा एनालायटिक्स, क्लाउड कम्प्यूटिंग आदि में नौकरियों के नए अवसर भी निर्मित हुए हैं। साथ ही सुरक्षा के लिए सेफ्टी इंजीनियर्स और सिक्योरिटी सुपरवाइजर्स के लिए भी काम के मौके बढ़े हैं। वहीं लीन मैन्युफेक्चरिंग का फोकस कम क्षति और कम लागत से अधिक से अधिक उत्पादन और गुणवत्ता पर केंद्रित है। इस एप्रोच के लिए एक भिन्न प्रकार के माइंडसेट की जरूरत होती है, जिसके लिए संस्थान लीन मैन्युफेक्चरिंग, सिक्स सिगमा, टोटल क्वालिटी मैनेजमेंट आदि में अनुभवी पेशेवरों की तलाश कर रहे हैं। मैन्युफेक्चरिंग में ग्रोथ के लिए निरंतर इनोवेशन की भी जरूरत है, जिससे रिसर्च एंड डेवलपमेंट प्रोफेशनल्स की मांग बढ़ी है। क्लाइमेट चेंज के मद्देनजर ग्रीन मैन्युफेक्चरिंग से सम्बंधित पेशेवरों की मांग में भी इधर निरंतर इजाफा हुआ है। रिन्युएबल एनर्जी, वेस्ट रिडक्शन और सस्टेनेबल मैन्युफेक्चरिंग की दिशा में काम करने वाले प्रोफेशनल्स की बाजार में जरूरत महसूस की जा रही है।
आज भारत के मैन्युफेक्चरिंग सेक्टर में अपार सम्भावनाएं हैं। चूंकि सरकार भी इस क्षेत्र के विकास के लिए कमर कसे हुए है, इसलिए इसमें संदेह नहीं कि आने वाले समय में यह और तेजी से आगे बढ़ेगा।
नहीं सुधरेगा चीन
संपादकीय
चीनी रक्षा मंत्रालय का यह कहना इसलिए आश्चर्यजनक है कि भारत और चीन की सीमा पर स्थिति आमतौर पर स्थिर है, क्योंकि एक दिन पहले ही रक्षा मंत्री राजनाथ सिंह ने अपने चीनी समकक्ष से साफ तौर पर कहा था कि सीमा पर तनाव की स्थिति है और उससे समूचे संबंधों पर प्रभाव पड़ रहा है। उन्होंने चीनी रक्षा मंत्री से हाथ मिलाने से भी मना कर दिया था और उनके इस प्रस्ताव को भी अस्वीकार कर दिया था कि सीमा विवाद को परे रखते हुए संबंधों को सामान्य बनाने की दिशा में आगे बढ़ा जाना चाहिए। स्पष्ट है कि चीन सीमा विवाद को सुलझाने से न केवल इन्कार कर रहा है, बल्कि इस प्रयास में भी है कि भारत उसकी अनदेखी कर दे। यह तब है, जब भारत की ओर से पिछले एक अर्से से बार-बार यह कहा जा रहा है कि सीमा पर शांति कायम किए बिना रिश्तों में सुधार संभव नहीं है। यदि चीन इस साधारण सी बात को समझने के लिए तैयार नहीं दिख रहा तो इसका सीधा मतलब है कि उसकी नीयत में खोट है और वह अपनी ही चलाना चाहता है। इसकी अनदेखी नहीं की जानी चाहिए कि सीमा पर तनाव बनाए रखकर चीन भारत के सैन्य संसाधनों पर बोझ डाल रहा है। भारत को चीन से लगती सीमा पर न केवल अतिरिक्त चौकसी बरतनी पड़ रही है, बल्कि अपने सैन्य खर्च को भी बढ़ाना पड़ रहा है।
चीन का रवैया किसी भी सूरत में मित्र देश वाला नहीं है। चीन केवल भारतीय हितों की अनदेखी ही नहीं कर रहा है, बल्कि उन्हें चोट पहुंचाने की भी कोशिश कर रहा है। वह खुद तो भारतीय हितों को लेकर बेपरवाह है, लेकिन यह चाहता है कि भारत उसके हितों के मामले में संवेदनशीलता का परिचय दे। भारत को इसे न केवल अस्वीकार करना होगा, बल्कि चीन के समक्ष प्रकट भी करना होगा। समझना कठिन है कि जब चीन कश्मीर और अरुणाचल को लेकर अवांछित टिप्पणियां करता रहता है, तब भारत तिब्बत, ताइवान और हांगकांग के विषयों पर मौन क्यों धारण किए रहता है? अब जब यह स्पष्ट हो चुका है कि चीन अपने अड़ियल रवैये से बाज नहीं आने वाला, तब फिर भारत के लिए यह आवश्यक हो जाता है कि वह उसके प्रति अपनी रीति-नीति बदले। रीति-नीति में यह बदलाव इस तरह होना चाहिए कि चीन पर उसका असर पड़ता दिखे। इसमें संदेह है कि शंघाई सहयोग संगठन और ऐसे ही अन्य बहुपक्षीय मंचों पर चीन को कठघरे में खड़ा करने और उसे आईना दिखाने से उसकी सेहत पर कोई असर पड़ने वाला है। उसकी सेहत पर असर तब पड़ेगा, जब भारत ऐसा कुछ करेगा, जिससे उसके हित प्रभावित होंगे। भारत को इस नतीजे पर पहुंचने में देर नहीं करनी चाहिए कि चीन आसानी से सुधरने वाला नहीं है।
Date:29-04-23
जनांकिकीय लाभ की असली कहानी
टी. एन. नाइनन
अधिकांश प्रकाशनों ने संयुक्त राष्ट्र के एक संगठन की इस बात को बिना किसी आलोचना के स्वीकार कर लिया है कि भारत इस महीने दुनिया का सर्वाधिक आबादी वाला देश बन गया है। आकलन के मुताबिक भारत की 142.9 करोड़ की आबादी चीन की जनसंख्या से मामूली अधिक है। आधुनिक जनगणना शुरू होने के बाद यह पहला मौका है जब भारत ने जनसंख्या में चीन को पीछे छोड़ा है। विश्व बैंक संयुक्त राष्ट्र के आंकड़ों को दोहराता है, हालांकि उसका दावा है कि वह अनेक स्रोतों से प्राप्त आंकड़ों का इस्तेमाल करता है। वैसे उनमें से कोई आंकड़ा संयुक्त राष्ट्र के इस दावे का समर्थन नहीं करता है कि भारत अब सर्वाधिक जनसंख्या वाला देश है।
महत्त्वपूर्ण बात है कि न तो चीन और न ही भारत इस दावे का समर्थन कर रहा है। भारत का अनुमान है कि 2023 तक उसकी आबादी 138.3 करोड़ रहेगी जबकि चीन की दिसंबर की जनगणना के अनुसार उसकी आबादी 141.2 करोड़ है। अमेरिकी जनसंख्या ब्यूरो जनसंख्या के आंकड़ों का भारत के नमूना पंजीयन व्यवस्था से मिलान करता है जो जन्म और मृत्यु के आंकड़ों, प्रवासन के आंकड़ों, कोविड से होने वाली मौतों आदि को दर्ज करता है। उसका मानना है कि 2023 में भारत की जनसंख्या करीब 139.9 करोड़ रह सकती है। चीन के लिए ब्यूरो ने 141.3 करोड़ का जो आंकड़ा दिया है, भारत का आंकड़ा उससे कम है। वहीं वर्ल्डमीटर नामक एक स्वतंत्र डिजिटल एजेंसी के अनुसार भारत की मौजूदा आबादी 141.8 करोड़ है जबकि चीन की आबादी 145.5 करोड़ है।
यह अंतर बहुत मामूली नजर आता है और लगता है कि आबादी के मामले में अगर भारत अभी चीन से आगे नहीं है तो अगले कुछ वर्षों में वह हो जाएगा। परंतु यह ध्यान देने लायक है कि संयुक्त राष्ट्र आबादी को लेकर अपने अनुमान में लगातार गलत साबित होता रहा है। सन 2010 में उसने कहा था कि अबाबादी के मामले में भारत 2021 तक चीन से आगे निकल जाएगा और 2025 तक भारत की आबादी चीन से 6.3 करोड़ अधिक हो जाएगी। 2021 के मामले में वह पूरी तरह गलत साबित हुआ और 2025 वाले मामले में भी वह गलत ही साबित होगा। सन 2015 में उसने कहा था कि 2050 तक भारत की आबादी 170 करोड़ का स्तर पार कर जाएगी। लब्बोलुआब यह कि आबादी पर संयुक्त राष्ट्र के आंकड़ों की छानबीन करनी होगी, उसे जस का तस स्वीकार नहीं किया जा सकता है क्योंकि वे गलत साबित हो सकते हैं।
अहम बात यह है कि चीन की आबादी अपने उच्चतम स्तर पर पहुंच चुकी है जबकि भारत की आबादी निरंतर बढ़ रही है। ऐसे में कई पर्यवेक्षकों का कहना है कि भारत के पास युवा आबादी का लाभ रहेगा और आबादी का बड़ा हिस्सा कामगार आयु का होगा। ऐसे में भारत के पास एकबारगी जनांकिकीय लाभ भी होगा। परंतु बीती चौथाई सदी में जितनी बार इस लाभ की बात की गई वास्तव में इसका उतना फायदा नहीं उठाया जा सका। एक ऐसे देश में जहां सफलताओं का जश्न उनके वास्तव में घटित होने के पहले ही मना लिया जाता है वहां इस बात की संभावना अधिक है कि जनांकिकीय फायदा भी यूं ही गंवा दिया जाएगा। चीन ने उचित ही कहा है कि लोगों की तादाद के साथ उनकी गुणवत्ता भी मायने रखती है। भारत की आबादी की वृद्धि अपने आप में शिक्षा और स्वास्थ्य सेवाओं की नाकामी का परिणाम है। अभी भी एक निरक्षर भारतीय महिला औसतन तीन बच्चों को जन्म देती है जबकि शिक्षित महिलाओं की प्रजनन दर 1.9 है। उत्तर प्रदेश में क्रूड जन्म दर (एक खास अवधि में एक खास भौगोलिक क्षेत्र में होने वाले जन्म) केरल से दोगुनी है। वहीं क्रूड मृत्यु दर (एक खास समय में खास क्षेत्र में कुल मौतें) की बात करें तो मध्य प्रदेश में यह केरल से आठ गुनी है। उच्च मृत्यु दर माताओं को ज्यादा बच्चे पैदा करने के लिए प्रोत्साहित करती है। केवल शिक्षा और अच्छी जन स्वास्थ्य सेवा ही इस चक्र को रोक सकती है। सकारात्मक बात यह है कि देश की आबादी में एक दशक में होने वाली वृद्धि आधी रह गई है। सन 1960, 1970 और 1980 के दशक के 24 फीसदी से कम होकर बीते दशक में यह 12 फीसदी से कम रह गई। इसमें और कमी आ रही है। देश के दक्षिण और पश्चिम में स्थित राज्यों की उर्वरता दर पहले ही प्रतिस्थापन स्तर से नीचे है। केवल गरीब, कम शिक्षित और कम विकसित राज्यों में ही आबादी में इजाफा जारी रहने वाला है।
जनांकिकीय लाभांश का लाभ केवल तभी लिया जा सकता है जब मानव संसाधन विकसित किया जाए और इससे पहले कि कुछ दशक बाद जनांकिकीय बदलाव हो, उनका उत्पादक इस्तेमाल सुनिश्चित किया जा सके। तब तक अगर मौजूदा रुझानों से देखें तो भारत एक उच्च-मध्य आय वाला देश रह सकता है जो मध्य आयु की ओर बढ़ रहा हो। भारत का जीवन स्तर दक्षिण-पूर्वी एशिया और लैटिन अमेरिका के कुछ हिस्सों या चीन जैसा होने में कम से कम 20 वर्ष का समय लगेगा। उनकी प्रति व्यक्ति आय भारत से करीब ढाई गुना है।
Date:29-04-23
कार्रवाई की कसौटी
संपादकीय
काफी जद्दोजहद के बाद शुक्रवार को दिल्ली पुलिस ने सर्वोच्च न्यायालय को सूचित किया कि भारतीय कुश्ती महासंघ यानी डब्लूएफआइ के अध्यक्ष और सांसद बृजभूषण शरण सिंह के खिलाफ एक नाबालिग सहित सात महिला पहलवानों के यौन उत्पीड़न और धमकी देने के आरोपों पर वह प्राथमिकी दर्ज करेगी। गौरतलब है कि बृजभूषण शरण सिंह पर लगे आरोपों के संदर्भ में अब तक कार्रवाई न होने की स्थिति में महिला पहलवानों को आंदोलन तक का रास्ता अख्तियार करना पड़ा। हालांकि कुछ समय पहले जनवरी में भी पीड़ितों की ओर से पहली बार इन आरोपों के साथ सार्वजनिक रूप से अपना विरोध और दुख जाहिर किया गया था। मगर तब केंद्रीय युवा और खेल मामलों के मंत्री अनुराग ठाकुर की ओर से उचित कार्रवाई सुनिश्चित कराए जाने के आश्वासन पर महिला पहलवानों ने अपना विरोध वापस ले लिया था। लेकिन विडंबना यह है कि तीन महीने के बाद भी इस मसले पर कोई सक्रियता नहीं दिखी और पीड़ितों को एक बार फिर दिल्ली के जंतर मंतर पर अपना विरोध प्रदर्शन शुरू करना पड़ा। जब उन्होंने बृजभूषण शरण सिंह के खिलाफ एफआइआर के उनके अनुरोध पर तत्काल सुनवाई के लिए सुप्रीम कोर्ट का रुख किया और शीर्ष अदालत ने दिल्ली पुलिस को नोटिस जारी कर कहा कि मामला दर्ज क्यों नहीं किया गया है, तब जाकर अदालत को प्राथमिकी दर्ज किए जाने के बारे में सूचित किया गया।
जाहिर है, पुलिस ने अब जिन शिकायतों पर प्राथमिकी दर्ज करने की बात कही, उनके कानूनी रूप से ठोस आधार थे। सवाल है कि आखिर क्या कारण रहे कि इस मसले के उठने के बाद से ये आधार मौजूद होने के बावजूद दिल्ली पुलिस ने कानूनी कार्रवाई शुरू करने में इतना लंबा वक्त लगाया। हैरानी की बात यह है कि इस मामले में शिकायत सामने आने पर संवेदनशील तरीके से कार्रवाई करने के बजाय पुलिस की ओर से यहां तक कहा गया कि प्राथमिकी दर्ज करने से पहले आरोपों की जांच करने की जरूरत होगी। क्या पुलिस इस तरह की सभी शिकायतों के मामले में ऐसा ही मानदंड अपनाती है? अगर कानून सबके लिए बराबर है, तो अलग-अलग आरोपियों के खिलाफ कार्रवाई को लेकर सक्रियता के पैमाने अलग-अलग क्यों हो जाते हैं? क्या यह अपने आप में आरोपी को बचाने की कोशिश और कानून के शासन को सवालों के कठघरे में खड़ा करना नहीं है? यह बेवजह नहीं है कि इस समूचे मामले में पुलिस के रवैये पर सवाल उठ रहे हैं कि वह पद और कद को देख कर कार्रवाई का स्तर तय करती है।
हालांकि बृजभूषण शरण सिंह अगर अपने ऊपर लगे यौन-उत्पीड़न के आरोपों से इनकार कर रहे हैं तो सबसे पहले उन्हें संगठन और अपनी गरिमा का खयाल रखते हुए कोई स्पष्ट फैसला आने तक के लिए अपने पद से हट जाना चाहिए था और कानूनी प्रक्रिया में सहयोग करना चाहिए था। लेकिन जो हो रहा है, वह सबके सामने है। दरअसल, इस समूचे प्रसंग में एक अहम पक्ष यही है कि जिस कद और पद के व्यक्ति के खिलाफ महिला पहलवानों ने यौन उत्पीड़न जैसे गंभीर आरोप लगाए हैं, उसमें अपेक्षया ज्यादा शिद्दत से कार्रवाई की जरूरत है। अंतरराष्ट्रीय पटल पर एक सबसे महत्त्वपूर्ण खेल के रूप में कुश्ती के क्षेत्र में देश को आगे बढ़ाने की कमान जिस व्यक्ति के हाथ में है, अगर वही यौन उत्पीड़न जैसे जघन्य आरोपों के कठघरे में खड़ा है, तो उसके नेतृत्व में इस खेल और इसके खिलाड़ियों के भविष्य की कल्पना ही की जा सकती है। जरूरत इस बात की है आरोपी के रसूख पर ध्यान न देकर पीड़ितों की शिकायत पर पुलिस और कानून अपना काम ईमानदारी से करे।