29-01-2020 (Important News Clippings)
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Not Just Ayes
Instead of scrapping the dissenting legislative council, Andhra Pradesh must hear out its reservations
TOI Editorials
The circumstances under which Andhra Pradesh’s legislative assembly passed a resolution recommending abolition of the state’s legislative council, in fact makes out a strong case for retention of such councils. The assembly had just passed a bill creating an unprecedented three capitals for AP and the council referred it to a select committee rather than doing government’s bidding to immediately pass the bill. Such a critical legislation severely impacting the state’s administration and finances merited elaborate scrutiny. Even brute majority decisions need their checks and balances.
The legislative council where TDP enjoys the upper hand, unlike the assembly where YSRCP enjoys an overwhelming majority, could well have been acting in a partisan manner. However, threadbare analysis by a select committee shouldn’t be seen as a drag on governance. Often parliamentary/ legislative committee reports uncover landmines that ministers/ bureaucrats overlooked. Neither can the legislative council stall a bill indefinitely: no bill passed by the legislative assembly can be delayed beyond four months. So the council must be seen as a feedback loop that helps assemblies perfect their legislations, not a stumbling block.
Legislative councils, like Rajya Sabha, also allow political parties to utilise the services of domain experts who cannot make the cut in electoral politics. Whether this is being practised in states like UP, Bihar and Maharashtra which have councils is another matter. Such lateral entrants would address the paucity of talent that is evident in government, both at the national and state levels. A legislative council, not held hostage by electoral imperatives, could even become a bulwark against today’s blatant populism that is wrecking state finances or governance generally. If Parliament refuses to accede to its resolution, YSRCP must rethink its decision to scrap the legislative council.
Date:29-01-20
New Bodo Accord
It augurs peace. BJP should now avoid moves that revive separatist sentiments in Northeast
TOI Editorials
In a welcome development, a tripartite agreement has been inked between the Centre, Assam government and Bodo representatives, including all factions of the National Democratic Front of Bodoland (NDFB) and the All Bodo Students’ Union. The accord aims at ending the 34 year long Bodo movement in Assam that killed 4,000 people and saw several rounds of ethnic tension. Importantly, the latest accord – it is actually the third agreement signed with the Bodos till date – sees Bodo outfits dropping their demand for a separate state in favour of more autonomy and development assistance.
In this respect, the Bodoland Territorial Areas District (BTAD) will be reconstituted by including new Bodo-dominated villages and excluding those with predominantly non-tribal populations. Bodo language will be notified as an associate official language and over 1,500 NDFB men will surrender arms on January 30 and disband their outfits. Plus, Rs 1,500 crore shall be released over the next three years for Bodo areas. While all of this is positive, the accord doesn’t factor in one critical fact – that the majority in the designated Bodo areas are non-Bodos. Even if the BTAD is reconfigured, this fact is unlikely to change. And with land being at the core of the Bodo movement, not bringing on board the non-Bodo population could see a repeat of ethnic tensions down the line.
That said, if the accord delivers what it promises, it would lead to the end of one of Northeast’s long running insurgencies. But for the Northeast to truly enjoy fruits of peace and development, and become a bridge between India and Southeast Asia under New Delhi’s Act East policy, other insurgency movements too need a negotiated settlement. The big one of course is the Naga peace talks which seem to have stalled after New Delhi signed a framework agreement with Naga group NSCN (I-M) in August 2015. Integration of all Naga homelands, and the use of Naga flag and constitution – called Yezhabo – are sticking points here.
But what comes as an additional obstacle to Northeast peace in recent months is BJP’s Citizenship (Amendment) Act or (CAA) push, against which Assam is protesting and which has the potential to revive dying separatist movements. For example, it could give the non-talks faction of Ulfa a handle. Thus, BJP would do well to avoid moves like CAA that could light new fires in the Northeast.
शिक्षित और संभ्रांत वर्ग की डरावनी अनैतिकता
संपादकीय
पिछले पांच महीने के रिकॉर्ड को देखें तो भारत से हर 10 मिनट पर एक बाल यौन शोषण का पोर्न वीडियो सोशल मीडिया पर अपलोड किया जा रहा है। जिन क्षेत्रों से यह हो रहा है वे देश के बड़े और संपन्न शहर हैं। इनमें सबसे आगे राजधानी दिल्ली है। मुंबई, पुणे के अलावा उत्तर प्रदेश, गुजरात और पश्चिम बंगाल के बड़े शहर भी पीछे नहीं हैं। अमेरिका की एक जानी-मानी स्वयंसेवी संस्था ने खोए और शोषित बच्चों के कल्याण के लिए बने राष्ट्रीय केंद्र (एनसीएमईसी) से एेसे वीडियो और आंकड़ों को ट्रैक कर साझा किया। एनसीएमईसी ने राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो (एनसीआरबी) को हाल ही में यह जानकारी दी। इस तरह के वीडियो बनाने और अपलोड करने में अव्वल दिल्ली की शिक्षा दर और प्रति व्यक्ति आय भी देश के अधिकतर संपन्न शहरों में सबसे ज्यादा है। इससे साफ है कि यह सामाजिक मानसिक रुग्णता ग्रामीण इलाकों में नहीं है, बल्कि शिक्षित व संपन्न वर्ग में ज्यादा है। अमेरिकी संस्था की रिपोर्ट के अनुसार पिछले पांच महीने में कुल 25000 बाल यौन शोषण के वीडियो यहां से अपलोड किए गए, यानी हर 10 मिनट पर एक। सबसे बड़ी चिंता यह है कि केंद्र व राज्यों की पुलिस, साइबर क्राइम का बड़ा अमला, सोशल मीडिया पर मौजूद इतने बड़े अपराध से अभी तक इतना अनभिज्ञ कैसे है? देश के बड़े शहरों में यह सब हो रहा है, लेकिन यह जानकारी अमेरिका में बैठी स्वयंसेवी संस्था दे रही है। सवाल सिर्फ इतना नहीं है कि ये वीडियो खुलेआम सोशल साइट्स पर हैं, बल्कि डर यह सोचकर लगता है कि इस अपराध में लगे लोग किस तरह बच्चों को गायब करते हैं या कैसे उन्हें गरीबों के घर से ले जाते हैं। एनसीआरबी के पास उपलब्ध आंकड़ों से भी साफ है कि गरीबों के बच्चों के गायब होने की घटनाएं सबसे ज्यादा होती हैं। फिर जो राज्य सरकारें अपनी पुलिस के अधिकारों के लिए केंद्र से लड़ती हैं, वे इस अमानवीय बाल यौन शोषण से अनभिज्ञ क्यों हैं? बाल यौन शोषण (पीडोफीलिया) एक मानसिक बीमारी है। सवाल है कि क्या शिक्षा और संपन्नता इस बीमारी को बढ़ाती है? आज इसके निदान के लिए क्या एक राष्ट्रीय चेतना जगाने की जरूरत नहीं है ?
Date:29-01-20
माॅडर्न गॉड आस्था की कीमत वसूलना शुरू कर चुके हैं…
निमेश शर्मा, एडिटर नेशनल आइडिएशन न्यूज़रूम
गूगल को गॉड ऑफ इंटरनेट कहा जा सकता है। वो हर जगह है। अमर है। अनंत है। प्रार्थनाओं की तरह सवालों को सुनता भी है। हर सवाल का जवाब भी देता है। वह उन 15 फीसदी नए सवालों को भी उतने ही धैर्य से लेता है, जो पहली बार पूछे जाते हैं। दरअसल, गूगल टेक्नोलॉजी से जुड़ी वो आस्था है, जो हर घर में है। हर दफ्तर में है। पर आखिर ऐसा क्या है, जो गूगल को इतना ताकतवर बनाता है? हम असंख्य यूजर्स की इन्फॉर्मेशन ही गूगल की सबसे बड़ी ताकत है। हमसे जुड़ा इतना बड़ा डेटा किसी और कंपनी के पास नहीं है। अमेरिकी प्रोफेसर स्कॉट गेलोवे ने दुनिया की इन दिग्गज कंपनियों पर एक शोध किया है। जो बताता है कि किस तरह गूगल, अमेजॉन, फेसबुक जैसी कंपनियां हमारी भावनाओं से खेलती हैं। गेलोवे कहते हैं- बिना हमारे शरीर के किसी हिस्से या उससे जुड़ी भावनाओं को टारगेट किए बिना कोई कंपनी मल्टी बिलियन डॉलर की नहीं बन सकती। गूगल दिमाग के सवालों को शांत करता है। फेसबुक दिल की भावनाओं से जुड़ा है। आप तारीफें सुनना चाहते हैं। प्यार जताना चाहते हैं। अमेजाॅन पेट से जुड़ा है। खरीदने की हर भूख शांत करता है। पर आज गूगल की बात क्यों? दरअसल गूगल ने कुछ ऐसा किया है, जो सर्वोच्चता के उसके भाव को और मजबूती से स्थापित करता है। गूगल पहली बार कानूनी प्रक्रिया से जुड़े मामलों में अमेरिकी सरकार को इन्फॉर्मेशन देने के बदले पैसे चार्ज करने वाला है। साधारण शब्दों में कहें तो किसी यूज़र की कम्युनिकेशन डिटेल्स जैसी जानकारियां पाने के लिए करीब साढ़े 17 हजार रुपए चुकाने होंगे। इस फैसले को भारतीय नजरिए से देखेंगे तो इसकी विशालता और असर का अनुमान लगा पाएंगे। दुनिया में इंटरनेट के दो सबसे बड़े यूजर्स हैं। चीन और भारत। लेकिन दोनों में बहुत बड़ा बुनियादी फर्क है। भारत के पास सिर्फ यूजर्स हैं, वहीं चीन के पास अपना इंटरनेट मैकेनिज्म। 2018 की एक रिपोर्ट के अनुसार- भारत में 97.35% यूजर्स गूगल का इस्तेमाल करते हैं। वहीं चीन में सिर्फ डेढ़ फीसदी। चीन के पास खुद का सर्च इंजन- बायडू है। 70 फीसदी से ज्यादा चीनी उसी का इस्तेमाल करते हैं। भारत पूरी तरह गूगल पर निर्भर है। गूगल का यह फैसला अगर भारत आता है तो हमारी पुलिस जो पहले ही बजट के संकट से जूझती रहती है। क्या वो गूगल के इन सर्च वारंट्स की फीस चुका पाएगी? मुकदमों में लगातार डिजिटल एविडेंस पर जोर बढ़ रहा है। पुलिस की निर्भरता भी गूगल पर बढ़ती जा रही है। पिछले दिनों खबर आई- रूस ने भी अपना इंटरनेट सिस्टम डेवलप कर लिया है। यह तैयारी उस स्थिति के लिए है, जब अमेरिका का वर्ल्ड वाइड वेब में हस्तक्षेप बढ़ जाएगा। भारत में भी एक अच्छी शुरुआत हुई है। देश का अपना नेविगेशन सिस्टम- नाविक आ रहा है। लेकिन अफसोस यह है कि यहां हर शुरुआत किसी निराशाजक नतीजे के बाद शुरू होती है। रूस ने जब क्रायोजेनिक इंजन की टेक्नोलॉजी देने से इनकार किया तो इसरो ने अपनी टेक्नोलॉजी डेवलप की। जब अमेरिका ने कारगिल युद्ध के समय जीपीएस एक्सेस देने से इनकार किया, तब जाकर देश के अपने नेविगेशन पर काम शुरू हुआ। बहरहाल, आखिर क्यों हम सिर्फ एक बड़ा यूजर बेस बनकर रहना चाहते हैं? क्यों नहीं अपना मैकेनिज्म तैयार करें, जो भविष्य के भारत के लिए हो।
संकट का तापमान
संपादकीय
पर्यावरण के सामान्य चक्र में आ रहे बदलावों की अनदेखी या फिर उसमें जाने-अनजाने बाधा पहुंचाने का नतीजा क्या हो सकता है, अब यह सामने आने लगा है। हालांकि पिछले दो-तीन दशकों से लगातार इस मसले पर होने वाले अंतरराष्ट्रीय सम्मेलनों में गहरी चिंता जताई जाती रही है और जलवायु में होने वाली उथल-पुथल के व्यापक परिणामों को लेकर चेतावनियां भी जारी हुई हैं। विडंबना यह है कि लगभग सारी तस्वीर साफ होने के बावजूद शायद ही दुनिया भर में तापमान में वृद्धि रोकने को लेकर गंभीरता दिखाई देती है। नतीजतन, अब तक होने वाले अध्ययनों में जो आशंकाएं जताई जाती रहीं, वे अब प्रत्यक्ष खतरे के रूप में सामने आने लगी हैं। अंतरराष्ट्रीय शोध संस्थान मेकेंजी ग्लोबल इंस्टीट्यूट की हाल ही प्रकाशित रिपोर्ट के मुताबिक अगले दस सालों तक जलवायु परिवर्तन का असर विभिन्न देशों के सकल घरेलू उत्पाद पर भी साफतौर पर दिखने लगेगा। इसका कारण यह होगा कि मौसम में गरमी बढ़ेगी और उमस से पैदा होने वाली शारीरिक-मानसिक शिथिलता के चलते लोगों की कार्यक्षमता में कमी आने के साथ-साथ उनके काम करने के घंटों में तेजी से कमी आएगी। रिपोर्ट के मुताबिक आने वाले सालों में जलवायु परिवर्तन के संभावित खतरों की जद में शामिल एक सौ पांच देशों के प्राकृतिक एवं मानव संसाधन को प्रत्यक्ष जोखिम का सामना करना पड़ सकता है।
यह एक सामान्य-सी तस्वीर है, जिसे महज आशंका मान कर दरकिनार करना एक बड़े खतरे को न्योता देने की तरह होगा। पिछले कई सालों से दुनिया भर में मौसम में अप्रत्याशित उतार-चढ़ाव देखने को मिल रहे हैं। विश्व के किसी हिस्से में अपेक्षा से ज्यादा तापमान दर्ज किया जाता है तो कहीं गरमी के मौसम की अवधि लंबी हो रही है। पिघलते हिमनद अब यथार्थ हैं और एक बड़े खतरे के तौर पर देखे जा रहे हैं। इसकी वजह से समुद्र के जलस्तर में होने वाली मामूली बढ़ोतरी के नतीजे में पृथ्वी का क्या स्वरूप हो जा सकता है, इसकी कल्पना कोई भी कर सकता है। इन सबका असर मानव समाज पर किस तरह पड़ रहा है, यह भी किसी से छिपा नहीं है। सवाल है कि प्रत्यक्ष जोखिम से बचने या उससे लड़ने के मामले में ही जब कोई ठोस पहलकदमी नहीं हो पा रही है तो परोक्ष और दीर्घकालिक खतरों से कैसे निपटा जाएगा! लोगों की घटती कार्यक्षमता के कारण उनके काम की अवधि में कमी आने से व्यक्ति, परिवार के सामने जो आर्थिक चुनौतियां पैदा होंगी, श्रम उत्पादकता के साथ-साथ सकल घरेलू उत्पाद तक में जो कमी आएगी, उसके लिए कौन जिम्मेदार होगा?
खासतौर पर भारत की अर्थव्यवस्था पहले ही नाजुक हालत से गुजर रही है। ऐसे में अगर रिपोर्ट में जताई गई आशंका के मुताबिक श्रमिकों के काम के घंटों में बीस फीसद तक की कमी आने से भारतीय अर्थव्यवस्था में जीडीपी में 2.5 फीसद से 4.5 फीसद तक की गिरावट आई, तो क्या हम भावी आर्थिक चुनौतियों का अंदाजा लगा सकते हैं? बढ़ते वैश्विक तापमान के संदर्भ में लगभग हर मौके पर कार्बन डाइऑक्साइड के बेलगाम उत्सर्जन पर रोक लगाने को लेकर जताई जाने वाली चिंता के बरक्स हकीकत यह है कि इस समस्या की जटिलता में तेजी से बढ़ोतरी हो रही है। दुनिया के विकसित देश कार्बन उत्सर्जन के लिए सबसे ज्यादा जिम्मेदार हैं, लेकिन जैसे ही इसे जलवायु तापमान के सबसे गंभीर कारक के रूप में पेश किया जाता है, आरोप तीसरी दुनिया या विकासशील देशों पर थोप कर उन्हें ही इस पर लगाम लगाने की सलाह दी जाती है। क्या इसी तरह जिम्मेदारियों के टालमटोल से इस गंभीर और व्यापक समस्या का हल निकाला जा सकेगा ?
Date:28-01-20
शांति का रास्ता
संपादकीय
अलग बोडोलैंड राज्य की मांग को लेकर असम में लंबे समय से चले आ रहे हिंसात्मक आंदोलन ने अब शांति का रास्ता अपनाया है। बोडोलैंड आंदोलन चलाने वाले संगठन नेशनल डेमोक्रेटिक फ्रंट ऑफ बोडोलैंड (एनडीएफबी) ने सोमवार को केंद्र सरकार के साथ शांति समझौते की जो पहल की है, वह स्वागतयोग्य है। हालांकि इस तरह का शांति समझौता हो पाना कोई आसान काम नहीं था, लेकिन केंद्र और राज्य सरकार ने उग्रवादियों से बातचीत की पहल करते हुए जो सकारात्मक रुख दिखाया, उसी का नतीजा है कि एनडीएफबी जैसे खूंखार संगठन ने भी शांति और बातचीत के विकल्प को तवज्जो दी है। हालांकि उग्रवाद को लेकर सरकार के कड़े रुख से भी उग्रवादी संगठनों को यह कड़ा संदेश तो गया ही है कि अब और ज्यादा हिंसा के रास्ते पर नहीं चला जा सकता और सरकार भी झुकने वाली नहीं है। इसलिए अगर उग्रवादी गुट हथियार डाल कर कोई सकारात्मक कदम उठाते हैं तो यह प्रशंसनीय है। सोमवार को केंद्रीय गृह मंत्री की मौजूदगी में दिल्ली में असम के मुख्यमंत्री और एनडीएफबी के विभिन्न धड़ों के बीच हुए इस त्रिपक्षीय समझौते को असम में अमन की दिशा में सरकार की बड़ी कामयाबी भी माना जा रहा है।
असम में अलग बोडोलैंड राज्य की मांग पिछले चार दशक से चल रही है और ऑल बोडो स्टूडेंट्स यूनियन (आबसू), यूनाइटेड बोडो पीपुल्स ऑ र्गनाइजेशन जैसे संगठन इस आंदोलन के अगुआ रहे हैं। लेकिन पिछले चार दशक से असम जिस तरह की राजनीति से रूबरू होता रहा है, उसमें उग्रवादी गुटों को पनपने के मौके मिलते गए और सरकारों ने ऐसे मुद्दों को बातचीत से हल करने के बजाय सख्ती से कुचलने की रणनीति पर ज्यादा जोर दिया। उसी का नतीजा रहा कि आज तक पूर्वोत्तर में अलग राज्यों की मांग को लेकर उग्रवादी गुट सक्रिय हैं। एक मोटे अनुमान के मुताबिक बोडो उग्रवादियों की हिंसा में पिछले चार दशक में चार हजार से ज्यादा लोग मारे जा चुके हैं। बोडो ब्रह्मपुत्र घाटी के उत्तरी हिस्से में बसी असम की सबसे बड़ी जनजाति है। जब राज्य में इनकी जमीन पर दूसरे समुदायों का अनाधिकृत प्रवेश बढ़ने लगा और बोडो लोगों की जमीन और संसाधनों पर आंच आने लगी, तो असंतोष पनपना स्वाभाविक था। समस्या तब और गंभीर होती गई जब आंदोलन का नेतृत्व भी कई धड़ों में बंटता चला गया और फिर अलग-अलग गुटों ने हथियार उठाने को अंतिम विकल्प समझ लिया। ऐसे में सरकार किससे बात करे, या कौन सा धड़ा सरकार से बात करे, यह अड़चन बनी रही। एक-दो धड़े साथ होते हैं तो तीसरा उनके विरोध में आ जाता है और समस्या सुलझने के बजाय उलझती चली जाती है। यही बोडोलैंड आंदोलन के साथ भी हुआ।
फिलहाल केंद्र, राज्य और एनडीएफबी के बीच जो समझौता हुआ है, उसमें सबसे बड़ी बात तो यह है कि अब एनडीएफबी ने बोडोलैंड की मांग छोड़ दी है। एनडीएफबी के डेढ़ हजार से ज्यादा उग्रवादी तीस जनवरी को हथियार डाल देंगे। पर केंद्र और राज्य सरकार के समक्ष बड़ी चुनौती ये है कि वह बोडो क्षेत्रों में विकास के काम तत्काल शुरू करे। बोडोलैंड क्षेत्रीय परिषद् (बीटीसी) को और अधिकार दिए जाएं। मूल बात विकास की है। अगर सरकार बोडो इलाकों के आर्थिक विकास और राजनीतिक मसलों पर ध्यान दे, नौजवानों को रोजगार मिले तो कोई कारण नहीं कि बोडो समुदाय हथियार उठाने को मजबूर हो। यह समझौता शांति की दिशा में बड़ी पहल है, इसलिए हर पक्ष को अमल भी ईमानदारी से करना होगा।
Crime and Politics
Successive judgments to bar criminal candidates from contesting have done little
EDITORIAL
The Supreme Court has taken a timely decision by agreeing to hear a plea from the Election Commission of India (ECI) to direct political parties to not field candidates with criminal antecedents. The immediate provocation is the finding that 46% of Members of Parliament have criminal records. While the number might be inflated as many politicians tend to be charged with relatively minor offences —“unlawful assembly” and “defamation” — the real worry is that the current cohort of Lok Sabha MPs has the highest (29%) proportion of those with serious declared criminal cases compared to its recent predecessors. Researchers have found that such candidates with serious records seem to do well despite their public image, largely due to their ability to finance their own elections and bring substantive resources to their respective parties. Some voters tend to view such candidates through a narrow prism: of being able to represent their interests by hook or by crook. Others do not seek to punish these candidates in instances where they are in contest with other candidates with similar records. Either way, these unhealthy tendencies in the democratic system reflect a poor image of the nature of India’s state institutions and the quality of its elected representatives.
The Supreme Court has come up with a series of landmark judgments on addressing this issue. It removed the statutory protection of convicted legislators from immediate disqualification in 2013, and in 2014, directed the completion of trials involving elected representatives within a year. In 2017, it asked the Centre to frame a scheme to appoint special courts to exclusively try cases against politicians, and for political parties to publicise pending criminal cases faced by their candidates in 2018. But these have not been a deterrent to legislators with dubious credentials. Perhaps what would do the trick is a rule that disallows candidates against whom charges have been framed in court for serious offences, but this is something for Parliament to consider as an amendment to the Representation of the People Act, 1951. This denouement, however, is still a pie in the sky given the composition of the Lower House with a number of representatives facing serious cases. Ultimately, this is a consequence of a structural problem in Indian democracy and the nature of the Indian state. While formally, the institutions of the state are present and subject to the electoral will of the people, substantively, they are still relatively weak and lackadaisical in governance and delivery of public goods, which has allowed cynical voters to elect candidates despite their dubious credentials and for their ability to work on a patronage system. While judicial pronouncements on making it difficult for criminal candidates to contest are necessary, only enhanced awareness and increased democratic participation could create the right conditions for the decriminalisation of politics.