27-08-2019 (Important News Clippings)
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Date:27-08-19
Jalan Panel Yields Sensible Balance
Government gets some funds , RBI stays strong
ET Editorials
The Bimal Jalan panel on reworking Reserve Bank of India’s (RBI) Economic Capital Framework has done its work and yielded some handy, additional funds for the Centre’s kitty. At the same time, the recommendations have steered clear of raiding RBI’s capital to fund the central government’s financing programme. This is a welcome development, and one that retains RBI’s financial integrity unscathed, even if it would leave some quarters dissatisfied, salivating as they had been for close to Rs 5 lakh crore of excess reserves some estimates claimed RBI had to spare. In the current scenario, Rs 1,48,051 crore that the government stands to get from RBI, Rs 58,000 crore more than budgeted, as a result of the committee’s recalibration of the central bank’s reserve requirements, is a welcome contribution to the fisc.
What the committee has done, essentially, is to leave the revaluation reserves alone, instead of seeing them also as a possible source of excess funds available with RBI for transfer to the government. The committee makes the explicit observation that there is only a one-way fungibility between realised equity and revaluation reserves, in the sense that, while a shortfall, if any, in revaluation balances vis-à-vis market risk provisioning requirements could be met through increased risk provisioning from net income, the reverse, i.e., the use of surplus in revaluation balances over market risk provisioning requirements for covering shortfall in provisions for other risks, is not permitted. This should address concerns about RBI’s financial integrity being sacrificed at the altar of the government. That said, it must be recognised that the application of the Jalan committee’s new framework has led the RBI board to not add any of its net income for 2018-19 to realised equity and, instead, transfer it all to the government, while satisfying capital adequacy.
The government should utilise such transfers from RBI to recapitalise banks. That would go down well with all observers, including rating agencies, and increase loanable resources in the system.
Date:27-08-19
पहला कदम
संपादकीय
वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण ने शुक्रवार को कई ऐसे प्रशासनिक और कर संबंधी बदलावों की घोषणा की जिनका लक्ष्य देश की ठिठकी हुई अर्थव्यवस्था में नई जान फूंकना है। मंदी को देखते हुए सरकार की ओर से ऐसे कुछ कदमों की अत्यंत आवश्यकता थी। बहरहाल, फिलहाल ऐसी राजकोषीय गुंजाइश नहीं है जिसके तहत किसी तरह का आर्थिक प्रोत्साहन प्रदान किया जा सके। यह राहत की बात है कि सरकार अतिरिक्त व्यय को लेकर सचेत है और सीमित राजकोषीय प्रभाव वाले उपायों पर ही ध्यान केंद्रित कर रही है। यह बात भी काबिले तारीफ है कि सरकार सुनने को तैयार है और वह मान रही है कि देश की अर्थव्यवस्था में दिक्कतें हैं।
सरकार ने जिन उपायों की घोषणा की है उनमें क्षेत्र आधारित घोषणाएं भी हैं और सामान्य उपाय भी। इन घोषणाओं में शायद सबसे अहम घोषणा वह थी जिसमें कहा गया कि पंजीकृत सूक्ष्म, लघु एवं मझोले उपक्रमों (एमएसएमई) का लंबित वस्तु एवं सेवा कर (जीएसटी) बकाया 30 दिन की तय अवधि में निपटाया जाएगा। इतना ही नहीं भविष्य में तमाम नए बकाये को 60 दिन के भीतर निपटाया जाएगा। आशा है कि ऐसा करने से रोजगार उत्पन्न करने वाले क्षेत्रों में कार्यशील पूंजी की कमी कुछ हद तक दूर होगी। सरकार को वित्तीय तंत्र को और सुगम बनाना होगा। फिलहाल यह तंत्र सरकारी बैंकों के तनाव और आईएलऐंडएफएस संकट के परेशानी में नजर आ रहा है। बैंकरों को अतिउत्साही जांच आदि से कुछ बचाव उपलब्ध कराया गया है और सरकारी बैंकों में नई पूंजी डाली जा रही है। इसकी व्यवस्था बजट में ही की जा चुकी थी और सरकार का मानना है कि इससे बैंकों को वृद्धि के लिए कुछ पूंजी मिलेगी। बीते कई दशकों के सबसे बुरे वर्ष का सामना कर रहे वाहन क्षेत्र को भी कुछ राहत दी जा रही है, हालांकि यह राहत उद्योग की इच्छा के मुताबिक कर कटौती के रूप में नहीं दी जा रही है। इसकी जगह सरकार ने उच्च पंजीयन शुल्क को फिलहाल टाल दिया है और इस क्षेत्र को प्रभावित कर रही कुछ नियामकीय अनिश्चितता को दूर किया है।
कुछ हालिया निर्णयों को पूरी तरह या आंशिक तौर पर वापस लिया गया है। उदाहरण के लिए मंत्री ने दोहराया कि वित्त मंत्रालय कानून की उस धारा को अधिसूचित नहीं करने जा रहा है जिसके तहत कारोबारी सामाजिक उत्तरदायित्व के नियमों के उल्लंघन को आपराधिक करार दिया जाता। पहली बात तो यह कि इसे कभी पारित ही नहीं होना चाहिए था। आयकर अधिभार में किए गए जिस इजाफे ने विदेशी पोर्टफोलियो निवेशकों के एक धड़े को प्रभावित किया था और बाजार में एक किस्म की अफरातफरी पैदा की थी उसे भी आंशिक तौर पर बदला गया है। सरकार को इसे पूरी तरह वापस ले लेना था क्योंकि यह कर ढांचे में जटिलताएं पैदा करेगा। कुल मिलाकर इनमें से कई प्रावधान सुखद हैं। खासतौर पर वित्त मंत्री द्वारा संपत्ति निर्माण करने वालों के संरक्षण और कर मांग में पारदर्शिता बढ़ाने जैसी बातें।
ये उपाय दर्शाते हैं कि सरकार अब संकट को नकारने के दौर से बाहर आ चुकी है और यह मान रही है कि देश की अर्थव्यवस्था गंभीर समस्याओं से दो चार है। इतना ही नहीं वह बिना राजकोषीय संतुलन को छेड़े चक्रीय समस्याओं को हल भी करना चाहती है।
जहां तक बात है गहन ढांचागत दिक्कतों की तो उन्हें हल करना शेष है और निवेश भी बढ़ाना है। इसके लिए केंद्र सरकार को काफी काम करना होगा। उसे राज्यों के साथ मिलकर उत्पादन कारक बाजार के लंबित सुधारों को अंजाम देना होगा। सरकार ने आर्थिक मंदी दूर करने की प्रतिबद्धता दिखाई है अब उसे ढांचागत सुधारों की ओर बढऩा चाहिए।
Date:27-08-19
मंदी की दस्तक , कड़े कदमों की जरुरत
डॉ. विकास सिंह , (लेखक मैनेजमेंट गुरु और वित्तीय एवं समग्र विकास के विशेषज्ञ हैं)
भारतीय अर्थव्यवस्था पूरी तरह से मंदी की जकड़न में है। यह एक ऐसा सच है जिसे बहुत मुखर और आशावादी लोग भी अब हिचकिचाहट के साथ स्वीकार कर रहे हैं। मैक्रो और माइक्रो लेवल पर हमारी अर्थव्यवस्था को कई तरीके की चुनौतियां पेश हो रही हैं जो इस मंदी को और धार दे रही हैं। इस विकट स्थिति को समझने के लिए हमारे सामने प्रमाण भी मौजूद हैं। भारतीय अर्थव्यवस्था के 18 मैक्रो संकेतकों में से 11 पिछले पांच साल के औसत से नीचे हैं। ये हमारे लिए चिंता की बात है। निराशा पैदा करने वाले ये संकेतक समग्र उपभोक्ता क्षेत्र के साथ समान रूप से उद्योग को भी प्रभावित कर रहे हैं। मूलभूत संकेतकों में से एक मांग और आपूर्ति में गिरावट देखी जा रही है।
मांग में कमी, सुस्त होता कारोबार
आर्थिक विकास को बढ़ाने वाले चार संकेतक निजी निवेश, सरकारी खर्च, घरेलू उपभोग और निर्यात भी निढाल पड़े हुए हैं। हतोत्साहित करने वाली उपभोक्ता मांग, सुस्त होता कारोबार, तरलता की कमी और मुरझाया निवेश इस आर्थिक मंदी के कारक और असर दोनों हैं। जीडीपी के 60 फीसद हिस्सेदारी वाली कम खपत स्पष्ट बताती है कि बाजार में मांग बिल्कुल नहीं है। इस मांग को पुनर्जीवित करना बहुत जरूरी है। भारतीय अर्थव्यवस्था का ध्वजवाहक क्षेत्र रियल इस्टेट जो करीब 300 छोटे-बड़े उद्योगों से मिलकर बनता है, आज मरणासन्न है। देश की अर्थव्यवस्था के पहिए को तेजी से चलाने के लिए जिम्मेदार कारक निवेश खुद ही खस्ताहाल है। अंतरराष्ट्रीय सुस्ती भारत की कोई मदद नहीं कर पा रही है।
अर्थव्यवस्थाएं ने छेड़ा ट्रेड वार
संरक्षणवाद की हिमायती बड़ी अर्थव्यवस्थाएं खुद ही ट्रेड वार छेड़े हुए हैं। लचीले रुख के साथ भी बहुत सारे कदम उठाने की जरूरत है। अर्थव्यवस्था को नया रूप देने में हमारी परख, डिजायन और डिलीवर की क्षमता हमारे प्रमुख हथियार होने चाहिए। प्रचलित श्रम कानूनों, जटिल टैक्स प्रणाली और नौकरशाही की बाधाएं प्रतिस्पर्धा को क्षीण करती हैं। मुद्रा के अवमूल्यन पर उठाए जाने वाले हमारे कदम अपर्याप्त साबित होते हैं। इंफ्रास्ट्रक्चर इन सबके बीच सफेद हाथी साबित होता है। न्यायिक और प्रशासनिक सुधार बहुत जरूरी है जिससे टिकाऊ विकास के लिए कानूनी प्रक्रियाओं और अड़चनों को दूर किया जा सके।
संरचनात्मक सुधारों ने सोख ली पूंजी
परंपरागत सोच-समझ के विपरीत और विरोधाभास से भरे कुछ अर्थशास्त्रियों के तर्क हैं कि जीएसटी, नोटबंदी, डिजिटलीकरण, बैंकिंग, कारोबार को सुव्यवस्थित करने जैसे संरचनात्मक सुधारों ने पूंजी को सोख लिया और निवेश को कमजोर कर दिया लिहाजा अर्थव्यवस्था की सुस्ती का दौर शुरू हुआ। ग्रोथ को बढ़ाने वाले उपायों के लिए अक्सर एहतियात बरतने की जरूरत होती है। श्रमसाध्य नियामक सुधार विध्वंसक भी साबित होते हैं। इतिहास बताता है कि संरचनागत सुधारों के कुछ तिमाही के बाद अर्थव्यवस्था को लाभ मिलना शुरू होता है जबकि कुछ और समय लगता है जब वे लाभ दिखने भी लगते हैं।
मांग और आपूर्ति में संतुलन की जरूरत
संरचनागत सुधार कारोबार की सुगमता को बढ़ाते हैं और मूल्यों में वृद्धि करते हैं फिर भी उनका लाभ बहुत असर नहीं दिखा पाता। विकासशील अर्थव्यवस्था में सरकार उद्योगों की भागीदार होती है। ग्रोथ नीतियों में मांग और आपूर्ति के पक्षों के बीच संतुलन साधने की जरूरत होती है। असंतुलित बाजार ताकत में मुक्त बाजार अक्सर गलत नतीजे देते हैं। अंतत: उनका नतीजा प्रतिकूल निकलता है। लिहाजा विनियमन एकमात्र समाधान नहीं है। मैन्युफैक्र्चंरग क्षेत्र नई उम्मीद जगाता है। वैश्विक मैन्युफैक्र्चंरग क्षेत्र में हमारी हिस्सेदारी नाममात्र दो फीसद की है। एक शोध के अनुसार हर एक फीसद मैन्युफैक्र्चंरग हिस्सेदारी में वृद्धि 50 लाख रोजगार में वृद्धि करता है।
मध्य वर्ग के बटंए की हो चिंता
हमारा सिस्टम नए उद्यम और उद्यमियों को प्रोत्साहन देने वाला होना चाहिए। ये लोग जॉब क्रिएटर्स (रोजगार सृजक) होते हैं और किसी अर्थव्यवस्था की धुरी कहलाते हैं। इसी तरह ग्रामीण इंफ्रास्ट्रक्चर में निवेश, समानुपातिक भू अधिग्रहण और बेहतर खेती-किसानी टिकाऊ कारोबारी माहौल तैयार करते हैं। इससे समानुपातिक वृद्धि होती है और 15 गुना ज्यादा लाभ अर्थव्यवस्था को मिलता है। इन सबके बीच मध्य वर्ग को नहीं भूलना चाहिए। जिनके वोटों के बूते सरकारें राज करती हैं, उनके बटुए की चिंता स्वाभाविक होनी चाहिए।
नौकरियों के छिनने का खतरा
सरकार की अकर्मण्यता से नौकरियों के छिनने का खतरा पैदा होता है जिससे सामाजिक अशांति पनपती है और लिहाजा सरकार को उसकी कीमत चुकानी होती है। किसी अर्थव्यवस्था को सुधारने के लिए सर्जरी के साथ विजन की बहुत दरकार होती है। दोनों कदम समान रूप से उठाए जाने चाहिए। एक कदम से खालीपन को भरा जाना चाहिए तो दूसरे का इस्तेमाल उससे बाहर निकलने में करना चाहिए। हमारे दूरदर्शी प्रधानमंत्री को किसी ऐसे ही प्लंबर पर भरोसा करना चाहिए जो अर्थव्यवस्था की दिक्कतों को दूर कर सके।
बड़े और निर्णायक सुधार की दरकार
नौ फीसद विकास दर के लिए अर्थव्यवस्था में बड़े और निर्णायक सुधार की दरकार है। यह अर्थव्यवस्था के उस चरम बिंदु (इनफ्लेक्शन प्वाइंट) तक जरूरी है जिसमें वह इतना कमाई और बचत करने में सक्षम होती है जो सामाजिक खर्चे के लिए पर्याप्त होता है। इस तरीके से ही गरीबी का खात्मा होता है और समाज के लोग सम्मान की जिंदगी जीने में सक्षम होते हैं। हमारी अर्थव्यवस्था बुरे दौर से गुजर रही है। अब इसमें उम्मीद की लौ तभी प्रदीप्त होगी जब सरकार इसमें बड़े पैमाने पर वित्त को डाले। अर्थव्यवस्था में सरकार के खर्च की हिस्सेदारी करीब 12 फीसद है। इस खर्च में वृद्धि के मायने उसे अधिक धन एकत्र की जरूरत होगी जो कि सुस्त होती इस अर्थव्यवस्था में संभव नहीं दिखता।
Date:26-08-19
A Two-Way Street
India and France have equal stakes in building a strong partnership on bilateral, regional and global issues.
Editorial
Prime Minister Narendra Modi’s fourth visit to France in a little over five years marks the consolidation of a relationship that had offered much promise for so long. Although the two sides had declared a strategic partnership way back in 1998, Delhi and Paris had struggled to take full advantage of its many possibilities. That has begun to change under Modi and President Emmanuel Macron. If Macron’s visit to Delhi last year raised the level of ambition, Modi’s visit last week saw the intensification of efforts to advance civil nuclear cooperation, enhance engagement in civilian and security dimensions of outer space, and outline a new road map for bilateral cooperation in cybersecurity and digital technology. Framing this bilateral cooperation in strategic areas is the deepening political cooperation on regional issues.
French empathy for India’s concerns on cross-border terrorism and the external destabilisation of Kashmir has seen consequential results. Paris has offered unstinted support for India on targeting the sources of violent extremism in Pakistan and helped limit the international backlash against Delhi’s effort to rewrite the rules of engagement in J&K. This stands in contrast to Russia’s growing ambivalence on the issues between India and Pakistan. Russia’s deepening ties with China, amid sharpening tensions between Delhi and Beijing, are casting a shadow over its South Asia policies. The US, which had made a definitive tilt towards India on its disputes with Pakistan during the last two decades, appears shaky under President Donald Trump. Seeking to extricate itself from Afghanistan, it appears eager to please Pakistan and Trump is serving up reheated illusions about mediating the Kashmir question between Delhi and Islamabad.
The relations between Delhi and Paris are not a one-way street. France has reasons to see Delhi as a strong partner on bilateral, regional and global issues. A rapidly expanding economy makes India a valuable commercial partner— in a range of sectors including high technology, defence and the unfolding digital revolution. On the regional front, Paris is as concerned as Delhi at the rising Chinese profile in the Indo-Pacific. It would like to work with India to offer credible alternatives to Chinese economic and military assistance in the region. On the international front, France is deeply concerned about the breakdown of the global order under relentless assault from Trump’s unilateralism. Macron’s decision to have Modi as a special invitee at the G-7 summit is part of the French effort to mobilise India’s political weight in building a new “alliance for multilateralism” with like-minded countries. Modi and Macron have equal stakes in building on this agenda.