27-07-2021 (Important News Clippings)
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Date:27-07-21
Wounded mountains
Tourist tragedy in Himachal Pradesh points to the importance of preserving ecology
Editorial
The tragic death of nine tourists in a landslip in Kinnaur district of Himachal Pradesh is another pointer to the fragility of the ecology of the Himalayan States. Extraordinarily heavy rain pummelled the State recently, leaving the hill slopes unstable and causing floods in built-up areas including Dharamshala. The descending boulders from destabilised terrain, which crushed a bridge like a matchstick, are a source of worry even for cautious local residents, and for unwary visitors, such as the tourists travelling in a van, they can turn into sudden disaster. Himachal is famed for its scenic vistas and welcoming summer climate, and drew a few hundred thousand tourists in June this year as States began relaxing the controls for COVID-19. There was justified alarm at the prospect of a fresh surge in infections, prompting Chief Minister Jai Ram Thakur to appeal for COVID-appropriate behaviour. Unfortunately, there was not enough vigil against travel to risky areas, in the wake of a disastrous year for tourism, resulting in the mishap in Kinnaur’s Basteri area. What should worry Himachal, and neighbouring Uttarakhand, is that the States may be entering a phase of irreversible decline because of losses to their ecology; frequent landslides may become inevitable. Bootstrapping an incompatible model of development in the hills, represented by big hydroelectric projects and large-scale construction activity involving destruction of forests and damming of rivers, is an invitation to harm.
Mega hydropower, which Himachal Pradesh is working to tap as a significant source of “green” power that substitutes energy from fossil fuels, could alter several aspects of ecology, rendering it vulnerable to the effects of extreme events such as cloudbursts, flash floods, landslides and earthquakes. The parliamentary Standing Committee on Energy during 2018-19 noted that the State could more than double its existing harnessed hydropower potential of 10,547 MW. Kinnaur is a focus point for such development, centred around the potential of the glacially-fed Sutlej valley, but one scientific estimate warns that avaricious tapping of the river through all planned projects would impound nearly a quarter of its waters in dams, and divert a staggering 72% through tunnels. Other researchers, studying the 2015 Nepal earthquake, point to high seismicity causing fatal landslides and severe damage to hydropower structures in the Himalayas; the cost of power produced was underestimated, while the potential was overestimated. Evidently, it is impossible to assign a real value to the costs to people and communities, together with the loss of pristine forests that weak afforestation programmes cannot replace. As catastrophic weather events inflict frequent, heavy losses, Himachal Pradesh and other Himalayan States can only watch their ecological base erode. Changing course may yet preserve a lot of their natural riches.
Date:27-07-21
भारत अफगानिस्तान की हकीकत स्वीकारे
शेखर गुप्ता, ( एडिटर-इन-चीफ, ‘द प्रिन्ट’)
नई दिल्ली और काबुल के बीच गतिविधियां तेज हो गई हैं। तालिबान आगे बढ़ रहा है। इसका भारत पर क्या असर होगा? क्या बाइडेन द्वारा अफगानिस्तान से कदम वापस खींचने पर भारत को निराश होना चाहिए? या नए घटनाक्रम में उसके लिए अवसर छिपे हैं? क्या तालिबान से तनावपूर्ण संबंध निश्चित है? क्या यह मान कर चलें कि वे पाकिस्तान के इशारे पर चलने वाले पेशेवर इस्लामी सिपाही ही बने रहेंगे? क्या तालिबान भारत का दुश्मन है, उससे युद्ध लड़ने जा रहा है या हमारे खिलाफ पाकिस्तान का साथ देने जा रहा है? क्या तालिबानी भारत को एक इस्लामी मुल्क में तब्दील कर पाएंगे? तालिबानी दक़ियानूसी, बर्बर, महिला विरोधी, गैरभरोसेमंद, या और बुरे हो सकते हैं, लेकिन मूर्ख या आत्मघाती नहीं हैं। वरना वे दो दशकों तक लड़कर अमेरिका को परास्त न कर पाते।
भारत के पश्चिम क्षेत्र को जो रणनीतिक नज़र पाकिस्तानी चश्मे से देखती है उसका एक उलटा पहलू है। हम इस बात से परेशान हो जाते हैं कि अमेरिका के वापस लौटने से पाकिस्तान को रणनीतिक गहराई हासिल हो गई है। इस तरह का मुगालता रावलपिंडी में जनरल हेडक्वार्टर में बैठे ‘बुद्धिमान’ ही पाल सकते हैं। इन लोगों ने ही 1986-87 के बाद से यह यह सपना देखना शुरू किया। लेकिन आज दुनिया बदल चुकी है और इसके साथ रणनीतिक तथा सामरिक तस्वीर भी बदल चुकी है। परमाणु हथियार आ चुके हैं। अगर कुछ पाकिस्तान जनरल अभी भी यह ख्वाब देख रहे हों कि वे हिंदुकुश होते हुए अफगानिस्तान पहुंच सकते हैं या वहां कोई रणनीतिक जमावड़ा कर सकते हैं, तो वे निश्चित ही बहुत भोले हैं।
बाइडेन अफगानिस्तान में जीत का खोखला दावा कर रहे हैं कि ‘हमने लक्ष्य हासिल कर लिया’। लेकिन बाइडेन ने वह अपमानजनक हकीकत कबूल ली है जिसे कबूल करने बुश तैयार नहीं हैं। वह यह कि अफगानिस्तान रॉक बैंड ईगल्स का कोई होटल कैलिफोर्निया नहीं है जहां आप मनमर्जी से जा सकते हैं और बाहर आ सकते हैं। अमेरिका एक शून्य छोड़कर गया है। तालिबान हर दिन कब्जा बढ़ा रहे हैं। देखना यह है कि पाकिस्तान का क्या होता है। अगर लड़ाई लंबी चली तो फौरन फायदे हासिल करने की उसकी उम्मीदें खत्म हो जाएंगी। युद्ध से त्रस्त शरणार्थी, पैदल ही डूरंड रेखा पार करने लगेंगे। तालिबान अगर योद्धाओं से सौदे करके इस लड़ाई को जल्दी निबटा देते हैं तब भी वे पाकिस्तान को कितना नियंत्रण सौंपेंगे? आप कह सकते हैं कि वे चीन और पाकिस्तान के बीच की चक्की में फंस जाएंगे। लेकिन अफगानिस्तान का इतिहास ऐसा नहीं रहा है। वह इस क्षेत्र में दिलचस्पी रखने वाली ईरान और रूस जैसी ताकतों से सुलह कर सकता है।
हकीकत यह है कि भारत तालिबान से बात कर रहा है, पर इसका ढोल नहीं पीट रहा। इसकी कोई संभावना नहीं है कि ग़नी की सरकार तालिबान को युद्ध में हरा पाएगी। भारत के लिए सबसे अच्छी बात यही होगी कि बातचीत से कोई यथार्थपरक समझौता हो जाए जिससे शांति बहाल हो और सत्ता का बंटवारा हो। भारत वहां कुछ वजन तो रखता है लेकिन इतना नहीं कि वह सैन्य टकराव को प्रभावित कर सके। भूगोल और भू-राजनीति इसमें आड़े आती है। रणनीतिक रूप से यह सबसे व्यावहारिक रास्ता है। तालिबान को भारत से लड़ने की कोई जरूरत नहीं है। वे हमारे खिलाफ पाकिस्तान का युद्ध तो नहीं ही लड़ेंगे।
भारत को इस रास्ते पर चलना है तो मोदी सरकार को भी चश्मा हटाकर देखना पड़ेगा कि किसी राजनीतिक ताकत को सिर्फ इसलिए दुश्मन नहीं मान सकते कि वह इस्लामी कट्टरपंथी है। हमें मालूम है कि यह उसकी चुनावी रणनीति का केंद्रीय मुद्दा है। लेकिन भारत के इर्दगिर्द दुनिया बदल गई है। उसे भी खुद को बदलना पड़ेगा।
पाक के मामले में दबाव की गुंजाइश फिलहाल खत्म है। मोदी सरकार ने दुनिया में सुन्नी कट्टरपंथ के रक्षक सऊदी अरब की ओर भी हाथ बढ़ाया है। दुश्मन के दोस्त से दोस्ती करने के सिद्धांत का पालन करते हुए यूएई की ओर भी दोस्ती का हाथ बढ़ाया है। लेकिन पूरी संभावना यही है कि अफगानिस्तान वैसा इस्लामी अमीरात नहीं बनेगा जैसा तालिबान चाहता है।ऐसा हुआ भी, तो क्या भारत उसे तेल से रहित सऊदी अरब जैसा मान सकता है? एक और ऐसी ताकत, जिससे इसलिए दोस्ती की जा सकती है कि वह दुश्मन की दोस्त है? यह संभव है और विवेकपूर्ण भी। इसके लिए सिर्फ भाजपा को घरेलू राजनीति में परिवर्तन करना होगा। उसके लिए चुनौती ऐसा फॉर्मूला तैयार करने की होगी, जो हिंदू-मुस्लिम ध्रुवीकरण के फॉर्मूले से भिन्न हो।
Date:27-07-21
आर्थिक सुधार के 30 वर्ष: आर्थिक स्वतंत्रता में भारत अब भी पीछे
रुचिर शर्मा, ( ग्लोबल इन्वेस्टर, बेस्टसेलिंग राइटर और द न्यूयॉर्क टाइम्स के स्तंभकार )
मैं 17 वर्ष का था। मुझे एक बिजनेस पेपर में लेख लिखने का मौका मिला था, जब मुझे लोकसभा की स्पीकर गैलरी का पास मिला था, जहां जुलाई 1991 में मैंने मनमोहन सिंह का पहला बजट भाषण सुना। राजीव गांधी की हत्या के बाद भारत मुश्किल दौर से गुजर रहा था, जबकि नई सरकार के पास समय कम था, जिसके पास विदेशी कर्ज चुकाने के लिए फंड खत्म होता जा रहा था।
लेकिन बदलाव की हवा का रुख सिंह के पक्ष में था। सोवियत साम्यवाद हाल ही में फूटा था, पूंजीवाद बढ़ रहा था। भारत के लिए भी एक मुक्त बाजार सुधार पैकेज के मूल सिद्धांतों को लागू करने के लिए मुफीद समय था।
मुझे सिंह का रोमांचक भाषण याद है। उनके शब्दों में डर और सुधारों से होने वाली वास्तविक आर्थिक प्रगति की उम्मीद, दोनों थे। 31 पेज लंबे भाषण का ज्यादातर हिस्सा उस भाषा में था, जो अपने दौर के नए प्रबुद्ध स्वर को दर्शाता थी, ‘हमारी रणनीति के केंद्र में विश्वसनीय वित्तीय अनुकूलन और व्यापक आर्थिक स्थिरता होनी चाहिए।’
भारत में सुधार की गति कुछ समय ही रही। अर्थव्यवस्था के पटरी पर आने के बाद राजनीति फिर अर्थशास्त्र पर हावी हो गई। राज्यों में मिली हार के बाद कांग्रेस के सदस्य ही सुधार के मोल पर सवाल उठाने लगे। सिंह का भी उत्साह ठंडा पड़ गया और बाद में बतौर प्रधानमंत्री भी उन्होंने उदारीकरण से ज्यादा कल्याणवाद पर ध्यान दिया।
कई वर्ष बाद सिंह के एक सलाहकार ने मुझे बताया कि उन्होंने 1993 में सबसे बड़ी गलती यह की कि आईएमएफ से लिया गया लोन चुकाने की जल्दबाजी की। जब तक लोन बाकी रहता, सरकार कह सकती कि सुधार के लिए ऋणदाताओं का दबाव है। इस बहाने के बिना सख्त कदम उठाना मुश्किल था। ऐसा सिर्फ भारत के साथ नहीं हुआ। बहुत कम सरकारें बिना दबाव के बदलाव लागू कर पाई हैं। यह भारत के सुधार के विचित्र इतिहास में एक जरूरी और सबसे यादगार दौर था, लेकिन अनोखा नहीं। भारत ने संकट के बाद के सुधारों को पहले 80 के दशक की शुरुआत में उन्नत किया था, और 2000 के दशक की शुरुआत और 2010 की शुरुआत में फिर ऐसा किया।
पूरे समय में, भारत उन व्यापक सुधारों का प्रतिरोधी रहा, जिसने चीन सहित कई पूर्वी एशियाई देशों की अर्थव्यवस्थाओं को बढ़ावा दिया। अक्सर भारतीय राजनेताओं ने व्यक्तिगत बिजनेस या उद्योग की मदद के लिए तैयार उपायों को आर्थिक सुधार के रूप में पेश किया, जबकि वास्तव में ये उपाय प्रतिस्पर्धा और वृद्धि को घटाने वाले थे। बिजनेस समर्थक होना और पूंजीवाद समर्थक होना समान नहीं है। कांग्रेस के उत्तराधिकारी भी उन्हीं समाजवादी आदर्शों में डूबे हैं, जो राज्य के हस्तक्षेप का द्वार खोलते हैं। हर दशक में सुधारों का दौर आता है, फिर भी भारत आर्थिक स्वतंत्रता की हेरिटेज फाउंडेशन रैंकिंग में 178 देशों में सबसे निचले तीन देशों में है।
सिंह के भाषण के 30 वर्ष बाद हम फिर ‘दोराहे’ पर हैं। महामारी में भारत के पास उस स्तर पर प्रोत्साहन लागू करने के लिए फंड नहीं है, जैसा कई विकसित देश कर रहे हैं। इसलिए फिर सुधार का दबाव है। लेकिन समय बदल गया है। अब ‘आत्मनिर्भरता’ उन देशों में भी नया सिद्धांत है, जिन्हें वैश्वीकरण से बड़ा लाभ हुआ। राजकोषीय समेकन बाहर हुआ, हावी सरकार फिर चलन में है। ज्यादातर आधुनिक अर्थव्यवस्थाएं अब विकृत पूंजीवाद पर चल रही है, जिसमें लगातार प्रोत्साहन और राहत पैकेज दिए जाते हैं, जो कि अमीरों के लिए समाजवाद का स्वरूप है।
भारत के लिए मेरी उम्मीदें अब राजनीति से बाहर ही ज्यादा हैं। सबसे ऊपर डिजिटल क्रांति हैै। विडंबना यह है कि बड़ी टेक कंपनियां इतनी शक्तिशाली हो चुकी हैं कि नया आत्मविश्वासी राजनीतिक वर्ग उनपर नकेल कस रहा है। भारत में भी जोखिम यह है कि ज्यादा प्रतिरोधी नियामक माहौल, वैश्विक वृद्धि के सुनहरे मौके को गंवा न दे। भारत की अर्थव्यवस्था अभी उतनी मुक्त नहीं है, इसलिए उसे विनियमन और ज्यादा सख्त सरकार के चलन को कम करने की जरूरत है। जैसा कि सिंह ने 1991 के भाषण में कहा था, ‘कम सरकार यानी ज्यादा विकास।’ भले ही दुनिया अब मुक्त बाजार के उत्साहियों के अधीन नहीं है, लेकिन भारत के लिए उन शब्दों पर अमल समझदारी होगी।
Date:27-07-21
सौर और पवन ऊर्जा को सस्ता बनाने में कई चुनौतियां हैं
मनीष अग्रवाल, ( इंफ्रास्ट्रक्चर विशेषज्ञ )
संयुक्त राष्ट्र के सस्टेनेबल डेवपलमेंट गोल (संवहनीय विकास लक्ष्य) में सातवां लक्ष्य ‘सस्ती और स्वच्छ ऊर्जा’ है। स्वच्छ ऊर्जा को अक्सर सौर और पवन ऊर्जा समझा जाता है, और इनकी कीमतों में गिरावट पर काफी उत्साह भी है। हाल ही में सौर ऊर्जा की बोली 2.46 रुपए प्रति यूनिट, पवन ऊर्जा 2.77 रुपए प्रति यूनिट, जबकि कोयला आधारित बिजली संयंत्रों ने 3.26 रुपए प्रति यूनिट की दर से बोली लगाई है। नए कोयला संयंत्र 4 रुपए प्रति यूनिट के करीब हो सकते हैं। हालांकि, एक सघन रिन्यूएबल एनर्जी (आरई) पॉवर सिस्टम बनाने में तकनीकी चुनौतियां और संबंधित लागतें अक्सर छिपी रहती हैं। बिजली की भारी सब्सिडी वाले देश के लिए आरई का हिस्सा बढ़ने पर ये छिपी लागतें और जरूरी हो जाएंगी।
नवीन एंव अक्षय ऊर्जा मंत्रालय के मुताबिक भारत में सौर ऊर्जा क्षमता 2015 में 2.6 गीगावाट से बढ़कर अब 42 गीगावाट हो गई है और 2022 तक इसे 175 गीगावाट करने का लक्ष्य रखा गया है। सौर (और पवन) ऊर्जा के साथ सबसे बड़ी चुनौती यह है कि इसका उत्पादन लगातार नहीं होता। सौर ऊर्जा सूर्य के ढलने पर बनना बंद हो जाती है, जबकि उस समय बिजली की सबसे ज्यादा मांग रहती है। इसलिए अन्य बिजली संयंत्रों को सौर ऊर्जा की जगह लेनी पड़ती है। 2.6 गीगावाट क्षमता के साथ इस लोड को एक स्रोत से दूसरे पर ले जाना मुश्किल है। फिर 175 गीगावाट से भी गंभीर रूप से चुनौतीपूर्ण हो जाता है। इसके लिए 130 गीगावाट के थर्मल पॉवर प्लांट को लोड लेने के लिए विकल्प के रूप तैयार रहना होगा। इससे छिपी हुई लागत बढ़ेगी क्योंकि थर्मल पॉवर प्लांट की तय लागत एक रुपए प्रति यूनिट है। क्रिकेट की भाषा में कहें तो यह पहले विकेट कीपर के पीछे, दूसरा विकेटकीपर खड़े करने जैसा है। चूंकि आरई संयंत्र से ट्रांसमिशन शुल्क नहीं लिया जाता, इसलिए यह एक और लागत है, जिसका सही आवंटन नहीं हुआ है, लेकिन यह कुल लागत में छिपी होती है। यह 0.3 रुपए से 1.2 रुपए प्रति यूनिट तक हो सकती, जो कि इसपर निर्भर करता है कि संयंत्र कहां स्थित है।
लागत का सही हिसाब लगाना समस्या का एक हिस्सा है। सौर और पवन ऊर्जा के उत्पादन का अनुमान मौसम के अनुमान जैसा ही है। यानी वैकल्पिक पॉवर प्लांट को लोड लेने के लिए बहुत कम समय मिलेगा। हायड्रो (जल) पॉवर प्लांट इसमें अच्छे हैं। वे किसी मोटरसाइकिल की तरह 0 से 100 तक 10 सेकंड में पहुंच सकते हैं। गैस आधारित पॉवर प्लांट भी इसमें सक्षम हैं, हालंंकि मोटरसाइकिल की जगह कार की तरह। कोयला आधारित संयंत्र इसमें सबसे कमजोर है। उनकी गति किसी ट्रक की तरह बढ़ती है।
हायड्रो पॉवर का विनियमित टैरिफ 4.5 रु. प्रति यूनिट है। भौगोलिक और भू-राजनैतिक चुनौतियों और पारिस्थितिकी पर बुरे असर को देखते हुए ज्यादा हायड्रो पॉवर प्लांट लगाना महंगा साबित होगा। गैस की उपलब्धता कम है और भारत में बिजली उत्पादन के लिए यह महंगी है। इसलिए अंतत: जिम्मेदारी कोयला आधारित बिजली संयंत्रों पर ही आती है, जिन्हें खुद को ट्रक से बाइक में बदलना होगा। इस बदलाव में क्या चुनौतियां हैं, साथ ही सौर और पवन ऊर्जा को और सस्ता बनाने में क्या-क्या मुश्किलें आ सकती हैं, इसपर चर्चा अगले लेख में होगी।
Date:27-07-21
देश को चाहिए मुफ्तखोरी से मुक्ति
भरत झुनझुनवाला, ( लेखक आर्थिक मामलों के जानकार हैं )
तमाम देशों में इस समय जनता को मुफ्त सुविधाएं बांटकर वोट हासिल करने का सिलसिला जोर पकड़ रहा है। इंग्लैंड के पिछले चुनाव में मुफ्त ब्राडबैंड, बस यात्रा एवं कार पार्किंग की घोषणा की गई। हम भी पीछे नहीं। कुछ वर्ष पूर्व उत्तर प्रदेश में मुफ्त लैपटाप, तमिलनाडु के हालिया चुनावों में किचन ग्राइंडर एवं साइकिल, दिल्ली में मुफ्त बिजली एवं पानी और केंद्र सरकार द्वारा गैस कनेक्शन दिए गए हैं। इनसे जनहित तो होता है, मगर कहावत है कि किसी को ‘मछली बांटने के स्थान पर यदि उसे मछली पकड़ना सिखाएं तो वह अधिक लाभप्रद होता है।’ विचारणीय है कि ऐसे मुफ्त वितरण से क्या वास्तव में जनहित होता है? चुनाव पूर्व ऐसी घोषणाएं निश्चित रूप से अनैतिक हैं, क्योंकि इनमें सार्वजनिक धन का उपयोग वोट मांगने के लिए किया जाता है। जैसा कि कांग्रेस ने किसानों की ऋण माफी एवं मनरेगा जैसी योजनाओं से जीत हासिल की थी। सुप्रीम कोर्ट ने चुनाव पूर्व ऐसी बंदरबांट पर रोक लगाने की पहल की थी।
बड़ा सवाल यही है कि क्या चुनाव के बाद भी ऐसा वितरण सही है? भारतीय प्रबंध संस्थान, अहमदाबाद की प्रोफेसर रितिका खेड़ा के अनुसार सरकारी सेवाएं तीन प्रकार की होती है। पहली श्रेणी में सार्वजनिक सेवाएं होती हैं। जैसे रेल, हाईवे अथवा कोविड के बारे में जानकारी जो कि केवल सरकार ही उपलब्ध करा सकती है। नि:संदेह ये सुविधाएं सरकार द्वारा ही उपलब्ध कराई जानी चाहिए। दूसरे प्रकार की सुविधाएं वे होती हैं जो व्यक्ति स्वयं हासिल कर सकता है, परंतु किसी व्यक्ति को ये सुविधाएं मिलने से समाज का भी हित होता है। जैसे यदि किसी को मास्क मुफ्त दे दिया जाए तो कोविड संक्रमण कम होगा। यद्यपि मास्क व्यक्तिगत सुविधा है, परंतु उसे उत्तम अथवा मेरिट वाली सुविधा कहा जाता है। तीसरे प्रकार की सुविधाओं में लाभ व्यक्ति विशेष को ही होता है। जैसे दिल्ली में एक तय सीमा तक मुफ्त बिजली देना। ऐसे वितरण का सामाजिक सुप्रभाव नहीं पड़ता। इसलिए सरकार को इससे बचना चाहिए। उसे सीधे देने के स्थान पर जनता को सक्षम बनाना चाहिए कि वह इस सुविधा को स्वयं बाजार से खरीद सके।
विषय यह रह जाता है कि मेरिट और व्यक्तिगत सुविधा में भेद कैसे किया जाए? इसका स्पष्टीकरण दो योजनाओं की तुलना से हो सकता है। केंद्र सरकार ने किसानों को 6,000 रुपये प्रति वर्ष नकद देने की योजना लागू की है। वहीं दिल्ली सरकार ने मुफ्त बिजली और पानी देने का वादा किया है। दोनों मुफ्त सुविधाएं हैं। अंतर है कि किसान को नकद राशि मिलने से उसका खेती के प्रति रुझान बढ़ता है और देश की खाद्य व्यवस्था सुदृढ़ होती है, जबकि बिजली मुफ्त बांटने से ऐसा लाभ नहीं मिलता। इसलिए किसान को दी जाने वाली नकद मदद को मेरिट सुविधा में गिना जाना चाहिए जबकि मुफ्त बिजली को व्यक्तिगत सुविधा में। इसका यह अर्थ नहीं कि किसान को नकद राशि देना ही सर्वोत्तम है। उत्तम यह होता कि किसान को पराली न जलाने, भूजल के पुनर्भरण, रासायनिक उर्वरक का उपयोग घटाने के लिए सब्सिडी दी जाती। इससे किसान की आय भी बढ़ती और समाज का हित भी होता।
केंद्र सरकार को तमाम कल्याणकारी योजनाओं पर पुनर्विचार करना चाहिए। वर्तमान में केंद्र द्वारा किसान पेंशन के अतिरिक्त मातृत्व वंदना योजना में गर्भवती महिलाओं को नकद राशि दी जा रही है। उन्नत जीवन योजना के अंतर्गत एलईडी बल्ब वितरित किए जा रहे हैं। ग्रामीण कौशल योजना एवं दीनदयाल अंत्योदय कौशल योजना के अंतर्गत लोगों को उपयुक्त क्षमताओं में ट्रेनिंग दी जा रही है। इन योजनाओं को बनाए रखना चाहिए, लेकिन केंद्र द्वारा तमाम मुफ्त सुविधाएं भी दी जा रही हैं। जैसे आयुष्मान भारत, प्रधानमंत्री बीमा सुरक्षा योजना एवं प्रधानमंत्री जीवन ज्योति योजना के अंतर्गत बीमा पर सब्सिडी दी जा रही है। अटल पेंशन योजना के अंतर्गत पेंशन प्रदान की जा रही है। जन-धन योजना में बैंक में खाते खुलवाए जा रहे हैं। अंत्योदय अन्न योजना के अंतर्गत गरीबों को लगभग मुफ्त अनाज दिया जा रहा है। इन तमाम योजनाओं का विशेष सामाजिक सुप्रभाव नहीं दिखता। उलटे प्रशासनिक भ्रष्टाचार से रिसाव का जोखिम और पैदा होता है। इन योजनाओं की रकम को लोगों के खाते में सीधे वितरित कर दिया जाए तो बेहतर। इससे न केवल इन योजनाओं में प्रशासनिक व्यय और भ्रष्टाचार की गुंजाइश खत्म हो जाएगी, अपितु लाभार्थी तक वास्तविक लाभ भी पहुंचेगा। दूसरा लाभ यह होगा कि जनता अपने विवेक एवं आवश्यकता के अनुसार उस रकम का उपयोग कर सकेगी।
आज हमारे देश के नागरिक जागरूक हो गए हैं। ग्रामीण क्षेत्रों में भी देखा जाता है कि वे अपने बच्चों को अंग्रेजी माध्यम के स्कूलों में शिक्षा दिलाने के लिए खर्च करने से गुरेज नहीं करते। अब उस धारणा को तिलांजलि दे देनी चाहिए कि जन आकांक्षाओं की पूर्ति केवल सरकारी तंत्र ही कर सकता है। हमें जनता पर भरोसा कर उसे इन तमाम योजनाओं में उलझाने के बजाय सीधे रकम देनी चाहिए। ऐसे वितरण के विरोध में कहा जाता है कि यदि देश के सभी नागरिकों को यह रकम दी जाएगी तो यह अमीरों को भी मिलेगी, जिसका कोई तुक नहीं। मान लीजिए किसी अमीर को किसान की भांति 6,000 रुपये सालाना नकद दिए गए तो वे उससे अतिरिक्त कर के रूप में वसूल भी किए जा सकते हैं। इससे लाभ यह होगा कि गरीब पर ‘गरीब’ का ठप्पा नहीं लगेगा और नौकरशाही के खेल से देश मुक्त हो जाएगा।
कल्याणकारी खर्चों का दूसरा पक्ष सरकार की वित्तीय क्षमता का है। सरकार को निर्णय करना होता है कि वह सड़क बनाएगी अथवा गरीब को पेंशन देगी। सरकार जब जनता को मुफ्त सुविधाएं देती है तो उसकी हाईवे इत्यादि बनाने की क्षमता कम हो जाती है। वह नई तकनीक में निवेश नहीं कर पाती। इसका आखिरकार देश के आर्थिक विकास पर ही कुप्रभाव पड़ता है। परिणामस्वरूप गरीब का ही जीवन दुष्कर हो जाता है। वेनेजुएला इसका प्रत्यक्ष उदाहरण है। तमाम सुविधाएं मुफ्त प्रदान करने से आज उसकी अर्थव्यवस्था पूरी तरह चरमरा गई है। समय आ गया है कि भारत में राजनीतिक दलों को चुनाव जीतने के लिए मुफ्तखोरी पर विराम लगाना चाहिए। इसके बजाय नई तकनीकों में निवेश किया जाए और नागरिकों को सीधे रकम दी जाए।
Date:27-07-21
संसाधनों पर बोझ बनती बढ़ती आबादी
स्वामी चिदानंद सरस्वती, ( लेखक परमार्थ निकेतन ऋषिकेश के परमाध्यक्ष हैं )
भारत एक लोकतांत्रिक देश है। यहां प्रत्येक नागरिक को अपने व्यक्तिगत जीवन के विषय में निर्णय लेने का पूर्ण अधिकार है। यह स्वतंत्रता हमें अपने संविधान से मिली हुई है, परंतु बात जब हमारे देश या धरती की, प्राकृतिक संसाधनों या सतत विकास की हो तब हम सभी का दायित्व बनता है कि उस पर मिलकर चिंतन किया जाए। आज सभी को मिलकर सोचना होगा कि बढ़ती जनसंख्या को किस प्रकार से नियंत्रित किया जाए? वैश्विक स्तर पर दिन-प्रतिदिन बढ़ती आबादी के कारण प्राकृतिक संसाधनों की पूर्ति करना अब संभव नहीं दिख रहा है। वर्तमान में धरती के पास जो संसाधन हैं हम उनका तेजी से उपभोग कर रहे हैं। जनसंख्या की लगातार वृद्धि के लिए जो विकास किया जा रहा है उससे प्राकृतिक संसाधनों को नुकसान पहुंच रहा है तथा उनकी खपत भी तीव्रता से बढ़ रही है। वहीं दूसरी ओर हमारे विकास के लक्ष्य भी कहीं न कहीं बेअसर हो रहे हैं। प्राकृतिक संसाधनों को आने वाली पीढ़ियों के लिए सुरक्षित रखने तथा उन्हें लंबे समय तक टिकाऊ रूप से बनाए रखने के लिए जनसंख्या की बेतहाशा वृद्धि पर अंकुश लगाना ही होगा।
बढ़ती जनसंख्या प्रकृति के विनाश का कारण बनती जा रही है। प्राकृतिक संसाधनों की जिस वेग से मांग बढ़ रही है, उसकी आपूर्ति के लिए प्रकृति के नियमों को नजरअदांज किया जा रहा है। अत: बढ़ती जनसंख्या के प्रति सभी को जागरूक होना जरूरी है, क्योंकि यह केवल परिवार का मुद्दा नहीं है, बल्कि प्रकृति और प्राकृतिक संसाधनों में द्रुत गति से हो रही कमी का भी मुद्दा है। जब तक बढ़ती आबादी नहीं रुकेगी, तब तक प्राकृतिक संसाधनों की बर्बादी भी नहीं रुकेगी। भारत में जिस वेग से जनसंख्या वृद्धि हो रही है, वह वास्तव में चिंतन का विषय है। अगर जनसंख्या वृद्धि इसी गति से होती रही तो यह हमारी जीवन प्रणाली और जीवन स्तर के लिए खतरनाक साबित होगी। जल, जलवायु, भोजन और प्राकृतिक संसाधनों पर ग्रहण लग जाएगा। अब हर भारतीय को बढ़ती जनसंख्या के प्रति जागरूक होना होगा, अन्यथा बहुत देर हो जाएगी। जनसंख्या वृद्धि कोई र्धािमक मुद्दा नहीं है, बल्कि यह धरती का, पर्यावरण का, पानी का और प्राकृतिक संसाधनों की हो रही कमी का मुद्दा है। इसलिए उतने ही बच्चे पैदा करें जितनों का ठीक तरह से पालन-पोषण कर सकें। अन्यथा उन प्यारे बच्चों का बचपन ही नहीं, बल्कि जिंदगी भी नरक बन जाएगी। ज्यादा बच्चे होने पर न उन्हें उचित पोषण मिल पाता है, न शिक्षा और न ही अच्छा जीवन स्तर।
अगर इसी तरह से जनसंख्या वृद्धि होती रही तो वह दिन दूर नहीं जब धरती पर न स्वच्छ जल होगा, न शुद्ध हवा, न जलवायु स्वच्छ होगी, न खाने को पर्याप्त अन्न होगा और न सुविधापूर्वक रहने को जमीन होगी। साथ ही बीमारी, बेरोजगारी और हिंसा भी बढ़ेगी। वर्तमान को ही देख लीजिए। कोविड-19 के समय हमारे देश और दुनिया का क्या हाल है? जिन्हें अस्पतालों में वेंटिलेटर पर होना चाहिए था, वे सड़कों पर दम तोड़ रहे थे। हमारे देश में कई परिवार ऐसे भी हैं, जिनके पास बच्चे तो हंै, पर खाने को रोटी नहीं है। इससे देश में कुपोषित बच्चों की संख्या में वृद्धि हो रही है। कुपोषण के कारण बच्चों के सोचने-समझने की शक्ति कमजोर होती है। उनके शरीर का पूर्ण रूप से विकास नहीं हो पाता। बेरोजगारी की समस्या के लिए जनसंख्या वृद्धि भी एक कारण है। बेरोजगारी और गरीबी के कारण परिवार और समाज स्तर पर धीरे-धीरे हिंसा बढ़ती जा रही है। इसके चलते भुखमरी और भिक्षावृत्ति में भी वृद्धि हो रही है। कई शहरों में सड़कों पर भीख मांगते बच्चे, फटेहाल नौनिहाल देखे जा सकते हैं। बच्चों को भिक्षा नहीं, शिक्षा चाहिए और शिक्षा भी संस्कार युक्त। वर्तमान में कई बच्चों के पास न तो उचित शिक्षा है और न चिकित्सा।
पर्यावरणविद् बार-बार कह रहे हैं कि हमें जल एवं भूमि के प्रभावी प्रबंधन पर विशेष ध्यान देने की जरूरत है। भारत सहित विश्व के लगभग सभी देश अपने-अपने स्तर पर योजनाएं बना रहे हैं और धरती को बेहतर बनाने का प्रयास कर रहे हैं। भू-विज्ञानियों का दावा है कि पृथ्वी पर संसाधन सीमित हैं इसलिए उनका उपयोग सोच-समझकर करना होगा। इस समय जल, जंगल और जमीन घटते जा रहे हैं। हम जल की ही बात करें तो पृथ्वी पर उपलब्ध कुल जल की लगभग 2.5 प्रतिशत मात्रा ही पीने योग्य है। इसमें से वर्ष 2030 तक पीने का पानी 50 प्रतिशत तक कम हो जाएगा। सोचो तब कहां से लाएंगे पानी। पानी नहीं तो जीवन कैसा? कहा भी गया है कि ‘जल ही जीवन है, जल नहीं तो कल नहीं।’ जाहिर है इस अनमोल संपदा का प्रबंधन ठीक से करना होगा। इसके अलावा हमारे जंगल भी तेजी से कट रहे हैं। नदियों का दम घुट रहा है। धरती पर लोगों को रहने के लिए पहले से ही जगह कम है और जनसंख्या का हाल यह है कि भारत में हर साल लगभग दो से ढाई करोड़ बच्चे जन्म ले रहे है । ऐसे में कैसा होगा आने वाली पीढ़ियों का भविष्य?
सच तो यह है कि अब समय केवल सोचने का नहीं, बल्कि कुछ करने का है। इसका केवल एक ही उपाय है, जनसंख्या नियंत्रण कानून। हम दो, हमारे दो और सबके दो। चाहे राशनकार्ड हो या नौकरी हो या कोई भी सरकारी सुविधा, जिनके दो बच्चे हों उन्हीं को ये सुविधाएं दी जाएं। देश में एक परिवार के लिए दो बच्चों के जन्म का प्रविधान किया जाना चाहिए। दो से अधिक बच्चों वाले प्रत्येक व्यक्ति को देश के हर क्षेत्र में समानता के साथ अयोग्य घोषित किया जाना चाहिए। चाहे वे सरकारी कर्मचारी हों या राजनीति से जुड़े लोग हों। यह प्रविधान सभी पर समान रूप से लागू किया जाना चाहिए। इसी से भविष्य के लिए सही राह निकलेगी।
Date:27-07-21
तर्कसंगत हो सीमा शुल्क
संपादकीय
इस वर्ष के आरंभ में वर्ष 2021 के आम बजट में केंद्रीय वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण ने घोषणा की थी कि वर्ष के दौरान सीमा शुल्क में मिलने वाली सैकड़ों रियायतों की समीक्षा की जाएगी। सीतारमण ने कहा था कि अक्टूबर तक सीमा शुल्क का एक नया ढांचा तैयार किया जाएगा। यह बजट के दौरान सीमा शुल्क में किए गए बदलाव के अतिरिक्त था। सीतारमण ने उसे उचित ठहराते हुए कहा था कि ऐसा मोबाइल फोन विनिर्माण और वाहन कलपुर्जा जैसे चुनिंदा क्षेत्रों की मदद के लिए किया गया। अब खबर है कि केंद्रीय वित्त मंत्रालय ने 523 सीमा शुल्क रियायतों की समीक्षा की प्रक्रिया शुरू की है जिन्हें पांच खेपों में अधिसूचित किया गया था। इनमें से पहली फरवरी 1999 की है।
रियायतों की समीक्षा और उन्हें कर नियमों के अनुसार उन्नत बनाने में कुछ भी गलत नहीं है। बहरहाल, यह स्पष्ट नहीं है कि यह कवायद दिमाग में स्पष्ट और सुसंगत लक्ष्यों के साथ की जा रही है अथवा नहीं। ऐसा प्रतीत हो रहा है कि फिलहाल व्यवस्थागत कमियों को दूर करने, आयात प्रतिस्थापन और राजस्व प्राप्ति जैसे विविध लक्ष्यों को ध्यान में रखकर ऐसा किया जा रहा है। समस्या यह है कि कई लक्ष्यों के चलते नीति खराब हो सकती है। इसलिए कि उनके बीच कई अवसरों पर टकराव उत्पन्न हो सकता है। इसके अलावा नीति निर्माताओं को कम सक्षम हल चुनने पड़ सकते हैं। चाहे जो भी हो लेकिन आशंका यही है कि सरकार ने वृद्धि आधारित अन्य लक्ष्यों पर आयात प्रतिस्थापन तथा राजस्व निर्माण जैसे लक्ष्यों को देरी से तरजीह दी है। ऐसा प्रतीत होता है कि रियायतों पर ध्यान केंद्रित करना सरकार के ऐसे नीतिगत लक्ष्य हासिल करने संबंधी प्राथमिकताओं के कारण है। इसके बजाय समूचे सीमा शुल्क ढांचे को तर्कसंगत बनाने का व्यापक प्रयास होना चाहिए।
देश की सीमा शुल्क संबंधी जरूरतें विभिन्न शुल्क दरों के साथ जटिल बनी हुई हैं। इस समय शून्य से 150 प्रतिशत तक की 20 दरें लागू हैं। इसके परिणामस्वरूप विदेशों में कारोबार से संबद्ध भारतीय कंपनियों के काफी प्रयास प्रत्यक्ष रूप से या प्रतिस्पर्धियों के जरिये, लॉबीइंग की प्रक्रिया में लग जाते हैं। हालिया अतीत में देश के वित्त मंत्री सीमा शुल्क में बदलाव का लोभ संवरण नहीं कर सके हैं। वर्ष 2021 का बजट भी इसका अपवाद नहीं था। ऐसे बदलाव समाजवादी दौर के भारत का अवशेष हैं जब सरकार के पास कंपनियों को बनाने या बिगाडऩे का अधिकार था। सीमा शुल्क में हर नए बदलाव के साथ भारत उन पुराने अंधकारपूर्ण दिनों की ओर वापस लौट रहा है।
सीमा शुल्क समेत किसी भी कर संहिता में पारदर्शिता, सहजता और स्थिरता की आवश्यकता है। भारतीय सीमा शुल्क ढांचा इन जरूरतों को पूरा नहीं करता। बल्कि रियायतों को बिना समुचित स्पष्टीकरण दिए केवल रियायत होने के कारण समाप्त करना अस्थिरता बढ़ाने और निवेशकों को निराश करने वाला कदम होगा। कम और स्थिर शुल्क दर कंपनियों को अपने मूल्यवद्र्धन और भविष्य के मुनाफे का समुचित आकलन करने में मदद करता है। भारत के वैश्विक आपूर्ति शृंखला का हिस्सा बनने के लिहाज से यह अत्यंत आवश्यक है। ऐसी वैश्विक आपूर्ति शृंखला में शामिल उत्पादों की शुल्क दरें बढऩे से देश के निर्यात पर बुरा असर होगा। वैश्विक व्यापार महामारी से उबर रहा है और ऐसे में सबसे बड़ी प्राथमिकता यह सुनिश्चित करना होनी चाहिए कि भारत इस संकटग्रस्त अवधि से और अधिक प्रतिस्पर्धी बनकर उभरे। इस मोड़ पर बिना योजना बनाए दरों में इजाफा करने से इस प्रयास को धक्का पहुंचेगा। सरकार रियायतें समाप्त करने के प्रयास जारी रख सकती है लेकिन उसे सीमा शुल्क ढांचे के समग्र आधुनिकीकरण और बेहतरी के प्रयास करने चाहिए।
Date:27-07-21
बाधित सदन
संपादकीय
संसद इसीलिए है कि वहां जनप्रतिनिधि देश की दशा-दिशा पर विचार करें, भविष्य की दिशा तय करने में मददगार बनें। इसके बजाय अगर सदनों का कामकाज लगातार ऐसे मुद्दों पर बाधित या हंगामे का शिकार होता रहे कि जिसमें न विपक्ष सरकार से कुछ ठोस तरीके से पूछ पाए और न सरकार इसका उत्तर दे पाए, तो सवाल उठना लाजिमी है! सोमवार को एक बार फिर जिस तरह संसद के मौजूदा सत्र में जैसा हंगामा देखने में आया, उसकी वजह से दोनों सदनों को स्थगित करने की नौबत आई। विपक्ष जहां कृषि कानूनों के विरोध और पेगासस के संदर्भ में निशाने पर रखे गए लोगों की जासूसी और अन्य मुद्दों पर सरकार का विरोध जता रहा था, वहीं सरकार की इन मसलों पर अपनी राय है। सवाल है कि क्या संसद बाधित होने से किसी विवाद का समाधान निकल सकता है? जनहित से जुड़े मुद्दों पर सरकार को कठघरे में खड़ा करना विपक्ष का दायित्व है, मगर सदन के भीतर भी विरोध का स्वरूप अगर केवल हंगामा हो जाए, तो ऐसे में कौन किससे जवाब ले सकेगा?
बेशक विपक्ष यह दावा कर सकता है कि वह जिन मुद्दों पर विरोध जता रहा है, उस पर सरकार का पक्ष स्पष्ट होना इसलिए जरूरी है कि ये व्यापक जनहित से जुड़े मामले हैं। नए कृषि कानूनों के खिलाफ किसानों का आंदोलन लंबे समय से चल रहा है और उस पर सरकार ने अब तक कोई ठोस हल निकालने में रुचि नहीं दिखाई है, वहीं हाल में पेगासस के जरिए निगरानी और जासूसी के जिस मामले का खुलासा हुआ है, वह नागरिक स्वतंत्रता और निजता को बाधित कर सकता है। ये गंभीर मसले हैं, जिन पर सरकार कठघरे में है और उसे देश की जनता के सामने वस्तुस्थिति को साफ रखना चाहिए। लेकिन यह सदनों में केवल शोर-शराबे या हंगामे संभव नहीं हो सकेगा। निश्चित रूप से विपक्ष को पेगासस मामले की व्यापक और उच्चस्तरीय जांच पर जोर देना चाहिए और कृषि कानूनों पर किसानों को आश्वस्त करने लिए सरकार की ओर से पहलकदमी की मांग करनी चाहिए। इसके बजाय सदन को बाधित करने से किस मसले का हल निकल जाएगा? जबकि सदन इसीलिए है कि वहां व्यापक जनहित से जुड़े मुद्दों को रखा जाए, उन पर विचार किया जाए और उनका दीर्घकालिक समाधान निकाला जाए। जनता अपने जनप्रतिनिधियों को इसीलिए वहां भेजती है।
विडंबना यह है कि अब न केवल देश की संसद में, बल्कि राज्यों के सदनों में भी जनहित से जुड़े मुद्दों पर विचार-विमर्श कम और सरकार के समर्थन और विरोध में टकराव और हंगामा एक मुख्य गतिविधि बन कर रह गई है। यह ध्यान रखने की जरूरत है कि किसी भी सदन की एक दिन की कार्यवाही पर कई लाख रुपए खर्च होते हैं। जाहिर है, यह राशि जनता द्वारा चुकाए जाने वाले उन करों के मद में से निकाली जाती है, जिन्हें जनहित और विकास कार्यों पर खर्च होना चाहिए। सभी सांसदों या जनप्रतिनिधियों को किसी मुद्दे पर अपने विचार अभिव्यक्त करने का संवैधानिक हक है। बल्कि सदनों में समर्थन और विरोध से जुड़ी गतिविधियां समूचे तंत्र के संचालन का हिस्सा और लोकतंत्र की खूबसूरती हैं। लेकिन इनका कोई ठोस हासिल होना चाहिए। दूसरी ओर, सरकार को भी यह सुनिश्चित करना चाहिए कि अगर वह व्यापक प्रभाव वाली कोई नीति बनाती है, तो उसमें संसद के सभी सदस्यों, पक्ष-विपक्ष को भागीदार बनाया जाए, न कि कोई फैसला लेने और लागू करने के बाद सदनों को औपचारिक सूचना भर दे दी जाए। सरकार के समर्थन में असहमति के स्वरों को दरकिनार करना या फिर विपक्ष की ओर से मुद्दे उठाने के बजाय सिर्फ हंगामा न केवल सदनों को, बल्कि लोकतंत्र को भी बाधित करेगा।