26-08-2025 (Important News Clippings)
To Download Click Here.
Date: 26-08-25
E20’s a Great Switch, But There are Riders
ET Editorials

India’s ethanol programme is no vanity project. The goal of blending 20% ethanol in petrol was achieved last month, five years ahead of target. Enthused, Gol is now planning a nation- wide rollout of 20% ethanol-blended petrol (E20) by year-end, along with a target of E30 by 2030. However, the rising share of ethanol in the blending programme – from 1.53% in 2014 to 20% in just 10 years-is facing pushback from the petroleum lobby. It has also sparked concerns among vehicle owners and food policy experts about its impact on fuel efficiency and food security. Questions have been raised about the mechanical readiness of existing vehicles to use E20, and a PIL has been filed in the Supreme Court challenging the rollout.
India, the world’s third-largest consumer of crude oil, imports 85% of its requirement about $120 bn annually-leaving the country exposed to global price swings and geopolitical shocks, and even bullying. Beyond easing the fiscal burden, the E20 blend is expected to cut CO2 emissions by 10 mn tonnes a year. Rising ethanol demand has also created new income opportunities for farmers. However, some tough choices lie ahead. Growing vehicle numbers will mean higher ethanol demand, especially if hybrids continue to outpace EVs. Meeting this demand would require either pushing farmers to grow more water-guzzling sugarcane (currently the source of 40% of ethanol), or diverting more rice and maize. While foodgrain shortage is not an immediate concern, such diversion could shrink cultivation of other crops like oilseeds.
To maximise benefits of the E20 programme, but with limited impact on food production, India’s path to decarbonising mobility must remain multi-pronged-combining EVs, improved mass transit and ethanol blending.
Date: 26-08-25
Beyond debate
Dysfunction of legislatures is due to concentration of power in the executive
Editorials
Addressing the two-day All India Speakers’ Conference in New Delhi on August 24,Union Home Minister Shah called attention to the frequent disruptions that have paralysed deliberations in Assemblies and Parliament. His point that “debate must take place in a democracy” is beyond any debate. But when one goes beyond the truism, a picture of India’s representative democracy in distress emerges. Bitterness between the government and the Opposition has erased the scope for any common ground, and Parliament has been reduced to a theatre of mutual diatribe. His remarks followed soon after the Opposition’s protests, demanding a debate on the Special Intensive Revision of electoral rolls in Bihar, that led to repeated adjournments. Most of the legislative business was carried out with little or no debate. In a session with 21 sittings spread out over 32 days, 15 Bills were passed. According to PRS Legislative Research’s analysis, the Lok Sabha functioned for 29% of its scheduled time, and the Rajya Sabha for 34% – the lowest functioning seen during the 18th Lok Sabha. Two-thirds of the planned time was lost to repeated adjournments. In the Lower House, only 8% of starred questions received an oral reply, while it was 5% in the Upper House. On 12 days in the Rajya Sabha and on seven in the Lok Sabha, no questions were answered orally over the 21 days. Question Hour, an instrument of executive accountability, has been rendered ineffective.
The dysfunction of legislatures is linked to concentration of power in the chief executive, the Prime Minister and Chief Ministers. According to the Annual Review of State Laws 2024 by PRS Legislative Research, State Assemblies met for an average of just 20 days in 2024, down from 28 in 2017. Larger States such as Uttar Pradesh and Madhya Pradesh recorded only 16 sitting days, while Odisha and Kerala led with 42 and 38 days, respectively. More than half the Bills were passed on the same day, with little debate. Eight Assemblies do not have a Deputy Speaker; the Lok Sabha has not had a Deputy Speaker since June 2019. Parliamentary committees that used to be a platform for more deliberative and less acrimonious debates have also become vulnerable to partisanship. It is propitious that Mr. Shah thinks that there should be more debate in legislatures, but it will be meaningful only when the government translates that view into action by engaging with the Opposition. A starting point can be a consensus election of an Opposition leader as the Deputy Speaker of the Lok Sabha.
Date: 26-08-25
विकास को छोड़ हथियारों की होड़ कितनी जायज ?
संपादकीय
सीपरी की ताजा रिपोर्ट के अनुसार यूक्रेन के बाद भारत दुनिया का सबसे बड़ा हथियार आयातक है। कतर, सऊदी अरब और पाकिस्तान क्रमशः तीसरे, चौथे और पांचवें बड़े आयातक हैं। हथियार खरीदने वालों में वे देश भी हैं, जिन्हें कोई तत्काल रक्षा संकट नहीं है और वे भी जो विकास के अभाव में कराह रहे हैं। पाकिस्तान के अलावा एशिया और अफ्रीका के गरीब देश भी विकास की जगह हथियार चुन रहे हैं। हालांकि जीडीपी प्रतिशत के रूप में रक्षा बजट घटाने वाले देशों में भी भारत समेत कुछ अन्य देश हैं। लेकिन इस वर्ष भारत भी पाकिस्तानी रवैये के कारण 50 हजार रुपए करोड़ रक्षा व्यय बढ़ाने को मजबूर हुआ। साढ़े तीन साल से जारी रूस-यूक्रेन युद्ध में बेशुमार लोग हताहत हो रहे हैं। इजराइल फिलीस्तीन को तबाह कर रहा है और इजराइल – ईरान युद्ध के बाद मध्य-पूर्व एशिया में आज भी अंगारे बुझे नहीं हैं। भूखे बच्चों के हाथ से राहत के रूप में मिला भोजन छीनकर उन्हें मिसाइल का शिकार बनाया गया, लेकिन दुनिया देखती रही। ट्रम्प के दबाव में प्रमुख नाटो देश इस समय अपनी जीडीपी का 3.5 प्रतिशत रक्षा खर्च करने लगे हैं। संभव है उन्हें रूस या चीन से भय हो लेकिन चिंता की बात यह है कि सऊदी अरब जैसा देश – जिसे अन्य किस्म का कोई खतरा नहीं है- वह भी आज अपनी जीडीपी का 12 फीसदी हथियार खरीदने में खर्च कर रहा है।
Date: 26-08-25
मतदाता-सूची के मामले पर हो रही राजनीति गैर-जरूरी है
डॉ. अरुणा शर्मा, ( इस्पात मंत्रालय की पूर्व सचिव )
यह दुःखद और विडम्बनापूर्ण है कि मतदाता सूची पर विवाद समाधान के बजाय एक-दूसरे पर कीचड़ उछालने की दिशा में चला गया है। हमारे लिए यह समझना जरूरी है कि मतदाता सूचियों का अपडेशन कैसे किया जाता है। यह निर्वाचन आयोग की जिम्मेदारी है कि घर-घर सर्वेक्षण और वार्षिक पुनरीक्षण करके मतदाता सूची को सटीक बनाए रखे। अपडेशन का कार्य आयोग और हर राज्य में स्थित उसके कार्यालयों द्वारा किया जाता है। स्थानीय निकाय सुनिश्चित करते हैं कि हर घर का एक क्रमांक हो। अतिक्रमण वाले इलाकों के लिए भी इसकी प्रक्रिया बनी हुई है। यह सभी हाउसहोल्ड-आधारित डेटा के लिए किया जाता है जैसे मनरेगा, छात्रवृत्ति के लिए अन्य कल्याणकारी योजनाएं और अब 8 राज्यों में समग्र जैसे ऑपरेटिव डेटा। सर्वेक्षकों के पास पिछले सर्वे का डेटा दर्ज होता है।
पारदर्शिता सुनिश्चित करने के लिए घर-घर सर्वे किया जाता है। मोटे तौर पर 80-90% डेटा पहले जैसा ही रहता है। किसी की मृत्यु होने पर नाम हटाना या नए मतदाताओं को जोड़ने जैसे सामान्य बदलाव होते हैं। पलायन जरूर बड़ा बदलाव होता है। इस प्रकार, पिछली सूची की तुलना में पाई जाने वाली विसंगति और बदलाव को चिह्नित किया जाता है। सुपरवाइजर इन विसंगतियों की दो बार जांच करते हैं। बदलावों को सार्वजनिक स्थलों पर प्रदर्शित किया जाता है। जांच और पुष्टि के बाद ही इन्हें जोड़ा जाता है। वरिष्ठ अधिकारी रैंडम परीक्षण करते हैं। किसी छोटे से घर में मतदाताओं की असामान्य रूप से अधिक संख्या, मृत्यु की गलत सूचना, दोहराव जैसी विसंगतियों के मामले में सिर्फ आधार का उपयोग कर डेटा को शुद्ध किया जाता है। लेकिन यह नागरिकता का प्रमाण-पत्र नहीं है।
भारत के नागरिक को 1955 के नागरिकता कानून और संविधान द्वारा परिभाषित किया गया है। चूंकि भारत 1951 की शरणार्थी संधि और इसके 1967 के प्रोटोकॉल का हस्ताक्षरकर्ता नहीं है, इसलिए हमारा कोई विशेष शरणार्थी कानून नहीं है। हालांकि, भारत शरणार्थियों को आश्रय देता रहा है, जैसे दलाई लामा और अन्य तिब्बतियों को। लेकिन ऐसे मामलों को गृह मंत्रालय का संबंधित विभाग केस दर केस आधार पर तय करता है। वह या तो किसी को शरणार्थी का दर्जा देता है या अवैध प्रवासी घोषित करता है।
घर-घर सर्वे में ऐसे मामलों को संदिग्ध के तौर पर चिह्नित किया जाता है, जिनमें शरणार्थी और अवैध प्रवासी- दोनों ही श्रेणियां प्रदर्शित नहीं होतीं। ऐसे में जांच का अधिकार गृह मंत्रालय के पास होता है। इसके आधार पर ही किसी को नागरिक के रूप में मतदाता सूची में शामिल किया जाता है। ये प्रक्रिया समय लेती है और इसे सावधानीपूर्वक और नियमित अंतराल पर करते रहना चाहिए। इसमें दस्तावेजों का सत्यापन होता है, पड़ोस में पूछताछ होती है। समान प्रकृति और गलती की गुंजाइशों के कारण यह कार्य चुनौतीपूर्ण है।
तो वर्तमान में नागरिकता के प्रमाण के मसले में ना पड़कर उन विसंगतियों की जांच की आवश्यकता है, जिनमें नाम के दोहराव, एक घर में बहुत सारे मतदाता, अनरिपोर्टेड या गलत रिपोर्टेड मौतों को इंगित किया गया है। लोग इस बात से चिंतित हैं कि डिजिटली स्मार्ट भारत में अब भी ऐसी विसंगतियों से जूझना पड़ रहा है। यह राजनीतिक मसला नहीं है, बल्कि मतदाता सूची निर्माण की प्रक्रिया की गहराई से जांच और यदि कोई गड़बड़ है तो उसे सुधारने का है। स्थानीय कोटवार ( ग्राम चौकीदार), ग्राम पंचायतों और नगर पंचायतों को भी विसंगतियां जांचने में शामिल किया जा सकता है। डिजिटल डेटा और एआई के उपयोग से विसंगतियों की पहचान, मृत्यु डेटा और अन्य डेटाबेस का मिलान संभव होगा। यह प्रक्रिया समय खपाऊ नहीं, बल्कि एक जरूरत है- ताकि सूचियों को इस प्रकार रखा जा सके, जिसमें पात्र व्यक्ति बाहर ना हो और गलत एंट्री न हो।
संविधान का अनुच्छेद 324, जनप्रतिनिधित्व अधिनियम 1950 और मतदाता पंजीकरण नियम-1960 कानूनी और संवैधानिक बाध्यताएं तय करते हैं। एंट्रीज से पहले जांच अनिवार्य है। नाम हटाने के लिए नोटिस और सार्वजनिक सूचना आवश्यक है। घर के क्रमांक न होना या एक ही घर में असामान्य रूप से अधिक मतदाता होने जैसी गलत एंट्री चिंता का विषय हैं। इस पर वरिष्ठ अधिकारियों द्वारा जांच की आवश्यकता है, ताकि पारदर्शिता और संविधान के प्रति प्रतिबद्धता सुनिश्चित हो सके। इस मुद्दे को राजनीतिक सिर- फुटौब्बल में गुम नहीं होने देना चाहिए।.

Date: 26-08-25
कॉरपोरेट सामाजिक उत्तरदायित्व की कम प्रतिष्ठा
कनिका दत्ता

देश में संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन (संप्रग) सरकार की दूसरी पारी के दौरान वर्ष 2013 में अनूठे कॉरपोरेट सामाजिक उत्तरदायित्व (सीएसआर) कानून की पेशकश की गई थी। यह कानून तब लाया गया था जब कंपनियों की छवि कुछ खराब हो रही थी । उस समय अनिल अग्रवाल की कंपनी वेदांता, ओडिशा के एक आदिवासी इलाके में बॉक्साइट की खुदाई को लेकर विवादों में थी। इसके अलावा, पर्यावरण के लिहाज से संवेदनशील जंगलों में कोयला खनन की अनुमति देने या न देने के ‘वर्जित क्षेत्र’ को लेकर विवाद भी चल रहा था।
इसके अलावा सरकार की 2005 की विशेष आर्थिक क्षेत्र (सेज) नीति के कारण किसानों से जमीन हड़पने कई मामले सामने आए, जिनमें उन्हें सही मुआवजा नहीं मिला। इन खराब तरीकों के चलते एक नया भूमि अधिग्रहण कानून बनाना पड़ा, जिसने कंपनियों के लिए जमीन खरीदना बहुत मुश्किल कर दिया। इसी दौरान सत्यम घोटाला भी सामने आया, जिसने स्वतंत्र निदेशकों की भूमिका पर सवाल खड़े कर दिए और भारत के ‘सूचना प्रौद्योगिकी क्षेत्र’ पर एक बड़ा दाग लगा दिया। तत्कालीन प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने जब कंपनियों के मुख्य कार्यकारी अधिकारी (सीईओ) को कम वेतन लेने की सलाह दी तब कंपनी जगत में हलचल मच गई।
सीएसआर खर्च को अनिवार्य करने का कदम वास्तव में कॉरपोरेट जगत की इन गलतियों को सुधारने और उन पर लगने वाले मिलीभगत के आरोपों का जवाब देने के लिए उठाया गया था। कंपनी अधिनियम की धारा 135 के तहत, एक निश्चित नेटवर्थ, टर्नओवर और मुनाफे वाली कंपनियों के लिए सीएसआर गतिविधियों पर खर्च करना अनिवार्य कर दिया गया था। इसके तहत पात्र कंपनियों को पिछले तीन वित्तीय वर्ष के दौरान हुए औसत शुद्ध लाभ का कम से कम 2 फीसदी सीएसआर गतिविधियों पर खर्च करना होता है। ऐसा न करने पर कंपनियों को इसका कारण बताना होता है। इस कानून में यह भी बताया गया है कि किन क्षेत्रों में यह पैसा खर्च किया जा सकता है, जैसे कि स्वास्थ्य और शिक्षा, जिससे कंपनी जगत की तरफ से परोपकार के काम में दिए गए पैसे को सरकार की सामाजिक-आर्थिक नीतियों के साथ जोड़ा जा सके।
व्यापक तौर पर ‘कोई नुकसान न पहुंचाने के दार्शनिक सिद्धांत पर यह नीति काफी हद तक सफल रही है। केवल वित्त वर्ष 2024 में सीएसआर पर होने वाला खर्च तेजी से बढ़ा है और इस मद में सूचीबद्ध कंपनियों का खर्च 16 फीसदी बढ़कर करीब 17,967 करोड़ रुपये हो गया। प्राइम डेटाबेस के अनुसार, 98 फीसदी कंपनियों ने अपनी सीएसआर जिम्मेदारियों को पूरा किया और लगभग आधी ने तो तय सीमा से भी ज्यादा खर्च किए।
यह बात इसलिए भी खास है क्योंकि सीएसआर खर्च पर कर में छूट नहीं मिलती, जब तक कि पैसा किसी ऐसी संस्था को दान न किया जाए जिसे कर में छूट मिलती हो । गैर-सरकारी संगठनों (एनजीओ) के लिए विदेशी फंडिंग में दिक्कत आने के कारण, घरेलू सीएसआर का पैसा जमीनी स्तर पर काम कर रहे कई स्वैच्छिक संगठनों के लिए फंडिंग का एक महत्त्वपूर्ण स्रोत बन गया है। इस नीति का एक और फायदा यह है कि इससे कॉरपोरेट क्षेत्र के अधिकारी अपने वातानुकूलित दफ्तरों से निकलकर असल भारत को देख पाते हैं। हालांकि, भारत की सामाजिक-आर्थिक स्थिति बदलने की रणनीति के रूप में इसके फायदे कम दिखते हैं। हाल के कुछ अध्ययनों में पता चला है कि महाराष्ट्र, राजस्थान और तमिलनाडु जैसे आर्थिक रूप से समृद्ध राज्यों को ही सीएसआर मद में मिली पूंजी का सबसे ज्यादा लाभ मिला है क्योंकि ज्यादातर कंपनियां यहीं मौजूद हैं। डेवलपमेंट इंटेलिजेंस यूनिट के एक नए अध्ययन के अनुसार, झारखंड, छत्तीसगढ़, बिहार, ओडिशा, मध्य प्रदेश और पूर्वोत्तर के छह ‘ आकांक्षी’ (कम आय वाले) क्षेत्रों को कुल सीएसआर पूंजी का 20 फीसदी से भी कम हिस्सा मिला है।
विभिन्न संस्थानों के कई शोधकर्ताओं ने पाया है कि ज्यादातर पैसा, शिक्षा और स्वास्थ्य जैसे बड़े क्षेत्रों में जाता है। झुग्गी-झोपड़ियों के विकास, आजीविका बढ़ाने और पर्यावरण से जुड़ी परियोजनाओं पर बहुत कम ध्यान दिया जाता है, जबकि ये भी अहम मुद्दे हैं। हालांकि, सीएसआर को सिर्फ नीतियों का पालन करने के लिए दिखावा करने वाला नहीं कह सकते लेकिन यह भी सच है कि कंपनियां उन्हीं क्षेत्रों में निवेश करना पसंद करती हैं जो उनके दायरे में सीधे तौर पर नहीं आते हैं और जिनसे उन्हें ज्यादा से ज्यादा प्रचार मिलता है।
कानूनी रूप से सीएसआर खर्च को अनिवार्य करने से एक और समस्या पैदा होती है कि इसमें सरकार का हस्तक्षेप बढ़ सकता है। यह वास्तव में लाइसेंस राज के दौर की याद दिलाता है, जहां कानून पहले ही कंपनियों को बताता है कि उन्हें कितना खर्च करना है और वे किन चीजों पर खर्च कर सकते हैं। यह संभव है कि सीएसआर खर्च में क्षेत्रीय असमानता देखकर, सरकार भविष्य में क्षेत्र के आधार पर लक्ष्य भी तय कर दे। इस कानूनी जिम्मेदारी से और भी परेशानियां खड़ी होती हैं। उदाहरण के तौर पर, 2018 में सरकार ने 272 कंपनियों को नोटिस भेजा था क्योंकि उन्होंने सीएसआर की जिम्मेदारियां पूरी नहीं की थीं।
भारत दुनिया का एकमात्र ऐसा देश है जहां कंपनियों के लिए सीएसआर (कंपनी अधिनियम की धारा 135 के तहत ) कानूनी रूप से अनिवार्य है। वहीं, अमेरिका, ब्रिटेन और यूरोपीय संघ जैसे ज्यादातर देशों में ऐसी नीतियां हैं जो कंपनियों को सीएसआर कार्यक्रम चलाने के लिए सिर्फ प्रोत्साहित करती हैं।
इन पश्चिमी देशों में उत्तराधिकार कर का प्रावधान है। यही मुख्य कारण है कि बिल गेट्स और जॉर्ज सोरोस जैसे मशहूर अरबपतियों ने अपने जीवनकाल में ही बड़े पैमाने पर धर्मार्थ संस्थाएं (चैरिटेबल फाउंडेशन) बनाई हैं। भारत में भी उत्तराधिकार कर था, लेकिन 1985 में इसे हटा दिया गया क्योंकि इससे मिलने वाला राजस्व बहुत कम था और इसे संग्रह करने की लागत बहुत ज्यादा थी। हालांकि पश्चिमी देशों में, इस उत्तराधिकार कर के कारण सामाजिक कार्यों के लिए बहुत बड़ी रकम दान में दी जाती है जिससे विभिन्न तरह के मुद्दों सकारात्मक प्रभाव देखने को मिला है।
कानूनी रूप से सीएसआर को अनिवार्य करने से भारत में एक मजबूत सीएसआर उद्योग का निर्माण हुआ है। इसके बावजूद, सबसे बड़ा विरोधाभास यह है कि चाहे दुनिया में कहीं भी और कितना भी सीएसआर पर खर्च किया जाए, लोगों की नजर में कंपनियों के द्वारा किए जाने वाले इस खर्च की प्रतिष्ठा का मूल्य अब भी उम्मीद से काफी कम है।
Date: 26-08-25
घरेलू खपत और आत्मनिर्भरता की राह
जयंतीलाल भंडारी
इस समय जब अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप की ओर से लगाए जा रहे शुल्क के डर से दुनिया के अधिकांश देश अमेरिका के सामने झुक कर उसकी व्यापार शर्तों को मानते हुए दिखाई दे रहे हैं, तब भारत अमेरिका के साथ कारोबार समझौते के तहत अपने करोड़ों किसानों और मछुआरों के हितों के मद्देनजर बिना झुके अपनी शर्तों के साथ अडिग है। ऐसे में पूरी दुनिया यह देख रही है कि भारत अमेरिका के ऊंचे शुल्क का अपनी मजबूत घरेलू खपत के हथियार से मुकाबला कर रहा है। बीते पंद्रह अगस्त को प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने देश को संबोधित करते हुए वस्तु एवं सेवा कर यानी जीएसटी में व्यापक सुधार की घोषणा की और उसके शीघ्र क्रियान्वयन का संकेत दिया। उम्मीद है कि इससे भारत में घरेलू खपत तेजी से बढ़ेगी।
अमेरिकी राष्ट्रपति ट्रंप द्वारा भारत पर लगाए गए पचास फीसद शुल्क से अर्थव्यवस्था पर पड़ने वाले प्रभाव विषय पर प्रकाशित वैश्विक रपटों में कहा जा रहा है कि भारत की घरेलू खपत मजबूत है। ऐसे में भारत की विकास दर में किसी चिंताजनक गिरावट की आशंका नहीं है। हाल ही में 13 अगस्त को वैश्विक रेटिंग एजेंसी ‘एसएंडपी’ ने कहा कि अमेरिका द्वारा भारत पर पचास फीसद ऊंचे शुल्क लगाने से उसकी आर्थिक तरक्की पर कोई खास असर नहीं पड़ेगा। भारत की अर्थव्यवस्था बढ़ने की प्रवृत्ति बनी रहेगी। भारत की ‘सावरेन रेटिंग’ का नजरिया अभी भी सकारात्मक बना रहेगा। चूंकि भारत एक निर्यात उन्मुख अर्थव्यवस्था नहीं है, ऐसे में उसे फिलहाल शुल्क संबंधी चिंता करने की जरूरत नहीं है। ‘एसएंडपी’ का मानना है कि भारत की विकास दर चालू वित्त वर्ष 2025-26 में 6.5 फीसद रहेगी। इसी तरह सात अगस्त को ‘मार्गन स्टेनली रिसर्च’ के एक विश्लेषण में भी भारत की घरेलू मांग मजबूत होने की बात कही गई है।
इस समय भारत की विकास दर को मजबूत आंतरिक घरेलू आधार मिला हुआ है। अब इसे लगातार आगे बढ़ाया जाना जरूरी है। हाल ही में अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष ने चालू वित्त वर्ष 2025-26 के लिए भारत की विकास दर 6.4 फीसद रहने का अनुमान लगाया है। यह भी कहा गया है कि भारत की विकास दर वैश्विक अर्थव्यवस्था की विकास दर से दोगुना से भी अधिक रहने का अनुमान है। इसी तरह रेटिंग एजेंसी ‘क्रिसिल’ ने अपनी रपट में कहा है कि भारत में घरेलू खपत में ‘सुधार, भरपूर खाद्यान्न उत्पादन, बेहतर मानसून, कच्चे तेल की कीमतों में नरमी, महंगाई में कमी, सस्ते कर्ज और अन्य क्षेत्रों में सकारात्मक संकेतों के कारण इस वित्तीय वर्ष 2025-26 में भारत की विकास दर 6.4 फीसद के स्तर पर होगी।
पिछले दिनों केंद्रीय वाणिज्य एवं उद्योग मंत्री ने लोकसभा में कहा कि अंतरराष्ट्रीय संस्थाएं भारत को वैश्विक अर्थव्यवस्था का उज्वल केंद्र मानती हैं। अमेरिका ने जो शुल्क लगाए हैं, उन्हें ध्यान में रखते हुए सरकार किसानों, निर्यातकों और उद्योगों के हितों की रक्षा करेगी। अर्थशास्त्रियों का कहना है कि वैश्विक अर्थव्यवस्था की चुनौतियों के बीच भारतीय अर्थव्यवस्था के विभिन्न क्षेत्रों में तेज विकास के लिए वित्तीय, श्रम और कृषि सुधारों को लागू करने की डगर पर बढ़ना अब जरूरी है।
गौरतलब है कि हाल ही में प्रकाशित आंकड़ों के मुताबिक खुदरा महंगाई घटने से भी घरेलू बाजार में खपत को बढ़ावा मिल रहा है। खुदरा महंगाई घट कर आठ वर्षों के निचले स्तर पर आ गई है। सस्ते कर्ज से उद्योग कारोबार में उत्साह है। कृषि क्षेत्र में रेकार्ड उत्पादन, मानसून की अच्छी प्रगति, पर्याप्त जलाशय स्तर और मजबूत खरीफ बुवाई से सकारात्मक परिदृश्य दिखाई दे रहा है। पिछले दिनों प्रधानमंत्री ने रोजगार मेले को संबोधित करते हुए कहा कि भारत के पास दुनिया की सबसे बड़ी युवा आबादी, सबसे बड़ा लोकतंत्र, नवउद्यम, नवोन्मेष, तेजी से बढ़ता बाजार और सेवा क्षेत्र की ऊंचाइयां ऐसी शक्तियां हैं, जो दुनिया के देशों को भारत के साथ व्यापार बढ़ाने के लिए प्रेरित कर रही हैं।
खुदरा महंगाई का अनुमान आरबीआइ ने घटाया है। वित्त वर्ष 2025-26 के लिए अनुमान 3.7 फीसद से घटा कर 3.1 फीसद कर दिया है। जून 2025 में खुदरा महंगाई घट कर 2.1 फीसद पर आ गई। मई में खुदरा महंगाई दर 2.82 फीसद रही। इतना ही नहीं, जून में थोक महंगाई दर भी 20 महीने में पहली बार ऋणात्मक हुई। यह घट कर 0.13 फीसद रह गई। खाद्य पदार्थों और ईंधन की कीमतों में गिरावट के साथ-साथ विनिर्मित उत्पादों की लागत में भी कमी आई। मई में थोक महंगाई दर 0.39 फीसद थी। जहां महंगाई में तेज गिरावट अर्थव्यवस्था के लिए काफी लाभप्रद है, वहीं भारत में सस्ते कर्ज से भी घरेलू उपचार में खपत और आर्थिक रफ्तार बढ़ेगी। विगत छह जून को रिजर्व बैंक के गवर्नर संजय मल्होत्रा ने द्विमासिक मौद्रिक नीति समीक्षा पेश करते हुए रेपो रेट में 50 आधार अंकों यानी 0.50 फीसद की कटौती का एलान किया। अब रेपो रेट छह फीसद से घट कर 5.5 फीसद हो गई है। इस वर्ष 2025 में फरवरी से अब तक लगातार तीसरी बार रेपो रेट में कटौती हुई है। इसके साथ ही रिजर्व बैंक ने नकद आरक्षित अनुपात (सीआरआर) में भी एक फीसद की बड़ी कटौती करते हुए इसे तीन फीसद पर ला दिया है।
निश्चित रूप से मुक्त व्यापार समझौते (एफटीए) भारत की वैश्विक व्यापार उपस्थिति को नया रूप देते हुए दिखाई दे रहे हैं। भारत द्वारा संयुक्त अरब अमीरात, आस्ट्रेलिया और ब्रिटेन के साथ किए गए समझौते अहम हैं। भारत को संयुक्त अरब और आस्ट्रेलिया के साथ समझौते से लाभ हुआ है। यह भी महत्त्वपूर्ण है कि भारत और ब्रिटेन के बीच बहुप्रतीक्षित एफटीए पर 24 जुलाई को हस्ताक्षर हुए। इस परिप्रेक्ष्य में यह भी उल्लेखनीय है कि हाल ही में दस जुलाई को भारत में स्विटजरलैंड की राजदूत माया तिस्साफी ने कहा कि भारत और चार सदस्य देशों के बीच व्यापार समझौता अक्तूबर 2025 से लागू हो जाएगा। इन सबके साथ-साथ भारत-आसियान के बीच मौजूदा व्यापार समझौते की समीक्षा के लिए चर्चा जारी है। आसियान में ब्रुनोई, कांबोडिया, इंडोनेशिया, लाओस, मलेशिया, म्यांमा, फिलिपींस, सिंगापुर, थाईलैंड और वियतनाम शामिल हैं।
यह बात भी महत्त्वपूर्ण है कि घरेलू वृद्धि को सहारा देने के लिए अब नीतिगत समर्थन बढ़ाना जरूरी होगा। घरेलू खपत बढ़ाने के लिए स्वदेशी अपनाने और स्वदेशी उद्योग कारोबार को हरसंभव तरीके से प्रोत्साहित करना जरूरी होगा। उम्मीद करें कि सरकार घरेलू खपत के इजाफे के लिए की गई घोषणाओं के क्रियान्वयन की डगर पर तेजी से आगे बढ़ेगी। यह भी उम्मीद है कि सरकार अमेरिकी राष्ट्रपति ट्रंप की ओर से भारत पर थोपे गए पचास फीसद शुल्क की चुनौती से मुकाबला करने के लिए घरेलू बाजार की खपत को हर संभव तरीके से और मजबूत | बनाते हुए विकास दर को ऊंचाई पर बनाए रखेगी।
Date: 26-08-25
सेमीकंडक्टर क्रांति का दौर
गिरीश पांडे
अभी हाल में सरकार ने दो ओडिशा में, एक पंजाब में और एक आंध प्रदेश में कुल चार नई सेमीकंडक्टर परियोजनाओं की स्वीकृति दे दी है। इन परियोजनाओं की अनुमानित लागत चार हजार पांच सौ 94 करोड़ रुपये है। सरकार पहले ही छह सेमीकंडक्टर संयंत्रों को मंजूरी दे चुकी है और उनका निर्माण कार्य चल रहा है। ये हैं गुजरात में दो, असम में एक तथा उत्तर प्रदेश में एक संयंत्र। इस प्रकार सरकार सेमीकंडक्टर और इलेक्ट्रॉनिक्स क्षेत्र के लिए मजबूत तंत्र तैयार कर रही है। वर्ष 2022 में भारत सरकार ने भारत सेमीकंडक्टर मिशन की शुरुआत की। इसका मुख्य उद्देश्य देश में एक मजबूत और आत्मनिर्भर सेमीकंडक्टर एवं डिस्प्ले विनिर्माण पारिस्थितिकी तंत्र विकसित करना था।
यह मिशन प्रधानमंत्री के आत्मनिर्भर ‘भारत’ विजन के तहत शुरू किया गया, ताकि भारत केवल उपभोक्ता ही नहीं बल्कि वैश्विक स्तर पर चिप निर्माण में एक महत्त्वपूर्ण खिलाड़ी बन सके। इसमें डिज़ाइन, विनिर्माण, पैकेजिंग, परीक्षण और अनुसंधान जैसे सभी आयाम शामिल किए गए। इस मिशन के अंतर्गत सरकार ने कई सेमीकंडक्टर फैव, डिस्प्ले फैव और विशेष पैकेजिंग एवं परीक्षण इकाइयों की स्थापना को मंजूरी दी। उद्योगों को आकर्षित करने के लिए 76,000 करोड़ रुपये का प्रोत्साहन पैकेज घोषित किया गया। वैश्विक कंपनियों के साथ भागीदारी, घरेलू स्टार्टअप्स को प्रोत्साहन, और सेमीकंडक्टर डिजाइन को बढ़ावा देने के लिए चिप-टू-स्टार्टअप कार्यक्रम भी शुरू किया गया। इसके साथ ही, राज्यों मैक्लस्टर आधारित हववनाने और अनुसंधान संस्थानों को उद्योग के साथ जोड़ने पर भी जोर दिया गया।
इन सबके परिणामस्वरूप तीन वर्षो की अवधि में भारत ने उल्लेखनीय प्रगति की है और आज भारत दुनिया के सबसे महत्त्वपूर्ण सेमीकंडक्टर उत्पादक देशों में से एक बनने जा रहा है। डिजाइन सेगमेंट में 100 से अधिक स्टार्टअप्सशामिल हुए हैं। भारत सरकार ने सेमीकंडक्टर क्षेत्र कोमिशन मोड में आगे बढ़ाने की ठोस पहल की है जहां केंद्र और राज्यों दोनों स्तरों पर निवेश, निर्माण, डिजाइन, कौशल विकास और अनुसंधान एवं विकास पर जोर दिया जा रहा है। सेमीकॉन इंडिया 2025 2 सितंबर 2025 से नई दिल्ली में आयोजित होगा, इसमें मलेशिया, जापान, सिंगापुर और दक्षिण कोरिया साझेदार के रूप में भाग लेंगे। गौरतलव है कि भारत में अब तक तीनसेमीकॉन इंडिया सम्मेलन आयोजित हो चुके हैं-2022 में बेंगलुरु में पहले सम्मेलन के साथ भारत सेमीकंडक्टर मिशन की शुरुआत हुई और इंटेल व टीएसएमसी जैसी कंपनियों के साथ सहयोग की नींव रखी गई 2023 में गांधीनगर, गुजरात में दूसरे सम्मेलन में अमेरिका, जापान तथा ताइवान की अग्रणी कंपनियों ने भाग लिया और भारत में निवेश तथा फैव इकाइयों की स्थापना पर ठोस घोषणाएं हुई, वहीं 2024 में बेंगलुरु में ही तीसरे सम्मेलन में स्टार्टअप्स, एमएसएम और शैक्षणिक संस्थानों को विशेष मंच मिला तथा 100 से अधिक डिजाइन स्टार्टअप्स को जोड़ा गया। इन तीनों आयोजनों ने भारत को वैश्विक चिप उद्योग में मजबूत दावेदार बनाने की ठोस नींव तैयार की।
सेमीकॉन इंडिया केवल नीति तक सीमित नहीं है, बल्कि इसे वार्षिक सम्मेलन और निवेश मंचके रूप में भी आयोजित किया जाता है, जहां वैश्विक उद्योग नेता, निवेशक, नीति-निर्माता और शोधकर्ता एक साथ आते है। इस मंच के साझेदारी और निवेश के लिए आकर्षित किया जरिए भारत ने कई अंतरराष्ट्रीय कंपनियों को है। प्रधानमंत्री ने 15 अगस्त 2025 को स्वतंत्रता दिवस के अवसर पर घोषणा की कि 2025 के अंत तक मेड इन इंडिया’ चिप्स बाजार में उपलब्ध हो जाएंगे। यह घोषणा इस दृष्टि से भी महत्त्वपूर्ण है कि भारत में सेमिकंडक्टर उद्योग को ‘भविष्य की रीढ़ माना जा रहा है, क्योंकि यह न केवल इलेक्ट्रॉनिक्स और डिजिटल अर्थव्यवस्था बल्कि ऑटोमोबाइल, रक्षा और दूरसंचार जैसे अनेक क्षेत्रों के लिए अनिवार्य है। आज वैश्विक स्तर पर सेमिकंडक्टर की मांग लगातार बढ़ रही है और भारत इसे आत्मनिर्भरता व निवेश आकर्षण के अवसर के रूप में देख रहा है। दुनिया की जटिल सप्लाई चेन और हाल ही के चिप संकट ने भारत को प्रेरित किया है कि वह इस क्षेत्र में अपनी पकड़ मजबूत करे वर्तमान में वैश्विक सेमीकंडक्टर उद्योग कुछ चुनिंदा देशों के हाथों में केंद्रित है। ताइवान की टीएसएमसी दुनिया की सबसे बड़ी फाउंड्री है और लगभग 60% वैश्विक चिप निर्माण नियंत्रित करती है, जबकि दक्षिण कोरिया की सैमसंग और एसके हाइनिक्स मेमोरी चिप्स में अग्रणी है।
अमरीका डिजाइन और बौद्धिक संपदा में शीर्ष पर है, जहां इंटेल, क्वालकॉम, एनवीडिया, एएमडी जैसी कंपनियां नई पीढ़ी के प्रोसेसर और आर्किटेक्चर विकसित करती है। इसके अलावा जापान सेमीकंडक्टर उपकरण व सामग्री आपूर्ति में महत्वपूर्ण है, नीदरलैंड् की एएसएमएल अत्याधुनिक ईयूवी लिथोग्राफी मशीनों की एकमात्र निर्माता है, वहीं चीन बड़े निवेशों के साथ अपनी घरेलू क्षमता बढ़ाने की दिशा में तेज़ी से आगे बढ़ रहा है। यही वजह है कि सेमीकंडक्टर को ’21वीं सदी का तेल’ कहा जाता है। इसलिए भारत ताइवान, दक्षिण कोरिया और अमरीका जैसे देशों के अनुभव से सीखकर तेजी से फैव’, डिजाइन केंद्र और अनुसंधान संस्थान विकसित करने की दिशा में अग्रसर है।
विशेष आर्थिक क्षेत्र, राज्यों की नीतिगत सहायता और स्किल डेवलपमेंट प्रोग्राम इस पारिस्थितिकी तंत्र को गति दे रहे हैं। हालांकि, भारत के सामने चुनौतियां भी कम नहीं हैं जैसे वैश्विक सप्लाई चेन, उच्च पूंजीगत लागत, उच्च प्रारंभिक निवेश, तकनीकी विशेषज्ञता की कमी तथा वैश्विक प्रतिस्पर्धा जैसी चुनौतियां भी बनी हुई हैं, इसलिए भारत को उन्नत फैब्रिकेशन में निवेश, अनुसंधान और विकास तथा डिजाइन पर जोर, कच्चे माल व सप्लाई चेन में आत्मनिर्भरता, कौशल विकास और स्थिर नीतिगत प्रोत्साहन पर ठोस कदम उठाने की की नवाचार क्षमता और विदेशी कंपनियों की जरूरत है। दीर्घकालिक दृष्टिकोण, स्टार्टअप्स साझेदारी से यह क्षेत्र भारत को वैश्विक स्तर पर नई पहचान दिला सकता है। इससे भारत की न केवल आयात निर्भरता घटेगी बल्कि वह विश्व का एक प्रमुख सेमीकंडक्टर हव वनने की दिशा में भी आगे बढ़ेगा।
Date: 26-08-25
अब थमे भ्रष्टाचार
संपादकीय
प्रवर्तन निदेशालय अर्थात ईडी की पकड़ से बचने के लिए पश्चिम बंगाल के एक विधायक ने जिस तरह भागने की कोशिश की, उसकी कड़ी निंदा होनी चाहिए। स्कूल भर्ती में अनियमितता के सिलसिले में सत्तारूढ़ पार्टी तृणमूल कांग्रेस के विधायक जीवन कृष्ण साहा पहले भी जेल जा चुके हैं और अभी जमानत पर थे। शर्मनाक है कि ईडी पश्चिम बंगाल के मुर्शिदाबाद जिले में स्कूल भर्ती में अनियमितताओं की जांच के सिलसिले में विधायक से जुड़ी संपत्तियों की तलाशी ले रही थी और इसी दौरान विधायक ने परिसर की चारदीवारी फांदकर भागने की कोशिश की। विधायक ने भागते हुए अपना मोबाइल तालाब में फेंक दिया, कीचड़ से लथपथ होने के बाद ही केंद्रीय बल ने विधायक को पकड़ा। यह अपनी तरह का त्रासद मामला है। यह सोचकर ही हैरत होती है कि एक विधायक किसी सामान्य अपराधी की तरह भागने की कोशिश करते हुए पकड़ा जाए। जब कोई आरोपी इस तरह से भागने की कोशिश करता है, तो वास्तव में उसे नुकसान ही होता है। क्या स्वयं शिक्षक रह चुके दागी विधायक को नुकसान का अनुमान नहीं था? क्या अपने और अपनी पार्टी के सम्मान की चिंता नहीं थी ?
एक बड़ा सवाल यह भी है कि क्या हमने भ्रष्टाचार को सामान्य मान लिया है? क्या भ्रष्टाचार पर चर्चाएं पहले की तुलना में कम हो गई हैं? बिहार में ही भ्रष्टाचार के एक मामले की बहुत चर्चा है। बिहार के पटना में इकोनॉमिक ऑफेंस यूनिट ग्रामीण कार्य विभाग में सुपरिटेंडेंट इंजीनियर के पद पर काम कर रहे विनोद कुमार राय के ठिकाने पर छापेमारी के लिए पहुंची। बताया जाता है कि आरोपी इंजीनियर की पत्नी ने नियमों का हवाला देकर अधिकारियों को रात के समय घर में घुसने नहीं दिया और मिले हुए समय में लाखों रुपये के नोट जलाती रही। नोट जलाने से घर की नालियां तक जाम हो गईं। इसके बावजूद छापेमारी में लाखों रुपये की नकदी, गहने और महंगी घड़ियां बरामद हुई हैं। अधजले नोट भी बरामद हुए हैं। पश्चिम बंगाल और बिहार के इन दो मामलों से यह पता चलता है कि अनेक आरोपी येन- केन-प्रकारेण बचने की साजिश रचते हैं, पर भ्रष्टाचार इतना ज्यादा है कि बचना मुश्किल हो जाता है। यह बड़ा सवाल है कि अनेक इंजीनियरों के पास करोड़ों रुपये की नकदी, संपत्ति, जमीन की बरामदगी कैसे हो रही है ? जो अधिकारी दिन-रात मेवा खाने में लगे हैं, वे भला प्रदेश और देश की कैसी सेवा कर रहे होंगे ? यह उम्मीद जगाई गई थी कि ऑनलाइन पेमेंट की वजह से भ्रष्टाचार घटेगा, पर अब यह ईमानदारी से परखना होगा कि शासन-प्रशासन में विभिन्न स्तरों पर भ्रष्टाचार समय के साथ कहीं बढ़ने तो नहीं लगा है ?
यह ठीक से समझ लेना चाहिए कि देश के तेज विकास के लिए भ्रष्टाचार पर लगाम जरूरी है। अगर हम भ्रष्टाचार पर लगाम नहीं लगाएंगे, तो आर्थिक समानता को ज्यादा बल नहीं मिलेगा। आर्थिक समानता का लक्ष्य विकसित होने की आशा के साथ नत्थी है। एक विकसित देश अपनी ईमानदारी की वजह से ही समाज में एक अलग तरह की संस्कृति को जन्म देता है। ऐसे कानूनों पर फिर एक बार निगाह फेरने की जरूरत है, जिनकी कमियां आज भ्रष्टाचारियों का मनोबल बढ़ा रही हैं। एक समय सेवा के अधिकार की चर्चा हुआ करती थी, क्या यह काम राज्यों में है? भ्रष्टाचारियों या दागियों के प्रति शून्य असहिष्णुता क्यों नहीं है ? बहरहाल, यह विडंबना है कि भारत में जेल में बैठकर भी शासन-प्रशासन को चलाया जा सकता है।