25-07-2019 (Important News Clippings)

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25 Jul 2019
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Date:25-07-19

Local Reservation of Jobs a Terrible Idea

ET Editorials

One India, one market. That was the hope when the goods and services tax (GST) was enacted. Andhra Pradesh chief minister Jagan Mohan Reddy seeks to destroy that ideal by reserving 75% of industrial jobs in his state for local people. This hits the ideal of one unified Indian market. It violates not just the spirit of GST but the word of the Constitution, which guarantees equality of status and opportunity for all and forbids discrimination on the basis of place of birth alone. This is qualified by allowing Parliament to enact residence-based laws on employment in states and Union territories. But this power does not extend to state governments.

The states may enact reservations in government jobs for scheduled castes, schedules tribes and educationally and socially backward classes, but not for local residents alone. Nor can they reserve jobs in the private sector, which Reddy wants to do. Earlier this month, Kamal Nath, chief minister of Madhya Pradesh, said he planned to reserve 70% of private-sector jobs for local youths. When asked about constitutional curbs, he said that some other states already had reservations for locals. Now, the Constitution permits such curbs in some tribal states, but neither Madhya Pradesh nor Andhra Pradesh qualifies. Over and above this, the Supreme Court has ruled that all reservations put together should not exceed 50% of total jobs. Both Kamal Nath and Jagan Reddy are merrily ignoring this.

This is a dangerous game that would add to India’s many schisms. Many specialised activities require highly skilled staff that cannot be found locally. India needs no additional hurdle to competitiveness. The Supreme Court must strike down these attempts to plunge India into social friction and economic decline. One India, please.


Date:25-07-19

Gratifying rise on Innovation Index

Yet, India realises a fraction of its potential

ET Editorials

Innovation has increasingly gained importance as a driver of economic growth on par with investment. Growth of R&D spends has been outstripping growth of GDP for the world as a whole for several years. And countries that take the lead in this effort will reap the gains in the years to come. India has not been doing a bad job. In a ranking of nearly 130 countries on innovation, by the World Intellectual Property Organisation that brings out the Global Innovation Index, India has risen 24 positions in the last four years, to rank 52nd. This is creditable. But, then, China ranks 14th. Malaysia, Vietnam and Thailand rank ahead of India. Singapore ranks eighth. Tiny Israel has broken into the top 10. Sanctions-hit Iran still manages to rank 61st. The United Arab Emirates ranks 36th. India can and should do a lot more.

The Index is a composite of 80 indicators that measure creative output, quality of institutions, investment, quality of education and so on. But innovation is, in essence, a mindset, a vision, whose translation into a realised output calls for enabling factors and institutions. If India’s 1.3 billion people, particularly the 650 million aged 25 or less, acquire the innovation mindset, nothing can hold the country back. Yet, while India has been moving ahead on facilitating factors, such as the time it takes to examine a patent claim, or opening more higher educational institutions, or tinkering labs at schools, things have not moved ahead on other fronts. It is proposed to centralise research funding. It is fine to allocate resources to priority areas. But to deny funds to research bureaucracy finds trivial would be a disaster. Battle tanks on university premises and classifying campus thought as pro- and anti-national are hardly designed to promote free-ranging thought and accompanying academic inquiry.

India has to improve the quality of school education for the masses, expand healthcare and dismantle the traditional social hierarchy that throttles ideas and their articulation at the lower rungs of society, and not just step up allocation for R&D in the public and private sectors.


Date:25-07-19

सुप्रीम कोर्ट में बार-बार पहुंचता दलबदल कानून

संपादकीय

न्यायशास्त्र के दो प्रचलित सिद्धांत हैं पहला, कोई कानून सही है या गलत यह पता लगाने के लिए यह देखना चाहिए कि उसके न होने पर क्या-क्या खतरे हो सकते हैं; और दूसरा, ऐसा कानून, जिसे तोड़कर बचना आसान हो, समाज को लाभ की जगह नुकसान पहुंचाता है। कर्नाटक में सरकार तो बहुमत के अभाव में गिर गई, लेकिन जिस दिन दलबदल कानून को ठेंगा दिखाते हुए 12-15 बागी विधायक मंत्री या अन्य समकक्ष पद की शपथ लेंगे, वह दिन भारत के संविधान की गरिमा के लिए शायद सबसे बुरा दिन होगा। सुप्रीम कोर्ट ने बागी विधायकों को सदन में आने न अाने की छूट देकर और स्पीकर को व्हिप का उल्लंघन करने वाले विधायक के भाग्य का फैसला करने की छूट देकर फैसले में संतुलन बनाने की कोशिश की थी। सरकार तो गिर गई और नियमानुसार नया स्पीकर 14 दिन बाद चुना जाएगा, लेकिन वर्तमान में यही स्पीकर कांग्रेस और जद (एस) की शिकायत पर कानूनन 15 दिन के भीतर फैसला लेंगे। उधर बागी विधायकों ने सारी पैंतरेबाजी शुरू कर दी है- पहले कहा कि उन्हें स्पीकर का नोटिस मिला ही नहीं और अब जवाब देने के लिए चार सप्ताह का समय मांग रहे हैं ताकि उस समय तक भाजपा का स्पीकर आ जाए और वे शपथ ले सकें। जाहिर है अगले दो-चार दिन में ही स्पीकर यह फैसला करने जा रहे हैं और फैसला क्या होगा यह भी स्पष्ट है। स्पीकर के फैसले को नया स्पीकर नहीं बदल सकता और केवल अदालत ही उसका संज्ञान ले सकती है। यानी मामला फिर एक बार सुप्रीम कोर्ट की चौखट पर। अब इसका दूसरा पहलू देखें। अगर स्पीकर यह फैसला न लें तो ये सब मंत्री सहित तमाम सरकारी पदों पर बैठकर पूरे भारत के जनप्रतिनिधियों को संदेश देंगे कि व्हिप जारी होने से पहले इस्तीफा दो और संविधान की अनुसूची 10 (4) (2) के- ‘केवल दो-तिहाई बहुमत और साथ में किसी अन्य दल में विलय- की शर्त को अंगूठा दिखाते हुए नई सरकार में मंत्री बन उसी संविधान में निष्ठा की शपथ लो। अगर मैकॉले की दंड संहिता 259 साल तक भारत-पाकिस्तान में बदस्तूर कायम रह सकती है तो क्यों दलबदल कानून को 2003 में और सख्त बनाया गया और फिर भी हर बार कुछ समय बाद इसे चुनौती देकर मामला सुप्रीम कोर्ट की चौखट पर डाल दिया जाता है। शायद ‘माननीयों’ को भी अभी अपने ही बनाए कानून के पालन में ज्यादा भरोसा नहीं हो पा रहा है।


Date:25-07-19

गरीबी हटाओ की नहीं, अमीरी लाओ की जरूरत

फैसलों में साहसी मानसिकता दिखाने पर ही प्रधानमंत्री मोदी के दूसरे कार्यकाल की सफलता निर्भर

गुरचरण दास , लेखक और स्तंभकार

कुछ दिनों पहले रविवार की रात एक टीवी शो में एंकर ने प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के 5 लाख करोड़ डॉलर के जीडीपी के लक्ष्य का तिरस्कारपूर्व बार-बार उल्लेख किया। यह शो हमारे शहरों के दयनीय पर्यावरण पर था और एंकर का आशय आर्थिक प्रगति को बुरा बताने का नहीं था, लेकिन ऐसा ही सुनाई दे रहा था। जब इस ओर एंकर का ध्यान आकर्षित किया गया तो बचाव में उन्होंने कहा कि भारत की आर्थिक वृद्धि तो होनी चाहिए पर पर्यावरण की जिम्मेदारी के साथ। इससे कोई असहमत नहीं हो सकता पर दर्शकों में आर्थिक वृद्धि के फायदों को लेकर अनिश्चतता पैदा हो गई होगी।

कई लोगों ने बजट में पेश नीतियों व आंकड़ों को देखते हुए इस साहसी लक्ष्य पर संदेह व्यक्त किया है। मोदी ने अपने आलोचकों को ‘पेशेवर निराशावादी’ बताया है। किसी लक्ष्य की आकांक्षा रखने को मैं राष्ट्र के लिए बहुत ही अच्छी बात मानता हूं। जाहिर है कि मोदी 2.0 सरकार नई मानसिकता से चल रही है। यह खैरात बांटने की ‘गरीबी हटाओ’ मानसिकता से हटकर खुशनुमा बदलाव है। राहुल गांधी ने जब मोदी 1.0 पर सूट-बूट की सरकार होने का तंज कसा था तो वह ‘गरीबी हटाओ’ से ग्रस्त हो गई थी और इसके कारण हाल के आम चुनाव में इस मामले में नीचे गिरने की होड़ ही मच गई थी। इस लक्ष्य ने आर्थिक वृद्धि की मानसिकता को बहाल किया है, इसीलिए मोदी 2014 में चुने गए थे। चीन में देंग शियाओ पिंग की मिसाल रखते हुए मैं तो मोदी 2.0 के लिए ‘न सिर्फ गरीबी हटाओ बल्कि अमीरी लाओ’ के नारे का सुझाव दूंगा। ‘सूट-बूट’ के प्रति सुधारवादी प्रधानमंत्री का सही उत्तर यह होना चाहिए, ‘हां, मैं हर भारतीय से चाहता हूं कि वह मध्यवर्गीय सूट बूट की जीवनशैली की आकांक्षा रखे’। जीडीपी का मतलब है ग्रॉस डेवलपमेंट प्रोडक्ट (सकल घरेलू उत्पाद)। यह मोटेतौर पर किसी अर्थव्यवस्था की कुल संपदा दर्शाता है। इसे औद्योगिक युग में अर्थशास्त्रियों ने ईजाद किया था और इसकी अपनी सीमाएं हैं। आज कई लोग पर्यावरण हानि के लिए आर्थिक वृद्धि को दोष देते हैं। वे चाहते हैं कि सरकार धन का पीछा छोड़ लोगों की परवाह करना शुरू करे। लेकिन, यथार्थ तो यही है कि जीडीपी नीति-निर्माताओं के लिए श्रेष्ठतम गाइड है। हाल के वर्षों में आर्थिक वृद्धि ने दुनियाभर में एक अरब से ज्यादा लोगों को घोर गरीबी से उबारा है।

केवल आर्थिक वृद्धि से ही किसी समाज में जॉब पैदा होते हैं। सरकार को टैक्स मिलता है ताकि वह शिक्षा (जो अवसर व समानता लाती है) और हेल्थकेयर (जिससे पोषण सुधरता है, बाल मृत्युदर घटती है और लोग दीर्घायु होते हैं) पर खर्च कर सके। मसलन, भारत में आर्थिक वृद्धि ने ग्रामीण घरों में सब्सिडी वाली रसोई गैस पहुंचाई ताकि वे घर में कंडे व लकड़ी जलाने से होने वाले प्रदूषण से बच सकें। 1990 में प्रदूषण का यह भीषण रूप दुनियाभर में 8 फीसदी मौतों के लिए जिम्मेदार था। वृद्धि और समृद्धि आने से यह आंकड़ा करीब आधा हो गया है। जब गरीब राष्ट्र विकसित होने लगते हैं तो बाहर का प्रदूषण तेजी से बढ़ता है पर समृद्धि आने के साथ प्रदूषण घटने लगता है और उसके पास इसे काबू में रखने के संसाधन भी होते हैं। अचरज नहीं कि प्रतिव्यक्ति ऊंची जीडीपी वाले राष्ट्र मानव विकास व प्रसन्नता के सूचकांकों पर ऊंचाई पर होते हैं।

वित्तमंत्री ने अपने बजट भाषण में आर्थिक वृद्धि को जॉब से अधिक निकटता से जोड़ने का मौका गंवा दिया। मसलन, उन्हें एक मोटा अनुमान रखना था कि अगले पांच वर्षों में बुनियादी ढांचे पर 105 लाख करोड़ रुपए खर्च करने से कितने जॉब निर्मित होंगे। चूंकि आवास अर्थव्यवस्था में सबसे अधिक श्रम आधारित है तो उन्हें बताना चाहिए था कि ‘2022 तक सबको आवास’ के लक्ष्य के तहत कितने जॉब पैदा होंगे। 5 लाख करोड़ डॉलर का लक्ष्य हासिल करने में सफलता साहसी सुधार लागू करने के साथ मानसिकता में बदलाव पर निर्भर होगी। 1950 के दशक से विरासत में मिला निर्यात को लेकर निराशावाद अब भी मौजूद है और वैश्विक निर्यात में भारत का हिस्सा मामूली 1.7 फीसदी बना हुआ है। निर्यात के बिना कोई देश मध्यवर्गीय नहीं बन सकता। हमें दुर्भाग्यजनक संरक्षणवाद को खत्म करना चाहिए, जिससे देश 2014 से ग्रसित है। हमें अपना नारा बदलकर ‘मेक इन इंडिया फॉर द वर्ल्ड’ कर लेना चाहिए। केवल निर्यात के माध्यम से ही हमारे महत्वाकांक्षी युवाओं के लिए ऊंची नौकरियां व अच्छे दिन आएंगे। दूसरी बात, वृद्धि और जॉब निजी निवेश के जरिये ही आएंगे। बड़े निवेशकों को भारत का माहौल प्रतिकूल लगता है। बजट ने इसे और बढ़ाया है और शेयर बाजार के धराशायी होने का एक कारण यह भी हो सकता है।

तीसरी बात, हालांकि भारत कृषि उपज का प्रमुख निर्यातक बन गया है पर यह अब भी अपने किसानों से गरीब देहातियों की तरह व्यवहार करता है। किसानों को वितरण (एपीएमसी, अत्यावश्यक वस्तु अधिनियम आदि को खत्म करें), उत्पादन (अनुबंध पर आधारित खेती को प्रोत्साहन दें), कोल्ड चेन्स (मल्टी ब्रैंड रिटेल को अनुमति दें) की आज़ादी और एक स्थिर निर्यात नीति चाहिए। सुधार पर अमल ही काफी नहीं है, मोदी को उन्हें लोगों के गले भी उतारना होगा। शुरुआत अपनी पार्टी, आरएसएस और संबंधित भगवा संगठनों से करें और उसके बाद शेष देश। मार्गरेट थैचर का यह वक्तव्य प्रसिद्ध है कि वे अपना 20 फीसदी वक्त सुधार लागू करने में लगाती हैं और 80 फीसदी वक्त उन्हें स्वीकार्य बनाने में लगाती हैं। नरसिंह राव, वाजपेयी और मनमोहन सिंह जैसे पूर्ववर्ती सुधारक इसमें नाकाम रहें। जबर्दस्त जनादेश प्राप्त मोदी को अपनी कुछ राजनीतिक पूंजी इस पर खर्च करनी चाहिए। अब वक्त आ गया है कि भारत चुपके से सुधार लाना बंद करे। लोकतंत्र में जीतने वाले का हनीमून आमतौर पर 100 दिन चलता है। इकोनॉमी के लक्ष्य के आलोचकों को सर्वोत्तम जवाब यही होगा कि उक्त अवधि में कुछ नतीजे दिखा दिए जाएं। मसलन, पहले कार्यकाल से भू व श्रम सुधार बिल बाहर निकाले, उनमें सुधार लाएं और उन्हें इस लक्ष्य से स्वीकार्य बनाएं कि इस बार वह राज्यसभा से पारित हो जाएं। वित्तमंत्री को सार्वजनिक उपक्रमों (एयर इंडिया के अलावा) की बिक्री की समयबद्ध योजना सामने रखकर अपने साहसी विनिवेश लक्ष्य पर तेजी से अमल करना चाहिए। इस तरह के कदमों से जीडीपी लक्ष्य के प्रति लोगों का भरोसा पैदा होगा। हर तिमाही में राष्ट्र के सामने प्रगति की रिपोर्ट प्रस्तुत करने से मोदी 2.0 के विज़न में लोगों का भरोसा और मजबूत होगा।


Date:24-07-19

The complexities of Naga identity

The Nagaland govt. will face many hurdles in its quest to compile a list of indigenous inhabitants

Sushanta Talukdar is Editor, nezine.com, a bilingual online magazine on the Northeast

The Nagaland government’s move to compile a Register of Indigenous Inhabitants of Nagaland (RIIN) opens up possibilities in the context of the decision to link the register to the Inner Line Permit (ILP) system without a consensus on the definition of an ‘indigenous inhabitant’.

One such possibility is of RIIN pushing the negotiators engaged in the ongoing Naga peace talks to articulate new and hardened positions on the contentious issue of integration of contiguous Naga-inhabited areas.

Though the official notification on RIIN has not mentioned a cut-off date to compile the proposed register, the authorities in Nagaland have till date issued indigenous inhabitant certificates using December 1, 1963 as the cut-off date. Nagaland was inaugurated as India’s 16th State on this date following the ‘16-point agreement’ between the government of India and the Naga People’s Convention on July 26, 1960.

Opposition from NSCN (I-M)

The National Socialist Council of Nagalim (Isak-Muivah), which has been engaged in peace talks with the government of India since 1997, has opposed the compilation of RIIN asserting that “all Nagas, wherever they are, are indigenous in their land by virtue of their common history”.

A statement issued by the ‘Ministry of Information and Publicity’ of the self-styled Government of the People’s Republic of Nagalim reads: “The present move of the State government to implement [the] Register of Indigenous Inhabitants of Nagaland (RIIN) is contradictory to the inherent rights of the Nagas. It is politically motivated to suit the interest of the groups advocating for the ‘16-Point Agreement’. The ‘Nagaland State’ does not and will not represent the national decision of the Naga people. It was formed purely to divide the Nagas.” The self-styled government of the People’s Republic of Nagalim is the parallel government run by the NSCN(I-M).

On June 29, the Nagaland government notified that RIIN “will be the master-list of all indigenous inhabitants” of the State. All those to be included will be issued “barcoded and numbered indigenous inhabitant certificates”. It added that all existing indigenous inhabitant certificates would become invalid once the process of compiling RIIN is completed and fresh certificates issued.

RIIN is different from Assam’s National Register of Citizens (NRC) as exclusion or inclusion in RIIN is not going to determine the Indian citizenship of anyone in Nagaland.

Three conditions

Since 1977, a person, in order to be eligible to obtain a certificate of indigenous inhabitants of Nagaland, has to fulfil either of these three conditions: a) the person settled permanently in Nagaland prior to December 1, 1963; b) his or her parents or legitimate guardians were paying house tax prior to this cut-off date; and c) the applicant, or his/her parents or legitimate guardians, acquired property and a patta (land certificate) prior to this cut-off date.

The compilation of RIIN also involves the complexities of deciding claims in respect of children of non-Naga fathers as well as non-Naga children adopted by Naga parents.

If the Nagaland government goes ahead with a compilation of RIIN with this cut-off date, then all Naga people who have migrated to the State from the neighbouring States of Assam, Manipur and Arunachal Pradesh and elsewhere in India after this day will have to be excluded.

The NSCN(I-M) statement adds, “Nothing is conclusive on the Naga issue, until and unless a mutually agreed honourable political solution is signed between the two entities. Therefore, any attempt to dilute the final political settlement by justifying any past accord of treasons should be seriously viewed by all Nagas.”

This clearly indicates the opposition the Nagaland government may have to face if it goes ahead with the move to compile RIIN. The Centre and the NSCN (I-M), which is the largest among all armed Naga rebel groups, signed a Framework Agreement in 2015, the content of which has still not been made public, in turn leaving room for speculation on the contentious issue of integration of all contiguous Naga-inhabited areas of Assam, Nagaland, Manipur and Arunachal Pradesh.

Unless otherwise clarified through an official notification, the proposed linking of RIIN with the ILP system may require large numbers of non-indigenous inhabitants of Dimapur district, more particularly the commercial hub (Dimapur town), to obtain an ILP to carry out day-to-day activities. Most of them migrated from other States and have been carrying out trade, business and other activities for decades. Migration also explains the higher density of population in Dimapur district (409 persons per sq. km) when compared to all the other districts in the State. The ILP is a travel document issued by the government of India to allow a ‘domestic tourist’ to enter Nagaland, and is valid for 30 days.

Streamlining ILP

The Supreme Court, on July 2, dismissed a Public Interest Litigation seeking a directive against the Nagaland government’s move to implement the ILP in the entire State including Dimapur district, which had so far been kept out of the purview of the ILP system.

A report prepared by the government, in collaboration with the UNDP in 2009, gave information on migration patterns in Nagaland. Titled ‘Rural-Urban Migration: A Thematic Report’, it said that in 2001, Assam was the State with the highest number of migrants to Nagaland (19,176 people), followed by Bihar (7,249 people) and Manipur (4,569 people). A large section of people (about 45% of them in the case of Assam, 59% in the case of Bihar and 25% in the case of Manipur) had migrated for better employment and business opportunities.

While the move to streamline the ILP system to curb the influx of “illegal migration” to Nagaland has been welcomed by civil society, public opinion is still divided on compiling RIIN without a consensus on the cut-off date.

As the Nagaland government has begun a consultation process on RIIN, it will be under pressure to de-link the work of streamlining the ILP mechanism from the proposed register and put it on hold till the ongoing peace process concludes and the final solution is worked out.

Besides this, the complexities that may arise in streamlining the ILP mechanism due to non-issuance of domicile certificates or permanent residence certificates to a large number of non-Naga, non-indigenous inhabitants could also make the task even more difficult for the Neiphiu Rio-led Nagaland government.