25-02-2023 (Important News Clippings)

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25 Feb 2023
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Date:25-02-23

डिजिटल इंडिया के साथ एथिकल इंडिया भी हो

संपादकीय

इंदौर में एक महिला प्रिंसिपल को एक छात्र ने पेट्रोल छिड़क कर जला दिया। कर्नाटक में एक डिलीवरी बॉय को आईफोन का पेमेंट मांगने पर चाकू मारा गया। डिजिटल इंडिया आधुनिक भारत का प्रतीक है लेकिन ये घटनाएं मूल्य शून्य होते भारत की एक नई इबारत भी लिख रही हैं। भारतीय समाज में मूल्यों, खासकर हजारों साल के अनुभव के आधार पर बनाए गए सकारात्मक मूल्यों का तेजी से अवसान हो रहा है। ऑनलाइन आर्डर देने पर गरम पिज्जा की 15 मिनट में डिलीवरी को भारत का विकास मानने वाला युवक मूल्य-विहीन और सोचने की शक्ति खोता हुआ मात्र एक कंज्यूमर बन गया है। दरअसल देश में मूल्यों के प्रति बच्चों में आग्रह और प्रतिबद्धता स्थापित करने वाली संस्थाएं इस दौर में विलुप्त हो गई हैं। यह स्थिति मल्टीनेशनल कॉर्पोरेट वर्ल्ड के लिए लाभकारी है, क्योंकि 13 घंटे रोज काम के बदले भारतीय पैमाने से ज्यादा पगार देकर वह एक ‘शिक्षित बंधुआ मजदूरों की फौज सहज में हासिल कर लेता है। मार्केट फोर्सेज को भी ऐसा ही उपभोक्ता चाहिए। लेकिन उपरोक्त घटनाएं यह बताती है कि देश उपभोक्ता समाज तो बन जाएगा, लेकिन व्यक्तिगत शांति और सामाजिक सौहार्द जिसे सामाजिक पूंजी (सोशल कैपिटल ) कहते हैं, जाती रहेगी। यानी व्यक्ति के ‘आत्मिक सुख’ की मात्रा क्षीण होती जाएगी। नैतिक मूल्य-विहीन समाज सुखी नहीं रह सकता।


Date:25-02-23

अच्छी नौकरियां तलाशने के तरीके भी अब बदल रहे हैं

पंकज बंसल Taggd, ( डिजिटल रिक्रूटमेंट प्लेटफॉर्म और वर्क यूनिवर्स के सह-संस्थापक )

परम्परागत रूप से नौकरियों की तलाश में उम्मीदवारों को स्थानीय अखबारों और टेम्प एजेंसियों पर निर्भर रहना पड़ता था। ये प्रणालियां शायद आज भी उपयोगी हों, लेकिन अब वे जॉब-सीकर्स को पहले जितने अवसर मुहैया नहीं कराती हैं। इंटरनेट ने क्रांतिकारी बदलाव ला दिए हैं। वर्ष 2022 में लगभग 80 प्रतिशत जॉब-सर्च ऑनलाइन किए गए थे और कम्पनियों से उम्मीदवारों का सम्पर्क स्थापित करने में जॉब बोर्ड्स अहम भूमिका निभा रहे थे। उसी साल हर माह 25 करोड़ से ज्यादा यूनीक विजिटर्स भी दर्ज किए गए। लेकिन करियर की शुरुआत में ये प्लेटफॉर्म भले बहुत काम के साबित हों, उनकी अपनी सीमाएं भी हैं। वे बहुत औपचारिक हैं, भीड़भरे हैं, रिक्रूटर्स को अच्छी सीवी क्वालिटी नहीं मुहैया कराते और आज के समय की बदलती भूमिकाओं के लिए उपयुक्त नहीं हैं। ऐसे में आपको जॉब बोर्ड्स के परे जाना होगा। लेकिन कैसे? इसका जवाब नेटवर्किंग में है। मौजूदा दौर के 85 प्रतिशत से ज्यादा जॉब्स नेटवर्किंग के माध्यम से ही मिल रहे हैं। अपना पेशेवर नेटवर्क बनाने और नौकरियां तलाशने के लिए ये चार तरीके कारगर साबित हो सकते हैं :

1. टैलेंट कम्युनिटीज़ : ये समान पेशेवर रुचियों वाले व्यक्तियों के नेटवर्क्स हैं। वे अपने सदस्यों को उनकी स्किल्स दिखाने और वेबिनार, वर्कशॉप, कोर्सेस के जरिए इंडस्ट्री-विशेषज्ञों से संवाद करने का अवसर मुहैया कराते हैं। कम्युनिटी-माहौल से नियोक्ता और कर्मचारी को एक यूनीक नेटवर्किंग अनुभव मिलता है और उनके लिए एक-दूसरे से जुड़ना सरल हो जाता है। कम्पनियां भी ऐसी कम्युनिटीज़ में जॉब-ओपनिंग्स के बारे में पोस्ट करना पसंद करती हैं। उनके हाई-इंगेजमेंट के स्तरों के कारण दोनों पक्षों को जॉब-फिटनेस के बारे में राय बनाने का मौका मिलता है और परिणामस्वरूप साक्षात्कार आदि की प्रक्रियाएं सरल हो जाती हैं। नैस्कॉम (आईटी) और सियाम (ऑटोमोबाइल्स) जैसे इंडस्ट्री-फोरम के पास पेशेवर नेटवर्किंग को बढ़ावा देने वाली कम्युनिटीज़ हैं। आप टैग्ड के करियर सर्कल्स जैसे पीयर-नेटवर्कों का भी लाभ ले सकते हैं, जिनके पास फार्मास्युटिकल्स, आईटी, ऑटोमोबाइल आदि के लिए कम्युनिटीज़ हैं।

2. सिफारिशें : जॉब-रेफरेंस भी एक भरोसेमंद स्रोत है, जिसका इस्तेमाल कम्पनियों के द्वारा नियुक्तियों के लिए किया जाता है। यह एक तरह की वर्ड-ऑफ-माउथ मार्केटिंग है। अगर आप किसी ऐसी कम्पनी में काम करना चाहते हैं, जहां कोई आपको जानता है और आपकी जॉब-स्किल्स की पुष्टि कर सकता है तो उनसे आपको रिकमेंड करने का अनुरोध करें। कम्पनी आपकी प्रोफाइल पर खुशी से विचार करेगी। अध्ययनों में पाया गया है अधिकतर कम्पनियां ऐसे ही रेफरल्स के जरिए 40% कर्मचारियों की नियुक्ति करती हैं। सिफारिशी उम्मीदवारों की नियुक्ति की सम्भावना दूसरों से चार गुना अधिक होती है। ऑटोमोटिव, बीएफएसआई, आईटी, मैन्युफेक्चरिंग जैसी इंडस्ट्रीज़ तो सिफारिशों पर बहुत निर्भर करती हैं।

3. सोशल मीडिया : 2022 में 73% मिलेनियल्स को सोशल मीडिया प्लेटफॉर्मों के जरिए काम मिला। 66% नियोक्ता नियमित रूप से सोशल मीडिया पर भर्तियों के बारे में पोस्ट करते हैं। लिंक्डइन इसमें सबसे भरोसेमंद रिक्रूटमेंट चैनल है, जिसके बाद फेसबुक, ट्विटर, इंस्टाग्राम का नम्बर आता है। सोशल मीडिया के जरिए सफलतापूर्वक नौकरियां खोजने के लिए यह जरूरी है कि आप वहां अपनी मौजूदगी कायम रखें और अपनी प्रोफाइल को अपडेट करते रहें।

4. वॉट्सएप्प : एक और लोकप्रिय साधन है वॉट्सएप्प। आपके फोन में मौजूद यह चैट मैसेंजर अपने नियोक्ताओं के द्वारा ग्रुप बनाकर भर्तियों के बारे में सूचनाएं फॉरवर्ड करने के लिए उपयोग किया जाता है। आईटी, एचआर, फाइनेंस, एडमिन भूमिकाओं के लिए सहायकों की तलाश में यह बहुत लोकप्रिय है।

अब सरकार भी ऐसा नया प्लेटफॉर्म विकसित कर रही है, जो नौकरियों की तलाश करने वालों को अपनी प्रतिभा दिखाने का मौका देगा। इसे स्किल्स का यूपीआई भी कहा जा सकता है और जॉब-सीकर्स को इस पर नजर रखना चाहिए। अगर आप नए काम की तलाश कर रहे हैं या करियर में बदलाव के बारे में विचार कर रहे हैं तो जॉब बोर्ड्स के परे जाकर डिजिटल जॉब मार्केट की पूर्ण सम्भावनाओं का अनुभव करना जरूरी है। इतनी सारी चैनल्स पर सक्रिय रहना भले मुश्किल लगे, दृढ़ता और धैर्य के फल हमेशा मीठ होते हैं!


Date:25-02-23

पंजाब में खतरे की घंटी

संपादकीय

पंजाब के अजनाला थाने में अपने एक साथी को रिहा कराने पहुंचे खालिस्तान समर्थकों की अराजकता के आगे पंजाब पुलिस जिस तरह असहाय दिखी, उससे उन दिनों का स्मरण हो आया, जब खालिस्तानी आतंकवाद चरम पर था। इन खालिस्तानी समर्थकों के हमले में पंजाब पुलिस के कई सिपाही गंभीर रूप से घायल हो गए और फिर भी पुलिस अधिकारी उस व्यक्ति को रिहा करने पर सहमत हो गए, जिसे अपहरण और मारपीट के आरोप में गिरफ्तार किया गया था। किसी के लिए भी समझना कठिन है कि पंजाब पुलिस ने खालिस्तानी समर्थक और वारिस पंजाब दे नामक संगठन के प्रमुख अमृतपाल सिंह के नेतृत्व में हुई अराजकता के आगे इस तरह समर्पण क्यों कर दिया? इस प्रश्न का उत्तर पंजाब सरकार को भी देना चाहिए। इसलिए और भी, क्योंकि पुलिस पर हमला करने वालों पर कोई मामला दर्ज नहीं किया गया। खालिस्तानी समर्थक जिस समय अजनाला थाने पर चढ़ाई करने में लगे हुए थे, उस समय पंजाब के मुख्यमंत्री भगवंत मान मोहाली में निवेशकों को आकर्षित करने में लगे हुए थे। आखिर ऐसे माहौल में कौन पंजाब में निवेश करने को तैयार होगा? मान सरकार को यह पता होना चाहिए कि राज्य में कानून एवं व्यवस्था को जिस तरह चुनौती मिल रही है, उसके चलते निवेशक पहले से ही पंजाब से मुंह मोड़ने में लगे हुए हैं। पंजाब में सक्रिय खालिस्तान समर्थक एक ओर जहां कानून एवं व्यवस्था को चुनौती देने में लगे हुए हैं, वहीं दूसरी ओर नशे के सौदागर भी बेलगाम बने हुए हैं। इस सबसे रंगला पंजाब एक खोखला नारा भर बनता जा रहा है।

पंजाब में एक अर्से से खालिस्तान समर्थकों की सक्रियता बढ़ती जा रही है, लेकिन राज्य सरकार उन पर लगाम लगाने की इच्छाशक्ति का प्रदर्शन नहीं कर रही है। परिणाम यह है कि वे और अधिक दुस्साहसी होते जा रहे हैं। उन्होंने जिस तरह धार्मिक प्रतीकों की आड़ में अजनाला थाने पर धावा बोला, वह उनके दुस्साहस का भी परिचायक है और इसका भी कि वे उन्हीं तौर-तरीकों को अपना रहे हैं, जो भिंडरांवाले ने अपनाए थे। यह और कुछ नहीं खतरे की एक बड़ी घंटी है। पंजाब सरकार और उसकी पुलिस को तो चेतना ही होगा, राज्य के राजनीतिक एवं सामाजिक संगठनों को भी सजग होना होगा। यह शुभ संकेत नहीं कि कुछ राजनीतिक-सामाजिक संगठन खालिस्तान समर्थकों की अतिवादी गतिविधियों पर मौन रहना पंसद कर रहे हैं। इनमें से कुछ वे भी हैं, जिन्होंने अतीत में खालिस्तानी तत्वों को हवा दी थी। इसके कैसे भयावह नतीजे हुए, यह किसी से छिपा नहीं। चूंकि पंजाब में अराजकता का सहारा ले रहे तत्वों से जैसी सख्ती से निपटा जाना चाहिए, वैसी सख्ती नहीं दिखाई जा रही है, इसलिए केंद्र सरकार को भी चेतना चाहिए। इसलिए और भी, क्योंकि खालिस्तानी समर्थक देश के बाहर भी बेलगाम हो रहे हैं।


Date:25-02-23

सामाजिक पूंजी

टी. एन. नाइनन

हाल के वर्षों में सरकार के बजट की एक आम आलोचना यह रही है कि उसका ध्यान हमेशा पूंजीगत निवेश पर केंद्रित रहता है और सामाजिक क्षेत्रों की अनदेखी की जाती है। उदाहरण के लिए सामाजिक क्षेत्रों की इस अनदेखी को रोजगार गारंटी योजना के वास्ते घटते आवंटन और ​शिक्षा के बजट में ठहराव में देखा जा सकता है। यह ​स्थिति तब है जब पात्र आयु वाले बच्चों में से 20 फीसदी माध्यमिक ​शिक्षा पूरी नहीं कर पाते, बीते कई सालों से प्राथमिक और सामुदायिक स्वास्थ्य केंद्रों की संख्या वैसी की वैसी है और वास्तविक ग्रामीण पारिश्रमिक अभी भी महामारी के पहले वाले स्तर पर ही है।

वर्ष 2022-23 की आ​र्थिक समीक्षा में इस आलोचना को लेकर प्रतिक्रिया दी गई है। उसमें उपरोक्त सभी बातों को दर्ज करने के साथ ही यह भी दिखाया गया है कि तस्वीर केवल काली या सफेद नहीं है ब​ल्कि उसके और भी पहलू हैं। ध्यान देने वाली बात है कि कुल सरकारी व्यय में सामाजिक क्षेत्र पर होने वाला सामान्य सरकारी व्यय (केंद्र और राज्यों का मिलाकर) लगातार बढ़ रहा है। सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) के प्रतिशत के रूप में भी इसमें इजाफा हो रहा है। वर्ष 2015-16 और 2022-23 (बजट अनुमान) के बीच जीडीपी हिस्सेदारी 6.6 फीसदी से बढ़कर 8 फीसदी हो गई (समीक्षा में कहा गया है कि यह 8.3 फीसदी हो गई क्योंकि उसके पास वर्तमान मूल्य पर जीडीपी के नए आंकड़े नहीं हैं)। इस बढ़ोतरी के साथ स्वास्थ्य की हिस्सेदारी बढ़ रही है जबकि ​शिक्षा में ​स्थिरता है।

इसका परिणाम यह हुआ कि स्वास्थ्य मानकों में सुधार हुआ तथा परिवारों को पानी और बिजली की उपलब्धता का दायरा बढ़ा। दुर्भाग्यवश आंकड़े अक्सर थोड़ा पुराने होते हैं। कई बार आंकड़े विरोधाभासी भी होते हैं। उदाहरण के लिए नमूना पंजीयन प्रणाली के मुताबिक 2020 में नवजात मृत्यु के मामले प्रति 1,000 में 28 थे जबकि राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण (एनएफएचएस) के 2019-21 के आंकड़ों में यह 38.4 है। इनमें से किस पर भरोसा किया जाए? एक रुझान के अनुसार विभागीय आधार पर प्रस्तुत ‘उत्पादन’ के दावे हमेशा स्वतंत्र सर्वेक्षणों में हासिल ‘निष्कर्षों’ से मेल नहीं खाते। उदाहरण के लिए स्वच्छ भारत की सार्वभौमिक पहुंच के दावों के बावजूद एनएफएचएस से पता चलता है कि बेहतर सफाई तक परिवारों की पहुंच 65 फीसदी से ऊपर नहीं गई है। उज्ज्वला योजना के तहत घरेलू गैस उपलब्ध कराने के तमाम लाभों की बात के बावजूद स्वच्छ ऊर्जा केवल 43 फीसदी परिवारों को उपलब्ध है।

संदर्भ बिंदुओं का भी मुद्दा है। प्रगति जांचने का एक तरीका है अतीत के साथ तुलना करना। एक और तरीका है अंतरराष्ट्रीय मानकों का इस्तेमाल करना। ऐसा करना कभी-कभी दिक्कतदेह हो सकता है। संजीव सान्याल इकनॉमिक टाइम्स में बच्चों के ठिगनेपन और कम वजन को लेकर विश्व स्वास्थ्य संगठन के आंकड़ों तथा अंतरराष्ट्रीय श्रम संगठन की महिलाओं की श्रम श​क्ति भागीदारी की परिभाषा के मामले में इस बात को जोर देकर कहते हैं। पहले मामले में भारत के आंकड़े अस्वाभाविक रूप से ऊंचे है जबकि दूसरे में अस्वाभाविक रूप से कम।

यह बात ध्यान देने लायक है कि संयुक्त राष्ट्र मानव विकास सूचकांक में भारत की रैंकिंग वर्षों से कमोबेश एक जैसी बनी हुई है। इससे संकेत मिलता है कि हम न तो अन्य देशों से अच्छा प्रदर्शन कर रहे हैं और न ही बुरा। हालांकि उनमें से अ​धिकांश की वृद्धि दर भारत की तुलना में कमजोर है। इस सदी के दूसरे दशक में मानव विकास सूचकांक में भारत की प्रगति धीमी पड़ी है। हम इस मामले में मध्यम श्रेणी में ही बने हुए हैं। वियतनाम जैसे देश पहले ही ‘उच्च’ श्रेणी में पहुंच चुके हैं लेकिन भारत को मौजूदा दर पर वहां तक पहुंचने में यह पूरा दशक लग सकता है। कई सरकारी कार्यक्रमों को जहां उल्लेखनीय कामयाबी मिली है वहीं समग्र प्रदर्शन में सुधार नहीं हुआ है।

कई प्रकार के आंकड़ों के प्लेटफॉर्म के निर्माण का उल्लेख भी किया जाना चा​हिए जिन्हें समीक्षा में सूचीबद्ध किया गया है। वि​भिन्न सरकारी कार्यक्रमों को इन्हीं पर निर्भर किया जाता है। 1,000 से अ​धिक केंद्र और राज्य सरकार की योजनाओं के तहत प्रत्यक्ष नकदी अंतरण के लिए इस्तेमाल होने वाले आधार तथा अत्य​धिक सफल यूनिफाइड पेमेंट इंटरफेस के अलावा असंगठित क्षेत्र में श्रमिकों, छोटे कारोबारों, डिजिटल कारोबार आदि के पंजीयन के लिए तमाम प्लेटफॉर्म हैं। उदाहरण के लिए इनमें से कुछ आंकड़े मसलन वस्तु एवं सेवा कर चुकाने वालों के पंजीयन दोगुने होने का आंकड़ा आदि का इस्तेमाल कारोबारों के आकार और वृद्धि का हिसाब रखने के लिए किया गया है। परंतु व्यापक विश्लेषण के लिए ऐसे नतीजों तथा मेटा डेटा (किसी आंकड़े के वि​भिन्न पहलुओं को परिभा​षित करने वाले आंकड़े) के और प्रमाण चाहिए। उदाहरण के लिए यह कि असंगठित क्षेत्र के 28.5 करोड़ कर्मचारियों को ई-श्रम पोर्टल पर पंजीयन से कैसे लाभ हुआ?


Date:25-02-23

अराजकता के पांव

संपादकीय

पंजाब में अमृतसर के अजनाला में एक पुलिस थाने में गुरुवार को जैसे हालात हो गए थे, उससे एकबारगी यह लगा कि शायद राज्य में कानून-व्यवस्था ढह चुकी है और अराजकता हावी है। हालांकि यह कहा जा सकता है कि ऐसी अप्रत्याशित स्थिति कहीं भी आ सकती है, लेकिन अगर इसके बरक्स पुलिस और शासन-व्यवस्था एकदम लाचार और इससे भी आगे उपद्रवियों के सामने समर्पण करती हुई दिखाई दे तब ऐसे में आम जनता अपनी सुरक्षा की उम्मीद किससे करेगी ! दरअसल, वहां पुलिस ने लवप्रीत सिंह नाम के व्यक्ति को अपहरण समेत कई अन्य आरोपों में गिरफ्तार किया गया था। लवप्रीत सिंह को वहां एक कट्टरतावादी सिख संगठन ‘वारिस पंजाब दे’ के प्रमुख अमृतपाल सिंह का करीबी माना जाता है, जो उसे रिहा कराने के मकसद से हजारों समर्थकों के साथ अजनाला थाने पर पहुंच गया गया था। भीड़ में कई लोग बंदूक और तलवार से भी लैस थे। अंदाजा इससे लगाया जा सकता है कि भीड़ के तेवर और दबाव के सामने वहां मौजूद पुलिसकर्मी लाचार दिखे।

यों प्रदर्शनकारियों से सीधे हिंसक तरीके से ही निपटना कोई बेहतर विकल्प नहीं माना जाता है, लेकिन एक तरह से समूचे प्रशासन का मूकदर्शक रहना एक विचित्र स्थिति थी। हैरानी की बात यह है कि अजनाला थाने का घेराव दिखने में अचानक हुई घटना लगती है, मगर सच यह है कि इसकी पृष्ठभूमि कई दिनों से तैयार हो रही थी और शायद पुलिस ने सुचिंतित तरीके से इस मामले से निपटने के लिए समय रहते कदम नहीं उठाए। सवाल है कि क्या अपने एक व्यापक तंत्र के बावजूद वहां की पुलिस को कट्टरतावादी संगठन के मुद्दे, उनके काम करने के तरीके और उसके संरक्षकों की प्रतिक्रिया का अंदाजा नहीं था ? अगर किसी संवेदनशील मामले में पुलिस ने इस संगठन के किसी व्यक्ति को गिरफ्तार किया भी था, तो क्या इससे पहले पूरी तैयारी जरूरी नहीं थी? आखिर क्या वजह है कि थाने पर हमले के बाद पैदा हुई स्थिति में पुलिस को अपना रुख नरम करना पड़ा? लवप्रीत सिंह की गिरफ्तारी के आधार कितने मजबूत थे कि अजनाला की एक अदालत ने उसे रिहा करने में ज्यादा वक्त नहीं लगाया? अगर महज उसके समर्थकों के प्रदर्शन के दबाव में आकर पुलिस ने अपने कदम पीछे खींचे तो इसे कानून-व्यवस्था के लिहाज से कैसे देखा जाएगा?

गौरतलब है कि ‘वारिस पंजाब दे’ और उसके मुखिया अमृतपाल सिंह को खालिस्तान से सहानुभूति रखने वाला माना जाता है। अगर इस धारणा में सच्चाई है तो समझा जा सकता है कि इस संगठन की चुनौती अब मौजूदा संदर्भों में किस रूप में खड़ी हो रही है। पंजाब में अतीत के दिन आज भी बहुत सारे लोग भूल नहीं सके होंगे और कोई नहीं चाहेगा कि वह त्रासदी फिर से खड़ी हो। लेकिन सरकार और पुलिस-प्रशासन का रवैया अगर बेहद सुचिंतित, परिपक्व और सावधानी से भरा नहीं रहा तो आने वाले वक्त में छोटी-छोटी घटनाएं कैसा मोड़ लेंगी, कहा नहीं जा सकता ! यह छिपा तथ्य नहीं है कि पंजाब में जब से आम आदमी पार्टी की सरकार बनी है, तब से कानून-व्यवस्था के मोर्चे पर कई बार ऐसी हालत देखी गई है, मानो आपराधिक तत्त्वों को बेलगाम होने का मौका मिल गया हो। जबकि चुनावों के दौरान पार्टी ने राज्य की जनता से कानून-व्यवस्था को पूरी तरह दुरुस्त करने से लेकर नशामुक्ति जैसे कई बड़े वादे किए थे। यह ध्यान रखने की जरूरत है कि पंजाब देश का सीमावर्ती और संवेदनशील राज्य है। ऐसे में मामूली कोताही की वजह से भी कोई साधारण समस्या भी जटिल शक्ल अख्तियार कर ले सकती है।


Date:25-02-23

संयम के साथ कड़ाई

संपादकीय

पंजाब के अजनाला में बृहस्पतिवार को जो हुआ उसमें भविष्य के लिए बहुत अशुभ संकेत निहित है। जरनैल सिंह भिंडरावाले को अपना आदर्श मानने वाले खालिस्तान समर्थक संगठन ‘वारिस पंजाब दे’ के प्रमुख अमृतपाल सिंह के समर्थकों ने तलवार और बंदूकों के साथ मारपीट और अपहरण मामले में गिरफ्तार तूफान सिंह की रिहाई के लिए अजनाला पुलिस थाने पर हमला बोल दिया। हिंसक भीड़ ने बैरिकेडिंग तोड़ दिया और कई पुलिस वालों को घायल कर दिया। इतना ही नहीं पुलिस पर दबाव बनाया और तूफान की रिहाई के आदेश प्राप्त कर लिये। अमृतपाल के अनुसार उसके साथी को अकारण गिरफ्तार किया गया था। इस प्रकरण की सर्वाधिक चिंतनीय स्थिति यह थी कि पुलिस असहाय बनी रही। और अमृतपाल की गंभीर परिणाम भुगतने की चेतावनी के बावजूद उसके विरुद्ध किसी तरह की कार्रवाई नहीं की गई। अब इस कांड पर राजनीति भी शुरू हो गई है। इसे पंजाब में कानून-व्यवस्था के गहराते संकट के तौर पर भी बताया जा रहा है और भविष्य में खालिस्तानी हिंसा के दौर की वापसी की आशंका के तौर पर भी देखा जा रहा है। यह घटना निर्विवाद तौर पर खालिस्तानी तत्वों के फिर से मैदान में आ जाने का प्रमाण है। बिना किसी संदेह के कहा जा सकता है कि अगर इसे तत्काल नियंत्रित नहीं किया गया तो न केवल पंजाब सरकार बल्कि केंद्र सरकार के लिए भी गहरा संकट खड़ा हो जाएगा। इसलिए केंद्रीय स्वर यह है कि अमृतपाल और उनके समर्थकों के विरुद्ध कड़ी कार्रवाई की जाए, उन्हें जेल में डाला जाए। लेकिन यह किसी भी सरकार के लिए बहुत आसान नहीं है। खालिस्तानी हिंसा का पिछला दौर इसे दिखा चुका है। एक टीवी साक्षात्कार में अमृतपाल ने कहा कि वह खालिस्तानी आंदोलन के रिवाइवल के लिए नहीं बल्कि पंजाब के लोगों के सर्वाइवल के लिए लड़ रहा है। वह चाहता है कि जिस तरह हिंदू राष्ट्र, समाजवाद, लोकतंत्र, तानाशाही जैसे मुद्दों पर बहस हो सकती है तो खालिस्तान के मुद्दों पर भी बहस हो। इससे पहले कि पंजाब में बेलगाम हिंसा का दौर शुरू हो अमृतपाल सिंह और उसके समर्थकों को वार्ता की मेज पर लाया जाना चाहिए और भारत स्वयं तथा पंजाब के लिए खालिस्तानी अवधारणा कितनी विनाशक हो सकती है, उन्हें समझाया जाना चाहिए। पहल अगर पंजाब के प्रबुद्ध और प्रभावशाली सिखों की ओर से हो तो अधिक फलदायी होगा।


Date:25-02-23

जन-भागीदारी से निकलेगा हल

मनोज दुबे

गर्मी का पारा चढ़ने के साथ पानी को लेकर संकट की स्थिति फिर से हर तरफ बढ़ती दिख रही है। वैसे भी लचर जल प्रबंधन और जल संचयन के प्रति उदासीनता के कारण विश्व के कई देश आज जल संकट का सामना कर रहे हैं। जलवायु परिवर्तन के कारण आने वाले समय में यह समस्या और गहरा सकती है। बात भारत की करें तो दुनिया में पीने योग्य जितना पानी है, उसका चार फीसद पानी भारत में है।

सरकारी आंकड़े बताते हैं कि वष्रा जल संरक्षण के लिए सरकारों द्वारा तमाम उपाय करने बावजूद हम बारिश के पानी से मात्र 300 मिलियन क्यूबिक मीटर ही रोक पा रहे हैं, जबकि वर्तमान में देश में 750-800 मिलियन क्यूबिक मीटर पानी की आवश्यकता है। 50 साल पहले हमारे देश में प्रत्येक व्यक्ति के लिए पांच हजार क्यूबिक मीटर पानी उपयोग के लिए उपलब्ध रहता था, लेकिन आज घटकर यह 1500 क्यूबिक मीटर रह गया है। यानी दुनिया में जिस देश में जल को जगदीश मानने की परंपरा थी, दुर्भाग्य से आज उस देश में ही सबसे ज्यादा कंटेंमनेटेडेड वाटर रिसोर्सेस हैं। हमें समझना होगा कि प्रकृति हमें एक चक्र के रूप में जल प्रदान करती है। हम इस चक्र का एक महत्त्वपूर्ण हिस्सा हैं और इस चक्र के थमने का अर्थ है, हमारे जीवन का थम जाना। प्रकृति के खजाने से हम जितना पानी लेते हैं, उसे वापस भी हमें ही लौटाना है। भूमिगत जल स्तर का लगातार नीचे खिसकते जाना भविष्य के लिए खतरे की घंटी है। इसलिए जरूरी है कि लोग प्राकृतिक जल संसाधनों को दूषित न होने दें और पानी को व्यर्थ न गवाएं। सरकारों के साथ-साथ समाज को भी जल संकट के प्रति गंभीर होना होगा। अच्छी बात यह है कि केंद्र सरकार इस बात को गंभीरता से समझ रही है कि लोगों में जल एवं प्रकृति के संरक्षण के प्रति सामूहिक चेतना का निर्माण करके ही जल संरक्षण के लक्ष्य को प्राप्त किया जा सकता है। आने वाली पीढ़ी को उसकी जरूरत के हिसाब से पानी मिल सके इसके लिए बेहद जरूरी है कि जल संरक्षण से जुड़े अभियानों में जनता को, सामाजिक संगठनों को और सिविल सोसाइटी को ज्यादा से ज्यादा जोड़ा जाए। स्वच्छ भारत अभियान इसका सबसे बड़ा उदाहरण है। स्वच्छ भारत अभियान में जब लोग जुड़े, तो उनके भीतर एक नई चेतना का संचार हुआ। अब केंद्र के साथ ही सभी राज्य सरकारों को जन-भागीदारी की यही सोच जल संरक्षण के लिए भी जनता के मन में जगानी होगी। जल संरक्षण के लिए आज देश के प्रत्येक जिले में 75 अमृत सरोवर बनाए जा रहे हैं। विश्व में यह अपनी तरह का अनोखा अभियान है और अच्छी बात यह है कि इसमें जन-भागीदारी जुड़ी है। आने वाले समय में पेयजल की समस्या विकराल रूप धारण करे इससे पहले पॉलिसी लेवल पर भी पानी से जुड़ी परेशानियों के समाधान के लिए सरकारी नीतियों और ब्यूरोक्रेटिक प्रक्रियाओं से देश को बाहर आना होगा। जल संरक्षण के लिए केंद्र सरकार द्वारा शुरू की गई ‘अटल भूजल संरक्षण योजना’ एक संवेदनशील अभियान है और इसे उतनी ही संवेदनशीलता से आगे बढ़ाने की जरूरत है। भूजल प्रबंधन के लिए बनाए गए प्राधिकरण सख्ती से इस दिशा में काम करें, ये भी सुनिश्चित करना होगा। इसके साथ ही अगर जलवायु परिवर्तन के खतरों से निपटना है तो भूजल रिचार्ज के लिए सभी जिलों में बड़े पैमाने पर वाटर-शेड का निर्माण करने के बारे में राज्य सरकारों को विचार करना होगा। इसके अलावा पहाड़ी क्षेत्रों में स्प्रिंग शेड को पुनर्जीवित करने का जो कार्यक्रम शुरू किया गया है उस पर तेजी से काम करना होगा। जल संरक्षण के लिए वन क्षेत्रों को बढ़ाना सबसे ज्यादा जरूरी है। हाल के वर्षो में हमने देखा है कि ‘कैच द रेन’ अभियान ने लोगों के बीच एक आकषर्ण तो पैदा किया है, लेकिन सफलता के लिए अभी बहुत कुछ करना जरूरी है। इसमें दो राय नहीं कि बीते कुछ दशकों में जल संरक्षण की दिशा में ऐसी गंभीरता नहीं दिखाई गई जैसी वर्तमान केंद्र सरकार द्वारा दिखाई जा रही है। इसका सबसे अच्छा पहलू यह है कि अब इस दिशा में ऐसी योजनाएं तैयार हो रही हैं, जिनसे आमजन को जोड़ा जा रहा है।

इस बार के केंद्रीय बजट में स्वच्छ भारत मिशन (ग्रामीण) के लिए 7192 करोड़ रुपये और जल जीवन मिशन के लिए 70,000 करोड़ का बजट आवंटित है। वहीं, देश की नदियों को जोड़ने के लिए 3,500 करोड़ रुपये का प्रावधान बजट में है। साथ ही अटल भूजल योजना के लिए 1000 करोड़, नेशनल हाइड्रोलॉजी प्रोजेक्ट के लिए 500 करोड़, प्रधानमंत्री कृषि सिंचाई योजना के लिए 8587 करोड़ आवंटित किए गए हैं। जल से जुड़े इन क्षेत्रों में मोदी सरकार द्वारा जारी भारी-भरकम राशि जल संकट से निपटने के प्रति उसकी प्रतिबद्धता को दर्शाती है, लेकिन लोगों को भी इस दिशा में गंभीरता से सोचना होगा। जल की सुरक्षा किसी सरकार या संगठन का ही नहीं, बल्कि देश की 140 करोड़ लोगों का सबसे बड़ा दायित्व होना चाहिए।


Date:25-02-23

पंजाब के डरावने संकेत

संपादकीय

पंजाब में जिस तरह से माहौल तनावपूर्ण हुआ है, वह गहरी चिंता और सजगता का विषय है। भीड़ ने सीधे पुलिस को निशाना बना दिया और दबाव इतना बढ़ा कि पुलिस भीड़ की मांग मानने के लिए मजबूर हो गई। कट्टरपंथी नेता अमृतपाल सिंह के करीबी सहयोगी लवप्रीत तूफान को पंजाब पुलिस ने शुक्रवार को रिहा कर दिया। इतना ही नहीं, उसे रिहा करते हुए पुलिस ने यह भी कहा कि वह दोषी नहीं है। हालांकि, सबने देखा है कि यह रिहाई तब हुई, जब अमृतपाल के हजारों समर्थकों ने अमृतसर में एक पुलिस थाने पर हमला बोल दिया और सीधे कानून-व्यवस्था को बिगाड़ने की धमकी दे दी। ध्यान रहे, तूफान को अपहरण और मारपीट के एक मामले में गिरफ्तार किया गया था, अब पता नहीं, उसके खिलाफ आगे कोई कार्रवाई हो पाएगी या नहीं। क्या पंजाब में कानून-व्यवस्था पर सवाल नहीं उठा है? क्या जिस तरह से संविधान की पालना होनी चाहिए थी, वह हुई है? यदि लवप्रीत तूफान दोषी नहीं है और उसे पुलिस ने गलत ढंग से गिरफ्तार किया था, तब भी यह पंजाब पुलिस के कामकाज पर गंभीर आक्षेप है।

वैसे यह पहला मामला नहीं है, जब धर्म की आड़ में की गई मनमानी के सामने समर्पण किया गया है। चूंकि इस देश में ऐसे धार्मिक प्रदर्शनों को होने दिया जाता है, इसलिए ऐसे प्रदर्शन कानून-व्यवस्था को धता बताने के लिए यहां-वहां सामने आते रहते हैं। क्या अमेरिका, कनाडा या यूके जैसे किसी अन्य देश में पुलिस के खिलाफ ऐसे हिंसक प्रदर्शन को कोई भी सत्ता मंजूर कर लेती? भारतीय व्यवस्था की उदारता के साथ ऐसे खिलवाड़ के लिए बेशक इस देश की राजनीति ही दोषी है। धर्मध्वजा थामकर उदारता का कैसा मखौल 2021 में 26 जनवरी- गणतंत्र दिवस पर नई दिल्ली में उड़ाया गया था, बहुतों को याद होगा। क्या ऐसे बेलगाम प्रदर्शनों को यह देश बर्दाश्त कर सकता है और इससे आखिर देश को क्या फायदा होता है? भारतीय लोकतंत्र के उदार साये में बनने वाले किसी भी संगठन को देश की एकता को सबसे ऊपर रखना चाहिए। ये भला कैसे संगठन हैं, जो कानून-सम्मत संघर्ष के बजाय हिंसा से न्याय छीनने या मनमानी करने को लालायित हैं? आज जिन देशों में सुरक्षित बैठकर कुछ लोग खालिस्तानी अलगाववाद को हवा दे रहे हैं, उन देशों के प्रति भारत को गंभीर हो जाना चाहिए। सिखी की जड़ें इस देश की गली-गली में पसरी हुई हैं, कोई उसे फिर सिर्फ भारतीय पंजाब की भौगोलिक सीमाओं में समेटकर कैसे देख सकता है? समग्र भारतीय मानस में पूरी सहजता के साथ विराज रहे सिख विचार, संस्कार व संस्कृति के अथाह विस्तार को संकीर्णता में समेटने की कोई भी गलती न केवल पंजाब, बल्कि भारत की संपूर्ण पहचान के लिए खतरा है।

पंजाब में सबसे ज्यादा सावधान वहां की राजनीति को रहना चाहिए। सबको इतिहास उठाकर देख लेना चाहिए, जब आतंकवाद था, तब सबसे भारी कीमत राजनीति ने ही चुकाई थी। धर्म की आंच पर वोटों की रोटियां सेंकना सबसे आसान है, लेकिन ध्यान रहे, ऐसी आंच जब आग में बदलती है, तब बहुत कुछ खाक होने लगता है। सुरक्षा एजेंसियों को सावधान हो जाना चाहिए। कोई उग्र युवा नेता अगर यह कह रहा है कि पुलिस ने बात नहीं मानी, इसलिए हिंसा हुई, तो आगे क्या आशंकाएं हैं, अनुमान लगा लेने में ही लाभ है। इस देश में किसी भी आस्था आधारित संकीर्ण खेमे को इतना मजबूत नहीं बनने देना चाहिए कि वह अदालत लगाकर फैसले सुनाने लगे।