
24-01-2025 (Important News Clippings)
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WHO is right
The U.S. must return to WHO’s fold in its own interes
Editorial
President Donald Trump’s decision to withdraw the United States from the World Health Organization (WHO), based on charges of bias, is stunningly short sighted, and deeply concerning to the global health community. Pundits are predicting that this move, if not withdrawn, or reconsidered, may well unleash the butterfly effect — a cascading set of unpredictable consequences arising from even the smallest of changes in a system. Soon after his inauguration, Mr. Trump wasted no time in announcing the beginning of the process of ending the U.S.’s membership of WHO. In language that smacked of petulance, Mr. Trump, as he signed his first batch of executive orders, declared: “The World Health [Organization] ripped us off.” The U.S. will now leave the United Nations health agency in 12 months’ time and stop all financial contributions to its work. He accused the organisation of mishandling the COVID-19 pandemic, and of being partisan towards China, though the U.S. contributed more to its coffers. The move has not been entirely unexpected: during his previous term as U.S. President, he relentlessly criticised WHO for acting slow and being “owned and controlled by China”; in 2020 he initiated a move to halt funding to WHO, though it was scuppered as his term came to an end.
Why is the withdrawal of the U.S. significant? For starters, Mr. Trump is right — the U.S., which is a founding member of WHO, is also its biggest financial backer, contributing around 18% of its overall funding. Withdrawal of these funds will seriously impact health programmes being implemented across the world, including interventions for HIV/AIDS, tuberculosis and the eradication of certain infectious diseases. WHO is also involved in ensuring equity of access to life-saving drugs for people across the world, building stronger health systems, detecting and preventing disease outbreaks. If Mr. Trump could set his petulance aside, it would be clear that global health does not operate in silos, and neither a stern countenance nor physical boundaries can keep pathogens out of one’s own geography. If any lessons have been learned at all from the COVID-19 pandemic, it is that no one is safe until everyone is safe, and that collaboration among nations, and open sharing of data and technology are essential to tackle pandemics. WHO has reached out to the U.S., hoping that it will reconsider its decision and engage once again with it. As fantastic as it may sound, medicine is no stranger to miracles of science, and the health community hopes one more will restore the U.S. back to WHO’s fold.
इन तमाम ‘रेवड़ियो’ का खर्च आखिर कौन करता है
चेतन भगत,
रेवड़ी उत्तर भारत में लोकप्रिय मिठाई है, लेकिन राजनीतिक चर्चाओं में यह आजकल मुफ्त सौगातों का प्रतीक बन गई है। आज ‘रेवड़ी’ शब्द का उपयोग उन लोकलुभावन योजनाओं के लिए किया जाता है, जिनमें राजनीतिक दल वोटरों को लुभाने के लिए मुफ्त के सामान या लाभ देने की पेशकश करते हैं।इनमें टीवी, साइकिल, मुफ्त राशन से लेकर सीधे नगद हस्तांतरण तक शामिल हैं। रेवड़ी एक सस्ती मिठाई है, जो फौरी संतुष्टि देती है। मुफ्त सौगातों की राजनीति के लिए रेवड़ियों का रूपक इसीलिए उपयुक्त है। उसे ‘काजू कतली राजनीति’ कहना प्रभावी नहीं होगा!
रेवड़ियों की राजनीति आज भारत में हर राजनीतिक पार्टी का हिस्सा बन चुकी है। हर पार्टी अपने विरोधियों पर इसका आरोप लगाती है, जबकि वह खुद भी इससे अछूती नहीं रहती। दिलचस्प बात यह है कि कोई भी पार्टी सत्ता में आने के बाद अपने विरोधियों द्वारा शुरू की गई बड़ी कल्याणकारी या मुफ्त योजनाओं को कभी वापस नहीं लेती।रेवड़ी का यही खेल है- एक बार दे दी, तो आप इसे रोक नहीं सकते। रेवड़ी का खेल सिर्फ देने तक सीमित नहीं है, बल्कि इसे कैसे पेश किया जाता है, यह भी महत्वपूर्ण है। यह अकारण नहीं है कि अधिकांश कल्याणकारी योजनाओं के नामों में लाड़ या सम्मान सरीखे शब्दों को दर्शाया जाता है।
सवाल यह है कि यह राजनीति हमें कहां ले जाएगी? आज हर बड़े राज्य और हर बड़ी पार्टी के पास ‘गेमचेंजर’ योजनाएं हैं। डिजिटल नगद हस्तांतरण की तकनीक भी अब पहले से कहीं ज्यादा सुविधा देती है। आज सरकार लगभग हर महीने महिलाओं, बेरोजगार युवाओं, किसानों, कम आय वालों, पुजारियों और ग्रंथियों आदि को भी वेतन दे सकती है।कुछ राज्यों में, मुफ्त बिजली और पानी आम बात है। ऐसा लगता है जैसे हम तेल की कमाई से मालामाल उन देशों में से हैं, जिनकी आबादी बहुत कम है और जिन्हें नहीं पता कि अपनी कमाई का क्या करें। जबकि, हम बिलकुल भी ऐसे नहीं हैं। हमारा सरकारी खजाना तंग है। हम घाटे में रहते हैं, जिसका मतलब है कि सरकार आमदनी से ज्यादा खर्च करती है। सरकार पर बहुत कर्ज भी है, और वह ब्याज में बहुत पैसों का भुगतान करती है। हम जितनी ज्यादा रेवड़ियां बांटते हैं, घाटा उतना बढ़ता जाता है। घाटा जितना होगा, सरकार को उसे पूरा करने के लिए उतना ही कर्ज लेना होगा या नोट छापने होंगे। ज्यादा उधार लेने से ब्याज दरें बढ़ती हैं, जिससे व्यापार और अर्थव्यवस्था धीमी हो जाती है। नोट छापने से महंगाई बढ़ती है। इससे किसी को मदद नहीं मिलती।
असल रेवड़ी की तरह राजनीतिक रेवड़ी भी मुफ्त में नहीं मिलती। कोई न कोई इसका खर्चा उठाता है। आम तौर पर आप ही इसका भुगतान करते हैं। मान लीजिए कि कोई परिवार 20,000 रुपए महीने कमाता और खर्च करता है। अगर सरकार उन्हें 2000 रुपए प्रतिमाह देती है, तो वे बहुत खुश हो सकते हैं। लेकिन अगर महंगाई दर 10% है तो परिवार को अपना खर्चा चलाने के लिए हर महीने 22,000 रुपयों की न्यूनतम दरकार होगी। तो वास्तव में कुछ नहीं बदला। इस हाथ दे और उस हाथ ले वाला हिसाब है।
अर्थशास्त्री मिल्टन फ्रीडमैन के शब्दों में वास्तविक टैक्स कभी भी सिर्फ उसकी दर में नहीं होता। असली टैक्स वह होता है, जो सरकार खर्च करती है। तो यकीनन, अपनी सरकार को रेवड़ियों पर ज्यादा खर्च करने के लिए कहें। बस याद रखें कि कोई न कोई इसके लिए भुगतान कर रहा होगा। और बहुत मुमकिन है कि वो आप ही होंगे।
क्या इसके लिए नेताओं को दोष देना चाहिए? नहीं।
जब नागरिकों को ही यह बात पसंद है कि सरकार से मुझे लेना है और मुझे इसकी परवाह नहीं कि वो इसे कहां से लाते हैं तो नेता क्यों इस बारे में सोचेगा? उसका काम तो मतदाताओं को खुश करना है ना?
कुछ राज्यों की रेवड़ी-योजनाएं तो इतनी बड़ी हिट बन गई हैं कि देर-सबेर उन्हें पूरे देश में भी अपनाया जा सकता है। उदाहरण के लिए, महिलाओं को कैश ट्रांसफर एक राष्ट्रीय योजना बन सकती है। आइए, थोड़ा गणित करें कि अगर ऐसा होता है तो इसकी लागत कितनी होगी। यदि हम सभी भारतीय महिलाओं को 2,000 रुपए प्रतिमाह देते हैं, तो इसमें 8.4 लाख करोड़ रुपए सालाना खर्च होंगे। देश का राजकोषीय घाटा पहले ही लगभग 17 लाख करोड़ रुपए है, जो बहुत अधिक है। इसे 50% और बढ़ाने से मुद्रास्फीति और ब्याज दरों में भारी उछाल आ सकता है। इसे चुकाएगा कौन? अगर आपको रेवड़ियां इतनी ही पसंद हैं तो कृपया बाद में यह शिकायत न करें कि सब कुछ बहुत महंगा हो गया है!रेवड़ी कभी भी मुफ्त में नहीं मिलती। कोई न कोई इसका खर्चा उठाता है। आम तौर पर आप ही इसका भुगतान करते हैं। अगर आपको रेवड़ियां इतनी ही पसंद हैं तो कृपया बाद में यह शिकायत न करें कि सब कुछ बहुत महंगा हो गया है!
अमेरिका में भारतीय
संपादकीय
भारतीय विदेश मंत्री ने अमेरिका में अवैध रूप से रह रहे भारतीयों की वापसी के लिए तैयार रहने की बात कहकर वही किया, जो उन्हें करना चाहिए था। यदि अमेरिका अपने यहां अवैध रूप से आए लोगों को वापस करने का फैसला करता है तो भारत को अपने नागरिकों को लेने के लिए तैयार रहना चाहिए, लेकिन केवल इतने से ही बात नहीं बनने वाली। जहां अमेरिका की यह जिम्मेदारी है कि भारतीय नागरिक उसके यहां न तो अवैध रूप से प्रवेश करने पाएं और न ही उत्पीड़न की झूठी शिकायतों के आधार पर शरण पाने पाएं, वहीं भारत को यह देखना होगा कि जो लोग अवैध तरीके से अमेरिका जाते हैं, उन पर लगाम लगे। इसलिए लगे, क्योंकि चोरी-छिपे वहां जाने वाले देश की बदनामी कराते हैं और उन भारतीयों की छवि भी खराब करते हैं, जो वैध तरीके से वहां गए हैं। भारत सरकार इससे अपरिचित नहीं हो सकती कि अमेरिका जाने की ललक में अवैध तरीके अपनाने वाले लोग ठगी का शिकार होते हैं-कुछ भारत में और कुछ अमेरिका के पड़ोसी देशों में। कई मामले ऐसे आए हैं, जिनमें अमेरिका या यूरोप जाने की कोशिश में लोगों ने अपनी सारी जमा-पूंजी गंवा दी और फिर भी वहां नहीं पहुंच पाए। कुछ तो अपनी जान से ही हाथ धो बैठे, क्योंकि वे डंकी रूट कहे जाने वाले बेहद खतरनाक रास्तों से अमेरिका जाने की कोशिश कर रहे थे।
भारत सरकार को इसकी अनदेखी नहीं करनी चाहिए कि पंजाब, हरियाणा, गुजरात आदि में लोगों को अवैध तरीके से विदेश भेजने वाले गिरोह सक्रिय हैं। अमेरिका, आस्ट्रेलिया, कनाडा, यूरोप का वीजा और वहां नौकरी दिलाने का फर्जी दावा करने वालों ने बाकायदा अपनी दुकानें खोल रखी हैं। ये ठगी की दुकानें हैं, लेकिन राज्य सरकारें उनके खिलाफ वांछित कार्रवाई नहीं करतीं।भारत सरकार को ऐसे राज्यों को आवश्यक निर्देश देने चाहिए। इसके साथ ही ऐसी व्यवस्था भी करनी चाहिए, जिससे लोग वैध और सुरक्षित तरीके से विदेश जा सकें। यदि सरकारी एजेंसियां इसमें सहायक बन जाएं तो विदेश में नौकरी का लालच देकर ठगी करने वाले स्वतः हतोत्साहित होंगे। भारत को इसके प्रति भी सतर्क रहना होगा कि ट्रंप प्रशासन की नई नागरिकता नीति से कहीं वे भारतीय दंपती संकट का सामना न करने पाएं, जो अमेरिका गए तो वैध तरीके से हैं, लेकिन उनके पास वहां की नागरिकता या ग्रीन कार्ड नहीं है। इनमें अधिकांश एच-1बी वीजा धारक हैं। ट्रंप ने घोषणा की है कि 20 फरवरी के बाद ऐसे दंपतियों की संतानों को नागरिकता देने की सुविधा खत्म कर दी जाएगी। भारत को अमेरिका को यह बताना होगा कि इस नीति से वही घाटे में रहेगा। इस पर हैरानी नहीं कि खुद अमेरिका में ट्रंप की नई नागरिकता नीति का विरोध हो रहा है।
Date: 24-01-25
खतरा बने गैर सरकारी संगठन
बलबीर पुंज, ( लेखक वरिष्ठ स्तंभकार हैं )
भारत को अस्थिर करने वाली आंतरिक-बाहरी शक्तियों के कई मुखौटे हैं। ऐसा ही एक भोला दिखने वाला नकाब एनजीओ (गैर सरकारी संगठन) है। बीते दिनों आयकर विभाग ने आक्सफैम इंडिया सहित पांच बड़े एनजीओ के दफ्तरों पर छापा मारा। गहन जांच से सामने आया कि ये संगठन बाह्य-धनबल के दम पर देश की औद्योगिक परियोजनाओं के खिलाफ अभियान चला रहे थे। इस संदर्भ में एक हालिया घटनाक्रम और भी चौंकाने वाला रहा और वह यह कि एनजीओ द्वारा समाज में मजहब के नाम पर वैमनस्य फैलाने वालों का बचाव किया जा रहा है। यह मामला 2018 में उत्तर प्रदेश के कासगंज में चंदन गुप्ता हत्याकांड से जुड़ा है। इस मामले में 28 दोषियों को उम्रकैद की सजा सुनाई गई है। मुस्लिम बहुल इलाके में उन्मादी भीड़ ने गणतंत्र दिवस पर तिरंगा यात्रा निकाल रहे चंदन की हत्या कर दी थी। हाल में जब इस मामले में एनआइए की अदालत ने निर्णय सुनाया तो उसमें यह चिंता व्यक्त की गई कि कुछ एनजीओ दंगाइयों को हरसंभव कानूनी सहायता पहुंचा रहे थे।इनमें सिटीजन आफ जस्टिस एंड पीस, पीपुल्स यूनियन फॉर सिविल लिबर्टीज, रिहाई मंच, यूनाइटेड अगेंस्ट हेट जैसे देसी और अलायंस फॉर जस्टिस एंड अकाउंटेबिलिटी, इंडियन अमेरिकन मुस्लिम काउंसिल और साउथ एशिया सालिडेरिटी ग्रुप जैसे विदेशी एनजीओ के नाम सामने आए।जज विवेकानंद शरण त्रिपाठी ने इस पर कहा, ‘यह पता लगाने के लिए कि एनजीओ को धन कहां से मिल रहा है, उनका सामूहिक उद्देश्य क्या है और न्यायिक प्रक्रिया में उनके अवांछित हस्तक्षेप को रोकने का प्रभावी उपाय करने हेतु इस फैसले की एक प्रति बार काउंसिल आफ इंडिया और केंद्रीय गृह सचिव को भेजी जानी चाहिए, क्योंकि यह प्रवृत्ति बहुत खतरनाक और संकीर्ण सोच को बढ़ावा दे रही है।’
सिटीजन आफ जस्टिस एंड पीस की संस्थापक ट्रस्टी और सचिव तीस्ता सीतलवाड़ हैं, जिनके खिलाफ सर्वोच्च अदालत के निर्देश पर गुजरात दंगा मामले में झूठी कहानी गढ़ने और फर्जी गवाही दिलाने का मामला दर्ज है। किसी संदिग्ध किस्म के एनजीओ की पड़ताल पर कुछ तबकों के विरोध का सिलसिला बहुत पुराना है। इसके लिए लोकतंत्र पर आघात और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर अंकुश जैसे आरोप भी लगाए जाते हैं।हालांकि इस मुद्दे को लेकर स्वर मुखर भी होते रहे हैं। 2005 में माकपा के अधिवेशन में पार्टी नेता प्रकाश करात ने कहा था, ‘हमारी पार्टी ने लगातार चेतावनी दी है कि एनजीओ की कई गतिविधियों को वित्तपोषित करने हेतु बड़ी मात्रा में विदेशी धन आ रहा है। पश्चिमी एजेंसियों से मिलने वाले ऐसे धन का उद्देश्य लोगों का राजनीतिकरण करना होता है।’ ऐसी बातें निराधार नहीं हैं। भारतीय विकास गाथा में एनजीओ लाबी द्वारा गतिरोध पैदा करने के अंतहीन उदाहरण हैं।
एक अध्ययन के अनुसार 1985 में चीन और भारत की प्रति व्यक्ति जीडीपी लगभग 293 डालर थी। अभी चीन में यह 13,000 डालर से अधिक तो भारत में महज 2,700 डालर है। करीब 18.5 ट्रिलियन (लाख करोड़) डालर की चीनी आर्थिकी भी भारत से करीब पांच गुना विशाल है। विकास की इस दौड़ में भारत के पिछड़ने को एक परियोजना के उदाहरण से ही समझा जा सकता है।विश्व के सबसे बड़े बांधों में से एक थ्री गोर्जेस डैम, जो चीन में 10 वर्षों से कुछ अधिक में बनकर तैयार हो गया, जबकि उसकी तुलना में कहीं छोटे सरदार सरोवर बांध को पूरा करने में भारत को 56 साल लग गए। इसका एक बड़ा कारण देश में समझौतावादी खिचड़ी गठबंधन सरकारें भी रहीं। उनमें कुछ अपवादों को छोड़कर राष्ट्रहित गौण रहा और जोड़तोड़ की राजनीति हावी रही। इसका लाभ मानवाधिकार-पर्यावरण संरक्षण के नाम पर नर्मदा बचाओ आंदोलन यानी एनबीए जैसे संदिग्ध मंशा वाले संगठनों ने उठाया। इस दौरान जहां देश का विकास अवरुद्ध रहा, वही एनबीए नेता मेधा पाटकर को दुनिया भर में प्रचार मिला। आज सरदार सरोवर बांध से गुजरात के साथ मप्र, महाराष्ट्र और राजस्थान के सीमावर्ती क्षेत्रों के करोड़ों लोगों को बिजली, सिंचाई हेतु पानी और स्वच्छ पेयजल मिल रहा है।
तमिलनाडु स्थित कुडनकुलम परमाणु परियोजना को भी एनजीओ के हस्तक्षेप की तपिश झेलनी पड़ी। फरवरी 2012 में तत्कालीन प्रधानमंत्री डा. मनमोहन सिंह ने कहा था, ‘कुडनकुलम परमाणु ऊर्जा कार्यक्रम मुश्किलों में घिर गया है, क्योंकि अमेरिका स्थित कई एनजीओ हमारे देश के लिए ऊर्जा आपूर्ति वृद्धि की आवश्यकता की कद्र नहीं करते।’ रूस समर्थित इस परियोजना का एनजीओ लाबी द्वारा भारी विरोध हुआ था।इससे उसके परिचालन में आठ साल की देरी हुई और परियोजना लागत दस हजार करोड़ रुपये से अधिक बढ़ गई। केरल में विझिंजम अंतरराष्ट्रीय बंदरगाह के निर्माण के समय भी यही देखने को मिला। तब चर्च के समर्थन से स्थानीय मछुआरों द्वारा बड़े पैमाने पर विरोध प्रदर्शन हुए थे। इस पर केरल के मुख्यमंत्री पी. विजयन ने कहा था कि यह विरोध स्थानीय मछुआरों का न होकर संगठित प्रतीत हो रहा है। कथित पर्यावरणीय चिंताओं के नाम पर योजनाबद्ध उग्र प्रदर्शन और चर्च प्रेरित विरोध के बाद तूतीकोरिन में वेदांता को स्टरलाइट तांबा स्मेलटर कारखाना 2018 में बंद करना पड़ा। इससे भारतीय तांबा उद्योग को इतनी क्षति पहुंची कि 2017-2018 तक जो भारत विश्व के शीर्ष पांच तांबा निर्यातकों में से एक था, वह तांबे का आयातक बन गया।
नि:संदेह कुछ एनजीओ समाज कल्याण कार्यों में संलग्न हैं, लेकिन यह भी सच है कि कई भारत विरोधी शक्तियां एनजीओ का रूप धारण करके देश और समाज को कमजोर करने के प्रयासों में शामिल हैं। इसे देखते हुए 2012 से 2024 तक गृह मंत्रालय कुल 20,721 एनजीओ का विदेशी अंशदान पंजीकरण रद कर चुका है।फिर भी वित्त वर्ष 2017-18 और 2021-22 के बीच एनजीओ को लगभग 89 हजार करोड़ रुपये का विदेशी चंदा प्राप्त हुआ। आखिर विदेश से एनजीओ को मिल रहे अकूत धन का उद्देश्य क्या है? आधुनिक युद्ध सीमाओं की मोहताज नहीं, इसलिए देश के भीतर पल रहे दुश्मनों पर भी नकेल कसने की भी जरूरत है।
आबादी पर नई नीति और नियंत्रण चाहिए
मनु गौड़, ( जनसंख्या विशेषज्ञ )
विश्व की जनसंख्या पतन की ओर अग्रसर है। जब संपूर्ण विश्व नए साल की खुशियां मनाने में लगा था, तभी दुनिया के सबसे अमीर उद्यमी एलन मस्क ने अपने एक्स पर यह लिखकर सनसनी फैला दी कि विश्व जनसंख्या तेजी से गिरावट की ओर बढ़ रही है। जापान, दक्षिणी कोरिया और चीन जैसे अनेक देशों में यह प्रवृत्ति अधिक दिख रही है।
यह ध्यान रखने की बात है कि एलन मस्क अन्य ग्रहों पर मानव बस्ती बसाने की योजना के साथ आगे बढ़ रहे हैं। व्यावसायिक दृष्टि से देखें, तो एक व्यवसायी को सदैव लाभ तभी होता है, जब मौजूदा परेशानियों के चलते लोग अपनी सुविधाओं व अच्छे जीवन के लिए नए उत्पादों और सुविधाओं का उपभोग करना शुरू कर देते हैं। पृथ्वी पर जनसंख्या अधिक होगी, तो परेशानियां भी अधिक होंगी और आप समझ ही सकते हैं कि तब मानव बस्तियां कहां बसाई जाएंगी ?
एलन मस्क के कथन को यदि हम कुछ समुदायों या देशों के संबंध में देखें, तो सही प्रतीत होते हैं, क्योंकि जिस समुदाय या देश की प्रजनन दर 2.1 से कम हो जाती है, उसकी जनसंख्या में गिरावट होने लगती है। ऐसा ही वक्तव्य संघ प्रमुख मोहन भागवत ने भी दिया था, जिसकी भारत में बहुत चर्चा हुई।
यह एक सैद्धांतिक बात है, परंतु यदि हम मानव सभ्यता की प्रगति के इतिहास को देखें, तो कुछ और ही चित्र सामने नजर आता है। जहां मानव सभ्यता को तीन लाख से भी अधिक वर्ष लगे विश्व की जनसंख्या को सन 1804 में सौ करोड़ तक पहुंचाने में, वहीं मात्र 123 वर्ष बाद 1927 में जनसंख्या दोगुनी, यानी दो सौ करोड़ हो गई। अगले 47 वर्ष बाद 1975 में पुनः दोगुनी, यानी चार सौ करोड़ हो गई। 1975 की तुलना में सन् 2021 में विश्व की जनसंख्या में 400 करोड़ की वृद्धि दर्ज की गई और साल 2021 में वह 800 करोड़ के पार पहुंच गई। विशेषज्ञों का कहना है कि 2050 तक विश्व की जनसंख्या 1,000 करोड़ हो जाएगी। जितनी तेजी से पिछले सवा दो सौ वर्षों में पृथ्वी पर इंसानों की जनसंख्या बढ़ी है, उतनी तेजी से और किसी प्रजाति की नहीं बढ़ी है।
जनसंख्या बढ़ने के साथ-साथ बढ़ा है प्राकृतिक संसाधनों का दोहन । आज पूरा विश्व इन्हीं कारणों से जहां जलवायु परिवर्तन के खतरों से जूझ रहा है, वहीं पृथ्वी पर कार्बन फुटप्रिंट लगातार बढ़ते जा रहे हैं। यदि हम ग्लोबल फुटप्रिंट नेटवर्क की मानें, तो इंसान अपनी एक वर्ष की जरूरतों की पूर्ति के लिए अगले वर्ष के छह माह के संसाधनों पर निर्भर है, जिसे वर्ल्ड ओवरशूट डे का नाम दिया गया है। यदि ये संसाधन हमारी जमापूंजी होते, तो शीघ्र ही मानव सभ्यता का दिवालिया होना तय था। जितनी तेजी से हम संसाधनों का दोहन कर रहे हैं, उतनी तेजी से प्रकृति द्वारा उनका सृजन संभव नहीं। इसीलिए पूरा विश्व आज वैकल्पिक ऊर्जा के स्रोतों की खोज और प्रोत्साहन में लगा है।
प्रोफेसर सर स्टीफन हॉकिंग का मानना था कि जिस गति से विश्व की जनसंख्या बढ़ रही है, उसके कुप्रभाव भी तीव्र गति से बढ़ते जाएंगे। अगले सौ वर्षों में मनुष्य को रहने के लिए एक अतिरिक्त ग्रह की जरूरत पड़ेगी। एलन मस्क यह बात समझ रहे हैं, उन्हें मनुष्यों को किसी अन्य ग्रह पर बसाने में व्यवसाय दिख रहा है। शायद उन्हें चिंता सता रही होगी कि अगर दुनिया में आबादी घटी तो दूसरे ग्रह पर इंसानों को बसाने की उनकी परियोजना बेकार हो जाएगी।
इसी प्रकार अगस्त 2017 में सिंगापुर में टाइम्स हायर एजुकेशन द्वारा आयोजित कार्यक्रम में 50 नोबेल पुरस्कार विजेता वैज्ञानिकों ने अधिक आबादी को सबसे बड़ा खतरा बताया। इसी क्रम में नवंबर 2018 में विश्व के 20,000 वैज्ञानिकों ने जनसंख्या को विश्व की सबसे बड़ी समस्या बताते हुए एक पत्र पर हस्ताक्षर किए थे। एकाधिक मौकों पर वैज्ञानिकों ने मिलकर अपील की है कि आबादी घटनी चाहिए, पर वैज्ञानिकों की सलाह को न मानकर हम 50 वर्ष पुराने जीवन और पर्यावरण को तरस रहे हैं। वैज्ञानिकों व बुद्धिजीवियों के कथन को न मानकर आज यदि हम एलन मस्क के एक व्यवसाय से प्रेरित कथन को महत्व दें, तो मेरे विचार से यह उचित नहीं होगा।
यदि हम एलन मस्क के कथन को भारत के संदर्भ में देखें, तो जहां विश्व का 2.4 प्रतिशत भूभाग भारत के पास है और चार प्रतिशत जल संसाधन हैं, वहीं उन पर निर्भर रहने वाली जनसंख्या विश्व की जनसंख्या की लगभग 18 प्रतिशत है। आज भारत में बढ़ रही बेरोजगारी की समस्या हो या प्रदूषण की, जाम होते शहरों की समस्या हो या पौष्टिक भोजन की, सूखते हुए जल स्रोतों की समस्या हो या पिघलते हुए हिमालय की, अच्छी स्वास्थ्य सुविधाओं की समस्या हो या अच्छी व उपयोगी शिक्षा की, आप किसी भी समस्या की ओर देखेंगे, तो अधिक जनसंख्या की समस्या ही बाहें फैलाए खड़ी दिखाई देगी।
विश्व में सर्वप्रथम परिवार नियोजन कार्यक्रम चलाने वाला देश आज सबसे ज्यादा जनसंख्या वाला देश बन चुका है, हमें चिंता करनी ही होगी। हमारे देश की जनसंख्या हमारे संसाधनों की तुलना में अधिक है। वर्ष 1971 की जनगणना में देश की जनसंख्या लगभग 55 करोड़ दर्ज की गई और तब तक परिवार नियोजन हमारे संविधान का अंग नहीं था। वर्ष 1976 में संविधान संशोधन हुआ, जो 1 जनवरी, 1977 से प्रभावी हुआ। एक समय भारत में लगभग 62 लाख लोगों की नसबंदियां कराई गई। इतने सभी प्रयासों के बाद भी 1981 की जनगणना में देश की जनसंख्या बढ़कर लगभग 68 करोड़ हो गई। नई जनसंख्या नीति के पालन के बावजूद भारत की जनसंख्या 2011 की जनगणना के अनुसार, 121 करोड़ हो गई।
आश्चर्य नहीं, 15 अगस्त 2019 को लाल किले से प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी द्वारा जनसंख्या विस्फोट के विषय पर देश को आगाह किया गया। कोविड 19 के समय 2021 में होने वाली जनगणना समय से नहीं हो पाई, पर आईयूएन की रिपोर्ट के अनुसार बताया गया कि भारत 2023 में चीन को पीछे छोड़ जनसंख्या में विश्व में पहले स्थान पर पहुंच गया है।
हर कदम पर देश ने बढ़ती जनसंख्या पर अपनी चिंता जाहिर की है, लेकिन आज भी हमारा देश एक प्रभावी जनसंख्या नीति को तरस रहा है। हमें चिंता करनी होगी कि कहीं भारत भविष्य में कम होती जनसंख्या वाले देशों के लिए मजदूर पैदा करने वाला देश ही बनकर न रह जाए। इसलिए भारत को अपनी भावी पीढ़ी के अच्छे भविष्य के लिए एक प्रभावी जनसंख्या नीति शीघ्र ही बनानी चाहिए।