
01-03-2025 (Important News Clippings)
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Date: 01-03-25
Buch The Trend
Some merit-based lateral entry is good, period
TOI Editorials
Sebi’s first woman chief, Madhabi Puri Buch, signed out on Friday. Like all records, hers is a mixed bag. On the plus side, she brought stricter norms for stockbrokers, and curbed retail participation in high-risk derivatives. But she couldn’t, or didn’t, reduce mutual fund expense ratios. Also, the conflict-of-interest charges she faced in the last few months of her three-year term will mar her record. As a lateral hire – first private sector executive to helm Sebi – she should have cleared the air. Her long silence and reluctance to appear before Parliament’s public accounts committee now seem like own goals.
Sebi is back with a career bureaucrat, Tuhin Kanta Pandey. And after last August’s retreat on lateral entry, GoI may not have the stomach for pushing more direct appointments. Which is unfortunate because lateral entry has served India well for decades. Amul is among the world’s strongest food brands now, but who made it a juggernaut? Verghese Kurien, a lateral hire, long before the term was coined. Bimal Jalan, Jagdish Bhagwati, Raghuram Rajan and many others proved the wisdom of the policy. They had already made their mark outside govt, and brought fresh ideas and energy to the system.
GoI formally announced its lateral entry scheme in mid-2018, and hired 63 specialists over the next five years. Transparent hiring and background checks to spot conflicts of interest were going to be key to its success. However, it wasn’t the Buch case but politics that stalled lateral entry. It’s nobody’s case that career bureaucrats don’t make good leaders – look at Maruti chairman RC Bhargava. But equally, if private sector experts want to serve govt, doors shouldn’t be shut. There will always be cutting-edge areas like AI and clean energy where in-house talent may not suffice. GOI shouldn’t be wary of merit-based lateral entry.
आबादी – नियंत्रण के लिए दक्षिण को दंड क्यों मिले?
संपादकीय
एक देश, एक चुनाव का लक्ष्य हासिल करने के पहले परिसीमन और राज्यवार लोकसभा सीटों की नई संख्या तय करनी होगी। गृहमंत्री ने कोयम्बटूर में दक्षिणी राज्यों को आश्वस्त किया कि उनकी सीटों में कोई कमी नहीं होगी और सीटों के आबंटन का फॉर्मूला प्रो- राटा (समानुपातिक वितरण) बेसिस पर होगा। उत्तर भारत की आबादी अपेक्षाकृत ज्यादा तेजी से बढ़ी है। ऐसे में अगर आबादी सीटों के बंटवारे का आधार बनी तो दक्षिण भारत की सीटें बढ़ेंगी जरूर (केरल की यथावत 20 रहेंगी) लेकिन उस अनुपात में नहीं जिसमें उत्तर भारत के राज्यों की । लेकिन अगर सीटों का बंटवारा प्रो-राटा आधार पर होता है तो हर राज्य को उसके वर्तमान सीट प्रतिशत के अनुरूप आबंटन होगा। अभी तक तो राज्यवार सीटों की संख्या का आधार जनसंख्या ही रही है। इस आधार पर 543 सांसदों वाली लोकसभा में उत्तर के चार राज्यों – यूपी, बिहार, एमपी और राजस्थान के पास कुल 174 सीटें (32 प्रतिशत) रही हैं, जबकि दक्षिण के पांच राज्यों के पास 129 (24 प्रतिशत)। नई संसद में भी सांसदों के बैठने की एक सीमा है। वर्तमान 142 करोड़ की आबादी में 15 लाख की आबादी पर एक सांसद के फॉर्मूले से यह संख्या 940 के करीब होगी। जाहिर है कि सीटों की संख्या में तुलनात्मक प्रतिशत वृद्धि में केरल को सबसे ज्यादा नुकसान और बिहार को सबसे ज्यादा फायदा होगा।
Date: 01-03-25
बिहार को एक नए किस्म की राजनीति की दरकार है
पवन के. वर्मा, ( पूर्व राज्यसभा सांसद व राजनयिक )
अगली बड़ी चुनावी लड़ाई इस साल के अंत में बिहार विधानसभा चुनाव के लिए होने जा रही है। इसी हफ्ते प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने उसके लिए भाजपा के प्रचार अभियान की शुरुआत भी कर दी। बिहार मंत्रिमंडल में भी फेरबदल किया गया है।
बिहार में तीन स्थापित राजनीतिक खिलाड़ी- भाजपा, राजद और जदयू- अलग-अलग गठबंधनों में बीते 30 सालों से सत्ता में आते रहे हैं। लेकिन उनकी राजनीति थकाऊ रूप से दोहराव वाली हो गई है बिहार आज भी वहीं है, जहां तीन दशक साल पहले था एक गरीब और पिछड़ा राज्य जाहिर है, राजनेता 13 करोड़ बिहारियों की आकांक्षाओं पर खरे नहीं उतरे हैं। भारत की सभ्यता का यह उगम स्थल आज घोर गरीबी, अभावों, शैक्षिक पिछड़ेपन और बड़े पैमाने पर भ्रष्टाचार का गढ़ बना हुआ है। लालू यादव के पंद्रह साल के ‘जंगल राज’ के बाद जब नीतीश कुमार सत्ता में आए थे तो सुशासन की उम्मीद जगी थी, लेकिन वह ज्यादा देर नहीं टिकी राज्य फिर से अनैतिक गठबंधनों और कुप्रबंधन के दुष्चक्र में फंस गया है।
बिहार के विरोधाभास बहुत बड़े हैं यह मानव संसाधन से समृद्ध राज्य है फिर भी बुनियादी अवसरों से वंचित है। उसके 25 प्रतिशत से अधिक युवा दूरदराज के राज्यों में आजीविका की खोज में जाने के लिए मजबूर हैं। कृषि में बिहार की 70 प्रतिशत वर्कफोर्स कार्यरत है, लेकिन उससे उनका निर्वाह भर ही हो पाता है। औद्योगीकरण लगभग न के बराबर है प्राथमिक शिक्षा की हालत अमूमन ऐसी है कि अगर स्कूल हैं तो शिक्षक नहीं हैं और शिक्षक हैं तो स्कूल नहीं हैं। प्राथमिक स्वास्थ्य दयनीय है। उच्च शिक्षा केवल बेरोजगारों की फौज तैयार करती है।
बिहार को अब अपने शासन की गुणवत्ता में बड़े बदलाव की जरूरत है। लेकिन क्या मौजूदा राजनीति इसे पूरा कर सकती है? अभी तक तो सत्ता के प्रति उसका जुनून जातिगत अंकगणित और साम्प्रदायिक ध्रुवीकरण पर ही अत्यधिक केंद्रित रहता आया है। राजद एमवाय फॉर्मूले पर निर्भर रहती है, जो कि राज्य की अनुमानित रूप से 14 प्रतिशत यादव आबादी और 17 प्रतिशत मुस्लिमों की लामबंदी पर आधारित है। अन्य जातियां कुशासन के डर से भाजपा को वोट देती हैं। इन दो ध्रुवों के बीच जदयू अन्य उप जातियों के सहारे अपना राजनीतिक अस्तित्व कायम रखती है, हालांकि उसका जनाधार लगातार घट रहा है।
मुख्य राजनीतिक दलों की यह तिकड़ी बिना किसी लोक-लाज के आपस में गठबंधन करती रहती है, लेकिन धरातल पर बहुत कम बदलाव होता है। बिहार के लोगों के हितों का धर्म और जाति की वेदी पर बलिदान कर दिया जाता है एक जैसे चेहरे चुनकर सत्ता में आते रहते हैं और जनता हर बार ठगी जाती है। बिहार में तब तक कुछ नहीं बदलेगा, जब तक कि उसके मतदाता यह न कह बैठें कि बस बहुत हो गया। लेकिन इसके लिए मतदाताओं को धर्म और जाति से ऊपर उठकर ऐसे लोगों को वोट देना होगा, जो उनके अपने जीवन को ठोस रूप से बदल सकें।
बिहार की राजनीति में जन सुराज पार्टी नए खिलाड़ी के रूप में मैदान में आई है, जिसका नेतृत्व प्रशांत किशोर कर रहे हैं। वे मतदाताओं से कह रहे हैं कि अपने बच्चों के भविष्य और बेहतर जीवन के लिए वोट दें और राजनेताओं को सत्ता में आने के लिए आपका इस्तेमाल न करने दें। यह पुराने राजनीतिक फॉर्मूले से
बिहार को शासन की गुणवत्ता में बड़े बदलाव की जरूरत है। लेकिन क्या मौजूदा राजनीति इसे पूरा कर सकती है? अभी तक तो सत्ता के प्रति उसका जुनून जातिगत गणित और साम्प्रदायिक ध्रुवीकरण पर ही केंद्रित रहता आया है।
भिन्न भाषा है जन सुराज एक नई पार्टी है, जिसे 2 अक्टूबर 2024 को लॉन्च किया गया था। इसके पहले किशोर ने बिहार के ग्रामीण इलाकों में दो साल तक 3000 किलोमीटर की पदयात्रा की थी। दर्जनों पार्टियों की चुनावी जीत के सूत्रधार के रूप में किशोर की संगठनात्मक क्षमता और अथक काम करने की उनकी क्षमता तो जगजाहिर है और उम्र के चौथे दशक में होने के कारण वे बिहार की बड़ी युवा आबादी के साथ भी जुड़ते हैं। लेकिन क्या वे बिहार के मतदाताओं को एक नए ब्रांड की राजनीति को स्वीकार करने के लिए राजी कर पाएंगे, यह देखना बाकी है।”
इस प्रसंग में राष्ट्रकवि रामधारी सिंह दिनकर की पंक्तियां याद आती हैं
‘क्षमा शोभती उस भुजंग को,
जिसके पास गरल हो।
उसको क्या जो दंतहीन,
विषरहित विनीत सरल हो।’
बिहार को अहसास होना चाहिए कि लोकतंत्र में चाहे हजार खामियां हों, उसी के जरिए हाशिए पर रहने वाले लोग अपनी तकदीर लिख सकते हैं।
स्वदेशी रक्षा सामग्री
संपादकीय
एयर चीफ मार्शल अमर प्रीत सिंह ने वायु सेना के लिए हर वर्ष 35-40 नए लड़ाकू विमानों की जरूरत जताते हुए यह बताया कि पुराने लड़ाकू विमानों को बदलने के लिए ऐसा करना आवश्यक है। उन्होंने घरेलू रक्षा उपकरणों के महत्व पर भी बल दिया। उन्होंने इस पर प्रसन्नता व्यक्त की कि एचएएल ने अगले वर्ष 24 तेजस लड़ाकू विमान बनाने का वादा किया है। कुछ समय पहले उन्होंने एचएएल से यही विमान मिलने में देरी पर नाखुशी जाहिर की थी। उन्होंने जबसे वायु सेना प्रमुख का दायित्व संभाला है, तबसे वह न केवल स्वदेशी रक्षा सामग्री को लेकर मुखर हैं, बल्कि वायु सेना की जरूरतों को लेकर भी। गत दिवस ही उन्होंने कहा कि वायु सेना के पास अभी 31 स्क्वाड्रन हैं, जबकि जरूरत 42 स्क्वाड्रन की है। वायु सेना प्रमुख बनने के बाद भी उन्होंने कहा था कि भावी सुरक्षा चुनौतियों के लिए स्वदेशी हथियार प्रणाली होना बेहद जरूरी है। उनकी मुखरता यही बताती है कि वह रक्षा जरूरतों को लेकर सजग भी हैं और अधीर भी।
यह ठीक है कि रक्षा जरूरतों के लिए जैसी मुखरता वायु सेना प्रमुख दिखा रहे हैं, वैसी अन्य सेनाओं के प्रमुख सार्वजनिक रूप से प्रदर्शित नहीं कर रहे हैं, लेकिन इससे इन्कार नहीं किया जा सकता कि भारत को लड़ाकू विमानों और अन्य रक्षा उपकरणों के मामले में आत्मनिर्भर होना होगा। यह सही है कि मोदी सरकार ने इस दिशा में ठोस कदम उठाए हैं और अब भारत अनेक रक्षा उपकरण बना भी रहा है और उनकी बिक्री भी कर रहा है, जिसके चलते रक्षा सामग्री का निर्यात लगातार बढ़ रहा है, लेकिन तथ्य यह भी है कि हमारी सेनाएं अपनी सैन्य जरूरतों के लिए अभी भी विदेशी हथियारों पर निर्भर हैं। इसके चलते भारत हथियारों का एक बड़ा आयातक बना हुआ है। दूसरे देशों से रक्षा सामग्री खरीदने की अपनी समस्याएं हैं। कई बार जरूरी रक्षा सामग्री समय पर नहीं मिलती या फिर वह बहुत महंगी होती है। यह भी किसी से छिपा नहीं कि दूसरे देश अपनी उन्नत रक्षा सामग्री तो दे देते हैं, लेकिन उसकी तकनीक नहीं देते। कई बार आयातित रक्षा उपकरणों के कल-पुर्जे मिलने में भी देरी होती है। हाल में अमेरिका ने भारत को एफ-35 लड़ाकू विमान देने की पेशकश की, लेकिन यह कहना कठिन है कि क्या उनकी हमें जरूरत है? यह भी ध्यान रहे कि तेजस लड़ाकू विमानों के निर्माण में देरी का एक कारण यह बताया गया था कि अमेरिका से उसके इंजन समय पर नहीं मिल सके। जो भी हो, यह समय की मांग है कि सैन्य हथियारों एवं उपकरणों के मामले में आत्मनिर्भर होने के प्रयासों को और गति दी जाए और इससे सैन्य प्रमुखों को अवगत भी कराया जाए, ताकि उनकी चिंताएं दूर हों।
Date: 01-03-25
दूर होना चाहिए दक्षिणी राज्यों का संदेह
हरेंद्र प्रताप, ( लेखक बिहार विधान परिषद के पूर्व सदस्य हैं )
तमिलनाडु के मुख्यमंत्री एमके स्टालिन ने पांच मार्च को सर्वदलीय बैठक बुलाई है। इसमें लोकसभा के संभावित परिसीमन पर चर्चा होगी। उन्होंने आशंका जताई है कि जनसंख्या के आधार पर पर होने वाले 2026 के परिसीमन से तमिलनाडु और दक्षिण के अन्य राज्यों का नुकसान होगा। उन्होंने कहा कि हमने कड़ाई से जनसंख्या नियंत्रण में सफलता प्राप्त की है, लेकिन अब इसका नुकसान भुगतना पड़ रहा है। दक्षिण के अन्य राज्य भी समय-समय पर कहते रहते हैं कि उनकी जनसंख्या विकास दर घटने से उन्हें राजनीतिक एवं आर्थिक योजनाओं में नुकसान उठाना पड़ता है। कर्नाटक के मुख्यमंत्री ने भी उनके सुर में सुर मिलाया है। तेलंगाना के पूर्व मुख्यमंत्री के. चंद्रशेखर राव भी स्टालिन जैसी आपत्ति जता रहे हैं। आंध्र प्रदेश के मुख्यमंत्री और केंद्र में सत्तारूढ़ राजग के सहयोगी चंद्रबाबू नायडू भी स्टालिन जैसी आशंका जता चुके हैं। हालांकि ऐसी आशंकाओं के बीच केंद्रीय गृहमंत्री अमित शाह ने आश्वस्त किया है कि दक्षिणी राज्यों को संभावित परिसीमन में ऐसा कोई भेदभाव नहीं झेलना पड़ेगा।
देश में जनसंख्या के अनुरूप जनप्रतिनिधित्व की परंपरा रही है। विगत पांच जनगणना दशकों-1961 से लेकर 2011 तक देश की जनसंख्या वृद्धि दर 175.67 प्रतिशत थी, लेकिन आंध्र में यह 57.45, केरल में 97.62, तमिलनाडु में 114.16 तथा कर्नाटक में 159.01 प्रतिशत रही। कर्नाटक में आइटी और अन्य क्षेत्रों में हुए विकास के चलते देश भर से आकर लोग वहां बसते चले गए। समय के साथ हुई समृद्धि और अन्य पहलुओं ने भी जनसंख्या वृद्धि पर ब्रेक लगाने में भूमिका निभाई। परिसीमन की चर्चा करें तो देश में लोकसभा सीटों के परिसीमन हेतु 1953, 1962, 1972 तथा 2002 में परिसीमन आयोग गठित हुए। आगामी लोकसभा चुनाव के पूर्व अब नए परिसीमन आयोग का गठन प्रस्तावित है, क्योंकि 2029 का लोकसभा चुनाव नए परिसीमन के आधार पर होगा। 1953 के परिसीमन हेतु 1951 की जनगणना, 1962 में 1961 की जनगणना, 1972 में 1971 की जनगणना तथा 2002 में 2001 की जनगणना को आधार माना गया था, लेकिन 2029 के परिसीमन के लिए अधिकृत रूप से जनसंख्या का क्या आधार होगा, यह कहा नहीं जा सकता, क्योंकि कोरोना के कारण 2021 की जनगणना नहीं हो पाई है। फिर भी स्टालिन ने जो सवाल उठाया है, उसे टालना उचित नहीं होगा। परिसीमन को लेकर अगर कोई संदेह है तो उसका प्रभावी समाधान होना ही चाहिए।
वर्ष 1956 में राज्यों का पुनर्गठन और उसके बाद राज्यों की सीमाएं तय हुई थीं। जहां तक दक्षिण के राज्यों और उनकी राजनीतिक हिस्सेदारी की मांग का सवाल है तो प्रथम परिसीमन के बाद 1957 में हुए लोकसभा चुनाव के समय देश में लोकसभा की कुल 494 सीटें थीं, जिसमें दक्षिण के चार राज्यों की 128 सीटें थीं। 1962 के परिसीमन के बाद 1967 में लोकसभा की सीटें बढ़कर 520 हो गईं, लेकिन इन चार राज्यों की सीटें बढ़ने के बजाय घटकर 126 रह गईं। विशेषकर तमिलनाडु की सीटें 41 से घटकर 39 हो गईं। उस समय भी तमिलनाडु में विरोध हुआ था। फिर 1972 के परिसीमन के बाद 1977 के लोकसभा चुनाव के समय लोकसभा की सीटें बढ़कर 542 हुईं और दक्षिण के इन राज्यों की सीटों में मामूली वृद्धि हुई और वे 126 से बढ़कर 129 के आंकड़े पर पहुंच गईं। दक्षिण की भावना को देखते हुए ही 2002 के परिसीमन में यह नीति बनी कि सीटें तो न बढ़ाई जाएं, लेकिन लोकसभा सीटों में जनसंख्या को इस तरह विभाजित करें कि न्यूनतम और अधिकतम का अंतर 10 प्रतिशत से ज्यादा न हो तथा कम से कम प्रशासनिक इकाई का विभाजन हो। लोकसभा में प्रखंड और विधानसभा में पंचायत को प्राथमिक इकाई माना गया यानी जनसंख्या, प्रशासनिक इकाई और आवागमन को ध्यान में रखकर नया परिसीमन किया गया। हालांकि आज भी लोकसभा और विधानसभा की सीटों में जनसंख्या का वितरण समान ढंग से लागू नहीं है। पूर्वोतर और पर्वतीय राज्यों में संख्या का वितरण और मैदानी क्षेत्र तथा घनी आबादी वाले राज्यों के लोकसभा और विधानसभा क्षेत्र की जनसंख्या और मतदाताओं की संख्या में काफी अंतर है। अरुणाचल प्रदेश में कुल मतदाता 709697 हैं, लेकिन विधानसभा की सीटें 60 और लोकसभा की 2 सीटें हैं।
आगामी लोकसभा के परिसीमन पर स्टालिन के बयान के बाद तमिलनाडु भाजपा अध्यक्ष ने पीएम मोदी के वक्तव्य का उल्लेख करते हुए कहा कि परिसीमन के समय दक्षिणी राज्यों की भावनाओं का सम्मान किया जाएगा। अमित शाह ने इसकी पुष्टि कर दी। इसे देखते हुए संकीर्ण राजनीतिक कारणों से परिसीमन को लेकर लोगों को भड़काना उचित नहीं। तमिलनाडु में एक समूह सदैव उत्तर-दक्षिण का विवाद खड़ा करता रहा है। कभी भाषा को लेकर तो कभी आर्य-अनार्य के मुद्दे पर। इन दिनों भाषा के मुद्दे पर भी स्टालिन अनावश्यक आक्रामकता का प्रदर्शन कर रहे हैं। अब तो वह यह कुतर्क भी दे रहे हैं कि हिंदी उत्तर भारत की अनेक भाषाओं को हजम कर गई। तमिलनाडु में नई शिक्षा नीति पर भी विवाद उभारने का प्रयास हो रहा है। भारतीय भाषाओं के सम्मान के साथ ही उनके प्रति उदारता का लाभ सभी लोगों को मिलता है। दक्षिण में हिंदी के विस्तार ने ही स्थानीय लोगों के लिए रोजगार के राष्ट्रव्यापी अवसर प्रदान किए हैं
Date: 01-03-25
केंद्रीय कर्मचारियों की बढ़ती संख्या के लाभ
के भट्टाचार्य
जून 2022 में नरेंद्र मोदी सरकार ने रोजगार निर्माण पर एक साहसी घोषणा की थी। उसने अगले 18 महीनों में केंद्र सरकार के विभिन्न मंत्रालयों और विभागों में 10 लाख लोगों को नौकरी देने की बात कही थी। घोषणा के मुताबिक ये भर्तियां ‘मिशन’ की तरह की जानी थीं।
घोषणा के राजनीतिक और आर्थिक मायने थे। राजनीतिक इसलिए यह 2024 में होने वाले आम चुनावों से महज दो साल पहले की गई थी, जब राजनीतिक दलों और आम लोगों के बीच नौकरी अहम मुद्दा बन गई थी। आर्थिक इसलिए कि भारतीय अर्थव्यवस्था श्रम बाजार में तेजी से जुड़ते लोगों के लिए वेतन वाली और अधिक नौकरियां तैयार करने की चुनौती से जूझ रही थी। केंद्र सरकार सबसे अधिक रोजगार देने वालों में है और वह इस राजनीतिक तथा आर्थिक जरूरत को पूरा करना चाहती थी।
केंद्र सरकार के विभागों और मंत्रालयों में बनी रिक्तियों ने इस वादे को पूरा करने का काम तेज किया। फरवरी-मार्च 2022 में तत्कालीन कार्मिक मंत्री जितेंद्र सिंह ने संसद में बताया कि केंद्रीय मंत्रालयों और विभागों में मार्च 2020 तक करीब 8.70 लाख पद खाली थे। सबसे ज्यादा 2.47 लाख असैन्य पद रक्षा मंत्रालय में खाली थे। उसके बाद रेलवे में 2.37 लाख, गृह मंत्रालय में 1.28 लाख (ज्यादातर केंद्रीय पुलिस बलों में), डाक विभाग में 90,000 और अंकेक्षण विभाग में 28,000 रिक्तियां थीं। कुल रिक्तियों की 84 फीसदी तो इन्हीं में थीं। उस समय केंद्र सरकार में कुल 40 लाख कर्मचारी तय किए गए थे।
फरवरी के आरंभ में प्रस्तुत 2025-26 के केंद्रीय बजट से पता चलता है कि केंद्र सरकार ने सशस्त्र बलों के अलावा अपने सभी विभागों और मंत्रालयों में किस तरह भर्तियां कीं। हकीकत में आंकड़े दिखा रहे हैं कि रेलवे सहित विभिन्न विभागों के कर्मचारियों की संख्या बढ़ी है। मगर बढ़ोतरी उतनी नहीं है, जितनी का वादा जून 2022 में किया गया था।
केंद्र सरकार के कुल कर्मचारियों की संख्या मार्च 2022 के अंत में 31.7 लाख थी। इसमें सशस्त्र बल के कर्मचारी शामिल नहीं हैं। दो साल बाद यानी मार्च 2024 के अंत में आंकड़ा बढ़कर 33 लाख हो गया। इस तरह दो साल में 1.37 लाख यानी केवल 4 फीसदी कर्मचारी बढ़े। अनुमान है कि मार्च 2025 तक संख्या बढ़कर 36.6 लाख हो जाएगी। ध्यान रहे कि मार्च 2025 के आंकड़े कर्मचारियों की वास्तविक संख्या नहीं बताते। परंतु अगर इस संशोधित आंकड़े को भी सही मान लें तो अप्रैल 2022 से अब तक कर्मचारियों की संख्या में करीब 4.89 लाख अथवा 15 फीसदी का इजाफा हुआ। इस बात के लिए सरकार की आलोचना की जा सकती है कि 10 लाख से अधिक सरकारी नौकरियों का वादा किया गया मगर तीन साल बाद उसकी आधी नौकरियां भी नहीं दी गई हैं। सरकार यह कहकर खुद को सही साबित करेगी कि आधे लक्ष्य ने भी रोजगार की चिंता को कुछ हद तक दूर किया है।
ज्यादा सरकारी नौकरियों के सृजन के अच्छे या खराब पहलू पर बात करने के बजाय इस बात पर ध्यान देना जरूरी है कि 1991 से 2022 तक सभी सरकारों के कार्यकाल के दौरान कर्मचारियों का आंकड़ा कम ही हुआ है। केंद्र सरकार के कुल असैन्य कर्मचारियों की बात करें तो मार्च 1991 में करीब 40 लाख कर्मचारी थे। मार्च 2014 तक इनकी संख्या कम होकर 33.2 लाख रह गई। मोदी सरकार भी मार्च 2022 तक इनकी तादाद कम करके 31.7 लाख पर ले आई। सार्वजनिक नीति संबंधी अधिकतर बहसों में जिस बात की अनेदखी कर दी जाती है वह यह है कि हाल के सालों में सरकार ज्यादा विरोध या आंदोलन का सामना किए बगैर कर्मचारियों की संख्या घटाने में कामयाब रही है।
यह इसलिए संभव हुआ क्योंकि रिक्तियों को जानबूझकर नहीं भरा गया और कई नौकरियां खत्म कर दी गईं। उन्हीं नौकरियों को ठेके पर या अस्थायी कर्मचारियों के जरिये कराया गया। मगर कर्मचारियों की तादाद तीन दशक में 21 फीसदी घटा दी गई और कोई उथल-पुथल भी नहीं हुई! ध्यान रहे कि इन सरकारों में से किसी ने भी इन कर्मचारियों की मंजूर संख्या नहीं घटाई और वह अब भी 40 लाख ही है। यह भी सच है कि मोदी सरकार ने पिछले तीन साल में कर्मचारियों की संख्या 15 फीसदी बढ़ाई है मगर आंकड़ा 36.5 लाख तक ही पहुंच पाया है, जो 40 लाख से काफी कम है।
परंतु बीते तीन सालों में यह इजाफा कैसे हुआ? यहां याद रहना चाहिए कि कुल कर्मचारियों में से 86 फीसदी तो रेलवे, डाक, केंद्रीय पुलिस बल और कर विभाग से ही हैं। मोदी सरकार के पहले सात सालों में भारतीय रेल के कर्मचारियों की तादाद में लगातार कमी आई और मार्च 2015 में 13.2 लाख से कम होकर ये मार्च 2022 में 12.1 लाख ही रह गए। बीते तीन सालों में असैन्य कर्मियों की कुल संख्या में 4.89 लाख का इजाफा हुआ है मगर भारतीय रेल के कर्मचारियों में केवल 3,000 की बढ़ोतरी हुई। बीते तीन सालों में डाक विभाग में सबसे अधिक 1.79 लाख और पुलिस में 1.43 लाख कर्मचारी बढ़े। प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष कर विभागों में करीब 71,000 कर्मचारियों का इजाफा हुआ और उनके कुल कर्मचारी 1.72 लाख तक पहुंच गए। केंद्र सरकार द्वारा की जा रही नियुक्ति कई सवाल पैदा करती है।
केंद्रीय पुलिस बलों की संख्या में तेज वृद्धि बताती है कि केंद्र सरकार कानून प्रवर्तन में दखल बढ़ा रही है। इस क्षेत्र में राज्यों को अधिक नियुक्तियां करनी चाहिए ताकि पुलिस और आबादी का अनुपात बढ़ जाए। डाक विभाग के कर्मचारियों की संख्या में इजाफे से सवाल खड़ा होता है कि जब लोग डाक संचार से दूरी बनाकर डिजिटल तरीके अपना रहे हैं तो डाक विभाग को दूसरे कामों पर ध्यान देना चाहिए या नहीं। आप इस बात पर भी ताज्जुब कर सकते हैं कि जब कर रिटर्न डिजिटल तरीके से दाखिल किए जा रहे हैं और ऑनलाइन जांच तथा कर निर्धारण का चलन बढ़ता जा रहा है तो कर विभाग के कर्मचारियों की संख्या आखिर क्यों बढ़ रही है। मगर हकीकत यही है कि कर विभाग में बहुत अधिक भर्तियां की गई हैं।
सवाल यह नहीं है कि सरकार को अधिक कर्मचारियों की भर्ती करनी चाहिए अथवा नहीं। सच तो यही है कि केंद्र सरकार के असैन्य कर्मचारियों पर सरकार सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) का केवल 1 फीसदी खर्च करती है, जो ज्यादा नहीं है। कई विकासित और विकासशील देशों की तुलना में यह आंकड़ा काफी कम है। रेल कर्मचारियों को हटा दें तो कर्मचारियों पर केंद्र का कुल खर्च और भी कम हो जाता है। ज्यादा कायदे का सवाल यह है कि भर्तियों में इजाफा उत्पादकता तथा क्षमता, दक्षता बढ़ाने के इरादे से किया जा रहा है या नहीं। साथ ही इससे सरकार का दखल कम हो रहा है या नहीं। अधिक कर्मचारियों का मतलब यह नहीं होना चाहिए कि गतिरोध बढ़ें और प्रभाव कम हो।
जोखिम के पहाड़
संपादकीय
उत्तराखंड में हिमस्खलन ने एक बार फिर तबाही मचाई है । इस पहाड़ी क्षेत्र में बर्फ की चट्टानें खिसकना कोई नई बात नहीं है, लेकिन कुछ समय के अंतराल में बार-बार होने वाली ऐसी घटनाएं डराती हैं। लगभग हर वर्ष होने वाले हिमस्खलन में कई लोगों की मौत हो जाती है। पर्वतारोहियों से लेकर आम नागरिक और निर्माण कार्यों में लगे मजदूर आए दिन हिमस्खलन की चपेट में आते रहे हैं। उन्हें बचाने का प्रयास होता है, लेकिन लापता हुए लोगों का कई बार पता नहीं चल पाता। हालांकि हिमालयी क्षेत्र में बर्फ की भारी चट्टानें खिसकने की घटनाएं होती रही हैं, मगर पिछले एक दशक में इसकी आवृत्ति जिस तरह बढ़ी है, उस पर अब सोचने की जरूरत है। गौरतलब है कि बदरीनाथ से तीन किलोमीटर दूर माणा गांव में हिमस्खलन से मची तबाही से लोग एक बार फिर सहम उठे हैं। खबरों के मुताबिक, शुक्रवार को हुई घटना में सत्तावन लोग बर्फ के नीचे दब गए थे। इनमें से ज्यादातर लोगों को किसी तरह बाहर निकाल लिया गया। हालांकि कई के लापता होने की खबर है। यों हिमस्खलन की चेतावनी एक दिन पहले ही जारी कर देने की बात कही गई है, लेकिन ऐसा लगता है कि यह सूचना उन निर्माण मजदूरों तक नहीं पहुंच पाई या फिर किसी स्तर पर इस मामले में लापरवाही बरती गई। अन्यथा हादसे में लोगों को जोखिम से बचाया जा सकता था।
दरअसल, पिछले कुछ समय से हिमस्खलन की घटनाओं में बढ़ोतरी की एक वजह प्राकृतिक है, तो दूसरी वजह असंतुलित विकास और पर्यावरण की उपेक्षा उपभोक्तावादी संस्कृति को प्रोत्साहित कर और उसे अपना कर जिस तरह वैश्विक तापमान को बढ़ाया गया है, उससे न केवल जल- जंगल और जमीन पर प्रभाव पड़ा है, बल्कि समुद्र तथा पहाड़ भी इससे अछूते नहीं रहे। प्रकृति की प्रतिक्रिया हम जलवायु परिवर्तन के रूप में देख सकते हैं। कहीं सूखा तो कहीं बाढ़ और कहीं जंगलों में आग से लेकर हिमस्खलन की बढ़ती घटनाएं इसी का संकेत दे रही हैं हिमस्खलन जैसी घटनाओं के प्रति सावधानी और जनजागरूकता से कुछ हद तक जानमाल के नुकसान को कम किया जा सकता है। मगर पहाड़ी इलाकों में जिस तरह मनुष्यों का बेतहाशा हस्तक्षेप बढ़ा है, उसमें सड़क से लेकर अन्य अनियोजित निर्माण कार्यों के गंभीर नतीजे अब सामने आ रहे हैं।
किसके लिए गोल्ड कार्ड
संपादकीय
अमेरिका के राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप के गोल्ड कार्ड ने पूरी दुनिया को चकमका दिया है। ट्रंप जो कहते हैं वह हमेशा कर भी दें इसकी कोई गारंटी नहीं है। और इसकी भी कोई गारंटी नहीं की जो वह करना चाहते हैं उसे सचमुच कर पाएं, मगर इतना तय है कि उन्होंने पदभार संभालते ही जिस तरह धूम-धड़ाका किया है उसने कई देशों की नींद उड़ा दी है। कई देशों को चिंता में डाल दिया है तो कई देशों को अपनी अमेरिकी नीति पर पुनर्विचार करने पर बाध्य कर दिया है। भारत भी ट्रंप की घोषणाओं और उसके क्रियान्वयन से अछूता नहीं है। अवैध प्रवासियों की अपमानजनक वापसी की धमक भारत झेल ही रहा था कि अब उसे गोल्ड कार्ड भी परेशानी में डाल रहा है। ट्रंप की गोल्ड कार्ड योजना वास्तव में क्या है किसी के समझ में नहीं आई है। इस योजना के मुताबिक 50 लाख अमेरिकी डॉलर यानी करीब 44 करोड़ रुपये देकर कोई भी विदेशी नागरिक अमेरिका में बस सकता है और तीव्र गति से अस्थाई नागरिकता प्राप्त करने के लिए अग्रसर हो सकता है। पहली बात तो यह है कि लोग धन कमाने के लिए लोग धन कमाने के लिए अमेरिका जाना चाहते हैं, अपना धन लेकर अमेरिका में बसना नहीं। यहां ट्रंप अमेरिका को एक बिकाऊ माल की तरह बेचना चाहते हैं जैसे कोई अच्छी जमीन बेची जाती है। यानी ट्रंप अमेरिका को ऐसे स्वर्ग के रूप में प्रस्तुत कर रहे हैं जहां किसी भी देश का कोई व्यक्ति 50 लाख अमेरिकी डॉलर खर्च कर बसना चाहेगा। क्या सचमुच अमेरिका ऐसा स्वर्ग है? अगर भारत की बात करें तो यहां बहुत बड़ी संख्या धनपतियों की है जिन्होंने अनेकानेक गैर कानूनी तरीकों से धनी इकट्ठा किया है। और वह इसकी सुरक्षा चाहते हैं। ऐसे लोग भारत में सीधे राजनेताओं या राजनीतिक दलों को अपनी सुरक्षा के लिए धन उपलब्ध कराते हैं। चुनावी चंदे में इस तरह के कई मामले उजागर हुए थे। दूसरी बात जो ट्रंप ने प्रतिभावान विदेशी छात्रों के बारे में कही जो अमेरिका में पढ़ाई करने के बाद नागरिकता नहीं मिलने के कारण अपने मूल देश में लौटकर व्यापार करते हैं और करोड़ों में खेलने लगते हैं। सवाल है कि कोई अमेरिकी कंपनी 50 लाख डॉलर देकर ऐसे प्रतिभावान उद्योगों को नौकरी देने में रुचि क्यों दिखाएगी। इसका कोई ठोस तर्क सामने नहीं है। बहरहाल, जनता की गाढ़ी कमाई को अमेरिका में ले जाकर बसने के भ्रष्ट पूंजीपतियों को गोल्ड कार्ड ने जरूर सुनहरा अवसर दिखा दिया है।