24-01-2020 (Important News Clippings)

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24 Jan 2020
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Date:24-01-20

सेनाओं में गद्दारों पर रोक के लिए बने प्रभावी व्यवस्था

संपादकीय

केंद्र के कुछ अति उत्साही मंत्री वंदे मातरम् न कहने वालों को पाकिस्तान भेजने का ऐलान करते हुए, पिछले कुछ सालों से हरेक को नए फॉर्मेट में देशभक्ति के लिए प्रेरित कर रहे हैं। जबकि, ताजा आंकड़ों के अनुसार देश के साथ गद्दारी करने वालों की संख्या में लगातार इजाफा हो रहा है। अधिकांश गद्दार भारत की तीनों सेनाओं की बेहद संवेदनशील खबरें दुश्मन देशों को बेच रहे हैं या हनी ट्रैप के शिकार हो रहे हैं। कश्मीर पुलिस के डीएसपी देविंदर सिंह की गिरफ्तारी के बाद अलर्ट हुई खुफिया एजेंसियों को अब पता चल रहा है कि आतंकियों और उनके संपर्क में आने वाले सेना के लोगों की जड़ें काफी गहरी हैं। 2019 में 13 ऐसे गद्दार पकड़े गए, जबकि पिछले नौ वर्षों में मात्र 32। वैसे तो भारत के पास मिलिट्री खुफिया का लंबा-चौड़ा विभाग एक लेफ्टिनेंट जनरल स्तर के डायरेक्टर जनरल के अधीन काम करता है, लेकिन दुश्मन देश की तैयारी को लेकर हुए रहस्योद्घाटन के बाद पूरी मिलिट्री इंटेलिजेंस, बीएसफ इंटेलिजेंस और इंटेलिजेंस ब्यूरो (आईबी) को ज्यादा समेकित तरीके से और एडवांस इलेक्ट्रॉनिक सर्विलांस के साथ इन गद्दारों पर नज़र रखनी होगी। दुश्मन देश और आतंकवादी गुट भारतीय सेना में भर्ती होने से पहले ही इन युवाओं को अपने शिकंजे में ले लेते हैं या फिर अपने लोगों को सेना में भर्ती करवा रहे हैं। कहना न होगा कि सेना में पैसे लेकर भर्ती की तमाम घटनाएं अक्सर खबरों में आती हैं। लिहाजा चयन प्रक्रिया पर भी कड़ी नजर रखनी होगी। जोर-शोर के साथ नेटग्रिड नामक संस्था विकसित की गई, जिसके तहत केंद्र की सभी 11 इंटेलिजेंस एजेंसियां शामिल हैं। लेकिन, अभी यह कोई ऐसा काम नहीं कर पाई हैं, जिससे आतंकवाद या सेना में गद्दारी पर अंकुश लग पाए। इसका मूल कारण राज्यों की खुफिया एजेंसियों को तो छोड़िए, मिलिट्री इंटेलिजेंस से भी सूचना का आदान-प्रदान न होना है। तेलंगाना की एसआईटी इस समय बेहद सराहनीय कार्य आतंकवादियों के खिलाफ कर रही है, लेकिन नेटग्रिड के साथ अपेक्षित तालमेल न होने से आतंकी हाथ से निकल जाते हैं। राज्य सरकारों के विरोध का आलम यह है कि राष्ट्रीय काउंटर टेररिस्ट सेंटर (एनसीटीसी) आज तक बन ही नहीं सका, जो इस तरह की गद्दारी के खिलाफ काफी प्रभावी होता। अगर देश को गद्दारी और आतंक से बचना है तो आज ऐसी संस्था तत्काल जरूरी है।


Date:24-01-20

संविधान सर्वोपरि

संपादकीय

सन 1950 में 26 जनवरी को भारत को अपना संविधान मिला जो विश्व के सर्वाधिक संपूर्ण, आधुनिक और उदार संविधानों में से एक है। सत्तर वर्ष बाद देश को न केवल उस स्मृति का जश्न मनाना चाहिए बल्कि स्वयं को एक बार फिर संविधान के सिद्धांतों के प्रति शाब्दिक और भावनात्मक स्तर पर समर्पित करना चाहिए। एक राष्ट्र राज्य के रूप में भारत का अस्तित्व, एक देश के रूप में उसका विकास और गत सात दशक में एक अर्थव्यवस्था के रूप में उसकी प्रगति में यह तथ्य भी शामिल है कि देश का संविधान व्यापक विवेचना से उभरा और इसकी संस्थापक पीढ़ी ने संविधान के तौर तरीकों और सिद्धांतों के प्रति पूर्ण प्रतिबद्धता दिखाई।

इसमें बहुत कम संदेह है कि बीते सात दशक में ऐसे भी अवसर आए जब देश की उदारवादी बुनियाद पर हमले हुए। आपातकाल की घोषणा ऐसा ही एक अवसर था। इस बात को लेकर चिंतित होने की पर्याप्त वजह है कि भारत एक बार फिर वैसे ही दौर से गुजर रहा है। भले ही यह सन 1970 के दशक की तरह स्पष्ट नहीं है। द इकनॉमिस्ट इंटेलिजेंस यूनिट (ईआईयू) हर वर्ष लोकतंत्र सूचकांक जारी करती है। यह सूचकांक दर्शाता है कि विभिन्न देश लोकतांत्रिक संस्थानों और उनसे जुड़े अनुभव के मामले में कैसा प्रदर्शन कर रहे हैं। भारत एक वर्ष में 10 स्थान नीचे लुढ़क गया और वर्ष 2018 के 41वें स्थान से 2019 में 51वें स्थान पर आ गया। ईआईयू ने कहा कि देश के इस सूचकांक में पिछडऩे की प्रमुख वजह यहां नागरिकों को मिलने वाली आजादी में आई कमी है। उसने असम में राष्टï्रीय नागरिक न पंजी लागू करने, जम्मू कश्मीर की स्वायत्तता और पूर्ण राज्य का दर्जा समाप्त किए जाने और नए नागरिकता संशोधन अधिनियम को इसका कारण बताया।

हालांकि ऐसे सूचकांकों पर 100 प्रतिशत यकीन नहीं किया जाना चाहिए लेकिन इसमें दो राय नहीं कि इस सूचकांक में भारत की स्थिति में गिरावट व्यापक साझा चिंताओं को प्रदर्शित करती है। इस बात की जांच करने का वक्त आ गया है कि देश के मूल संवैधानिक सिद्धांतों को कैसे एक बार पुन: उनकी जगह दिलाई जा सकती है। तमाम मोर्चों पर हम संविधान के लिखे और उसकी आत्मा में निहित धारणाओं का पालन करने में नाकाम रहे हैं। यह न केवल धर्मनिरपेक्षता जैसे संवैधानिक मूल्य को चुनौती है बल्कि ऐसे सवाल भी हैं कि क्या संविधान द्वारा प्रदत्त अधिकार सुरक्षित रहेंगे और एक नए युग में उनका उन्नयन होगा या नहीं। कोई संविधान स्थिर नहीं होता और वह समय के साथ बदलता है लेकिन भारतीय संविधान की उदार बुनियाद बनी रहनी चाहिए। जिन संस्थानों पर इस बुनियाद को बचाने का दायित्व है उन्हें अपनी स्वायत्तता को लेकर सचेत रहना चाहिए और बुनियादी संवैधानिक सिद्धांतों के बचाव के लिए मुस्तैद रहना चाहिए।

ध्यान देने वाली बात यह है कि लोकतंत्र में जहां राजनीतिक बदलाव और नए विचारों का आदर होना चाहिए, वहीं उसे संवैधानिक सिद्धांतों को चुनौती नहीं देनी चाहिए। ऐसे सिद्धांतों के बल पर ही किसी राज्य में निरंतरता आती है। यह न केवल लोगों को अवसर उपलब्ध कराता है बल्कि ऐसी सुरक्षा भी देता है जिसके बिना निवेश और वृद्धि असंभव है। हां, बदलाव होना चाहिए: निजता का मान रखा जाना चाहिए, अभिव्यक्ति पर उपनिवेशकालीन प्रतिबंध और सुरक्षा बलों की अत्यधिक शक्तियां समाप्त होनी चाहिए और संपत्ति के अधिकारों की समीक्षा होनी चाहिए। परंतु यह सब उस संविधान के दायरे में रहकर हो सकता है जो सात दशक पहले लिखा गया और जिस पर उस दौर में पूरी बहस हुई और बाद में भी होती रही। राजनीतिक वर्ग संविधान को लेकर जुबानी जमाखर्च से काम चलाता रहा है, जबकि उसे हकीकत में उसका पालन करना चाहिए।


Date:23-01-20

विवाद के सदन

संपादकीय

देश के अलग-अलग राज्यों की विधानसभाओं में अक्सर इस तरह के विवाद उठते रहते हैं कि सदस्यों के आचरण या फैसलों को लेकर सदन के अध्यक्ष ने जो व्यवस्था दी, वह कितनी न्यायसंगत है! सदन में भागीदारी करने वाले दलों की ओर से ऐसे आरोप आम हैं कि चूंकि विधानसभा के अध्यक्ष किसी खास पार्टी के सदस्य के रूप में हैं, इसलिए उनका फैसला इससे प्रभावित होता है। ऐसी शिकायतें आमतौर पर किसी विधायक के किन्हीं कारणों से अयोग्य ठहराने के मामलों में आती हैं और बात अदालतों तक भी पहुंचती है। ऐसे में विधानसभा अध्यक्ष को मिली विधायी शक्तियां बहस के घेरे में आती हैं। हालांकि आम धारणा यही है कि सदन के अध्यक्ष को किसी खास दल के प्रति पक्षपात से बचना होता है और कोई भी व्यवस्था देते हुए पूरी तरह निष्पक्ष दिखना भी होता है। इस संदर्भ में मंगलवार को सुप्रीम कोर्ट ने एक अहम राय सामने रखी है जो राज्यों की विधानसभाओं में समय-समय पर खड़ी होने वाली ऐसी परिस्थितियों से निपटने के लिए एक जरूरी सलाह मानी जा सकती है। अदालत ने अयोग्य ठहराने की मांग करने वाली याचिकाओं को देखने के लिए संसद को सेवानिवृत्त न्यायाधीश की अध्यक्षता में एक स्वतंत्र प्रणाली बनाने का सुझाव दिया है।

दरअसल, अदालत के सामने मामला मणिपुर विधानसभा का था, जहां वन मंत्री और अब भाजपा विधायक ने विधानसभा चुनाव कांग्रेस के टिकट पर जीता था, लेकिन बाद में उन्होंने पार्टी बदल ली थी। ऐसे में स्वाभाविक रूप से कांग्रेस ने उन्हें अयोग्य ठहराने की मांग की थी। लेकिन ऐसी स्थिति में इस तरह की शिकायतें रही हैं कि विधानसभा के अध्यक्ष चूंकि आमतौर पर सत्ताधारी दल के होते हैं, इसलिए वे अयोग्यता का आधार होने के बावजूद फैसला लेने में देरी करते हैं या फिर इस मसले पर उनकी व्यवस्था पर विवाद खड़ा होता है।

इसी के मद्देनजर सुप्रीम कोर्ट ने भी विधानसभा अध्यक्ष की शक्तियों पर फिर से विचार का सुझाव दिया कि यह ध्यान रखने की जरूरत है कि अध्यक्ष खुद किसी राजनीतिक दल से आते हैं। जाहिर है, अदालत का इशारा इस ओर है कि सत्ताधारी खेमे में होने की महत्त्वाकांक्षा में विधानसभा में अलग-अलग पार्टियों के सदस्यों के दल-बदल की स्थिति में अगर विधानसभा अध्यक्ष की ओर से दी गई व्यवस्था अपने राजनीतिक दल के प्रति निष्ठा से जुड़ी होगी तो उस पर सवाल उठेंगे। ऐसी स्थिति से बचने के लिए ही शायद अदालत ने कहा कि संसद को इस पर फिर से विचार करना चाहिए कि अयोग्यता संबंधी याचिकाओं पर फैसला अध्यक्ष द्वारा लिया जाना चाहिए या नहीं।

यों सरकार में मंत्री बनने या कोई अन्य आकर्षक पद पाने की महत्त्वाकांक्षा में दल-बदल के मामले कोई हैरानी की बात नहीं है। इसका तर्क यह है कि किसी सदस्य को अपनी राय बदलने का अधिकार है। लेकिन लोकतांत्रिक हक की धारणा से मिलने वाली सुविधा से कई बार समस्याएं खड़ी होती रही हैं। ऐसे अनेक मौके सामने आते रहे हैं जब किसी राज्य में कुछ विधायक अपनी निष्ठा बदल लेते हैं और इससे कई बार सरकारें तक बदल जाती है। जब ऐसे विधायकों को अयोग्य ठहराने की मांग की जाती है तो यह आमतौर पर विधानसभा के अध्यक्ष के फैसले पर निर्भर करता है। ऐसे में अगर विधानसभा अध्यक्ष के फैसले अपनी राजनीतिक निष्ठा से संचालित होते हैं तो उस पर सवाल उठते हैं। इसलिए अगर इससे इतर कोई नई और स्वतंत्र व्यवस्था कायम की जाती है तो यह उचित ही होगा। लेकिन यह ध्यान रखने की जरूरत होगी कि मौजूदा व्यवस्था में जिस निरपेक्षता और ईमानदार फैसले की उम्मीद में जो नई प्रणाली बनाई जाए, वह कसौटी पर खरी उतरे।


Date:23-01-20

निष्पक्षता की खातिर

संपादकीय

किसी भी सदन के अध्यक्ष (स्पीकर) की भूमिका को लेकर सर्वोच्च अदालत ने बेहद महवपूर्ण बात कही है। मंगलवार को अदालत ने स्पीकर के अधिकारों से जुड़़ी टिप्पणी मणिपुर के वन मंत्री की अयोग्यता के मुद्दे पर दिए फैसले में की है। अदालत ने कहा कि विधायकों और सांसदों को अयोग्य ठहराने संबंधी सदन के स्पीकर की शक्तियां पर दोबारा विचार करने की जरूरत है। साफ तौर पर अदालत का आशय है कि अध्यक्ष से पूर्ण निष्पक्षता की अपेक्षा नहीं कर सकते‚ क्योंकि वह भी किसी राजनीतिक दल का सदस्य होता है। ऐसे में सांसद या विधायक को अयोग्य घोषित करने का अंतिम अधिकार अगर स्पीकर के पास होता है तो इसके दुरुपयोग की आशंका बढ़ जाती है। हर कोण से मामले को देखने और समझने के बाद अदालत ने कुछ अहम सुझाव भी दिए‚ जिससे सदन की विश्वसनीयता कहीं से भी दरके नहीं। मसलन; अदालत ने केंद्र सरकार से यह विचार करने को कहा है कि क्या विधायकों और सांसदों की अयोग्यता पर फैसले का अधिकार स्पीकर के पास रहे या इसके लिए रिटायर्ड़ जजों के ट्रिब्यूनल जैसा स्वतंत्र निकाय गठित हो। स्वाभाविक तौर पर भारतीय गणतंत्र की भूमिका को अक्षुण्ण बनाए रखने में सदन के अध्यक्षों की महती भूमिका है परंतु इस पद में अंतर्निहित विरोधाभासों ने हमें लज्जित किया है। पूर्व में ऐसे कई मामले देखे गए‚ जिसमें स्पीकर की भूमिका पर गंभीर सवाल उठे। यहां तक कि मामला अदालत की चौखट तक पहुंच गया। लिहाजा इस मसले पर कई वर्षों से मंथन हो रहा था कि स्पीकर के पद की विश्वसनीयता को कैसे पवित्र और निष्पक्ष रखा जाए। चूंकि भारतीय प्रणाली में अध्यक्ष का पद हितों के टकराव से जुड़़ा हुआ है और इसके दुरुपयोग की संभावना ज्यादा है। वैसे इस मामले में हमें आयरलैंड़ से सबक लेने की जरूरत है‚ जिसकी संसदीय व्यवस्था हमारे जैसी ही है। वहां स्पीकर का पद ऐसे शख्स को दिया जाता है‚ जिसने लंबे वक्त तक राजनीतिक महkवाकांक्षा को तिलांजलि देकर भरोसा हासिल किया है। या फिर सीधे–सीधे स्पीकर के पद पर किसी अराजनीतिक व्यक्ति को बिठाना होगा‚ जो पक्षपात से कोसों दूर रहा है। जो भी हो‚ इस मामले में बेहद सजगता के साथ केंद्र को आगे बढ़ना होगा। अगर ऐसा हो पाया तो यह वाकई जनतंत्र के लिए बेहतर होगा।


Date:23-01-20

Playing with learning

Government-supported schools with motivated and trained teachers are a must

Editorial

The Annual Status of Education Report 2019 data on early childhood education in rural areas makes the case that the pre-school system fails to give children a strong foundation, especially in government-run facilities. Going by the findings, the percentage of girls in government schools is higher than in private institutions, the cognitive skills of children attending official anganwadi playschools do not match those attending private schools, and there is a significant percentage of underage children in the first standard of formal school, in violation of the stipulated age of six. It is beyond question that children will be benefitted greatly if they are provided a properly designed environment to acquire cognitive skills. These skills are critical to their ability to verbalise, count, calculate and make comparisons. What the ASER data sampled from 26 Indian districts seem to indicate is an apparent imbalance in State policies, which is disadvantaging the less affluent as anganwadis and government schools are poorly resourced. Official policies are also not strict about the age of entry, resulting in four and five year olds accounting for a quarter of government school enrolment, and over 15% in private schools.

Substantive questions of pre-primary and early children education raised even by meagre surveys such as ASER call for a deeper look at how governments approach funding of institutions and teacher training for better outcomes. It is as important to let teachers feel invested in anganwadis as play-and-learn centres aiding children in acquiring cognitive skills, as it is to provide physical infrastructure. Building human resource capabilities would depend on teachers being recruited on the basis of aptitude, their training in credentialed colleges and assurance of tenure of service. It is unsurprising that in the absence of policies with strong commitment, according to the ASER data, two-thirds of those in the second standard cannot read a text at age seven that they were meant to read a year earlier. The performance only marginally improves for those in the third standard. There are similar inadequacies for numeracy skills. It is a paradox that students appear to fare somewhat better in private schools with poorly paid teachers. Nationally, the problem is of a weak educational foundation with little scope for creative learning in the three-to-six year age group, and a governmental system disinterested in giving children motivated, well-trained teachers. There is no dearth of literature on what works for creative teaching and learning, including from programmes such as the Sarva Shiksha Abhiyan. Neither is there a lack of financial resources. What remains is for governments to show commitment to education.


Date:23-01-20

Ending inaction

The Supreme Court ends Speakers’ freedom to do nothing in disqualification cases

Editorial

There are two significant aspects to the Supreme Court’s latest decision on the Speaker as the adjudicating authority under the anti-defection law. The first is that Parliament should replace the Speaker with a “permanent tribunal” or external mechanism to render quick and impartial decisions on questions of defection. Few would disagree with the Court’s view that initial fears and doubts about whether Speakers would be impartial had come true. The second is its extraordinary ruling that the reference by another Bench, in 2016, of a key question to a Constitution Bench was itself unnecessary. The question awaiting determination by a larger Bench is whether courts have the power to direct Speakers to decide petitions seeking disqualification within a fixed time frame. The question had arisen because several presiding officers have allowed defectors to bolster the strength of ruling parties and even be sworn in Ministers by merely refraining from adjudicating on complaints against them. Some States have seen en masse defections soon after elections. Secure in the belief that no court would question the delay in disposal of disqualification matters as long as the matter was pending before a Constitution Bench, Speakers have been wilfully failing to act as per law, thereby helping the ruling party, which invariably is the one that helped them get to the Chair.

The reference to a larger Bench, in 2016 in S.A. Sampath Kumar vs. Kale Yadaiah was based on the landmark judgment in Kihoto Hollohan (1992) which upheld the validity of the Constitution’s Tenth Schedule, or the anti-defection law. This verdict had also made the Speaker’s order subject to judicial review on limited grounds. It made it clear that the court’s jurisdiction would not come into play unless the Speaker passes an order, leaving no room for intervention prior to adjudication. Finding several pending complaints before Speakers, the Bench, in 2016, decided that it was time for an authoritative verdict on whether Speakers can be directed to dispose of defection questions within a time frame. While fixing an outer limit of three months for Speakers to act on disqualification petitions, in the present case, Justice R.F. Nariman given four weeks to the Manipur Assembly Speaker to decide the disqualification question in a legislator’s case. He also held that the reference was made on a wrong premise. He has cited another Constitution Bench judgment (Rajendra Singh Rana, 2007), in which the Uttar Pradesh Speaker’s order refusing to disqualify 13 BSP defectors was set aside on the ground that he had failed to exercise his jurisdiction to decide whether they had attracted disqualification, while recognising a ‘split’ in the legislature party. As “failure to exercise jurisdiction” is a recognised stage at which the court can now intervene, the court has thus opened a window for judicial intervention in cases in which Speakers refuse to act. This augurs well for the enforcement of the law against defection in letter and spirit.


Date:23-01-20

3-capital theory

Andhra Pradesh is to have a lot of logistical headaches and not much decentralised development to show for it.

Editorial

In 2009, fantasy writer China Miéville bowled over readers with The City and the City, set in two metros which exist in each other’s space — and there are rumours of a third city hidden in the interstices. Now, in Andhra Pradesh, Chief Minister YS Jaganmohan Reddy has green-lighted a story just as fantastical — the passage of the Andhra Pradesh Decentralisation and Equal Development of All Regions Bill sets the stage for three capitals. While Miéville’s cities intrigued by violating geometry to share the same space, Reddy’s scheme baffles because of the distances involved. The executive capital, Visakhapatnam, is 700 km from Kurnool, the judicial capital, and 400 km from Amaravati, the legislative capital, which is 370 km from Kurnool. By Euclid’s principles, the day-to-day business of government in Andhra Pradesh is about to become a logistical nightmare.

While the Mughals and the Raj had contented themselves with two seasonal capitals, to protect top officials from extreme weather, geographically splitting the arms of government has not been attempted before. The government argues that the idea of decentralisation dates back to the Sri Bagh pact of 1937, and that the development of Hyderabad into an IT hub rivalling Bangalore by N Chandrababu Naidu has starved other regions of the state of development. The Justice BN Srikrishna Committee of 2010 and the K Sivaramakrishnan Committee of 2014 had suggested more even development. The GN Rao Committee of 2019 suggested three capitals and the Boston Consulting Group had recommended the locations. The government also argues that officials could easily travel to Amaravati to brief ministers when the legislature is in session. However, they would have to stay put there for the duration, abandoning their day-to-day duties in Visakhapatnam. Meanwhile, police officers would have to travel from their headquarters in Mangalagiri to the secretariat in Visakhapatnam. And since much of important litigation involves the administration and the police, everyone would have to travel regularly to Kurnool. The travel bill would be steep, and the inefficiencies generated by the system would rapidly erode possible gains in decentralised development.

This illogical scheme may be explained by political rivalry. In 2015, N Chandrababu Naidu, the first chief minister of divided Andhra Pradesh, had laid the foundations for a new capital in Amaravati in the presence of the prime minister and the vice president. However, the scheme faltered for lack of central support and when Reddy’s YSR Congress swept to power, the three-capital theory replaced it. If the intention was to dilute Naidu’s idea of Amaravati — itself an inefficient choice, since well-developed Vijayawada is nearby — satisfaction will come at an exorbitant cost. Reddy should use his energies in dealing with farm distress, the issue that had swept him to an absolute majority last year.