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23-11-2022 (Important News Clippings)
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Date:23-11-22
Boys Can’t Be Boys
Young men’s response to changing gender roles is often violent because they are schooled into dominance
TOI Editorials
What’s happening with young men in India, as more women move out of the allotted gender roles, bears deep examination. Men, who feel entitled to these services, act out their entitlement. It often takes the familiar form of retributive violence – in Aurangabad, a male graduate student set himself and his fellow student ablaze in their professor’s office, because she rejected his proposal. More often, it is simply the inability to see women as people with wills and desires of their own, who exist for themselves and not to serve men’s needs. In Karnataka, young farmers are requesting a ban on inter-district marriage, because the women around them are seeking better prospects and wider horizons. Those who fight inter-faith or inter-caste relationships assume that women are docile dupes, property to be safeguarded by ‘their’ men.
This thinking is bone-deep in our society, expressed by some women too. Violence against women is also processed through this lens. Attacks like intimate partner rape or abuse that are far more widespread but less socially ‘shameful’ than street and stranger crime provoke less outrage. Our institutions mirror this mentality. Police investigations turn their glare on the woman who is victimised, judges ask women to marry their rapists or make assumptions about what is expected of a wife, or discipline them for not being ‘pure’ and compliant fem-bots.
It’s alarmingly evident what harm this kind of thinking has wrought. Most men are schooled into power and dominance, taught to be ashamed of ordinary vulnerability. They pretend otherwise and displace their inability to live up to these norms of manliness into contempt and cruelty – the targets can be women or other different people or those socially worse-off than them. An increasing number of women are questioning this order, seeking their own freedom in education, employment and life. Men, who don’t see that a system set up to serve them is harming them, lash out in confusion and rage at women. The future will change only when boys do.
Strategy to save
The National Suicide Prevention Strategy must cascade down to every district
Editorial
The Strategy is etched with evidence-based practices to reduce the number of suicides, inspired by WHO’s strategy for the South East Asian region, and strings together multiple sectoral collaborations to provide a cohesive strategy and achieve the intended reduction in the number of suicides. In addition to committing to establishing effective surveillance mechanisms within the next three years, and psychiatric outpatient departments in all districts over five years, the Strategy also intends to write in mental health in the curriculum in educational institutions within the next eight years. Addressing issues relevant to India, including access to pesticides, and alcoholism, has set the Strategy on the path towards achievement of the goals. It is, however, incumbent on the Government to stay the course until the targets are achieved. Of course, in a federal country, any success is possible only if States are enthusiastic participants in the roll out.
इंसाफ का तकाजा
संपादकीय
समाज में प्रचलित परंपराओं और रीतियों में अगर कभी कोई खास पहलू किसी पक्ष के लिए अन्याय का वाहक होता है, तो उसके निवारण के लिए व्यवस्थागत इंतजाम किए जाते हैं। मगर ऐसे मौके अक्सर आते रहते हैं, जब परंपराओं और कानूनों के बीच विवाद की स्थिति पैदा हो जाती है। नाबालिग बच्चों को उनके खिलाफ यौन अपराधों और शोषण से सुरक्षा देने के लिए पाक्सो कानून बनाया गया। जाहिर है कि बच्चे चाहे जिस भी धर्म के हों, उनके खिलाफ होने वाले अपराधों को इसी के तहत देखना और बरतना एक स्वाभाविक कानूनी प्रक्रिया है। मगर कई बार सामुदायिक परंपराओं के लिहाज से भी इस प्रावधान की प्रासंगिकता को कसौटी पर रखने की कोशिश की जाती है। केरल उच्च न्यायालय ने एक मामले की सुनवाई के बाद इसी द्वंद्व पर स्पष्ट राय दी है, जिसमें किसी धर्म के तहत बनाए गए अलग नियम के मुकाबले पाक्सो कानून को न्याय का आधार बनाया गया है। अदालत की राय के मुताबिक, हालांकि मुसलिम पर्सनल ला में कानूनी तौर पर निर्धारित नाबालिगों की शादी भी मान्य है, इसके बावजूद पाक्सो कानून के तहत इसे अपराध माना जाएगा।
केरल हाई कोर्ट के ताजा फैसले को बेहद अहम माना जा रहा है, क्योंकि इसी तरह के मामलों में पहले तीन अन्य उच्च न्यायालयों ने अठारह साल से कम उम्र की लड़की की शादी के मामले को पर्सनल ला के तहत सही बता कर खारिज कर दिया था। पर केरल में एक सदस्यीय पीठ के सामने आए इस मामले में जांच के बाद एक अलग पहलू यह भी पाया गया कि नाबालिग लड़की के माता-पिता की जानकारी के बिना आरोपी ने उसे बहला-फुसला कर अगवा किया था। ऐसे में किसी भी धार्मिक कानून के दायरे में खुद भी इस पर विचार किया जाना चाहिए कि ऐसा विवाह कितना सही है। इसके अलावा, पाक्सो कानून की व्याख्या करते हुए अदालत ने साफ किया कि यह बाल विवाह और यौन शोषण के खिलाफ है और इस हिसाब से शादी होने के बाद भी किसी नाबालिग से शारीरिक संबंध बनाना कानूनी अपराध है। निश्चित तौर पर अब बच्चों के खिलाफ होने वाले यौन अपराधों और शोषण के संदर्भ में पाक्सो कानून और किसी धर्म के विशेष नियमों के बीच की स्थिति को लेकर नई बहस खड़ी होगी। खासतौर पर इस तरह के मामलों में तीन अन्य अदालतों से जिस तरह से भिन्न फैसले आए थे, उसमें किसी एकरूप स्थिति की मांग पैदा होगी। लेकिन हिंदू, बौद्ध, सिख और ईसाई आदि से अलग मुसलमानों में शादी की न्यूनतम उम्र के संदर्भ में जो कानूनी व्यवस्था है, उसके मद्देनजर कई बार जटिल स्थिति बनती है।
इसके बावजूद यह सवाल उठेगा कि अगर कोई कानून किसी अपराध से सभी बच्चों को सुरक्षा मुहैया कराने की बात करता है तो क्या किसी बच्चे को इसलिए इसके प्रावधानों के संरक्षण से वंचित कर दिया जाएगा कि वह किसी खास धार्मिक पहचान से संबद्ध है! इस लिहाज से देखें तो केरल हाई कोर्ट का ताजा फैसला इस दिशा में एक नई व्यवस्था की जमीन बन सकता है, जिसमें बिना धार्मिक पहचान का खयाल किए सभी बच्चों को न्याय मुहैया कराने की बात होगी। यह छिपा नहीं है कि पाक्सो कानून के प्रभावी होने के बावजूद मुसलिमों के अलावा अन्य धर्मों को मानने वाले समुदायों में भी बाल विवाह के मामले अक्सर सामने आते रहते हैं। खासतौर पर अक्षय तृतीया के मौके पर होने वाले बाल विवाह आज भी प्रशासन के लिए चुनौती बने रहते हैं। इसलिए सभी पक्षों को इस मसले पर सोच-समझ कर एक ठोस निष्कर्ष तक पहुंचने की जरूरत है, जिसमें नाबालिगों को हर स्तर के अपराध से सुरक्षित किया जा सके।
कोयला से ऊर्जा उत्पादन बन मज़बूरी
प्रमोद भार्गव
धरती पर रहने वाले जीव–जगत पर करीब दो दशक से जलवायु परिवर्तन की तलवार लटकी हुई है। मनुष्य और इसके बीच की दूरी निरंतर कम हो रही है। पर्यावरण विज्ञानियों ने बहुत पहले जान लिया था कि औद्योगिक विकास से उत्सर्जित कार्बन और शहरी विकास से घटते जंगल से वायुमंडल का तपमान बढ़ रहा है‚जो पृथ्वी के लिए घातक है। इस सदी के अंत तक पृथ्वी की गर्मी 2.7 प्रतिशत बढ़ जाएगी‚नतीजतन पृथ्वीवासियों को भारी तबाही का सामना करना पड़ेगा। इस मानव निर्मित वैश्विक आपदा से निपटने के लिए प्रतिवर्ष एक अंतरराष्ट्रीय पर्यावरण सम्मेलन जिसे कांफ्रेंस ऑफ पार्टीज (सीओपी) के नाम से भी जाना जाता है।
इस बार सीओपी की 27वीं बैठक मिस्त्र के शर्म अल–शेख शहर में संपन्न हुई। सम्मेलन में बहुत कुछ नया नहीं हुआ। लगभग पुरानी बातें हीं दोहराई गई। पेरिस समझौते के तहत वायुमंडल का तापमान औसतन 1.5 डिग्री सेल्सियस से कम रखने के प्रयास के प्रति भागीदार देशों ने वचनबद्धता भी जताई‚ लेकिन वास्तव में अभी तक 56 देशों ने संयुक्त राष्ट्र के मानदंडों के अनुसार पर्यावरण सुधार की घोषणा की है। इनमें यूरोपीय संघ‚अमेरिका‚चीन‚ जापान और भारत भी शामिल है‚लेकिन रूस और यूक्रेन युद्ध के चलते नहीं लगता कि कार्बन उत्सर्जन पर नियंत्रण के लिए नवीकरणीय ऊर्जा को जो बढ़ावा दिया जा रहा है‚वह स्थिर रह पाएगा। क्योंकि जिन देशों ने वचनबद्धता निभाते हुए कोयला से ऊर्जा उत्सर्जन के जो संयंत्र बंद कर दिए थे‚उन्हें रूस द्वारा गैस देना बंद कर देने के कारण फिर से चालू करने की तैयारी कर रहे हैं।
2018 का ऐसा वर्ष था‚जब भारत और चीन में कोयले से बिजली उत्पादन में कमी दर्ज की गई थी। नतीजतन भारत पहली बार इस वर्ष के ‘जलवायु परिवर्तन प्रदर्शन सूचकांक’ में शीर्ष दस देशों में शामिल हुआ है। वहीं अमेरिका सबसे खराब प्रदर्शन करने वाले देशों में शामिल हुआ था। स्पेन की राजधानी मैड्रिड में ‘कॉप 25′ जलवायु परिवर्तन सम्मेलन में यह रिपोर्ट जारी की गई थी। रिपोर्ट के अनुसार 31 उच्च कॉर्बन उत्सर्जन वाले देशों में से 90 में उत्सर्जन का स्तर कम होने के रु झान इस रिपोर्ट में दर्ज थे। इन्हीं देशों से 90 प्रतिशत कॉर्बन का उत्सर्जन होता रहा है। इस सूचकांक ने तय किया था कि कोयले की खपत में कमी सहित कार्बन उत्सर्जन में वैश्विक बदलाव दिखाई देने लगे हैं। इस सूचकांक में चीन में भी मामूली सुधार हुआ था। नतीजतन वह तीसवें स्थान पर रहा है। जी–20 देशों में ब्रिटेन सातवें और भारत को नवीं उच्च श्रेणी हासिल हुई है‚जबकि आस्ट्रेलिया 61 और सऊदी अरब 56 वें क्रम पर हैं। अमेरिका खराब प्रदर्शन करने वाले देशों में इसलिए आ गया है‚क्योंकि उसने जलवायु परिवर्तन की खिल्ली उड़ाते हुए इस समझौते से बाहर आने का निर्णय ले लिया था। इसलिए कॉर्बन उत्सर्जन पर उसने कोई प्रयास ही नहीं किए‚परंतु रूस के यूक्रेन पर नौ माह से चले आ रहे हमले के नतीजतन ऊर्जा उत्पादन एक बार फिर से कोयले पर निर्भरता की ओर बढ़ रहा है। दुनिया की लगभग 56प्रतिशत बिजली का निर्माण थर्मल पावरों में किया जाता है। इन संयंत्रों की भट्टी में कोयले को झोंका जाता है‚तब कहीं जाकर बिजली का उत्पादन होता है। ब्रिटेन में हुई पहली औद्योगिक क्रांति में कोयले का महkवपूर्ण योगदान रहा है।
नवम्बर 2021 में ग्लासगो में हुए वैश्विक सम्मेलन में तय हुआ था कि 2030 तक विकसित देश और 2040 तक विकासशील देश ऊर्जा उत्पादन में कोयले का प्रयोग बंद कर देंगे। यानी 2040के बाद थर्मल पावर अर्थात ताप विद्युत संयंत्रों में कोयले से बिजली का उत्पादन पूरी तरह बंद हो जाएगा। तब भारत–चीन ने पूरी तरह कोयले पर बिजली उत्पादन पर असहमति जताई थी‚लेकिन 40 देशों ने कोयले से पल्ला झाड़ लेने का भरोसा दिया था। 20 देशों ने विश्वास जताया था कि 2022 के अंत तक कोयले से बिजली बनाने वाले संयंत्रों को बंद कर दिया जाएगा। आस्ट्रेलिया के सबसे बड़े कोयला उत्पादक व निर्यातक रियो टिंटो ने अपनी 80 प्रतिशत कोयले की खदानें बेच दीं थीं‚क्योंकि भविष्य में कोयले से बिजली उत्पादन बंद होने के अनुमान लगा लिए गए थे। भारतीय व्यापारी गौतम अडानी ने इस अवसर का लाभ उठाया और अडानी ने ‘आस्ट्रेलिया कोल कंपनी’ बनाकर आस्ट्रेलिया के क्वींसलैंड क्षेत्र में कोयला खदानें भी हासिल कर लीं।
अडानी ने कारमिकेल कोयला खदान पर पर्यावरण संबंधी मंजूरी मिलने के बाद 2019 से कोयले का खनन शुरू कर इसे बेचना भी आरंभ कर दिया है। इसी साल फरवरी में जब भारत में कोयले का संकट खड़ा हुआ था‚तब आस्ट्रेलिया से ही भारत की सबसे बड़ी बिजली उत्पादक कंपनी एनटीपीसी ने कोयला खरीदा था। दूसरी तरफ‚कोयले की खपत बिजली उत्पादन के लिए बढ़ेगी तो कार्बन उत्सर्जन भी बढ़ेगा। अतएव धरती के तापमान में वृद्धि भी बढ़ेगी। इन बदलते हालातों में हमें जिंदा रहना है तो जिंदगी जीने की शैली को भी बदलना होगा। हर हाल में ग्रीन हाउस गैसों के उत्सर्जन में कटौती करनी होगी। यदि तापमान में वृद्धि को पूर्व औद्योगिक काल के स्तर से 1.5 डिग्री सेल्सियस से अधिक तक सीमित करना है तो कार्बन उत्सर्जन में 43 प्रतिशत कमी लानी होगी। आईपीसीसी ने 1850-1900 की अवधि को पूर्व औद्योगिक वर्ष के रूप में रंखांकित किया हुआ है। इसे ही बढ़ते औसत वैश्विक तापमान की तुलना के आधार के रूप में लिया जाता है।
इसी सिलसिले में जलवायु परिवर्तन से संबंधित संयुक्त राष्ट्र की अंतर–सरकारी समिति की ताजा रिपोर्ट के अनुसार सभी देश यदि जलवायु बदलाव के सिलसिले में हुई क्योटो–संधि का पालन करते हैं‚तब भी वैश्विक ग्रीन हाउस गैस उत्सर्जन में 2010 के स्तर की तुलना में 2030 तक 106 प्रतिशत तक की वृद्धि होगी। नतीजतन तापमान भी 1.5 से ऊपर जाने की आषंका बढ़ गई है। आईपीसीसी की यह रिपोर्ट ऐसे समय आई थी‚जब 6 नवम्बर 2022 से मिस्त्र के शर्म अल–शेख में जलवायु शिखर सम्मेलन शुरू होने जा रहा था‚लेकिन इस सम्मेलन की सबसे बड़ी कमजोरी यह रही कि इसमें रूस–यूक्रेन युद्ध को रोकने और रूस द्वारा बंद कर दी गई गैस प्रदायगी को फिर से चालू करने की दिशा में कोई ठोस कदम नहीं उठा पाई। तय है‚बंद पड़े कोयले से चलने वाले विद्युत ताप घर शुरू हो गए तो पृथ्वी को आग का गोला बनने से रोकना मुश्किल होगा ॽ
Date:23-11-22
भूकंप बिगड़ सकते है हिमालय की सेहत
सुरेश भाई
नवम्बर 6और 21‚ 2022 को आए भूकंप के पांच झटकों ने संकेत दे दिया कि हिमालय के संवेदनशील पर्वत जो बाढ़ और भूस्खलन के लिए भी बहुत संवेदनशील है। भविष्य में यहां फिर बड़ी तबाही का रूप धारण कर सकती हैं। पिछले 32 के दौरान उत्तराखंड और नेपाल में आए भूकंप ने जिस तरह से हजारों लोगों की जान ले ली है‚इसके बाद देखा गया कि पर्वतीय क्षेत्रों में बाढ़ एवं भूस्खलन ने बहुत तबाही मचाई है। कह सकते हैं कि पूरा हिमालय क्षेत्र आपदाओं का घर बन गया है। इसके बावजूद कोई सबक न लेकर हिमालय के विकास के स्थिर मॉडल के विषय पर एक कदम भी आगे नहीं बढ़ा गया है।
सर्वविदित है कि भूकंप आते रहते हैं। यह ऐसी प्रक्रिया नहीं कि एक बार भूकंप आ गया तो उसके बाद शायद न आए। इसको समझने के लिए ढालदार व ऊंचे पर्वतों वाले हिमालय को जानना जरूरी है जिसके दो ढाल हैं उत्तरी और दक्षिणी। दक्षिणी ढाल में नेपाल‚भूटान और भारत हैं। मध्य हिमालय (उत्तराखंड) दक्षिण ढाल पर है। हिमालय की 5 पर्वत श्रृंखलाएं हैं‚जिसमें शिवालिक‚लघु हिमालय और ग्रेट हिमालय हैं जो भूकंप के लिए अति संवेदनशील हैं। उत्तराखंड में आए 1991 के भूकंप के बाद वैज्ञानिकों के सर्वेक्षण से पता चला कि यमुना के उद्गम स्थल बंदरपूंछ से लेकर गंगोत्री‚केदारनाथ‚बदरीनाथ से पिथौरागढ़ और नेपाल तक की पहाडि़यों पर दरारें पड़ी हुई हैं जो लगातार आ रहे भूकंप के कारण चौड़ी होती जा रही है। यह भी सत्य है कि बार–बार भूकंप आने से कुछ दरारें आपस में पट जाती है और कुछ अधिक चौड़ी हो जाती है‚जिसमें बरसात के समय पानी भरने से जगह–जगह भूस्खलन पैदा करते हैं‚जिसके कारण हिमालय के लोग हर साल अपनी आजीविका के संसाधनों की लगातार कमी महसूस कर रहे हैं और मानवीय त्रासदी झेल रहे हैं। बाढ़‚भूकंप‚भूस्खलन के लिए भूगर्भ वैज्ञानिकों ने पूरे हिमालय क्षेत्र को जोन 4 और 5में रखा है। इसके बावजूद चिंता है कि ऐसे संवेदनशील क्षेत्र में कहीं भी भूकंप का सामना करने और बाढ़ नियंत्रण के ऐसे उपाय निर्माण कार्यों के दौरान नहीं देखे जाते हैं‚जिससे आपदा के समय बचा जा सके। भूकंप का खतरा हिमालय में इसलिए भी अधिक है क्योंकि शेष भू–भाग हिमालय को 5 सेंटीमीटर प्रति वर्ष की रफ्तार से उत्तर की तरफ धकेल रहा है। इसका अर्थ है कि हिमालय क्षेत्र गतिमान है और यहां भौगोलिक हलचल होती रहेगी। इसलिए भूकंप के बाद भूस्खलन स्वाभाविक घटना बन जाती है‚लेकिन भूकंप की लगातार बढ़ती तीव्रता को ध्यान में नहीं रखेंगे तो हिमालय की खूबसूरती बिगड़ सकती है। क्योंकि हिमालयी राज्यों में अधिकतर निर्माण कार्य इन्हीं दरारों के आसपास हो रहे हैं और यहां की धरती में लगभग 15किमी नीचे अनेकों भ्रंश सक्रिय हैं जो भूकंप की गतिशीलता को बढ़ाते रहते हैं। हिमालय की छोटी एवं संकरी भौगोलिक संरचना को नजरअंदाज करके सुरंग आधारित परियोजनाएं‚बहुत चौड़ी सड़कें‚बहुमंजिला इमारतों का निर्माण‚वनों का व्यावसायिक कटान करने से बाढ़ एवं भूस्खलन के खतरे और अधिक बढ़ रहे हैं। इस तरह के निर्माण कार्य भूकंप की दरार वाले इलाकों में अधिक हो रहे हैं। लंबी–लंबी सुरंगों को बनाने के लिए विस्फोटों का इस्तेमाल हो रहा है। नदियों के किनारे अधिकतर घर‚होटल और शहर बन रहे हैं। इसलिए बरसात के समय नदियों में आने वाली बाढ़ के लिए पर्याप्त स्थान न मिलने के कारण यहां पर बेतरतीब ढंग से खड़े किए गए घरों को ही अधिक नुकसान पहुंचता है। अतः दरार वाले इलाकों में बड़े निर्माण कार्य करना एक तरह से भूस्खलन को न्योता देने जैसा ही है। हर निर्माण कार्य में जल निकासी का रास्ता अवरुद्ध नहीं किया जाना चाहिए।
जापान और ऑस्ट्रेलिया में भी जगह–जगह भूकंप की दरारें हैं‚लेकिन वहां सड़क मार्ग की ऐसी तकनीकी है कि
निर्माण के दौरान जल निकासी का पूरा ध्यान रखा जाता है जिसके कारण वहां बरसात के समय सड़कें स्थिर रहती हैं‚ जबकि हिमालय क्षेत्र में निर्माण कार्यों के कारण ही जल निकासी अवरु द्ध हो रही है और जो मलबा निर्माण कायो से निकल रहा है वह सारा का सारा जल संरचनाओं के ऊपर उड़ेला जा रहा है। नदियों के अविरल बहाव को जगह–जगह रोकने के लिए जल विद्युत परियोजनाएं स्वीकृत की जा रही हैं। उत्तर भारत की सभी नदियों के उद्गम भूकंप से प्रभावित हैं। इसके निकट जितनी भी सुरंग आधारित परियोजनाएं निर्मित एवं निर्माणाधीन हैं‚वह सभी भविष्य में बड़ी आपदा को न्योता दे रहे हैं‚जबकि छोटी–छोटी सिंचाई नहरों से लघु पनिबजली बनाई जा सकती हैं। इन महवपूर्ण विषयों पर ध्यान न देकर हिमालय सरंक्षण के लिए हर रोज प्रतिज्ञा करने वाले योजनाकारों ने ऐसे विकास कार्यों को तवज्जो दे दी है‚जिसमें विनाश के रास्ते साफ तौर पर देखे जा रहे हैं। हिमालय के जलस्रोत न हों तो भारत की आधी आबादी के समक्ष पीने के पानी का संकट खड़ा हो जाएगा। पर्वतराज कहे जाने वाले हिमालय को केवल शब्दों में महिमामंडित करने की इतनी जरूरत नहीं है‚जितनी कि हिमालय में भूकंप के कारण जो स्थिति पैदा हो रही है। उसके अनुकूल विकास योजनाओं पर ध्यान देने की अधिक जरूरत है। समय रहते हिमालय की कांपती धरती के संदेश को लोग सुनें और लापरवाही नहीं बरतने का संकल्प लें
कहीं अर्थव्यवस्था पर भरी न पड़ जाए लैंगिग भेदभाव
अर्चना दत्ता, ( पूर्व महानिदेशक , दूरदर्शन )
विश्व बैंक के अनुसार, अभी हमारी महिला श्रम-बल भागीदारी दर, यानी एफएलएफपी आर दुनिया में सबसे कम है। अंतरराष्ट्रीय श्रम संगठन के मुताबिक, साल 2000 में महिला भागीदारी 30.5 प्रतिशत से घटकर 2019 में 21.1 प्रतिशत और 2020 में 18.6 प्रतिशत तक गिर गई है। अप्रैल-जून 2020 की पहली कोविड लॉकडाउन तिमाही के दौरान इसने रिकॉर्ड 15.5 प्रतिशत की गिरावट दर्ज की थी। विश्व आर्थिक मंच की ग्लोबल जेंडर गैप रिपोर्ट ने 2021 में भारत को 156 देशों में 140वें स्थान पररखा था। साल 2020 के एक शोध अध्ययन में पाया गया कि भारतीय अर्थव्यवस्था (1983-2018) के संरचनात्मक बदलाव और क्षेत्रीय प्रतिशत महि परिवर्तन ने महिलाओं के रोजगार पर मात्रात्मक और गुणात्मक, कोई प्रभाव नहीं डाला। नौकरी विविधीकरण के लिए बहुत कम जगह होने के कारण अर्थव्यवस्था में गिरावट के बावजूद पूर्णकालिक में लगी हुई है। महिलाओं ने कृषि क्षेत्र को आगे बढ़ाना जारी रखा है। गैर कृषि क्षेत्रों ने उनके लिए अधिक अवसर नहीं खोले हैं। इसके अलावा, 90 प्रतिशत कामकाजी महिलाएं असंगठित क्षेत्र में हैं। एक अध्ययन में कहा गया है, महिलाएं वेतन, नौकरी और सामाजिक सुरक्षा के मामले में बहुत लैंगिक भेदभाव झेल रही हैं।
ऑक्सफैम इंडिया की भारत भेदभाव रिपोर्ट 2022 ने खुलासा किया है कि भेदभावपूर्ण प्रथाओं के चलते और शिक्षा, कार्य अनुभव की कमी के कारण महिलाओं के लिए मजदूरी बहुत कम है। 2019-20 में लगभग 60 प्रतिशत पुरुषों ( 15 वर्ष और उससे अधिक आयु) के पास या तो नियमित वेतन वाली और स्व-नियोजित नौकरियां थीं, जबकि पांच में से केवल एक महिला पास ऐसी नौकरी थी। रिपोर्ट में यह भी कहा गया है कि योग्य महिलाओं की बड़ी संख्या पारिवारिक जिम्मेदारियों के कारण श्रम बाजार में शामिल होने के लिए तैयार नहीं हो पाती हैं। 2020 के आर्थिक सर्वेक्षण द्वारा किए गए मूल्यांकन के अनुसार, एक प्रतिशत पुरुषों की तुलना में 15-59 वर्ष आयु वर्ग की 60 प्रतिशत महिलाएं पूर्णकालिक गृहकार्य में लगी हुई हैं। प्यू रिसर्च ने खुलासा किया है कि 84 प्रतिशत भारतीय इस विचार का समर्थन करते हैं कि नौकरी की कमी की स्थिति में पुरुषों का महिलाओं की तुलना में नौकरी पर अधिक अधिकार है। एशियाई विकास बैंक का अध्ययन कहता है कि यदि औरतों की भागीदारी पुरुषों के बराबर होती, तो भारत की जीडीपी 2025 में 60 प्रतिशत अधिक हो सकती थी।
एक और खोज यह है कि भले ही भारत में 43 प्रतिशत महिलाएं विज्ञान, प्रौद्योगिकी, इंजीनियरिंग और गणित (एसटीईएम) स्नातक थीं, लेकिन एसटीईएम कार्य-बल में केवल 14 प्रतिशत महिलाएं हैं। इससे यह पता चलता है कि बेहतर पढ़ाई भी महिलाओं की कार्य-बल में भागीदारी को बदल नहीं पा रही।
ध्यान देना होगा, सिंगापुर, ताइवान, चीन और दक्षिण कोरिया जैसे कई एशियाई देशों ने गुणवत्तापूर्ण शिक्षा और उद्योग से संबंधित कौशल प्रदान करके, युवाओं को अच्छी स्वास्थ्य सेवाएं प्रदान करके बढ़ती युवा आबादी का लाभ उठाया है। इसके विपरीत, मानव पूंजी में भारत का निवेश बहुत कम है, जीडीपी का 3.1 प्रतिशत शिक्षा (2021-22 ) पर खर्च किया गया है, स्वास्थ्य पर लगभग एक प्रतिशत भारत में कौशल i विकास कार्यक्रम भी लैंगिक पूर्वाग्रह से पीड़ित हैं, जो हमारे श्रम बाजार के असंतुलन को बढ़ाता है।
भारत को सालाना 80 लाख युवा मिलने की उम्मीद है। जब तक इस पूंजी का, विशेष रूप से महिलाओं का 5 प्रयोग नहीं किया जाता, हमारी अर्थव्यवस्था बल नहीं मिलेगा। सामाजिक बुनियादी ढांचे का विस्तार व महिला – अनुकूल संस्कृति को बढ़ावा देना जरूरी है।