11-10-2022 (Important News Clippings)

Afeias
11 Oct 2022
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Date:11-10-22

Tinkers’, Tailors’, Bankers’ Nobel Prize

Feting three tacklers of financial crises

ET Editorials

Ben Bernanke, Douglas Diamond and Philip Dybvig, winners of this year’s Nobel Prize in economics, laid out the principles that shape the health of modern-day banking, a critical intermediary in the world’s ability to deal with financial catastrophe. The Diamond-Dybvig model lays out the asset-liability mismatch inherent in banking, with businesses needing loans well into the future and households saving on a much shorter time frame. Their theory explains why runs happen on banks and the role of deposit insurance. Bernanke’s work showed how runs on banks contributed to the Great Depression. The trio has provided solutions to tackle financial crises, with Bernanke guiding the US out of one as chairman of the Federal Reserve between 2006 and 2014. Current Fed chair Jerome Powell was on Bernanke’s board during the 2013 taper tantrum and the Nobel laureate sees a desire not to jolt financial markets in his successor’s delay to act on inflation following monetary accommodation for the pandemic.

By describing why bank runs are not madness — randomised withdrawal of bank deposits work as long as there is no reason to believe everybody else is going to take out their money — the Diamond-Dybvig theory has gained universal acceptance among policymakers who see deposit insurance as an alert system and the role of the central bank as lender of last resort. This tends to synchronise policy response to financial disequilibrium and makes Bernanke’s advocacy of the Great Moderation — declines in business cycle intensity because of independent stabilisation by central banks in advanced economies — a seductively acceptable argument. The era of low interest rates, however, created conditions for financial institutions to leverage off-balance sheet, which led to connected defaults as the situation deteriorated. This triggered the 2008 crisis and a new set of macroprudential instruments have been added to the policy mix to address rapid credit growth.

By putting credit into the macroeconomic framework, this year’s Nobel winners have opened the pathway for further research into financial frictions that provide a more robust modelling of economies.


Date:11-10-22

नोबेल विजेता पाबो के शोध से मानव विकास के इतिहास की परतें खुलेंगी

डॉ. विपुल कीर्ति शर्मा, ( प्रोफेसर और विज्ञान लेखक )

इस वर्ष फिजियोलॉजी या मेडिसिन का नोबेल पुरस्कार जर्मनी के स्वंते पाबो को दिया गया है। उनकी सबसे महत्वपूर्ण वैज्ञानिक खोज में से एक निएंडरथल जीनोम की डिकोडिंग करना था। क्या है यह पूरी गुत्थी? मानव का इवोल्यूशन (उद्विकास) एक जटिल और लंबी प्रक्रिया है। हम कैसे वानरों से वर्तमान स्वरूप तक पहुंचे, यह जानना बहुत रोचक है। प्रमाणों से पता चलता है कि हम लगभग 60 लाख वर्षों पूर्व वानर जैसे पूर्वजों से विकसित हुए।

लगभग तीन लाख साल पहले पृथ्वी पर आधुनिक मनुष्य अपने अन्य होमिनिन रिश्तेदारों के साथ रहे। इन ‘अन्य’ मानव रिश्तेदारों में से एक थे निएंडरथल और दूसरे थे डेनिसोवन्स। जीवाश्मीकृत निएंडरथल की हड्डियां सबसे पहले जर्मनी के डसेलडोर्फ पूर्व की निएंडर घाटी में मिलीं, इसलिए इन्हें ‘निएंडरथल’ कहा गया। ये होमिनिन लगभग 4,30,000 साल पहले पृथ्वी पर अस्तित्व में आए थे। वहीं, डेनिसोवन्स की खोज 2010 में हुई थी। साइबेरिया में जीवाश्म प्राप्ति स्थल ‘डेनिसोवा गुफा’ के नाम पर इन्हें ‘डेनिसोवन’ नाम दिया गया। ये दोनों होमिनिन क्रमशः तीस और बीस हजार साल पहले विलुप्त हो गए। क्या निएंडरथल और डेनिसोवन दोनों वर्तमान मनुष्यों के जैसे थे? क्या मानव तथा उनमें संकरण हुआ था? उनके डीएनए कैसे थे? आदि प्रश्नों का जवाब दोनों के जीनोम या डीएनए तथा मानव डीएनए के तुलनात्मक अध्ययन से ही दिया जा सकता था। किन्तु हजारों वर्षों से मिट्टी में दबे रहने के कारण डीएनए नष्ट हो जाता है, इसलिए तुलनात्मक अध्ययन असंभव-सा प्रतीत होता था। अपने अग्रणी शोध के माध्यम से स्वंते पाबो ने असंभव को संभव कर दिखाया और निएंडरथल और डेनिसोवन के जीनोम की सीक्वेंसिंग करके मनुष्यों के इन विलुप्त रिश्तेदार को जानने में बेहतर समझ विकसित की।

डेनिसोवा की सनसनीखेज खोज का श्रेय भी उन्हें ही जाता है क्योंकि जीनोम सीक्वेंसिंग के पहले तक डेनिसोवा नए होमिनिन के रूप में नहीं जाने जाते थे। यही नहीं, पाबो ने यह भी पाया कि लगभग 70,000 साल पहले अफ्रीका से बाहर प्रवास के बाद इन अब विलुप्त होमिनिन और होमो सेपियन्स के बीच जीन स्थानांतरण हुआ था। आज के मनुष्यों में कुछ जीन होमिनिन रिश्तेदारों से प्राप्त हुए हैं, जो यह दर्शाता है कि हमारी प्रतिरक्षा प्रणाली संक्रमणों के प्रति कैसे प्रतिक्रिया करती है।

पाबो के शोध ने एक पूरी तरह से नए वैज्ञानिक विषय ‘पैलियोजेनॉमिक्स’ को जन्म दिया है। उनकी खोज से आनुवंशिक अंतरों के आधार पर वर्तमान मनुष्य तथा विलुप्त होमिनिन में आनुवंशिक भिन्नता को प्रकट करके, उनकी खोजों ने यह पता लगाने का आधार प्रदान किया कि कैसे वर्तमान मानव अपने विलुप्त रिश्तेदारों से भिन्न है। स्वंते पाबो ने अपने अभूतपूर्व शोध के माध्यम से जीवाश्म विज्ञान में एक शाखा को स्थापित किया। प्रारंभिक खोजों के बाद उनकी टीम ने विलुप्त होमिनिन जीवाश्मों से प्राप्त अनेक जीनोम सिक्वेंसिंग का विश्लेषण पूरा कर लिया है। पाबो की खोजों ने एक अनूठा संसाधन स्थापित किया है, जिसका उपयोग वैज्ञानिक समुदाय द्वारा मानव उद्विकास और प्रवास को बेहतर ढंग से समझने के लिए बड़े पैमाने पर किया जाता है। अनुक्रम विश्लेषण के लिए नए शक्तिशाली तरीकों से संकेत मिलता है कि अफ्रीका में पुरातन होमो सेपियन्स में भी अन्य होमिनिन मिश्रित हो सकते हैं। स्वंते पाबो की खोजों से अब हम समझते हैं कि हमारे विलुप्त रिश्तेदारों से प्राप्त पुरातन जीन वर्तमान मनुष्यों के शरीर विज्ञान को प्रभावित करते हैं।


Date:11-10-22

चिंताजनक आंकड़े

संपादकीय

रजिस्ट्रार जनरल आफ इंडिया द्वारा जारी एक रिपोर्ट के आंकड़े झरखंड के लिए चिंता बढ़ानेवाले हैं। रिपेर्ट के अनुसार, पूरे देश में प्रखंड में सबसे अधिक बालिकाओं की शदी कम उम्र में होती है। स्थिति यह है कि वहां 58 प्रतिशत बलिकाओं की शादी 18 का से कम आयु में हो जाती है, जबकि पूरे देश में ऐसी बालिकाओं का प्रतिशत 1.9 ही है। वहां के ग्रमीण क्षेत्रों की स्थिति तो और भी खराब है, जब 7.3 प्रतिशत बालिकाओं की शादी निर्धारित उम्र से पहले हो जाती है। 21वीं सब में जब हम डिजिटल युग में जी रहे हैं तथा बल विवह रोकने के लिए सख्त कानून भी हैं। ऐसी परिस्थिति में भी बाल विवाह होन निश्चित रूप से दुर्भाग्यपूर्ण है। निश्चित रूप से इसका बड़ा कारण गरीबी, अशिक्षा और जागरूकता का अभव है, लेकिन हम अपनी जिम्मेदारियों से भाग नहीं सकते। हमें खासकर उन मशीनरी की उपयोगिता और क्रियाशीलता को लेकर सोचना होगा, जिनके कंधों पर इसे रोकने की जिम्मेदारी है। कम उम्र में शादी का असर न केवल बालिकाओं के स्वास्थ्य और उनकी मानसिक स्थिति पर पड़ता है, बल्कि इसका असर आनेवाली पोढ़ी पर भी पड़ता है। हमें उन राज्यों से साख लेने की आवश्यकता है जहां बाल विवाह या तो होते ना या कम होते हैं। केरल में । एक भी बालिका की शादी 18 वर्ष से कम आयु में नहीं होती। केंद्र की रिपोर्ट में संस्थागत प्रसव से संबंधित आंकड़े भी झारखंड के लिए चिंताजनक हैं। इसमें यह बात सामने आई है कि झारखंड में सबसे अधिक शिशुओं का जन्म अप्रशिक्षित कर्मियों की देखरेख में होता है। यहां 235 प्रतिशत शिशुओं का जन्म इस स्थिति में होता है। जन्म देनेवाली मं तथा जन्म लेनेबले शिशु दोनों की सेहत के दृष्टिकोण से यह स्थिति ठीक नहीं कहीं जा सकत। ऐसा नहीं है कि बाल विवाह रोकने या संस्थागत प्रसव को सुनिश्चित करने के लिए प्रयास नहीं होते। राज्य में इनसे संबंधित कई कार्यक्रम चल रहे हैं। इसके लिए करोड़ों रुपये का बजट रहता है।


Date:11-10-22

मजबूत बैंकिंग नियमन और नोबेल

संपादकीय

वर्ष 2022 का अर्थशास्त्र का नोबेल पुरस्कार अमेरिका के तीन अर्थशास्त्रियों बेन बर्नान्के, डगलस डायमंड और फिलिप डायबविग को दिया गया है। पुरस्कार की घोषणा के साथ प्रस्तुत उद्धरण पत्र में कहा गया कि तीनों अर्थशास्त्रियों ने आ​र्थिक संकटों को लेकर वित्तीय तंत्र की केंद्रीयता को लेकर काम किया है और यह भी कि कैसे सरकारों को ऐसे वित्तीय संकटों को रोकने या हालात को सुधारने के लिए हस्तक्षेप करना चाहिए। बर्नान्के के बारे में कहा जाता है कि वह ‘सही समय पर सही जगह पर सही व्य​क्ति’ थे। वह 2008 के वित्तीय संकट के समय अमेरिकी केंद्रीय बैंक फेडरल रिजर्व के चेयरमैन थे और उन्होंने सन 1930 के दशक की महामंदी को लेकर जताई गई सफल और असफल प्रतिक्रियाओं को लेकर जो अध्ययन किया था वह संकट के समय काम आया। इस समय विश्व अर्थव्यवस्था तमाम मु​श्किलों से गुजर रही है। उनमें से कुछ के तो पूर्ण संकट में बदल जाने का भी खतरा नजर आ रहा है। इसमें संदेह नहीं कि पुरस्कार समिति यह बताने का प्रयास कर रही थी कि आ​र्थिक संकट को लेकर कहीं अ​धिक सूचित प्रतिक्रिया की जरूरत होती है और अक्सर वित्तीय तंत्र समस्या और उसके हल दोनों के मूल में होता है।

बर्नान्के की बात करें तो उन्हें चौतरफा आलोचना का सामना करना पड़ा है। लैरी समर्स के अलावा शायद ही कोई अन्य जीवित अर्थशास्त्री होगा जिसे इतनी अ​धिक आलोचना का सामना करना होगा। वाम धड़ा उन पर आरोप लगाता है कि उन्होंने बैंकों को उबारा जबकि द​क्षिणपंथी धड़े का आरोप है कि उन्होंने लीमन ब्रदर्स को बचाने का प्रयास नहीं किया और ​शि​​थिल राजकोषीय नीति की सराहना की। उनके प्रदर्शन की अ​धिक तार्किक आलोचना यह हो सकती है कि उन्होंने संकट के दौर में जो अपारंपरिक तौर तरीके अपनाए उन्हें वापस लेने में बहुत कठिनाई हुई। एक दशक तक कम रोजगार वृद्धि, बढ़ती असमानता और संकट के बाद बढ़ते कर्ज के स्तर के लिए भी उनको कुछ हद तक जिम्मेदार ठहराया जा सकता है। इसके बावजूद शायद यह 1930 के संकट को लेकर उनकी समझ ही थी जिसके चलते उन्होंने बैंकिंग और वित्तीय तंत्र को बचाने के लिए अतिरिक्त प्रयास किए। शायद पुरस्कार समिति किसी खास कदम के बजाय इसी बात की सराहना करने का प्रयास कर रही है।

डायमंड-डायबविग मॉडल करीब चार दशक पुराना है लेकिन वह इस बात को समझने में केंद्रीय भूमिका निभाता है कि अर्थव्यवस्था में बैंक किस प्रकार भूमिका निभाते हैं, बैंकों के संचालन को किस प्रकार समझा जाना चाहिए और उन्हें कैसे बचाया जाना चाहिए। अनिवार्य तौर पर देखा जाए तो इस मॉडल से यह स्पष्ट हो गया कि बैंकिंग तंत्र में विश्वसनीयता कायम करने का काम उच्चतम स्तर से होना चाहिए न कि खाते बंद करने या निकासी रोकने जैसे कदमों से। भारतीय नीति निर्माण प्रतिष्ठान ने दर्शाया है कि वित्तीय संकट के दौर में जब एक बड़े निजी बैंक के संचालन को लेकर तमाम तरह की अटकलें थीं तब उसने इस सलाह को अपनाया तथा ऐसे कई कदम उठाए जिनकी मदद से आम जनता के विश्वास को मजबूत करने की को​शिश की गई। देश में सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों की मजबूती को देखते हुए संदर्भ अलग हो सकता है लेकिन बैंकिंग ​स्थिरता की बुनियादी महत्ता बरकरार है। उदाहरण के लिए भारत में किसी एक बैंक का संकट बहुत जल्दी राजकोषीय संकट में बदल सकता है। ऐसे में इन तीनों पुरस्कारों को सुर​क्षित और मजबूत बैंकिंग नियमन से लेकर वृहद आ​र्थिक ​स्थिरता तक की केंद्रीयता की दृ​ष्टि से देखा जाना चाहिए। बैंकिंग तंत्र के कामकाज को बचाने की जरूरत और किसी बड़े संकट से निपटने के लिए व्यापक राजकोषीय कदमों की आवश्यकता को साफ तौर पर समझा जा सकता है। यह पुरस्कार एक तरह से इन तीनों विद्वानों के काम को शुक्रिया कहना भी है कि उन्होंने किस प्रकार पारंपरिक बुद्धिमता को आकार दिया।


Date:11-10-22

हिमालय की संवेदनशीलता समझनी होगी

सुरेश भाई

मनुष्य को प्रकृति के अनुख्य व्यवहार करना पड़ेगा यदि वह प्रकृति पर विजय व फतह करने जैसी घमंडी हरकतों पर उतर आएगा तो ईश्वर द्वारा भेंट की गई प्रकृति से उसे जल्दी ही हाथ धोना पड़ सकता है। यह वाकया इसलिए महत्त्वपूर्ण है कि उत्तराखंड में अभी भारी बारिश पूरी ही नहीं हुई कि अक्टूबर के प्रारंभ तक बीते सप्ताह भर में हिमाच्छादित पर्वतों से चार बार हिमस्खलन की घटनाएं सामने आई है। इसमें से एक बहुत दर्दनाक और वेचैन करने वाला हादसा सामने आया है कि नेहरू पर्वतारोहण संस्थान उत्तरकाशी के 58 प्रशिक्षक एवं प्रशिक्षणार्थी 4 अक्टूबर को लगभग 5700 मीटर की ऊंचाई पर स्थित द्रौपदी का डंडा-2 पर्वत चोटी के बेस कैंप में 25 सितम्बर को पहुंच गए थे जहां पर एडवांस और बेसिक कोर्स का प्रशिक्षण दिया जा रहा था, जिसमें हिमाचल, उत्तराखंड, दिल्ली, पश्चिम बंगाल, कर्नाटक, असम, हरियाणा, तेलंगना, गुजरात, उत्तर प्रदेश आदि के प्रशिक्षार्थी और प्रशिक्षक मौजूद थे।

4 अक्टूबर की सुबह को पर्वतारोहण के दौरान हिमस्खलन होने से 29 लोग लापता हो गए। खराब मौसम के चलते केंद्र और राज्य सरकार की कड़ी मशक्कत के बाद शव निकाले जा सके। क्योंकि यह स्थान इतनी ऊंचाई पर है कि वहां हर क्षण मौसम करवट लेता रहता है। तीव्र ढलान वाले पर्वतों से बर्फ गिरती रहती है। चारों ओर भयानक बर्फीला तूफान आता है, जिसके कारण उसके ऊपर से गुजरने वाले लोगों का जीवन कभी भी संकट में पड़ सकता है। इसी तरह की जोखिम उठाते वहां गए पर्वतारोहियों ने अपना जीवन हमेशा के लिए स्वाहा कर दिया है। इसमें देशभर के राज्यों से आए राष्ट्रीय कैडेट कोर, पुलिस तथा सेना से संबंधित जवान और ऐसे युवा जिन्हें अभी देश की सेवा के लिए आगे काम करना था। उनकी इस असमय मौत से पूरा देश दुखी है। बताया जाता है कि पर्वतारोहण प्रशिक्षण के दौरान इस तरह की बड़ी दुर्घटना पहले नहीं हुई थी। देश में उत्तरकाशी के अलावा गुलमर्ग, दार्जिलिंग, डोरांग, मनाली में भी ऐसे सरकारी पर्वतारोहण संस्थान हैं, जहां युवाओं को बेसिक, एडवांस, मैथड ऑफ इंस्ट्रक्शन, सर्च एंड रेस्क्यू के प्रशिक्षण दिए जाते हैं। भीड़ इतनी बढ़ जाती है कि इसमे आवेदन करने वाले प्रशिक्षार्थियों को 2-2 वर्ष बाद भी प्रशिक्षण में भाग लेने का मौका मिलता है। प्रशिक्षण के दौरान युवाओं को पर्वतारोहण से जुड़े आधुनिक तकनीकी, उपकरण और इसके उपयोग के बारे में प्रशिक्षित किया जाता है। द्रोपदी पर्वत पर जब यह घटना घटी तो अनेकों लोगों ने बयान दिए कि हिमालय के पर्वतों को नंदा, त्रिशूल, कैलाश, चौखंबा, सागरमाथा, गौमुख, आदि ऐसे नामों से पुकारा जाता है, जिसके सामने नतमस्तक होकर ही मनुष्य को पर्वतों को जीतने का प्रलोभन त्याग देना चाहिए। बदलती जलवायु के कारण भी हिमालय क्षेत्र के पर्यावरण पर लगातार बदलाव दिखाई दे रहे हैं। जहां कभी भी अनहोनी घटना का सामना करना पड़ सकता है। वैज्ञानिक इस हादसे के बारे में बता रहे हैं कि अगस्तसितम्बर में हुई भारी बारिश के कारण हिमस्खलन बढ़ा है। अनेकों पर्वत चोटियों पर इस दौरान भारी हिमपात भी हुआ है। सीधे और तीव्र ढलान वाले हिमाच्छादित पर्वतों की चोटियों को पार करना जोखिम भरा हो सकता है। इसके बावजूद हिमालय की ऊंचाई तक पहुंचने की साहसिक प्रतियोगिता में भाग लेने वाले युवा अपने जीवन की उतनी परवाह नहीं करते हैं, जितनी कि उन्हें चोटी पर चढ़कर फतह हासिल करने की तमन्ना मन में रहती है। देश में हिमस्खलन की पहले भी ऐसी घटनाएं हुई हैं, जिसमें अनेक लोगों ने जान गंवाई है। 6 मार्च 1979 और 5 मार्च 1988 को जम्मू कश्मीर में 307 लोग हिमस्खलन की चपेट में आकर मर गए थे। 3 सितम्बर 1995 को हिमाचल प्रदेश में ग्लेशियर टूटने से नदी में बाढ़ जैसी स्थिति आ गई थी, जिससे भारी नुकसान हुआ है। 2 फरवरी 2005 को फिर जम्मू-कश्मीर में ही 278 लोगों की मौत हुई है। इसी तरह फरवरी 2016 को सियाचिन क्षेत्र में हिमस्खलन से 10 सैनिकों की मौत का आंकड़ा सामने आया था।

2019 में नंदा देवी आरोहण के दौरान भी सात पर्वतारोहियों की मौत हो गई थी। वर्ष 2017 में नंदा देवी अभियान में आईटीबीपी के 7 जवान लापता हुए थे। 2019 में भी मुनस्यारी से नंदा देवी ईस्ट आरोहण के लिए निकले विदेशी पर्वतारोहियों का एक दल हिमस्खलन की चपेट में आए थे, जिनके शव बहुत देर में बरामद किए जा सके। 17 फरवरी 2021 को चमोली जिले के रैणी गांव के ऊपर ग्लेशियर टूटने से 206 लोग मारे गए थे। हिमालय में यह सिलसिला थमने वाला नहीं है। अतः केदारनाथ क्षेत्र में इस दौरान तीन बार हिमस्खलन की घटना ने वैज्ञानिकों की चिंताएं बढ़ा दी है। हिमालय की संवेदनशीलता को अब बार-बार नहीं भुलाया जा सकता है। यहां जाने वाले पर्वतारोहियों, पर्यटकों को समझना पड़ेगा और उनको जलवायु अनुकूल एक्शन प्लान बनाना होगा। पर्वतारोहण संस्थान को भी अपने युवाओं के प्रशिक्षण के लिए कम खतरे वाले पर्वत श्रेणियों की पहचान करनी होगी, जहां उन्हें अनुकूल माहौल मिले वरना लोग पर्वतों को जीतने के नाम पर यूं ही जान गंवाते रहेगे।


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