23-08-2022 (Important News Clippings)

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23 Aug 2022
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Date:23-08-22

At 75 India Needs To Make Health A Habit

We must reorient public healthcare investments and create healthy, livable cities.

Satchit Balsari, [ The writer is Assistant Professor of Emergency Medicine at Harvard Medical School. ]

On the 75th year of India’s Independence,the health of our nation does not look good. The scourge of infectious diseases has hardly waned, and noncommunicable diseases like asthma, heart disease and diabetes are now increasingly common. Our healthcare system has never had enough personnel or material resources to even begin to make a dent. Our only recourse therefore is to reduce demand.

Reimagining development

There are over 250 million people around the world that are 75 years of age or above. The healthiest among them have their health largely defined by how they eat, how they move, and what they breathe.

Our current development model, powered by impatient capital, is leading us to dystopian megacities. Chennai, Bengaluru and Pune will cross 10 million population by 2030, and 14 cities will have more than 4 million people each. Going by current trends, none of these cities will see a concomitant rise in supporting infrastructure.

The air across India is now laden with byproducts of industrial growth, kitchen fires, agricultural waste, vehicular emissions, new construction and burning coal. Many of these pollutants, less than 2. 5 microns in size, easily pass from the lungs into the bloodstream and gradually but permanently damage the heart and lungs. With each passing year, the Air Quality Index in our cities is increasingly off the charts.

Meanwhile, thanks in part to our increasingly sedentary lifestyle, by 2007 the National Family Health Survey observed that obesity levels were reaching close to 50% in cities like Delhi. Obesity drives ill health, and contributes to cardiac disease, diabetes, hypertension,sleep apnea, metabolic syndrome and a slew of related physical and mental health challenges. This growing obesity is a harbinger of a high burden of morbidity that involves insulin injections, dialysis treatments, bypass surgeries and toe amputations.

Compounding our inability to move is our unhealthy relationship with food. Close to 75% of Indians eat some form of fish, egg or meat, with great interstate variation. But across most groups, the consumption of white flour, white rice and processed snacks is staggeringly high. Processed foods are one of the prime drivers of ill health, as are simple carbohydrates of which there are several varieties on the Indian thali.

Reorienting public health investments

What we eat, what we breathe and how we move are likely the prime drivers of our health (and ill-health). The government has committed to massive health insurance programmes in recent years. While laudable, medicalised solutions that focus on diagnostics and therapeutics are simply unpleasant. No one enjoys an angiogram or dialysis or bypass surgery, even if paid for by a national health system. And yet billions are being diverted to digitally map our lives instead of building us walkable roads.

To crawl out from under the crushing dual burden of infectious and non-communicable diseases we need to reimagine investments in public health. The key to wellbeing lies in urban planning, public transportation, environmental regulation and subsidising and promoting healthy foods, among a long list of services that make life worth living.

Emulate role model healthy cities

There are contemporary workable blueprints from other cities that have dealt with these challenges. The air in today’s greatest cities was heavily polluted just a few decades ago. After the Great Smog of London in 1952 that resulted in 4,000 deaths, the Clean Air Act was passed and families were offered incentives to replace coal fires with gas fires.

Wider footpaths, more trains and buses, bicycle lanes and bike-shares have made even cities like New York more navigable. Sugar and soda have been taxed in Denmark, and grocery chains across Europe and the US are making a concerted effort to offer more fresh produce and less processed food.

There are no easy solutions of course. Public outcry is muted because the collective slide to ill health is slow. The answers lie not in the purview of one discipline or a state agency, but at the intersection of public health, nutrition, urban planning, transport, renewable energy, education and law enforcement.

We must measure the impact of new laws, new investments and new priorities not on the wealth of 20 families, but on how our billions will eat, move and breathe. We must disincentivise development that destroys the building blocks of our health.


Date:23-08-22

मौसमी मार के बीच अनाज की किल्लत हो सकती है

संपादकीय

ताजा खबर है कि कई राज्यों में धान की खड़ी फसल का बड़ा हिस्सा बौना हो गया है (करीब आधी ऊंचाई)। केंद्रीय कृषि एक्सपर्ट्स की टीम धान के पौधों की डीएनए प्रोफाइलिंग कर रही है। उधर गेहूं का उत्पादन पिछले दो वर्षों के उत्पादन से भी कम होने की आशंका है। इसका कारण उत्तर भारत में पड़ी भीषण गर्मी है। इस वर्ष सरकार का अपना भंडारण (1 अगस्त 2022 को 26.6 मिलियन टन) 14 साल के निचले स्तर पर है। किसानों ने गेहूं सरकार को एमएसपी पर बेचने के बजाय खुले बाजार में ज्यादा दामों पर बेचा। गेहूं की कमी को देखते हुए सरकार ने निर्यात प्रतिबंध के साथ पीडीएस में गेहूं की जगह चावल देने का निर्णय लिया। उत्तर भारत में मुख्य अनाज गेहूं है, इसलिए लोग नाराज हैं। आने वाले दिनों में गेहूं की किल्लत और बढ़ेगी क्योंकि अमेरिका, ब्राजील और यूरोप में भी गेहूं पर मौसमी मार पड़ी है। किसानों को निर्यात के जरिए खुशहाल बनाने का भारत के लिए यह सुनहरा अवसर था। पर सरकार की अपनी समस्याएं हैं कि उसे तमाम वेलफेयर योजनाओं के लिए करीब 39 मिलियन टन गेहूं की जरूरत हर साल होती है। अगर धान ने धोखा दिया तो सार्वजनिक वितरण को बड़ा धक्का लग सकता है। इस बीच दलहन-तिलहन उत्पादन बढ़ने की खबर मिली है। वैज्ञानिक-सलाहकार इसे अच्छा संकेत मान रहे हैं।


Date:23-08-22

आतंक का नया रास्ता

संपादकीय

भारत में आत्मघाती हमले की तैयारी कर रहे इस्लामिक स्टेट के एक आतंकी का रूस में पकड़ा जाना खतरे की एक नई घंटी है। यह शायद पहली बार है, जब कोई आतंकी रूस के रास्ते भारत आकर आतंकवादी हमले को अंजाम देने की फिराक में था। रूस से प्राप्त जानकारी के अनुसार पकड़ा गया आतंकी मध्य एशिया का है और उसने तुर्किये में प्रशिक्षण प्राप्त किया था। इसका मतलब है कि तुर्किये आतंकियों के प्रशिक्षण का अड्डा बना हुआ है। ध्यान रहे कि राष्ट्रपति एर्दोगन के सत्ता में आने के बाद से तुर्किये में चरमपंथ बढ़ा है। एक समय था, जब दुनिया भर से मुस्लिम युवा इस्लामिक स्टेट के आतंक में हाथ बंटाने के लिए तुर्किये के रास्ते ही सीरिया और फिर वहां से इराक पहुंचते थे। तुर्किये की इस्लामिक स्टेट के प्रति नरमी किसी से छिपी नहीं। एक तथ्य यह भी है कि राष्ट्रपति एर्दोगन जम्मू-कश्मीर से अनुच्छेद 370 हटाए जाने के बाद से किस तरह पाकिस्तान के भारत विरोधी एजेंडे में उसका साथ देने में लगे हुए हैं। वह सऊदी अरब के वर्चस्व को चुनौती देकर इस्लामी जगत का अगुआ बनने के लिए भी बेचैन हैं।

भारत को रूस से और अधिक जानकारी हासिल करने के साथ इसकी भी पड़ताल करनी होगी कि कहीं तुर्किये भारत विरोधी तत्वों का नया अड्डा तो नहीं बन रहा है और इसमें पाकिस्तान की भूमिका तो नहीं? भारतीय खुफिया एजेंसियों को इसकी भी तह तक जाना होगा कि रूस में पकड़े गए आतंकी का भारत में संपर्क सूत्र कौन था और वह किसकी मदद से सत्ताधारी दल के किसी बड़े नेता को निशाना बनाने की तैयारी कर रहा था? यह संभव नहीं कि मध्य एशिया का कोई आतंकी स्थानीय तत्व की सहायता के बगैर भारत में आत्मघाती हमले की साजिश रच रहा हो। रूस में पकड़े गए आतंकी के भारत स्थित मददगारों के सक्रिय होने की आशंका इसलिए भी है, क्योंकि केरल, कर्नाटक और देश के दूसरे हिस्सों से इस्लामिक स्टेट के कई आतंकी गिरफ्तार किए जा चुके हैं। इनमें से कुछ ऐसे हैं, जो अफगानिस्तान जाने की ताक में थे। भारत इसकी अनदेखी नहीं कर सकता कि अफगानिस्तान में इस्लामिक स्टेट की सक्रियता तेजी से बढ़ रही है और फिलहाल यह नहीं कहा जा सकता कि तालिबान इस आतंकी समूह पर लगाम लगाने में सक्षम है। भारतीय खुफिया एजेंसियों को देश के भीतर सक्रिय उन तत्वों पर भी नजर रखनी होगी, जिन्होंने नुपुर शर्मा प्रकरण को लेकर मुस्लिम देशों में भारत के खिलाफ माहौल बनाने का काम किया। यह चिंता की बात है कि इंटरनेट मीडिया न केवल दुष्प्रचार में सहायक बन रहा है, बल्कि कट्टरता को बढ़ावा देने के साथ आतंकियों की भर्ती में भी।


Date:23-08-22

यूक्रेन युद्ध भारत के लिए नुकसानदेह

संपादकीय

यूक्रेन पर रूस के हमले को कल छह महीने पूरे हो जाएंगे। यह हमला ऐसे अति दुर्भाग्यपूर्ण समय में हुआ है, जब दुनिया वैश्विक महामारी के आर्थिक प्रभावों से उबर रही है। इस युद्ध के खत्म होने के कोई आसार नजर नहीं आना और भी बदतर खबर है क्योंकि वैश्विक अर्थव्यवस्था की रफ्तार सुस्त पड़ती जा रही है। यूक्रेन के पूर्व एवं दक्षिण में रूस की घुसपैठ तथा कड़े पश्चिमी प्रतिबंधों के खिलाफ डटे रहने की उसकी ताकत और यूक्रेन का उन्नत हथियारों से सुसज्जित होना अप्रत्याशित बदलावकारी साबित हुआ है।

रूस के जल्द पीछे हटने या राष्ट्रपति व्लादीमिर पुतिन के तख्तापलट के अनुमान अपरिपक्व साबित होने से ये भविष्यवाणियां निराशा पैदा कर रही हैं। इस विवाद के मूल में यूरोप के रूसी तेल और गैस पर अपनी भारी निर्भरता को खत्म करने की अपनी क्षमता है। इस विवाद के तत्काल बाद वैश्विक जीवाश्म ईंधन की कीमतों में तेज बढ़ोतरी ने दीर्घकालिक प्रभावों को लेकर पहले ही आगाह कर दिया था। अब तेल की कीमतें कुछ हद तक कम हुई हैं, जिसकी एक वजह सुस्त पड़ती वैश्विक अर्थव्यवस्था में कमजोर मांग भी है। लेकिन गैस की कीमतों में उतार-चढ़ाव बना हुआ है क्योंकि यूरोप में सर्दियां नजदीक आ गई हैं। गैस मुख्य रूप से ताप के लिए इस्तेमाल होती है।

इन वैश्विक विवादों ने भारत के लिए प्रत्याशित और अप्रत्याशित चुनौतियां पैदा कर दी हैं। देश लगातार अमेरिकी प्रस्तावों पर रूस की आलोचना करने से दूर रहा है। इसका देश को कम कीमतों पर रूसी तेल मिलने के लिहाज से फायदा मिला है। इसके चलते रूस कुछ समय के लिए भारत का सबसे बड़ा आपूर्तिकर्ता बन गया, जिसके नतीजतन पश्चिमी एशियाई देशों को भी भारतीय खरीदारों के लिए कीमतें घटाने को बाध्य होना पड़ा। लेकिन प्राकृतिक गैस को लेकर अनिश्चितता बरकरार है। अब यूरोप रूस की जगह कतर जैसे अहम पश्चिमी एशियाई आपूर्तिकर्ताओं से बड़ी खरीद के लिए प्रतिस्पर्धा कर रहा है। इससे न केवल कीमतें ऊंची बनी हुई हैं बल्कि इसके भारत की खुद की गैस अर्थव्यवस्था- इसकी सब्सिडीयुक्त रसोई गैस योजना और इसकी सिटी गैस वितरण परियोजनाओं के विस्तार के लिए भी निहितार्थ हैं। सिटी गैस वितरण परियोजनाओं के लिए आयात टर्मिनल और पाइपलाइन नेटवर्क को बढ़ाने पर भारी निवेश पहले ही किया जा चुका है। भारत यूरोप की मांगों के नुकसानदेह प्रभावों से कुछ ज्यादा समय बचा रह सकता है क्योंकि उसके कतर के आपूर्तिकर्ताओं के साथ लंबी अवधि के करार हैं। लेकिन इन करारों की अवधि समाप्त होने के बाद गैस आपूर्ति का भविष्य असहज मुद्दा बना हुआ है। जीवाश्म ईंधनों से नवीकरणीय ऊर्जा के अपने सफर की भारत की योजनाओं में देरी हो सकती है।

इस युद्ध के नतीजतन भू-राजनीतिक संरचना भारत के लिए ठीक नहीं रहने के आसार हैं। पश्चिमी देशों की रूस की कड़ी आलोचना को मद्देनजर रखते हुए इस युद्ध से पहले रूस और चीन के बीच ‘असीमित’ दोस्ती इतनी मजबूत हो गई है कि रूस को चीन का ‘अधीनस्थ’ कहा जाने लगा है। चूंकि यह संधि अमेरिका के खिलाफ थी, इसलिए भारत के क्वाड और हाल में हिंद-प्रशांत आर्थिक मंच के जरिये अमेरिका से प्रगाढ़ होते संबंधों पर जोखिम है। यह संभव है कि रूस आने वाले समय में चीन की लगातार सीमा घुसपैठ और उकसावे वाली हरकतों पर तटस्थ रुख न रखे।

भारत अब भी रूस के रक्षा उपकरणों का सबसे बड़ा खरीदार है। इससे समीकरण कुछ हद तक संतुलित हो सकता है। हालांकि कलपुर्जों का एक बड़ा हिस्सा यूक्रेन से खरीदा जाता है, जिसे लगातार बरबाद किया जा रहा है। इसी तरह भारत की नाटो देशों से सामग्री खरीद की सूची लंबी हो जाएगी। यूक्रेन-रूस युद्ध को लेकर लगातार विवेकशील कूटनीति और आर्थिक योजना की दरकार होगी।


Date:23-08-22

आतंक के ठिकाने

संपादकीय

रूस और यूक्रेन के बीच लंबा खिंचता युद्ध तो चिंता पैदा कर ही रहा है, उससे भी बड़ा खतरा अब यह लग रहा है कि कहीं ये देश आतंकी गतिविधियों का भी केंद्र न बन जाएं। मास्को में हाल में हुई दो घटनाएं चौंकाने वाली रहीं। ताजा घटना यह कि रूस की शीर्ष खुफिया एजंसी फेडरल सिक्युरिटी सर्विस (एफएसबी) ने इस्लामिक स्टेट यानी आइएस के एक आत्मघाती हमलावर को गिरफ्तार किया। इसके बारे में एफएसबी का दावा है कि यह आतंकी भारत में बड़े नेताओं पर हमले करने की तैयारी में था और मास्को के रास्ते भारत पहुंचने वाला था। बताया जा रहा है कि यह किसी मध्य एशियाई देश का ही नागरिक है। यह भी पता चला है कि इसे इसी साल तुर्की में आइएस में शामिल किया गया और भारतीय नेताओं पर आत्मघाती हमले का प्रशिक्षण दिया गया। इस आतंकी की गिरफ्तारी से यह तो साफ हो गया कि आतंकी अब रूस को अपना नया ठिकाना बनाने की तैयारी में हैं। वैसे भी मध्य एशिया के कई देशों में आइएस का जाल फैल चुका है। अगर रूस आतंकियों के लिए नया रास्ता बन गया तो यह खतरा उसके लिए भी कम बड़ा नहीं होगा।

दूसरी घटना भी कम गंभीर नहीं है। राष्ट्रपति व्लादिमीर पुतिन के बेहद करीबी सहयोगी एलेक्जेंडर दुगीन की बेटी दारया दुगीना की हत्या कर दी गई। गौरतलब है कि दुगीन रूस में ऐसे कट्टर राष्ट्रवादी नेता के रूप में जाने जाते हैं जो पड़ोसी देशों को रूस में मिलाने के प्रबल पक्षधर रहे हैं। कहा यह भी जा रहा है कि यूक्रेन पर हमला उन्हीं के दिमाग की उपज है और उनकी योजना पर ही पुतिन ने इतना बड़ा कदम उठा लिया। दावा तो यहां तक किया जाता है कि वे ही पुतिन के दिमाग हैं। अगर वाकई यह सब है, जैसा कि कहा और दावा किया जा रहा है, तो निश्चित ही वे हत्यारों के निशाने पर रहे होंगे। इसके अलावा दुगीना भी अमेरिका की कट्टर विरोधी थीं और यूक्रेन के मुद्दे पर अमेरिका व पश्चिमी देशों का कड़ा विरोध कर रही थीं। मामला ने तब और गंभीर मोड़ ले लिया जब दुगीना की हत्या के कुछ ही घंटों बाद यूक्रेन के एक बड़े खुफिया अधिकारी की हत्या कर दी गई। रूस का कहना है कि दुगीना की हत्या यूक्रेन ने करवाई है। आरोप तो ये भी हैं कि इसमें अमेरिका का हाथ है। लेकिन जो भी हो, यह तो अब साफ हो चला है कि रूस-यूक्रेन जंग की दिशा बदलती जा रही है और एक दूसरे को सबक सिखाने के दूसरे तरीके भी आजमाए जा रहे हैं।

हालांकि ये दोनों घटनाएं प्रकृति में अलग हैं, लेकिन युद्धरत देशों में आतंकी संगठनों की भूमिका किसी से छिपी नहीं है। यूक्रेन रूस पर ये आरोप तो पहले से लगा ही रहा है कि वह लड़ाई में आतंकी संगठनों के लड़ाकों का इस्तेमाल कर रहा है। ऐसे ही आरोप रूस के भी हैं। सीरिया, इराक, अफगानिस्तान, लेबनान, फिलस्तीन जैसे देशों में आतंकी संगठन कहर ढहाते ही रहे हैं। अफ्रीकी देशों में आइएस की जड़ें गहरी हैं। इसी कड़ी में अब एशिया में भारत, बांग्लादेश और श्रीलंका जैसे देशों में भी आइएस अपना जाल बिछाने में लगा है। भारत में आतंकी संगठनों के लिए काम करने वाले लोगों की हाल के दिनों हुई गिरफ्तारियों से इसकी पुष्टि होती है। वैसे भी भारत के लिए आतंकवाद बड़ी चुनौती बना हुआ है। ऐसे में इस मोर्चे पर जरा भी ढिलाई महंगी पड़ सकती है।


Date:23-08-22

चीनी जहाज से सतर्क रहना होगा

डॉ. लक्ष्मी शंकर यादव

भारत की सुरक्षा चिंताओं और विरोध के बावजूद चीन का जासूसी पोत युआन वांग-5, 16 अगस्त को सुबह सुबह श्रीलंका के हंबनटोटा बंदरगाह पहुंच गया। श्रीलंका ने 13 अगस्त को चीन के इस जहाज को 16 से 22 अगस्त तक हंबनटोटा बंदरगाह पर ठहरने की अनुमति दी है। इससे पहले इस जहाज को 11 से 22 अगस्त तक रुकने का कार्यक्रम था, लेकिन भारत की सुरक्षा चिंताओं को देखते हुए श्रीलंका ने चीन को अनुमति देने से इनकार कर दिया था। बाद में श्रीलंका में चीन के राजदूत और श्रीलंका के राट्रपति रानिल विक्रमसिंघे की अनौपचारिक मुलाकात के बाद श्रीलंका ने भारत की चिंता को दरकिनार करते हुए पोत के आने की स्वीकृति प्रदान कर दी।

गौरतलब यह है कि भारत ने अपनी सुरक्षा चिंताओं से श्रीलंका को पहले ही अवगत करा दिया था, लेकिन श्रीलंका ने देर सबेर आखिर चीन के पोत को ठहरने की अनुमति दे दी। श्रीलंका के विदेश मंत्रालय ने कहा कि इस मामले को मैत्रीपूर्ण, परस्पर विश्वास एवं सार्थक संवाद के जरिए सुलझाया गया है। सभी पक्षों के साथ कूटनीतिक माध्यमों के उच्च स्तर पर व्यापक विचार-विमर्श के बाद यह निर्णय लिया गया है। श्रीलंका का यह भी कहना है कि रक्षा मंत्रालय ने निर्धारित अवधि के दौरान जहाज में ईंधन भरने के लिए सुरक्षा मंजूरी प्रदान की है। चीन का जासूसी पोत युआन वांग-5 जब हंबनटोटा पहुंचा तो इसका स्वागत करने के लिए श्रीलंका में मौजूद चीनी राजदूत क्यूई जेंगहांग व श्रीलंका की सत्तारूढ़ पोदूजन पेरामुन पार्टी से अलग हुए कुछ सांसद भी मौजूद थे। पोत के हंबनटोटा पहुंचने के बाद चीन इस विवाद को शांत करने में जुट गया हैं। चीनी राजदूत ने सफाई देते हुए कहा है कि इस तरह के शोध जहाजों की श्रीलंका की यात्रा स्वाभाविक है। इससे पहले ऐसा ही एक जहाज 2014 में आया था। हालांकि मौजूदा अनुमति को लेकर चीन के विदेश मंत्री वांग वी ने कहा था कि सुरक्षा चिंताओं के नाम पर भारत और अमेरिका श्रीलंका पर अनुचित दबाव बना रहे हैं। इस तरह दोनों देश श्रीलंका के आंतरिक मामलों में गैरजरूरी हस्तक्षेप कर रहे हैं। भारत से हंबनटोटा बंदरगाह की दूरी 160 किलोमीटर है। चीन के बेल्ट एंड रोड इनीशिएटिव के तहत चीन के लिए यह अहम बंदरगाह है। यह बंदरगाह दक्षिण पूर्व एशिया, अफीका और पश्चिम एशिया को जोड़ता है। इस बंदरगाह का निर्माण वर्ष 2010 में राट्रपति राजपक्षे के कार्यकाल में हुआ था। इसका पहला चरण चीन के एक्जिम बैंक द्वारा दिए गए कर्ज से तैयार किया गया था। यह बंदरगाह श्रीलंका की राजधानी कोलम्बो से 250 किलोमीटर की दूरी पर स्थित है। गौरतलब है कि श्रीलंका ने चीन से अपने देश के विकास के लिए ऋण लिया था। इस ऋण को लौटाने में विफल रहने के बाद श्रीलंका ने सन् 2017 में हंबनटोटा बंदरगाह को 99 साल के लिए चीन को लीज पर दे दिया था। चीन के कर्ज से ही हंबनटोटा बंदरगाह पर विकास कार्य किए गए हैं। जबसे श्रीलंका ने इस बंदरगाह को लीज पर दिया है तबसे ही भारत इसके सैन्य इस्तेमाल को लेकर चिंतित है। हंबनटोटा बंदरगाह से चीन अपने जासूसी पोत युआन वांग-5 की मदद से भारत के ओडिषा राज्य के तट की सभी गतिविधियों पर नजर रख सकता है। उल्लेखनीय है कि भारत की तरफ से मिसाइलों की परीक्षण प्रक्रिया ओडिषा तट के नजदीक अब्दुल कलाम द्वीप पर की जाती है। युआन वांग-5 पोत चीन की सेना पीएलए के तहत काम करता है और पूरी तरह से सेटेलाइट व मिसाइलों की गतिविधियों की निगरानी करने में सक्षम है। इस पोत पर 400 सैनिकों का दल रहता है। यह एक बड़े ट्रैकिंग एंटीना तथा अत्याधुनिक सेंसर से लैस है। युआन वांग-5 अपनी विशेषता के मुताबिक समुद्री सव्रे भी कर सकता है। इस कार्य से चीन को भविय में हिंद महासागर में पनडुब्बी से जुड़े ऑपरेशन संचालित करने में सहायता मिल सकेगी। यह पोत भारत के दक्षिणी इलाके की अधिक-से-अधिक सामरिक गतिविधियों तथा ढांचागत परियोजनाओं पर नजदीकी निगरानी रखने की क्षमता रखता है। इसके अलावा इस पोत को उपग्रहों एवं अंतरमहाद्वीपीय बैलिस्टिक मिसाइलों को ट्रैक करने की महारत हासिल है।

सामरिक रूप से देखा जाए तो हंबनटोटा बंदरगाह के पास सैन्य कूटनीति की बिसात बिछ गई है। श्रीलंका में चीनी नौसेना पोतों का आना-जाना एवं भारत से भी सैन्य विमानों एवं जहाजों का आवागमन आम बात रही है, लेकिन इस बार युआन वांग-5 पोत के आने का विवाद गहरा गया है। अपनी विशेषता के अनुरूप यह पोत 750 किलोमीटर की दूरी तक नजर दौड़ा सकता है, जिसमें भारत के कई समुद्री तट आते हैं। इनके जवाब तलाशने के लिए हिंद महासागर की सामरिक स्थिति समझने की आवश्यकता है। चीन के भारत के प्रति सामरिक इरादे किसी से छिपे नहीं है। अब हंबनटोटा पर अपना जासूसी जहाज भेज कर मनोवैज्ञानिक व सामरिक दबाव बनाना शुरू कर दिया है। चीन श्रीलंका में अपनी सैन्य उपस्थिति बनाए रखकर भारत की सामरिक चुनौती को और बढ़ा रहा है। वर्तमान में श्रीलंका की आर्थिक स्थिति काफी खस्ताहाल है और उसे लगता है कि इस समय चीन ही उसकी मदद कर सकता है। ऐसे में भारत को अपनी सामरिक ताकत को मजबूत बनाना होगा।


Date:23-08-22

कम से कम हम तो नहीं पैदा करें पहाड़ों में आपदाएं

वीरेन्द्र कुमार पैन्यूली, ( सामाजिक कार्यकर्ता )

न्यूज चैनलों या सोशल मीडिया में पिछले दो-तीन साल से हिमालयी पहाड़ी राज्यों से खौफनाक वीडियो आते ही रहते हैं। राजमार्गों पर गिरते-झड़ते पहाड़, जान बचाकर भागते लोग, टूटकर बहते घर इत्यादि के वीडियो आते ही रहते हैं। 20 अगस्त 2022 को उत्तराखंड, हिमाचल प्रदेश, जम्मू-कश्मीर जैसे पहाड़ी राज्यों में हुई भारी बरसात व भूस्खलन में 15 से ज्यादा लोगों की मौत हुई है। अनेक लोग घायल व लापता भी हुए हैं।

पिछले एक दशक में भूस्खलनों के दौरान भारी मलबा, भारी शिलाखंड के वाहनों पर, श्रमिक शिविरों पर, आवासीय भवनों अस्पतालों, स्कूलों पर गिरने की घटनाओं से कई लोगों की मौत हुई है। जलवायु बदलाव प्रेरित अतिरेकी घटनाएं व अभी भी स्थिरता खोजती कम उम्र हिमालय की भूवैज्ञानिक प्रकृति निस्संदेह रह-रहकर आते घातक भूस्खलनों का कारण है। इसके साथ ही, जनसंख्या और आर्थिक गतिविधियों का दबाव भी बढ़ा है। क्षेत्रीय भूविज्ञान जटिलताओं, कमजोरियों को समझे बिना पहाड़ों पर काम हो रहे हैं। परिवेश की दृष्टि से संवेदनशील क्षेत्रों में भी तमाम तरह की गतिविधियां थोपी जा रही हैं। इन्हीं वजहों से भूस्खलनों की संख्या बढ़ी है। सियासी दबावों के कारण ही जहां सड़क या भवन नहीं बनाए जाने चाहिए, वहां बना दिए जाते हैं।

ऐसे में, यदि भूगर्भीय संरचनाओं की अवहेलना के साथ ही क्षेत्रीय जल विज्ञान को न समझा गया, पानी के आने व जाने के रास्तों पर घ्यान न दिया गया, तो भूस्खलन का खतरा और बढ़ेगा। जिस गति से खेत व मकान बनाए जा रहे हैं, उससे भी खतरा बढ़ा है। यदि हरित आवरण में कमी हो, तो सतही बहाव का पानी भूक्षरण करता ही है। पहाड़ों में भीतर ही भीतर पानी का बहाव व रिसाव दरारों चौड़ा व गहरा कर देता है। निर्माण कार्यों में भी अक्सर दरारें देखी जा रही हैं।

भूस्खलनों में गुरुत्व बल से चट्टानें, मिट्टी, मलबा अपनी जगह छोड़ देते हैं। पहाड़ों में अब ज्यादातर निर्माण भूस्खलनों को बढ़ावा देने लगे हैं। पहाड़ों को स्थिर होने के लिए भी समय नहीं दिया जा रहा है। जमीनी स्तर पर निरंतर निर्माण व बदलाव का क्रम जारी है। मौसम में बदलाव के कारण कभी भी बारिश या भारी बारिश की आशंका बनी रहती है और कभी तेज घूप चुभने लगती है। लगातार बारिश, तेज बारिश और तेज धूप से भूस्खलन बढ़ता है। समय की कमी के कारण बड़े शिलाखंडों को हटाने के लिए बारूदी विस्फोट का सहारा लिया जाता है। पहाड़ दरक जाते हैं। पहाड़ी दरारों में पानी, बर्फ के जमने या पिघलने से भी पहाड़ कमजोर होते हैं। पहाड़ों का आधार टूटता है। घर बनाने का काम हो या समतलीकरण का काम, पहाड़ों की मुश्किलें बढ़ रही हैं। भले ही किसी को लगे कि वह वह छोटे स्तर पर बदलाव कर रहा है, लेकिन वास्तव में एक छोटा बदलाव भी बड़े खतरे का कारण बन सकता है। भूमि कटाव रोकने के लिए मजबूत दीवारें बनाने का प्रावधान है, पर पैसा बचाने के लिए निजी या सरकारी स्तर पर सुरक्षा से समझौता किया जाता है। जलविद्युत परियोजना, जलाशय परिधि क्षेत्रों में भूकटाव, भूधसाव व भूस्खलन बढ़ जाते हैं। जलाशय परिधियों में भूमिगत जलभराव भी कालान्तर में भूस्खलन लाते हैं। रेल व सड़क परिवहन परियोजनाओं के लिए सुरंगों के प्रति बढ़ता रूझान भी पहाड़ों में भूस्खलनों के नए क्षेत्र बना रहा है। सुरंगों के लिए तो अनिवार्य रूप से निरंतर विस्फोट किया ही जाता है।

अब पहाड़ी भूस्खलन केवल बारिश तक सीमित नहीं हैं। कभी भी हो सकते हैं। पहाड़ों में बेमौसम बरसातें व आग की घटनाएं बढ़ रही हैं। वनाग्नियों के बाद की बरसात में भूस्खलन के मामले बढ़ जाते हैं। भूस्खलन ग्रस्त मार्गों पर विशेष ध्यान देने की जरूरत है। रास्तों के नीचे की जमीन और पहाड़ की नियमित जांच होती रहनी चाहिए। यदि पहाड़ों से मलबा हटाया गया और स्थानीय उपचार पर ध्यान न दिया गया, तो मुश्किलें बढ़ सकती हैं।

पहाड़ों को प्यार चाहिए। पहाड़ों पर रहने का मतलब यह नहीं कि पहाड़ों का अहित किया जाए। पहाड़ों का अहित किया जाएगा, तो पहाड़ हमें किसी भी मौसम में चैन की सांस नहीं लेने देंगे। प्रकृति जो हमले कर रही है, उसका हम कुछ खास उपचार नहीं कर सकते, पर हम जो हमले कर रहे हैं, उसकी रोकथाम तत्काल संभव है।


 

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