22-02-2025 (Important News Clippings)

Afeias
22 Feb 2025
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Date: 22-02-25

Judges’ dilemma

Accountability and independence ought to be equally important for judges

Editorial

The Lokpal’s ruling that High Court judges are amenable to its jurisdiction and the Supreme Court order staying it on its own motion raise more than a mere question of law. The issue concerns both the independence of the judiciary and its accountability. That the Court, government law officers and senior advocates found the Lokpal’s decision disturbing is understandable, as many believe that judicial independence will be undermined if judges of constitutional courts are made answerable to the Lokpal, even though they fall under the definition of ‘public servant’ under the Prevention of Corruption Act. The Lokpal view appears to be prima facie incorrect. There is nothing to suggest that superior court judges were ever considered to be under its remit. Last month, the Lokpal, headed by former Supreme Court judge, A.M. Khanwilkar, rejected a corruption complaint against a former Chief Justice of India (CJI) on the ground that the Lokpal Act, 2013, did not concern apex court judges and that its reference to “persons” who are members of any body or authority created by an Act of Parliament cannot be applied to the Supreme Court, an institution established by the Constitution. However, in respect of High Court judges, it said High Courts established by statutes creating the respective States were statutory bodies, and their judges were “persons” within the meaning of Section 14 of the Lokpal Act.

The independence of the judiciary was the foremost consideration when the Court held in K. Veeraswami vs Union of India (1991) that no case can be registered against them without consulting the CJI, even though it also said judges were public servants under the Prevention of Corruption Act. Based on this principle, the Lokpal has referred the complaint to the CJI. While the Lokpal ruling is set to be reviewed, the time may have come to address the issue of accountability in the rare event of a credible corruption charge arising against a judge. The matter is now dealt with by the Court through an in-house procedure, initiated only if the Chief Justice of a High Court, or the CJI or the President receives a complaint. If the charges appear true, asking the judges concerned to resign, denying them judicial work or recommending their removal through Parliament are the options available. Some judges are transferred from one High Court to another, but whether a corruption charge is the reason is never disclosed. The Court should see if the present mechanism is enough or it needs to be expanded to include credible follow-up action such as an independent prosecution under its supervision. Both accountability and independence ought to be equally important for the judiciary.


Date: 22-02-25

अब भारत अमेरिकी मदद के आसरे नहीं रह गया है

संपादकीय

ट्रम्प ने डब्ल्यूएचओ को मदद बंद करने के बाद अब दुनिया को स्वास्थ्य, शिक्षा, ऊर्जा, पर्यावरण और जेंडर न्याय के मद में दी जाने वाली मदद रोकने का भी फैसला किया है। मदद देने वाली संस्था यूएस एजेंसी फॉर इंटरनेशनल डेवलपमेंट (यूएसएआईडी) पर ताला लगाने के साथ ही भारत में सभी प्रोजेक्ट्स – जिनमें अधिकांश एनजीओ चला रहे थे – रोकने के आदेश दिए गए हैं। भले ही ये तमाम एनजीओ मान रहे हों कि इससे देश में स्वास्थ्य और शिक्षा के विकास पर असर होगा, लेकिन सच यह है कि भारत अब उस दौर से बाहर आ चुका है, जिसमें अमेरिकी मदद कल्याणकारी या विकास कार्यक्रमों को प्रभावित करे। वर्ष 1950 में ही अमेरिकी मदद शुरू हो गई थी। पीएल- 480 कानून भी इसी संदर्भ में था, जिससे भारत को भुखमरी से बचाया गया। लेकिन विकास के क्रम में आज भारत अमेरिका का हिन्द-प्रशांत क्षेत्र में बड़ा सहयोगी है। भारत का बजट इस साल लगभग 590 अरब डॉलर का है, जबकि इस साल इस अमेरिकी संस्था द्वारा कुल 140 मिलियन डॉलर की सहायता दी जानी थी। यानी भारत के बजट का मात्र 4200वां हिस्सा । याद करें, पूरी दुनिया में अमेरिकी मदद सशर्त होती थी। कई देशों के आतंरिक मामलों में दखलंदाजी की जाती थी और उन पर अन्य स्रोतों के जरिए विकास करने पर पाबंदी लगाई जाती थी। लेकिन अब भारत अमेरिकी मदद के आसरे नहीं रह गया है।


Date: 22-02-25

अमेरिकी सहायता का सच

संपादकीय

इसकी जांच आवश्यक ही नहीं, अनिवार्य है कि भारत में मतदान बढ़ाने के नाम पर अमेरिकी सहायता किसे मिली और उसका उपयोग कहां एवं कैसे हुआ? इसकी आवश्यकता इसलिए बढ़ गई है, क्योंकि पहले एलन मस्क ने इस पर आपत्ति जताते हुए उसे रोकने की घोषणा की, फिर अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप ने उसे भारत में सत्ता परिवर्तन के उद्देश्य से इस्तेमाल किए जाने का संदेह जताया और फिर यह भी कह दिया कि वह एक तरह की दलाली थी।

यह कहकर उन्होंने बाइडन प्रशासन और वित्तीय सहायता देने वाली सरकारी एजेंसी यूएसएड को ही कठघरे में खड़ा कर दिया। एलन मस्क पहले ही इस एजेंसी को आपराधिक संगठन कह चुके हैं।

हालांकि ट्रंप ने यह तो कहा कि मतदान बढ़ाने के नाम पर दी गई अमेरिकी सहायता के बारे में भारत को बताना होगा, लेकिन पता नहीं कि वह ऐसा करते हैं या नहीं? यह संदेह इसलिए, क्योंकि कुछ भी कहकर सनसनी मचाना उनकी आदत है।

इसे देखते हुए विदेश मंत्रालय को यह सुनिश्चित करना चाहिए कि इस मामले की जांच इस तरह हो कि दूध का दूध और पानी का पानी हो। ऐसा इसलिए भी होना चाहिए, क्योंकि यूएसएड से मिली सहायता को लेकर परस्पर विरोधी दावे किए जा रहे हैं।

किसी की ओर से यह कहा जा रहा है कि 21 मिलियन डॉलर की अमेरिकी सहायता प्रस्तावित थी, किसी का निष्कर्ष है कि वह आ गई थी। कोई यह कह रहा है कि उक्त वित्तीय सहायता भारत नहीं, बांग्लादेश को दी गई और कोई यह कि पैसा किसी अन्य अमेरिकी जांच एजेंसी के जरिये भारत ही आया।

इस सिलसिले में उन जॉर्ज सोरोस की संस्था का नाम आ रहा है, जो भारत समेत अन्य देशों में हस्तक्षेप के लिए कुख्यात हैं। इसकी भी अनदेखी न की जाए कि पूर्व मुख्य चुनाव आयुक्त एसवाई कुरैशी ने यह माना है कि यूएसएड की ओर से वित्त पोषित एक अमेरिकी संस्था से चुनाव आयोग का समझौता हुआ था, लेकिन उन्होंने वित्तीय मदद मिलने से इन्कार किया।

ऐसे में यह प्रश्न और अधिक गहरा जाता है कि आखिर सच क्या है? आशा की जानी चाहिए कि विदेश मंत्रालय की ओर से इस मामले की गहन जांच की जाएगी। यह जांच होने के साथ ही यह सुनिश्चित करने की भी आवश्यकता है कि देश में जो भी विदेशी सहायता आए, वह भारत सरकार के जरिये आए और इसकी निगरानी हो कि वह किस मद में खर्च हो रही है?

निःसंदेह यह समझ आता है कि यूएसएड जैसी एजेंसियां निर्धनता निवारण, महिला सशक्तीकरण, स्वास्थ्य सुविधाओं में बेहतरी आदि के लिए सरकारी एजेंसियों को सहायता दें, लेकिन इसका कोई औचित्य नहीं कि वे गैर-सरकारी संगठनों को पैसा बांटे, क्योंकि ऐसे अनेक संगठन अपने संदिग्ध इरादों के लिए जाने जाते हैं।


Date: 22-02-25

करदाताओं का भरोसा बढ़ाने वाली पहल

डॉ. सुरजीत सिंह, ( लेखक अर्थशास्त्री हैं )

बहुप्रतीक्षित नए आयकर बिल, 2025 में प्रत्यक्ष कर कानूनों को समेकित और तर्कसंगत बनाने के साथ-साथ वैश्विक मानकों के अनुरूप बनाने का प्रयास किया गया है। इस बिल में किसी अतिरिक्त कर की बात नहीं है, बल्कि मौजूदा कर कानूनों को सरल बनाने पर ध्यान केंद्रित किया गया है।

यह बिल न सिर्फ करदाताओं की जटिलता को कम करेगा, बल्कि नौकरशाही की अनावश्यक बाधाओं को भी दूर करने में मदद करेगा। नए आयकर बिल को आधुनिक और सरल बनाने के लिए डिजिटल बनाने की दिशा में भी पहल की गई है, जिससे स्वचालन, डाटा विश्लेषण और प्रशासन में सुधार होने के साथ-साथ कर दायरे के विस्तार की संभावनाएं भी बढ़ेंगी।

भारत में आयकर का भुगतान करने वाले मात्र 2.5 प्रतिशत लोग ही हैं, जो विकसित होती अर्थव्यवस्था की तुलना में बहुत कम हैं। 64 वर्ष पुराना 1961 का आयकर कानून अपने अनेक संशोधनों के साथ अत्यधिक जटिल हो गया था, जो बदलते भारत की आकांक्षाओं को पूरा करने में सक्षम नहीं हो पा रहा था।

इसलिए वेतन-भत्ते, अनुमानित कराधान, कर भुगतान, कर कटौती, कर रिफंड आदि के प्रविधानों को आसान बनाने के लिए मौजूदा 52 अध्यायों के मुकाबले नए बिल में मात्र 23 अध्याय ही रखे गए हैं।

कर प्रशासन की कुशलता बढ़ने से करदाताओं की संख्या और राजस्व में भी वृद्धि होगी। करदाताओं का भरोसा बढ़ने से कर विवाद और मुकदमेबाजी घटेगी। कर विवादों की संख्या में कमी आने से करदाताओं और न्यायपालिका पर पड़ने वाला बोझ भी कम होगा।

करदाताओं की किसी त्रुटि को सुधारने के लिए अतिरिक्त समय देते हुए अपडेटेड रिटर्न दाखिल करने की समयसीमा को दो साल से बढ़ाकर चार साल कर दिया गया है। इससे न सिर्फ कर अनुपालन आसान होगा, बल्कि सभी श्रेणी के करदाताओं के लिए निष्पक्ष कर संरचना भी सुनिश्चित होगी।

सामान्यत: करदाताओं को यह समझने में बहुत मुश्किल होती थी कि आयकर की गणना के लिए मूल्यांकन वर्ष का प्रयोग करें या फिर वित्तीय वर्ष का, लेकिन नए बिल में अब कर वर्ष की अवधारणा को अपनाया गया है, जो एक अप्रैल से अगले साल 31 मार्च तक होगा। इसके तहत किसी भी नए पेशे के लिए कर वर्ष की शुरुआत उसी वित्तीय वर्ष में मानी जाएगी।

नए आयकर बिल की सर्वाधिक महत्वपूर्ण बात यह है कि घरेलू और विदेशी कंपनियों के लिए एकसमान कर दरों का प्रस्ताव किया गया है। इससे न सिर्फ प्रतिस्पर्धा बढ़ेगी, बल्कि विदेशी निवेश को भी बढ़ावा मिलेगा, जो रोजगार सृजन में सहायक होगा। क्रिप्टोकरेंसी जैसी आभासी डिजिटल परिसंपत्तियों को ‘कैपिटल असेट्स’ माना जाएगा और उन पर टैक्स लगेगा।

पूंजीगत लाभ पर कर छूट एवं स्टार्टअप निवेश को अधिक आकर्षक बनाने के लिए न्यूनतम होल्डिंग अवधि में भी कमी करने के उपाय किए गए हैं। नए बिल में टैक्स चोरी रोकने के लिए पारदर्शिता बढ़ाने पर बल दिया गया है। इसी तरह इक्विटी म्यूचुअल फंड के साथ डेट म्यूचुअल फंड भी शार्ट टर्म कैपिटल गेंस टैक्स के दायरे में लाया गया है। अभी स्लैब के हिसाब से टैक्स लगता है। बदलाव के बाद 15 प्रतिशत टैक्स देना होगा।

नए आयकर बिल में चैरिटेबल संस्थाओं की लंबी-चौड़ी परिभाषाओं को खत्म कर पेंशन, एनपीएस योगदान और बीमा पर करों में छूट जारी रखने का प्रस्ताव है। रिटायरमेंट फंड, ग्रेच्युटी और पीएफ में योगदान को भी आयकर छूट के दायरे में रखने की बात की गई है।

नए बिल में सूक्ष्म, लघु और मध्यम उद्यमों के विकास को बढ़ावा देने और रोजगार सृजन को मजबूत करने के लिए स्टार्टअप, डिजिटल कारोबार और अक्षय ऊर्जा निवेश को प्रोत्साहन देने के लिए नए प्रविधान किए गए हैं। हालांकि पूंजीगत लाभ की दरों में किसी परिवर्तन की बात नहीं कही गई है।

नए आयकर बिल में सरकार ने कृषि से होने वाली आमदनी को कुछ शर्तों के साथ कर मुक्त रखने का प्रस्ताव किया है। दान में दी गई राशि पर भी छूट मिलनी जारी रहेगी। इलेक्टोरल ट्रस्ट को भी टैक्स छूट देने की बात कही गई है। मौजूदा आयकर प्रणाली को आधुनिक बनाने के लिए ई-केवाईसी और आनलाइन कर भुगतान को अनिवार्य करने का प्रस्ताव है।

नए आयकर बिल की सफलता इस पर निर्भर करेगी कि उसे कितने प्रभावशाली तरीके से लागू किया जाता है। इस नई प्रणाली के बारे में हितधारकों को शिक्षित करने पर विशेष ध्यान देना होगा। नए कर ढांचे का समर्थन करने के लिए डिजिटल सिस्टम को अपग्रेड करने के लिए महत्वपूर्ण निवेश और प्रशिक्षण पर विशेष ध्यान देना होगा।

नए प्रविधानों के व्यावहारिक कार्यान्वयन की चुनौतियों का त्वरित समाधान करना होगा, जिससे लोग इसका दुरुपयोग न कर सकें। आम बजट में 12 लाख तक की आय टैक्स फ्री होने से जहां मध्य वर्ग को राहत मिलेगी, वहीं नए आयकर बिल में पेपरवर्क कम होने से टैक्स फाइलिंग आसान होगी।

नए आयकर कानून के अमल में आने के बाद उपभोक्ता के खर्च और बचत, दोनों को बढ़ावा मिलेगा। वास्तव में यह एक ऐतिहासिक सुधार है, जिसके द्वारा सरकार ने टैक्स प्रणाली को सरल, पारदर्शी और व्यवसाय अनुकूल बनाने की दिशा में बड़ा कदम बढ़ाया है।

यदि यह सही तरीके से लागू होता है तो यह व्यापार जगत और करदाताओं के लिए फायदेमंद होने और 2047 तक विकसित भारत के स्वप्न को साकार करने की दिशा में भी मददगार होगा।


Date: 22-02-25

मुफ्त पर जोर

संपादकीय

सरकारों को शायद अब इस बात की चिंता बिल्कुल नहीं रह गई हो कि मुफ्त की योजनाएं चलाने से खजाने पर पड़ने वाले बोझ की भरपाई कहां से हो पाएगी। इसे लेकर सर्वोच्च न्यायालय भी नसीहत दे चुका है और अनेक अर्थ विशेषज्ञ सावधान करते रहे हैं, पर हर सरकार चुनावी समीकरण को ध्यान में रखते हुए न केवल पहले से चल रही मुफ्त की योजनाओं को जारी रखने का प्रयास करती हैं, बल्कि कुछ नई योजनाएं भी घोषित करती देखी जाती हैं। उत्तर प्रदेश सरकार का इस वर्ष का बजट इसका ताजा उदाहरण है। वहां पहले से विद्यार्थियों, खासकर छात्राओं को मुफ्त लैपटाप, टैबलेट, मोबाइल फोन आदि बांटने की योजना चल रही है। इस बजट में मेघावी छात्राओं को मुफ्त स्कूटी बांटने के लिए चार सौ करोड़ रुपए का आवंटन किया गया है। आठ लाख आठ हजार सात सौ छत्तीस करोड़ रुपए के इस बजट में पिछले वर्ष की तुलना में 9.8 फीसद अधिक धन का प्रावधान किया गया है। मगर बजट का काफी बड़ा हिस्सा मथुरा- वृंदावन और मीरजापुर जैसी जगहों पर धार्मिक गलियारों के विकास, मंदिरों के जीर्णोद्धार पुनरुद्धार और द्रुतगामी मार्गों के लिए आबंटित किया गया है। इसके अलावा, पहले से चल रही लखपती दीदी जैसी योजनाओं का दायरा और बढ़ाने के लिए बड़ी राशि आटित की गई है।

बजट सरकार के कामकाज का आईना होते हैं। वे इस बात का पता देते हैं कि कोई सरकार अगले एक वर्ष में क्या काम करने जा रही है और उसकी प्राथमिकता क्या होगी। अपेक्षा की जाती है कि सरकारें जनकल्याण और सामाजिक कल्याण के कार्यों पर अधिक खर्च करें ऐसी योजनाओं को प्रोत्साहित करें, जिससे राज्य और देश के आर्थिक विकास को बल मिले। मुफ्त की योजनाओं का व्यापक अनुभव यही रहा है कि वे अनुत्पादक साबित होती हैं। उनसे सरकार पर वित्तीय बोझ ही बढ़ता है। पिछले दिनों सर्वोच्च न्यायालय ने कड़े शब्दों में कहा कि सरकारें मुफ्त की योजनाएं चला कर लोगों को अकर्मण्य बना रही हैं। इसके बावजूद अगर उत्तर प्रदेश सरकार ने अपने बजट में चार सौ करोड़ रुपए मुफ्त स्कूटी बांटने के लिए आवंटित किए हैं, तो जाहिर है, उसका मकसद अगले चुनाव में लोगों को आकर्षित करने का है इसके कोई उत्पादक नतीजे नहीं निकलने वाले। इसके बरक्स विचित्र है कि सरकार ने उच्च शैक्षिक संस्थानों और राज्य विश्वविद्यालयों में आधारभूत ढांचा मजबूत करने के लिए महज पचास करोड़ रुपए आटित किए हैं। नए बान रहे महाविद्यालयों के लिए भी पचास करोड़ रुपए तय किए हैं। उत्तर प्रदेश में शिक्षा के स्तर को लेकर अनेक बार अंगुलियां उठती रही हैं। बोर्ड परीक्षाओं में नकल, प्रतियोगी परीक्षाओं में पर्चाफोड़ और अनियमितताओं आदि को लेकर सवाल उठते रहे हैं। ऐसे में अगर मेधावी छात्राओं को मुफ्त स्कूटी दे भी दी जाए, तो उनके जीवन में कितना बदलाव आ जाएगा, कहना मुश्किल है। अगर शिक्षा का स्तर सुधारने को लेकर सरकार सचमुच संजीदा होती, तो वह शैक्षिक संस्थानों के बुनियादी ढांचे को मजबूत बनाने, विद्यार्थियों के लिए शैक्षणिक सुविधाएं बेहतर बनाने, स्कूल-कालेजों में अध्यापकों के खाली पदों पर भर्ती आदि पर जोर देती। स्कूटी, लैपटाप, टैबलेट, मोबाइल जैसे साधन देने से वास्तव में उन्हें कितना लाभ मिलेगा, इसका आकलन शायद नहीं किया गया। हालांकि उत्तर प्रदेश सरकार इकलौती नहीं है जो ऐसी मुफ्त की योजनाओं पर जोर दे रही है, ज्यादातर राज्य सरकारों ने यही रास्ता पकड़ रखा है।


Date: 22-02-25

हास्य के नाम पर

संपादकीय

पिछले कुछ वर्षों में इंटरनेट के विस्तार के साथ ओटीटी मंचों पर भी हास्य कार्यक्रमों के नाम पर जिस तरह फूहड़ और अश्लील सामग्री परोसी जाने लगी है, वह कई बार मानसिक विकृति से भरी होती है। हाल ही में एक ओटीटी मंच पर एक कथित हास्य कलाकार के कार्यक्रम में जैसी बातचीत सामने आई, उसे किसी भी लिहाज से स्वस्थ मनोरंजन नहीं माना जा सकता। विडंबना है कि ऐसे कार्यक्रमों के दर्शक भी बिना किसी हिचक के कुंठाओं के प्रदर्शन में शामिल होते हैं। हालांकि समाज का एक बड़ा हिस्सा आज भी हास्य के नाम पर अश्लीलता को मानवीय गरिमा के विरुद्ध मानता है और स्वाभाविक ही इस मसले पर व्यापक आपत्ति उभरी। सुप्रीम कोर्ट ने संबंधित कथित कलाकार के प्रति नाराजगी जाहिर की। अब सूचना और प्रसारण मंत्रालय ने इस मसले पर सख्त रुख अपनाते हुए ओटीटी मंचों को आचार संहिता और कानून का पालन करने का निर्देश दिया है। अश्लील सामग्री का प्रकाशन एक दंडनीय अपराध है। मंत्रालय के नोटिस में कहा गया है कि ओटीटी मंचों पर किसी भी सामग्री के प्रदर्शन में लागू कानूनों के विभिन्न प्रावधानों और आइटी नियम, 2021 के तहत ‘कोड आफ एथिक्स’ का ध्यान रखा जाए। हास्य और मनोरंजन सेहत के लिए अच्छा है, लेकिन अगर इसकी वजह से लोगों के सोचने-समझने की प्रक्रिया विकृत होती है, यौन कुंठाओं की एक नई दुनिया बनती है, तो वह किसी भी समाज के लिए नुकसानदेह है। दरअसल, सामाजिक व्यवहार और इसके बारे में आम धारणा का विकास लोगों के सोचने-समझने के तरीके और उसकी अभिव्यक्तियों के सहारे होता है। ऐसे में अगर कुछ विशेष सुविधाओं में जीने वाले लोग अपनी सार्वजनिक अभिव्यक्तियों में हास्य के नाम पर अश्लीलता का बेहिचक प्रदर्शन करते हैं, तो निश्चित रूप से यह एक प्रतिगामी रवैया है। सवाल है कि महज हास्य के तर्क पर क्या किसी ऐसी प्रवृत्ति की इजाजत दी जानी चाहिए जो न केवल लोगों के भीतर कुंठा भरने का जरिया बनती, बल्कि उसी वजह से महिलाओं के खिलाफ आपराधिक वृत्ति का भी प्रसार होता है।


Date: 22-02-25

अनैतिक अनुदान

संपादकीय

अमेरिकी अनुदान संबंधी विवाद में नित नए तथ्य जुड़ते जा रहे हैं और इसमें चर्चा और संदेह की बहुत गुंजाइश है। भारत में ताजा विवाद डोनाल्ड ट्रंप के नए उद्गार से उठ खड़ा हुआ है। राष्ट्रपति ट्रंप का यह आरोप वाकई बहुत गांभीर है कि अमेरिकी सहायता राशि का इस्तेमाल भारत की चुनावी प्रक्रिया में हस्तक्षेप के लिए किया जा रहा था। जाहिर है, ट्रंप के बयान पर भारतीय विदेश मंत्रालय को भी प्रतिक्रिया देनी पड़ी है। विदेश मंत्रालय ने इसे उचित ही चिंताजनक बताया है। पहले यह सूचना आई थी कि अमेरिकी अनुदान का उपयोग भारत में मतदान बढ़ाने के लिए किया गया था, पर ट्रंप ने दो कदम आगे बढ़ते हुए सीधे इशारा कर दिया है कि भारत में किसी और को निर्वाचित कराने के लिए यह पैसा खर्च किया गया था। यह 21 मिलियन डॉलर, यानी भारतीय मुद्रा में 18 करोड़ रुपये से भी ज्यादा है। भारतीय विदेश मंत्रालय ने भी इस बात को बहुत परेशान करने वाली सूचना माना है। इससे भारत के आंतरिक मामलों में विदेशी हस्तक्षेप के बारे में भी चिंताएं बढ़ी हैं

क्या वाकई ऐसा हुआ है ? भारत में मतदान प्रतिशत बढ़ाने के प्रयास की तो सराहना की जाएगी, पर अगर यह राशि किसी को जिताने और किसी को हराने के मकसद से इस्तेमाल हुई है, तो फिर इसकी पूरी जांच जरूरी है। विदेश मंत्रालय के अनुसार, संबंधित विभाग और एजेंसियां इस मामले की जांच कर रही हैं। इस समय सार्वजनिक टिप्पणी करना जल्दबाजी होगी, अतः हमें आधिकारिक रूप से नए तथ्यों को इंतजार करना चाहिए। यह विषय राजनीति का कतई नहीं है, यह राष्ट्रीय चिंता का मामला है।

अमेरिका की ओर से लगातार हो रहे खुलासों पर हमें गौर करना चाहिए। दरअसल, अमेरिकी अनुदान रुकने के बाद अनेक देशों में आम लोगों और संस्थाओं ने अमेरिका की आलोचना की है। यह बात भी पिछले दिनों बिल्कुल साफ हो चुकी है कि अमेरिका दुनिया के प्रति अपनी किसी भी बड़ी जिम्मेदारी का भार अब उठाने से बचना चाहता है। अमेरिका को भी एहसास होगा कि दुनिया में लोगों के बीच उसकी लोकप्रियता भी घटेगी और रसूख भी घटेगा। ऐसे में, नए अमेरिकी नेता दुनिया के नाराज लोगों को शायद यह संदेश देना चाहते हैं कि अमेरिकी अनुदान दरअसल उनके भले के लिए नहीं था, अमेरिकी अनुदान से उनके देशों को नकारात्मक रूप से प्रभावित किया जा रहा था।

वास्तव में, यह बदलता अमेरिका है और उसके ताजा करतबों पर त्वरित टिप्पणी का विशेष महत्व नहीं है। वह अपनी ही पुरानी स्वाह सच्चाइयों को सामने लाकर राजनीति तो कर रहा पर इसमें उसका दूरगामी अहित ही है। अब अमेरिका से किसी भी तरह की मदद लेते हुए दुनिया में लोगों, सियासी दलों और सरकारों को सोचना पड़ेगा। राजनीति पैसे से पैदा आनंद का खेल मात्र नहीं है, यह वास्तव में जनसेवा और जरूरतमंदों की चिंता का क्षेत्र है। अगर अमेरिका द्वारा की जा रही विश्व-सेचा पहले अनैतिक थी, तो क्या गारंटी है कि वह आने वाले समय में नैतिक हो जाएगी? ट्रंप भी भारत में आई अनुदान राशि को एक रिश्वत योजना मानते हैं और यह बात सभी को व्यापक रूप से समझ में आनी चाहिए। हमारे लिए साफ संदेश है कि अपने देश में सियासी चंदे की पारदर्शिता को और बढ़ाना पड़ेगा, ताकि भारतीय लोकतंत्र की शुचिता पर एक भी उंगली उठने न पाए।