22-02-2023 (Important News Clippings)

Afeias
22 Feb 2023
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Date:22-02-23

Badministrators

Nasty social media brawl between IAS & IPS officers points to a larger, worring trend.

TOI Editorials

Aggressive exchanges are so ubiquitous in social media that it takes a special one to really shock us, and this is exactly what IPS officer D Roopa and IAS officer Rohini Sindhuri have served up. So nasty, personal and public has been the clash between the two senior women bureaucrats in Karnataka that it has even embarrassed the state government. In a high-pitched election season, opponents have tried to cast this unruly slugfest as a reflection of a weak government. In a counter, both officers were transferred yesterday. But what this startling clash has really put in focus is a larger, disturbing change that civil service ethos is undergoing through participation in social media.

Last year a parliamentary standing committee said there are 22% fewer IAS officers in the country than the sanctioned strength, and the sanctioned strength is not enough to begin with given the evolving needs of Indian administration. The thing is the private sector still isn’t attractive enough and big enough for government services to lose their charm, aka, prestige, power and job security. Ferocious competition for limited seats tells us that. Therefore, finding more applicants is not the issue. Governments will have to recruit more.

But besides quantity, quality has also emerged as a major issue. As D Subbarao has written on this page, lack of reform in incentives and penalties have helped ineptitude, indifference and corruption creep in. The permanent executive also suffers lack of functional independence from the political executive. However, the selfaggrandisement stimulated by social media addictions is a fresh big blow to the All India Services (Conduct) Rules, 1968 that are meant to govern both IAS and IPS officers. In social media, promoting work takes a distant second place to promoting the self. Social media activities of some bureaucrats make short shrift of not just “political neutrality” but “courtesy and good behaviour”, too.

In the present case Roopa reportedly shared private pictures of Sindhuri on social media. That an IPS officer would do this is bad enough, but, further, police did not register an FIR saying that they were consulting “the higher-ups for legal opinion”. Sindhuri’s public barrage of allegations against Roopa likewise bypassed official channels for a bigger stage. The reputational damage from ugly social media boil-ups will also extend beyond the individuals concerned. Service seniors and ministers must take note.


Date:22-02-23

Discipline, discussion

Parliament is the forum where the government is answerable to the people.

Editorial

On Monday, Rajya Sabha Chairman Jagdeep Dhankhar directed the Privileges Committee, headed by Deputy Chairman and JD(U) Member of Parliament Harivansh, to investigate the “disorderly conduct” by 12 Opposition Members of Parliament that had led to multiple adjournments during the first leg of the Budget session. All through Prime Minister Narendra Modi’s 85-minute address, the Opposition kept raising slogans, which Sansad TV that does the live telecast of the proceedings blacked out — the camera did not pan towards the Opposition benches. Earlier, acting on a complaint filed by a BJP Member of Parliament, Mr. Dhankhar suspended Congress Member of Parliament Rajani Patil for allegedly recording the proceedings on her mobile phone. The Congress cried foul that due procedure had not been followed and that she had not been served a notice giving her a chance to explain her position. Mr. Dhankhar interjected the speech of Congress president and Leader of the Opposition in the Rajya Sabha Mallikarjun Kharge’s 88-minute speech during the Motion of Thanks to the President’s Address several times. The Opposition has protested the Chair’s repeated direction to “authenticate” remarks made during speeches. Mr. Kharge has pointed out that “it would be [an] inversion of the system of government if the opposition members are expected to carry out complete investigation, gather evidence and then raise the matter on the floor of the House”.

Six portions of Mr. Kharge’s speech were expunged from the Rajya Sabha records, while Congress leader Rahul Gandhi’s Lok Sabha speech got 18 cuts. Parliament is the platform where the Opposition has the responsibility to ask questions of the government, which the Council of Ministers has the responsibility to answer. There are parliamentary rules and norms that have evolved over time to achieve this objective. It will be a travesty of parliamentary democracy if the Opposition is penalised for seeking accountability from the government, which in turn is allowed to hide behind rules and obfuscate the issue. It is the government that is in custody of all the information, over which queries are raised in Parliament. The authenticity, or the lack of it, of any assumption that a Member of Parliament may express in the House must be clarified by the government, which is its duty. It is a strange situation that the government has not responded to the serious allegations that it faces of protecting private business interests at the cost of public interest, while those who are raising the questions face suspension in the name of discipline. Parliamentary discipline must ensure that discussions take place, and the government provides the answers.


Date:22-02-23

वैज्ञानिक सोच बनाना संवैधानिक जिम्मेदारी

संपादकीय

जादू-टोना, भूत भगाना, डायन और प्रेत के प्रभाव, स्वयं-भू बाबाओं की रातों-रात प्रसिद्धि और लाखों लोगों का अचानक उनकी ओर किसी वरदान की आशा में कूच करना क्या यह 21वीं सदी का नया भारत है? शिक्षा यानी व्यक्ति में तार्किक शक्ति का विकास। मानव विकास सूचकांक पर रसातल में जाते हमारे देश में कहने को तो लोकतंत्र है, लेकिन गरीब-अमीर के बीच खाई बढ़ती जा रही है। दशकों से न तो सरकारें करोड़ों गरीबों को अज्ञानता की खाई से निकाल सकीं, ना ही ये बाबा अपनी ‘अदृश्य शक्ति’ से इस देश को सदियों पुरानी गरीबी से उबार सके हैं। अनुच्छेद 51 (एच) में हर नागरिक का ‘वैज्ञानिक सोच, और जांच और सुधार की भावना ‘ विकसित करना संवैधानिक कर्तव्य है। लेकिन जिस तरह राजनीतिक स्वार्थ के लिए सरकारें और इनके मंत्री इन बाबाओं के सामने वोट के लिए नतमस्तक होते हैं, जिस तरह दुष्कर्म और हत्या के आरोप में बंदी इनमें से कुछ बाबाओं को ठीक चुनाव से पहले पैरोल पर छोड़ा उससे समाज में एक बड़ा अवांछित संदेश जाता है । राजनीतिक वर्ग इनके लाखों अनुयायियों के वोट के लिए बाबाओं के कहने पर अफसरों के ट्रांसफर-पोस्टिंग करते हैं, ठेके देते हैं और एक दुष्चक्र में गरीब अबोध जनता मूर्ख बनती है। अगर वैज्ञानिक सोच और जांच की भावना विकसित करना हर नागरिक का कर्तव्य है तो उससे ज्यादा वह राज्य का भी कर्तव्य है । स्व-नियुक्त गोरक्षकों का एक समुदाय के युवकों को सरेआम मारना भी उतना ही गलत है, जितना पुलिस उन्हें छोड़ देना या केस इतना कमजोर करना ताकि वे कोर्ट से छूट जाएं। असली नया भारत बनने की शर्तें आर्थिक से ज्यादा नैतिक हैं।


Date:22-02-23

विश्व को राह दिखाता भारत

बिल गेट्स, ( लेखक माइक्रोसाफ्ट और बिल एंड मेलिंडा गेट्स फाउंडेशन के सह-संस्थापक और ब्रेकथ्रू एनर्जी के संस्थापक हैं )

करीब दो दशक पहले मैंने निर्णय किया कि अपने संसाधनों का एक बड़ा हिस्सा समाज को वापस करूंगा। आरंभ से ही मेरा यही लक्ष्य था कि जो विषमता मैंने विश्व भर में देखी, उसे दूर करने की दिशा में मदद कर सकूं। अपने अभियान की शुरुआत में मैंने सबसे ज्यादा वैश्विक स्वास्थ्य पर ध्यान दिया, क्योंकि यह न केवल सबसे विकट विषमता, बल्कि ऐसी समस्या है, जिसका समाधान संभव है। आज भी वही स्थिति है। हालांकि समय के साथ बढ़ते वैश्विक तापमान के विध्वंसक परिणाम प्रत्यक्ष हुए हैं, जिनसे स्पष्ट हुआ है कि जलवायु परिवर्तन की चुनौती का तोड़ निकाले बिना आप गरीबों के जीवन की गुणवत्ता नहीं सुधार सकते। जलवायु परिवर्तन और वैश्विक स्वास्थ्य का मुद्दा असल में एक-दूसरे से जुड़ा हुआ है। बढ़ता हुआ तापमान गरीबी दूर करने की कवायद को कठिन बनाएगा। इससे खाद्य सुरक्षा प्रभावित होगी। संक्रामक बीमारियों में वृद्धि होगी और संसाधनों की दिशा जरूरतमंद लोगों से भटक जाएगी। यह एक दुष्चक्र है। जलवायु परिवर्तन की दृष्टि से गरीबों की स्थिति सबसे नाजुक है। असल में जिस समुदाय पर जलवायु परिवर्तन की जितनी ज्यादा मार पड़ती है, वह उतना ही अधिक गरीबी के दलदल में धंसता जाता है। इस दुष्चक्र को तोड़ने के लिए हमें दोनों समस्याओं का एक साथ समाधान निकालने की आवश्यकता है।

जब मैं इस विषय में बात करता हूं तो अक्सर यही सुनता हूं कि, ‘एक ही समय पर दोनों समस्याओं का समाधान करने के लिए न तो पर्याप्त समय है और न ही संसाधन।’ एक समय में केवल एक ही चुनौती के समाधान का विचार चिंताजनक है। मैं इसे लेकर आग्रही हूं कि यदि हम सही राह का चयन करें तो एक साथ कई बड़ी समस्याओं को सुलझाने में सक्षम हो सकते हैं। उस स्थिति में भी जब विश्व कई संकट झेल रहा हो। इस मामले में भारत से बेहतर कोई और प्रमाण नहीं, जिसने उल्लेखनीय प्रगति की है। भारतीय कृषि अनुसंधान संस्थान यानी आइएआरआइ-पूसा में उगाए जा रहे नई पीढ़ी के चने के पौधों को ही देख लीजिए। चना भारत का एक प्रमुख भोज्य पदार्थ है। यह तमाम छोटे किसानों की आय का महत्वपूर्ण साधन है। पोषण के लिए भी इस पर भारी निर्भरता है, लेकिन बढ़ता तापमान चने की फसल के लिए खतरा है। बढ़ते तापमान से चने की उपज में 70 प्रतिशत तक गिरावट का अंदेशा है। इससे जीवन और आजीविका पर जोखिम मंडरा रहा है। इस चुनौती को देखते हुए गेट्स फाउंडेशन ने भारत के सार्वजनिक क्षेत्र और कृषि अनुसंधान पर गठित अंतरराष्ट्रीय समूह (सीजीआइएआर) के साथ मिलकर आइएआरआइ के शोधार्थियों को सहयोग दिया है। उन्होंने चने की ऐसी किस्में विकसित की हैं, जो 10 प्रतिशत तक उपज बढ़ाने के साथ ही सूखे की स्थिति का सामना करने में भी कहीं अधिक सक्षम हैं। इनमें एक किस्म तो किसानों के लिए उपलब्ध है, जबकि अन्य विकास के चरण में हैं। इस प्रकार भारत वैश्विक तापवृद्धि के दौर में अपने किसानों का साथ देने के साथ ही लोगों के खानपान-पोषण की चुनौती का सामना करने के लिहाज से भी बेहतर रूप से तैयार है। यह कहना कोई अतिशयोक्ति नहीं कि भारत में खेती का भविष्य पूसा के एक खेत में आकार ले रहा है। जलवायु, भूख और स्वास्थ्य जैसी चुनौतियों के दुर्जेय समझे जाने का एक कारण यह भी है कि हमारे पास उन्हें सुलझाने के सभी विकल्प अभी उपलब्ध नहीं हैं, लेकिन मैं आश्वस्त हूं कि आइएआरआइ के शोधार्थियों जैसे नवप्रवर्तकों के माध्यम से जल्द ही हमारे पास वे सभी उपाय होंगे।

भारत मुझे भविष्य के लिए आशा बंधाता है। भारत जल्द ही विश्व में सबसे अधिक जनसंख्या वाला देश बनने के करीब है। यहां आप व्यापक स्तर पर समस्याएं सुलझाए बिना अधिकांश समस्याओं को नहीं सुलझा सकते। भारत ने यह सिद्ध किया है कि वह बड़ी चुनौतियों का सामना कर सकता है। देश ने पोलियो को जड़ से मिटा दिया है। एचआइवी संक्रमण घटा है। गरीबी में कमी आई है। बाल मृत्यु दर घटी है। स्वच्छता और वित्तीय सेवाओं का दायरा बढ़ा है। यह कैसे संभव हुआ? भारत ने विश्व को राह दिखाने वाला ऐसा नवाचार वाला तरीका अपनाया है, जिसमें सुनिश्चित किया गया कि समाधान उन लोगों तक पहुंचें, जिन्हें उनकी आवश्यकता है। डायरिया को रोकने वाली रोटावायरस वैक्सीन जब सभी बच्चों तक पहुंचानी मुश्किल थी तो भारत ने उसे स्वयं बनाने का फैसला किया। उसने विशेषज्ञों के साथ ही वित्तीय संसाधन प्रदाताओं (गेट्स फाउंडेशन सहित) के साथ कड़ियां जोड़ीं और फैक्टरी लगाने से लेकर वैक्सीन के प्रभावी वितरण का तंत्र बनाया। परिणामस्वरूप 2021 तक एक वर्ष तक के 83 प्रतिशत शिशुओं को रोटावायरस से कवच प्रदान किया गया। यह किफायती वैक्सीन अब विश्व के दूसरे हिस्सों में लगाई जा रही है। भारत भी जलवायु परिवर्तन के मुहाने पर है, मगर स्वास्थ्य के मोर्चे पर उसकी प्रगति जनता को अनुकूल बनाने के साथ ही अन्य चुनौतियों से निपटने में राह भी दिखाएगी।

नवप्रवर्तकों और उद्यमियों के कार्यों का प्रत्यक्ष अनुभव लेने के लिए मैं अगले सप्ताह भारत आ रहा हूं। उनमें से कुछ जलवायु परिवर्तन के दुष्प्रभावों को दूर करने के उपाय तलाशने में लगे हैं। जैसे ब्रेकथ्रू एनर्जी के फेलो विद्युत मोहन और उनकी टीम दूरदराज के कृषि समुदायों के लिए कचरे को जैव ईंधन एवं उर्वरक में परिवर्तित करने में जुटी है। वहीं कुछ अन्य तापवृद्धि से ताल मिलाने और सूखे के प्रति अपेक्षाकृत अनुकूल कृषि समाधान तैयार कर रहे हैं। गेट्स फाउंडेशन और ब्रेकथ्रू एनर्जी के उम्दा साझेदारों के प्रयासों से हो रही ऐसी प्रगति को देखने की मुझे भारी उत्सुकता है। स्मरण रहे कि दुनिया के अन्य देशों की भांति भारत के पास भी सीमित संसाधन ही हैं, लेकिन उसने दिखाया है कि इसके बावजूद कैसे प्रगति की जा सकती है। सार्वजनिक-निजी और परोपकारी क्षेत्र मिलकर सीमित संसाधनों को विपुल वित्तीय संसाधनों एवं ज्ञान के व्यापक भंडार में रूपांतरित कर सकते हैं, जिससे हम उन्नति की ओर उन्मुख होंगे। यदि हम साथ मिलकर काम करें तो एक ही साथ जलवायु परिवर्तन की चुनौती से जूझते हुए वैश्विक स्वास्थ्य की दशा भी सुधार सकते हैं।


Date:22-02-23

शोध एवं विकास पर देना होगा और ध्यान

नौशाद फोर्ब्स, ( लेखक फोर्ब्स मार्शल के को-चेयरमैन और सीआईआई के पूर्व अध्यक्ष हैं )

शोध एवं विकास एक बड़ा वै​श्विक उद्यम है। दुनिया के कुल सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) का दो फीसदी से थोड़ा अ​धिक शोध एवं विकास में व्यय किया जाता है। दुनिया के 180 से अ​धिक देशों में शोध एवं विकास में दो लाख करोड़ डॉलर से अ​धिक की जो रा​शि व्यय की जाती है उसमें अमेरिका, चीन, जापान, जर्मनी और द​​क्षिण अफ्रीका की हिस्सेदारी तीन चौथाई से अ​धिक है। उद्योगों का आंतरिक व्यय कुल शोध एवं विकास निवेश के दोतिहाई से थोड़ा अ​धिक है। इसमें भी उच्च ​शिक्षा और सरकारी प्रयोगशालाओं में व्यय 60:40 में बंटा हुआ है। उद्योगों की बात करें तो शीर्ष पांच उद्योगों- औष​धि, वाहन, तकनीक, हार्डवेयर, सॉफ्टवेयर और इलेक्ट्रॉनिक्स पूरे औद्योगिक शोध एवं विकास में 73 फीसदी के लिए उत्तरदायी हैं। उन उद्योगों के भीतर भी यह चुनिंदा कंपनियों तक सीमित है। शीर्ष 20 कंपनियां वै​श्विक औद्योगिक शोध एवं विकास व्यय के 22 फीसदी के लिए उत्तरदायी हैं।

भारत कहां है?

भारत इन सभी मोर्चों पर पीछे है। जैसा कि प्रचारित किया जाता है, हम दुनिया की पांचवीं बड़ी अर्थव्यवस्था हैं। परंतु शोध एवं विकास में निवेश के मामले में हम 16वें स्थान पर हैं। यहां तक कि इजरायल भी हमसे आगे है जिसका जीडीपी हमारे जीडीपी की तुलना में छठे हिस्से के बराबर और आबादी हमारे सौवें हिस्से के बराबर है। उद्योग जगत के आंतरिक शोध एवं विकास में तो हम और भी पीछे हैं। यहां हम 7 अरब डॉलर के निवेश के साथ पोलैंड और सिंगापुर के बीच 22वें स्थान पर हैं। यूरोपीय आयोग हर वर्ष हमें शोध एवं विकास के क्षेत्र में दुनिया के शीर्ष 2,500 निवेशकों की जानकारी देता है। ये कंपनियां वै​श्विक औद्यो​गिक शोध एवं विकास के तीन चौथाई के लिए उत्तरदायी हैं। यानी पूरी तस्वीर में उनकी अहम भूमिका है। इन 2,500 में भारत की 24 फर्म हैं जबकि अमेरिका, चीन, जापान और जर्मनी की क्रमश: 822, 678, 233 और 114 फर्म हैं।

पीछे क्यों है भारत?

इसकी दो वजह हैं। पहली, हम प्रौद्योगिकी की दृ​ष्टि से अहम कुछ क्षेत्रों में नहीं हैं। मसलन प्रौद्योगिकी हार्डवेयर, इलेक्ट्रॉनिक उपकरण, ​वैमानिकी, विनिर्माण सामग्री आदि की बात करें तो हम शीर्ष 10 में नहीं हैं जबकि रसायन और औद्योगिक अ​भियांत्रिकी में हमारी केवल एक फर्म है। औष​धि, सॉफ्टवेयर और वाहन क्षेत्रों में हमारी सीमित पहुंच है।

दूसरी और सबसे अहम बात यह है कि हमारे देश में आंतरिक शोध एवं विकास में एक भी बड़ा निवेशक नहीं है। हमारी शीर्ष कंपनी टाटा मोटर्स का सालाना वै​श्विक शोध एवं विकास खर्च 3.5 अरब डॉलर है और वह 58वें नंबर पर है।

दिलचस्प बात यह है कि दुनिया की शीर्ष सात कंपनियां शोध एवं विकास में पूरे भारत से अ​धिक निवेश करती हैं। होन्डा, क्वालकॉम और बॉश जो क्रमश: 24वें, 25वें और 26वें स्थान पर हैं, वे भी सात अरब डॉलर के साथ शोध एवं विकास में भारत से अ​धिक निवेश करती हैं।

हमारी सर्वा​धिक मुनाफे वाली कंपनियां वित्तीय सेवा, पेट्रोकेमिकल्स, धातु प्रसंस्करण और सॉफ्टवेयर क्षेत्र में हैं। सॉफ्टवेयर में हमारे पास कुछ ऐसी कंपनियां हैं जो सबसे बढि़या मुनाफा कमाती हैं लेकिन वे शोध एवं विकास में पीछे हैं। वे अपनी बिक्री का एक फीसदी शोध विकास में लगाती हैं जबकि वै​श्विक औसत 10 फीसदी है। अक्सर हमें यह सुनने को मिलता है कि हमारी सॉफ्टवेयर कंपनियां वै​श्विक उत्पाद कंपनियों को सेवा प्रदान करती हैं। लेकिन चीन की 10 शीर्ष सॉफ्टवेयर कंपनियों में से भी ज्यादातर सेवा कंपनियां हैं। हमारी शीर्ष 10 सॉफ्टवेयर कंपनियां शोध एवं विकास में एक फीसदी निवेश करती हैं जबकि चीन का औसत 8 फीसदी है। इसी प्रकार पेट्रोकेमिकल्स और स्टील में भी शोध एवं विकास में किया जाने वाला निवेश बिक्री का बहुत छोटा हिस्सा है। हमारी वित्तीय सेवा कंपनियां शोध वाली सूची से गायब हैं। हमारी वित्तीय सेवा तकनीक पर बहुत हद तक निर्भर है। हमें आशा करनी चाहिए कि फिनटेक कंपनियां कि वे भी इस दिशा में आगे आएंगी।

चीन से तुलना

चीन के साथ तुलना खासतौर पर जानकारीपरक है। 2014 में जब एक किताब के लिए जानकारी जुटा रहा था तब पता चला कि चीन की 301 कंपनियों के मुकाबले भारत की 26 कंपनियां हैं। 2021 के ताजा आंकड़े दिखाते हैं कि हमारी 24 कंपनियों के मुकाबले चीन की 678 कंपनियां हैं। ध्यान दीजिए कि बीते कुछ वर्षों में दुनिया भर के उद्योग किस तरह बदले। औष​धि क्षेत्र में भारत आठ से 11 कंपनियों तक पहुंचा जबकि चीन 21 से 79। रसायन में भारत शून्य से एक तथा चीन 10 से 33, वाहन क्षेत्र में भारत छह से पांच जबकि चीन 28 से 45 और सॉफ्टवेयर में भारत पांच से दो तथा चीन 32 से 73 ।

हमें अपने औद्योगिक ढांचे में बदलाव लाना होगा, अपनी कंपनियों को प्रतिस्पर्धी बनाने के लिए बदलाव को आकार देना होगा, अपनी कंपनियों पर प्रतिस्पर्धी होने का दबाव बनाने के लिए व्यापार नीति का इस्तेमाल करना होगा तथा सार्वजनिक शोध प्रणाली में परिवर्तन करना होगा। लेकिन इन वृहद बदलावों को किसी अन्य आलेख के लिए छोड़ कर बात करते हैं कि मौजूदा भारतीय कंपनियों को क्या कदम उठाने चाहिए।

कुछ बातों के साथ शुरुआत की जा सकती है:

शोध एवं विकास का व्यय क्या है? बिक्री का कितना प्रतिशत उस पर व्यय किया जाता है? दुनिया भर में समान उद्योग की 10-20 कंपनियों के साथ उसकी तुलना से क्या नतीजे मिलते हैं?

शोध एवं विकास में कितने इंजीनियर और वैज्ञानिक लगे हैं? वै​श्विक उद्योगों की 10-20 शीर्ष कंपनियों से इसकी तुलना के नतीजे क्या हैं?

टर्नओवर के प्रतिशत के रूप में निर्यात की क्या भूमिका है? निर्यात में नए उत्पादों की क्या भूमिका है? कुल राजस्व हिस्सेदारी से अ​धिक या कम?

टर्नओवर में नए उत्पादों का प्रतिशत? क्या नए उत्पाद औसत से अ​धिक मार्जिन पर बिकते हैं या कम?

हम अहमदाबाद विश्वविद्यालय, सीटीआईईआर और सीआईआई के के जरिये एक कार्यक्रम में इन्हीं सवालों से जूझ रहे हैं।

विदेशों में लगभग हर कंपनी प्रतिभाओं को जुटाने के लिए संघर्ष कर रही है। हमारे पास प्रतिभाएं प्रचुर मात्रा में हैं। हमारे नए इंजीनियरों को प्र​शिक्षण और काम के अवसर की जरूरत है। विदेशी कंपनियां हमारी प्रतिभाओं को पहचानती हैं। शोध एवं विकास के 100 शीर्ष निवेशकों में दोतिहाई के शोध विकास केंद्र भारत में हैं। कम से कम भारतीय कंपनियों को जीई, बॉश और एमर्सन का मुकाबला करना होगा। इनमें से हर कंपनी ने भारत में शोध एवं विकास में हजारों इंजीनियरों को काम पर रखा है।

अंत में, हमें कंपनियों के भीतर भी इस क्षेत्र में निवेश बढ़ाना होगा। वि​भिन्न क्षेत्रों में तकनीकी निवेश की कमी को लेकर हमें अपनी हर बोर्ड बैठक और नीतिगत बैठक में चर्चा करनी होगी।


Date:22-02-23

बर्बरता की पराकाष्ठा

संपादकीय

निक्की यादव हत्याकांड से जुडे़ छह लोगों की गिरफ्तारी के बाद दिल्ली पुलिस ने जिस तरह के खुलासे किए हैं, वे रोंगटे खडे़ करने वाले हैं। यह पूरा घटनाक्रम किसी त्रासद फिल्मी पटकथा से कम नहीं। बकौल पुलिस, इस कत्ल को अंजाम देने में पूरा परिवार शामिल था। पुलिस ने निक्की के पति और मुख्य आरोपी साहिल गहलोत, उसके पिता व चचेरे-मौसेरे भाइयों की भूमिका के बारे में जैसी-जैसी बातें बताई हैं, उनसे साफ प्रतीत होता है कि यह अकेले साहिल की करतूत नहीं है। मगर इस हत्याकांड का चिंताजनक पहलू यह भी है कि एक पूरा कुनबा नृशंस आपराधिक मानसिकता को जीता रहा और समाज इससे पूरी तरह गाफिल रहते हुए उसके जश्न में शरीक होता रहा। बर्बरता की इंतिहा देखिए कि इसी खानदान के एक शख्स ने, जिसने लोगों के जान-माल की हिफाजत की शपथ उठाकर खाकी वरदी पहनी थी, कथित हत्यारों को निक्की का शव फ्रीज में रखने की सलाह दी और उसके बाद वे साहिल की बारात लेकर निकल पड़े! निस्संदेह, यह अमानवीयता की पराकाष्ठा है।

महरौली के श्रद्धा वाल्कर हत्याकांड को अभी लोग भूले भी नहीं थे कि इस नए प्रकरण ने हरेक संजीदा इंसान को हिलाकर रख दिया है। श्रद्धा की हत्या का आरोप उसके लिव-इन पार्टनर आफताब पूनावाला पर है, और उस कत्ल की प्रकृति ने समाज में ऐसे रिश्तों की मंजूरी पर गंभीर बहस खड़ी कर रखी है; कुछ कट्टरपंथियों और संकीर्णतावादियों ने तो उस दुखद घटना से सांप्रदायिक ध्रुवीकरण के मसाले भी जुटा लिए। मगर निक्की हत्याकांड ने फिर से यह साबित किया कि अपराधियों की कोई जाति, धर्म या रंग-रूप नहीं होता। इन दोनों हत्याकांडों से इतर भी हाल के दिनों में हत्या की ऐसी-ऐसी वजहें सामने आई हैं, जो कानून-व्यवस्था बनाए रखने वाली एजेंसियों के साथ-साथ शासन और समाज की परेशानी बढ़ाने वाली हैं। निक्की की हत्या के पीछे जिस तरह से षड्यंत्र बुने गए, वे शातिर दिमागों की ही उपज हो सकते हैं। ऐसे असामाजिक तत्वों को सख्त संदेश न मिला, तो भविष्य में जांच एजेंसियों की चुनौतियां काफी बढ़ जाएंगी।

श्रद्धा और निक्की हत्याकांड दो अलग-अलग पृष्ठभूमि के अपराध हैं, मगर ये दोनों रिश्तों के उथलेपन को समान रूप से उजागर करते हैं। प्रेमी और पति के कातिल बन जाने की इन दोनों वारदातों में खास तौर से लड़कियों के लिए गंभीर संदेश है कि जीवनसाथी के चयन में उन्हें किस किस्म की सावधानी और परिपक्वता दिखानी चाहिए। वे अपनी आजादी और खुदमुख्तारी से समझौता किए बिना यह चयन कर सकती हैं। मगर अपने परिजनों को गफलत या धोखे में रखकर कोई चुनाव अक्लमंदी भरा नहीं हो सकता। बताया जा रहा है कि निक्की ने अपने परिजनों से अपनी शादी छिपाए रखी थी। एक ऐसे दौर में, जब बड़ी संख्या में माता-पिता अपनी बेटियों को खुद से दूर अच्छी शिक्षा और करियर के लिए भेज रहे हैं, ऐसी घटनाएं उन्हें हताश करेंगी। इसलिए जांच एंजेसियों और न्यायपालिका पर यह जिम्मेदारी आयद है कि वे जल्द से जल्द इन लोमहर्षक हत्याकांडों के मुजरिमों को उनके अंजाम तक पहुंचाएं। वे जानती हैं कि इंसाफ में देरी अपराधियों के हौसले बढ़ाती है। दुर्योग से हम अपराधी तत्वों में यह खौफ पैदा करने में लगातार विफल हो रहे हैं कि वे बहुत दिनों तक कानून से बच नहीं सकेंगे। श्रद्धाओं और निक्कियों में भी यह भरोसा पैदा करने की जरूरत है कि वे बेधड़क पुलिस तक अपनी शिकायत लेकर जा सकें।


 

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