22-01-2019 (Important News Clippings)

Afeias
22 Jan 2019
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Date:22-01-19

Great Quota Rush

New 10% reservation promises more crippling burdens for Indian higher education

TOI Editorials

In an apparent rush to introduce the 10% quota for economically weaker students (EWS) among those not already covered by quotas, government has asked all 40 central universities and 77 other higher education institutions to detail their seat availability and financial requirements. The exercise is aimed at rolling out the new quota from the 2019-20 academic session itself. And since government doesn’t want the number of quota-free general seats to decline, institutions will have to expand their overall infrastructure. This is a humongous task and there is not enough time to implement the new quota by the beginning of the next academic cycle.

In any case, the 10% quota itself leaves too many unanswered questions. While the Centre may provide additional funds for central universities what happens to other colleges and universities across the country, whether state-funded or private? States are already running up large amounts of debt, where will they discover the additional resources from? Draconian regulations will also disincentivise private universities. Lack of diversity in the higher education system will translate into lack of competition and an all-pervasive cookie cutter mediocrity.

The Rs 8 lakh family income cut-off to identify eligible candidates for the new quota is quite high and its criteria cover around 95% of households in the country. Certifying the income and assets of families is surely going to lead to inspector raj and attendant corruption. Besides, household income for those engaged in business fluctuates every year. How would applicants from such households be assessed? Won’t the new rules work against the salaried? Plus, now that the 50% quota limit set by the Supreme Court has been breached with the new class of reservation, a host of fresh quota demands are bound to flood in.

Finally, the slicing and dicing of education seats cripples meritocracy. Quality of education in India continues to be poor with universities treated as tools to disburse political patronage. The new economic quota will be an additional burden that will take away more resources from funding research and attracting the best brains. This way, higher education may continue to churn out more unemployable graduates incapable of taking the Indian economy to a higher gear. Unless we can set up special educational zones where the usual ham-handed and draconian regulations – including reservations – don’t apply, we may as well kiss goodbye to dreams of turning India into a knowledge hub.


Date:22-01-19

सरकार के पास पड़ी बेकार जमीन दे सकती है अर्थव्यवस्था को रफ्तार

राम सिंह प्रोफेसर, दिल्ली स्कूल ऑफ इकोनॉमिक्स

केंद्र ने माना है कि उसे नहीं पता कि उसके पास कितनी अचल संपत्ति है। इसलिए सरकारी स्वामित्व के भू-संसाधनों का आकार व उसका मूल्य अटकलों का विषय है। जहां विभिन्न केंद्रीय मंत्रालय केवल 14 लाख हेक्टेयर भूमि का स्वामित्व स्वीकारते हैं, आधिकारिक स्रोत बताते हैं कि सही आंकड़ा कई गुना अधिक होगा। बुरी बात यह है कि सरकारी संपत्ति का बड़ा हिस्सा बगैर इस्तेमाल पड़ा है। रेलवे और रक्षा मंत्रालय के पास क्रमश: 43,000 और 32,789 हेक्टेयर भूमि खाली पड़ी है। नियंत्रक एवं महालेखा परीक्षक (कैग) के मुताबिक प्रमुख बंदरगाह न्यासों के पास 14,728 हेक्टेयर भूमि बेकार पड़ी है। ये सिर्फ हिमशिला का ऊपरी सिरा भर है। दुर्भाग्य है कि इसमें से ज्यादातर प्रमुख शहरों की बेशकीमती जमीन है। इससे भूमि का कृत्रिम अभाव पैदा हुआ है व शहरों में रियल एस्टेट की आसमान छूती कीमतों का कारण है। इससे औद्योगिक व विकास संबंधी प्रोजेक्ट की कीमत बढ़ती है। स्पर्धा में टिकने की उनकी क्षमता प्रभावित होती है।

फिर बेकार पड़ी जमीन के आवंटन में अनियमितताएं भी होती हैं। मुंबई में आदर्श हाउसिंग सोसायटी, श्रीनगर एयरफील्ड प्रोजेक्ट और कांडला पोर्ट ट्रस्ट के विवाद मिसाल हैं। कैग ने भी कहा है कि कोई सरकारी एजेंसी स्वामित्व का पर्याप्त रिकॉर्ड नहीं रखती। लैंड यूज़ पैटर्न का उपयोगी पैमाना है फ्लोर स्पेस इंडेक्स (एफएसआई), जो प्रति वर्ग मीटर भूमि पर निर्मित कुल क्षेत्र होता है। यदि एक मंजिला भवन भूखंड के 50 फीसदी पर है तो एफसीआई आधा होगा। यदि इमारत चार मंजिला हो तो एफसीआई भी चार गुना हो जाएगा। जमीन की मांग आबादी के घनत्व और आर्थिक वृद्धि से तय होती है। इसलिए जमीन के कुशल उपयोग के लिए एफसीआई भी बढ़ना चाहिए। इस पैमाने पर प्रमुख शहरी केंद्रों पर एफसीआई अधिकतम होना चाहिए।

लेकिन, भारत के ज्यादातर शहर अर्बन प्लानिंग के इस बुनियादी सिद्धांत का उल्लंघन करते हैं। लुटियन्स दिल्ली और चेन्नई में नुन्गाबक्कम जमीन के कम उपयोग के उदाहरण हैं। भारतीय मेट्रो शहरों में अन्य विकासशील देशों की तुलना में (आबादी के इसी तरह के घनत्व में) न्यूनतम एफसीआई है। शंघाई में एफसीआई दिल्ली व मुंबई की तुलना में चार गुना है। यह समस्या सुलझाई जाए तो रोजगार पैदा होगा, बड़े पैमाने पर लोग गरीबी से निकल सकेंगे और अर्थव्यवस्था तेजी से बढ़ेगी।

लोगों को यह जानने का अधिकार है कि सरकारी विभागों के पास ऐसी कितनी जमीन है, क्योंकि ज्यादातर को मामूली मुआवजा देकर हासिल किया गया है। केंद्र ने मंत्रालयों को सरप्लस जमीन की पहचान करने को कहा है, यह स्वागतयोग्य कदम है। ब्रिटेन में सरकार ने लोगों से वादा किया है कि वह अपने स्वामित्व की सारी भूमि, उसकी स्थिति और उसके उपयोग की जानकारी देगी। नागरिकों से जमीन के सरकारी उपयोग पर सवाल उठाकर उसका वैकल्पिक उपयोग सुझाने को कहा गया है।


Date:22-01-19

सियासत बदल देगा नागरिकता बिल

सुबीर भौमिक

कांग्रेस और तृणमूल कांग्रेस ने भी इस विधेयक का विरोध किया है, उनका तर्क है कि भारतीय संविधान के तहत धर्म के द्वारा किसी की नागरिकता निर्धारित नहीं की जा सकती। दोनों पार्टियों को डर है कि इससे पश्चिम बंगाल और पूर्वोत्तर राज्यों में बंगाली हिंदुओं के बीच भाजपा की स्थिति मजबूत होगी और मुसलमानों के लिए असहज स्थिति पैदा हो जाएगी, खासकर पूर्वी बांग्ला मूल के लोगों की, जिनकी आबादी अच्छी-खासी है। कृषक मुति संग्राम समिति जैसे असम के स्थानीय समूह ने इस बिल के खिलाफ दिल्ली में नग्न प्रदर्शन किया। यह बिल असम के राजनीतिक परिदृश्य से एएएसयू और एजीपी को निकाल बाहर करने की कोशिश करता है, जहां बांग्लादेश से अवैध प्रवासन बार-बार उठने वाला विषय रहा है। दर्जनों असमी युवा अलगाववादी उल्फा में शामिल होने के लिए जंगल चले गए हैं, योंकि वे इसे ‘दिल्ली द्वारा असम के साथ एक और धोखा मानते हैं।

असम में साारूढ़ भाजपा, जिसके एक मंत्री हेमंत बिस्व शर्मा ने यह कहकर बिल को उचित ठहराया है कि ’18 सीटों (विधानसभा की) को जिन्ना (इसे मुस्लिम पढ़ें) के हाथों जाने से रोकने का यह एक मात्र उपाय है, 1985 के असम समझौते के खंड छह को लागू करके इसके प्रतिकूल प्रभाव को खत्म करने की कोशिश कर रही है। ऐसा करने का मतलब असम में छह अन्य पिछड़ा वर्ग समुदायों (ओबीसी)-चाय जनजाति/आदिवासी, ताई-अहोम, चुटिया, मोरन, मोटोक और कोच-राजबोंगशी की स्थिति अनुसूचित जनजातियों (एसटी) जैसी हो जाएगी। मोदी सरकार ने लंबे समय से इसका वायदा किया था। भाजपा को लगता है कि इस कदम से स्वदेशी समुदायों के एक बड़े हिस्से के बीच खोई जमीन वापस पाने में मदद मिलेगी। 2011 की जनगणना के अनुसार, असम में लगभग चालीस लाख आदिवासी हैं, जो राज्य की 31 करोड़ आबादी का 13 प्रतिशत हिस्सा हैं। जब इन छह ओबीसी को एसटी का दर्जा दे दिया जाएगा, तो राज्य में एसटी की आबादी बढ़कर कुल आबादी का 54 फीसदी हो जाने की संभावना है। हालांकि अभी एसटी के रूप में जो समुदाय सूचीबद्ध हैं, वे केंद्र के इस फैसले को सहजता से नहीं ले रहे हैं, लेकिन भाजपा को उम्मीद है कि ये समुदाय उनके फैसले का जबर्दस्त स्वागत करेंगे।

सेंटर फॉर द स्टडी ऑफ डेवलपिंग सोसाइटीज के लोकनीति द्वारा असम चुनाव के बाद कराए गए एक सर्वे के मुताबिक, इन छह समुदायों की 49 फीसदी आबादी ने एसटी का दर्जा पाने के लिए भाजपा को वोट दिया था। इसने मुख्यरूप से कांग्रेस के वोटबैंक में सेंध लगाई, खासकर चाय जनजातियों में, जो छोटानागपुर मूल के हैं। 2011 के असम चुनाव के दौरान यह संख्या 33 फीसदी थी। एसटी का दर्जा देने से इन समुदायों में भाजपा का वोट शेयर ज्यादा नहीं, तो दोगुना हो सकता है, ऐसा पार्टी के प्रबंधक बिस्व शर्मा मानते हैं।

भाजपा असम की आशंकाओं को यह कहते हुए शांत करने की कोशिश कर रही है कि असम समझौते के खंड छह के लागू होने का मतलब होगा कि 126 सीटों वाली राज्य विधानसभा में आदिवासियों के लिए आरक्षित विधानसभा सीटों की संख्या में काफी वृद्धि होगी। यहां तक कि अगर यह 50 प्रतिशत का आंकड़ा पार नहीं करता है, तो यह निश्चित रूप से 40 प्रतिशत से अधिक होगा। जातीय असमियों के वर्चस्व वाली सामान्य सीटों को भी इसमें जोड़ दें, तो भाजपा को उम्मीद  है कि इससे राजनीतिक ताकत हमेशा स्वदेशी समूहों के पास रहेगी। यह न केवल हिंदुओं को एकजुट करेगा, नागरिकता बिल से बंगाली हिंदुओं (जो असम की आबादी में करीब 12 फीसदी हैं) को निष्ठावान वोटबैंक में बदला जाएगा, बल्कि मुसलमानों को सत्ता से बाहर रखना और उन्हें किंग मेकर की भूमिका से अपदस्थ करना, मेहनती कार्यबल की हैसियत प्रदान करना, और राजनीतिक ढांचे में उनका प्रभाव खत्म करना भी संभव होगा। भाजपा को यह भी उम्मीद है कि इस बिल से पश्चिम बंगाल में उसकी सीटें बढ़ाने में मदद मिलेगी, योंकि हिंदू प्रवासी इसका स्वागत करेंगे।

जिन्होंने छह ओबीसी समुदाय को अनुसूचित जाति का दर्जा दिए जाने का समर्थन किया है, उनका तर्क है कि यह बांग्लादेश से असम में अवैध घुसपैठ की समस्या से निपटने में मददगार साबित होगा, योंकि यह सभी व्यावहारिक उद्देश्यों के लिए कथित अवैध आप्रवासियों के प्रभाव को कम करेगा। वे क्षेत्र जहां ये छह समुदाय रहते हैं, विशेष रूप से निचले असम में, वहां बांग्लाभाषी मुसलमानों की बहुतायत है। भाजपा के नेताओं का कहना है कि नए आरक्षित निर्वाचन क्षेत्र में बांग्ला भाषी मुसलमानों के वोट घट जाएंगे। लेकिन यह कदम असमिया समाज को एसटी और गैर-एसटी क्षेत्रों में विभाजित करेगा और असमिया राष्ट्रीयता के गठन की प्रक्रिया को बाधित करेगा। और अगर एनआरसी बहिष्करण और नागरिकता बिल से परेशान ब्रह्मïपुत्र घाटी में बंगाली मूल के मुसलमान 2021 की जनगणना में अपनी मातृभाषा बंगाली (और असमिया नहीं, जैसा कि वे अभी कर रहे हैं) बताते हैं, तो राज्य में असमिया बोलने वालों की तुलना में बंगाली बोलने वाले अधिक होंगे। असम की जातीय-धार्मिक बिसात में इतने जोखिम हैं कि एक गलत चाल से पूरा खेल बिगड़ सकता है।


Date:22-01-19

नागरिकता संशोधन विधेयक के क्यों  खिलाफ है असम

संपादकीय

विवाद क्यों : उत विधेयक में पाकिस्तान, बांग्लादेश और अफगानिस्तान से यहां आने वाले गैर-मुसलमानों को भारतीय नागरिकता देने का प्रावधान है। भले उनके पास कोई वैध कागजात नहीं हो। इसके साथ ही नागरिकता के लिए अनिवार्य 12 साल की समयसीमा घटा कर छह साल कर दी गई है। यानी उत देशों के हिंदू, पारसी, सिख और ईसाई समुदाय का कोई भी व्यति बिना किसी वैध कागजात के भी छह साल से भारत में रह रहा है तो वह नागरिकता का हकदार हो जाएगा। विरोध करने वाले संगठनों को इसी बात पर आपत्ति है।

एजीपी और अखिल असम छात्र संघ (आसू) ने इस विधेयक को असम समझौते और भारतीय संविधान की भावना के खिलाफ बताया है। आसू के मुख्य सलाहकार समुज्जवल भट्टाचार्य कहते हैं, ‘असम आजादी के बाद से ही शरणार्थियों और घुसपैठियों के बोझ से कराह रहा है। अब इस विधेयक के बाद तो राज्य में ऐसे लोगों की बाढ़ आ जाएगी। लेकिन हम 25 मार्च, 1971 के बाद बांग्लादेश से आने वाले किसी भी व्यति को राज्य में नहीं रहने देंगे। वह चाहे हिंदू हो या मुसलमान।
भट्टाचार्य की दलील है कि इससे राज्य का जातीय संतुलन गड़बड़ा जाएगा और असमिया लोग अपने ही घर में बेगाने होकर रह जाएंगे।

एजीपी नेता व पूर्व मुख्यमंत्री प्रफुल्ल महंत कहते हैं, ‘विधानसभा चुनावों से पहले बीजेपी ने साा में आने की स्थिति में राज्य से अवैध बांग्लादेशी नागरिकों को खदेडऩे का वादा किया था। लेकिन विडंबना यह है कि अब वही पार्टी गैर- मुसलमान आप्रवासियों को नागरिकता देने जा रही है। वह कहते हैं कि यह ऐतिहासिक असम समझौते के प्रावधानों का खुला उल्लंघन है।

गौरतलब है कि छात्र नेता के तौर पर प्रफुल्ल महंत ने भी उत समझौते पर हस्ताक्षर किए थे। उसके बाद ही असम में वर्ष 1985 में उनकी अगुवाई में असम गण परिषद की सरकार साा में आई थी। महंत का कहना है कि एक ओर से घुसपैठियों को खदेडऩे के लिए नेशनल रजिस्टर आफ सिटीजंस (एनआरसी) को अपडेट करने की प्रक्रिया जारी है और दूसरी ओर धार्मिक आधार पर नागरिकता मुहैया करने का कानून बना दिया गया है। यह दोनों बातें एक-दूसरे की विरोधाभासी हैं।

दूसरी ओर, असम भाजपा के वरिष्ठ नेता व राज्य के विा मंत्री हिमंत विश्व शर्मा का दावा है कि अगर नागरिकता (संशोधन) विधेयक पारित नहीं होता तो अगले पांच साल में राज्य के हिंदू अल्पसंख्यक हो जाएंगे। उनका कहना है कि यह स्थिति उन लोगों के लिए मुफीद होगी जो असम को दूसरा कश्मीर बनाना चाहते हैं। हिमंत का सवाल है, ‘आखिर अत्याचार के शिकार हिंदू कहां जाएंगे? उनके पास तो मुसलमानों और ईसाइयों की तरह पाकिस्तान या अमेरिका जाने का भी विकल्प नहीं है। उनकी दलील है कि अगर पश्चिम बंगाल, त्रिपुरा और पंजाब को उत प्रावधानों पर कोई आपाि नहीं है तो असम पर
शरणार्थियों का बोझ पडऩे की बात कह कर विवाद यों फैलाया जा रहा है? नागरिकता विधेयक पर पैदा होने वाले विवाद पर मरहम लगाने के लिए केंद्र ने वर्ष 1985 के असम समझौते की धारा छह को लागू करने के मुद्दे पर एक नौ-सदस्यीय उच्च-स्तरीय समिति का गठन किया है। हालांकि कई संगठनों ने इस पर आपाि जताई है। उत धारा में असम की सांस्कृतिक, सामाजिक और भाषाई पहचान और असमिया लोगों की विरासत की रक्षा का प्रावधान है। इस समिति का विरोध करने वाले संगठनों की दलील है कि धारा छह और नागरिकता (संशोधन) विधेयक परस्पर विरोधाभासी हैं। अखिल असम छात्र संघ (आसू) ने उत समिति में अपना प्रतिनिधि नहीं भेजने का फैसला किया है। दूसरी ओर, भाजपा नेता हिमंत दावा करते हैं, ‘असम समझौते की धारा छह और उत विधेयक एक दूसरे के पूरक हैं, विरोधाभासी नहीं। पुरानी है समस्या: असम में पहचान के संकट की समस्या देश की आजादी जितनी पुरानी है। राज्य में पड़ोसी बांग्लादेश से घुसपैठ के खिलाफ समयसमय पर आवाजें उठती रही हैं।


Date:22-01-19

नागरिकता कानून वत की जरूरत

तरुण विजय

मोदी का नागरिकता कानून उन गैर मुस्लिम अल्पसंख्यकों की रक्षा के लिए है, जिनके लिए दुनिया में एक मात्र आशा और आसरा केवल हिंदुस्तान है। मैं लाहौर, कराची और मीरकोट में ऐसी हिंदू महिलाओं से मिलकर आया था, जो अब भी बाजार में बिंदी या मंगलसूत्र पहनकर नहीं निकल पातीं। कराची के लिफटन सागर तट पर बना प्रसिद्ध शिव मंदिर आज भी है, पर वहां पुजारी मंदिर के भीतर भी मुस्लिम अर्ध चंद्राकार टोपी पहनते हैं। पर उन्हें अगर शरण लेनी हो, तो या हिंदुओं को ईरान, सऊदी अरब या कुवैत में नागरिकता मिलेगी? जब सार साल की प्रतीक्षा के बाद देश में एक ऐसा प्रधानमंत्री खड़ा हुआ, जिसने अपनी माटी की सुगंध बदन पर लपेटे, हिंदू, सिखों, ईसाइयों को पड़ोसी देशों में दैनिक अपमान और प्रताडऩा से बचाने के लिए कानून बनाने की हिम्मत की, तो उसे सर्वदलीय सर्वसम्मति से पारित करने के बजाय सेयूलर हिंदू ही उसके विरोध में खड़े हो रहे हैं।

भारत में नागरिकता कानून 1955 में पारित हुआ था। अब इसमें एक संशोधन पंति जोड़ी जा रही है-‘यदि वह व्यति अफगानिस्तान, बांग्लादेश और पाकिस्तान से आया हिंदू, सिख, बौद्ध, जैन, पारसी या ईसाई है, जिन्हें केंद्र सरकार द्वारा छूट दी गई है अथवा पासपोर्ट (भारत में प्रवेश) अधिनियम 1920 के खंड-3, उपखंड-2 और प्रावधान-सी से छूट प्राप्त हो अथवा जिनको विदेशी नागरिक अधिनियम, 1946 के प्रावधानों के प्रभाव से छूट प्राप्त हो, उन व्यतियों को इस अधिनियम (नागरिकता अधिनियम) के अंतर्गत अवैध प्रवासी नहीं माना जाएगा।

इसके विरोध में उठ रही आवाजें भारत में अल्पसंख्यक मतों को खोने के भय से प्रेरित हैं। यह कैसी वेदनाजनक बात है कि हम अपने ही धर्म बंधुओं को कष्ट और विपदा की स्थिति में भी शरण देने से इसलिए मना कर रहे हैं, योंकि डर है कि इससे गैर हिंदू भारतीय वोट बैंक हाथ से निकल जाएगा।

हिंदुओं की रक्षा से मुसलमानों को यों चिंता होनी चाहिए? उन्हें तो पिछला इतिहास देखते हुए हिंदुओं की रक्षा के लिए और भी बढ़-चढ़कर आगे आना चाहिए। जुलाई, 2018 में लोकसभा में पूछे एक प्रश्न के उार में सरकार ने कहा कि अफगानिस्तान सहित लगभग 71 देशों से भारतीय नागरिकता पाने के लिए कुल 4,044 आवेदन विचाराधीन हैं। अर्थात नागरिकता कानून लागू होने के बावजूद किसी प्रदेश विशेष पर कोई बड़ा दबाव नहीं पडऩे वाला। असम, अरुणाचल जैसे प्रदेशों की समस्या अवैध घुसपैठिए हैं, न कि प्रताडि़त और लुटेपिटे शरणार्थी हिंदू, बौद्ध और सिख। सब व्यति सब कामों के लिए नहीं जाने जाते। तिरुवल्लुर की रचना तिरुकुरल, सुदर्शन की कहानी हार की जीत, प्रेमचंद का उपन्यास गोदान, नरेंद्र कोहली की रामकथा, बस एक- एक रचना ही उन्हें अमर बनाने के लिए पर्याप्त है। इंदिरा गांधी के लिए 16 दिसंबर, 1971 की विजय और अटल जी का पोकरण पर्याप्त है। नरेंद्र मोदी नागरिकता कानून के लिए कोटि-कोटि भारतीयों की कृतज्ञता और भारत पर विश्वव्यापी हिंदुओं के भरोसे की पुनस्र्थापना अर्जित कर हमेशा के लिए याद किए जाएंगे।


Date:21-01-19

किसान के लिए कुछ करना ही होगा

मोदी सरकार को इस समय कांग्रेस के कर्ज माफी के दांव की काट ही नहीं करनी, बल्कि किसानों का भला भी करना है।

संजय गुप्त, (लेखक दैनिक जागरण समूह के सीईओ व प्रधान संपादक हैं)

एक अरसे से यह संभावना जताई जा रही है कि मोदी सरकार बजट सत्र से पहले ही किसानों के कल्याण के लिए कोई बड़ी योजना लेकर आ सकती है। इसका एक बड़ा कारण यह है कि आम चुनाव नजदीक आ गए हैं और सरकार पर यह राजनीतिक दबाव है कि वह किसानों के लिए कुछ करे। यह दबाव केवल विरोधी दलों की ओर से ही नहीं है, बल्कि खुद भाजपा की ओर से भी है। भाजपा यह चाह रही है कि सरकार किसानों को राहत प्रदान करने की कोई योजना लेकर लाए। हालांकि मोदी सरकार ऐसी योजनाओं के पक्ष में कभी नहीं रही, लेकिन आज भाजपा के लोगों का ही मानना है कि खेती की मूल समस्याओं को दूर करने के लिए सरकार ने दूरगामी नतीजों वाले जो अनेक कदम उठाए थे, वे पर्याप्त नहीं साबित हुए।

स्पष्ट है कि अगर किसानों के लिए कोई योजना आती है तो वह इसका भी उदाहरण होगी कि राजनीतिक मजबूरी के चलते सरकारें किस तरह लोक-लुभावन कदम उठाने को बाध्य होती हैं। ऐसी कोई योजना लाए जाने की संभावना को देखते हुए कुछ अर्थशास्त्री यह कह रहे हैं कि इससे राजकोषीय घाटे का तय लक्ष्य हासिल करना कठिन हो सकता है। उनके अनुसार अगर ऐसा होता है तो यह अर्थव्यवस्था के लिए ऐसे समय और भी ठीक नहीं होगा, जब जीएसटी के जरिए हासिल होने वाला राजस्व लक्ष्य से पीछे चल रहा है, लेकिन ऐसे तर्कों के बावजूद भाजपा अपने राजनीतिक हितों की पूर्ति के लिए किसानों के साथ-साथ मध्यम वर्ग को राहत देना जरूरी समझ रही है। इसकी एक वजह यह भी है कि कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी किसान कर्ज माफी पर लगातार जोर दे रहे हैं।

लिहाजा, यदि चुनावी जरूरतों के साथ ही किसानों को राहत देने के लिए सरकार कोई फैसला करती है, तो यह अस्वाभाविक नहीं। वैसे भी किसानों की बदहाली दूर करने के लिए कुछ करने की जरूरत है और यह किसी से छिपा नहीं कि हर सरकार चुनाव के पहले आम जनता को राहत देने वाले फैसले करती है। अक्सर ऐसे फैसलों के केंद्र में किसान, निर्धन एवं मध्य वर्ग अथवा ये सभी होते हैं। वर्ष 2009 के आम चुनाव के पहले तत्कालीन यूपीए सरकार 60 हजार करोड़ रुपए की किसान कर्ज माफी योजना लेकर आई थी। इसका उसे चुनावी लाभ भी मिला। यह बात और है कि राजकोषीय घाटे के लक्ष्य को हासिल नहीं किया जा सका और इसके चलते वित्तीय सतुंलन बिगड़ गया।

इस वक्त मोदी सरकार को केवल राहुल गांधी के कर्ज माफी के दांव की काट ही नहीं करनी है, बल्कि देश के किसानों का भला भी करना है। यह काम सीधे खाते में धन हस्तांतरण यानी डीबीटी आधारित किसी योजना से ही हो सकता है। पता नहीं सरकार का फैसला क्या होगा, लेकिन यह एक तथ्य है कि हाल में छत्तीसगढ़, मध्य प्रदेश और राजस्थान में किसान कर्ज माफी की घोषणा कांग्रेस की जीत में मददगार बनी। इसी तरह इसके पहले उत्तर प्रदेश में भाजपा की जीत में भी किसान कर्ज माफी की घोषणा का योगदान था। इसके बावजूद इससे भी इनकार नहीं कि कर्ज माफी नीति न तो किसानों के हित में है और न ही अर्थव्यवस्था के। इसी कारण रिजर्व बैंक की ओर से बार-बार यह कहा जा रहा है कि कर्ज माफी की योजना ठीक नहीं। भले ही विरोधी दल कर्ज माफी को किसान के हित में बता रहे हों, लेकिन सच्चाई यह है कि ज्यादातर किसान खेती के लिए कर्ज नहीं लेते। वे खेती से इतर अपनी अन्य जरूरतों को पूरा करने के लिए कर्ज लेते हैं। इसी कारण न तो खेती की हालत सुधर रही और न ही किसानों की स्थिति में सुधार आ रहा है। किसानों की एक बड़ी समस्या यह है कि उनकी आमदनी में इजाफा नहीं हो पा रहा है।

सरकार किसानों को राहत देने के लिए डीबीटी आधारित योजना तभी शुरू कर सकती है, जब वह कृषि क्षेत्र में अन्य मदों में दी जा रही सबसिडी को कम या फिर खत्म कर दे। अभी किसानों को कृषि उपकरणों की खरीद और फसल बीमा आदि में छूट के रूप में सबसिडी दी जाती है। इस सबको खत्म करके किसानों को सीधे कुछ रकम देने से उनके हाथ पैसा पहुंचेगा और वह उसे अपनी जरूरत के हिसाब से खुले बाजार में खर्च करने में सक्षम होगा। इस तरह की एक योजना तेलंगाना सरकार रैयत बंधु के नाम से चला रही है। ओडिशा सरकार ने इसी तरह की योजना फालिया के नाम से चलाई है। हाल में झारखंड सरकार ने भी इसी तरह की योजना घोषित की है। इसके तहत लघु एवं सीमांत किसानों को प्रति एकड़ एक निश्चित राशि दी जाती है।

अगर केंद्र सरकार तेलंगाना, ओडिशा या झारखंड जैसी कोई योजना लाती है और उसके तहत हर छोटे और सीमांत किसान को प्रति एकड़ 10 हजार रुपए की सहायता भी देती है तो उससे मौजूदा राजकोषीय घाटे का स्तर बढ़ सकता है। हालांकि राजकोषीय घाटे की सीमा कोई लक्ष्मण रेखा नहीं है, फिर भी उसका महत्व इसलिए है, क्योंकि रेटिंग एजेंसियां और वैश्विक वित्तीय संस्थाएं यह देखती हैं कि देश विशेष में राजकोषीय घाटे की क्या स्थिति है? राजकोषीय घाटे का बढ़ना ठीक नहीं माना जाता। इसे देखते हुए 2003 में बजट प्रबंधन संबंधी कानून एफआरबीएमए लाया गया था। इस कानून का उद्देश्य वित्तीय अनुशासन को बढ़ावा देना और वित्तीय घाटे को कम करना है। इसके तहत बजट में राजकोषीय घाटे का एक लक्ष्य तय किया जाता है।

वित्त वर्ष 2018-19 के लिए मोदी सरकार ने राजकोषीय घाटे का लक्ष्य 3.3 प्रतिशत तय किया था। इसके पहले के वित्तीय वर्षों में सरकार तय लक्ष्य को पाने में सफल रही। चूंकि इस मामले में मोदी सरकार का रिकॉर्ड पूर्ववर्ती मनमोहन सरकार से बेहतर है और राजनीतिक ही नहीं आर्थिक लिहाज से भी किसानों की आमदनी बढ़ाने वाले उपाय करना वक्त की मांग है, इसलिए वह खर्च बढ़ाकर किसानों को राहत देने की योजना ला सकती है। इसके बावजूद उसे यह ध्यान रखना होगा कि उसकी योजना महंगाई बढ़ाने वाली न साबित हो। महंगाई बढ़ने से लोक-लुभावन योजनाओं से आम जनता को मिलने वाले लाभ में कमी आती है और इस तरह सरकार राजनीतिक लाभ उठाने की स्थिति में नहीं रहती। एक तरह से देखा जाए तो भाजपा के सामने इस वक्त दोहरा संकट है। एक तरफ उसे विपक्षी दलों के दबाव से मुक्त होना है और दूसरी तरफ किसानों को राहत भी पहुंचानी है।

यह सही है कि चुनाव के मौके पर कोई सरकार अपने राजनीतिक हितों की अनदेखी नहीं कर सकती, लेकिन उसे देश की वित्तीय सेहत का भी ध्यान रखना होगा। इसमें कामयाबी तब मिल सकती है, जब राजनीतिक दल किसान कर्ज माफी पर जोर देने के बजाय इस योजना के बेहतर विकल्प खोजें। लेकिन विडंबनात्मक ढंग से इस समय ठीक इसका उल्टा हो रहा है। राजनीतिक दल कर्ज माफी सरीखी लोक-लुभावन, किंतु नाकाम नीति पर जोर दे रहे हैं। मोदी सरकार किसानों के लिए कोई योजना लाते समय यह ध्यान रखे तो बेहतर कि उससे किसानों को फौरी और साथ ही दीर्घकालिक लाभ मिले तथा वे अपनी आमदनी बढ़ाने में भी सक्षम हों।


Date:21-01-19

Steel frame or steel cage?

Shah Faesal’s resignation tells us about the receding powers of the civil service to make a difference to society

Krishna Kumar is a former director of the NCERT and the author of ‘Education, Conflict and Peace’

In his letter of resignation from the Indian Administrative Service (IAS) in early January, Shah Faesal cites a number of reasons. He became an icon and a celebrity when he topped the IAS examination, in 2010. He was the first Kashmiri to do so. Now, after his resignation, he is sure to acquire greater glow, especially if he joins politics as he has indicated. His letter of resignation demonstrates his anguish over the pain Kashmir has experienced over the recent past. Apparently, he feels that as a civil servant, he feels constrained to express his views. The letter also suggests that he feels sorry for not being able to do much to alleviate the sufferings of his people. His hope that he will be able to do this by joining politics permits us to look at a problem we face in our quest of modernity.

Respect through merit

Before Independence, and for a while after it, competing for entry into the IAS was motivated by the urge to seek status in society. An open contest based on success in an academic examination presented the attraction of gaining social respect through merit. The status that accrued to an officer was associated with the authority he had to exercise state power. In those days, official power had few political constraints, especially at the local level. A district collector was seen as a meritorious monarch. He was the custodian of law and order. That was a key role in the colonial order. Its cultural residues have persisted to the present times, and the status of the district collector — in some States, the district magistrate or DM — comes largely from his or her responsibility to maintain law and order.

Following Independence, the IAS acquired a nation-building tinge in its earlier colonial role (as the Indian Civil Service as it was then called). From the local to the national levels, the IAS was seen as providing the firm and stable frame that India needed to overcome what were often described as ‘fissiparous’ tendencies in society. The addition of a nationalist lustre to an otherwise unchanged status gathered yet another layer when nation-building extended to a ‘development’ agenda. As a learned decision-maker, the civil servant was supposed to lend objectivity to the elected politician’s agenda and wishes. This function made an impact on the lure of the civil service as a career. Success in the IAS examination was now seen as bringing the power to ‘do something’ for the larger good, and not merely as a conduit of personal security and comfortable life-style.

Marker of change

Mr. Faesal’s decision to resign from the IAS after a short stint in it marks yet another stage in the change of perceptions. He is not the first to mark this change. Young entrants to the IAS have been known to resign early for social causes or academic careers. In each case, early abandonment continues to signify an act of renunciation for the pursuit of an ideal. Such examples have indicated the rising perception that the IAS officer’s power is much too constrained, especially by those wielding political power. Mr. Shah Faesal’s resignation tells us how the power to ‘do something’ now belongs exclusively to the politician.

This trajectory has a considerable lesson to offer. To begin with, it shows how modernity in India has not brought an adequate appreciation of the different roles a society needs to run itself well. Children and adults share the feeling that one or two roles are more important than all others. From childhood onwards, one learns this lesson both directly, from parents and teachers, and also indirectly, from socialisation. The chief guest culture, widely prevalent in schools, reinforces the significance of becoming an important person. The person invited as chief guest is often either a civil servant or a politician.

A ‘syndrome’

Not only schools, even community functions organised on religious festivals are similarly adorned. If the organisers cannot get hold of someone in service or politics at present, they go for someone retired. By the time they are in secondary grades, children absorb the message that a worthwhile life can only be led by gaining public importance. Many children begin to feel that their best chance to make their parents happy is by doing things that bring fame and importance. For doing this, there are more choices today, but the range continues to be narrow and the preferred ones are those with the biggest crowd at the entry. The lure of competitive tests like the Joint Entrance Examination (JEE) and the National Eligibility cum Entrance Test (NEET) throws light on this cultural phenomenon.

The civil services remain a big draw as the vast clientele of commercial coaching demonstrates. Probability of success is understandably low, and that is precisely what drives the coaching industry to ever increasing rates of growth and fee. It is only after failing to make it into the highest civil services that students look towards other avenues. The same is true of tests in engineering and medicine. It is only after failing to get into these professions that the young consider pursuing a career in other areas. The experience of failure leaves its psychological scab on many young minds. They continue to feel, for a long time, that they could have ‘become’ someone important. A touching story in this genre is of a schoolteacher who never went back to meet his favourite teacher. He said, ‘How could I tell my teacher that I could only become a teacher?’

As a society, we obviously pay a high price for maintaining this syndrome. If only an IAS or a political leader is perceived as having the capacity to ‘do something’, the rest can only carry out inconsequential routines. And what is that ‘something’? It is a socially shared mystery. In the case of Mr. Shah Faesal, it seems to be somewhat clear. His letter of resignation from the IAS can be read as an expression of his urge to alleviate the pain of Kashmir. He feels he can do it by joining politics. Let us hope he succeeds.