23-01-2019 (Important News Clippings)

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23 Jan 2019
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Date:23-01-19

अपने आप नहीं रुकने वाली दुनिया में बढ़ती असमानता

संपादकीय

ऑक्सफैम की कार्यकारी निदेशक बिन्नी ब्यानयिमा ने ठीक ही है कहा है कि यह नैतिक रूप ले लज्जाजनक है कि कुछ अमीरों की संपत्ति बेतहाशा बढ़ी है और गरीब लोग दो जून की रोटी और बच्चों की दवाई लाने के लिए संघर्ष कर रहे हैं। ऑक्सफैम की रिपोर्ट ने भारत समेत दुनिया के विकास दर की दर्दनाक हकीकत खोल कर रख दी है और उम्मीद है कि चार दिन बाद दावोस में शुरू होने जा रहे वर्ल्ड इकोनॉमिक फोरम की बैठक में जुटने वाले राष्ट्राध्यक्ष और कंपनियों के मालिक इस मसले पर विचार करेंगे। दुनिया में बढ़ती असमानता की तस्वीर भयानक है और वह इन आंकड़ों से साबित होती है कि दुनिया के 26 अमीरों की संपत्ति उतनी ही है, जितनी कि 50 प्रतिशत गरीबों की। गरीबों की यह तादाद 3.8 अरब है। जबकि अमीरों की तादाद महज 26 है। वैश्विक स्तर पर खरबपतियों की संपत्ति में 12 प्रतिशत सालाना यानी 2.5 अरब डॉलर प्रतिदिन की रफ्तार से बढ़ोतरी हुई है और गरीबों की संपत्ति में 11 प्रतिशत की दर से ह्रास हुआ है।

बढ़ती असमानता की यह तस्वीर भारत में भी डरावनी है। यहां देश के कुल 9 अमीरों की संपत्ति देश के 50 प्रतिशत गरीबों की संपत्ति से भी ज्यादा है। अगर खरबपतियों की संपत्ति सालाना 39 प्रतिशत की दर से बढ़ी है तो गरीबों की संपत्ति 3 प्रतिशत की दर से। लगातार बढ़ता यह असंतुलन एक ओर 21वीं सदी में पूंजीवाद की तस्वीर खींचने वाली थामस पिकेटी की पुस्तक कैपिटल इन ट्वेंटी फर्स्ट सेंचुरी की याद दिलाता है वहीं भारत के बारे में पत्रकार जेम्स क्रैबट्री की पुस्तक ‘द बिलेनेयर राज’ की याद ताजा करता है। पिकेटी कहते हैं कि पूंजीवाद पर लगाम लगाने वाली सोच और कार्यक्रम समाप्त हो चुके हैं इसीलिए उसमें असमानता का यू ग्राफ तेजी बढ़ रहा है। पिछली सदी में नीचे जा रहे ग्राफ का ऊपर जाना बताता है कि अब असमानता अपने आप नहीं रुकने वाली है। उसके लिए उपाय करने ही होंगे। भारत की आर्थिक तरक्की की तस्वीर खींचने वाली क्रैबट्री की पुस्तक कहती है कि भारत अमेरिका की तरह गिल्डेड एज में प्रवेश कर रहा है। वह 19वीं सदी की तस्वीर है। जहां खरबपतियों के साथ गरीबों और झुग्गी वालों की तादाद भी बढ़ेगी। इसे रोकने के लिए अमीरों से एक प्रतिशत अमीरी कर लिए जाने का सुझाव दिया गया है। इससे 418 अरब डॉलर इकट्‌ठे होंगे। इतना तो किया जा सकता है कि हर बच्चा स्कूल जा सकेगा। उससे एक हद तक ही सही असमानता घटेगी।


Date:23-01-19

सेहत संग अर्थव्यवस्था संवारने वाली योजना

जीएन वाजपेयी, (लेखक सेबी और एलआइसी के पूर्व चेयरमैन हैं)

आयुष्मान भारत योजना के सौ दिन पूरे हो चुके हैं। इस योजना का उद्देश्य प्रत्येक गरीब परिवार को पांच लाख रुपये का स्वास्थ्य बीमा कवर उपलब्ध कराना है। इस योजना से आठ लाख से ज्यादा लोग लाभ उठा चुके हैं। इस योजना पर अमल प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की ओर से लालकिले की प्राचीर से किए गए एक और वादे का पूरा होना है। इस योजना से गरीबों के लाभान्वित होने की खबरें जिस तरह आ रही हैं उससे यही संकेत मिलता है कि योजना सही दिशा में आगे बढ़ रही है। सामाजिक सुरक्षा का विषय विशेषकर वंचित तबकों के लिए ऐसी सुविधा एक लंबे अर्से से चर्चा का विषय रही हैं। विभिन्न कालखंडों में सत्ता की कमान संभाल चुकीं सरकारों ने इस मकसद के लिए जीवन बीमा निगम, पेंशन और हेल्थकेयर के मोर्चे पर तमाम योजनाओं की सौगात पेश की।

मोदी सरकार ने इस मामले में अलग ही रणनीति अपनाई। उसने इन सभी योजनाओं को जोडऩे या मामूली फेरबदल कर नए रूप-स्वरूप में पेश करने के बजाय वंचित वर्ग के लिए प्रत्येक क्षेत्र में एक ध्वजवाहक योजना पर काम किया। इनमें स्वास्थ्य, आवास, बीमा, पेंशन और बैंकिंग के मोर्चे पर ऐसी सेवाओं का नाम लिया जा सकता है जो विशेष रूप से गरीबों को ध्यान में रखकर ही बनाई गई हैं। इनमें पूरा जोर इसी बात पर है कि एक मिशन के तौर पर योजनाओं को क्रियान्वित कर उनके लाभ को लक्षित आबादी तक पहुंचाया जाए। सरकार की इस कवायद को सामाजिक बेहतरी और आर्थिक लाभ के दोहरे नजरिये से देखना होगा। जहां इनमें वंचित वर्ग को राहत देने के साथ आर्थिक दुश्वारियों से उबारने की क्षमता है वहीं श्रम की उत्पादकता में सुधार और आर्थिक वृद्धि को धार देने की कूवत भी है। बीमारी में एक तो इलाज का अभाव और ऊपर से आर्थिक बोझ गरीबों पर दोहरी चोट करता है जिससे श्रम की उत्पादकता पर भारी दबाव पड़ता है। इस मामले में देखा जाए तो भारत की उत्पादकता कई उभरती हुई अर्थव्यवस्थाओं के मुकाबले कमतर ही है।

ऐसी योजनाओं के कारण आर्थिक वृद्धि के साथ ही रोजगार सृजन के मोर्चे पर नए अवसरों की संभावनाएं बनेंगी।बीमारी से लेकर जीवन-मरण के मसले इंसानी जिंदगी के अहम हिस्से हैं। बहुसंख्यक भारतीय दो कमियों के शिकार हैं। एक तो उपचार के लिए उनके पास वित्तीय संसाधनों का अभाव है। दूसरा अच्छी स्वास्थ्य सेवाओं की कमी भी सालती है। ऐसे में किसी गरीब परिवार के लिए बीमारी के इलाज में सालाना पांच लाख रुपये तक के इलाज की सुविधा एक बड़ी सौगात है। यह संबंधित व्यक्ति के परिवार को न केवल आर्थिक वज्रपात से बचाएगी, बल्कि उसके लिए मुसीबत में एक बड़े सहारे का काम करेगी। इस स्थिति में स्वास्थ्य सेवाओं के स्तर पर भारी मांग पैदा होगी। एकाएक आठ करोड़ परिवारों की ओर से स्वास्थ्य सेवाओं की मांग की जाएगी। इस मांग को पूरा करने के लिए अधिक अस्पतालों, प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्रों, डॉक्टरों, नर्सों, प्रशासनिक कर्मचारियों, दवा निर्माताओं और दवा वितरकों आदि की जरूरत पड़ेगी। यह कहा जा सकता है कि भारत में ऐसी मांग हमेशा रही है, लेकिन करोड़ों गरीब परिवारों के लिए इन सेवाओं के उपभोग की क्षमता अब कहीं जाकर विकसित की जा रही है। हेल्थकेयर यानी स्वास्थ्य सेवाओं का उद्योग बड़े पैमाने पर रोजगार का माध्यम है।

इनमें डॉक्टरों से लेकर रक्त के नमूने लेने वाले, घरेलू स्वास्थ्य सहायक और साइकोथेरेपिस्ट से लेकर तमाम तरह की कडिय़ां जुड़ी होती हैं। आम समझ के अनुसार माना जाता है कि अस्पताल में एक बेड के साथ 10 स्वास्थ्यकर्मियों की आवश्यकता होती है। देश भर में इस योजना के विस्तार के साथ ही अस्पतालों की जरूरत भी कई गुना बढ़ती जाएगी। एक मोटे अनुमान के अनुसार इस योजना को सिरे चढ़ाने के लिए औसतन 100 बेड वाले 20,000 से अधिक अस्पताल बनाने होंगे। इसे अगर 10 से गुणा करें तो इन नए बनने वालों अस्पतालों से करीब 20 लाख नौकरियां सृजित होंगी। दवाओं और अन्य स्वास्थ्य सेवा उत्पादों की भी भारी मांग पैदा होगी। इससे व्यापक स्तर के भौतिक एवं सामाजिक बुनियादी ढांचे का भी निर्माण होगा। हेल्थकेयर एक सार्वजनिक-निजी उद्यम है। यहां सरकारी वित्तीय संसाधनों से चलने वाले अस्पताल भी हैं तो निजी क्षेत्र के अस्पताल भी हैं। ऐसे में बेहतर यह होगा कि अगले 5-10 वर्षों में इस क्षेत्र में विभिन्न वस्तुओं एवं सेवाओं के लिए उत्पन्न होने वाली मांग का सही अनुमान लगाया जाए ताकि उसी हिसाब से इसमें निवेश की राह आसान बनाई जा सके।

अस्पताल एवं स्वास्थ्य सेवा संस्थानों के अलावा इसके माध्यम से दवा कंपनियों, फार्मेसियों और पैथोलॉजी लैब इत्यादि में भी रोजगार के तमाम अवसर सृजित होने की भरपूर संभावनाएं हैं। अगर इस योजना को वर्तमान स्वरूप में ही सही तरीके से आगे बढ़ाया जाता है तो अगले पांच वर्षों में इसके माध्यम से पचास लाख से कम नौकरियां सृजित नहीं होंगी जो काफी बड़ा आंकड़ा है। एक ऐसे दौर में जब रोजगार सृजन सबसे बड़ी चिंता के रूप में उभर रहा है तब इस योजना को आगे बढ़ाना बहुत उपयोगी होगा। इसके चार हिस्सों पर विशेष रूप से ध्यान देना होगा। एक तो हेल्थकेयर सुविधाएं, दूसरा मानव संसाधन, तीसरा सुविधाओं का संचालन जिसमें उपचार के बाद की स्थिति भी शामिल है और चौथा पहलू वित्तीय संसाधनों का है। इस योजना में नागरिकों, स्वास्थ्य सेवा प्रदाताओं, दवा निर्माताओं, मानव संसाधन, बीमा कंपनियों और निवेशकों जैसे सभी अंशभागियों का भी ख्याल रखा जाना चाहिए। साथ ही साथ सार्वजनिक- निजी भागीदारी को प्रोत्साहन देने के लिए भी समग्र रणनीतियां बनानी होंगी। स्वास्थ्य सेवाओं के लिए मांग हमेशा से रही है, लेकिन पैसों की किल्लत से उनका लाभ उठाने की क्षमता का अभाव रहा है। यह योजना इस खाई को पाटने के साथ ही हेल्थकेयर सेवाओं को
एक नया क्षितिज देने की क्षमता रखती है।


Date:23-01-19

सियासी अवसरवाद में फंसा विधेयक

राम माधव, (लेखक भाजपा के राष्ट्रीय महासचिव हैं)

यह पिछली सदी के आखिरी दशक की बात है, जब असम में असम गण परिषद सरकार ने राज्य के छह समूहों को अनुसूचित जनजाति यानी एसटी का दर्जा देने की पहल की। इनमें ताई-अहोम, मोरान, मटक, कोच राजबोंगशी आदि जनजाति समूहों के नाम शामिल हैं। इस प्रस्ताव को संसद में खारिज कर दिया गया। कालांतर में किसी अन्य सरकार ने इसमें संशोधन का प्रयास नहीं किया। जब असम में सर्वानंद सोनोवाल के नेतृत्व वाली भाजपा सरकार ने कमान संभाली तो इस प्रस्ताव में नई जान आई। राज्य सरकार के हस्तक्षेप के चलते केंद्र को भी इस मसले पर विचार करना पड़ा। इन छह समूहों को एसटी का दर्जा देने संबंधी प्रस्ताव हाल में संसद के समक्ष पेश किया गया। 1996 के उलट अबकी बार इस मुद्दे पर व्यापक सहमति रही जिससे उस सपने के पूरा होने की उम्मीद बंधी जिसका इन समूहों को काफी लंबे अरसे से इंतजार है, लेकिन असम में एसटी के दायरे में पहले से मौजूद जनजातियों के बीच यह दुष्प्रचार कर उन्हें भ्रमित करने की कोशिश की जा रही है कि इन छह समूहों के शामिल होने से उन्हें मिलने वाला लाभ सीमित हो जाएगा, क्योंकि उन्हें ये फायदे उनके साथ साझा करने होंगे। यह पूरी तरह निराधार है। असम में जनजातियों की दो श्रेणियां हैं। एक मैदानी जनजाति और दूसरी पर्वतीय जनजाति। नई बनाई गई छह जनजातियों को इनमें से किसी भी समूह में शामिल नहीं किया जाएगा। इसके बजाय ‘नई जनजातियां या ‘अन्य जनजातियों के रूप में नई श्रेणियां बनाई जाएंगी। उनके लिए अलग से आरक्षण की व्यवस्था की जाएगी।

हालांकि विधेयक में इन मसलों को लेकर स्पष्टता का अभाव है। समझा जा सकता है कि अतिरिक्त कोटा और इसका नामकरण राज्य सरकार का दायित्व है। इस पर मुख्यमंत्री पहले ही आश्वस्त कर चुके हैं कि जैसे ही यह विधेयक पारित होता है वैसे ही सरकार मौजूदा जनजातियों के हितों को सुरक्षित रखने और नई जनजातियों के लिए कोटे का प्रावधान करेगी। अफसोस की बात यही है कि ऐसी दुविधा और दुष्प्रचार असम व पूर्वोत्तर के अन्य राज्यों में बेहद आम हो गया है। न केवल कुछ विशेष राजनीतिक समूह, बल्कि मीडिया और बुद्धिजीवियों का एक तबका भी इस क्षेत्र में असंतोष को हवा देने वाले दुष्प्रचार अभियान में जुटा है। असम की जनता की लंबे अरसे से चली आ रही नेशनल रजिस्टर ऑफ सिटिजंस यानी एनआरसी की महत्वपूर्ण मांग को पूरा करने का श्रेय भी सोनोवाल सरकार को जाता है। इससे भारी तादाद में बसे अवैध घुसपैठियों की पहचान का दुष्कर काम आसान हुआ है। एनआरसी के अतिरिक्त सोनोवाल सरकार ने केंद्र सरकार को असम समझौते की काफी समय से लंबित धारा 6 को लागू करने के लिए भी राजी किया है।

ऐतिहासिक असम समझौते पर हस्ताक्षर हुए तीन दशक से अधिक बीत चुके हैं, लेकिन जिस धारा में इस समझौते का मर्म निहित है, उसे ही लागू करने में अभी तक किसी भी सरकार ने कोई खास गंभीरता नहीं दिखाई है। असम समझौते की धारा यह कहती है, ‘असमी जनता की सांस्कृतिक, सामाजिक, भाषायी पहचान और विरासत के संरक्षण, परिरक्षण एवं प्रोत्साहन के लिए जो भी संवैधानिक, विधायी एवं प्रशासनिक रक्षोपाय आवश्यक होंगे, वे किए जाएंगे। भाजपा और संघ परिवार असम आंदोलन के साथ गहराई से जुड़े रहे हैं। समझौते को लागू करने की अनिवार्यता को पूरा करने की दिशा में मोदी सरकार ने सही भावना के साथ धारा 6 पर अमल करने का फैसला किया है। केंद्रीय गृहमंत्री राजनाथ सिंह ने इसके लिए असम के प्रबुद्ध लोगों की एक समिति गठित करने का फैसला किया है, जो इस धारा के प्रभावी क्रियान्वयन के लिए ‘असमी लोगों के लिए विधायिका में आरक्षण सहित सभी मुद्दों पर अपने सुझाव देगी। यह दुर्भाग्यपूर्ण है कि दुष्प्रचार के चलते समिति के कुछ सदस्यों ने इस्तीफा दे दिया। फिर भी इस राह पर आगे बढ़ने में सरकारी प्रतिबद्धता शिथिल नहीं पड़ी। वह विभिन्न् वर्गों से सुझाव आमंत्रित कर रही है।

नागरिकता संशोधन विधेयक के खिलाफ झूठ और अफवाहों का ऐसा ही अभियान चलाया जा रहा है। इस विधेयक का मकसद पूर्ववर्ती पाकिस्तान और अफगानिस्तान के अल्पसंख्यकों को नागरिकता प्रदान करना है, जिनमें हिंदू, बौद्ध, सिख और ईसाई भी शामिल हैं। ये वे लोग हैं जो अपने देश में किसी डर या खौफ के चलते भारत विस्थापित होने के लिए मजबूर हुए। भारत अभी भी धार्मिक आधार पर हुए विभाजन का दंश झेल रहा है, क्योंकि इसके कारण पंजाब, राजस्थान, गुजरात, पश्चिम बंगाल और असम जैसे राज्यों में सीमा पार से आने वालों का सिलसिला कायम है। इस पर चिंता जता रहे कुछ लोग वास्तव में सही सूचनाओं और तथ्यों से अनभिज्ञ हैं तो कुछ लोग इस मौके पर राजनीतिक चौका लगाकर उसे अपने पक्ष में भुनाने की फिराक में हैं। अव्वल तो यह विधेयक समूचे देश के लिए है और किसी क्षेत्र विशेष या प्रदेश तक ही सीमित नहीं है। ऐतिहासिक रूप से देखें तो भारत ने प्रताड़ित अल्पसंख्यकों को शरण देने में कभी हिचक नहीं दिखाई और उनका सदा स्वागत किया। सीरियाई ईसाई, पारसी और यहूदी यहां आए और भारत ने भी उन्हें खुले दिल से अपनाया। यह विधेयक इसी परंपरा की निरंतरता को ही सुनिश्चित करता है।

विधेयक के दूसरे खास पहलू का अप्रत्यक्ष रूप से यही सार है कि भारत विदेशियों के लिए किसी धर्मशाला जैसा नहीं है कि कोई भी यहां आकर बस जाए। विधेयक की धाराओं के अनुसार नागरिकता केवल उन्हें मिल सकती है जो 31 दिसंबर 2014 के पूर्व से यहां बसे हों। यह पैमाना भी गारंटी नहीं है। आवेदन से पहले आवेदक का भारत में सात वर्षों का प्रवास भी एक शर्त है। इसका अर्थ है कि यदि कोई व्यक्ति 2014 में भारत आया तो नागरिकता के लिए उसे 2021 तक इंतजार करना पड़ेगा। ऐसे लोगों को भारत में कहीं भी बसाया जा सकता है। तीसरा पहलू यह है कि आवेदन की पहले जिला प्रशासन स्तर पर परख की जाएगी और उसकी अनुशंसा पर ही प्रस्ताव को संबंधित विभाग के पास आगे बढ़ाया जाएगा।

असम में इन दिनों यह अफवाह भी फैलाई जा रही है कि बांग्लादेश से करोड़ों अल्पसंख्यक असम में आकर बस जाएंगे। बांग्लादेश में फिलहाल 1.4 करोड़ हिंदू और केवल 10 लाख बौद्ध हैं। भारत-बांग्लादेश सीमा सील होने के साथ ही सुरक्षित भी है। विधेयक में यह भी स्पष्ट है कि 2014 के बाद भारत आने वाले नागरिकता के पात्र नहीं होंगे। विधेयक को राज्यसभा से मुहर की दरकार होगी, जहां विपक्ष बहुमत में है। चुनावी फायदे के लिए कांग्र्रेस पार्टी अतीत से ही इस मुद्दे पर राजनीति करती आई है। 2015 में असम में विधानसभा चुनाव से ठीक पहले कांग्र्रेस ने बांग्लादेश से असम में आकर बसे हिंदुओं और बौद्धों को नागरिकता देने की मांग की थी। लेकिन वही पार्टी आज प्रताड़ित लोगों के लिए उठाए जा रहे सरकार के मानवीय कदम का क्षुद्र राजनीतिक हितों के चलते विरोध कर रही है।


Date:23-01-19

सूक्ष्म और लघु उद्यमों की बड़ी होती समस्या

तमाल बंद्योपाध्याय

कुछ महीने पहले गैर बैंकिंग वित्तीय कंपनियां (एनबीएफसी) खूब चर्चा में थीं। इन दिनों एमएसएमई (सूक्ष्म, लघु एवं मझोले उद्यमों) पर जोर है। दोनों ही गलत वजहों से सुर्खियों में रहे या हैं। एनबीएफसी क्षेत्र तब चर्चा में आया जब कई लोगों का ध्यान इस क्षेत्र की परिसंपत्ति और देनदारी के अंतर पर गया। यह अंतर विशुद्घ रूप से वृद्घि को लेकर पनपे लालच और जोखिम का सही मूल्यांकन नहीं करने से उपजा था। अल्पावधि की दरों में अचानक बढ़ोतरी से क्षेत्र वाकिफ नहीं हो पाया। वहीं एमएसएमई क्षेत्र ऋण की कमी से दो चार है और उनमें से कई तो कारोबार में नुकसान के कारण अपना पुराना कर्ज तक नहीं चुका पा रही हैं।

एमएसएमई क्षेत्र के ऋण की जरूरत पूरी करने में बैंकों से अधिक योगदान एनबीएफसी का था लेकिन अब उन्हें भी अपने ऋण खातों का ध्यान रखना पड़ रहा है। हकीकत तो यह है कि उनमें से कई अपने पोर्टफोलियो बेच रही हैं क्योंकि उनके पास ऋण संबंधी परिसंपत्तियों के निपटान के लिए अधिक नकदी नहीं है। सूक्ष्म एवं लघु उद्योगों को लेकर बैंकिंग क्षेत्र का जोखिम वर्ष 2013-14 के सकल घरेलू उत्पाद के 3.1 फीसदी से घटकर 2017-18 में 2.22 फीसदी रह गया। इसी अवधि के दौरान मझोले उद्यमों को बैंक ऋण का स्तर जीडीपी के 1.1 फीसदी से कम होकर 0.62 फीसदी रह गया।

इसके पश्चात एनबीएफसी ने अवसर देखकर इस क्षेत्र में प्रवेश किया। एमएसएमई क्षेत्र की फाइनैंसिंग में उसकी हिस्सेदारी दिसंबर 2015 के 7.9 फीसदी से बढ़कर जून 2018 में 11.3 फीसदी हो गई। उन्होंने बैंक से ऋण लेकर एमएसएमई क्षेत्र को देना आरंभ किया। वर्ष 2017-18 तक एनबीएफसी को बैंक ऋण बढ़कर 26.9 फीसदी तक हो गया। ट्रांस यूनियन सिबिल लिमिटेड और सिडबी के तिमाही प्रकाश एमएसएमई पल्स के मुताबिक एमएसएमई ऋण में सरकारी बैंकों की हिस्सेदारी जून 2017 के 55.8 फीसदी से घटकर जून 2018 में 50.7 फीसदी रह गई। इसी अवधि में निजी क्षेत्र के बैंकों की हिस्सेदारी 28.1 फीसदी से बढ़कर 29.9 फीसदी हो गई। जबकि एनबीएफसी का ऋण 9.6 फीसदी से बढ़कर 11.3 फीसदी हो गया। इस अवधि में एमएसएमई क्षेत्र में सरकारी बैंकों का फंसा हुआ कर्ज 14.5 फीसदी से बढ़कर 15.2 फीसदी हो गया लेकिन निजी बैंकों का ऐसा ही कर्ज घटकर 3.9 फीसदी रहा। एनबीएफसी का फंसा कर्ज 5 प्रतिशत था। आलोक मिश्रा और जय तनखा द्वारा संपादित फाइनैंस इंडिया रिपोर्ट 2018 बताती है कि कैसे कुल औद्योगिक ऋण में एमएसएमई की हिस्सेदारी कम हो रही है। दो वर्ष से यह 13.8 फीसदी पर स्थिर है जबकि 2010 में यह 15.7 फीसदी थी। सन 2010 और 2018 के बीच मझोले दर्जे के उद्योगों की हिस्सेदारी में नाटकीय कमी आई और वह 10.1 फीसदी से गिरकर 3.8 फीसदी रह गई। परंतु बड़े उद्योगों की हिस्सेदारी 74.1 फीसदी से बढ़कर 82.3 फीसदी हो गई।

एमएसएमई के लिए ऋण की कमी तो है ही, साथ ही नोटबंदी और वस्तु एवं सेवा कर ने भी उन्हें बहुत झटका दिया है। यह बात स्वयं आरबीआई के एक अध्ययन में कही गई है। कपड़ा तथा रत्न एवं आभूषण कारोबार में अनुबंधित श्रम को झटका लगा क्योंकि कर्मचारियों को नकद वेतन मिलता था। नई कर व्यवस्था ने अनुपालन की लागत बढ़ा दी। उनका टर्नओवर घटा और कई इकाइयों में कर्मचारियों की छुट्टी कर दी गई। श्रम ब्यूरो के छठे वार्षिक रोजगार-बेरोजगारी सर्वे के मुताबिक 2016-17 में यानी नोटबंदी वाले साल बेरोजगारी दर चार वर्ष के उच्चतम स्तर पर थी। अब चुनाव करीब हैं और एमएसएमई क्षेत्र नए सिरे से चर्चा में है। जीएसटी परिषद ने जीएसटी पंजीयन का दायरा 20 लाख से बढ़ाकर 40 लाख रुपये कर दिया है और करीब 20 लाख उपक्रमों को इसके दायरे से बाहर कर दिया।

उसके पहले आरबीआई ने संकटग्रस्त एमएसएमई के एकबारगी ऋण पुनगर्ठन के रूप में कर्जदारों को 25 करोड़ रुपये के फंड और गैर फंड जोखिम के निस्तारण का अवसर दिया था। जून 2018 में आरबीआई ने एमएसएमई के फंसे कर्ज के मामले में बैंकों को भी रियायत दी। यह रियायत ऐसे एमएसएमई ऋण से संबंधित थी जो पहले केवल जीएसटी के अनुपालन वाली इकाइयों को हासिल थी। एमएसएमई को सहयोग की आवश्यकता है लेकिन असल समस्या फंसे हुए कर्ज में इजाफे की है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने अप्रैल 2015 में प्रधानमंत्री मुद्रा योजना की शुरुआत की थी ताकि गैर कारोबारी, गैर कृषि छोटे और सूक्ष्म उपक्रमों को 10 लाख रुपये तक का ऋण दिया जा सके। वाणिज्यिक बैंक, क्षेत्रीय ग्रामीण बैंक, सूक्ष्म वित्त बैंक, सहकारी बैंक, सूक्ष्म वित्त संस्थान और एनबीएफसी आदि सभी ऐसे ऋण देते हैं। इनकी ब्याज दर 8 से 12 फीसदी होती है। सरकारी बैंकों द्वारा दिए गए मुद्रा ऋण का एनपीए 2016-17 के 3,790.35 करोड़ रुपये से करीब दोगुना बढ़कर 2017-18 में 7,277.31 करोड़ रुपये हो गया। बैंकों ने कुल मिलाकर 2017-18 में 2.53 लाख करोड़ रुपये और 2016-17 में 1.80 लाख करोड़ रुपये का ऋण वितरित किया था। वर्ष 2018-19 में 3 लाख करोड़ रुपये के ऋण वितरण का लक्ष्य है।

मार्च 2018 तक सरकारी बैंकों के मुद्रा ऋण का 3.43 प्रतिशत एनपीए है जबकि कुल ऋण का 5.30 प्रतिशत एनपीए है। इन्क्लूसिव फाइनैंस इंडिया रिपोर्ट में कहा गया है कि एमएसएमई क्षेत्र में घटती हिस्सेदारी के बावजूद सरकारी बैंक 10 लाख रुपये से नीचे के ऋण में 79 फीसदी हिस्सेदारी रखते हैं। बैंकिंग उद्योग का कुल फंसा हुआ कर्ज इसका 11.2 फीसदी है। देश में करीब 6.3 करोड़ एमएसएमई हैं जिनमें 11.1 करोड़ से अधिक कामगार हैं। यह देश के विनिर्माण उत्पादन के 45 प्रतिशत और निर्यात के 40 प्रतिशत के लिए जवाबदेह है। परंतु इन्हें लक्षित ऋण नहीं मिल पाता। बैंक जमा के लिए लक्ष्य तय हो सकता है क्योंकि बैंकर किसी भी व्यक्ति से जमा करने को कह सकता है। ऐसे जमाकर्ताओं को खाते में पैसा भी नहीं रखना होता है और अगर वे दो वर्ष में एक ही लेनदेन करें तो भी बैंक शिकायत नहीं करेंगे। परंतु यह बात ऋण के मामले में नहीं लागू होती। दबाव में कई बैंक मुद्रा ऋण लेने वालों को तलाशते रहते हैं। इस प्रक्रिया में उनका ऋण जोखिम बढ़ता जाता है। आज हमारे सामने जो कुछ है, वह तो महज शुरुआत है।


Date:23-01-19

डेटा संरक्षण

संपादकीय

अहमदाबाद में वाइब्रेंट गुजरात सम्मेलन को संबोधित करते हुए रिलायंस इंडस्ट्रीज के चेयरमैन मुकेश अंबानी ने व्यक्तिगत डेटा के स्वामित्व से जुड़े ऐसे सवालों की ओर ध्यान आकृष्ट किया जो आने वाले दिनों में नियामकों के लिए महत्त्वपूर्ण विषय हो सकते हैं। अंबानी ने कहा कि नई विश्व व्यवस्था में डेटा की महत्ता पुरानी व्यवस्था में महत्त्वपूर्ण रहे तेल के समान है और यह नई तरह की संपदा है। उन्होंने कहा कि इसी वजह से भारतीय डेटा का नियंत्रण और स्वामित्व भारतीयों के पास होना चाहिए, न कि कंपनियों, खासतौर पर विदेशी कंपनियों के पास। इस मसले को लेकर अंबानी की राय सही है और उन्हें इस बात के लिए बधाई दी जानी चाहिए कि वह निरंतर इस मुद्दे को उठाते रहे हैं कि डेटा स्वामित्व भविष्य में देश की वृद्धि के लिहाज से अहम है। बहरहाल, देश में हालिया नियामकीय और नीतिगत कदमों के संदर्भ में देखे तो कुछ ऐसे सवाल भी हैं जो अंबानी के कदमों से संबंधित हैं।

अंबानी, जियो के भी मालिक हैं जिसने देश के दूरसंचार और डेटा क्षेत्र में उथलपुथल मचा दी है। ऐसे में जब वह कहते हैं कि देश के डेटा पर कंपनियों का नहीं बल्कि भारतीयों का नियंत्रण और अधिकार होना चाहिए तो वह गलत नहीं कहते। यह बात अलग है कि भारतीय और वैश्विक कंपनियों के बीच अंतर रेखांकित किए जाने को यहां उनके द्वारा अपने फायदे के लिए इस्तेमाल की गई बात कहा जा सकता है। परंतु इसे देश में डेटा स्वामित्व की उपभोक्तान्मुखी नीति तैयार करने का न तो आधार माना जा सकता है और न ही माना जाना चाहिए। एक बार जब डेटा स्वामित्व का अधिकार निजी तौर पर भारतीयों को मिल गया है तो यह उन पर छोड़ देना चाहिए कि वे उसका क्या करते हैं। आखिरकार यह उनकी संपत्ति ठहरी। अगर उनको किसी गैर भारतीय कंपनी से अच्छी कीमत या अच्छी सेवा मिलती है तो उसे यह अधिकार उन्हें देने का हक होना चाहिए। हां, ऐसा राष्ट्रीय सुरक्षा को ध्यान में रखकर ही किया जाना चाहिए। यह मुक्त व्यापार का मूलभूत सिद्धांत है जो यहां भी लागू होता है। अन्य क्षेत्रों की तरह यहां भी यह सुनिश्चित करेगा कि उपभोक्ताओं को प्रतिस्पर्धी शक्तियों के बीच उच्चतम संभावित मूल्य प्राप्त हो। इसका विकल्प यह हो सकता है कि प्राथमिकता वाली भारतीय कंपनियों का एक समूह बनाया जाए जो प्रतिस्पर्धा से परे हो ताकि वे उपभोक्ताओं का लाभ ले सकें। डिजिटल क्षेत्र में बॉम्बे क्लब जैसी लॉबीइंग की दलील स्वीकार्य नहीं है।

इस चर्चा का संदर्भ ध्यान देने लायक है। हाल के दिनों में कंपनियों और नियामकों के बीच डेटा के स्थानीयकरण की बात कई बार उभरी है। भारतीय रिजर्व बैंक ने गत वर्ष विभिन्न पेमेंट सिस्टम को आदेश दिया था कि वे अपने डेटा को स्थानीय स्तर पर रखें ताकि केंद्रीय बैंक उसकी बेहतर निगरानी कर सके। यह सुविचारित कदम नहीं था क्योंकि इससे भुगतान तंत्र की लागत में इजाफा होना था और देश के नागरिकों की निजता में कमी भी आनी तय थी। इतना ही नहीं सरकार द्वारा नियुक्त एक समिति ने मांग की कि न केवल भुगतान बल्कि भारतीय नागरिकों से जुड़े काम कर रही तमाम कंपनियों के डेटा सेंटर भारत की सीमा में स्थापित किए जाएं। ऐसा ही नियम ई-कॉमर्स कंपनियों पर भी लागू किया जा सकता है। ये तमाम बातें कारोबार के लिए अस्वीकार्य गतिरोध खड़े करती हैं और भारतीय डेटा के संरक्षण के नाम पर उपभोक्ताओं को ही नुकसान पहुंचाती हैं। ऐसे नियमन के केंद्र में भारतीय उपभोक्ता होने चाहिए, न कि भारतीय कंपनियां या अफसरशाह। सरकार और नियामकों को अंबानी की बातों पर ध्यान देना चाहिए लेकिन उनका क्रियान्वयन इस तरह नहीं किया जाना चाहिए कि केवल भारतीय कंपनियों को लाभ हो।


Date:22-01-19

खतरे की घंटी

संपादकीय

आने वाले वक्त में दूध और कृषि उत्पादों के जिस घोर संकट का अंदेशा कृषि मंत्रालय ने जाहिर किया है, वह बड़ी चेतावनी है। कृषि मंत्रालय ने खेती, दूध उत्पादन और पशुपालन पर जलवायु संकट के प्रभाव का अध्ययन करवा कर संसदीय समिति को इसकी रिपोर्ट सौंपी थी। पर्यावरण, वन एवं जलवायु परिवर्तन मंत्रालय से संबद्ध संसद की प्राक्कलन समिति ने अपने प्रतिवेदन में कृषि मंत्रालय की इस आकलन रिपोर्ट का जिक्र किया है। पिछले कुछ सालों में जिस तेजी से ऋतु-चक्र बदला है, उसका कृषि पर गंभीर असर पड़ा है। कृषि, पशुपालन और दूध उत्पादन तीनों ही एक-दूसरे से जुड़े हैं और मौसम परिवर्तन का इन पर गहरा प्रभाव पड़ता है। इसके अलावा, आबादी का बड़ा हिस्सा कृषि और पशुपालन पर ही निर्भर है, इसलिए यह चिंता और बढ़ जाती है। अगर खेती नहीं बचेगी तो किसान करेगा क्या, लोगों को अनाज कहां से मिलेगा, पशुधन नहीं बचेगा तो दूध कहां से आएगा? ये ऐसे सवाल हैं जो तत्काल ठोस समाधान की मांग रहे हैं।

कृषि मंत्रालय की रिपोर्ट में कहा गया है कि जलवायु संकट के कारण खेती पर जो असर पड़ने वाले हैं, वे अगले दशक में दिखने लगेंगे। उदाहरण के लिए, 2020 तक चावल की पैदावार में चार से छह फीसद, मक्का में अठारह फीसद, आलू में ग्यारह फीसद और सरसों की पैदावार में दो फीसद तक की कमी आ सकती है। वातावरण का तापमान एक डिग्री बढ़ने से गेहूं की पैदावार साठ लाख टन तक घट सकती है। इस संकट का असर जिन राज्यों पर सबसे ज्यादा पड़ सकता है उनमें उत्तर प्रदेश, राजस्थान, तमिलनाडु और पश्चिम बंगाल हैं। तापमान बढ़ने से इन राज्यों में पानी की कमी होगी और इसका सीधा असर पैदावार और पशुधन पर पड़ेगा। इससे दूध उत्पादन में भी भारी कमी आएगी। कृषि मंत्रालय की रिपोर्ट में कहा गया है कि अगर तत्काल कदम नहीं उठाए गए तो 2020 तक दूध उत्पादन में 1.6 मीट्रिक टन की कमी आ सकती है और अगले तीन दशकों में यह संकट दस गुना बढ़ जाएगा। कृषि मंत्रालय की यह रिपोर्ट केंद्र और राज्यों की सरकारों के लिए खतरे की घंटी है।

जलवायु संकट बीसवीं सदी के अंधाधुंध विकास की देन है। इससे निपटने की दिशा में पिछले तीन-चार दशक में दुनिया के देश ज्यादा सचेत हुए हैं। हर साल वैश्विक स्तर पर जलवायु सम्मेलन हो रहे हैं और सारे देश इस विचार-विमर्श और संकल्प के साथ लौटते हैं कि वे जलवायु संकट के सबसे महत्त्वपूर्ण और जिम्मेदार कारक कार्बन उर्त्सजन को कम करने की दिशा में तेजी से काम करेंगे, ताकि धरती और वायुमंडल के तापमान को बढ़ने से रोका जा सके। लेकिन जलवायु संकट गहराता इसलिए जा रहा है कि इस दिशा में कोई भी देश ठोस कदम नहीं उठा रहा है। भारत और अन्य विकासशील देशों के लिए यह एक बड़ी चुनौती है। बड़ी आबादी के लिए अनाज और दूध का बंदोबस्त करना आसान नहीं है। भारत का कृषि क्षेत्र और किसान पहले से ही गंभीर संकटों से जूझ रहे हैं। किसानों की आबादी का बड़ा हिस्सा गरीबी में जी रहा है और मुश्किल हालात में खेती करने को मजबूर है। सरकारों की ओर से कर्जमाफी के अलावा किसानों को आत्मनिर्भर बनाने के लिए ठोस प्रयास होते नहीं दिख रहे। संसदीय समिति ने भी इस बात पर अप्रसन्नता जाहिर की है कि कृषि क्षेत्र को जलवायु संकट से बचाने के लिए जो कदम उठाने चाहिए, वे नहीं उठाए गए। ऐसे में कृषि और दूध उत्पादन के लिए अभी से कारगर रणनीति नहीं बनाई गई तो आने वाली पीढ़ियों पर इसका क्या असर पड़ेगा!


Date:22-01-19

बढ़ती गैर-बराबरी

संपादकीय

पूरी दुनिया, खासकर भारत की राजनीति में अक्सर एक बात कही जाती रही है कि गरीब और अधिक गरीब हो रहा है। बहुत से अर्थशास्त्रियों ने इसे तमाम आंकड़ों के आधार पर गलत साबित करने की कोशिश भी समय-समय पर की है, तथ्यगत रूप से शायद वे सही भी हैं। हकीकत कभी भी उतनी अच्छी नहीं होती, जितनी राजनीतिक दावों में दिखाई जाती है, और कभी भी वह उतनी बुरी नहीं होती, जितनी राजनीतिक नारों में बताई जाती है। आर्थिक विषमता पर ऑक्सफैम की रिपोर्ट यही बता रही है कि दुनिया में गैर-बराबरी की जो हकीकत है, उसे किसी भी तरह से अच्छा तो नहीं ही कहा जा सकता। पिछले साल के आंकड़ों के आधार पर तैयार की गई यह रिपोर्ट बताती है कि पूरी दुनिया में अमीर और गरीब का अंतर न सिर्फ लगातार बढ़ता जा रहा है, बल्कि काफी तेजी से बढ़ रहा है। पूरी दुनिया के सिर्फ 26 अमीरों के पास इस समय इतनी संपत्ति है, जितनी दुनिया के 3.8 अरब लोगों के पास भी कुल मिलाकर नहीं है। यह हाल सिर्फ बाकी दुनिया का ही नहीं, भारत का भी है। देश की महज एक फीसदी आबादी के पास कुल 51.53 फीसदी संपत्ति है। पिछले कई दशकों से हम अपनी अर्थव्यवस्था को विकसित विश्व अर्थव्यवस्था से जोड़ने और उसकी तरह बनाने की कोशिश करते रहे हैं, कम से कम विषमता के मामले में तो शायद यह लक्ष्य पूरा हो ही गया है।

पिछले तकरीबन तीन दशक को अगर हम छोड़ दें, तो उसके पहले की डेढ़ सदी में इस दुनिया ने बहुत सारी ऊर्जा वह रास्ता तलाशने में खपाई है, जिससे दुनिया की आर्थिक विषमता को खत्म किया जा सके। इस बीच समता मूलक समाज बनाने के साम्यवाद और समाजवाद जैसे कट्टर सिद्धांत न सिर्फ गढे़ गए, बल्कि उस सपने को धरती पर उतारने की लड़ाइयां भी लड़ डाली गईं। मगर भारी जनहानि के बाद दुनिया आखिर में इसी नतीजे पर पहुंची कि बराबरी कायम करने की जबरिया कोशिशों से सिवाय इसके और कुछ हासिल नहीं होता कि अपनी आजादी से भी वंचित हो जाते हैं। आर्थिक समानता तो भले ही मिले न मिले, इसके चक्कर में उनसे राजनीति और अवसर की आजादी भी छिन जाती है। 21वीं सदी में हमने जो दुनिया पाई है, वह आर्थिक समता की अवधारणा से मोहभंग की दुनिया है, और दुखद यह है कि इसका नतीजा विषमता बढ़ने में हो रहा है। जिस समय साम्यवाद और समाजवाद के सिद्धांत दुनिया के आसमान पर थे, उस समय एक वैकल्पिक सिद्धांत भी था, जिसे ट्रिकल डाउन थ्योरी कहा जाता था।

यह सिद्धांत कहता था कि जब कुल जमा अर्थव्यवस्था बढ़ेगी, संपत्ति का बड़े पैमाने पर निर्माण होगा, वह संपत्ति छन-छनकर नीचे गरीबों तक भी पहुंचेगी। लेकिन साम्यवाद और समाजवाद की तरह ही इस सिद्धांत की भी पोल खुल चुकी है। दुनिया में आर्थिक विषमता बढ़ रही है- यह सिर्फ एक तथ्य है। ज्यादा बड़ी बात यह है कि हमारे पास इस समस्या से उबरने की कोई नई सोच नहीं है। न कोई विचारक इसका रास्ता सुझा रहा है और न कोई राजनीति इसका वादा या भरोसेमंद दावा कर रही है। ऑक्सफैम ने यह रिपोर्ट वल्र्ड इकोनॉमिक समिट की दौरान जारी की है। यह ऐसा सालाना मजमा है, जिसमें दुनिया के बड़े उद्योगपति, नीति-नियामक और राजनेता जुटते हैं, यहां यह जानना भी दिलचस्प होगा कि बढ़ती विषमता के बारे में वे क्या सोचते हैं? क्या उनके पास इसका कोई विश्लेषण है?


Date:22-01-19

Justice delayed is markets stymied

In a market economy like India, a strong judiciary is required for quick settlement of disputes

Sameer Malik & Sanjib Pohit, ( Sameer Malik and Sanjib Pohit are with the National Council of Applied Economic Research.)

Since the 1991 economic reforms, India has improved tremendously in almost all economic indicators, and is now one of the fastest growing nations in the world. Various economic policies of the current government have enabled the economy to move faster than ever before. These include tax reforms leading to the introduction of the Goods and Services Tax, reforms making India more competitive in the ‘Ease of Doing Business’ index, and implementation of the Insolvency and Bankruptcy Code. But it has never been more important to also strengthen the quality of the material which makes up the engine of the economy, i.e. India’s institutions. As a democracy, India has an advantage: the roots of all its institutions are strong. However, they have simply failed to grow with the growing population and with increasing demands. The judicial system, in particular, is far from reaching the pace required for efficient functioning.

An inefficient judiciary

The importance of the judiciary cannot be underplayed in a market economy. Three things are crucial for the market economy to function efficiently: transparency in information, efficient dispute settlements, and contract enforcement in a time-bound manner powered by an effective judiciary. In a market economy, the government has little role to play in transactions among players. However, it plays an effective role by setting up efficient dispute settlement mechanisms, so that the costs of transactions are minimal. In such an economy, the judiciary plays the pivotal role by enforcing contracts in the case of disputes through minimal costs.

Over the years, and with the advent of the Internet, India has taken a leap towards transparency of information. However, little progress has been made in the case of dispute settlement mechanisms due to an inefficient judiciary. The situation is so desperate that the Economic Survey of 2017-18 had to set aside an entire chapter on the need for ‘Timely Justice’. It noted that the current working capacity of the High Courts and the Supreme Court is only 63.6%. Plus, there are huge numbers of pending cases: 1.8 lakh in six of the major tribunals, and close to 3.5 million in the High Courts. For economic cases, the average duration of pendency is about 4.3 years for the five major High Courts. The Centre and the States approximately spend 0.08-0.09% of the GDP on administration of justice, which is very low. In 2017, India spent about ₹0.24 per person on the judiciary; the U.S. spent  ₹12. Even though, understandably, it is a little punitive to compare India’s budget with that of the most powerful economy in the world, the point is to set out a benchmark for India.

The problem is with economic theory

Unlike our policymakers, those in other countries seem to have realised the importance of the judiciary in the efficient functioning of a market economy. The problem here lies with economic theory. The proponents of reform belong to the school of neoclassical economics, and are taught that transactions are costless. However, the writings of Richard Coase and Douglass North have taught us that in reality, the rules and regulations that affect economic activity determine whether transactions are costless or not. This theory of new institutional economics questions the two crucial assumptions of neoclassical economics — costless transactions and perfect information — and stresses the role of institutions in facilitating market exchange by reducing transaction costs, providing a predictable framework for exchange, and overcoming imperfect information. In India, there are few practitioners of new institutional economics and that could explain why this aspect has not been addressed in the past decade.

The low focus on the judiciary obviously implies that non-compliance of contracts is not at all costly in India. The official dispute settlement mechanism does not deliver justice in a time-bound manner. Consequently, players are willing to bypass the system by paying rents to government officials, a system that became customary in the License Raj. Officials are willing to accept quick money since there is little chance of getting caught, making venality a norm. Of course, studies in political economy have shown that strengthening institutions and political power enjoyed by the incumbent are in conflict of interest. Thus, the Opposition also has a major role to play in the solidification of institutions, including, and especially, the judiciary. Strong institutions are the key to move India up the economic ladder. Otherwise, India will remain a land of crony capitalists.


 

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