21-11-2018 (Important News Clippings)

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21 Nov 2018
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Date:21-11-18

Solving BOTs Through TOTs

Swaminathan S Anklesaria Aiyar is consulting editor of The Economic Times.

The Narendra Modi government has failed to privatise any public sector undertaking (PSU). Its sale of minority stakes in several PSUs is disinvestment, not privatisation — the latter implying a transfer of management to a private sector party to gain efficiency and conserve government money for public goods. However, arguably, privatisation by another name is happening through the toll-operate-transfer (TOT) scheme for roads. Thirty-year leases of existing toll roads are being auctioned to private operators, who win the right to collect tolls, maintain the roads, and transfer them back to GoI after 30 years. At that point, a fresh auction will be held for another 30 years. By transferring management control from GoI to private parties, TOT fulfils a core requirement of privatisation, even though Modi has carefully avoided using that word.

Doesn’t Take a Toll

This monetisation of government assets can be scaled up hugely to auction other forms of GoI infrastructure. This has already happened to some extent in airports. It can be extended to power plants, railways, ports, dams, canals and other infrastructure assets. That will raise large sums for much-needed investment in new infrastructure. The first TOT auction covering 698 km in Gujarat and Andhra Pradesh fetched Rs 9,681 crore last March, the winner being a joint venture of Ashok Buildcon and Australia’s Macquarie. A roadshow for the second auction, aiming to garner at least Rs 5,362 crore, was launched on November 15, and the auction will be completed by December 5. It covers 586 km of national highways in eight sections across Bihar, Rajasthan, Gujarat and West Bengal. All auction proceeds will go into the building of fresh infrastructure. This will help to overcome the shortage of funds that has long plagued infrastructure.

UPA 2 tried to tackle the resource constraint by promoting massive public-private partnerships (PPPs). This approach ended badly in major stranded and failed projects that cannot repay lakhs of crores borrowed from banks. Many PPPs suffered long delays in land acquisition, environmental and other clearances, and in getting coal linkages or rail connections.

Historically, government infrastructure projects routinely suffered big cost- and time-overruns. Such projects were typically launched without land being acquired in advance or clearances being obtained for environmental and other reasons. The cost overruns were plugged by additional government money. But in PPPs, no additional government funds were available to meet cost overruns.

Such projects depended heavily on debt, often to the tune of 70-80% of total cost. In such highly leveraged contracts, a delay of even 12 months could mean insolvency. The Supreme Court added to the problem by cancelling coal and spectrum auctions and banning iron ore mining in some states. Road traffic projections frequently turned out to be hopelessly inflated. In other cases, gas to be delivered by Reliance never materialised.

Guaranteed Delays

An overarching reason for failure was also the winner’s curse. The most optimistic bidders would win auctions with high bids that soon proved unviable. In the bad old licence-permit raj, companies aimed to get contracts by hook or by crook, and then manipulate politicians to amend and make the contracts profitable. Such manipulation ended with the Anna Hazare anti-corruption wave. Today, getting a project by hook or by crook can be a recipe for bankruptcy. Many early PPPs had a build-operate-transfer (BOT) framework. The private party would build the project, operate it for a fixed number of years, and then transfer it to the government. This was a seriously flawed framework. The highest risks, of delays in land, clearances and finance, were borne by private operators with limited finance that could not bear the cost of delay.

By contrast, GoI, which had the greatest financial and risk-taking capacity, bore the least risk, as it collected auction money upfront and ultimately inherited a functioning project. This model needed inversion. The greatest risk, in clearances and construction, needed to be taken up by GoI. Indeed, many risks — such as delays in land acquisition and environmental clearances — were government-made. So, it was appropriate for GoI to bear the cost of the consequences. The private sector, with its limited financial and risk-taking capacity, needed to be assigned a less risky role. One riskless route was engineering, procurement and construction (EPC) deals, where GoI provided all funding, and the private parties simply executed government contracts.

But GoI lacked money for such massive funding. Enter TOT. In this framework, GoI builds the project, operates it for 30 years, and then leases the project to private parties, who have the low-profit, low-risk task of operating and maintaining it for 30 years. TOT rectifies the deep risk-sharing weaknesses of BOT and regularly garners fresh funds for investment.

Earlier, GoI focused on a reduced risk approach called the ‘annuity hybrid’. In this, GoI-owned National Highways Authority of India (NHAI) provided 40% of the cost upfront to a joint venture, plus an annual stream of payments linked to road traffic and maintenance. However, banks have not been enthusiastic. Reportedly, 64 out of 115 hybrid projects have failed to reach financial closure. Better models are needed, and TOT looks the most promising.


Date:20-11-18

पेरिस न मानें तो विपत्ति

संपादकीय

सयुक्त राष्ट्र के महासचिव एंटोनियो गुटेरेस का यह कहना बिल्कुल सही है कि जलवायु परिवर्तन पर पेरिस समझौता का कोई विकल्प नहीं है। लेकिन गुटेरेस को ऐसा क्यों कहना पड़ा? तीन वर्ष पूर्व फ्रांस की राजधानी में दुनिया भर के नेताओं ने पृवी को बचाने के लिए समझौते में सबने अपने-अपने देशों और सामूहिक दायित्व तय किए थे। तीन साल बाद उस समझौते की परिणति क्या है, कहना कठिन है। अगले महीने पोलैंड के कटोविस शहर में 3 दिसम्बर से 14 दिसम्बर तक जलवायु परिवर्तन पर संरा के फ्रेमवर्क कन्वेंशन का 24वां सम्मेलन (कोप 24) आयोजित हो रहा है। पेरिस समझौता लंबी बातचीत के बाद संभव हुआ था और भारत की उसमें महत्त्वपूर्ण भूमिका थी। अमेरिका भी उसका साझेदार था। किंतु डोनाल्ड ट्रंप ने सत्ता में आने के बाद कह दिया कि अमेरिका उसे समझौते से बाहर आ जाएगा। वे माने नहीं। यह समझौता नवम्बर 2016 से लागू हो चुका है। 197 में से 184 देशों ने इसकी मंजूरी दी है। किंतु अमेरिका जैसा देश इससे सहमत नहीं है तो इसके सफल होने की संभावना अत्यंत कम हो जाती है।

अमेरिका का कहना है कि इसमें चीन और रूस जैसे देशों को पूरी छूट मिल गई हैं, भारत को विकासशील देश होने के नाते क्षतिपूर्ति मिलनी है और हमारे न केवल हाथ-पैर बांधे गए हैं, बल्कि हमें खबरों को डाल देने को बाध्य किया गया है। इस स्थिति के बीच कोप 24 आयोजित हो रहा है। सम्मेलन के तीन मुख्य लक्ष्य निर्धारित हैं-पर्यावरण के अनुकूल तकनीक का विकास, पर्यावरण के पक्ष में काम करने वाले समाज को एकजुट करना और पर्यावरण निष्पक्षता हासिल करना। इनमें आरंभिक दो पर सहमति हो जाएगी। हालांकि इसे अमल में लाना आसान नहीं है। तकनीक का विकास तो नियंतण्र सहयोग से हो सकता है। इसमें विकसित देशों की मुख्य भूमिका होगी। लेकिन पर्यावरण निष्पक्षता ऐसा विषय है, जिस पर सहमति कठिन है। पेरिस समझौते का मूल लक्ष्य ग्रीन उत्सर्जन को कम करके पूर्व औद्योगिक स्तर से ऊपर औसत नियंतण्र तापमान से दो डिग्री सेल्सियस से नीचे बनाए रखना है, वरना विपत्तियां आ सकतीं हैं। पृवी और वायुमंडल को बचाना है तो विश्व को संकल्प और साहस के साथ कदम उठाने ही होंगे। अमेरिका भले क्षतिपूर्ति न देना चाहता हो, पर पृवी बचाने की जिम्मेवारी उसकी भी है।


Date:20-11-18

अमेरिकी तेवर के मायने

संपादकीय

अमेरिका के राष्ट्रपति हमारे समय के सबसे विवादास्पद अंतरराष्ट्रीय व्यक्तित्व हैं। उनके तमाम बयान और विवाद हर रोज हमारे सामने आते रहते हैं। तमाम ऊट-पटांग बातों के बीच अगर वह कुछ समझदारी की बात भी कहते हैं, तो लोग उसे गंभीरता से नहीं लेते। यह तय कर पाना हमेशा मुश्किल होता है कि उनकी बात को कितना अमेरिकी सरकार की नीतियों से जोड़कर देखा जाए और कितना राष्ट्रपति की फितरत से। पाकिस्तान के बारे में उनका ताजा बयान भी हमारे सामने इसी धर्मसंकट के साथ उपस्थित हुआ है। फॉक्स न्यूज को दिए गए एक इंटरव्यू में उन्होंने पाकिस्तान को काफी खरी-खोटी सुनाई है।

उनका कहना है कि पाकिस्तान ने अमेरिका के लिए कुछ नहीं किया, जबकि उसने पाकिस्तान को 1.3 अरब डॉलर की सालाना मदद दी है। इस संबंध में ट्रंप ने खासकर ओसामा बिन लादेन का जिक्र किया। उन्होंने कहा कि दुनिया का यह मोस्ट वांटेड आतंकवादी पाकिस्तान के एक सैनिक शहर में आलीशान घर बनवाकर आराम से रह रहा था और उसने कोई कदम नहीं उठाया। ‘वह वहां मिलिट्री एकेडमी के ठीक पास में रह रहा था और सब उसके बारे में जानते थे, लेकिन कुछ नहीं हुआ’। बाद में अमेरिका के नेवी सील कमांडो ने एबटाबाद के इसी घर में जाकर ओसामा बिन लादेन को मार गिराया था। इंटरव्यू में ट्रंप से पाकिस्तान को अमेरिकी प्रशासन द्वारा बंद कर दी गई 30 करोड़ डॉलर की मदद के बारे में सवाल पूछा गया था और जवाब में उन्होंने यह सब कहा। उन्होंने यह भी जोड़ा कि जो लोग अफगानिस्तान में अमेरिकी सैनिकों को मार रहे हैं, पाकिस्तान उन्हें सुरक्षित पनाहगाह उपलब्ध करा रहा है।

वैसे ट्रंप ने जो कहा, वह उनका निजी विचार ही नहीं है, अमेरिका के आम और खास लोग भी अक्सर ऐसी ही बात करते सुनाई दे जाते हैं। दिक्कत यह है कि यह धारणा अमेरिकी सरकार की नीतियों में कभी नहीं दिखाई देती। अब जब खुद अमेरिकी राष्ट्रपति ही यह कह रहे हैं, तो इसे क्या माना जाए? यह सच है कि अमेरिका अब पाकिस्तान के प्रति उतना उदार नहीं रहा, जितना कि कभी पहले हुआ करता था। लेकिन अमेरिका की दिक्कत यह है कि उसकी अफगान रणनीति में पाकिस्तान की केंद्रीय भूमिका शुरू से ही रही है, और यह अभी भी बनी हुई है। इसका एक सीधा सा अर्थ यह है कि जब तक अमेरिकी सैनिक अफगानिस्तान में हैं, अमेरिका को पाकिस्तान की जरूरत पड़ती रहेगी। एक दूसरी संभावना यह हो सकती है कि अमेरिका कोई वैकल्पिक अफगान रणनीति बनाए, फिलहाल तो यह होता दिख नहीं रहा।

हमारे सामने एक ही विकल्प है कि हम ट्रंप के इस बयान को भी उनके उन्हीं प्रलाप में से एक मान लें, जिनके लिए वह मशहूर रहे हैं। बयान से इस नतीजे पर तो नहीं पहुंचा जा सकता कि अमेरिका की पाकिस्तान नीति अब तेजी से या नाटकीय ढंग से बदलने वाली है। हालांकि जिस तरह से आलोचनाएं बढ़ रही हैं, उनमें यह नीति बिना बदले रह पाएगी, ऐसा भी नहीं लगता। कुछ बदलाव धीरे-धीरे होते हैं। पाकिस्तान को सैनिक मदद बंद करने की घोषणा को बदलाव की शुरुआत भी माना जा सकता है। पाकिस्तान इस समय भारी आर्थिक संकट से गुजर रहा है, ऐसे में ये छोटी-छोटी कटौतियां भी बड़ा असर दिखा सकती हैं, बशर्ते बयानों से आगे जाकर उनसे कोई दबाव भी जुड़ा हो।


Date:20-11-18

चीन के साथ मालदीव ने करार तोड़ा

द्वीपीय देश में सत्ता परिवर्तन के बाद भारत की कूटनीतिक पकड़ और मजबूत हुई

मोहम्मद नशीद

मालदीव के नवनिर्वाचित राष्ट्रपति इब्राहिम मोहम्मद सोलिह के सत्ता संभालते ही देश में चीन का प्रभाव कम होने लगा है। अब मालदीव का झुकाव भारत की ओर बढ़ता नजर जा रहा है। देश की गठबंधन सरकार में शामिल सबसे बड़ी पार्टी के प्रमुख ने सोमवारको चीन के साथ हुए मुक्त व्यापार करार से मालदीव के बाहर निकलने का ऐलान किया। उन्होंने चीन के साथ हुए इस करार को देश की गलती करार दिया।.

मालदीवियन डेमोक्रेटिक पार्टी के प्रमुख मोहम्मद नशीद के ऐलान से देश में भारत की कूटनीतिक और राजनीतिक रूप से पकड़ मजबूत होती दिख रही है। नशीद ने दुनिया की दूसरी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था चीन के साथ हुए करार को मालदीव की गलती करार दिया। उन्होंने कहा कि चीन और मालदीव के बीच व्यापारिक असंतुलन काफी ज्यादा है। इतना बड़ा असंतुलन होने पर कोई भी देश मुक्त व्यापार करार के बारे में नहीं सोच सकता। उन्होंने इस समझौते को एक पक्षीय करार देते हुए कहा कि चीन हमसे कुछ नहीं खरीदता है। बता दें कि शनिवार को नए राष्ट्रपति मोहम्मद सोलिह ने अपना कार्यभार संभालने के बाद कहा था कि देश के खजाने को लूटा गया है। पिछली सरकार पर हमला करते हुए उन्होंने कहा था कि चीन से कर्ज लेने के चलते मालदीव संकट के दौर से गुजर रहा है। माले में चीन के राजदूत ने करार के संबंध में जवाब नहीं दिया है।

चीन के लिए भी अहम

  • चीन मालदीव के सहारे हिंद महासागर में दखल बढ़ाना चाहता है
  • पड़ोसी देशों को अपने पक्ष में करके चीन दक्षिण एशिया में चीन दबदबा बनाए रखना चाहता है
  • मराओ द्वीप समूह के पास शक्तिशाली पनडुब्बी का निर्माण कर चुका है चीन
  • हिंद महासागर में अमेरिका और भारत के साथ अपने प्रभाव की महत्वाकांक्षा
  • मालदीव और अन्य पड़ोसी देशों में पैठ *बढ़ाकर भारत की घेराबंदी करना चाहता है चीन
  • मालदीव के विदेशी कर्ज में करीब 70 फीसदी हिस्सा चीन का हो गया है

मालदीव में चीन का बड़ा निवेश

मालदीव ऐसे कई देशों में से एक है जहां चीन ने अपने बेल्ट और रोड पहल के हिस्से के रूप में राजमार्गों और आवास के निर्माण में अरबों डॉलर का निवेश किया है।

इसलिए भारत के लिए महत्वपूर्ण

  • मालदीव के भारत से अच्छे संबंध होने से यहां चीन दखल कम होगी
  • मालदीव हिंद महासागर में सामरिक रूप से काफी महत्वपूर्ण जगह पर स्थित है
  • यह हमारे देश के लक्षद्वीप समूह से महज 700 किलोमीटर दूर है
  • मालदीव एक ऐसे महत्वपूर्ण जहाज मार्ग से सटा हुआ है जिससे होकर चीन, जापान और भारत जैसे कई देशों को ऊर्जा की आपूर्ति होती है
  • भारत का करीब 97 फीसदी अंतरराष्ट्रीय व्यापार हिंद महासागर के द्वारा ही होता है
  • मालदीव से भारत में भी बड़ी संख्या में वहां के नागरिक शिक्षा, उपचार और कारोबार के लिए आते हैं.

342 मिलियन डॉलर आयात मालदीव ने जनवरी-अगस्त के बीच किया

2.65 लाख डॉलर का कुल निर्यात किया मालदीव ने चीन को

1.80 मिलियन डॉलर का निर्यात किया मालदीव ने भारत को

194 मिलियन डॉलर का आयात किया मालदीव ने भारत से


Date:20-11-18

Maldivian Reprieve

Ibrahim Solih must hit the ground running to stabilise the economy

EDITORIAL

After five years of rule by a government that strong-armed political dissent domestically, the Maldives has put a pro-people administration in power, swearing in Ibrahim Solih, representing the Maldivian Democratic Party, as President on November 17. He has announced a slew of populist policies, and vowed to end an era of “large-scale embezzlement and corruption”. The last is an allusion to the untold millions allegedly paid to officials as kickbacks for various mega-construction projects. The Solih government came to power on the back of a coalition of unlikely bedfellows. The MDP, the party of former President Mohamed Nasheed, has joined hands with the Jumhooree Party of business tycoon Qasim Ibrahim, the Islamic-based Adhaalath Party, and the support base of former President Maumoon Abdul Gayoom. They will have to ensure that ideological differences do not cause the coalition to split at the seams, and unravel the consequences of previous President Abdulla Yameen flinging open the doors to Chinese investment, allowing a cascade of financing that caused the national debt to balloon to nearly a quarter of GDP. But a strategic return to India and its underlying democratic values could back-stop the economic pummelling that Male is sure to face if creditors in Beijing start calling in their dues.

The new government is being cautious, but professedly firm, in unravelling this web of debt. The leadership has promised that what is owed will be paid, and not a penny more; and that wherever opacity cloaked the grant of land, lease rights, construction projects and more, the honouring of debts would be linked to whether a transparent and fair process was followed in the first place. Yet, there is little doubt that China is there to stay in the Maldives, and a balancing agreement will have to emerge through the plethora of commercial contracts the new government would ideally like to renegotiate. In this mission, the renewed bonhomie with India, reflected in the respect accorded to Prime Minister Narendra Modi and the Indian delegation at the inaugural ceremony, will play a crucial role. Innumerable Indians work across the hospitality, education, and health-care sectors of the Maldives economy, and India contributes everything from helicopters to medical visas to Maldivians. The greatest threat to stability comes less from geo-strategic denouements than from within the fabric of its polity. Certain elements that backed the anti-democratic 2012 ‘coup’ that unseated Mr. Nasheed and supported the dramatically centralised power of the previous presidency still abide within the ruling combine. There is only one option for the fledgling coalition government: to strengthen Maldivian institutions and, by extension, democracy.