22-11-2018 (Important News Clippings)

Afeias
22 Nov 2018
A+ A-

To Download Click Here.


Date:22-11-18

यूरोप के संघर्ष पर विश्व युद्ध का ठप्पा

प्रथम विश्व युद्ध की समाप्ति के सौ साल पूरे होने पर बीते सप्ताह पेरिस में दुनिया के करीब 70 देशों के नेता जुटे।

डॉ. विजय अग्रवाल , ( लेखक पूर्व प्रशासक एवं स्तंभकार हैं )

प्रथम विश्व युद्ध की समाप्ति के सौ साल पूरे होने पर बीते सप्ताह पेरिस में दुनिया के करीब 70 देशों के नेता जुटे। इनमें भारत के उपराष्ट्रपति वेंकैया नायडू भी थे। इन नेताओं ने इस भीषण युद्ध में जान गंवाने वालों का स्मरण किया। इसके बाद से दुनिया के अनेक देशों में इस युद्ध का स्मरण करने के लिए अलग-अलग आयोजन हो रहे हैैं। इस क्रम में इस युद्ध के असर का विश्लेषण भी किया जा रहा है, लेकिन इस पर चर्चा मुश्किल से ही हो रही है कि आखिर इस संघर्ष को प्रथम विश्व युद्ध का नाम क्यों दिया गया? यह सवाल इसलिए, क्योंकि इस युद्ध में न तो दुनिया के सभी देश शामिल थे और न ही सभी देशों के हित निहित थे।

प्रथम विश्व युद्ध के इतिहास को सही संदर्भ में प्रस्तुत करने के पहले यहां पर उसकी संक्षिप्त पृष्ठभूमि का जिक्र उचित होगा। 28 जून, 1914 दिन रविवार को ऑस्ट्रिया-हंगरी के उत्तराधिकारी आर्क ड्यूक फ्रेंच फर्डिनेंड जब सराजेवो की सड़कों पर घूम रहे थे तब सर्बिया के एक राष्ट्र प्रेमी ने उनकी हत्या कर दी। ऑस्ट्रिया-हंगरी ने सर्बिया को चेतावनी जारी करने के ठीक एक महीने बाद 28, जुलाई 1914 को उसके खिलाफ युद्ध की घोषणा कर दी। इसके एक महीने बाद ब्रिटेन और यूरोप के अन्य देश बारी-बारी से अपनी सुविधा और फायदे के लिहाज से इन दो गुटों में से किसी एक में शामिल होते चले गए।

इस युद्ध की आग अंतत: चार साल, तीन महीने और 12 दिन बाद 11 नवंबर, 1918 को शांत हुई। जब हम इसे ‘विश्व युद्ध’ कहते हैं तो दरअसल हम इस युद्ध के एक बहुत बड़े सत्य की अनदेखी कर रहे होते हैं। 20वीं शताब्दी के दूसरे दशक का यह कालखंड पूर्णत: यूरोपीय देशों के साम्राज्यवाद का उत्कर्ष काल था। यूरोप में इसके लगभग सात दशक पूर्व से ही तीव्र राष्ट्रवादी भावनाएं अंगड़ाइयां लेने लगी थीं। पूरा यूरोप जो वर्तमान की तुलना में कम ही संख्या में विभक्त था, अपनी-अपनी पहचान के लिए बैचेन हो रहा था। दूसरी तरफ एशिया, अफ्रीका और लैटिन अमेरिकी देशों पर शिकंजा कसे यूरोपीय देशों के खिलाफ भी इन राष्ट्रों में विरोध की शुरुआत हो गई थी।

इस प्रकार यूरोप के बड़े देश न केवल अपने ही महाद्वीप की राष्ट्रवादी चेतना से परेशान थे, बल्कि उन राष्ट्रों से भी परेशान थे जहां शासन करके वे उनका जबर्दस्त आर्थिक शोषण कर रहे थे। यह स्थिति युद्ध के दौरान बनी रही। इस कथित प्रथम विश्व युद्ध में जिन 30 प्रमुख देशों ने भाग लिया उनमें से यदि अमेरिका, चीन और जापान को निकाल दिया जाए तो शेष सभी देश यूरोप के ही थे। अमेरिका भी इसमें युद्ध के अंतिम कुछ महीनों में ही शामिल हुआ। इस युद्ध में यदि उस दौर के गुलाम देशों की भूमिका के बारे में कोई तथ्य दर्ज है तो केवल इतना कि इन देशों के सैनिकों को युद्ध के लिए यूरोप भेजा गया।

जाहिर है कि यह उन राष्ट्रों का अपना निर्णय नहीं था, बल्कि खुद यूरोपीय देशों का निर्णय था, जो इन पर शासन कर रहे थे। जैसे ब्रिटेन भारत पर शासन कर रहा था और इसी कारण हमारे सैनिकों को इस युद्ध में जाना पड़ा। यदि हम उत्तरी अफ्रीका और मध्य-एशिया के यूरोप के नजदीकी वाले क्षेत्रों को छोड़ दें तो यह तथाकथित प्रथम विश्व युद्ध मुख्यत: यूरोप की धरती पर ही लड़ा गया। साथ ही यूरोपीय देशों के बीच ही लड़ा गया था। इसके विध्वंस का सबसे अधिक शिकार भी यूरोप ही हुआ। इसमें जिन साढे़ छह करोड़ सैनिकों ने भाग लिया था उनमें पांच करोड़ से अधिक सैनिक केवल यूरोप के ही थे। स्पष्ट है कि सबसे अधिक सैनिक यूरोप के ही मारे गए थे। इसके बाद शहीद होने वाले सैनिकों में भारतीय सैनिक थे। 1914 से 1918 तक चले इस युद्ध में करीब 11 लाख भारतीय सैनिकों ने हिस्सा लिया, जिनमें लगभग 74 हजार शहीद हुए। इस युद्ध के बाद जो संधियां की गईं वे यूरोपीय देशों के बीच ही की गईं। ये संधियां भी इतनी अव्यावहारिक थीं कि उससे दूसरे विश्व युद्ध का जन्म लेना स्वाभाविक था।

यह कहना गलत नहीं होगा कि दो राष्ट्रों के परस्पर प्रतिशोध की जो चिंगारी इतने विशाल युद्ध में तब्दील हुई उसका एक बहुत बड़ा कारण यूरोप के विभिन्न देशों के बीच परस्पर की गई वे जटिल संधियां थीं जिसने कई राष्ट्रों को न केवल एक-दूसरे के साथ जोड़ दिया था, बल्कि एक-दूसरे के खिलाफ खड़ा भी कर दिया था। यह कम आश्चर्य की बात नहीं कि 1939 में ‘द्वितीय विश्व युद्ध’ शुरू होने के पहले इसे ‘प्रथम विश्व युद्ध’ कहा भी नहीं जाता था। इसका प्रचलित नाम था-‘ग्रेट वार’। हालांकि यूरोप के अन्य दो युद्धों को भी इसी नाम से जाना जाता था। इनमें एक था-जर्मनी का 1618 से 1648 तक का तीस वर्षीय युद्ध और दूसरा फ्रांस के नेपोलियन द्वारा ब्रिटेन के खिलाफ 1793 से 1815 तक लड़ा गया युद्ध। अमेरिका के इतिहासकार भी इसे ‘ग्रेट वार’ के नाम से ही जानते थे। 1939 में जब दूसरा विश्व युद्ध शुरू हुआ तब ब्रिटिश और कनाडा के कुछ इतिहासकारों ने ग्रेट वार को ‘प्रथम विश्वयुद्ध’ कहना शुरू किया। शायद उन्होंने इन दोनों युद्धों की स्पष्ट पहचान के लिए ऐसा किया। जो भी हो, यह अपेक्षाकृत एक बहुत बड़ा युद्ध था।

हर दृष्टि से इसमें विध्वंस भी सबसे अधिक हुआ, लेकिन यह विश्व युद्ध नहीं था। इसे विश्व युद्ध के बजाय यूरोपीय युद्ध कहना अधिक सही होगा। दरअसल यूरोपीय देश, जो उस समय विश्व भर में शासन कर रहे थे और लगभग विश्व बौद्धिकता पर भी उनका काफी कुछ आज जैसा ही कब्जा था, विध्वंस का दोषारोपण स्वयं पर नहीं होने देना चाहते थे। इसीलिए उन्होंने विश्व चेतना को बरगलाने की दृष्टि से इसे एक ऐसा नाम दे दिया ताकि यह पता ही न चल सके कि इसके लिए जिम्मेदार कौन था? एक तरह से यूरोपीय देश बड़ी चालाकी से अपनी जिम्मेदारी से बच निकले। कम से कम हम भारतीय तो यह याद रखें कि यह कथित प्रथम विश्व युद्ध यूरोपीय राष्ट्रों की परस्पर प्रतिस्पर्धा, लोभ और संकीर्णता का परिणाम था। यह भी आवश्यक है कि आज जब संयुक्त राष्ट्र जैसी वैश्विक संस्था अस्तित्व में है तब इतिहास के तथ्यों का पुनर्मूल्यांकन करके उन्हें दुरुस्त किया जाए।


Date:22-11-18

रोजगार सृजन में कैसे मिल सकती है सफलता ?

अजित बालकृष्णन

पिछले दिनों एक दोपहर जब मैं न्यूयॉर्क सिटी के मैनहैटन में मैडिसन एवन्यू में यूं ही टहल रहा था तो मैं खाली पड़े स्टोरों को देखकर ठिठक गया। उनके तमाम रैक खाली थे और जहां तहां ‘किराये पर देना है’ के बोर्ड लगे हुए थे। यह इलाका भी पहले फलफूल रहे रिटेल कारोबार वाले फिफ्थ एवन्यू और ब्रॉडवे से अलग नहीं था। न्यूयॉर्क के कुछ हिस्से मसलन फैशनेबल मानी जाने वाली ब्लीकर स्ट्रीट, अब घोस्ट टाउन (खाली और उजाड़) की तरह नजर आने लगे हैं। अचल संपत्ति क्षेत्र में सूचनाओं का बड़ा स्रोत मानी जाने वाली डगलस एलिमैन के मुताबिक मैनहैटन में इस समय 20 प्रतिशत रिटेल स्टोर खाली पड़े हैं जबकि कुछ वर्ष पहले यह आंकड़ा महज 6 फीसदी था।

ई-कॉमर्स की बात करें तो क्या डिलिवरी बॉय तथा वेयरहाउस में मिलने वाले रोजगारों को अमेरिका में चल रही रोजगार की मौजूदा बहस में शामिल किया जा सकता है। इसके अलावा क्या यह वाकई प्रभावी माना जा सकता है जबकि अमेरिका की कुल खुदरा बिक्री में ऑनलाइन ई-कॉमर्स की हिस्सेदारी 6 फीसदी है। अगर यह बढ़कर 50 प्रतिशत हो जाए तो क्या होगा? मुंबई वापसी पर मैंने जो पहला समाचार पत्र उसमें छपी खबर अपने आप में एक चेतावनी समेटे थी, ‘रेलवे में 90,000 पदों के लिए 2.8 करोड़ लोगों ने किया आवेदन।’

मैंने मन ही मन खुद को धन्यवाद दिया कि मैं राजनेता नहीं हूं और मुझे आगामी चुनावों में अपनी सीट बचाए रखने की जद्दोजहद नहीं करनी है। रोजगार की कमी को लेकर उपजी चिंता जोर पकड़ रही है और राजनीतिक दलों ने इस विषय पर वादों और आरोप प्रत्यारोप का दौर शुरू भी कर दिया है। एक पार्टी कहती है कि युवाओं को अभी भी वादे के मुताबिक दो करोड़ रोजगारों का इंतजार है तो दूसरी पार्टी कहती है कि पिछले एक साल में संगठित क्षेत्र में 70 लाख से अधिक रोजगार सृजित हुए। एक जमाने में तिलक ने कहा था, ‘स्वराज मेरा जन्मसिद्ध अधिकार है।’ आज शायद इसे कुछ इस तरह कहा जाएगा, ‘हर महीने रोजगार की उम्र में पहुंच रहे लाखों भारतीयों को रोजगार प्राप्त करने का अधिकार है।’ साफ कहें तो भारत इकलौता ऐसा देश नहीं है जो रोजगार की समस्या से जूझ रहा है।

अमेरिकी राष्ट्रपति डॉनल्ड ट्रंप ने अब तक आयात शुल्क बढ़ाने, वीजा मानकों को कड़ा करने, मैक्सिको की सीमा पर दीवार बनाने की धमकी जैसे जो भी कदम उठाए हैं उन सबका लक्ष्य भी एक ही है: अमेरिकी लोगों को पर्याप्त रोजगार मुहैया कराना। ब्रिटेन ने ब्रेक्सिट के रूप में यूरोपीय संघ से अलग होने का जो आत्मघाती कदम उठाया वह भी इन चिंताओं के कारण उठाया गया क्योंकि उसे लग रहा था कि यूरोपीय संघ में बने रहने से अन्य यूरोपीय देशों के प्रवासी स्थानीय रोजगार छीन लेंगे।

ऐसा क्या हुआ कि दुनिया भर में अचानक रोजगार सबकी प्राथमिकता में आ गए? रोजगार से जुड़ी चिंताओं की एक बड़ी वजह यह है कि जीडीपी वृद्धि के अनुसार आकलित आर्थिक वृद्धि का अर्थ अब रोजगार में वृद्धि नहीं रह गया है। विश्व बैंक द्वारा भारत समेत दक्षिण एशिया के अर्थशास्त्रियों पर किए गए एक सर्वे (साउथ एशिया इकनॉमिक फोकस स्प्रिंग 2018: जॉबलेस ग्रोथ) में एक सवाल यह पूछा गया कि अगर भारत का जीडीपी एक फीसदी बढ़ता है तो रोजगार में कितनी बढ़ोतरी होगी? 35 प्रतिशत ने कहा कि रोजगार में नाम मात्र की वृद्धि होगी, 32 फीसदी का कहना था कि रोजगार में 0.3 फीसदी की बढ़ोतरी होगी, 25 प्रतिशत ने कहा कि रोजगार वृद्धि 0.3 फीसदी से एक फीसदी के बीच रहेगी जबकि केवल चार प्रतिशत ने कहा कि यह एक प्रतिशत से अधिक रहेगी। सबसे बुरी बात तो यह कि उनके मुताबिक रोजगार में जो बढ़ोतरी औपचारिक क्षेत्र में होनी थी वह असंगठित क्षेत्र में होगी।

हकीकत यह है कि कितने और किस प्रकार के रोजगार सृजित होंगे यह बात हमारे सामाजिक ढांचे को भी प्रभावित करेगी। पीटर ब्लाऊ और ओटिस डंकन ने अपनी महत्त्वपूर्ण पुस्तक ‘द अमेरिकन ऑक्युपेशनल स्ट्रक्चर’ में कहा है कि पेशे का ढांचा समकालीन समाज के स्तरीकरण का आधार है और जैसे जैसे सामंती घराने और वंशानुगत जाति व्यवस्था समाप्त होगी, वर्गीय भेद समाप्त होंगे और उनका स्थान पेशेवर भूमिका लेगी। इसके साथ ही संबद्ध आर्थिक लाभ भी सामने आएंगे। पूर्व शिक्षा सचिव अशोक ठाकुर और एआईसीटीई के पूर्व चेयरमैन एसएस मंथा दो ऐसे लोग थे जिन्हें पता था कि वे क्या बात कर रहे हैं। गत सप्ताह इंडियन एक्सप्रेस में लिखे एक लेख में उन्होंने कहा कि हाथ से काम करने वालों को लेकर गहरा सामाजिक पूर्वग्रह है क्योंकि इसे नीचा और अपमानजनक माना जाता है। यही वजह है कि सन 1960 के दशक में कोठारी आयोग के बाद बारहवीं की पढ़ाई के साथ अनिवार्य रूप से जोड़ा गया व्यावसायिक शिक्षा का पाठ्यक्रम नाकाम साबित हुआ।

यहां तक कि कौशल विकास के लिए नया मंत्रालय गठित करके कौशल विकास के काम को गतिशील बनाने का एक बेहतरीन प्रयास भी नाकाम ही रहा। उनका मानना है कि छात्रों को कक्षा नौ से ही व्यावसायिक पाठ्यक्रम में डाल देना समस्या का हल हो सकता है। उनका मानना है कि अगर इसे स्कूली और विश्वविद्यालयों के पाठ्यक्रम का हिस्सा बना दिया जाए तो व्यावसायिक शिक्षण को लेकर पूर्वग्रह दूर होंगे। रोजगार के मामले का एक दूसरा पहलू भी है: कई कारोबार देश में केवल इसलिए विकसित नहीं हो पा रहे क्योंकि लोगों के पास उनके लिए आवश्यक कौशल नहीं है। यह उस समय पर खासतौर पर होता है जबकि तकनीक परिदृश्य बदलाव के दौर से गुजर रहा हो। इसलिए कि हम सूचना के युग में हैं।

पाठ्यक्रम पीछे छूट रहा है क्योंकि उसके लिए इन बदलावों की गतिशीलता से मुकाबला कर पाना मुश्किल है। उदाहरण के लिए आज हमारे शीर्ष इंजीनियरिंग कॉलेजों और प्रबंधन संस्थानों में मशीन लर्निंग की बहुत अहमियत है लेकिन वह पांच वर्ष पीछे चल रहा है। इंजीनियरिंग कॉलेज में वह इसलिए पीछे है क्योंकि वहां सांख्यिकी मूल विषय नहीं है। इंजीनियरिंग कॉलेज स्थापित तथ्यों से संभावनाओं की ओर बदलाव को बढ़ावा नहीं देते। वहीं प्रबंधन संस्थानों में उन लोगों को बढ़ावा नहीं दिया जाता जो स्वयं आगे आकर गणना करते हैं। अन्य इंजीनियरिंग और प्रबंधन संस्थानों में यह पिछड़ापन 10 वर्ष तक का है। पॉलिटेक्रीक और आईटीआई में यह 25 वर्ष का है। अगर इसमें जल्दी सुधार नहीं किया गया तो भारतीय कंपनियां अंतरराष्ट्रीय प्रतिस्पर्धा में पिछड़ जाएंगी। इसका असर लाजिमी तौर पर रोजगार पर भी पड़ेगा।


Date:22-11-18

जलमार्गों के संघर्ष में एशिया-पेसिफिक बना इंडो-पेसिफिक

सैयद अता हसनैन , ( लेफ्टि.जन. (रिटायर्ड) कश्मीर में 15वीं कोर के पूर्व कमांडर )

हाल ही में एशिया-पेसिफिक क्षेत्र का नाम इंडो-पेसिफिक करने के बाद से दुनिया का फोकस महासागरों और इससे जुड़े मसलों पर बढ़ता जा रहा है। मुख्यत: हिंद महासागर खासतौर पर फारस की खाड़ी से मलक्का जलडमरूमध्य तक की सी लैन्स ऑफ कम्युनिकेशन्स (एसएलओसी) पर प्रभाव हासिल करने के पावर प्ले के कारण मालदीव और श्रीलंका की घटनाएं क्षेत्रीय स्तर पर सुर्खियों में रहीं। एसएलओसी का अंतरराष्ट्रीय सुरक्षा में और हमारे लिए इतना महत्व क्यों है?

भारतीय उपमहाद्वीप के पास हिंद महासागर के क्षेत्र से दुनिया का सबसे सघन जल यातायात होता है। चीन को खाड़ी से होने वाली ऊर्जा की 80 फीसदी आपूर्ति इसी मार्ग से होती है, जिसने इसे मैन्युफैक्चरिंग का सरताज बना रखा है। लगभग इसी प्रतिशत में यहां से चीनी प्रोडक्ट कंटेनरों में अंतरराष्ट्रीय बाजारों में भेजे जाते हैं। इस तरह चीन की पूरी अार्थिक तरक्की इस मार्ग पर आवाजाही पर निर्भर है। फारस की खाड़ी से मलक्का तक केवल एक अमेरिकी ठिकाना है, जो अमेरिका व सहयोगी देशों को एसएलओसी पर कुछ प्रभुत्व देता है। भारत के नौसैन्य संसाधान अमेरिका को कुछ आश्वस्त जरूर करते हैं। चीन को लंबे समय से इसका डर रहा है। ट्रेड वॉर एक बात है पर इसकी आर्थिक शक्ति को टिकाने वाले जहाजों को खतरा अमेरिका के साथ रणनीतिक होड़ बढ़ने के साथ वास्तविक होता जाएगा। इसीलिए उसने एसएलओसी के पास के देशों में प्रभाव पाने के लिए ‘बेल्ट एंड रोड’ योजना बनाई।

पश्चिमी हिंद महासागर में डिजिबाउती में पहले ही चीनी ठिकाना है लेकिन, मलक्का जलडमरूमध्य के समीप स्थित अंडमान-निकोबार के पास इसकी मौजूदगी चीन को चिंतित करती है। वहां भारत का नवोदित संयुक्त कमान थिएटर भी है, जिसके मजबूत होने के साथ चीनी जहाजों को खतरा बढ़ जाएगा। हम युद्ध की बात नहीं कर रहे हैं पर आपातकालीन परिस्थितियों में क्षमताओं की बात कर रहे हैं। मलक्का के उस तरफ जाते ही आपके सामने पेसिफीक (प्रशांत) क्षेत्र आ जाता है। यहां जलमार्गों पर आसियान देशों का प्रभाव है। चीन ने बाहुबल से दक्षिण चीन सागर पर दबदबा जमा लिया है ताकि बाहरी नेविगेशन को कुछ नियंत्रित किया जा सके। इसमें इसने अंतरराष्ट्रीय न्यायालय के फैसले को भी ठुकरा दिया। नियम आधारित परस्पर अस्तित्व व महासागरीय अावाजाही की स्वतंत्रता के खिलाफ इसने अहंकारी रवैया अपनाया है।

इन्हीं कारणों से अमेरिका ने हिंद और प्रशांत महासागरों से जुड़े क्षेत्रों पर रणनीतिक सहयोग के माध्यम से ध्यान देने की जरूरत महसूस की। भारत की ‘एक्ट ईस्ट’ नीति इसमें मददगार है और भारत को अमेरिका के लिए रणनीतिक असेट बनाती है। चीन की नौसैन्य शक्ति बढ़ने के साथ अमेरिका और इसके सहयोगियों के साथ उसके दुर्घटनावश होने वाले टकराव की आशंका बढ़ जाएगी। भारत अमेरिका का गठबंधन सहयोगी नहीं है पर दोनों राष्ट्रों के बीच रणनीतिक भागीदारी को चीन उदारता से नहीं लेगा।


Date:22-11-18

इस तरह सिखों को दिखी इंसाफ की थोड़ी सी रोशनी

संपादकीय

वर्ष 1984 के सिख दंगों में अतिरिक्त सत्र न्यायाधीश ने एक ट्रांसपोर्टर को मृत्युदंड और एक पूर्व डाक कर्मचारी को उम्र कैद की सजा देकर यह साबित करने की कोशिश की है कि सिखों को न्याय मिलने की उम्मीद अभी खत्म नहीं हुई है। इन दोनों पर हरदेव सिंह और अवतार सिंह नाम के दो युवकों की हत्या करने का आरोप है। यह मामला 21 साल पहले बंद कर दिया गया था लेकिन, जब सुप्रीम कोर्ट ने 2015 में सिख दंगों की जांच के लिए विशेष जांच दल बनाया तो उसे फिर खोला गया। जज को सबूतों के आधार पर यह अहसास हुआ कि इस मामले में अभियुक्तों ने बिना किसी कारण के उन दोनों युवकों को लूटा और उनका जीवन छीन लिया। उन युवकों का दोष सिर्फ इतना था कि उनका मजहब अलग था। सजा सुनाते समय जज की ओर से की गई वह टिप्पणी महत्वपूर्ण है जो उन्होंने समाज के ताने-बाने, विश्वास और सद्‌भाव को लेकर व्यक्त किया है। वे मानते हैं कि ऐसी घटनाएं इन सारी चीजों को तोड़ती हैं और देश के विभिन्न धार्मिक और सामाजिक समूहों के भीतर सम्मिलन नहीं होने देतीं।

सिख दंगा भारत के धर्मनिरपेक्ष चरित्र पर बदनुमा दाग है ही यह हमारी न्यायिक प्रशासन व्यवस्था के समक्ष भी प्रश्न चिह्न के रूप में उपस्थित है। यह फैसला भी इंसाफ की भूख से व्याकुल समाज के लिए ऊंट के मुंह में जीरे जैसा है। इससे पहले सिर्फ किशोरी लाल नाम के एक कसाई को 1984 के दंगों में मौत की सजा हुई थी और उसके बाद यह दूसरा मामला है जहां न्याय व्यवस्था दृढ़ और संवेदनशील दिखी है। हालांकि फांसी की सजा पर अपने ढंग का विवाद हो सकता है लेकिन, इसमें कोई दो राय नहीं कि हरदेव और अवतार सिंह की तरह ही हजारों सिखों को मौत के घाट उतारा गया है और उन्हें न्याय नहीं मिला है। नाइंसाफी के इसी इतिहास पर खालिस्तान का उग्रवाद अपने समर्थक तैयार करता है। उनके पीछे नफरत की भावना थी और उसे संरक्षण देने के लिए एक राजनीति खड़ी थी। आज जरूरत न सिर्फ उस राजनीति से न्याय प्रक्रिया को मुक्त करने की है बल्कि फिर सिर उठा रही नफरत की राजनीति को परास्त करने की है। इसलिए न्याय को उसी भावना के साथ चौकस होना पड़ेगा जिस भावना से सत्र न्यायाधीश अजय पांडे ने यह निर्णय दिया है।


Date:22-11-18

जम्मू-कश्मीर विधानसभा भंग होने से मौकापरस्ती पार्टियों को जोर का झटका धीरे से लगा

पीडीपी, नेशनल कांफ्रेंस और कांग्रेस का एका केवल अनुच्छेद 35-ए के संरक्षण के लिए हो रहा था।

संपादकीय

जम्मू-कश्मीर विधानसभा भंग करने के राज्यपाल के फैसले के साथ वहां जोड़-तोड़ की सरकार बनने की संभावना खत्म जरूर हो गई, लेकिन यह भी तय है कि इस फैसले को चुनौती दी जाएगी। कहना कठिन है कि न्यायपालिका के समक्ष ऐसी दलीलें कितना टिक पाएंगी कि सरकार बनने की कोई सूरत नजर न आने के कारण विधानसभा भंग करने के अलावा और कोई उपाय नहीं रह गया था, क्योंकि यह स्पष्ट ही है कि एक-दूसरे की धुर विरोधी पीपुल्स डेमोक्रेटिक पार्टी एवं नेशनल कांफ्रेंस के साथ कांग्रेस का गठजोड़ तेजी के साथ आकार ले रहा था। ये तीनों दल मिलकर सरकार गठन का दावा पेश करने की तैयारी में इसीलिए जुटे थे, क्योंकि सज्जाद लोन के नेतृत्व में भाजपा के समर्थन वाली सरकार बनने की सुगबुगाहट भी तेज हो गई थी।

राज्यपाल के फैसले के बाद फिलहाल किसी भी गठजोड़ की सरकार नहीं बनने जा रही। अब वहां नए सिरे से चुनाव होना या किसी गठजोड़ की सरकार बनना इस पर निर्भर करेगा कि विधानसभा भंग करने के फैसले को चुनौती देने की स्थिति में अदालत क्या फैसला करती है? भविष्य में जो भी हो, इसमें दो राय नहीं कि पीडीपी और नेशनल कांफ्रेंस का एक साथ आना हैरान करने वाला घटनाक्रम रहा। इन दोनों दलों के नेता भले ही अपनी एकजुटता को लेकर सपा-बसपा के संभावित मेल को एक उदाहरण की तरह पेश कर रहे हों, लेकिन यह काफी कुछ वैसा ही था जैसे कल को तमिलनाडु में द्रमुक और अन्नाद्रमुक एक हो जाएं, क्योंकि पीडीपी तो नेशनल कांफ्रेंस से ही निकली पार्टी है। आम तौर पर जब ऐसी अवसरवादिता देखने को मिलती है तो उसे इस जुमले से ढकने की कोशिश की जाती है कि राजनीति में न तो कोई स्थायी मित्र होता है और न ही शत्रु, लेकिन इससे मौकापरस्ती छिपती नहीं।

पीडीपी, नेशनल कांफ्रेंस और कांग्रेस के नेता कितना ही यह कहें कि वे कश्मीर के हित के लिए दलगत हितों से परे हटकर एक साथ आने को तैयार थे, लेकिन सच यही है कि इस एका का मकसद जनता को बरगलाकर अपना उल्लू सीधा करना था। यह भी साफ है कि इस एका का मूल कारण जम्मू-कश्मीर को विशेष दर्जा देने वाले अनुच्छेद 35-ए के पक्ष में मोर्चेबंदी करना था। इसे संभावित गठजोड़ के भावी मुख्यमंत्री माने जा रहे अल्ताफ बुखारी ने खुद यह कहकर साबित किया कि उनका एका केवल 35-ए के संरक्षण के लिए हो रहा है। यह अनुच्छेद राज्य के स्थायी नागरिकों को परिभाषित करने के साथ उनके अधिकार भी तय करता है। इसके कारण ही धारा 370 अस्थायी होते हुए भी स्थायी रूप में कायम है।

यह हैरानी के साथ चिंता की भी बात है कि कश्मीर में अलगाव की मानसिकता को बल देने वाले अनुच्छेद 35-ए पर सुप्रीम कोर्ट में सुनवाई का जैसा विरोध घाटी के अलगाववादी कर रहे वैसा ही पीडीपी और नेशनल कांफ्रेंस भी कर रही है। इसी विरोध को दर्शाने के लिए इन दोनों दलों ने निकाय चुनावों का बहिष्कार किया। 35-ए पर अलगाववादियों और पीडीपी एवं नेशनल कांफ्रेंस के सुर एक होना यही बताता है कि यह अनुच्छेद किस तरह कश्मीर समस्या की जड़ बना हुआ है।


Date:21-11-18

किस-किस की पोल खुली

अरविन्द मोहन

एक पखवाड़े बाद जब केरल का प्रसिद्ध तीर्थस्थल सबरीमाला चिथिरा अत्ता विशेषम के लिए दो दिनों तक खुला तो इसमें वे सब मुद्दे ज्यादा साफ ढंग से सामने आए जो हाल में इस स्थल को विवादास्पद बनाए हुए थे। चिर कुंआरे माने जाने वाले देव अयप्पा के इस मंदिर में 10 से पचास वर्ष तक की महिलाओं के आने पर पारम्परिक रोक रही है। हाल में एक लम्बी कानूनी लड़ाई के बाद सुप्रीम कोर्ट ने इसके द्वार सबके लिए खोलने के आदेश दिये थे। उसके बाद से असली टकराव शुरू हुआ। अदालती आदेश से लैस केरल की कम्युनिस्ट सरकार मंदिर के द्वार खुलवाने के लिये सारा जोर लगा रही थी और परम्परा के नाम पर लोग अदालती आदेश लागू नहीं होने दे रहे थे। इस कानूनी लड़ाई को लड़ने वाला समूह ही नहीं, महिलावादी जमातों की लड़कियां और औरतें पुलिस संरक्षण में मंदिर जाना और भगवान अयप्पा के दर्शन करना चाहती थीं। वे इसे अपने समान अधिकारों से जोड़कर देखती बतातीं रही हैं और केरल सरकार भी इसी नजरिए को मानने के साथ अदालती आदेश को लागू कराना अपनी संवैधानिक जिम्मेवारी मानती है। पर एक दौर की लम्बी टकराहट के बाद सभी पक्षधर थकने भी लगते हैं और सबकी पोल पट्टी भी खुल रही है।

साफ लग रहा है कि जितना सवाल आस्था, संवैधानिक जवाबदेही, अदालती मर्यादा और समानता के अधिकार का है, उससे ज्यादा राजनीति का और अपने-अपने वोट बैंक को पक्का करने का है। केरल सरकार ने भी पहले दौर में सारा जोर लगाने के बाद इतना ही अच्छा किया कि लाठी-गोली का सहारा लेने से बची। और बाद में तो उसने भी मंदिर की ड्यूटी लगाने में महिला पुलिस की उम्र का हिसाब ध्यान रखा। खुद पुलिस के बड़े अधिकारी भी मंदिर में अपराध भाव के साथ प्रार्थना करते दिखे पर राज्य सरकार से भी ज्यादा केन्द्र का रु ख घालमेल का था। उसके मंत्री अदालत द्वारा सीमा न लांघने का नीति वाक्य भी बोलते रहे और केरल सरकार के रु ख की आलोचना भी करते रहे हैं। कांग्रेस तो बिना लाग-लपेट दोहरा रुख अपनाए रही।

अदालती फैसले का स्वागत करने के साथ वह भक्तों को, खासकर दस से पचास आयु वर्ग की महिलाओं को मंदिर में न जाने देने के लिए धरने पर भी बैठी रही। इस मामले में उसे भाजपा से पिछड़ने का डर सताता रहा पर असली खेल भाजपा करती रही। केरल की राजनीति में पैठ बनाने के लिए सबसे ज्यादा बेचैन इस पार्टी के लोग ही महिलाओं को रोकने, जबरदस्ती करने के मामले में आगे रहे। जितना हंगामा हुआ उसमें भी यही आगे थे-कांग्रेसी चुपचाप पहाड़ी के नीचे-नीचे धरना देते रहे जबकि भाजपा के लोग सक्रिय विरोध वाले थे। और अदालत तो आदेश देने के बाद से कहां है, किसी को पता ही नहीं है। और अब सामने आए टेप से लगता है कि प्रदेश भाजपा काफी योजनाबद्ध ढंग से इस अभियान अर्थात सुप्रीम कोर्ट के आदेश की धज्जियां उड़ाने में लगी थी। और शासक दल का प्रदेश अध्यक्ष चाहे किसी के आदेश से या अपने विवेक से यह सब कर रहा था पर सुप्रीम कोर्ट की यह तौहीन डरावनी है।

प्रदेश भाजपा अध्यक्ष पी. एस. श्रीधरन पिल्लै एक वीडियो टेप में यह कहते सुने जा रहे हैं कि यह सारा विरोध उन्हीं के द्वारा संचालित था और उन्होंने ही मंदिर के मुख्य पुजारी राजीवरु कन्दराऊ को मन्दिर के कपाट बन्द करने की धमकी देने को कहा था। उल्लेखनीय है कि जब पुलिस संरक्षण में दो महिलाएं मंदिर द्वार के पास पहुंच गई थीं, तब तंत्री ने कपाट बंद करने की धमकी दी और पुलिस को उन्हें वापस ले जाना पड़ा। यही नहीं, भारतीय युवा मोर्चा के कोझिकोड सम्मेलन में दिये उनके भाषण को भी जान-बूझकर लीक किया गया जिससे कि अफरा तफरी फैले। पिल्लै ने तंत्री को यह भी कहा था कि कपाट बंद करने से अदालत की अवमानना का मामला नहीं बनता है। जाहिर है कि इस टेप के आने के बाद इसकी राजनीति भी चलेगी और सम्भव है कि इसी र्चचा के लिए इसे लीक किया भी गया होगा पर सबरीमाला का मामला कई अर्थो में बहुत महत्त्व का है-यह सिर्फ हमारे राजनेताओं के दोमुँहपने को जाहिर करने और हर मामले का राजनैतिक लाभ लेने की होड़ को दिखाने भर वाली चीज नहीं है। एक सवाल बराबरी का है, संविधान प्रदत्त अधिकारों का है और उसमें कोई बहस की गुंजाइश नहीं है। दूसरी चीज आस्था और परम्पराओं का है, जो हल्की चीज हो, अंधविास हो, बुद्धिहीनता और पिछड़ेपन की निशानी हो। यह मान लेना उतनी ही बड़ी बेवकूफी है। सो एक सीमा तो अदालती अधिकार या कानूनी परिभाषा और आस्था के बीच की तय होनी चाहिये, जो कानून की चीज हो उसे अदालत तय करे और जो आस्था, धर्म और परम्परा का सवाल हो उसमें उसके संचालकों को अधिकार होना चाहिये।

अब एक बात यह भी है कि आपको पूजा करनी है या नमाज पढ़ना है और उसके नियम न मानने हैं, तब आप कानून की शरण क्यों लेते हैं? अगर अयप्पा और हाजी अली से कोई परेशानी है तो वहां जाने की जरूरत नहीं है। अगर देवताओं के करोड़ों रूप माने गए हैं तो आप अपने कुछ दशक पुराने कानून का सहारा लेकर सबको बराबरी पर तौलने पर क्यों तुले हैं? पर इससे भी ज्यादा बड़ी चीज यह है कि जब परम्परा-आस्था-विास और आधुनिक कानून और संविधान का टकराव हो ही तब क्या किया जाए? हम जिस दौर में जी रहे हैं या जीवंत समाज रोज ऐसी मुश्किलों से रू ब रू होता ही है। तब उसे क्या करना चाहिए। जाहिर है सिर्फ कानून से चिपके रहने या परम्परा से चिपके रहने से वही नाटक बार-बार दोहराया जाएगा, जो आज सबरीमाला में दिख रहा है। आप चाहते सत्ता की मलाई हैं, पर लोगों की आस्था और भक्ति से खेल रहे हैं।

आपको सत्ता का बल है और भाजपा या कांग्रेस को पछाड़ना चाहते हैं तो अदालती आदेश लागू कराने के नाम पर डंडे भांजते हैं। असल में ऐसे ही मामले पर नेतृत्व की जरूरत होती है। अगर आप सचमुच के नेता हैं तो आप सभी पक्षों को साथ बैठाइए, नई स्थितियां सबके सामने रखिए, अंधविास और जड़ता को तर्क और प्रमाणों से काटिए और सबके बीच संवाद से रास्ता निकालिये। महात्मा गांधी का उदाहरण सामने है, जब उन्होंने दलितों के हक और छुआछूत मिटाने की लड़ाई लड़ी। तब पुणो, बनारस, देवघर और पुरी जैसे कुछ शहरों के पंडे-पुरोहितों को छोड़कर पूरे मुल्क ने ऐसा व्यवहार किया मानो गांधी हिन्दू समाज के सीने से कोई बोझ उतार रहे हों।


Date:21-11-18

यह केवल कृषि का नहीं, पूरे गांव का संकट है

भारत डोगरा ,सामाजिक कार्यकर्ता

इन दिनों कृषि संकट और किसानों के संकट की चर्चा बहुत हो रही है, इसलिए हल भी इसी संकट के खोजे जा रहे हैं। यह भी सच है कि यह संकट पिछले दिनों काफी बढ़ा है और इसने पूरे ग्रामीण क्षेत्र को परेशान करके रख दिया है। कर्ज में डूबे किसानों की आत्महत्याओं और किसान संगठनों के आंदोलनों ने पूरे देश को न सिर्फ झझकोरा, बल्कि समस्या की गंभीरता का भी एहसास करा दिया। इसीलिए इस पर चर्चा भी शुरू हुई और सरकारों पर नीतियों में बदलाव का दबाव भी बना। मगर इससे निपटने के लिए लगातार की जा रही कोशिशों के बीच गांवों के दूसरे संकट या गांवों के दूसरे तबकों के संकट लगातार नजरंदाज हो रहे हैं। जबकि ऐसे कुछ संकट तो काफी पहले से चले आ रहे हैं और लगातार बढ़ भी रहे हैं। यदि दस्तकारों की बात करें, तो उनकी परंपरागत आजीविका पिछले कुछ समय में बड़े स्तर पर छिनती ही चली गई है। भूमिहीन मजदूर परिवारों पर नजर डालें, तो उनकी आर्थिक स्थिति हमेशा सबसे कठिन रही और आज भी बनी हुई है। एक अन्य हकीकत यह भी है कि भूमिहीन या लगभग भूमिहीन परिवारों की संख्या गांवों में बढ़ती जा रही है।

जरूरी यह भी है कि हमें खेती का संकट दूर करने के साथ ऐसी व्यापक नीतियां भी अपनानी चाहिए, जिनसे सभी गांववासियों का लाभ एक सा हो और टिकाऊ तौर पर पूरे गांव की अर्थव्यवस्था मजबूत हो। जिसे हम कृषि संकट कह रहे हैं, वह भी दरअसल कहीं न कहीं ग्रामीण अर्थव्यवस्था का संकट ही है। पहले आधुनिक उद्योग व्यवस्था ने ग्रामीण अर्थव्यवस्था को कई तरह से नुकसान पहुंचाया था, कई तरह की दस्तकारी और ग्रामीण उद्योगों को चलन से बाहर कर दिया था, और अब आधुनिक वित्त व्यवस्था और मौद्रिक नीतियों ने कृषि के लिए परेशानी खड़ी कर दी है।

जबकि हमें ऐसी आर्थिक नीतियों की जरूरत है, जिससे गांव व कस्बे स्तर पर बड़े पैमाने पर ऐसे टिकाऊ रोजगार का सृजन हो, जो लोगों की जरूरतों को अपेक्षाकृत श्रम-सघन तकनीकों से पूरा कर सके। प्रदूषण को न्यूनतम रखने का ध्यान आरंभ से ही दिया जाए। दूसरी ओर खेती में भी अपेक्षाकृत श्रम-सघन व बेहद कम खर्च वाली ऐसी तकनीकों को अपनाया जाए, जो पर्यावरण की रक्षा के अनुकूल हों। जल-संरक्षण व स्थानीय वनस्पति से हरियाली बढ़ाने पर जोर दिया जाए।
पंचायत राज व विशेषकर ग्राम-सभाओं को सशक्त किया जाए और इसमें कुछ जरूरी सुधार किए जाएं। सभी पंचायतों के स्तर पर ऐसे साधन-संपन्न प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्र हों, जो अधिकांश सामान्य बीमारियों के निशुल्क इलाज, सुरक्षित जन्म, टीकाकरण में सक्षम हों और गंभीर बीमारियों के सस्ते इलाज के लिए बड़े शहरी अस्पतालों से जुड़े हों। अच्छी गुणवत्ता की व नैतिक गुणों के समावेश वाली निशुल्क सरकारी शिक्षा व्यवस्था गांव में उपलब्ध हो, जिसमें पर्यावरण रक्षा व स्थानीय संसाधनों के बेहतर उपयोग का भी समावेश हो। ऊर्जा के अक्षय स्रोतों को अधिक महत्व दिया जाए।

जबकि हमने गांव के संकट को कृषि संकट और कृषि संकट को आर्थिक समस्या मान लिया है। इसलिए कोशिशें कर्ज माफी और न्यूनतम समर्थन मूल्य से आगे नहीं जा पातीं। तात्कालिक राहत के लिए इन तरीकों की अपनी उपयोगिता और जरूरत हो सकती है, लेकिन गांवों के संकट का दीर्घकालिक हल इनमें नहीं है। वह तभी हो सकेगा, जब ऐसा टिकाऊ ग्रामीण विकास मॉडल बन सके, जिसमें स्थाई आजीविकाओं की रक्षा के साथ-साथ पर्यावरण की रक्षा हो सके। अक्सर यह कहा जाता रहा है कि जो नीतियां टिकाऊ आजीविका की ओर ले जाती हैं, वहीं नीतियां पर्यावरण की रक्षा की ओर ले जाती हैं व विशेषकर ग्रीन हाउस गैसों के उत्सर्जन में भी महत्वपूर्ण कमी करती हैं। भारत उन देशों में है, जहां आज भी अधिक लोग गांवों में ही रहते हैं। अत: इस दिशा में यदि भारत कोई बड़ी पहल कर सके, तो इसका विश्व स्तर पर व्यापक महत्व होगा। लेकिन यह तभी हो सकेगा, जब हम विकास की परंपरागत सोच को छोड़कर अपनी जमीन और जरूरतों के लिहाज से नए समाधान खोजने की कोशिश करेंगे।


Date:21-11-18

सीबीआई की साख

संपादकीय

कहा जाता है कि कीचड़ की होली एक बार जब शुरू होती है, तो अंत में हर किसी का दामन मैला होता है। जो इस खेल में शामिल होते हैं और जो नहीं होते हैं, कोई भी बेदाग नहीं बचता। बाद में यह बताना तक मुश्किल हो जाता है कि कौन इस खेल में शरीक था और कौन महज दर्शक? कौन कीचड़ उछाल रहा था और कौन उससे खुद को बचा रहा था? केंद्रीय जांच ब्यूरो यानी सीबीआई इन दिनों ऐसी ही होली खेल रही है। जिस खेल को अभी कुछ ही दिन पहले तक सीबीआई बनाम सीबीआई कहा जा रहा था, उसके छींटें अब देश की कई दूसरी संस्थाओं, कई बड़े पदाधिकारियों और राजनेताओं तक पर उछलने लगे हैं। सच क्या है, यह बताना तो खैर असंभव सा ही है, लेकिन सबसे बड़ी दिक्कत यह है कि देश की सर्वोच्च खुफिया संस्था की साख और विश्वसनीयता रसातल से भी कहीं नीचे पहुंच चुकी है। सीबीआई के प्रमुख सीलबंद लिफाफे में सुप्रीम कोर्ट को अपना जवाब सौंपते हैं और इससे पहले कि अगले दिन अदालत सुनवाई के लिए बैठे, सीलबंद चिट्ठी लीक हो जाती है। कोई और मामला होता, तो शीर्ष अदालत इस पूरी घटना की जांच का काम सीबीआई को सौंप देती, पर अब जब पूरा मामला ही सीबीआई का है, तो जांच भला कौन करेगा?

पूरे घटनाक्रम से नाराज सर्वोच्च अदालत के जजों ने लगातार तल्ख टिप्पणियां की हैं। लेकिन इन सबसे किसी के कानों में जूं तक रेंगेगी, इसकी कोई गारंटी नहीं है। ऐसी ही एक तल्ख टिप्पणी शीर्ष अदालत ने कई साल पहले की थी, जब उसने इस संस्था को ‘पिंजरे में बंद तोता’ कहा था। तब उम्मीद बनी थी कि चीजें बदलेंगी, लेकिन हकीकत में कुछ नहीं बदला। तब यह लगा था कि सीबीआई अपनी साख को सुधारने के लिए कुछ करेगी, लेकिन साख इस हद तक गिर गई कि संस्था के निदेशक और विशेष निदेशक ही आपस में उलझ गए। यह दो आला अफसरों का पेशेवर उलझाव भर नहीं था, बल्कि एक ऐसी लड़ाई सामने आई, जहां दोनों एक-दूसरे पर भ्रष्टाचार के गंभीर आरोप लगा रहे थे। इसके साथ ही इस खुफिया संस्था के कुछ छोटे-बड़े अन्य मोर्चे भी खुल गए, जिन्होंने कुछ राजनीतिज्ञों समेत देश के सुरक्षा सलाहकार जैसे महत्वपूर्ण पदाधिकारी को भी नहीं बख्शा। ये सभी चीजें जितनी सुप्रीम कोर्ट को परेशान कर रही हैं, उससे कहीं ज्यादा देश के नागरिकों को शिकन दे रही हैं। लोकतंत्र में हम जिन संस्थाओं के भरोसे रहते हैं, अगर वे अविश्वसनीय और यहां तक कि हास्यास्पद हो जाएं, तो इसका जनमानस पर पड़ने वाला असर खासा बुरा होता है।

फिलहाल सबसे जरूरी यह है कि सीबीआई की साख सुधारने और इसके पुनर्गठन के लिए आम राय बनाई जाए। पिछले कुछ समय से सीबीआई का मसला राजनीतिक मसला बनता जा रहा है। हद तो यह है कि आंध्र प्रदेश और पश्चिम बंगाल ने अपने यहां सीबीआई को इजाजत देने से इनकार कर दिया है। सबसे पहले तो इस तरह की राजनीति को तुरंत खत्म करना होगा। केंद्र और राज्यों में विश्वास बहाली को पहली प्राथमिकता पर लाना होगा और उस राजनीति को खत्म करना होगा, जो ऐसे अविश्वास का कारण बनती है। सीबीआई की विश्वसनीयता बहाल करने की कोशिशों में सरकार और विपक्ष, दोनों को एक साथ आना होगा। यह दलगत राजनीति का नहीं, देश की जरूरत का सवाल है। इससे सीबीआई के दुरुपयोग के आरोप भी कम होंगे।


Date:21-11-18

Urban Only In Name

Policies have not given small towns their due

Sama Khan, [ The writer is with the Centre for Policy Research, Delhi]

Small towns in India are something of an oxymoron. They are far removed from cities in character and appearance and are constantly struggling to establish their “urbanness”. A drive along the outskirts of Gajraula, a small town in Uttar Pradesh, will reveal impressive fast food and retail joints, industrial plants and higher education institutes. But the town’s interior represents a different picture. It’s riddled with open drains, lacks sewerage along and is heavily-polluted. Sardhana, in contrast, boasts of a rich historical past — it’s home to the famous early 19th-century church built by Begum Samru. But Sardhana, which is situated away from the national highway, fares poorly on development parameters like Gajraula.

Every small town in India has its unique story and significance but their problems are similar — lack of basic services, dilapidated infrastructure, overcrowded spaces and dwindling job opportunities. However, these towns have thriving marketplaces with urbanesque spaces like supermarkets, beauty parlours and gymnasiums. They have private schools and clinics, a variety of fast-food eateries, modern tailoring shops and mobile and electronic stores. Such entrepreneurial energy says something about the growing small-town population which desires better services and an improved quality of life. But this is relatively unrecognised by the government.

The UPA government’s urban development programme, the Jawaharlal Nehru National Urban Renewal Mission (JNNURM), covered both big cities and small towns but gave financial preference to the former. The criticisms of JNNURM did lead the UPA government to change focus towards small towns in JNNURM-2. However, the change in government in 2014 led to amendments in urban policy. JNNURM was replaced by the Atal Mission for Rejuvenation and Urban Transformation (AMRUT) that focusses on infrastructural development for Class I cities (those with a popu1ation of one lakh and above). The Smart Cities Mission (SCM) was launched to address our growing fascination with world-class cities that use technology to improve their services.

The common thread between these urban schemes is that they cater to Class I cities, which already have better access to services. For example, as per the 2011 census, 50 to 60 per cent of households in these cities have access to piped sewerage and closed drains. The percentage of population who have access to these services in smaller towns is way lower. One-fourth of the urban population lives in these small towns (20,000 to 1,00,000 population). These 7 crore people need amenities to match up to their “urban” status. Many of these towns may not be in the vicinity of big cities. But though they are small in size, many of these small towns have an enormous growth potential. Yet, mega cities continue to be seen as engines of economic growth and attract large sums of central investments just to sustain the weight of their population. But what seems to be forgotten is that the smaller towns have been doing that for decades with very little policy attention.

Many studies have shown that the benefits of small town development can spill over to villages, especially in terms of employment generation. Others have talked about the need for a well-spread network of cities to counter the problems of migration. But this discourse has remained at the level of the academia; it hasn’t translated into policy. The debate between progress and development is not new — the former is largely about world-class cities while the latter focuses on a more inclusive agenda. But the current government’s focus on big cities is problematic. The development of small towns can make these urban centres fulfill the long-standing demand for a link between rural India and the country’s big cities and towns. The growing population in these small towns needs to be backed by adequate investments by the Centre. There should be a key role for these urban centres in development planning.


Date:21-11-18

Amid institutional decline

The issue today is whether a dishonest system can be managed honestly

Arun Kumar is Malcolm Adiseshiah Chair Professor, Institute of Social Sciences, and the author of ‘Understanding Black Economy and Black Money: An Enquiry into Causes, Consequences and Remedies’

Allegations of interference in major institutions have been the big news of late. The ongoing fracas in the Central Bureau of Investigation (CBI) has got out of hand, with the two top officials in the chain of command accusing each other of corruption. The recent pronouncements in the Supreme Court do not promise an early resolution.

The fight against widespread graft in the country has been set back. The Deputy Governor of Reserve Bank of India (RBI) has highlighted the serious consequences if there is an erosion of its autonomy. The intervention by the Supreme Court in the CBI issue places a question mark on the independence of the Central Vigilance Commission (CVC) and the functioning of the government as a whole in making key appointments in the CBI. The CBI controversy has also left an imprint on the Intelligence Bureau and the Research and Analysis Wing.

The list of institutions in decline is long. The ongoing #MeToo movement has exposed the sordid goings-on in large swathes of the media and the entertainment industry. Earlier too, the Election Commission was under a cloud over the announcement of election dates, action taken against some Delhi legislators and the functioning of electronic voting machines. The functioning of the judiciary itself has been a cause for concern. Then there is the attempt to introduce Civil Service Rules in Central universities, an attempt to erode the autonomy of academics. The crisis in the banking system and the huge non-performing assets that overrun their balance sheets impact the viability of the financial system.

The present and past

The storm is gathering pace. The decline of institutions in India is not recent. In 2016, demonetisation brought out the centralisation of power and a lack of consultation with important sections of the government. The chaos prevailed for months and about 99% of the money came back into the system, thus defeating the very purpose of carrying out this draconian measure. Those with black money escaped and those who had never seen black money were put to great hardship. The RBI and the banks were marginalised.

The CBI imbroglio is no surprise. Political interference in the agency and corruption among its ranks have been talked about but are hard to prove. The Supreme Court, in 2013, even called the agency a ‘caged parrot’ but this was not concrete enough. The political Opposition when feeling the heat of various investigations has always accused the agency of being its ‘master’s voice’. Now that the spat within has come out in the open, with a spate of accusations, these fears have become all the more credible.

A deep rot

The rot has set in deep, with charges of government manipulation in crucial cases. With the Vineet Narain case, in the 1990s, the Supreme Court tried to insulate the CBI from political manipulation by placing it under the supervision of the CVC. But that has not worked since the independence of the CVC itself has been suspect.

Why is the autonomous functioning of the CBI and CVC such an irresolvable issue?

The CBI is an investigative agency largely manned/controlled by personnel drawn from the police force. And this is a force used to doing the bidding of the ruling dispensation. The rulers themselves commit irregularities in the routine and depend on the police to cooperate with them. The rulers cannot pull them up in their own self-interest. In the police, there are ‘wet’ and ‘dry’ duties where money can be made in the first but not in the second. Being on the right side of the political masters is lucrative. While earlier there may have been few such officers doing political bidding, now it seems they dominate.

It is akin to having a ‘committed bureaucracy’, an idea floated during the Emergency. The issue is: Committed to whom? To the national interest or to the rulers? The rule of law is being subverted and illegality being committed on a large scale. Growth of the black economy is a measure of illegality. It has gone up from 4-5% of GDP in 1955-56 to the present level of 62%. It has become ‘systematic and systemic’ and eroded institutional functioning all across the board. This has damaged institutions.

Institutions provide the framework for individuals and systems to function. Their breakdown leads to a breakdown of societal functioning — democracy is weakened, the sense of justice is eroded and the Opposition is sought to be suppressed. The tainted not only survive but also get promoted and damage institutions. If institutions are strong, they are respected and it becomes difficult to manipulate them. It enables the honest to survive. In strong institutions, individual corruption is an aberration but when they weaken, it becomes generalised. It leads to individualisation, illegality becomes acceptable and the collective interest suffers. Even an ‘honest’ Prime Minister tolerated dishonesty under him. The dilemma is, can a dishonest system be managed honestly?


Subscribe Our Newsletter