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21-02-2024 (Important News Clippings)
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Date:21-02-24
Well Done, Milords
SC did the right thing in overturning Chandigarh mayor’s elections. Poll process integrity defines democracy.
TOI Editorials
Complete justice | SC invoked the Constitution’s Article 142 to underpin its verdict. This clause allows it to pass an order that will ensure “complete justice”. It signals the seriousness with which the court viewed the situation.
No case for re-election | Once evidence of the presiding officer’s measures to rig the election surfaced, questions on a re-election came up. SC rightly turned down that argument because a physical examination of ballot papers suggested otherwise. The municipal corporation has regulations that lay out conditions under which a ballot paper is invalid. Not one of those conditions was met. Therefore, the electoral process didn’t have a problem. It was the action of the presiding officer at the counting stage that contaminated the result.
Prosecution as deterrence | The presiding officer not only tried to rig the result but he also misled the court. SC initiated criminal proceedings against him. There should be consequences for tampering with results of an election. Absent that, there’s no deterrence.
Speed is the key | A factor that made SC’s verdict significant for all polls is the short timeline in which it reached a conclusion. In contrast, SC’s verdict on MVA govt’s fall in Maharashtra came almost a year later. For SC to then say Maha governor was incorrect in calling for a no-confidence motion was judicially correct but practically of little use. In electoral malpractice cases, justice delayed is emphatically justice denied.
EC and elections | India’s track record of ensuring integrity of elections has been excellent mainly on account of EC’s efforts. Under difficult circumstances, EC has ensured that India never had to experience chaotic situations like US did in 2020 presidential elections.
Chandigarh’s municipal poll didn’t come under the purview of EC. It was therefore important that SC quickly wrapped up this case. All officials, from police or administration, who will be working for EC during general elections, will now know even more that fairness is non-negotiable.
Calm assessment
Clarity on the nature and extent of ‘deemed forest’ is essential
Editorial
The Centre’s attempt to amend the Forest (Conservation) Act was ostensibly to bring “clarity” as there were large tracts of recorded forest land that had already been put to non-forestry uses, with the permission of State governments. There is apparently, the Centre says, a reluctance among private citizens to cultivate private plantations and orchards, despite their significant ecological benefits, for fear that they would be classified as ‘forest’ (and thus render their ownership void). India’s ambitions to create a carbon sink of 2.5 billion-3 billion tonnes, to meet its net zero goals have required forest laws to be “dynamic” and, therefore, the rules have sought to remove ‘deemed forest,’ not already recorded as such, from the ambit of protection. This has triggered a slew of public interest petitions as, on the face of it, the amendments appear as an assault on the Act’s ambition of forest protection. While a final judgment is pending, the Court’s order to the Centre to compile and make public, by April, States’ efforts at recording the extent of deemed forests is welcome. At this point it is mere conjecture on the part of the Centre that India’s carbon sink is being impeded due to insufficient private initiative. Only a dispassionate assessment of ground realities can drive forward this very important debate.
चंडीगढ़ मेयर चुनाव में कोर्ट का फैसला कड़ा संदेश है
संपादकीय
चंडीगढ़ मेयर चुनाव पर सुप्रीम कोर्ट का फैसला एक स्पष्ट संदेश देने वाला है। सुप्रीम कोर्ट ने सभी मतपत्रों, जिन्हें विवादास्पद रिटर्निंग अफसर (आरओ) ने अमान्य करार देते हुए नहीं गिना था, स्वयं देखे और कहा कि ये मत ‘आप’ पार्टी के प्रत्याशी को गए हैं। कोर्ट ने ‘आप-कांग्रेस प्रत्याशी को विजयी घोषित किया है, साथ ही आरओ अनिल मसीह पर कोर्ट को गुमराह करने लिए सीआरपीसी की धारा 340 के तहत मुकदमा चलाने को कहा है। विवादास्पद आरओ भाजपा का नामित सभासद और कार्यकर्ता है। कोर्ट में आरोपी के वकील ने कहा कि उसका निर्णय गलत या सही हो सकता है पर उसकी मंशा पर शक नहीं किया जाना चाहिए। सुनवाई के दौरान सुप्रीम कोर्ट का रवैया बेहद सख्त रहा। सीजेआई की ‘प्रजातंत्र की हत्या होते नहीं देख सकते’ जैसी टिप्पणी से पूरा चंडीगढ़ प्रशासन और संबंधित राजनीतिक दल सकते में आ गए। क्योंकि सुप्रीम कोर्ट ने ना केवल रिकार्ड्स तलब कर देखे बल्कि मतपत्रों में अनैतिक रूप से निशान लगाने वाले आरओ को दोनों दिन सुनवाई के दौरान उपस्थित होने का आदेश भी दिया था। कोर्ट में ‘आप’ प्रत्याशी के वकील ने कहा कि केवल तीन आधार पर कोई बैलेट खारिज हो सकता है। पहला, दो या अधिक प्रत्याशियों पर निशान लगाया हो, दूसरा, अपनी पहचान बताई हो या तीसरा, ऐसा निशान लगाया हो जिससे यह स्पष्ट न होता हो कि किस प्रत्याशी को मत दिया है। हाल ही में सुप्रीम कोर्ट का रवैया चुनावी बॉन्ड को लेकर भी काफी सख्त था। कोर्ट ने न केवल चुनावी बॉन्ड पर रोक लगा दी बल्कि पांच वर्षों में बॉन्ड खरीदने वाले कॉर्पोरेट घरानों के नाम घोषित करने का चुनाव आयोग को आदेश भी दिया। दोनों फैसले एक कड़ा संदेश है और वह भी उस संस्था की ओर से जिसकी स्वीकार्यता अप्रतिम है।
चुनावी छल-बल बेनकाब
संपादकीय
चंडीगढ़ में मेयर के चुनाव में गड़बड़ी की गई, यह चुनाव वाले ही दिन तब स्पष्ट हो गया था, जब कांग्रेस के समर्थन के चलते पर्याप्त संख्याबल वाले आम आदमी पार्टी के प्रत्याशी को पराजय का सामना करना पड़ा था। भाजपा प्रत्याशी की जीत की अप्रत्याशित घोषणा इस आधार पर की गई थी कि आम आदमी पार्टी के उम्मीदवार को मिले आठ मत अवैध पाए गए। यह इसलिए समझ से परे था, क्योंकि एक तो अवैध करार दिए गए सभी मत आम आदमी पार्टी के उम्मीदवार के खाते के थे और दूसरे पीठासीन अधिकारी अनिल मसीह एक वीडियो में मतपत्रों में कुछ लिखते हुए दिख रहे थे। इस पर हैरानी नहीं कि भाजपा से जुड़े पीठासीन अधिकारी सुप्रीम कोर्ट के समक्ष यह नहीं साफ कर सके कि वह मतपत्रों पर क्या लिख रहे थे और क्यों? यदि उन्हें सुप्रीम कोर्ट की फटकार के साथ अवमानना नोटिस का सामना करना पड़ा तो इसके लिए वही उत्तरदायी हैं। सुप्रीम कोर्ट के समक्ष जैसे तथ्य सामने आए, उन्हें देखते हुए उसके पास यही विकल्प था कि या तो वह मेयर का चुनाव फिर से कराने का आदेश दे अथवा आम आदमी पार्टी के प्रत्याशी को मेयर घोषित करे।
चूंकि लोकतांत्रिक प्रक्रिया से खुला खिलवाड़ करने वाले इस मामले के सुप्रीम कोर्ट पहुंचने के साथ ही कथित रूप से मेयर का चुनाव जीते भाजपा प्रत्याशी को यह आभास हो गया था कि उनके पास अपने बचाव में कुछ कहने-बताने को नहीं है, इसलिए उन्होंने पहले ही त्यागपत्र दे दिया था। इसके बाद भी यह प्रश्न तो अनुत्तरित है ही कि आखिर पीठासीन अधिकारी ने चुनाव प्रक्रिया से खिलवाड़ क्यों किया? क्या पार्टी के प्रति निष्ठा दिखाने के लिए अपनी ओर से या फिर किसी अन्य के कहने से? इस प्रश्न का उत्तर भाजपा के शीर्ष नेताओं को भी तलाशना होगा, क्योंकि वह ऐसे गंभीर आरोपों के घेरे में है कि उसके नेता मेयर तक का चुनाव जीतने के लिए किसी भी हद तक जाने और मनमानी करने को तैयार रहते हैं। क्या यह विचित्र नहीं कि भाजपा एक ओर आगामी लोकसभा चुनाव में अपने बलबूते 370 सीटें जीतने का दम भर रही है और दूसरी ओर एक अदद मेयर का चुनाव जीतने के लिए ऐसे जतन करती दिख रही, जो उसकी फजीहत का कारण बन रहे हैं। लोकतंत्र में संख्याबल का सम्मान किया जाना आवश्यक होता है। चंडीगढ़ के मेयर चुनाव में भाजपा ऐसा करती हुई नहीं दिखाई दी। ऐसे रवैये से उसकी छवि बिगड़ेगी ही। चंडीगढ़ मेयर चुनाव में जो कुछ हुआ, उसके लिए भाजपा पीठासीन अधिकारी को जिम्मेदार बताकर कर्तव्य की इतिश्री नहीं कर सकती। उसे यह अनुभूति होनी चाहिए कि पीठासीन अधिकारी ने जो काम किया, उसके कारण उसे न केवल कठघरे में खड़ा होना पड़ा, बल्कि उसके विरोधियों को यह कहने का अवसर भी मिला कि वह चुनाव जीतने के लिए छल-बल का सहारा लेने में संकोच नहीं करती।
बस्ते पर नजर
संपादकीय
पिछले कुछ समय से स्कूली बच्चों में बढ़ती हिंसा की प्रवृत्ति निश्चित रूप से चिंताजनक है। जिस उम्र में बच्चों को पढ़ाई-लिखाई और खेलकूद में व्यस्त रहना चाहिए, उसमें उनमें बढ़ती आक्रामकता एक अस्वाभाविक और परेशान करने वाली बात है। कई घटनाओं में स्कूल में पढ़ने वाले किसी बच्चे ने अपने सहपाठी पर चाकू या किसी घातक हथियार से हमला कर दिया और उसकी जान ले ली। इस संदर्भ में सवाल उठे कि आखिर वे बच्चे अपने साथ कोई घातक चीज लेकर कैसे स्कूल आ गए। क्या बच्चों के थैले या बस्ते की जांच का कोई नियम नहीं है? इसी के मद्देनजर दिल्ली सरकार के शिक्षा निदेशालय ने स्कूलों को आदेश दिया है कि विद्यार्थियों के बस्ते की औचक जांच करने के लिए एक समिति बनाई जाए। साथ ही यह भी सुनिश्चित किया जाए कि विद्यार्थियों के पास ऐसी कोई सामग्री न हो, जिसका उपयोग किसी को नुकसान पहुंचाने के लिए किया जा सके।
जाहिर है, इस व्यवस्था के पीछे सरकार की मंशा विद्यार्थियों के लिए सुरक्षित माहौल बनाना है, ताकि उनके बीच कोई मामूली विवाद जानलेवा हमले में न तब्दील हो जाए। अगर किसी छात्र के पास कोई हथियार नहीं रहेगा, तब गंभीर हिंसा की स्थिति नहीं बनेगी और आपसी विवाद को सुलझाने की गुंजाइश बनी रहेगी। मगर सवाल है कि जिन वजहों से बच्चों के भीतर आक्रामकता पैदा हो रही है, उससे निपटने के लिए क्या किया जा रहा है! पाठ्यक्रमों का स्वरूप, पढ़ाई-लिखाई के तौर-तरीके, बच्चों के साथ घर से लेकर स्कूलों में हो रहा व्यवहार, उनकी रोजमर्रा की गतिविधियों का दायरा, संगति, सोशल मीडिया या टीवी से लेकर उसकी सोच-समझ को प्रभावित करने वाले अन्य कारकों से तैयार होने वाली उनकी मन:स्थितियों के बारे में सरकार के पास क्या योजना है? बच्चों के व्यवहार और उनके भीतर घर करती प्रवृत्तियों पर मनोवैज्ञानिक पहलू से विचार किए बिना समस्या को कैसे दूर किया जा सकेगा? बच्चों के बस्ते की औचक जांच की व्यवस्था की अपनी अहमियत हो सकती है। मगर जरूरत इस बात की है कि बच्चों के भीतर बढ़ती हिंसा और आक्रामकता के कारणों को दूर करने को लेकर काम किया जाए।