20-11-2019 (Important News Clippings)
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Slump or slowdown ?
Answer to that question isn’t particularly relevant. Faster growth is the only thing that matters
TOI Editorials
Anurag Thakur, minister of state for finance, observed in Lok Sabha this week that India is the fastest growing major economy in the world. He added that IMF has projected that in 2020 India will be the fastest growing major economy in the world. Thakur’s observations may be technically correct, but they reveal only a part of the story. In 2019, India and China are both projected to grow at 6.1%. The key point here is that China’s economy is about five times larger than India at $13.6 trillion. A growth rate of over 6% on that base cannot be meaningfully compared to that of India.
The China story merits close attention. Its economic performance since opening up in 1978 highlights the importance of growth in providing a better life to people. China’s average growth rate between 1978 and 2010 was in double digits, making it history’s fastest durable expansion of an economy. An outcome was that more than 850 million Chinese were lifted out of poverty. Sixteen years ago, when China’s economy was where India is today, it was in the midst of its double-digit growth phase. Therefore, it is meaningless to compare our growth rate with that of China.
Economic growth is the single most important factor in providing a better life anywhere in the world. Research shows that the inflection point in history was the beginning of the Industrial Revolution when GDP per person expanded substantially for countries undergoing it. Living standards doubled in less than 50 years after being almost static for centuries. A takeaway from this lesson is that debates on the nature of the recent economic trend, whether it is a slump or a slowdown, are of no relevance. The only thing that matters is pace of economic expansion has been decelerating for over a year and a recovery is not in sight.
The Narendra Modi government is uniquely placed to turn this situation around on account of its political capital. This should be utilised to speed up growth, the only surefire way of eliminating poverty and providing India’s burgeoning young population with opportunities. Instead of using the size of economy, $5 trillion, as a benchmark, the government should focus on the pace of economic growth. That is what will make the difference in lifting people out of poverty quickly as well as lending heft to India’s geostrategic goals.
देश में यह नया ‘एकता में विविधता ‘ का भाव डराता है
संपादकीय
कई बार यह समझ नहीं आता कि देश किस खबर पर रोए और किस पर हंसे। करीब 21 साल पहले भारत का एक मात्र विश्वविद्यालय ‘मौलाना आज़ाद नेशनल उर्दू यूनिवर्सिटी (मनू)’ जब हैदराबाद में स्थापित किया गया तो इसका मकसद केवल उर्दू भाषा का विकास और उन्नयन ही नहीं, तकनीकी और व्यावसायिक शिक्षा भी उर्दू में देना था। तब से करोड़ों खर्च करने के बाद अब पता चला कि इसके लगभग आधे शिक्षक स्वयं इस भाषा में नहीं पढ़ा सकते। यूनिवर्सिटी के कुलपति ने खुद इस बात को बेबाकी से कहा है। तमाम पाठ्यक्रम आज भी अंग्रेज़ी में पढ़ाए जाते हैं और अभी तक केवल 50 किताबों का उर्दू में अनुवाद हुआ है, लेकिन वह भी बाहर के लोगों से कराया गया है। कुलपति ने कहा कि ‘मुझे विश्वविद्यालय में कोई एक भी अध्यापक नहीं मिला जो इसमें सक्षम न हो’, अगर ऐसा है तो शिक्षकों के लिए एक साल का उर्दू की शिक्षा का डिप्लोमा अनिवार्य किया जाना चाहिए। उधर, शिक्षकों की भर्ती करने वाले एक्सपर्ट्स का कहना है कि जब तक सिफारिश से भर्ती की जाती रहेगी, ऐसे ही शिक्षक मिलेंगे। दूसरी खबर है, राजस्थान की राजधानी जयपुर के एक सरकारी संस्कृत विद्यालय में 80% विद्यार्थी मुसलमान हैं और ये फर्राटे से वेद व गीता के श्लोक लिख-पढ़ लेते हैं, कई श्लोक और पूरी हनुमान चालीसा कंठस्थ कर चुके हैं। ये अपना परिचय शुद्ध संस्कृत में देते हैं। ये बच्चे वैसे तो गरीब तबके के हैं, लेकिन स्कूल से छूटने के बाद ये छोटे-मोटे काम कर घर की आर्थिक स्थिति सुधारते हैं और फिर शाम को मदरसे में अरबी भाषा और कुरआन पढ़ते हैं। प्रधानाध्यापिका के अनुसार ये बच्चे चार भाषाएं सहज भाव से जान जाते हैं हिंदी, संस्कृत, अरबी और उर्दू। परीक्षा में हिंदू बच्चों के मुकाबले इनके नंबर भी अधिक आते हैं। अब तीसरी खबर देखें। बनारस हिंदू विश्वविद्यालय के संस्कृत विद्या धर्म-विज्ञान संकाय में नियुक्त सह-प्रोफेसर फ़िरोज़ खान के खिलाफ छात्रों ने दो ही दिन बाद धरना-प्रदर्शन शुरू कर दिया। उनका कहना था कि मुसलमान शिक्षक हमें हमारा धर्म नहीं पढ़ा सकता। हम शिक्षक को गुरु मानते हैं जो शिखा (चोटी) रखता है और जो हवन करता है जिसमें हम सब भाग लेते हैं’। कुलपति का कहना है फ़िरोज़ कुल 29 आवेदकों में नियुक्ति-समिति द्वारा सर्वश्रेष्ठ पाए गए और यूनिवर्सिटी के कानून में धर्म के आधार पर शिक्षक बहाल करने का कोई नियम नहीं है।
चिंता की बात नहीं
संपादकीय
श्रीलंका के राष्ट्रपति के रूप में गोटाबाया राजपक्षे के निर्वाचन को भारत में चिंता की दृष्टि से देखा जा रहा है। यह बात सही है कि महेंद्र राजपक्षे के काल में तमिल टाइगर (लिट्टे) के खिलाफ जो सैन्य अभियान चला, उसमें रक्षा सचिव के नाते गोटाबाया की महत्त्वपूर्ण भूमिका थी। टाइगरों के साथ-साथ संदेह की दृष्टि से जिस ढंग से आम तमिलों को कुचला गया, उनकी बर्बर हत्याएं हुई वह दुनिया के सामने है। इस नाते तमिलों के अंदर आशंका उठना स्वाभाविक है। हालांकि इस बीच श्रीलंका भी धीरे-धीरे उस भयावह दौर से बाहर निकल आया है। भारत भी यथार्थ को स्वीकार कर तमिल क्षेत्रों के पुनर्निर्माण में अपनी भूमिका निभा रहा है। लेकिन भारत में चिंता का बड़ा कारण यह है कि जिस तरह महेंद्र राजपक्षे के कार्यकाल के अंतिम दौर में श्रीलंका चीन के पाले में चला गया था, वहां भारत विरोधी भावनाएं भड़काई गई थीं वह दौर फिर से वापस ना आ जाए। यह चिंता बिल्कुल निराधार भी नहीं है। वैसे भारत ने पिछले पांच वर्षो में श्रीलंका के साथ अपने संबंध काफी मजबूत किए हैं। महेंद्र राजपक्षे से भी भारत ने लगातार संवाद बनाए रखा। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने अपनी तीन श्रीलंका यात्राओं के दौरान महेंद्र राजपक्षे से विपक्ष के नेता के रूप में मुलाकात की। महेंद्र राजपक्षे भी इस बीच भारत की यात्रा पर आए। राजनयिक हलकों में आम धारणा है कि अब उनके अंदर भारत विरोधी भावना नहीं है। श्रीलंका जिस तरह चीन के कर्ज जाल में फंसा उससे महेंद्र राजपक्षे को भी सीख मिली। श्रीलंका का हंबनटोटा बंदरगाह चीन के पास गिरवी है। इस कारण जनमानस भी वहां चीन के पक्ष में नहीं है। भारत ने पिछले राष्ट्रपति चुनाव में अवश्य भूमिका निभाई थी, लेकिन इस बार चुनाव से भारत ने परोक्ष रूप से भी अपने को दूर रखा है। इसलिए भारत को लेकर नवनिर्वाचित राष्ट्रपति राजपक्षे के अंदर विरोध भाव नहीं होना चाहिए। भारत ने पिछले सालों में अपनी नीतियों से आम श्रीलंकाई के अंदर यह भाव मजबूत किया है कि हम उनके सुख-दुख के साथी हैं। पिछले अप्रैल माह में हुए आतंकवादी हमले में भारत पूरी तरह श्रीलंका के साथ खड़ा रहा। शपथ ग्रहण के कुछ ही दिनों बाद प्रधानमंत्री मोदी ने कुछ घंटों के लिए श्रीलंका की अनौपचारिक यात्रा कर श्रीलंका के साथ एकजुटता दिखाई थी। भविष्य की नीति के बारे में तत्काल निश्चयात्मक रूप से कुछ नहीं कहा जा सकता मगर उम्मीद की जा सकती है गोटाबाया के कार्यकाल में भी भारत-श्रीलंका के संबंध बेहतर रहेंगे।
गहराती चुनौती
संपादकीय
छत्तीसगढ़ के जंगलमहल और महाराष्ट्र के गढ़चिरौली सहित देश के तमाम माओवादी हिंसा से प्रभावित इलाकों में किस तरह की चुनौतियां खड़ी हैं, यह सभी जानते हैं। यह भी तथ्य है कि इन इलाकों में समस्या से निपटने से लेकर सुरक्षा बलों की निगरानी में कोई कोर-कसर नहीं छोड़ी जा रही है। लेकिन यह समझना मुश्किल है कि इसके बावजूद माओवादियों पर पूरी तरह काबू पाना कैसे संभव नहीं हो पा रहा है। रविवार को सामने आई एक खबर के मुताबिक बस्तर में माओवादी हिंसा से सबसे ज्यादा प्रभावित सुकमा जिले में कुछ समय पहले सीआरपीएफ के एक शिविर के ऊपर ड्रोन यानी मानवरहित यान मंडराता देखा गया।
जैसे ही सीआरपीएफ के जवान सक्रिय हुए, वैसे ही वह गायब हो गया। यह इस बात का साफ संकेत है कि एक तो ड्रोन जैसे संवेदनशील साधन भी माओवादियों की पहुंच के दायरे में आ चुके हैं और दूसरे, वे उनके जरिए अपने प्रभाव वाले इलाकों में सुरक्षा बलों की गतिविधियों पर निगरानी करने की कोशिश कर रहे हैं। जबकि अब तक इस उपकरण का उपयोग केवल सुरक्षा बल माओवादियों पर निगरानी के लिए करते रहे हैं। इस घटना के सामने आने के बाद सुरक्षा बलों को ड्रोन पर नजर पड़ते ही नष्ट करने के आदेश दिए गए हैं। लेकिन इससे यह साफ है कि माओवाद प्रभावित इलाकों में सुरक्षा बलों की चुनौतियां बढ़ सकती हैं।
निश्चित तौर पर यह गहरी चिंता की बात है और इसके बाद यह पता लगाने की जरूरत है कि माओवादी समूहों तक ड्रोन जैसे संवेदनशील उपकरण कैसे पहुंचे और इसका जरिया कौन है। फिलहाल इस मामले में शुरुआती जांच के दौरान खुफिया एजेंसियों को मुंबई के एक दुकानदार पर शक है कि उसने अज्ञात लोगों को ड्रोन बेचे थे। हालांकि यह कोई पहला मौका नहीं है जब माओवादियों के पास निगरानी रखने के लिए ड्रोन या दूसरे उपकरण होने के संकेत मिले हों।
करीब साढ़े चार साल पहले खुद माओवादियों की एक चिट्ठी के जरिए हुए खुलासे के हवाले से यह खबर आई थी कि सुरक्षा बलों से मुकाबला करने के लिए वे ड्रोन और मोर्टार बनाना सीख रहे हैं। इसके अलावा, वे मोटरसाइकिल के इंजन को जोड़ कर ड्रोन और रिमोट के जरिए आइआइडी विस्फोट करने की तकनीक पर भी काम कर रहे हैं। यानी अब तक इस संदर्भ में जो ब्योरे उपलब्ध हो सके हैं, उससे यही संदेह है कि माओवादी समूहों की पहुंच या तो ड्रोन मुहैया कराने वालों तक है या फिर वे इसे तैयार करने की क्षमता विकसित कर चुके हैं।
जाहिर है, दोनों ही स्थितियों में यह सुरक्षा बलों और सरकार के लिए एक बड़ी चुनौती है कि माओवादी समूहों की आधुनिक तकनीकी तक पहुंच का सामने कैसे किया जाए। विडंबना यह है कि एक ओर माओवाद प्रभावित इलाकों में समस्या पर काबू पाने का दावा किया जा रहा है और दूसरी ओर माओवादियों की क्षमता में बढ़ोतरी के संकेत मिल रहे हैं। यह किसी से छिपा नहीं है कि आए दिन माओवाद प्रभावित इलाकों में तैनात सीआरपीएफ के शिविर या काफिलों पर घात लगा कर हमला किया जाता है और उसमें नाहक ही जवानों की जान चली जाती है।
दरअसल, बस्तर या गढ़चिरौली जैसे उन क्षेत्रों की जटिल भौगोलिक संरचना माओवादियों को अपने अनुकूल लगती है और वहां कई बार वे किसी हमले को अंजाम देने में कामयाब हो जाते हैं। हालांकि यह भी सच है कि सुरक्षा बलों ने भी अक्सर अभियान चला कर माओवादियों पर काबू पाने की हर मुमकिन कोशिश की है। लेकिन ड्रोन से सीआरपीएफ शिविर की निगरानी के ताजा मामले से साफ है कि सुरक्षा बलों को अब अतिरिक्त चौकसी बरतने की जरूरत है।
Date:19-11-19
बदलाव के संकेत
संपादकीय
पड़ोसी देश श्रीलंका में हुए राष्ट्रपति चुनाव में श्रीलंका फ्रीडम पार्टी (एसएफपी) के उम्मीदवार गोटबाया राजपक्षे की जीत ने एक बार फिर से देश की राजनीति की दिशा बदल दी है। राजपक्षे ने यूनाइटेड नेशनल पार्टी (यूएनपी) के उम्मीदवार सजित प्रेमदासा को तेरह लाख वोटों से हराते हुए यह साबित कर दिया है कि उनकी पार्टी एसएफपी और राजपक्षे परिवार का दबदबा अभी भी पहले की तरह ही कायम है। श्रीलंका में 2005 से 2015 तक एसएफपी सत्ता में रही थी और तब गोटबाया के बड़े भाई महिंदा राजपक्षे देश के राष्ट्रपति रहे थे और उनके शासनकाल में गोटबाया दो साल रक्षा मंत्री भी रहे थे।
इस चुनाव में एसएफपी की जीत इसलिए भी महत्त्वपूर्ण मानी जा रही है कि श्रीलंका के सिंहल बहुल दक्षिणी हिस्से में राजपक्षे की पार्टी फिर से ताकतवर बन कर उभरी है। हालांकि देश के मुसलिम और तमिल बहुल इलाकों में श्रीलंका फ्रीडम पार्टी को खासी हार का सामना करना पड़ा। इससे यह भी साफ है कि देश में लंबे समय से तमिल समुदाय व अल्पसंख्यकों और सिंहलियों के बीच जो वैमनस्य चला आ रहा है, उसकी खाई अभी तक पटी नहीं है।
यह तो ठीक है कि महिंदा राजपक्षे के भाई के नाते श्रीलंका की राजनीति में गोटबाया का दबदबा बढ़ता गया, लेकिन इससे भी ज्यादा उन्हें जिस बात के लिए जाना जाता है वह है देश से मुक्ति चीतों का सफाया। राजपक्षे मूल रूप से फौजी अफसर रहे हैं और तमिल इलाकों से लिबरेशन टाइगर्स ऑफ तमिल ईलम (एलटीटीई) के सफाए के अभियान को उन्होंने अंजाम तक पहुंचाया। इसलिए वे श्रीलका में ‘टर्मिनेटर’ के नाम से भी विख्यात हैं। सिंहली बौद्ध समुदाय में वे महानायक के रूप में देखे जाते हैं तो तमिल समुदाय में उन्हें आज भी खलनायक के तौर पर ही देखा जाता है।
यही वजह है कि तमिल बहुल इलाकों में श्रीलंका फ्रीडम पार्टी जीत का मुंह नहीं देख पाई। सवाल है कि क्या नई सरकार का तमिलों के प्रति पहले जैसा द्वेषपूर्ण रवैया रहेगा या फिर वक्त के साथ उसमें कुछ उदारता देखने को मिलेगी। श्रीलंका में सिंहलियों और मुसलमानों के बीच होते रहने वाले संघर्ष भी देश के लिए कम बड़ी चुनौती नहीं हैं। श्रीलंका में पिछले साल चर्च पर जिस तरह से आत्मघाती हमले हुए और इसके पीछे इस्लामी आतंकवाद का हाथ माना गया, उससे भी नई सरकार को निपटना है। सिंहलियों को लगता है कि गोटबाया राजपक्षे ने जिस तरह से एलटीटीई का सफाया किया, उसी तरह वे इस्लामी आतंकवाद से भी निपट पाने में सक्षम होंगे।
श्रीलंका का एकमात्र पड़ोसी देश भारत है। इसलिए गोटबाया का सत्ता में आना भारत के लिए हर तरह से महत्त्वपूर्ण है और इसके दूरगामी अर्थ भी हैं। भारत के लिए सबसे बड़ी चिंता की बात यह है कि श्रीलंका में एक बार फिरसे चीन समर्थक सत्ता की वापसी हुई है। महिंदा राजपक्षे ने भी अपने दस साल के शासन में चीन के साथ गहरी दोस्ती निभाई थी और हंबनटोटा बंदरगाह का निर्माण कर हिंद महासागर में चीन की सैन्य गतिविधियों के लिए स्थायी रास्ता बना दिया था। अब भारत के दो पड़ोसी नेपाल और श्रीलंका में चीन समर्थक सरकारें हो गई हैं।
नेपाल के प्रधानमंत्री केपी शर्मा ओली का चीन के प्रति प्रेम जगजाहिर है। फिर, भारत श्रीलंका में रह रहे तमिलों के हितों की अनदेखी नहीं कर सकता। यही वजह है कि श्रीलंका की नीतियां सुरक्षा और सामरिक कारणों के अलावा भारत की अंदरूनी राजनीति को प्रभावित करती हैं। ऐसे में श्रीलंका की नई सरकार भारत के प्रति क्या रुख रखती है, यह आने वाला वक्त बताएगा।
Old in the new
The Rajapaksas return to power in Colombo in a polarised election. A stable and united Sri Lanka is in India’s interest
Editorial
Gotabaya Rajapaksa’s election as President of Sri Lanka was foretold on Easter Sunday this year, when suicide bombers professing loyalty to the Islamic State blew themselves at churches and hotels killing hundreds of people. That horrific day rekindled Sri Lanka’s collective memory of the years of terrorist violence by the LTTE, and the long military failure to defeat the Tamil insurgency — until in 2007, when then president, Mahinda Rajapaksa, gave his brother Gotabaya carte blanche against the Tigers. In two years, a freshly armed, retrained, and self-believing Sri Lankan Army, had crushed the LTTE. “Gota” was seen as the architect of that victory. Ten years later, when Sri Lanka faced another national security crisis, nostalgia for the Rajapaksas touched a new high, especially after it became clear that the “national unity government” that replaced the Rajapaksa regime in 2015 had failed to prevent the bombings.
Even before this, as the president and prime minister fought each other for supremacy, almost from the get-go and the work of governance ground to a halt, Rajapaksa’s authoritarian ways began to be compared favourably. This was evident from his sweep of the local bodies elections in 2018. To be sure, there was no pan-country longing for the Rajapaksas. It was a majoritarian Sinhala-Buddhist sentiment, and this is clear from the election results too. Indeed, this is possibly the most ethnically polarised result in Sri Lanka over the last three decades, other than the Tamil boycott of the 2005 presidential contest enforced by the LTTE. Post-war Sri Lanka’s failure to address allegations of war crimes against Tamils, blame for which was laid at Gotabaya’s door, as well as the paralysis on constitutional reform, meant the Tamil community preferred to vote for the rival candidate, Sajith Premadasa of the United National Party. The new president’s well-known and documented association with a Buddhist extremist organisation, which has been held responsible for fomenting violence against Muslims, meant that Muslims too did not vote for him.
There is little doubt that Gotabaya is the only new face for Rajapaksa family rule. India, whose relations with Sri Lanka went through a troubled patch during the Mahinda Rajapaksa presidency due to his proximity with China, now faces the challenge of rebuilding ties with the brothers. While doing so, Delhi should not lose sight of the reality that an ethnically divided and unstable Sri Lanka is not in India’s interest.