20-02-2023 (Important News Clippings)
To Download Click Here.
Date:20-02-23
Sena Vs Sena
Shinde won the symbol. But Uddhav continues to hold good cards. Expect bitter fights over shakhas
TOI Editorials
Although EC’s decision to recognise the faction led by Maharashtra CM Eknath Shinde as the real Shiv Sena gives an edge to that camp, Sena wars are far from over. EC relied on the ‘test of majority’ to find in favour of the Shinde faction. But both the Shinde and Uddhav Thackeray factions will continue to battle over the legacy of Bal Thackeray as well as for control of the Sena shakhas – the organisational backbone of the party. In fact, EC’s ruling has no bearing on the ownership of the party headquarters, Shiv Sena Bhavan, or the shakhas. This is because these are mostly owned by shakha pramukhs, local leaders and trusts. For example, Shiv Sena Bhavan is owned by Shivai Trust and not the party itself.
This sets the ground for a bitter, prolonged tussle between the two factions. True, if shakhas and shakha pramukhs voluntarily move to the Shinde camp, the transition will be smooth. After all, with the party name and symbol gone, many Shiv Sainiks are likely to calculate that their political future no longer lies with the Uddhav camp. But staunch Uddhav supporters will continue to pose a challenge for Shinde as highlighted by the skirmishes between the two camps in Dapoli, Ratnagiri, over control of a local shakha. That the Shinde camp is now indicating that it won’t try to take over Shiv Sena Bhavan shows Uddhav continues to hold some good cards. Plus, there is also the matter of control over Sena’s worker groups and unions that form a critical pillar of the party’s political clout and financial muscle. A bitter feud over these could even lead to serious law and order situations in Maharashtra.
Put together, there are two key takeaways here. First, even if the Sena organisation splits vertically among the two factions, the party is unlikely to regain its former clout in Maharashtra politics. Both factions are slated to play second fiddle to NCP or BJP in the foreseeable future. Second, EC’s ruling rued the lack of inner-party democracy in setting aside the amended 2018 Shiv Sena constitution as being undemocratic. But lack of inner-party democracy is a problem with several parties in the country. Therefore, the Shiv Sena factional war could throw up many more such episodes across the political spectrum. Thus, how Sena vs Sena plays out may have political implications beyond Maharashtra.
Date:20-02-23
Aldermen altercation
By barring Lieutenant-Governor’s nominees from voting, the Supreme Court of India has scuttled mischief in Delhi
Editorial
The Supreme Court of India has rightly shot down the brazen and legally untenable claim that nominated members of the Municipal Corporation of Delhi (MCD) may be allowed to vote in the election of its Mayor. The Bharatiya Janata Party (BJP) sought to bend the rules to allow the 10 aldermen, nominated by the Lieutenant-Governor, to vote in the election, despite the law limiting the process to elected Councillors. That a question concerning a mayoral election should engage national attention is due to the political acrimony between the ruling BJP at the Centre and the Aam Aadmi Party (AAP), which runs the elected regime in the National Capital Territory of Delhi. The BJP sought to interpret the relevant provisions in the Constitution and the Delhi Municipal Corporation Act in such a way that the specific bar on nominated members voting in “meetings” of the corporation should not be applied to its first meeting, at which the Mayor and Deputy Mayor are elected. It takes a particularly perverse political imagination to argue that “meetings” do not include the “first meeting”. Three attempts to hold the mayoral election, following the MCD polls that took place in December 2022, were stalled by clashes between AAP and BJP councillors over this question. The verdict vindicates the position of AAP, which has 134 councillors in the 250-member Council, against the BJP’s 104.
It is unfortunate that before the Court, the Lt. Governor also took the questionable political stand that the restriction on the right to vote in Article 243R(2) of the Constitution and the proviso to Section 3(3)(b)(i) of the Act was limited to regular meetings, and not to the first meeting of the Council. The Court rejected the argument, noting that the law provides for the nomination of 10 people “with special knowledge and experience in municipal administration”, but without any voting right. In keeping with the Court’s order, Lt. Governor V.K. Saxena has now approved February 22 as the date for the election of the Mayor, Deputy Mayor and six members of the Standing Committee. Last year, Parliament passed a law to merge the three corporations in Delhi into a single entity, a decision criticised for reversing the trend of having compact local bodies for better delivery of civic services. Delhi’s lack of statehood is a source of conflict between the Centre and the elected regime in the capital territory, but the political protagonists should not allow Delhi’s administrative structures to be plagued by the tussle. The core message from a Constitution Bench judgment of 2018, that elected bodies should not be undermined by unelected administrators, is yet to hit home.
Date:20-02-23
विस्तारवाद के विरुद्ध
संपादकीय
पिछले कुछ समय से यह साफ देखा जा सकता है कि भारत आतंकवाद और विस्तारवाद की भूख के खिलाफ जो सवाल उठाता रहा है, उसे अनेक देशों में न सिर्फ विचार के लिए जरूरी समझा जाने लगा है, बल्कि अब उन पर स्पष्ट रुख भी जाहिर किया जा रहा है। हालांकि इस तरह के मुद्दों पर वैश्विक स्तर पर लंबे समय तक उदासीनता छाई रही, जिसका खमियाजा यह हुआ कि आतंकवादी संगठनों का हौसला बढ़ा और नाहक दूसरे देशों की सीमाओं में दखल देने वाले चीन जैसे देश को अपना रास्ता निर्बाध लगा। लेकिन अब दुनिया में भारत के बढ़ते कद के साथ यह तस्वीर बदलने लगी है। गौरतलब है कि अमेरिकी सीनेट में एक द्विदलीय प्रस्ताव पेश किया गया है, जिसमें भारत की वास्तविक नियंत्रण रेखा पर यथास्थिति को बदलने की चीन की आक्रामकता का विरोध किया गया है। साथ ही अरुणाचल प्रदेश पर चीन के हर दावे को खारिज करते हुए इसे भारत के अभिन्न अंग के रूप में मान्यता देने की स्पष्ट वकालत की गई है।
इस प्रस्ताव को अमेरिका में भारत के पक्ष को लेकर बन रही राय और स्पष्टता के तौर पर देखा जा सकता है, मगर यह भी सच है कि विश्व के प्रभावशाली देशों में अब हो रही ऐसी पहलकदमी के लिए भारत को लंबे समय तक दुनिया को आईना दिखाना पड़ा है। यह किसी से छिपा नहीं है कि पाकिस्तान स्थित ठिकानों से अपनी गतिविधियां संचालित करने वाले आतंकी संगठनों को लेकर भारत ने तथ्यों के साथ संयुक्त राष्ट्र सहित तमाम अंतरराष्ट्रीय मंचों पर अपनी बात रखी। लेकिन तकनीकी जटिलताओं का हवाला देकर इस मामले में ज्यादातर देश कोई स्पष्ट रुख अख्तियार करने से बचते रहे। लेकिन एक महीने पहले संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद की एक समिति ने पाकिस्तान स्थित आतंकवादी और लश्कर-ए-तैयबा में अनेक भूमिकाएं निभाने वाले अब्दुल रहमान मक्की को वैश्विक आतंकवादी घोषित कर दिया। इसकी मांग भारत काफी अरसे से कर रहा था। अब चीन को लेकर अमेरिकी सीनेट में जो पहलकदमी हुई है, उसकी अहमियत को भी इस दृष्टिकोण से देखा जा सकता है कि एक ओर जहां भारत को कूटनीतिक मोर्चे पर दुनिया को अपने पक्ष को सही साबित करने में कामयाबी मिल रही है, वहीं खुद कुछ देशों को यह हकीकत समझ में आने लगी है कि चीन और पाकिस्तान की ओर से प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से किस तरह नाहक दखलअंदाजी की जाती रही है।
दरअसल, चीन के मसले पर अमेरिकी सीनेट में इस प्रस्ताव की खास अहमियत इसलिए भी है कि इसे वहां के दोनों विरोधी दलों यानी डेमोक्रेटिक और रिपब्लिकन पार्टी के दो नेताओं की ओर से संयुक्त रूप से पेश किया गया है। यह वहां भारत को लेकर बन रही व्यापक सहमति का सूचक है। यह छिपा तथ्य नहीं है कि वास्तविक नियंत्रण रेखा पर यथास्थिति में छेड़छाड़ की मंशा से चीन आए दिन अपने सैन्य बलों के इस्तेमाल से लेकर विवादित क्षेत्रों में गांवों के निर्माण सहित उकसावे वाली कई तरह की कार्रवाइयां करता रहता है। यही नहीं, अक्सर चीन अरुणाचल प्रदेश को अपना क्षेत्र होने के दावे करता रहता है, जिससे उसकी आक्रामक और विस्तारवादी नीतियों की भूख का ही पता चलता है। अमेरिका में पेश प्रस्ताव में चीन की ऐसी हरकतों की साफ शब्दों में निंदा की गई है। यों भारत अपनी सीमाओं की रक्षा अपने स्तर पर करने में सक्षम है और हर मौके पर यह साबित भी हुआ है, लेकिन अब अगर अन्य बड़ी शक्तियों की ओर से भी चीन और पाकिस्तान को लेकर भारत के रुख को समर्थन मिल रहा है तो इसे वैश्विक स्तर पर सच का सामना की तरह देखा जा सकता है।
Date:20-02-23
संयम, नियम और नौकरशाही
अशोक कुमार
लोक कल्याणकारी योजनाओं के क्रियान्वयन में लोक प्रशासन की गहन भूमिका स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद से निरूपित की गई है। इस निमित्त राष्ट्रीय स्तर पर अखिल भारतीय सेवाओं के साथ-साथ राजस्व, तकनीकी और अभियंत्रण सेवाओं का गठन कर संघ लोक सेवा आयोग को महती जिम्मेदारी दी गई कि वह योग्य अधिकारियों का चयन करे। इसी प्रकार देश के हर राज्य में भी लोक सेवा आयोग का गठन करके उन्हें विभिन्न श्रेणी के राजपत्रित अधिकारियों के चयन के लिए प्राधिकृत किया गया। हर राज्य के जिले में इसके कप्तान के रूप में जिला कलेक्टर हैं, जिनके मातहत सभी विभागों के प्रशासनिक और गैर-प्रशासनिक सेवाओं के पदाधिकारियों की एक वृहद शृंखला निर्धारित है। प्रांत के मुख्यालय में सरकार के सबसे उच्च स्तरीय संगठन सचिवालय को राज्य के सर्वांगीण विकास और जन कल्याण सहित विधि व्यवस्था के कार्यों के लिए योजना निर्माण और इसके कुशल कार्यान्वयन की समीक्षा-सह-अनुश्रवण की जिम्मेदारी दी गई है, जहां अपने क्षेत्रीय कर्तव्यों के वृहद अनुभव से लैस भारतीय प्रशासनिक सेवा के वरिष्ठ अधिकारी पदसोपानीय क्रम में विभागाध्यक्ष घोषित हैं। ये अधिकारी अपनी टीम के साथ राज्य सरकार के द्वारा संचालित परियोजनाओं के लिए जिम्मेवार माने जाते हैं। किसी भी सरकार के कार्यों एवं दायित्वों के परिचालन के लिए निर्धारित की गई संरचनाओं और नियमों को समग्र रूप से हम नौकरशाही के नाम से भी जानते हैं। नौकरशाही की प्रमुख विशेषताओं में कर्मचारियों और अधिकारियों के बीच अच्छी प्रकार से परिभाषित प्रशासनिक कार्यों का विभाजन, कर्मियों की भर्ती और उनके करिअर की सुव्यवस्थित और तर्कसंगत तंत्र सह अधिकारियों में पदानुक्रम, शक्ति, अधिकार, कर्त्तव्य आदि का समुचित वितरण किया गया है।
नौकरशाही कार्मिकों का वह समूह है, जिसपर प्रशासन का केंद्र आधारित है। प्रत्येक देश का शासन और प्रशासन इसी के इर्दगिर्द घूमता है। इसे जहां अपने अधिक सकारात्मक कार्यों में कुशलतापूर्वक दायित्व निर्वहन में निपुण माना जाता है, वहीं इसके कुछ हिस्से नकारात्मक अर्थों में लालफीताशाही, भ्रष्टाचार, पक्षपात, अहंकार और आभिजात्य मन:स्थिति के लिए भी मशहूर हैं। इसका नैतिक असर प्रशासनिक क्षितिज के साथ-साथ जनमानस में भी एक असंतोष की लंबी रेखा खींच देता है, जिससे सकारात्मक कार्य करने वाले नौकरशाह के मानस पटल को भी निराशा की तरंग से अप्रत्यक्ष तौर पर भर देने में कमी नहीं करता।
लोक प्रशासन की स्थापना के पूर्व कालखंड में समाज में मानव प्रशासन की एक गुणात्मक विधा व्याप्त थी, जहां कोई उपाधि या डिग्री के बगैर जीवन कार्यों के संचालन के समस्त उपबंध मौजूद थे। परंपरागत मूल्यों के संवाहक और पालक हमारे पूर्वज हुआ करते थे, जिनके कुशल सह कठोर अनुशासन व्यवस्था से समाज में शांति, सद्भाव और समन्वय की शीतल त्रिवेणी प्रवाहित हुआ करती थी। आज हमारे कदम एक ओर चांद और मंगल ग्रहों की यात्रा कर चुकी है तो विज्ञान की प्रगति ने अनेक द्वार भी खोल दिए हैं।
बीते कुछ समय में अनेक राज्यों से ऐसी घटनाएं प्रकाश में आई हैं जो मानवीय चेतना को झकझोर कर रख देती हैं। बिहार राज्य के शीर्ष प्रशासनिक हल्के से दो ऐसे वाकए सुनने को मिले, जिससे बौद्धिक वर्ग हैरान तो हुआ ही, साथ ही पूरे प्रदेश में इसे असहज दृष्टि से देखा गया। राज्य मुख्यालय के अखिल भारतीय स्तर के दो पदाधिकारियों ने अपने अधीनस्थ अधिकारियों के साथ उन्हें अपमानित करने की कोशिश की। एक अधिकारी ने तो अपशब्दों तक का इस्तेमाल किया। इन दो घटनाओं ने पूरे प्रशासनिक, सामाजिक और राजनीतिक महकमे को आंदोलित कर दिया। एक मामला पटना उच्च न्यायालय तक पहुंच गया।
बुनियादी सवाल यह है कि प्रशासन के शीर्ष अधिकारियों से उनके अधीनस्थ अधिकारी और कर्मचारी शालीनता और सद्भाव की अपेक्षा करते हैं और जब उन्हें विपरीत आचरण झेलना पड़ेगा तो आखिर उस दायित्व पुंज का भविष्य क्या होगा, जिसमें दोनों को मिलजुल कर लक्ष्य को पाना है। सामाजिक ताने-बाने के सूत्र कहते हैं कि शब्द ब्रह्म स्वरूप हैं। किसी चूक से घायल जिह्वा के घाव भर तो जाया करते हैं, लेकिन उसी जिह्वा से निकले अपशब्द से घायल व्यक्ति के घाव कभी नहीं भरते। शब्दों की शक्ति अगाध और असीम है जो समाज में शांति भी स्थापित करती है और अशांति का दौर भी लाती हैं। हर सरकारी कर्मचारी और अधिकारी के लिए सेवा आचरण अनुशासनिक नियमावली बनी हुई है, जिसकी परिधि से वे सभी बंधे हुए हैं। किसी भी कर्मचारी या अधिकारी जो अपने कर्तव्य पालन में शिथिल या अकर्मण्य है, उसके विरुद्ध सेवा संहिता के विभिन्न धाराओं के अनुसार चरणबद्ध ढंग से कई कारवाई वर्णित हैं। इस प्रकरण में उनके विरुद्ध लघु और वृहद दंड का प्रावधान भी निरूपित है। प्रत्येक शीर्ष अधिकारी का यह कर्तव्य है कि वह टीम के नेतृत्वकर्ता की हैसियत से अपने अधीनस्थों से कुशल और सौम्यता के साथ पेश आए। जब कोई अधिकारी या कर्मचारी सरकारी नियमों के विरुद्ध आचरण अपनाता है तो उससे स्पष्टीकरण पूछते हुए विभागीय कारवाई की जा सकती है। उक्त कारवाई में उसकी प्रोन्नति बाधित करना, वार्षिक वेतनवृद्धि रोकना और सेवा से मुक्त करने जैसे कठोर नियम बने हुए हैं। प्रशासन पदसोपान के नियंत्रण पदाधिकारियों को जब अपने अधिकार क्षेत्र में इतनी बड़ी शक्ति प्राप्त है तो उन्हें अपशब्दों के प्रयोग से बचना चाहिए।
1980 के दशक में शीर्ष अधिकारियों में से इक्का-दुक्का ही शालीनता की सीमा पार करते थे, लेकिन तुरंत वे इसके लिए अधीनस्थ से खेद प्रकट कर मामले को आगे बढ़ने से रोक लेते थे। एक संदर्भ यह है कि 1977 में जब कर्पूरी ठाकुर पहली बार बिहार के मुख्यमंत्री बने थे तो उन्होंने अपनी मंत्रिमंडल की प्रथम बैठक में उपस्थित अपने सभी मंत्रियों से संबंधित विभाग के प्रधान अधिकारियों के साथ अत्यंत शालीनता से व्यवहार करने का निर्देश दिया था। उनका यह निर्देश राज्य प्रशासन के गलियारे में सात्विक और प्रशंसनीय चर्चा का विषय बना था। कालांतर में यह संदेश प्रशासनिक क्षेत्रों में कारगर हुआ भी, लेकिन बाद के दौर में कुछ बड़े अधिकारियों ने अपने रोब से प्रशासनिक परिस्थिति में प्रतिकूलता का प्रवेश करा दिया। राम मनोहर लोहिया ने कहा था कि लोकतंत्र में उच्च ओहदे पर बैठे अधिकारियों को संयत भाषा का इस्तेमाल करते हुए अशिष्टता से बचना चाहिए, क्योंकि वे जहां हैं, जनमानस बड़ी बारीकी से उनकी प्रशासनिक गतिविधियों पर अपनी पैनी नजर रखे हुए है। लोहिया ने चिंतित मन से यह भी कहा था कि कुछ उच्च स्तरीय नौकरशाही अपना काम जिम्मेदारी और ईमानदारी के साथ नहीं करके हजारों लोगों का रोजाना मनोबल तोड़ती है।
यों बिहार ही नहीं, बल्कि देश के करीब सभी राज्यों में कुछ नौकरशाहों की ऐसी मानसिकता से साफ पता चलता है कि उनके रवैए में सुधार की जरूरत है। ऐसी श्रेणी के अधिकारी को अपनी पूरी सेवा में विवादों में घिरा रहना, एक जगह ठीक से नहीं टिकना सरकार के लिए सिरदर्द तो है ही, साथ ही उनका आचरण प्रशासनिक परिधि में चिंताजनक हालात उत्पन्न कर रहा है। जरूरत इस बात की है कि असंयमित भाषा से ग्रस्त शीर्ष अधिकारियों के विरुद्ध सेवासम्मत कार्रवाई हो। केंद्रीय कार्मिक एवं प्रशिक्षण मंत्रालय को भी अखिल भारतीय सेवा के अधिकारियों के प्रशिक्षण प्रकल्पों पर भी संशोधन करने पर विचार करना चाहिए, अन्यथा प्रशासनिक अराजकता के आगोश में एक दिन पूरे तंत्र के आ जाने का खतरा बना रहेगा।