19-05-2021 (Important News Clippings)

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19 May 2021
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Date:19-05-21

Stormy start

Accurate forecasts and resilience-building hold the key to handling severe cyclones

Editorial

Millions of people wearied by the onslaught of the coronavirus have had to contend with a furious tropical cyclone that has left a trail of death and destruction before making landfall in Gujarat. Cyclone Tauktae swelled into an extremely severe cyclonic storm, dumping enormous volumes of water all along the west coast, and caused loss of life in Kerala, Karnataka, Goa, Maharashtra and Gujarat, before weakening overland. To thousands who had to be evacuated to safe locations, this year’s pre-monsoon season presented a double jeopardy, caught as they were between a fast-spreading virus variant and an unrelenting storm. Many coastal residents would have felt a sense of déjà vu, having gone through a similar experience last year, when the severe cyclonic storm, Nisarga, barrelled landwards from the Arabian Sea, pounding Alibaug in Maharashtra as it came ashore. The cyclones in both years spared densely populated Mumbai. The twin crises have, however, strained the capacities of multiple States, especially the coastal ones, although the impact of the storm was considerably mitigated by disaster response forces. Once again, the value of creating a trained cadre, supported by the defence forces in rescue and relief work, is seen. The heralding of the 2021 monsoon season by a cyclone comes as another reminder that the subcontinent is at the confluence of more frequent, extreme weather events originating in the Bay of Bengal and the Arabian Sea every year.

How well India is prepared to handle cyclones depends on developing greater expertise in forecasting and disaster mitigation, and crafting policies to increase resilience among communities. Last year, the India Meteorological Department (IMD) launched an impact-based cyclone warning system from the October-December season designed to reduce economic losses by focusing on districts and specific locations, and incorporating such factors as population, infrastructure, land use and settlements. The IMD also claimed that its accuracy of forecasts, for instance, in plotting landfall location, is now better. Together with ground mapping of vulnerabilities, this is a promising approach to avoid loss of life and destruction of property. The importance of precise early warnings cannot be overemphasised, considering that the Arabian Sea has emerged as a major source of severe cyclones, and their intensity is aggravated by long-term rise in sea surface temperatures linked to pollution over South Asia and its neighbourhood. Climate-proofing lives and dwellings is a high priority now, a task that warrants a multi-sectoral approach: to build sturdy homes of suitable design, create adequate storm shelters, provide accurate early warnings, and ensure financial protection against calamities through insurance for property and assets. Governments must rise up to the challenge.


Date:19-05-21

दवाओं के उत्पादन में पिछड़ने का खतरा

भरत झुनझुनवाला, ( लेखक आर्थिक मामलों के विशेषज्ञ हैं )

वर्ष 1970 में भारत के दवा बाजार का दो तिहाई हिस्सा बहुराष्ट्रीय दवा कंपनियों के हाथ में था। बाद में भारत ने प्रोडक्ट पेटेंट को निरस्त कर दिया। परिणामस्वरूप पेटेंट की गई दवाओं को अन्य तकनीक से उत्पादन करने की भारतीय दवा कंपनियों को छूट मिल गई। फिर भारत में दवा का उत्पादन तेजी से बढ़ा। इससे भारत के दवा बाजार पर भारतीय कंपनियां प्रभावी हो गईं। साथ-साथ दवा उत्पादन करने के लिए जिस कच्चे माल यानी एपीआइ (एक्टिव फार्मास्यूटिकल इनग्रेडिएंट) की जरूरत थी, उसका भी 99 प्रतिशत हिस्सा देश में बनाया जाने लगा। आज भी भारत के दवा बाजार में भारतीय कंपनियां प्रभावी हैं, लेकिन एपीआइ की चाल बदल गई है। साल 1991 के बाद विदेश व्यापार को सरल करने का परिणाम यह हुआ कि 2019 में एपीआइ का 70 प्रतिशत आयात होने लगा। फिलहाल तैयार दवा में भारतीय कंपनियों का दबदबा जारी है, लेकिन एपीआइ के मामले में हम बाजार से बाहर हो गए हैं। चिंता यह है कि हमारी यह उपलब्धि भी खिसकने को है। तैयार दवाओं में भी अगले छह वर्षों में चीन प्रवेश कर सकता है। साफ है आगे बड़ा खतरा है।

वर्तमान में भारत में कोविड संबंधी दवाओं की उपलब्धता संकट में है, क्योंकि आयातित एपीआइ उपलब्ध नहीं हो पा रहा है या फिर महंगा मिल रहा है। हालांकि सरकार ने इस समस्या के समाधान के लिए 6,940 करोड़ रुपये की दवा बनाने की बुनियादी संरचना में अगले छह वर्षों में निवेश करने की घोषणा की है। साथ-साथ 19 मेडिकल उपकरणों की सरकारी खरीद को भारतीय कंपनियों के लिए निर्धारित कर दिया गया है। ये दोनों कदम सही दिशा में हैं, लेकिन पर्याप्त होते नहीं दिख रहे हैं। इसमें पहली समस्या आयात करों की है। एपीआइ के लिए आयात पर हमारी निर्भरता अन्य माल के आयात के साथ जुड़ी हुई है। हमारा आयात और व्यापार घाटा बढ़ा है। 1999 में हमारा व्यापार घाटा सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) का 1.91 प्रतिशत था। 2004 में यह घटकर 1.79 प्रतिशत हो गया। इसके बाद 2014 में मनमोहन सिंह के कार्यकाल में यह बढ़कर 2.99 प्रतिशत हो गया। मोदी सरकार के कार्यकाल में इसमें मामूली गिरावट आई है और 2019 में यह 2.72 प्रतिशत रह गया। 2014 से 2019 के बीच मोदी सरकार ने जो भी कदम उठाए हैं, वे अपर्याप्त सिद्ध हुए। इस वर्ष के बजट के संदर्भ में एसोसिएशन ऑफ इंडियन मेडिकल डिवाइस इंडस्ट्री के राजीव नाथ ने कहा है कि वे मेडिकल उपकरणों पर आयात कर न बढ़ाए जाने से हतोत्साहित हैं।

यदि हमें एपीआइ और मेडिकल उपकरण समेत तमाम आयात पर नकेल कसनी है तो आयात कर तेजी से बढ़ाने होंगे। निश्चित रूप से इससे देश में इन माल के दाम कुछ समय के लिए बढ़ेंगे, लेकिन अपनी स्वास्थ्य संप्रभुता के लिए यह भार हमें वहन करना चाहिए। दूसरा कदम तकनीक में निवेश का है। वर्तमान में भारतीय कंपनियों द्वारा जेनेरिक दवाएं बड़ी मात्र में बनाई जाती हैं, जो कि पेटेंट के दायरे से बाहर हैं। यानी आविष्कार विदेशी कंपनियां करती हैं और 20 वर्ष तक उससे भारी लाभ कमाने के बाद जब वे दवाएं पेटेंट से बाहर हो जाती हैं तो भारतीय कंपनियां उन्हेंं बनाती हैं। यदि हमें इस पिछलग्गू लाभ से आगे बढ़ना है और विश्व की अगुआई करनी है तो भारत को नई दवाओं के आविष्कार में निवेश करना होगा।

तीसरा काम मेडिकल उपकरणों के उत्पादन के लिए जरूरी बुनियादी संरचना स्थापित करने से संबंधित है। सरकार ने हाल में 6,940 करोड़ रुपये अगले छह वर्षों में इस मद पर खर्च करने की घोषणा की है। पॉली मेडिकेयर के हिमांशु वैद के अनुसार यह निवेश मात्र तीन वर्ष में किया जाना चाहिए था। पब्लिक हेल्थ फाउंडेशन ऑफ इंडिया के अनुसार अगले छह वर्षों में चीन हमारी दावा कंपनियों को पस्त कर सकता है। छह वर्ष में मर चुकी देसी कंपनियों के लिए बुनियादी संरचना बनाने का क्या लाभ होगा?

चौथा बिंदु पूंजी की उपलब्धता का है। चीन में ऋण पांच प्रतिशत ब्याज दर पर उपलब्ध है, जबकि भारत में 14 प्रतिशत पर। कई देश अपने दवा उत्पादकों को विशेष छूट पर ऋण दे रहे हैं। ईस्टमैन कोडक कंपनी को 5,700 करोड़ रुपये का विशाल ऋण अमेरिकी सरकार ने एपीआइ बनाने के लिए दिया है, जिसे 25 वर्षों में अदा किया जाना है। जाहिर है अमेरिका समझता है कि एपीआइ का उत्पादन देश की रक्षा के लिए जरूरी है।

हमें भी आगे की सोचना चाहिए। कोरोना वायरस अपना रूप बदल रहा है। इसके अतरिक्त नई प्रकार की महामारियों के भी आने की आशंका है, क्योंकि पर्यावरण तेजी से बदल रहा है। इस परिस्थिति में सरकार को तत्काल चार कदम उठाने चाहिए। पहला यह कि दवाओं समेत जितने भी देश में जरूरी उपकरण हैं और जिनसे हमारी र्आिथक एवं स्वास्थ्य संप्रभुता प्रभावित होती है उन पर आयात कर तेजी से बढ़ाने चाहिए। हालांकि अमेरिका जैसे देश हमारे द्वारा आयात कर बढ़ाए जाने का भारी विरोध करेंगे, लेकिन इसे सहन करना चाहिए। कुछ समय में हमारी कंपनियां कुशल हो जाएंगी और सस्ता माल बना लेंगी। दूसरे सरकार को नई तकनीक में विशेष निवेश करना चाहिए। इसके लिए कोविड के टीके समेत अन्य तमाम जरूरी दवाओं के अनिवार्य लाइसेंस जारी कर देने चाहिए। इसका बहुराष्ट्रीय कंपनियां प्रतिरोध करेंगी, लेकिन उसको भी सह लेना चाहिए। जिस प्रकार अटल बिहारी वाजपेयी ने परमाणु विस्फोट का साहसिक कदम उठाया था और मनमोहन सिंह ने विश्व व्यापार संगठन (डब्ल्यूटीओ) में साहस पूर्वक भारत द्वारा अपनी खाद्य सुरक्षा को बनाए रखने के लिए सस्ते मूल्य पर विदेशी खाद्य पदार्थों के आयात को छूट देने से इन्कार कर दिया था, उसी प्रकार आज मोदी सरकार को भी साहस दिखाते हुए आयात कर बढ़ाने चाहिए और अनिवार्य लाइसेंस जारी करने चाहिए।

जिस प्रकार हमने 1970 में प्रोडक्ट पेटेंट को निरस्त करके अपने देश में दवाओं और एपीआइ के उत्पादन को बढ़ाया था, उसी प्रकार प्रोडक्ट पेटेंट को इन समेत तमाम माल पर निरस्त करके देश में चौतरफा उत्पादन को प्रोत्साहन देना चाहिए। तब ही भारत आत्मनिर्भर बनेगा। इस कार्य को करने में डब्ल्यूटीओ की बाधा से विचलित नहीं होना चाहिए।


Date:19-05-21

बचाना होगा छोटी नदियों को

वेंकटेश दत्ता

हमें अपने गांवों और कस्बों की ताल-तलैया और छोटी नदियों की याद होगी, जो कभी स्वच्छ जल का बड़ा स्रोत हुआ करती थीं। लेकिन धीरे-धीरे अब ये सरकारी छोटी नदियां और तालाब राजस्व दस्तावेजों से गायब हो रहे हैं। जो तालाब, पोखर बचे भी हैं तो उनकी स्थिति दयनीय ही है। सवाल है कि आखिर ऐसा क्या हुआ जिससे जल संरक्षण के ये स्रोत खत्म होते चले गए। इसमें कोई संदेह नहीं कि अनियोजित विकास का नदियों के जीवन पर गंभीर असर पड़ा है। इसे दुखद ही कहा जाएगा कि कई नदियां तो अब सीवेज बहाने वाली नहरों में तब्दील बन गई हैं।

जैसे-जैसे आबादी बढ़ रही है, पीने के पानी और सिंचाई जल का संकट भी गहराता जा रहा है। सैकड़ों छोटी नदियां मिल कर एक इकाई बनाती हैं। छोटी नदियां और उनके साथ जुड़ी झीलें, गीली जमीन और तालाबों की शृंखला नदियों को जीवंत रखती है। नदियों का आपस में जुड़ा यह पारिस्थितिकी तंत्र उतना ही महत्त्वपूर्ण है जितना नदियों का निरंतर बहना। छोटी नदियां मानसूनी वर्षा और भूजल पर निर्भर होती हैं। यदि लंबे अंतराल तक सूखा रहता है या भूजल स्तर में तेजी से गिरावट आती है, तो सबसे पहले छोटी नदियां सूख जाती हैं। खतरा यह है कि गंगा बेसिन में विलुप्त होती छोटी नदियां और उपेक्षित हजारों तालाब बड़े खतरे का संकेत दे रहे हैं। भविष्य की खाद्य सुरक्षा पर भी इसका गहरा असर पड़ेगा। पिछले तीन दशकों में बारहमासी नदियां अब खंडित और रुक-रुक कर बहने वाली मौसमी नदियां बन रही हैं। भारत की मैदानी नदियां जैसे- गोमती, रामगंगा, चंबल, केन, बेतवा के प्रवाह का एकमात्र आधारभूत स्रोत भूजल और वर्षा जल है।

गंगा को हम तब तक अविरल और निर्मल नहीं बना पाएंगे, जब तक इसकी सभी सहायक नदियों के संरक्षण के लिए कोई बड़ी मुहिम नहीं चलाई जाती। इस मुहिम की जरूरत आज इसलिए भी ज्यादा है, क्योंकि कई छोटी नदियां, तालाब, पोखर और प्राकृतिक जल के स्रोत लगभग खत्म होते जा रहे हैं। गंगा नदी को अविरल और निर्मल बनाने के लिए पर्याप्त प्रवाह और जल गुणवत्ता के साथ निरंतरता आवश्यक है। इसमें सहायक नदियों का भी सदानीरा होना जरूरी है। गीली जमीन वाले सिकुड़ते क्षेत्र, तालाब और झीलें अब नदियों से नहीं मिलते हैं। नदी संरक्षण के हमारे प्रयास बड़ी और बारहमासी नदियों पर ही केंद्रित रहे हैं। जबकि छोटी नदियां प्रदूषण और उपेक्षा की शिकार हैं। इन्हें किसी बड़ी संरक्षण योजना में शामिल नहीं किया गया है। अन्य चर्चित मुद्दों के आगे छोटी नदियों के सवाल प्रमुखता से सामने नहीं आ पाते हैं।

जलवायु परिवर्तन, भूमि-उपयोग परिवर्तन और अत्यधिक जल अपव्यय के कारण बारहमासी नदियां अब मौसमी नदियां बनती जा रही हैं, विशेष रूप से वे छोटी नदियां जो भूजल और झरनों पर निर्भर होती थीं। दरअसल नदियों में जल की निरंतरता भूजल से ही रहती है। जहां भूजल का स्तर बेहतर है, वहां नदियां भी बहती रहती हैं। तालाब और भूजल का सीधा रिश्ता है। जहां खूब सारे जलाशय, पोखर या तालाब होते हैं, वहां भूजल स्तर भी ठीक रहता है। प्राकृतिक नालों और तालाबों से भूमिगत जल स्रोतों में पानी जाता रहता है और यही पानी हमारी नदियों में प्रवाह बनाता है।

सत्तर के दशक में पंपों से सिंचाई क्रांति की शुरुआत हुई थी। इसी के साथ भू-जल के दोहन का सिलसिला शुरू हुआ। इसकी वजह से मध्य और निचले गंगा बेसिन में जल प्रवाह लगभग साठ फीसद कम हो गया। यह अच्छा संकेत नहीं है, क्योंकि बारहमासी नदियों का आधारभूत प्रवाह भूजल प्रणालियों पर बहुत अधिक निर्भर करता है। भूजल हमारी पचासी फीसद कृषि, घरेलू और औद्योगिक जरूरतों को पूरा करता है। देश के आधे से अधिक भू-भागों में जलस्तर तेजी से नीचे गिरता जा रहा है। गंगा की कई सहायक नदियां हैं जिनमें पिछले पचास वर्षों में प्रवाह में तीस से साठ फीसद की गिरावट आई है। इसके प्रमुख कारणों में से एक भूजल स्तर में गिरावट और प्रवाह में कमी आना है। यह समझना महत्त्वपूर्ण है कि सभी नदियों के आधार-प्रवाह को बनाए रखने में भूजल का बड़ा योगदान है। भूजल की लगातार कमी निश्चित रूप से गंगा में पानी की मात्रा और प्रवाह कम करने में योगदान दे रही है। गंगा से सटे इलाकों में भूजल भंडार में भी लगभग तीस से चालीस सेंटीमीटर तक की कमी आई है। नदी के प्रवाह पर भूजल स्तर में गिरावट का प्रभाव गंगा की कई अन्य सहायक नदियों पर देखा जा सकता है, जिन्हें बर्फ के पिघलने से कोई पानी नहीं मिल रहा है।

कई छोटी-बड़ी सहायक नदियों का पानी गंगा नदी में मिल कर इसके प्रवाह को बढ़ाता है। स्वस्थ जलीय निवास को बनाए रखने के लिए प्रवाह आवश्यक है। साठ के दशक के उत्तरार्ध में दिल्ली में यमुना नदी में बड़ी संख्या में कछुए होते थे और उन्हें आसानी से तटों पर देखा जा सकता था। अब नदी जैविक रूप से मृत है। कछुए गायब हो गए हैं। जहरीले अपशिष्टों में मछलियों का जीवित रहना मुश्किल है। उत्तर प्रदेश में बहने वाली गोमती नदी अपने ऊपरी और मध्य हिस्सों में रुक-रुक कर बहने वाली धारा हो गई है। कभी यह एक बारहमासी नदी हुआ करती थी। अब गर्मियों के महीनों में कई हिस्सों में सूख जाती है। पहली बार नदी के उदगम स्थल से करीब सौ किलोमीटर तक का हिस्सा छोटे-छोटे खंडों में सूख गया है। यहां तक कि इसमें मिलने वाली सत्ताईस सहायक नदियों में से चौबीस नदियां सूख चुकी हैं।

मछलियां प्रदूषण के प्रति बहुत संवेदनशील होती हैं। जब नदियां सूख जाती हैं या अलग-अलग तालों में विखंडित हो जाती हैं, तो मछलियों, कछुओं जैसे जलीय जीवों के सामने अस्तित्व का संकट खड़ा हो जाता है। नदियों के सूख जाने पर मछलियां, मेंढक, पक्षी और कछुए सबसे ज्यादा संघर्ष करते हैं। हम बिजली के पंप से जमीन के अंदर का जल निकाल सकते हैं और अपनी प्यास बुझा सकते हैं। लेकिन ये जीव अपने अस्तित्व के लिए कहां जाएंगे, इस बारे में कोई नहीं सोचता। आज मछलियों की कई प्रजातियां खतरे में हैं, खासकर उन नदियों में जहां सिंचाई और जलापूर्ति के लिए अत्यधिक जल निकाला जा रहा है और साथ ही शहरों का गंदा उस जल मिला दिया जाता है। कभी हमारी बारहमासी नदियां विविध देशी प्रजातियों की मछलियों को आश्रय देती थीं, उनमें से कई का तो आर्थिक महत्त्व भी था। लेकिन पानी के दोहन और प्रदूषण के कारण उनकी आबादी को भारी नुकसान पहुंचा। दुनिया भर के अध्ययनों ने साबित किया है कि प्राकृतिक और अविरल बहने वाली धाराओं में मछलियों और अन्य जलीय जीवों की विविधता अक्षुण्ण बनी रहती है। बारहमासी नदियों में जलीय जंतु समुदाय अधिक स्थिर होते हैं, जबकि खंडित और संशोधित धाराएं अपने जलीय जानवरों को खोना शुरू कर देती हैं।

नदी से पानी लेने के विज्ञान को हम बखूबी जानते हैं, लेकिन नदी में वापस पानी लाने का ज्ञान अधूरा है। नदी के पूरे जल ग्रहण प्रबंधन का ज्ञान महत्त्वपूर्ण है। क्षेत्र के जल ग्रहण प्रबंधन की समझ इसके ऐतिहासिक मानचित्रों के साथ होनी चाहिए। छोटी नदियों, तालाबों और झीलों को राजस्व दस्तावेजों में दुरुस्त करना होगा, ताकि इस पर कोई अतिक्रमण न हो। जलस्रोतों के पुनरोद्धार के लिए हमें पुराने तालाबों को नया जीवन देना होगा। छोटी-बड़ी नदियों की जमीन को वापस लौटाना होगा। प्राकृतिक जल स्रोतों पर हुए कब्जे और अतिक्रमण हटाने के लिए नीतिगत ढांचों को और मजबूत करना होगा। एक नदी में न्यूनतम पारिस्थितिकी प्रवाह होना चाहिए। इतना जल रहे की जमीन में भी पानी पहुंचता रहे और जलीय जीवों का संसार भी बचा रहे।


Date:19-05-21

भारत का फिलिस्तीन पर दांव

ब्रह्मदीप अलूने

अंतरराष्ट्रीय संबंधों में कूटनीति का अहम योगदान होता है‚ जिसके जरिए किसी भी देश द्वारा अपने राष्ट्रीय हितों की पूर्ति की जाती है। बीसवीं सदी के कूटनीतिक विचारक हंस मोर्गेंथाऊ ने कहा था कि कूटनीति वह कला है‚ जिसके द्वारा राष्ट्रीय शक्ति के विभिन्न तत्वों को अंतरराष्ट्रीय परिस्थितियों में उन मामलों में अधिक से अधिक प्रभावशाली रूप में प्रयोग में लाया जाए जो कि हितों में सबसे स्पष्ट रूप से संबंधित हैं।

दरअसल‚ इस्राइल और फिलिस्तीन विवाद में भारत ने फिलिस्तीन के पक्ष में आवाज बुलंद करके सभी को हैरत में डाल दिया। ऐसा भी नहीं है कि भारत ने पहली बार फिलिस्तीन का समर्थन किया है‚ लेकिन भारत में 2014 में भाजपा के सत्ता में आने के बाद माना जा रहा था कि भारत इस्राइल के साथ खड़ा होगा। इस समय इस्राइल और फिलिस्तीन के बीच गहरा तनाव है‚ और भारत ने अपने राष्ट्रीय हितों को देखते हुए फिलिस्तीन का समर्थन करने से गुरेज नहीं किया। संयुक्त राष्ट्र में भारत के दूत टीएस तिरुमूर्ति ने कहा कि भारत फिलिस्तीन की जायज मांग का समर्थन करता है‚ और दो–राष्ट्र की नीति के जरिए समाधान को लेकर वचनबद्ध है। इसके साथ ही तिरुमूर्ति ने भारत की यह मांग भी रखी कि ‘दोनों पक्षों को एकतरफा कार्रवाई करके मौजूदा यथास्थिति में बदलाव की कोशिश नहीं करनी चाहिए‚ इसमें येरुशलम में किसी भी तरह का बदलाव न करना शामिल है।’

इस समय इस्राइल पूर्वी येरुशलम से फिलिस्तीनियों को बाहर करने की नीति पर काम कर रहा है‚ और ऐसे में भारत ने फिलिस्तीन को लेकर जिस प्रकार खुलकर समर्थन दिया उसे कूटनीतिक हलकों में अप्रत्याशित समझा जा रहा है। आपको याद होगा कि भारत के प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने साल 2017 में इस्राइल की यात्रा की थी। आजाद भारत के किसी प्रधानमंत्री की यह 70 सालों में पहली इस्राइल यात्रा थी‚ जहां हवाईअड्डे पर उनकी अगवानी के लिए इस्राइल के प्रधानमंत्री स्वयं उपस्थित थे और यह भारत के लिए अभूतपूर्व था। इसके पहले भारत के पहले प्रधानमंत्री पंडित जवाहरलाल नेहरू ने फिलिस्तीन की जमीन पर 14 मई‚ 1948 को अस्तित्व में आए नये देश इस्राइल का कड़ा विरोध किया था और भारत की इस्राइल को लेकर दूरी की यह नीति कई वर्ष तक जारी रही।

1984 में भारत के प्रधानमंत्री बने राजीव गांधी और बाद में नरसिंह राव ने इस्राइल से दूरी को दूर कर इसे नियंत्रण और संतुलन के आधार पर स्थापित किया। इन सबके बीच फिलिस्तीन को लेकर भारत की वैदेशिक नीति बेहद सकारात्मक रही और वैश्विक मंचों पर भारत की लगभग सभी सरकारों ने इसका इजहार भी किया। फिलिस्तीन मुक्ति संगठन को फिलीस्तीनी लोगों के एकमात्र वैध प्रतिनिधि के रूप में समकालीन रूप से मान्यता देने वाला भारत पहला गैर–अरब देश था। इसके पहले 1975 में भारत की राजधानी में पीएलओ का एक कार्यालय स्थापित किया गया था। अरब देशों के बाद भारत ही था जिसने फिलिस्तीन का लगातार अभूतपूर्व समर्थन किया था। 2018 में भारत के प्रधानमंत्री मोदी ने भी फिलिस्तीन की यात्रा की थी जहां उन्हें फिलिस्तीन के सर्वोच्च सम्मान ग्रैंड़ कॉलर से नवाजा गया था।

किसी भी राष्ट्र की वैदेशिक नीति के लिए सबसे अहम उसके राष्ट्रीय हित होते हैं। भारत का फिलिस्तीन के समर्थन का यह महत्वपूर्ण कारण है। अरब देशों को इस्राइल का मध्य–पूर्व में अस्तित्व अस्वीकार्य रहा है‚ और 1967 में यह युद्ध के रूप में उभर कर सामने आया था। 1967 में जब जॉर्डन‚ सीरिया और इराक सहित आधा दर्जन मुस्लिम देशों ने एक साथ इस्राइल पर हमला किया था तब उसने पलटवार करके मात्र छह दिनों में इन सभी को धूल चटा दी थी। उस घाव से अरब देश अब भी नहीं उबर पाए हैं। यह युद्ध 5 जून से 11 जून‚ 1967 तक चला और इस दौरान मध्य–पूर्व संघर्ष का स्वरूप ही बदल गया। इतिहास में इस घटना को सिक्स वॉर डे के नाम से जाना जाता है। इस्राइल ने मिस्र को गाजा से‚ सीरिया को गोलन पहाडि़यों से और जॉर्डन को पश्चिमी तट और पूर्वी येरुशलमसे धकेल दिया था। इसके कारण करीब पांच लाख फिलिस्तीनी बेघरबार हो गए थे। युद्धमें जीते गए इलाके अब इस्राइल के कब्जे में हैं‚ और खाड़ी देशों के लाख प्रयासों के बाद भी इस्राइल इन इलाकों को छोड़ने को तैयार नहीं है।

सऊदी अरब के पूर्व विदेश मंत्री प्रिंस साउद अल फैसल ने एक बार कहा था कि इस्राइल किसी भी तरह के कानून‚ नियम या धार्मिक मान्यताओं और मानवीय पक्षों को धता बताते हुए अपने लक्ष्य की और अग्रसर रहता है। सऊदी अरब इस्लामी सहयोग संगठन 57 देशों के प्रभावशाली समूह का अगुवा है। संयुक्त राष्ट्र के बाद यह दुनिया का दूसरा सबसे बड़ा संगठन है। यह संगठन इस्राइल का मुखरता से विरोध करता रहा है। ओआईसी का पाकिस्तान महत्वपूर्ण सदस्य है और वह कश्मीर का भ्रामक प्रचार करके इस संगठन का भारत के खिलाफ उपयोग करने के लिए लगातार प्रयासरत रहता है। 2019 में जब भारत ने जम्मू कश्मीर से अनुच्छेद 370 हटाकर राज्य के पुनर्गठन की घोषणा की थी तब पाकिस्तान ने इसकी तीखी प्रतिक्रिया करते हुए इस पर ओआईसी की आपात बैठक बुलाने की मांग की थी। इस समय भारत के पक्ष में सऊदी अरब आया था। जब भारत के विरोध में तुर्की और मलयेशिया जैसे देशों ने नकारात्मक बयान दिए तब सऊदी अरब ने पाकिस्तान को कड़ी चेतावनी दी थी। 2016 में मोदी की पहली सऊदी यात्रा के दौरान सऊदी अरब के बादशाह सलमान ने उन्हें सऊदी अरब का सर्वोच्च नागरिक सम्मान दिया था। बाद में सऊदी अरब के क्राउन प्रिंस मोहम्मद बिन सलमान ने भारत की यात्रा भी की थी।

इस समय दुनिया बड़े बदलावों से गुजर रही है‚ और भारत को पड़ोस के देशों से कड़ी रणनीतिक चुनौतियां मिल रही हैं। भारत‚ अमेरिका और सऊदी अरब के संबंध लगातार मजबूत हुए हैं वहीं पाकिस्तान‚चीन‚ रूस और ईरान जैसे देश भी लामबंद हुए हैं। भारत के इस्राइल से मजबूत सामरिक संबंध तो हैं‚ लेकिन भारत की भू–रणनीतिक और आर्थिक चुनौतियां इजाजत नहीं देतीं कि भारत खुलकर इस्राइल का समर्थन करे‚ ऐसे में सऊदी अरब समेत खाड़ी के कई देशों से भारत के संबंध खराब हो सकते हैं‚ जबकि इन देशों में भारत के लाखों लोग काम करते हैं‚ और तेल को लेकर भी भारत इन देशों पर निर्भर है। जाहिर है कि भारत ने हालिया तनाव में फिलिस्तीन का समर्थन करके न केवल अरब देशों को सकारात्मक संदेश दिया है‚ बल्कि ओआईसी में पाकिस्तान के भारत विरोध की संभावनाओं को कमजोर कर दिया है।


Date:19-05-21

काश! अपने पांव पर खड़े होते गांव

बद्री नारायण, ( निदेशक, जीबी पंत सामाजिक विज्ञान संस्थान )

कोरोना का घातक प्रसार देश के गांवों में भी पहुंच चुका है। शहर, शहर से लगे कस्बों, बाजारों से होता हुआ यह वायरस अब दूरस्थ गांवों में भी अपने पांव फैलाने लगा है। कोरोना की पहली लहर में उत्तर भारत के गांव बहुत प्रभावित नहीं हुए थे। तब लगा था कि ‘इंडिया’ के प्रभावी उपायों से ग्राम-अंचलों में फैला ‘भारत’ बच जाएगा। पर ऐसा न हो सका। आज गांवों की गलियों में मृत्यु को घूमते-टहलते आप आसानी से देख सकते हैं।

भारतीय गांवों की सबसे बड़ी मजबूरी है- शहरों पर उनकी निर्भरता। गांव के लोग प्रवासी मजदूर, कामगार बनकर शहरों, महानगरों में जाने और वहां से लौटने को विवश हैं। शहरों में अन्न, सब्जी, दूध बेचने जाना और वहां से दैनंदिन जीवन की अनेक जरूरी वस्तुओं का गांवों में आना ग्रामीण जीवन की मजबूरी है। इन्हीं लोगों और उत्पादों के साथ संक्रामक बीमारियां गांवों में पहुंचती, पांव पसारती रही हैं। हैजा, चेचक जैसी अनेक संक्रामक बीमारियां और उनके जानलेवा विषाणु औपनिवेशिक काल में भी सैनिकों के साथ परेड करते जिला केंद्रों के सिविल लाइन्स (ब्रिटिश सैनिकों के रहने के लिए विकसित क्षेत्र) से उड़कर शहरी आबादी में पहुंचते थे। फिर शहरी आबादी से गांवों में।

महात्मा गांधी पश्चिम-उत्पे्ररित शहरीकरण के इस दुश्चक्र को अच्छी तरह समझ चुके थे। वह कहते थे, भारत का भविष्य भारतीय गांवों से जुड़़ा है। गांव बचेंगे, तो भारत बचेगा। पश्चिम से प्रभावित आधुनिकीकरण और उसके सर्वग्रासी संकट को समझते हुए उन्होंने अपने उपनिवेशवाद विरोधी आजादी के संघर्ष के साथ भारतीय गांवों के पुनर्निर्माण के अभियान को मजबूती से जोड़ा था। वह शहरों पर निर्भरता के दुश्चक्र से मुक्त ‘आत्मनिर्भर गांव’ विकसित करना चाहते थे। सन 1945 में जवाहरलाल नेहरू को लिखे एक पत्र में उन्होंने कहा था, ‘मेरा आदर्श गांव अब भी मेरी कल्पनाओं में ही अवस्थित है। मैं भारत में एक ऐसी ग्राम-व्यवस्था और संस्कृति का विकास चाहता हूं, जो एक जागरूक गांव विकसित कर सके। ये शिथिल चेतना वाले गांव न हों; ये अंधेरे से भरे गांव न हों, ये ऐसे गांव न हों, जहां जानवरों के गोबर चारों तरफ फैले रहते हों। ये ऐसे गांव हों, जहां स्त्री-पुरुष आजादी के साथ रह सकें।’ इसी पत्र में उन्होंने आगे लिखा है कि मैं ऐसे गांव विकसित करना चाहता हूं, जो हैजा, प्लेग जैसी महामारियों से मुक्त रहें। जहां कोई आरामतलब एवं बेकार न हो। जहां सभी श्रमशील रहें और सबके पास काम रहें। ऐसे गांवों के पास से रेल लाइनें भी गुजरें, और इनमें पोस्ट ऑफिस भी हों।

गांधी भारतीय गांवों को साफ-सुथरा, महामारियों से मुक्त रिहाइश के रूप में विकसित करना चाहते थे। इसके लिए अपने पड़ोसी शहर पर गांवों की निर्भरता बढ़ाने के चक्र को वह तोड़ देना चाहते थे। वह गांवों से हो रहे पलायन की प्रक्रिया को रोकना चाहते थे। इसके लिए वह कृषि के साथ ही स्थानीय उत्पादों पर आधारित ग्रामीण उद्योगों को विकसित करना चाहते थे। वह चाहते थे कि गांव में आत्मतोष का भाव विकसित हो, और जहां जिसकी जितनी जरूरत हो, उतना वह उपभोग करे और अपने उत्पाद दूसरों से आदान-प्रदान करे। महात्मा गांधी उस बड़ी बचत की चाह को गांवों से खत्म करना चाहते थे, जो पूंजीवाद की खुराक बनकर उसे पोषित करता है। गांधी के गांव में शहरों से ज्यादा कुछ खरीदने की अपेक्षा नहीं थी। वह तो ग्रामीण उद्योगों के लिए कच्चा माल भी दूर से मंगाने के बजाय स्थानीय स्तर पर उगाए जाने की वकालत करते थे।

भारतीय गांवों की आत्मनिर्भरता और शहरों में जाने-आने की बढ़ती जरूरतों को नियंत्रित करने के लिए गांधी का मानना था कि गांव में प्राथमिक से लेकर विद्यापीठ तक स्थापित करने होंगे। उनका मानना था कि प्रारंभिक शिक्षा के बाद ग्रामीण विद्यार्थियों को शहरों में आकर माध्यमिक व उच्च शिक्षा लेने के लिए मजबूर होना पड़ता है। वह इस मजबूर गतिशीलता पर रोक लगाना चाहते थे। गांधी की परिकल्पना का ‘आत्मनिर्भर गांव’ वस्तुत: उनका मिशन था, जिसे वही नहीं, बल्कि पूरी गांधीवादी सामाजिक राजनीति सच बनाने में लगी थी। विनोबा भावे, जयप्रकाश नारायण, जे सी कुमारप्पा जैसे लोग आजादी के बाद बापू के ‘ग्राम-स्वराज’ और आत्मनिर्भर गांव के सपने को सच करने में जीवन-पर्यंत लगे रहे।

महात्मा गांधी की यह परिकल्पना विकास की संपूर्ण दृष्टि और कार्ययोजना थी। इसमें आर्थिक, सामाजिक, राजनीतिक दृष्टियों का समन्वय भी था। गांधी के कई अनुयायियों ने देश के विभिन्न भागों के गांवों में गांधीवादी संकल्पना से काम भी किया। एपीजे अब्दुल कलाम ने इसी सोच को अपने ढंग से विकसित करके एक रूपरेखा रखी थी, जिसमें गांवों को आत्मनिर्भर बनाने की कोशिश थी। प्रसिद्ध सामाजिक कार्यकर्ता नानाजी देशमुख, अन्ना हजारे भी अपने-अपने ढंग से महात्मा गांधी के इसी सपने को आगे बढ़ाते रहे।

अटल बिहारी वाजपेयी ने तो अपने प्रधानमंत्रित्व काल में गांवों को आत्मनिर्भर बनाने के लिए कई महत्वपूर्ण योजनाएं प्रारंभ की थीं। किंतु महात्मा गांधी का सपना साकार न हो सका, क्योंकि भारतीय राज्य आजादी के बाद से संगठित ढंग से जिस आर्थिक नीति पर चलता रहा, वह भारी उद्योगों, पश्चिमी आधुनिकता और शहरीकरण की प्रक्रिया को बल दे रहा था। शायद इसीलिए गांधी के सपने के बिल्कुल उलट विकास की प्रक्रिया चली। परिणाम यह हुआ है कि भारत में शहरीकरण तेज होता जा रहा है और अब तो ग्रामीण अंचलों में भी शहरीकरण का प्रसार होता जा रहा है। अगर आजादी के तुरंत बाद से भारतीय राज्य गांधी के ‘ग्राम-स्वराज’ और ‘आत्मनिर्भर ग्राम’ की अवधारणा पर काम करता, तो भारतीय समाज का विकास उस दिशा में हुआ होता, जहां घातक संक्रमणों से मुक्त भारतीय गांव बन पाता।

आज अपनों को खोने का जो रुदन गांवों में सुनाई पड़ रहा है, उसमें कहीं न कहीं महात्मा गांधी की भी पीड़ा शामिल है। उसमें एक आह छिपी है कि काश! भारत में ऐसा ग्राम-स्वराज बन पाता, जो जातिवादी हिंसा, छुआछूत और आधुनिकता की अनेक बुराइयों व संक्रमण से मुक्त आधार क्षेत्र की तरह विकसित हो पाता। आज जब कोरोना गांव-गांव तक फैल रहा है, तब हमें अपने विकास संबंधी आत्ममंथन में महात्मा गांधी के इस महत्वपूर्ण दृष्टिकोण को याद करना ही चाहिए।


Date:19-05-21

बादल फट रहे हैं, तो लोक अनुभवों से लाभ उठाइए

वीरेन्द्र कुमार पैन्यूली

बीती 11 मई की देर शाम उत्तराखंड के टिहरी गढ़वाल जिले में देवप्रयाग के ऊपरदशरथ अंचल पहाड़परबादल फटने के बाद शांत गदेरा (पहाड़ी बरसाती नाले-नदी ) में ऊफान आ गया, जिससे देवप्रयाग की आईटीआई और कई दुकानों को भारी नुकसान पहुंचा। इससे पहले 4 मई को सीमांत जिले चमोली में एक साथ तीन जगह बादल ‘फटे। 3 मई को भी रुद्रप्रयाग जिले में और 5 व 6 मई को टिहरी जिले के कीर्तिनगर, जाखणीधार ब्लॉकों व घनशाली में बादल फटने की घटनाएं हुईं। इनसे चमोली, टिहरी व रुद्रप्रयाग जिलों में स्थानीय नदी-नालों का जल स्तर कुछ समय के लिए बढ़ा और घाट सहित सड़क, बाजार, दुकान, मकान मलबों से पट गए।

विभिन्‍न आपदाओं के बीच बादल फटने की घटना उत्तराखंड में मुख्य आपदा बनती जा रही है। राज्य में 1970 के मुकाबले बादल फटने, अतिवृष्टि, जल- प्रलय जैसी जलवायु अतिरिक की घटनाएं चार गुना बढ़ चुकी हैं। सामान्यतः जून के उत्तरार्द्ध में मानसून आने के बाद ऐसी घटनाएं घटती हैं, लेकिन इस साल तो मई की शुरुआत से ही इसकी झड़ी लग गई है। बादल फटने से `100 मिमी या करीब चार ईंच बरसात एक ही घेटे में हो जाती है। इससे हजारों टन भारका पानी जमीन परगिरता है। बादल विस्फोट मैदानी क्षेत्रों में भी होते हैं, मगर उतने नहीं। रेगिस्तानी क्षेत्र भी बादल के फटने की घटनाओं से अछूते नहीं हैं, पर पहाड़ों में ये ज्यादा होती हैं।

यह जरूरी नहीं है कि नमी ढोती हवाओं के, चाहे वे मानसून की हों, पहाड़ों से टकराने से ही बादल विस्फोट हो। पहाड़ों की टोपोग्राफी, यानी चढ़ान-ढलान वाली भू- आकृतियां स्थानीय स्तर पर घाटियों-शिखरों के वायु- प्रवाह पर असर डालती हैं। पहाड़ों के वायु-प्रवाह की विशिष्टताएं वायु ताप संवहन (कन्वेक्शन) को भी बढ़ाती हैं। नीचे की घाटियों से ऊपर उठती वाष्प-नमी लदी हवाओं का जब एकाएक ऊचाई में ठंडी हवाओं से मिलन होता है, तो सघन बादलों के निर्माण और बादल ‘फटने की परिस्थितियां बन जाती हैं। नमी या वाष्पन का संघनन (कॉन्डनसेशन ) होने लगता है। छोटी-छोटी बुँदे मिलकर भारी होती जाती हैं। फिर पानी भरे गुब्बारे ‘फूटने जैसी स्थिति बन सकती है। बादल विस्फोट में बवंडरों की भूमिका भी हो सकती है। तूफान-बवंडर की ऊर्जायुक्त गरम हवा जब बादलों को ऊपर धकेलती है, तब उनमें मौजूद जल-कण आपस में मिलकर इकट्ठा होते रहते हैं। वायु धारा के शिथिल पड़ते ही बादल जल भार से अस्थिर हो जाते हैं, और वे फट पड़े हैं। वैसे, वैश्विक जलवायु परिवर्तन से बढ़ते तापमान के कारण भी बादल फटने की घटनाएं बढ़ी हैं। स्थानीय लोगों का कहना है कि जब से बड़े-बड़े मानवकृत जलाशय बने हैं, तब से आस-पास के क्षेत्रों में अतिवृष्टि की घटनाएं, बढ़ गई हैं। उत्तराखंड में पिछले एक-दो दशक में बड़ी- बड़ी मशीनों से भारी मात्रा में वायुमंडल में धूल के गुबार उड़ाते निर्माण-कार्य हुए, और हो रहे हैं। इससे हवा में उन छोटे कणों की मात्रा बढ़ जाती है, जिनमें नमी बैठती है। नतीजतन, बादलों के सघन व भारी होने की स्थितियां भी बढ़ जाती हैं। जल भार और उनकी अस्थिरता बादल विस्फोट की आशंकाएं बढ़ा देती हैं।

अतिवृष्टि में पहाड़ी ढालों पर विध्वंसक जल प्रवाह होता है। इससे खेतों में खड़ी फसल तो बर्बाद होती ही है, खेत पत्थर और बजरी से पटजाते हैं। ऐसे में, किसानों बादल फटने की घटनाओं से बचने के लिए नई वैज्ञानिक, य्रामाजिक व पर्यावरणीय समझ बनाने की जरूरत है। के लिए उसे साफ करना आसान नहीं होता। इसके लिए. कई बार मशीनों की दरकार होती है। पहाड़ी गांव या ‘कस्बाई बाजार तो कई-कई फुट मलबे से भर जाते हैं। सड़कों पर यदि यह मलबा ठहर गया, तो यातायात कई दिनों तक बाधित हो जाता है।

बादल विस्फोटों से नुकसान न्यूनतम हो, इसके लिए मलबा, गादको निर्माण स्थलों परयूं ही छोड़ देने या उनको आसपास के नदी-नालों में धकेल देने के बजाय सुरक्षित स्थानों पर जमा किया जाना चाहिए। घाटियों में बड़ी जलराशि को बांधने या जमा करने से भी बचना होगा। जलामम क्षेत्रों में निर्माण में विस्फोटों से बचना चाहिए। वृक्ष-विहिन जलागम बादल विस्फोटों की आपदा को कई गुना बढ़ा देते हैं, इसलिए वृक्षारोपण को बढ़ावा देने की भी जरूरत है। जाहिर है, उत्तराखंड को बादल फटने की घटनाओं से बचाने के लिए नई वैज्ञानिक, सामाजिक और पर्यावरणीय समझ बनाने की दरकार है।