19-03-2018 (Important News Clippings)

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19 Mar 2018
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Date:19-03-18

How India can play the role of consensus builder at the high table of global trade

By Sanjaya Baru

The ‘mini-ministerial’ of over 25 leading trading nations gathering in New Delhi this week, at the invitation of Union commerce and industry minister Suresh Prabhu, is supposed to find a way out of the deadlock at the last ministerial meeting of the World Trade Organisation (WTO), held in Buenos Aires in December 2017.

However, in practice, the task at hand is more onerous. The deadlock at Buenos Aires was not just about how to resolve organisational issues, such as filling up benches at the WTO’s Appellate Body, nor about new issues such as e-commerce. To imagine so would be missing the woods for the trees.

Don’t You Gatt It?

The real challenge facing the WTO is that the country that sees itself as the architect of the post-War global trading system, the US, has yet to come to terms with China’s emergence as a global trading superpower. The US viewed the General Agreement on Trade and Tariffs (Gatt), the precursor to the WTO, as its creation meant to bolster the post-War global order.

This system was formalised into the WTO in the aftermath of the implosion of the Soviet Union and the negotiated reintegration of China into the global trading system. In 2001, under the shadow of the 9/11 terror attack in New York, the US made a political gesture towards the developing world, especially in Asia, by agreeing to name the newly launched round of WTO trade negotiations the Doha Development Round.

In short, every significant turn in the multilateral trading system has occurred against a geopolitical backdrop. The Buenos Aires deadlock too has a geopolitical context. It was not just about India opposing new issues like e-commerce or developing countries worried about the future of the Dispute Settlement Mechanism in the WTO. To view the impasse in purely legalistic and transactional terms or as just one more example of North-South conflict would be limiting.

It is more a consequence of the US seeking to jettison multilateralism in trade faced with the rise of China as a geoeconomic power. US actions against India are more in the nature of collateral damage or aimed at ensuring good behaviour, since India does not pose a geoeconomic threat to the USHaving ill-advisedly yielded to US pressure on intellectual property rights in the Uruguay Round, India has since opposed any ‘new issues’ at WTO. It has not always succeeded, and largely because of lack of adequate global support. Successive Prime Ministers have spoken of India’s ‘strategic stake in multilateralism in trade’, while objecting to the widening of the ambit of WTO rules

On e-commerce, even as India opposes negotiations, because it does not as yet have a national policy in place, China may well join hands with the US, despite the ongoing trade war between the two. This would be one more issue where China may well be seeking to run with the developing country hares while hunting with developed country hounds.Given this backdrop, commerce minister Suresh Prabhu wisely chose not to take sides at Buenos Aires and, instead, convened a meeting to create some common ground between third parties on how to deal with the double-edged game of US and China.

Supporting Act

Mr Prabhu was right to take the view that whatever the differences between India and the US on trade issues, India not only enjoys a trade surplus with the US but also has good political relations with it and, so, must manage differences on trade in an amicable manner.

Time to Trade

The US is also at loggerheads with many friends like Japan and the EU. On the other hand, as for China, India’s interests not only increasingly diverge from China’s on the trade front, but India also has a huge trade deficit with China that the latter has only recently shown willingness to address.

The decision of both US and China to participate in the New Delhi miniministerial augurs well. If the WTO has to be saved from the consequences of a US-China trade war and if multilateralism in trade has to be preserved, then India and like-minded countries must secure the support of both the US and China in resolving the issues at hand.

If India has to yield ground on some new issues, so be it. Mr Prabhu has spoken of “aspirational India’s” emerging stake in globalisation in seeking to open a window even as his negotiators have tried to close a door.As in geopolitics, so too in geo-economics, there are no permanent friends or enemies, only enduring interests. India’s interests are clear: to preserve the multilateral trading order while improving its own global competitiveness and ability to deal with a less structured world economic order where no one country is any longer able to define global rules.


Date:18-03-18

संतुलन की तलाश

गिरीश्वर मिश्र

समय के साथ सामाजिक संस्थाओं और सामाजिक व्यवहार में बदलाव कोई नई बात नहीं है। ये बदलाव नियोजित या अनियोजित, दोनों तरह के हो सकते हैं। नियोजित बदलाव की स्थिति तब बनती है, जब हम खुद परिवर्तन की तैयारी करते हैं, और लाते हैं। भारतीय समाज इन दोनों तरह के परिवर्तनों से गुजर रहा है। खेतिहर ग्रामीण समाज शहरी हुआ जा रहा है। आवागमन के साधन, खेती के नये औजार और तौर-तरीके गावों को बदल रहे हैं। आज हो रहे परिवर्तनों को अंजाम देने में तकनीकी प्रगति का बड़ा हाथ है। इंटरनेट, फेसबुक, ट्विटर जैसी संचार की तकनीकों के सहारे हमारी बात थोड़े ही समय में दूर देशों तक पहुंचती रहती हैं। लोगों के संपर्क का दायरा अप्रत्याशित तौर पर बढ़ा है। प्रौद्योगिकी के जादू के चलते मानवीय रिश्तों में खास तरह की तरलता, लचीलापन और गतिशीलता भी आई है। परिवर्तन तेजी से हो रहा है, यह बात तो हर कोई स्वीकार करता है परंतु वह सही दिशा में है, या गलत दिशा में अग्रसर है, इसे लेकर संशय बना हुआ है। कुछ लोग सामाजिक-आर्थिक समस्या को लेकर चिंतित हैं। अपराध, आर्थिक घोटाले, आतंक, त्रासदी आदि में खराब भविष्य का आगाज तकते हैं। वे तकनीक को स्थानीय संस्कृति और अर्थव्यवस्था के लिए घातक पाते हैं। सदियों का अंत जब करीब आता है, यह नकारात्मक कल्पना कुछ और बढ़ जाती है। तकनीक के नकारात्मक प्रभाव बड़े प्रचलित हैं। स्वचालित यंत्र और कंप्यूटर सब कुछ को बदल रहा है।

कई लोगों में तकनीक भय (टेक्नोफोबिया) भी पैदा हो रहा है। पर बड़ी सच्चाई यही है कि लगभग निर्बाध और ज्यादा मात्र में सूचना-प्रवाह, जिसका दूरी से कोई लेना-देना नहीं, नियंतण्र स्तर पर सहयोग को संभव बना रहा है। नियंतण्र गांव का रूप लेती दुनिया सर्वथा निरापद भी नहीं कही जा सकती। जनसंख्या-विस्फोट, पर्यावरण-संकट, प्रदूषण, पेय जल की कमी, ऊर्जा संकट, गरीबी, बेरोजगारी आदि की समस्याएं आकार-प्रकार में नये रूप ले रही हैं। प्राकृतिक संसाधन भी अंधाधुंध खपत से निरंतर खत्म होते जा रहे हैं। इन कारणों से लोगों की अन्य देशों में आवाजाही बढ़ रही है। इससे उपजी सांस्कृतिक विविधता अमेरिका, कनाडा आदि देशों में सामाजिक ढांचे को बदल रही है। इस बदलाव को आशा-निराशा, दोनों ढंग से देखा जा रहा है : कुछ इसे सफलता की पीड़ा के रूप में लेते हैं, तो दूसरे विनाश का आगाज मानते हैं। ऐसे में सांस्कृतिक तनाव और संघर्ष भी संभव है। जो भी हो तीव्रगामी बदलाव, सूचना के बढ़ते महत्व और तकनालॉजी तक पहुंच के बीच अपना रास्ता खुद ढूंढना बड़ी चुनौती हो रही है। अपनी दिशा खुद तय करने की क्षमता आने वाले खतरों या चुनौतियों को समझने में सहायक होती है।मोटे तौर पर वैयक्तिक और समूहवादी, दो तरह की संस्कृतियों की र्चचा की जाती है। वैयक्तिक संस्कृतियों में व्यक्ति की सत्ता प्रबल होती है। उसकी उपलब्धि समाज से बड़ी मानी जाती है। दूसरी ओर समूहवादी संस्कृतियों में सामाजिक उपलब्धि ज्यादा महत्व पाती है।

उनकी जीवन शैली में सामूहिक-सांस्कृतिक दबाव दिखता है। वहां पर समुदाय और व्यक्ति में अंतर नहीं होता। वैयक्तिक समाजों में निजी स्वतंत्रता, दूसरों से अलग अपनी सत्ता और निजी उपलब्धि का गौरव-बोध तो अधिक होता है, पर उनकी अपनी मुसीबतें भी हैं। वे असुरक्षा, संशय और अकेलेपन की बढ़ती चुनौतियों से जूझ रहे हैं। तकनीकी क्रांति के चलते वैयक्तिक और सामूहिक संस्कृतियों के बीच का भेद घट रहा है। वैयक्तिकता का दायरा बढ़ता जा रहा है। भयानक अकेलेपन से निपटने के लिए हम कुछ और सहारे ढूंढ़ते हैं, बैसाखियां लेते हैं। आज हर बात का जबाब हम इंटरनेट पर ढूंढ़ते हैं। बदलाव के तीव्र स्वरों के बीच हम क्या होना चाहते हैं, और कैसे जीना चाहते हैं, बड़े प्रश्न बन जाते हैं, जिनका आसानी से जबाब नहीं मिलता। हम या तो ठहर जाते हैं, या धारा के साथ होकर बहते रहते हैं। यथास्थिति बनाए रखते हैं, या अलग हो लेते हैं। मिल-बैठ कर सामूहिक निर्णय भी लेते हैं, या फिर किसी शक्ति से निवेदन करते हैं। वे लोग जो आर्थिक सफलता, चमक-दमक और नाम-यश जैसी बाह्य प्रेरणा से परिचालित होते हैं, उनकी जीवनी शक्ति कम होती है, और स्वास्य की समस्याएं भी अधिक होती हैं। अन्त:प्रेरित व्यक्ति जो स्वायत्त होते हैं, अपने लक्ष्यों को वास्तविकता का आकार देने में सफल होते हैं, और अधिक स्वस्य रहते हैं। तेज रफ्तार जिंदगी में संतुलन की तलाश एक बड़ी चुनौती साबित हो रही है।


Date:18-03-18

डोकलाम से आगे का प्लान तैयार

डॉ. दिलीप चौबे

घटनाक्रम जैसा कि इशारा कर रहे हैं कि भारत और चीन डोकलाम में आमने-सामने की 73 दिवसीय मोर्चाबंदी से मूर्छित पड़े अपने द्विपक्षीय संबंधों में नई जान डालने की कोशिश तेज कर दिये हैं। इसके लिए एक अनौपचारिक शिखर वार्ता की तैयारी चल रही है। प्लान यह है प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी और चीन के सर्वशक्तिमान नेता शी जिनपिंग के साथ राजधानी से अलग एक खुले, अनौपचारिक और आत्मीय माहौल में बैठकी कराई जाए ताकि दोनों शिखर राजनेता रिश्तों को एक ऊंचाईपर ले जाने के लिए व्यावहारिक बातचीत कर सके। और इस दौरान केवल उनके दुभाषिये ही मौजूद रहें। नरेन्द्र मोदी बेबाक और अनौपचारिक राजनय के कायल रहे हैं। दुनिया के दिग्गज नेता भी उनके इस अंदाज से अभिभूत रहते हैं। खुद शी भी मोदी के दोस्ताना राजनय का गुजरात में अनुभव कर उनके मुरीद हो चुके हैं। यह बात अब छिपी नहीं रही कि डोकलाम का गतिरोध तोड़ने में मोदी की शी के साथ दोस्ताना रिश्ता ही काम आया था।

‘‘बातचीत तो कर सकते हैं’, मोदी की इसी बात पर शी ने सेना हटा ली थी। इस लिहाजन, भारत और चीन ने यह महसूस किया कि संबंधों में नई ताजगी लाई जाए, भूगोल अगर न बदला जा सके तो उसमें बदलाव की इच्छा पैदा की जाए और इस तरह से विास बहाली की तरफ बढ़ा जाए। एशिया की दो बड़ी ताकतों की बेहतरी के लिए यह लाजिमी है। अप्रैल की शुरुआत में होने वाली शिखर मुलाकात के लिए उसी क्रॉफ्ट पर अमल किया जाना है, जिसके मुताबिक अमेरिका के पूर्व और वर्तमान राष्ट्रपतियों क्रमश: बराक ओबामा और डोनाल्ड ट्रंप से शी जिनपिंग की भेंट होती रही है। चीनी और अमेरिकी विश्लेषकों ने इस ‘‘आउटकम’ को द्विपक्षीय और नियंतण्र दृष्टिकोणों के लिहाज से उपयुक्त माना है। चीन से संबंधों में गहराई और गर्मजोशी लाने के लिए भारत सरकार इतनी सतर्क है कि उसने तिब्बती धर्मगुरु के निर्वासन के 60 साल पूरे होने के मौके पर आयोजित होने वाले समारोहों-गोष्ठियों से सरकारी अफसरों को दूर-दूर रहने के निर्देश दिये हैं। वहीं अफसर और मंत्रियों का चीन जाने का सघन कार्यक्रम जारी है। विदेश सचिव अभी हो कर आए हैं, विदेश मंत्री सुषमा स्वराज 23-24 अप्रैल को चीन जाएंगी तो उनके तुरंत बाद रक्षा मंत्री निर्मला सीतारमण। अप्रैल में ही कभी मोदी-शी की वह आत्मीय मुलाकात संभव है। आठ से 11 अप्रैल को बोओ फोरम फॉर एशिया (बीएफए) की बैठक बोओ में होनी है। यह फोरम र्वल्ड इकनोमिक फोरम का चीनी संस्करण है।

जून में शंघाई सहयोग संगठन (एससीओ) की बैठकी में खुद प्रधानमंत्री मोदी को भाग लेना है। इन सब गतिविधियों का यही मतलब है कि भारत और चीन अपने संबंधों को लेकर कितने संवेदनशील हैं। लेकिन मूल बात यही है कि चीन अपनी विस्तारवादी नीति से कहां तक समझौता करता है? दूसरे, डोकलाम के बाद शी जहां ज्यादा ताकतवर हुए हैं, वहीं उपचुनावों में हार और एनडीए के सहयोगियों के साथ छोड़ते जाने से मोदी के आत्मविास में कमी आई है। ऐसे में उनकी भाव-भंगिमा में वह इत्मिनान नहीं होगा जो अपने कार्यकाल के पहले साल में रहा था। चीन से सीमा विवाद, व्यापार असंतुलन और नियंतण्र आर्थिक भागीदारी के सवाल पर उनकी नई हैसियत का नैतिक दबाव मोदी महसूस कर सकते हैं। ऐसे में देखना होगा कि मोदी इस नये शी के समक्ष कितना तने रह पाते हैं।


Date:17-03-18

The long fight against TB

T. Jacob John is retired professor of Clinical Virology, Christian Medical College, Vellore

Shobha Varthaman  is a volunteer with Doctors without Borders and Operation Smile

To outsmart the disease, India must intercept infection, progression and transmission

Science borrows words from common parlance and assigns quantifiable meanings. For example, “significance” in biostatistics, measured by ‘p’ value, clarifies if a study result is reliable or mere chance finding. “Incidence” in epidemiology is a rate: new cases per unit population, per unit time. The incidence rate of tuberculosis (TB) in India is estimated at 200-300 cases per 100,000 population per year. As a comparison, in western Europe it is five per 100,000 per year.

“Control” in public health is “deliberate reduction of incidence to a desired and defined level by specific interventions”. Without monitoring incidence and defining the desired target, the Revised National TB Control Programme (RNTCP) is not a valid control programme, but a great humanitarian programme of free diagnosis and treatment.

India’s estimated annual TB burden is 28 lakh, 27% of the global total; our population is only 18%. Every day 1,200 Indians die of TB — 10 every three minutes. The tragedy 1,200 families face every day is beyond imagination. No other disease or calamity has such Himalayan magnitude. Had control efforts registered even pass grade, we would not have become the TB capital of the world.

Know the enemy

Infection with TB bacilli is the necessary cause of TB, a disease that mimics other diseases, confusing doctors and delaying diagnosis. Cough and blood in sputum occur only in lung TB. For example, a young man developed headache and began making silly mistakes in arithmetic. He had brain TB and treatment cured him. Pelvic TB is the commonest cause of female infertility in India. TB can affect the lungs, brain, bones, joints, the liver, intestines or for that matter any organ and can progress slowly or kill in weeks.

In designing TB control three processes must be understood: infection, progression, transmission. Infection occurs when TB bacilli are inhaled. Bacilli may stay in the lungs or travel to other organs. Infection is lifelong, with bacilli lying dormant. This phase is “latent TB”, diagnosed by a tuberculin skin test (TST). The “annual rate of TB infection” (ARTI) is about 1%. Cumulatively, 40% to 70% of us are living with latent TB. From this reservoir pool, a few progress to TB disease, one by one, 5-30 years, average 20 years, later.

Progression occurs when bacilli become active, multiply and cause pathology; now we have “active TB”. Only when active TB affects the lungs do bacilli find an exit route to the atmosphere, necessary for transmission.

Principles of control

All of us, the public, health-care professionals, Health Ministry policy planners and implementers, must form a united battlefront. Beginning with schools, public education on TB and its prevention must replace ignorance and misconceptions.

Transmission and infection are ends of a tunnel. If no one spits in public places and if everyone practises cough and sneeze etiquette (covering one’s mouth and nose when coughing or sneezing), the TB affected will also fall in line.

A person with lung TB disseminates TB bacilli over several weeks. By the time treatment stops dissemination, unfortunately, all his close contacts would have been already infected. This is why TB treatment has not brought down the TB burden.

To block transmission, treatment should begin as soon as a symptom shows up. RNTCP guidelines — for testing only after two weeks of cough — result in the loss of precious lead time. Some 70% of people seek health care in the private sector. As cough is a very common symptom of many diseases, doctors don’t think of TB until other treatments fail. Frustrated patients also shop around until someone thinks of TB; bingo, the sputum test is positive. While treatment is the patient’s urgent need, it will not control TB. It is like shutting the stable door after the horse has bolted.

Partnership with the private sector is essential for early diagnosis of TB. Delay in diagnosis, for which we are notorious, is a fallout of the lack of efficient primary health care. Universal primary health care, a basic human right, and a diagnostic algorithm for early diagnosis are essential for TB control. Every country that has reduced TB incidence practises universal health care.

How can progression be retarded? The biomedical method is drug treatment of latent TB. Experts recommend an age window of 5-10 years when all children must be screened with TST; those with latent TB must be treated to prevent progression. The spin-off is in getting annual data on ARTI to track the trajectory of decline. A yearly 5% reduction of ARTI is achievable. In 20 years we can be on a par with western Europe in terms of infection incidence. Active TB will also decline, but more slowly.

Now or never

To outsmart TB bacilli, we must intercept infection, progression and transmission. While TB bacilli are efficient in all three, our weapons against them are blunt. Our only chance of victory is by the concerted use of all interventions — biomedical and socio-behavioural. There is no glamour in this long-drawn-out battle.

Any further delay may convert a controllable disease into an uncontrollable one, because of increasing frequency of resistance to drugs against TB.