17-03-2018 (Important News Clippings)

Afeias
17 Mar 2018
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Date:17-03-18

Tripping the Power Business

Rita McGrath & M Muneer, (McGrath is professor of management, Columbia Business School, and Muneer is co-founder, Medici Institute)

The thrust towards clean and cheaperenergy is tripping up major power companies that are underprepared for capacity building. It is not just in India; the global inflection point probably was GE’s massive miscalculation on capacity expansion.If there is any sector that is immune to cut-throat competition, most of us may think of electricity generation/distribution. In India, this industry operates under heavy regulation, and investment and depreciation cycles run into decades. We looked at the global power business through a disruptive lens and discovered interesting surprises, which we prefer to call ‘tripping points’. And we believe these will come in handy for Indian utility companies to disrupt their own business models before someone else disrupts them.

Energy consumption growth rate is in decline while disruptive innovation is on the rise: With that entire hubbub about climate change and the need to reduce our carbon footprint, it is intuitive to assume that the ravenous human appetite for energy is on the upsurge. It turns out that technological innovation and energy conservation drives are actually helping to dampen demand. The US Energy Information Administration, and its counterparts in other developed countries, report that the pace of energy consumption is on the decline in most of the developed economies. Even in a developing economy like India, the energy density is on the decline year-on-year. Introducing more efficient equipment, higher standards for efficiency, such as LED lights, and an economic transition away from energy-intensive activities such as manufacturing have all contributed to this.

Bringing energy efficiency is a big thing. Many Indian companies have added “sustainability” to their strategy talking points. Additionally, developments that are taking place in unrelated sectors like the mobile apps and other consumer tech have startled many energy companies. Commercial consumers are looking for cost-effective, sustainable and renewable power; and individual consumers are adopting smart technologies to help control their energy usage. They also expect their utility companies to be consumer-friendly. This represents an inflection point. Those who follow status quo will be squeezed out, whereas upstarts are best poised to do a “Jio moment”, turning to storing, and then selling energy at peaks.

Consumers trust power companies more than they do tech companies: Arecent survey found that customers reported greater willingness to trust power companies to deploy smartbuilding technologies in their homes than firms from other sectors. Perhaps because of their literally “keepingthe-lights-on” legacy, energy utilities are not viewed with the same level of suspicion that a consumer might hold if, say, your friendly local dish TV firm wanted to take over the monitoring and measurement of electricity services at your house. However, very few power utility companies are positioned to take advantage of this level of customer openness. The opportunities to get smarterabout direct relationships with customers are boundless, but will requiresome innovative rethinking on the part of these companies. Consumers will increasingly expect the same kinds of service interfaces and simple ways of getting their needs met that they experience from an Amazon shopping, or banking.

Owning assets is no more a prerequisite for competitive advantage: Power sector is being transformed by the increasing ability to access assets on-demand, just as in other industries. Owning assets is no more needed and, as a result, entry barriers are fast disappearing. Using the assets as part of a service ecosystem will be key. Rather than merely selling units of energy, power companies may well find growth in highly related fields such as energy management, as well as in new areas such as cyber security and home safety. We are also likely to see new business models emerge, particularly in the interplay between centrally generated power and distributed networks, such as solar power panels on rooftops with grid parity so consumers can sell energy back.

New things almost always create unintended consequences that companies will have to watch out for. Remember how Burger King recently hijacked the Google Home device to smartly extend their 15-second prime time ad to 30 seconds at no extra cost? The 15-second ad featured a Burger King employee leaning into the camera and saying, “OK Google, what is the Whopper burger?” Wherever there was a Google Home near the TV, that phrase prompted it to begin reading the Wikipedia entry for the Whopper. Google just got hijacked!


Date:17-03-18

भारत की उन्नति के लिए सौर ऊर्जा अहम

श्याम सरन

नई दिल्ली में 1 मार्च को हुआ महत्त्वाकांक्षी अंतरराष्ट्रीय सौर गठबंधन (इंटरनैशनल सोलर अलायंस) भारत की ऊर्जा आवश्यकताएं पूरी करने की दिशा में एक बड़ी पहल है। जलवायु परिवर्तन से वैश्विक स्तर पर पैदा होने वाली चुनौतियों से निपटने में भी सौर ऊर्जा एक अहम जरिया साबित हो सकती है। पर्यावरण के अनुकूल सतत विकास को बढ़ावा देने के लिए जरूरी है कि आर्थिक गतिविधियों में परंपरागत ऊर्जा की जगह अक्षय ऊ र्जा का इस्तेमाल किया जाए। अक्षय ऊर्जा स्रोतों में सौर ऊर्जा सबसे अधिक कारगर माध्यम प्रतीत होती है और भारत जैसा देश अपनी भौगोलिक स्थिति की वजह से सौर ऊर्जा को अपनी ऊर्जा नीति का अहम हिस्सा बना सकता है।यह गठबंधन तो किया ही जाना चाहिए, लेकिन आगे पेश होने वाली चुनौतियों को लेकर भी सतर्क रहना चाहिए। सौर ऊर्जा केवल दिन में प्राप्त की जा सकती है और इसकी उपलब्धता विभिन्न कारकों जैसे मौसम, बादल की स्थिति आदि पर निर्भर करती है। सौर ऊर्जा को परंपरागत ऊर्जा का एक टिकाऊ विकल्प बनाने के लिए तकनीकी स्तर पर नवाचार का ध्यान सस्ती, विश्वसनीय एवं पर्यावरण के अनुकूल सौर ऊर्जा भंडारण पर ध्यान केंद्रित होना चाहिए।

सौर ऊर्जा उत्पादन के लिए सोलर पैनल आवश्यक है और इन्हें लगाने के लिए जगह की जरूरत होती है। भारत जैसी घनी आबादी वाले देश में जगह की उपलब्धता महंगी है। हालांकि इन चुनौतियों के बावजूद सौर ऊर्जा के कई इस्तेमाल हैं, जो आर्थिक दृष्टिïकोण से व्यावहारिक हैं, खासकर ये ग्रामीण एवं सुदूर क्षेत्रों में खासे कारगर साबित हो सकते हैं। भारत में सौर ऊर्जा उद्योग विकसित करने के अपार अवसर मौजूद हैं क्योंकि चीन की तरह यहां भी वे सभी सुविधाएं मौजूद हैं, जो लागत घटाने और नवाचार को बढ़ावा देने में सहायक होती हैं। इंटरनैशनल सोलर अलायंस की सफलता इस बात पर निर्भर करेगी कि भारत अपने महत्त्वाकांक्षी राष्ट्रीय सौर ऊर्जा मिशन में कितना कामयाब होता है।

इस पहल को आगे ले जाने के लिए उन तथ्यों पर गौर करना जरूरी है, जिन्हें आधार बनाकर 2009 में तत्कालीन सरकार ने जलवायु परिवर्तन पर राष्ट्रीय कार्य योजना (एनएपीसीसी) के तहत सौर ऊर्जा मिशन की शुरुआत की थी। जलवायु परिवर्तन पर प्रधानमंत्री के विशेष दूत के तौर पर एनएपीसीसी का स्वरूप तैयार करने में मैं भी शामिल था और इसके आठ लक्ष्यों में सौर मिशन को केंद्र में रखा गया था। एनएपीसीसी के अस्तित्व में आने के समय तत्कालीन प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने कहा था कि भारत के लिए ऊर्जा जरूरतें और जलवायु परिवर्तन एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। उन्होंने कहा था कि ऊर्जा जरूरतों और पर्यावरण की रक्षा दोनों कारणों से भारत को अपनी आर्थिक प्रगति का आधार मौजूदा जीवाश्म ईंधन के बजाय अक्षय ऊर्जा के संसाधनों जैसे सौर ऊर्जा और नाभिकीय ऊर्जा को बनाना होगा। इस ऊर्जा के संदर्भ में उन्होंने कहा था, ‘इस रणनीति में सूर्य केंद्र बिंदु में है और यह सभी ऊर्जा का वास्तविक स्रोत होना चाहिए। अपनी अर्थव्यवस्था को गति देने और अपने लोगों का जीवन बदलने के लिए हम वैज्ञानिक, तकनीकी और प्रबंधन से जुड़े कौशल साथ में वित्तीय संसाधन से एक प्रचुर ऊर्जा के स्रोत के तौर पर सौर ऊर्जा विकसित करेंगे। इस कार्य में हमारी सफलता भारत का रुतबा बदल देगी। इससे भारत दुनिया के देशों के लोगों की किस्मत बदलने में भी सक्षम होगा।’

राष्ट्रीय सौर मिशन में न केवल सौर ऊर्जा का इस्तेमाल बढ़ाने पर जोर दिया गया, बल्कि चुनौतियों से निपटने के तकनीकी रास्ते तलाशने पर भी जोर दिया गया। इस पर सहमति बनी थी कि सौर ऊर्जा को परंपरागत ग्रिड ऊर्जा के समकक्ष खड़ा करने के वास्ते 6 से 8 घंटे के ऊर्जा भंडारण की व्यवस्था करने के लिए बड़े स्तर पर शोध एवं विकास शुरू किया जाना चाहिए। यह प्रस्ताव दिया गया कि विशेषज्ञों द्वारा तय प्रारूप के अनुसार भंडारण प्रणाली विकसित करने के लिए आईआईटी जैसे संस्थानों के समूह को बोली देने के लिए आमंत्रित किया जाना चाहिए। इसी तरह, सौर ऊर्जा के प्रति मेगावॉट के लिए जगह की जरूरत कम करने के लिए सूक्ष्म तकनीक पर भी विचार हुआ। अंत में इस बात पर भी सहमति बनी कि सौर ऊर्जा में अस्थिरता और विभिन्न कारकों पर इसकी निर्भरता से निपटने के लिए हाइब्रिड सॉल्यूशंस जैसे सौर ऊर्जा के साथ गैस, बायोमास और ताप ऊर्जा के मिश्रण का विकल्पों पर भी विचार होना चाहिए। यह कार्य करने के लिए मिशन ने तकनीकी और आर्थिक व्यवहार्यता साबित करने के लिए कुछ प्रायोगिक परियोजनाओं पर भी विचार किया था।

मेरा मानना है कि यह पहल आगे ले जाने के लिए सरकार को वास्तविक मिशन में दिखाए गए उन तकनीकी रास्तों पर दोबारा विचार करना चाहिए, जिन पर कभी गंभीरता से काम नहीं हुआ। सौर ऊर्जा क्षेत्र में भारत को नेतृत्व करने की स्थिति में आना चाहिए। चीन पहले ही इसके लिए दावा कर रहा है और शोध एवं विकास पर बड़े पैमाने पर निवेश कर रहा है। मिशन ने इसे लेकर भी सहमति दिखाई कि सौर ऊर्जा ग्रामीण एवं सुदूर क्षेत्रों में बिजली उपलब्ध कराने का सर्वाधिक उपयुक्त विकल्प है। अध्ययनों में यह बात सामने आई कि सुदूर क्षेत्रों में ग्रिड से बिजली पहुंचाने के मुकाबले सौर ऊर्जा उपलब्ध कराना अधिक सस्ता है। इनमें डीजल पंपों की जगह सोलर पंपों का इस्तेमाल सबसे अधिक कारगर लगा। एक अन्य अध्ययन में पता चला कि घरों एवं औद्योगिक स्थानों दोनों जगहों बिजली कटने की स्थिति में लंबे समय तक चलने वाले मौजूदा इन्वर्टर की जगह आधुनिक सोलर इन्वर्टर इस्तेमाल में लाए जा सकते हैं। इससे बिजली और खर्च दोनों बचाने में मदद मिलेगी।

इलेक्ट्रिक इन्वर्टर बेकार होते हैं क्योंकि बैटरी चार्ज करने में वे कुल खपत का 30 प्रतिशत बिजली का उपभोग कर लेते हैं। भारत जैसे देश में इन विकल्पों पर प्राथमिकता से विचार करना चाहिए। इंटरनैशनल सोलर अलायंस का स्वागत किया जाना चाहिए। भारत में सौर ऊर्जा क्षेत्र में वैश्विक स्तर पर अग्रणी होने की क्षमता है। इसने अपने लिए खासा महत्त्वाकांक्षी लक्ष्य रखा है। भारत 2022 तक 100 गीगावॉट सौर ऊर्जा का उत्पादन करना चाहता है। यह लक्ष्य पूरा करने के लिए तकनीक की अहम भूमिका होगी। एक तरह से भारत फिलहाल अच्छी स्थिति में है क्योंकि उम्मीद से पहले ही अंतरराष्ट्रीय स्तर पर सौर ऊर्जा की कीमतें ग्रिड के बराबर हो गई हैं। सौर ऊर्जा उत्पादन की दिशा में तेजी से काम करने के लिए घरेलू स्तर पर एक टिकाऊ सौर ऊर्जा उद्योग का ढांचा तैयार करते और नवाचार की तरफ बढ़ते हुए बाहर से सस्ते पैनल आयात किए जा सकते हैं। ऐसी उम्मीद की जाती है कि कुछ उपयोगी तथ्य एकत्र करने के लिए सरकार वास्तविक मिशन पर दोबारा विचार करेगी। ये तथ्य काफी मेहनत और तननीकी परामर्श के नतीजों के बाद सामने आए थे।


Date:17-03-18

सरकार के खिलाफ पहले अविश्वास प्रस्ताव का अर्थ

संपादकीय

यह बात शीशे की तरह साफ है कि वाईएसआर कांग्रेस पार्टी और तेलुगु देशम के अविश्वास प्रस्ताव से नरेंद्र मोदी की सरकार नहीं गिरनी है लेकिन, इससे एनडीए की दरार उजागर होगी और विपक्षी एकता का माहौल जरूर निर्मित होगा। यह माहौल हाल के उपचुनावों में भाजपा की हार के बाद चल रही महागठबंधन की चर्चा के संदर्भ में और भी मौजूं हो जाता है। हालांकि अभी प्रस्ताव स्वीकृत नहीं हुआ है और लोकसभा की स्थगित कार्रवाई अब सोमवार को ही शुरू हो पाएगी, इसके बावजूद मौजूदा सरकार के विरोध में उन सभी दलों का साथ आना एक घटना जरूर है जो राज्यों में एक-दूसरे से प्रतिस्पर्धा कर रहे हैं। वाईएसआर कांग्रेस पार्टी ने कहा भी है कि हमेशा की तरह तेलुगु देशम ने उसके निर्णय का अनुकरण किया है। ये दोनों पार्टियां आंध्र प्रदेश में एक-दूसरे की प्रतिद्वंद्वी हैं और राज्य के विशेष दर्जे के लिए मोदी सरकार का विरोध करते हुए स्थानीय जनता का विश्वास जीतना चाहती हैं।

उधर तृणमूल कांग्रेस और माकपा ने भी प्रस्ताव का समर्थन करने का वादा करके पश्चिम बंगाल की अपनी प्रतिद्वंद्विता को किनारे कर दिया है। देखना है कि समाजवादी पार्टी जिसके लोकसभा सदस्यों की संख्या अब सात हो गई है वह क्या फैसला लेती है। अब सवाल यह है कि शिवसेना, शिरोमणि अकाली दल और उपेंद्र कुशवाहा की पार्टी आरएलएसपी का रुख क्या है। वे पार्टियां एनडीए का हिस्सा होते हुए भी प्रधानमंत्री मोदी के रवैए से नाराज बताई जाती हैं। इस बीच अन्नाद्रमुक ने कावेरी प्रबंधन बोर्ड की मांग उछालते हुए सरकार को चेतावनी दी है कि अगर उसने बोर्ड का गठन नहीं किया तो वह भी विरोध में मतदान करेगी। देखा जाए तो टीडीपी-वाईएसआर सीपी और अन्नाद्रमुक की मांगें एक प्रकार से चुनावी मौके पर की जाने वाली सौदेबाजी की रणनीति ही हैं। संसदीय कार्यमंत्री मुख्तार अब्बास नकवी ने ठीक ही कहा है कि यह चुनावी वर्ष है और ऐसा विरोध व अविश्वास प्रस्ताव परंपरा का एक हिस्सा है। जाहिर है कि भाजपा अपने संख्या बल और संगठन के माध्यम से ऐसी चुनौतियों से निपटने में सक्षम है। फिर भी एनडीए के घटक दलों की ओर से लगाए जाने वाले आरोप मौजूदा सरकार की छवि ज्यादा तेजी से बिगाड़ेंगे। मौजूदा सरकार के चार साल के कार्यकाल के इस पहले अविश्वास प्रस्ताव से कई दलों की झिझक टूटेगी और वे आगामी चुनाव के लिए अपने दोस्त और दुश्मन का फैसला कर सकेंगे।


Date:17-03-18

सात बुनियादी सुधारों से बदल सकती है तस्वीर

सरकार के पास देश की समस्याएं सुलझाने की कुंजी है और अब समय आ गया है कि वह इसे लागू करे

चेतन भगत अंग्रेजी के युवा उपन्यासकार

एक पुरानी बस की कल्पना कीजिए। इंजन ऑयल बदलने की जरूरत है। ब्रेक खराब हो गए हैं। ईंधन के टैंक में लीकेज है। बस चल जाती है लेकिन, बार-बार खराब होती रहती है। यात्री प्राय: काम पर देर से पहुंचते हैं। कभी-कभी तो पहुंच ही नहीं पाते। यात्री एक समाधान का फैसला लेते हैं- ड्राइवर को बदल डालो। इस खटारा बस को बेहतर ढंग से संभालने वाला नया ड्राइवर रखा जाता है। वह बस के खराब होने की दर घटाने में भी कामयाब होता है। हालांकि, समस्याएं तो अब भी कायम हैं। यात्री फिर समाधान खोजते हैं- ड्राइवर को फिर बदल दो।

ऊपर जिस रूपक की चर्चा की है वह यह रेखांकित करने के लिए हैं कि हम नागरिक कैसे देश की समस्याओं के वास्तविक समाधान पर फोकस नहीं कर पा रहे हैं। हम मानते हैं कि एक नेता सारी समस्याएं ठीक कर सकता है। जब बस का ब्रेक बदलना होता है, ईंधन टैंक को मरम्मत चाहिए होती है तो ड्राइवर बदलने से लंबे समय के लिए कोई परिवर्तन नहीं होगा। जब 2014 में मोदी सरकार बदलाव की बयार लाते हुए सत्ता में आई थी तो हमने सड़कों पर उसका जश्न मनाया था। आज 2018 में समस्याएं बरकरार हैं। बैंकों में अरबों डॉलर का घोटाला हो रहा है, अच्छी आमदनी न मिलने से किसान सड़कों पर हैं। मध्य वर्ग को लगता है कि टैक्स बहुत ज्यादा है। सरकार पर आधार कार्ड के लिंकेज का जुनून सवार है। सीबीआई स्वतंत्र नहीं हुई है और न स्वतंत्र लोकपाल अस्तित्व में आया है। हजारों की संख्या में छात्र कॉलेज से ग्रेजुएट होकर निकल रहे हैं, जिनमें से आधे छात्रों के पास कोई अच्छा जॉब नहीं है। करणी सेना, गोरक्षक और हर प्रकार के हिंदू श्रेष्ठतावादी पहली की तुलना में कहीं अधिक दुस्साहसी हो गए हैं।

यानी यह नहीं कि मोदी सरकार ने ज्यादा कुछ नहीं किया है। कुछ क्षेत्रों में तो इसने निश्चित ही उपलब्धियां हासिल की हैं। विदेश नीति में अच्छा प्रदर्शन किया है। शेयर बाजारों ने अच्छा रिटर्न दिया है। आर्थिक वृद्धि चाहे दनदनाती न हो पर अच्छी है। जीएसटी आखिरकार लागू है, आधार भी। नोटबंदी के बाद नए कड़क नोट आ गए हैं। लोगों को स्वच्छ भारत का विचार पसंद आया है, फिर चाहे वे इसके लिए जरूरी चीजें करने के लिए राजी न हों। हालांकि, बहुत कुछ किया जाना बाकी है, जो मोदी सरकार जनादेश व अवसर मिलने पर कर सकती है। यह बस को ठीक करने में लगी है। सही है कि बेहतर ड्राइवर से मदद तो मिलती है। हालांकि, सच्चा बदलाव कभी नहीं होगा, जब तक कि कुछ प्रमुख भारतीय संस्थानों और प्रक्रियाओं को सुधारा नहीं जाता। यहां सात सुधार पेश हैं, जिन्हें भारतीय अर्थव्यवस्था में सुधार लाने, भ्रष्टाचार की समस्या दूर करने और बेहतर समाज बनाने के लिए करने की जरूरत है।

1. सिविल सेवाओं को अपडेट करें : चयन प्रक्रिया से लेकर, जिम्मेदारी सौंपने और उनके काम पर निगरानी रखने तक सबका नवीनीकरण जरूरी है। मौजूदा सिस्टम मौजूदा वक्त के अनुकूल नहीं है। बाबू जिस तरह सोचते हैं, काम करते हैैं वह भारत की इस पल की जरूरतों के मुताबिक नहीं है। वे देश चलाते हैं और यदि वे सुधार नहीं लाते तो चीजें बदलेंगी नहीं।

2. हमारे बैंकों में सुधार : नीरव मोदी से लेकर एसबीआई से 200 डॉलर का फॉरेक्स कार्ड लेकर इससे दस लाख डॉलर खर्च करने वाले शख्स (हां, ऐसा हुआ है) तक सार्वजनिक क्षेत्र के हमारे बैंक बेकार हो गए हैं। कर्मचारियों को अधिक काम देने की गुंजाइश नहीं बची है, क्योंकि उन्हें पहले ही जरूरत से ज्यादा जिम्मेदािरयां दे दी गई हैं। आधुनिकीकरण के अभाव में घोटालों के साथ अक्षमता व जटिल प्रक्रियाएं आती हैं। बैंकों को संपूर्ण बदलाव की जरूरत है। उनके कारण घोटालों में नुकसान के अलावा जीडीपी वृद्धि में 1-2 फीसदी का नुकसान हो रहा है।

3. खेती को कारगर बनाना : कितनी ही ऋण माफी दे दो या बजट में रियायतें दे दो मूल मुद्दा हल नहीं होगा- वह यह कि खेती आजीविका चलाने के लिए बहुत अच्छा माध्यम नहीं है। वह भी ऐसे समय जब ऑर्गनिक, ताज़े और प्राकृतिक खाद्यों में दुनियाभर में उछाल आया हुआ है। हम यह क्यों नहीं सुनिश्चित करते कि हमारे किसान अमेरिका के ‘व्होल फूड्स’ तक पहुंच पाएं? खेती में निजी क्षेत्र की अधिक भागीदारी क्यों नहीं है? खेती में बड़े सुधार की लंबे समय से आवश्यकता है।

4. बिज़नेस करने की आसानी : सरकार यह कहती रहती है लेकिन, अब भी भारत में बिज़नेस चलाना कठिन है। इसमें हर साल बदलने वाली नीतियां और टैक्स दरें और जोड़ लीजिए। सरकार हाथ में छड़ी लेकर डराने वाले अंकल की तरह है, जो चाहते हैं बच्चे पार्क में आकर खेलें। अपनी छड़ी बाजू में रख दीजिए। बच्चे खेलने आ जाएंगे।

5. शिक्षा में सुधार : जॉब का संकट आंशिक रूप से तो कम आर्थिक वृद्धि के कारण है लेकिन, दूसरा कारण अच्छे कॉलेज या रोजगार के लिए तैयार वर्कफोर्स का अभाव है। हमारे नियम संदिग्ध लोगों को निजी कॉलेज खोलने को प्रोत्साहित करते हैं जबकि अच्छे लोग उससे दूर ही रहते हैं। इसमें सुधार चाहिए।

6. एक स्वतंत्र भ्रष्टाचार विरोधी प्राधिकरण : जब तक यह नहीं होता, भ्रष्टाचार के मामले में सच्चा सुधार कभी नहीं होगा। इस बारे में बहुत कहा जा चुका है, अब करने की बारी है।

7. बेहतर न्यायपालिका : अदालती मामले अंतहीन चलते रहते हैं। टेक्नोलॉजी का हैवी डोज दिया और मानव संसाधन के स्तर पर सुधार लाया तो यह कारगर बन सकती है। यही आधुनिक लोकतंत्र की कुंजी है।

भारतीय बस में ये कुछ शीर्ष समस्याएं हैं, जिन्हें समाधान की जरूरत है। यह होने तक ड्राइवर बदलने से कुछ नहीं होगा। इसलिए न तो कांग्रेस और न भाजपा को दोष देने से कुछ होगा। जब तक बस नहीं सुधरती पहले वाले ड्राइवर की पड़ताल करने से कुछ नहीं होगा। यदि मोदी सरकार इस विशालकाय बस को सुधारती है तो उसे काफी यश मिलेगा। ऐसा हुआ तो सरकार को अब तक की श्रेष्ठ सरकार और मोदी को महानतम नेता के रूप में देखा जाएगा। यदि ऐसा नहीं हुआ तो यह बेहतर ड्राइवर वाला मामला होगा। सरकार के पास बस की चाबियां हैं और वक्त आ गया है कि वह बस को सर्विस स्टेशन ले जाए।


Date:16-03-18

सीमित स्वायत्तता

संपादकीय

पंजाब नेशनल बैंक में घोटाला सामने आने के बाद सबसे ज्यादा आलोचनाओं का शिकार हुए रिजर्व बैंक ने पहली बार चुप्पी तोड़ते हुए जो कहा है, वह काफी गंभीर और चौंकाने वाला है। आरबीआइ गवर्नर उर्जित पटेल ने सार्वजनिक रूप से यह कहा है कि घोटालों को रोकने के लिए उनके पास जो अधिकार होने चाहिए, वे नहीं हैं। अगर सरकार ने रिजर्व बैंक के अधिकारों में कटौती न की होती तो शायद ऐसे घोटालों को अंजाम देने वालों के हौसले बुलंद नहीं हो पाते। केंद्रीय बैंक के गवर्नर का यह कहना निश्चित रूप से एक गंभीर मामला है। इससे पता चलता है कि बैंकिंग सुधार के नाम पर सरकार किस तरह केंद्रीय बैंक को पंगु बनाते हुए वाणिज्यिक बैंकों को अपनी मुट्ठी में कर रही है। इससे सरकार और केंद्रीय बैंक के बीच गहरे और गंभीर मतभेद उजागर हुए हैं। जाहिर है, बैंकिंग क्षेत्र में सुधार और बैंकों पर नियंत्रण के लिए रिजर्व बैंक जो ठोस कदम उठाना चाहता है, वे शायद सरकार को अनुकूल प्रतीत नहीं होते।

उर्जित पटेल की बात सेजो सबसे बड़ा मुद्दा उभर कर आया है, वह सीधे-सीधे रिजर्व बैंक की स्वायत्तता से जुड़ा है। सरकार ने बैंकिंग नियमन अधिनियम में संशोधन कर एक तरह से रिजर्व बैंक को निहत्था बना दिया है। बैंकिंग क्षेत्र के बारे में बड़े फैसले करने के अधिकार सरकार ने अपने पास ले लिए। ऐसे में अब केंद्रीय बैंक की हैसियत शायद इतनी भी नहीं रह गई है कि वह बड़े-बड़े घोटालों के बाद किसी की जवाबदेही तय कर सके, किसी सरकारी बैंक के निदेशक मंडल को हटा सके या किसी बैंक का लाइसेंस रद्द कर सके। अरबों-खरबों के घोटाले सामने आने के बाद अगर केंद्रीय बैंक किसी की जवाबदेही भी तय नहीं कर सके तो फिर आखिर उसकी भूमिका क्या रह गई है, यह गंभीर सवाल है। रिजर्व बैंक अब क्या सिर्फ निजी क्षेत्र के बैंकों की निगरानी करने को रह गया है? आठ नवंबर, 2016 को नोटबंदी के बाद केंद्रीय बैंक को जिस तरह से दरकिनार करते हुए सरकार ने जो फैसले किए और ज्यादातर बड़े फैसलों के बारे में रिजर्व बैंक को जानकारी तक नहीं होने की बातें सामने आर्इं, उनसे तभी साफ हो गया था कि आने वाले वक्त में रिजर्व बैंक की भूमिका क्या रह जाएगी।

रिजर्व बैंक गवर्नर ने यह स्वीकार किया कि बैंकिंग नियमन अधिनियम में संशोधन कर केंद्रीय बैंक के अधिकार इतने घटा दिए गए हैं कि सरकारी बैंकों के कारोबारी प्रशासन में उसकी भूमिका नहीं के बराबर रह गई है। यह स्वीकारोक्ति इस बात को रेखांकित करती है कि सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों पर नियंत्रण को लेकर सरकार और केंद्रीय बैंक के बीच खाई कितनी चौड़ी हो गई है। अब बैंकों के अध्यक्ष, प्रबंध निदेशक और निदेशक मंडलों में नियुक्तियों का रिजर्व बैंक का अधिकार खत्म हो गया है। इन नियुक्तियों की कमान सरकार के हाथ में है। यह छिपी बात नहीं है कि बैंकों के शीर्ष पदों और निदेशक मंडलों में सरकार खासा दखल रखती है। ऐसे में सवाल उठता है कि बैंक का आला प्रबंधन रिजर्व बैंक के प्रति जवाबदेह होगा या फिर सरकार में बैठे लोगों के प्रति। बैंंकिंग क्षेत्र में सुधार के लिए बनी नरसिम्हन कमेटी ने भी आरबीआइ की निगरानी में बैंकों के निदेशक मंडलों को राजनीतिक दखल से बचाने का सुझाव दिया था। अगस्त 2015 में भी पीजे नायक समिति ने सरकारी बैंकों के बोर्ड के कामकाज में सुधार की जरूरत बताई थी। पर सुधार को लेकर सरकार की ओर से शायद ही कोई पहल हुई हो। अगर ऐसे सुझाव अमल में लाए जाते तो पीएनबी जैसे घोटाले नहीं होते!


Date:16-03-18

कृषि का संकट

संपादकीय

किसानों की नाराजगी का कारवां गुरुवार को लखनऊ की सड़कों पर था। अभी चंद रोज पहले ऐसा ही एक दृश्य हमें देश की आर्थिक राजधानी मुंबई की सड़कों पर भी दिखा था। जैसे मुंबई में प्रदर्शन करने वाले किसानों की मांगें मान ली गईं, वैसी ही उम्मीद लखनऊ में आंदोलन कर रहे किसानों को भी होगी। हालांकि कृषि विशेषज्ञ, आर्थिक योजनाकार और यहां तक कि किसान नेता भी यह स्वीकार करते हैं कि कर्ज-माफी और न्यूनतम समर्थन मूल्य बढ़ाने जैसी मांगों की पूर्ति किसानों को तात्कालिक राहत भले दे दे, लेकिन वह उन मूल समस्याओं का समाधान नहीं कर पाएगी, जिनसे हमारे देश की कृषि बुरी तरह त्रस्त है। मुमकिन है कि लगभग हर प्रदेश में आंदोलन कर रहे किसान भी यह अच्छी तरह समझते हों, लेकिन उनकी कुल जमा पीड़ा इतनी घनीभूत है कि तात्कालिक राहत के लिए सैकड़ों किलोमीटर की यात्रा के अलावा हो सकता है कि उन्हें और कोई विकल्प नहीं दिख रहा हो। किसान जिन मांगों को लेकर सड़कों पर उतरे हैं, उनका हश्र हम पंजाब में देख सकते हैं, जहां अकाली सरकार के दस साल के शासन के दौरान किसानों के सभी कर्जे माफ कर दिए गए थे, उन्हें मुफ्त बिजली दी जा रही थी और न्यूनतम समर्थन मूल्य को लागू करने की मशीनरी नीचे तक काम कर रही थी। लेकिन किसानों की समस्याएं वहां भी खत्म नहीं हुईं। वहां भी किसानों में असंतोष है। वहां भी किसानों ने आत्महत्याएं की हैं। केंद्र सरकार ने किसानों को लागत का डेढ़ गुना न्यूनतम समर्थन मूल्य देने का वादा किया है, मध्य प्रदेश ने किसानों के लिए भावांतर जैसी योजना लागू की है। लेकिन किसानों को इनमें अच्छे भविष्य का आश्वासन नहीं दिख रहा।

देश भर के किसान इतने असंतुष्ट क्यों हैं? इस असंतोष के कारणों को गहराई तक समझना आसान नहीं है, लेकिन कुछ चीजें हैं, जो स्पष्ट दिखती हैं। अगर हम पिछले एक दशक की कृषि विकास दर पर नजर डालें, तो यह आमतौर पर दो फीसदी के आस-पास ही रही है, कभी दो फीसदी से ज्यादा नहीं हुई और एकाध बार तो शून्य से भी नीचे जा चुकी है। जिस समय देश की कुलजमा विकास दर छह से सात फीसदी की गति से लगातार बढ़ रही है, तब भारतीय कृषि कछुआ चाल से आगे बढ़ने के लिए अभिशप्त है। इन किसानों को चार से पांच फीसदी ब्याज दर पर रियायती कर्ज देकर सरकारें भले ही अपनी पीठ थपथपाती रही हों, लेकिन इस स्थिति में यह उम्मीद नहीं की जा सकती कि किसान कर्ज की अदायगी भी कर ले और खुशहाल भी हो जाए। यहां मामला सिर्फ कृषि उत्पादकता बढ़ाने का नहीं है, क्योंकि किसानों का अनुभव यही कहता है कि जिस साल उनके खेतों में उत्पादन बढ़ता है, बाजार भाव मुंह के बल गिरता है और वे ज्यादा घाटे में रहते हैं।

कृषि का यह संकट भारत का ही नहीं है, पूरी दुनिया किसी न किसी रूप में इससे दो-चार हो रही है। पश्चिम के देश विश्व व्यापार संगठन से जूझते हुए, कृषि को सब्सिडी के बल पर चला रहे हैं, तो चीन जैसे देश कुछ अलग तरह के समाधान की तरफ बढ़ रहे हैं। तेज रफ्तार से भाग रहे उद्योगों के बीच कृषि को किस तरह आगे ले जाया जाए, यह सभी की समस्या है। हमारी समस्या यह है कि देश की तकरीबन आधी आबादी इस संकटग्रस्त कारोबार से जुड़ी है। लेकिन हम दीर्घकालिक समाधान खोजने की बजाय अभी तात्कालिक राहत की राह पर ही हैं।


Date:16-03-18

सूरज की किरणों से बंधती एक उम्मीद

विजय कुमार चौधरी, अध्यक्ष, बिहार विधान सभा

दुनिया अब फिर से सूरज की ओर देख रही है। फॉसिल फ्यूल के प्रदूषण से परेशान और ग्लोबल वार्मिंग की आशंकाओं से चिंतित दुनिया की सारी उम्मीदें अब सूर्य के प्रकाश पर ही टिक गई हैं। 11 फरवरी को नई दिल्ली में भारत और फ्रांस द्वारा संयुक्त रूप से आयोजित अंतरराष्ट्रीय सौर गठबंधन (इंटरनेश्नल सोलर एलायंस) के पहले शिखर सम्मेलन को इसी दृष्टि से देखे जाने की जरूरत है। यह सम्मेलन टिकाऊ विकास व नवीकरणीय ऊर्जा के क्षेत्र में सौर ऊर्जा के महत्व को भारत ही नहीं, पूरी दुनिया के सामने लाने में कामयाब रहा। जलवायु परिवर्तन और प्राकृतिक संसाधनों के संरक्षण के मामले में सौर ऊर्जा के उपयोग को सबसे उपयुक्त माना जाता है। अच्छी बात यह है कि इस सम्मेलन के बहाने भारत को सौर ऊर्जा के मामले में विश्व में अग्रणी भूमिका निभाने का अवसर मिला है।

भारतीय संस्कृति में सूर्य को वैसे भी बह्मांड की आत्मा व सभी जीवों का पोषणकर्ता बताया गया है। व्यावहारिक दृष्टिकोण से भी सूर्य से प्राप्त गरमी और रोशनी ही हमारे जीवन या अस्तित्व का मुख्य आधार भी है। सूर्य की उष्णता से ही वातावरणीय जल चक्र अनुरक्षित होता है, जो फिर विभिन्न ऋतुओं का कारक बनता है। ये ऋतुएं ही हमारे कृषि का मुख्य आधार हैं, जो हमारे देश की अर्थव्यवस्था का मेरुदंड है। सूर्य की रोशनी से ही हरे पेड़ पौधे प्रकाश का संश्लेषण करते हैं, जिससे सभी जीवों के लिए ऑक्सीजन बनती है और यह हमारी भोजन शृंखला का आधार भी है, जबकि हमारी पारंपरिक सोच यह कहती है कि सूर्य न सिर्फ नौ ग्रहों के प्रमुख हैं, बल्कि उन्हें प्रत्यक्ष देव की संज्ञा दी गई है। दूसरी तरह से देखें, तो किसी चीज की अहमियत उसकी अनुपस्थिति में ज्यादा महसूस होती है। यह बात सूर्य के साथ सटीक रूप से लागू होती है। अगर दो-चार दिन भी सूर्य दर्शन न दे, तो जनजीवन अस्त-व्यस्त हो जाता है। अब जिसके बिना जीवन अस्त-व्यस्त हो जाए, वही तो जीवन का मुख्य आधार होता है। सौर प्रणाली में गड़बड़ी होने से मौसमी चक्र भी प्रभावित होता है, जिसका सीधा कुप्रभाव फसलों पर पड़ता है।

भारतीय संस्कृति की यही सोच है, जिसके चलते सूर्योपासना की परंपरा हमारे यहां आदि काल से चली आ रही है। आधुनिक काल में हम वैज्ञानिक दृष्टिकोण से सूर्य को ऊर्जा के अक्षय स्रोत के रूप में देखते हैं, परंतु शायद इसका भान हमारे पूर्वजों को भी इसी रूप में था। भारत के कई पर्व, यथा पोंगल, मकर संक्रांति, छठ, रथ सप्तमी आदि सूर्य की पूजा से ही संबंधित हैं। वैसे भी आज सूर्य ही है, जो अविजित है और इसके नजदीक तक पहुंच पाने की तकनीक हम विकसित नहीं कर पाए हैं। इस लिहाज से आधुनिक काल में भी सूर्य की पूजा सबसे अधिक प्रासंगिक है। हमें यह भी समझना होगा कि विज्ञान की सीमा जहां समाप्त होती है, वहीं से प्रकृति की सत्ता का प्रारंभ होता है। आज विज्ञान तरक्की के चाहे जिस मुकाम पर हो, प्रकृति के सारे रहस्यों के उद्भेदन अथवा परिभाषित करने की क्षमता नहीं ग्रहण कर पाया है। प्रकृति में ऊर्जा या संसाधनों का भंडार पड़ा है, जिसे हम अपनी ज्ञान की सीमा तक ही उपयोग कर पाते हैं।

अंतरराष्ट्रीय सौर गठबंधन की घोषणा पेरिस जलवायु शिखर वार्ता में की गई थी, जिसमें 121 देशों ने हिस्सा लिया था। फिर जनवरी 2016 में भारत के प्रधानमंत्री और फ्रांस के राष्ट्रपति ने संयुक्त रूप से इस गठबंधन के मुख्यालय की आधारशिला गुड़गांव में रखी थी। अब दिल्ली में ही इस गठबंधन के पहले अंतरराष्ट्रीय सम्मेलन होने की अपनी अहमियत है। इस सम्मेलन में विभिन्न देशों के प्रतिनिधियों ने अपनी कुल ऊर्जा खपत में सौर ऊर्जा के प्रतिशत को बढ़ाने का संकल्प लिया और इसके साथ ही दिल्ली सौर कार्यक्रम की भी घोषणा की।

संयुक्त राष्ट्र विकास कार्यक्रम यानी यूएनडीपी द्वारा कराए गए विश्व ऊर्जा आकलन के मुताबिक, साल 2012 में पूरी दुनिया की वार्षिक ऊर्जा खपत लगभग 560 एक्साजूल्स (ऊर्जा मापने की एक मीट्रिक इकाई) थी, जबकि दुनिया को प्रतिवर्ष लगभग 1,600 से लेकर 45,000 एक्साजूल्स तक सौर ऊर्जा प्राप्त होती है। हम इससे अंदाज लगा सकते हैं कि अगर सौर ऊर्जा के मानवीय उपयोग हेतु हमने प्रभावी तकनीक विकसित कर ली, तो पूरे विश्व में इससे ऊर्जा क्रांति आ सकती है। आज लगभग हर देश सौर ऊर्जा के क्षेत्र में विभिन्न तकनीक का विकास कर इसे आम लोगों की ऊर्जा खपत का टिकाऊ हिस्सा बनाने में जुटा है। इस हेतु कई तरह की तकनीक और विधाएं उपयोग की जाती हैं, जिनमें सौर तापन यानी सोलर हीटिंग, फोटो वोल्टैक, सौर तापीय ऊर्जा सौर वास्तुकला और कृत्रिम प्रकाश संश्लेषण आदि प्रमुख हैं। भारत ने साल 2022 तक 60 गीगावाट सौर ऊर्जा उत्पादन का लक्ष्य रखा था। इसमें अच्छी बात यह है कि यह लक्ष्य निर्धारित समय से चार साल पहले 2018 में ही पूरा कर लिया गया है। अब 2022 तक 100 गीगावाट सौर ऊर्जा पैदा करने का लक्ष्य रख गया है।

किसी भी देश के लिए सौर ऊर्जा के अधिक से अधिक उत्पादन करने का कार्यक्रम बनाना लाजिमी है, क्योंकि यह ऊर्जा का एक स्वतंत्र और कभी न खत्म होने वाला अक्षय स्रोत है। इससे प्रदूषण नियंत्रण में भी सहायता मिलती है और यह ग्लोबल वार्मिंग के निवारण में भी सहायक होता है। भारत का विदेशी मुद्रा भंडार का संतुलन हमेशा प्राकृतिक जीवाश्म ईंधन के आयात से ही बिगड़ता है। इस समस्या का भी निदान सौर ऊर्जा के अधिक से अधिक उत्पादन से हो सकता है। इस दृष्टिकोण से इस क्षेत्र में त्वरित गति से आगे बढ़ना हमारे लिए लाजिमी ही नहीं, अपरिहार्य है।

इस अभियान को प्रभावी बनाने हेतु सरकार ने सौर तकनीक मिशन की भी स्थापना की है, जिसके तहत शोध और अनुसंधान के माध्यम से नई तकनीक विकसित कर सौर ऊर्जा के अधिकतम उपयोग का लक्ष्य रखा गया है। यह माना जाता है कि आने वाले समय में जो देश इस क्षेत्र में तकनीक विकसित कर महारत हासिल करेगा, वही ऊर्जा के क्षेत्र में अग्रणी भूमिका निभाएगा। यह एक ऐसा क्षेत्र है, जिससे हमारी सांस्कृतिक जड़ें भी जुड़ी हैं और अब विज्ञान व तकनीक के क्षेत्र में दुनिया में अपनी श्रेष्ठता साबित कराना ही हमारे लिए चुनौती है।


Date:16-03-18

Governor’s lament

Government must heed RBI concerns. It must swiftly settle issue of separation of bank ownership and control

Editorial

A cardinal mistake committed by the government soon after state-owned Punjab National Bank disclosed on February 14 that it had been hit by a major fraud was to point an accusing finger at the banking regulator for its supervisory failures and at bankers and auditors for sleeping at the wheel. For, when the government, the owner of public sector banks which still control a dominant share of the country’s banking business, indulges in such a blame-game even before the full contours of the Letter of Undertaking (LoU) scam involving firms promoted by jewellers, Nirav Modi and his uncle Mehul Choksi, are visible, there is bound to be a push back. That has come in the form of not just a ban on LoUs and letters of comfort for trade credit by the RBI, which will raise the cost of capital for many firms, but also a veiled attack by the RBI Governor. “Success has many fathers, failures none, Hence, there has been the usual blame game, passing the buck, and a tonne of honking, mostly short-term and knee-jerk reactions. All these appear to have prevented the participants in this cacophony from deep reflection and soul-searching that can help solve fundamental issues that are the root cause of such frauds and related irregularities in the banking sector, which are in fact far too regular”, Governor Patel said in a rare and hard-hitting speech in Gandhinagar on Wednesday.

He may be right. A calmer approach could have helped, as seen in the past when fires were doused in the corporate and financial sector in 2008 and 2009. Instead, in this case it has led to the central bank chief showing the mirror to the government — pointing out how the RBI’s hands are tied — with no powers to remove the directors on the management of PSU banks who are appointed by the government or to force a merger or trigger liquidation of a state-owned bank and its limited legal authority to hold these bank boards accountable. Patel has also said that the RBI was ready to face brickbats and be the “neelkantha”, consuming the poison.

Clearly, the greater challenge is governance reform in banks. Having been slow in recognising and acting on the bad loans mess, the government should now swiftly settle the issue of separation of ownership and control. Privatisation does appear to be an easy option but it is important to debate whether such an option should be exercised during a crisis or when some of the top private banks in India themselves have been found out reporting a divergence in their bad loan numbers in consecutive quarters. The speed and efficiency with which the government goes about its task will count much more this time — not just because of the fiscal consequences of another bill for recapitalisation but also because of the recovery underway and the need to revive animal spirits. India cannot have a banking sector which is hobbled and a set of bankers who are loath to lend when the upturn comes.


Date:16-03-18

Frontier becomes mainland

PM’s vision and development initiatives have led to integration of the Northeast with the rest of the country.

Jitendra Singh,[The writer is Union Minister for Development of North East Region]

Much has been written in the past few days to analyse the assembly election results in Tripura, Nagaland and Meghalaya. Political “pundits” are splitting hair to unravel the secret of the BJP’s meteoric rise in the Northeast, that turned Tripura from red to saffron. Journalists who analyse election outcomes through tools developed to understand earlier regimes will find it difficult to fathom the BJP’s relentless efforts in the past three years — at the government as well as at the organisational levels — to achieve these results.

While Amit Shah is possibly the first-ever president of an Indian political party to have begun his tenure with an extensive tour of the Northeast — he spent not less than two days in each of the eight states — it is Prime Minister Narendra Modi who has set a record of sorts through his personal outreach. He has offered support to developmental activity and undertaken extensive tours, unmatched by any of his predecessors. The PM has undertaken 14 official visits to the region and almost an equal number as a party leader to campaign during the assembly elections in Assam, Manipur, Tripura, Meghalaya and Nagaland.

The PM’s tryst with the Northeast has been marked by several firsts. He is possibly the first PM in four decades to have visited Shillong to attend the North Eastern Council’s (NEC) plenary meet. It was after several years, if not decades, that a PM undertook a long visit to Mizoram. In three-and-a-half years, the PM visited Arunachal Pradesh twice — his immediate predecessor had visited the state only once in 10 years. His two-day visit to Sikkim was packed with official and public engagements that began at 7.30 am and went on till midnight, without any time for recreation — unlike most of his predecessors who visited this scenic state.

The PM’s visits were marked by the launch of historic projects and the initiation of schemes, aimed at providing livelihood to the people of the region. The people of Meghalaya had never seen a train before 2014, but today work is underway to lay a double-gauge railway line in the state. Tripura will have its first train to Bangladesh — a rail track from Agartala to the Bangladesh border is under construction with funding from the Ministry of Development of North East Region (DoNER). Less than six months after assuming office, in November 2014, the PM embarked on a three-day tour of Meghalaya, Assam, Manipur, Tripura and Nagaland. He flagged-off of the first-ever train from Mendipathar in Meghalaya to Guwahati in Assam and dedicated Unit-II of the ONGC Tripura Company Ltd Power Plant to the nation. He also attended the inauguration of the “Sikkim Organic Festival” in January 2016, when Sikkim was declared the first “Organic State” of India. In the same month, the PM laid the foundation stone of IIIT Guwahati.

In May 2017, the PM inaugurated the Dhola-Sadiya bridge across the Brahmaputra — also called the Bhupen Hazarika Setu. In Mizoram, in December 2017, he distributed the first lot of cheques of the Northeast Venture Capital Fund launched by the Ministry of DoNER. He inaugurated the Turial Hydro-Electric Power Plant at Aizawl, making Mizoram a power-surplus state. One of the PM’s earliest statements after assuming office was, “we cannot ensure the wholesome growth of Mother India if only the West grows and the East does not.” This is the spirit behind his “Act East” policy. The first-ever Global Investors Summit he inaugurated at Guwahati in February is in line with that vision.

PM Modi’s personal initiative led to the culmination of the historic Indo-Bangladesh Agreement on the exchange of enclaves. He introduced the Cabinet note to amend the 90-year old Indian Forest Act. The amendment took bamboo grown in non-forest area out of the Act’s purview. This will enable the use of bamboo to generate livelihood. An exclusive Niti Aayog forum has been constituted for the Northeast. Under the PM’s direction, a roster has been put in place, wherein eight Union ministers are expected to travel to the Northeast every fortnight. In other words, one Union minister visits each of the eight states in the region every fortnight. Inspired by PM Modi’s vision, the DoNER ministry initiated a unique experiment — it holds a “camp secretariat” in one of the eight Northeast states every month, by rotation.

The PM ensured the budget for the Northeast was increased and it currently stands at nearly Rs 49,000 crore. A separate North-East Road Sector Development Scheme (NERSDS), one of its kind in India, was initiated for the region. A North-East Special Infrastructure Development Scheme” (NESIDS) that focuses on the region’s roads and its tourism potential is also underway. Work on 15 new railway lines has been initiated, six double-gauge rail lines are being developed and three double-gauge rail lines are ready for use. A comprehensive telecom plan, amounting to Rs 5336 crore, is in place. In the power sector, six out of 19 projects were commissioned in less than four years. For the first time, in 2014, Rs 10,000 crore was sanctioned for laying transmission lines.

Sikkim got its first airport at Pakyong as a result of PM Modi’s intervention. The Guwahati Airport has been upgraded to an international air-transport hub. Work on the upgradation of Agartala and Shillong airports has also begun. The PM’s sincerity to uplift the Northeast has led to the blurring of the distinction between the so-called “hinterland” and “mainland”. The entire country, including the eight states of the Northeast today constitute the mainland. History will record this as one of the major contributions by any Indian prime minister.


 

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