18-05-2018 (Important News Clippings)

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18 May 2018
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Date:18-05-18

दूरसंचार का मसौदा

संपादकीय

राष्ट्रीय डिजिटल संचार नीति का मसौदा डिजिटल संचार को लेकर महत्त्वाकांक्षी दृष्टि सामने रखता है। मसौदे में वर्ष 2022 के लिए निम्नलिखित लक्ष्य तय किए गए हैं: सभी के लिए ब्रॉडबैंड का प्रावधान, डिजिटल संचार के क्षेत्र में 40 लाख अतिरिक्त रोजगारों का सृजन, देश के जीडीपी में इस क्षेत्र का योगदान बढ़ाकर 8 फीसदी करने का लक्ष्य (वर्ष 2017 में यह 6 फीसदी था), सूचना एवं संचार तकनीकी विकास सूचकांक में देश को वर्तमान 134वें स्थान से सुधारकर शीर्ष 50 देशों में शामिल करना और डिजिटल संप्रभुता सुनिश्चित करना। उपभोक्ताओं की जरूरत को हल करने के लिए एक नए दूरसंचार लोकपाल के गठन और वेब आधारित शिकायत व्यवस्था कायम करने की बात इसमें शामिल है। इसके अलावा मसौदे में ब्रॉडबैंड के विस्तार के क्षेत्र में निजी-सार्वजनिक भागीदारी की बात कही गई है। नीति में स्पेक्ट्रम और टावर नीतियों में अहम बदलाव का सुझाव दिया गया है ताकि इनका कारोबार आसानी से चल सके। उल्लिखित लक्ष्य जहां प्रश्नों से परे हैं, वहीं यह भी देखा जाना है ये जमीन पर कितने प्रभावी ढंग से उतरते हैं।

वर्ष 2012 की दूरसंचार नीति की भी सराहना की गई थी। कहा गया था कि यह दूरदर्शी दस्तावेज है परंतु तब से अब तक इसका दायरा बहुत सीमित रहा है। उदाहरण के लिए सेवा प्रदाताओं को उच्च स्पेक्ट्रम शुल्क और इस क्षेत्र में चल रही कीमतों की जंग के चलते भारी वित्तीय बोझ का सामना करना पड़ रहा है। सरकार अब तक स्पेक्ट्रम का किफायती आवंटन नहीं कर सकी है और उच्च आरक्षित मूल्य के कारण नीलामी को बहुत ठंडी प्रतिक्रिया मिली है। यह उद्योग कानूनी विवादों में भी उलझा हुआ है। इसने भी इस क्षेत्र की मजबूती और इसके विकास को रोक रखा है। मसौदे में निवेश के रूप में 100 अरब डॉलर की राशि जुटाने का लक्ष्य रखा गया है। परंतु यह संभव नहीं लगता है क्योंकि फिलहाल तो यह क्षेत्र सालाना 10 अरब डॉलर की राशि भी नहीं जुटा पा रहा। ऐसे में नीति का क्रियान्वयन बहुत अहम रहेगा। उदाहरण के लिए नीति में प्रस्ताव रखा गया है कि स्पेक्ट्रम शुल्क कम करके, सेवाओं, उपकरणों और बुनियादी सुविधाओं पर लगने वाले कर को युक्तियुक्त बनाकर तथा लाइसेंसिंग प्रक्रिया को आसान करके लागत कम की जाएगी। बल्कि इन बातों से और अधिक कानूनी मसले सामने आ सकते हैं। जिन सेवा प्रदाताओं ने भारी भरकम राशि की प्रतिबद्धता जताई है वे नए कारोबारियों की राह आसान होने पर आपत्ति जता सकते हैं।

नए मसौदे में नेट निरपेक्षता पर एक बार फिर जोर दिया गया है। उचित खुलासे के साथ प्रस्तुत डिजिटल विषयवस्तु के साथ कोई भेदभाव न करते हुए पारदर्शिता को बढ़ावा देने की बात कही गई है। ध्यान रहे भारतीय दूरसंचार नियामक प्राधिकरण ने नेट निरपेक्षता को लेकर अपनी अनुशंसा नवंबर 2017 में दी थी लेकिन दूरसंचार विभाग ने अब तक इसे मंजूरी नहीं दी है। वैश्विक मानकों के अनुरूप डेटा सुरक्षा के मानक विकसित करने पर भी जोर दिया गया है। यह सुझाव भी दिया गया है कि उपभोक्ताओं को सुरक्षा के मसले पर जागरूक किया जाए। मसौदे में यह भी कहा गया है कि अवरोधक और विश्लेषण व्यवस्था के साथ नई अवरोधक एजेंसी विकसित की जाए। इस अनुशंसा का क्रियान्वयन सावधानी से करना होगा ताकि संविधान प्रदत्त निजता के मूल अधिकार को नुकसान न पहुंचे। दूरसंचार क्षेत्र बुनियादी क्षेत्र का अहम हिस्सा है। अगर वहां सकारात्मक घटनाएं होती हैं तो वृहद आर्थिक वृद्धि में तेजी आ सकती है। जैसा कि मसौदा नीति में कहा गया है ब्रॉडबैंड की पहुंच में 10 फीसदी का इजाफा जीडीपी में 1 फीसदी बढ़ोतरी कर सकता है। बहरहाल, महत्त्वाकांक्षी दूरगामी दृष्टि से इतर नई नीति की सफलता या विफलता इस बात पर निर्भर करती है कि यह क्षेत्र को मौजूदा संकट से उबार पाएगी या नहीं।


Date:18-05-18

तेल के खेल में भारत की मुश्किलें बढ़ा रहा है अमेरिका, पश्चिम एशिया में चल रही उथल-पुथल

हर्ष वी पंत, (लेखक लंदन स्थित किंग्स कॉलेज में इंटरनेशनल रिलेशंस के प्रोफेसर हैं)

अंतरराष्ट्रीय कूटनीति की दुनिया खासी उथल-पुथल भरी होती है। यहां एक के बाद एक चुनौतियां दस्तक देती रहती हैं। पहले से ही अस्थिरता के भंवर में फंसे दुनिया के सबसे हलचल भरे इलाकों में से एक पश्चिम एशिया अब एक नई चुनौती से दो-चार होने जा रहा है जिसका असर भारत को भी झेलना पड़ेगा। जैसी आशंका जताई जा रही थी, वैसा ही तब हुआ जब अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप ने ईरान के साथ अमेरिकी समझौते को एक झटके में खत्म करने का एलान कर दिया। ईरान के साथ परमाणु समझौते से जुड़ी संयुक्त व्यापक कार्ययोजना जेसीपीओए के नाम से मशहूर है।

इस समझौते पर अरसे से तलवार लटकी हुई थी जिसे 120 दिनों की समीक्षा के बाद ट्रंप ने गिरा ही दिया। उन्होंने अमेरिकी कांग्रेस और यूरोपीय शक्तियों द्वारा कुछ खामियों को दुरुस्त करने के प्रस्ताव की भी परवाह नहीं की। यह कोई छिपी हुई बात नहीं कि पिछले कुछ समय से ट्रंप ईरान के साथ परमाणु समझौता खत्म करने की फिराक में थे। उनके इस एलान से पहले यूरोपीय नेताओं ने उन्हें समझाने की भरसक कोशिश की। इस कवायद में ब्रिटिश विदेश मंत्री बोरिस जॉनसन ने यह दलील भी दी कि अमेरिका और ब्रिटेन के राजनयिक फ्रांसीसी और जर्मन साथियों के साथ मिलकर ईरान को लेकर ऐसी सहमति पर काम कर रहे हैं जिसमें यह तय किया जाएगा कि तेहरान क्षेत्रीय तनातनी न बढ़ा पाए और उसके मिसाइल कार्यक्रम पर अंकुश लगाने के साथ यह सुनिश्चित किया जाएगा कि वह कभी परमाणु बम नहीं विकसित कर पाए।

शायद वह इस बात को लेकर आश्वस्त हो गए कि कोई भी वैकल्पिक योजना और भी बदतर होगी। जॉनसन का बयान फ्रांसीसी राष्ट्रपति इमैनुअल मैक्रों और जर्मन चांसलर एंजेला मर्केल के अमेरिकी दौरे के एक दिन बाद ही आया। मैक्रों और मर्केल भी यही समझाने के लिए अमेरिका गए थे। यूरोपीय नेताओं की तमाम समझाइश के बाद भी ट्रंप पिघले नहीं और इस समझौते को बेहूदा ही बताते रहे। समझौते को लेकर उनकी आलोचना मुख्य रूप से इस बिंदु पर केंद्रित थी कि मौजूदा समझौता केवल एक तय अवधि के लिए ही ईरान की परमाणु गतिविधियों पर बंदिश लगाता है और उसमें बैलिस्टिक मिसाइलों पर अंकुश लगाने का कोई प्रावधान नहीं। ऐसी राय रखने वाले वह अकेले नहीं। इजरायल ने भी इस पर आपत्ति जताई और कुछ गोपनीय परमाणु फाइलों’ का हवाला देते हुए कहा कि ईरान 2003 के पहले तक परमाणु बम पर काम कर रहा था और उसने वह तकनीक छिपा ली है। इजरायली प्रधानमंत्री बेंजामिन नेतन्याहू ने ईरान पर सीरिया को अत्याधुनिक हथियारों की आपूर्ति का आरोप भी लगाया। इस पर हैरत नहीं कि ईरानी राष्ट्रपति हसन रूहानी ने ट्रंप को चेतावनी दी कि अगर वह तेहरान के साथ परमाणु करार को रद करते हैं तो यह ऐतिहासिक भूल होगी। ईरान में जेसीपीओए के आलोचकों का भी यह कहना है कि अमेरिका ईरान पर लगातार अपना शिकंजा कस रहा है। वित्तीय प्रतिबंधों से लेकर ईरानियों और ईरानी बैंकों के साथ लेनदेन करने वालों पर अरबों डॉलर के आर्थिक हर्जाने का डर दिखाया जा रहा है। खराब होते आर्थिक परिवेश को लेकर बढ़ते असंतोष ने रूहानी सरकार पर दबाव बढ़ा दिया है। वहां आम जनमानस में बढ़े आक्रोश के चलते शासन के भीतर कट्टरपंथी धड़ों को मजबूती मिली है।

ईरान ने अपने परमाणु कार्यक्रम को लेकर नेतन्याहू के दावे को झूठ करार देते हुए कहा कि उन्होंने पुराने आरोपों को ही नए सिरे से पेश किया है जबकि अंतरराष्ट्रीय परमाणु ऊर्जा एजेंसी यानी आईएईए के साथ पहले ही उनका समाधान निकाल लिया गया है। इस सबके बीच अमेरिका में ईरान के खिलाफ घरेलू भावनाओं में उबाल आता गया। अमेरिकी विदेश मंत्री माइक पोंपेओ ने कहा कि इजरायली प्रधानमंत्री द्वारा उपलब्ध कराए गए दस्तावेज पूरी तरह दुरुस्त हैं। उन्होंने यही दर्शाया कि 2015 का ईरान के साथ समझौता झूठ पर आधारित था। राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार के तौर पर जॉन बोल्टोन की नियुक्ति भी सत्ता के रुख में आए बदलाव का संदेश देने के लिए ही है। ईरान को लेकर अमेरिकी फैसले का जितना असर पूरी दुनिया पर पड़ेगा उसकी उतनी ही तपिश नई दिल्ली में भी महसूस की जाएगी। भारत दुनिया में तेल का तीसरा सबसे बड़ा उपभोक्ता है और पिछले साल भारत को तेल आपूर्ति करने वाले देशों में ईरान तीसरे पायदान पर था। अगर ट्रंप सचमुच जेसीपीओए से मुकरते हैं तो भारत एक बार फिर दबाव में आ जाएगा कि वह ईरान पर अपनी तेल निर्भरता घटाए। एक तरह से समझौते से पहले वाले दौर की ही वापसी हो सकती है। जेसीपीओए के अमल में आने से भारत को दक्षिणपूर्व ईरान में सामरिक रूप से महत्वपूर्ण चाबहार बंदरगाह को विकसित करने का अवसर मिला। यह ईरान का इकलौता बंदरगाह है जिससे रूस और यूरोप के साथ उसके व्यापार में तेजी आई है।

जेसीपीओए के ठंडे बस्ते में जाने के बाद चीन ईरान में और आक्रामक तरीके से अपना दांव लगाएगा। यह भारत के लिए और मुश्किल भरा साबित होगा। इससे उसके विकल्प और सीमित हो जाएंगे। तेहरान से रिश्तों को लेकर नई दिल्ली पर पड़ने वाला दबाव न केवल चाबहार के भविष्य पर असर डालेगा, बल्कि खासी एहतियात के साथ तैयार की गई भारत की पश्चिम एशियाई कूटनीति को भी प्रभावित करेगा। मोदी सरकार ईरान, इजरायल और अन्य अरब देशों के साथ अपने रिश्तों को बेहतर बनाने में एक बड़ी हद तक इसीलिए कामयाब रही, क्योंकि ईरान के साथ समझौते ने ईरान और पश्चिम के बीच तनाव को घटाने का काम किया था। हाल के दौर में भारत और ईरान के बीच कुछ तनाव भी बढ़ा। इनमें फरजाद-बी ऑयलफील्ड को रूसी कंपनी गैजप्रोम को देने और चाबहार में भागीदारी के लिए चीन और पाकिस्तान को आमंत्रित करने के संकेत जैसे उदाहरण शामिल हैं। फिर भी दोनों के रिश्ते उसी गति से सामान्य भी हुए। अब उन पर ट्रंप के फैसले से खतरा मंडराने लगा है। हालांकि संभावित खतरों से निपटने के लिए भारत ने भी कुछ एहतियाती कदम उठाए हैं जैसे भारतीय कंपनियों को ईरान में रुपये में निवेश करने की इजाजत देना ताकि ईरान में भारतीय परियोजनाओं को सुरक्षा कवच मिले। इसकी कीमत अनुमान से कहीं ज्यादा हो सकती है।

यही वजह है कि इस साल की शुरुआत में रूहानी की भारत यात्रा के दौरान भारत ने जेसीपीओए के पूर्ण एवं प्रभावी क्रियान्वयन में सहयोग का आश्वासन दिया था। इसे संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद का भी समर्थन हासिल था जिसे परमाणु अप्रसार और अंतरराष्ट्रीय शांति, स्थायित्व और सुरक्षा के लिए महत्वपूर्ण योगदान माना गया। नई दिल्ली को यही उम्मीद होगी कि ट्रंप के झटके के बावजूद यूरोपीय देश ईरान समझौते के पक्ष में खड़े रहेंगे ताकि भारत पर इसका बहुत ज्यादा असर न पड़े, लेकिन हलचल भरे इस दौर में उम्मीद की डोर पर्याप्त मजबूत नहीं।


Date:17-05-18

नई चिंताओं का कारण बनी रुपये की कीमत में गिरावट

जयंतीलाल भंडारी, (अर्थशास्त्री)

इन दिनों रुपये के मूल्य में लगातार गिरावट अर्थव्यवस्था के लिए चिंता बन गई है। फरवरी 2017 के बाद पहली बार ऐसा हुआ है कि रुपया डॉलर के मुकाबले 67 रुपये के पार पहुंचा है। पिछले चार वर्षों से भारत के लिए वैश्विक हालात सकारात्मक रहने से भारतीय रुपया मजबूत रहा है। वैश्विक स्तर पर कम ब्याज दरों वाले दौर में भारतीय अर्थव्यवस्था में विदेशी फंड का प्रवाह बढ़ने से देश का चालू खाता घाटा पाटने में मदद मिली और कच्चे तेल की कम कीमतों ने भी व्यापार घाटा नियंत्रित रखने में मदद की, लेकिन अब भारतीय अर्थव्यवस्था के लिए अनुकूल रहे ये दोनों पहलू कमजोर पड़े हैं। डॉलर के मुकाबले रुपया कमजोर होने से आयातित वस्तुएं और उनसे संबंधित सामान महंगे होते हुए दिखाई दिए हैं।

अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप द्वारा ईरान के साथ परमाणु समझौता रद्द कर ईरान पर पाबंदी के एलान के बाद डॉलर की मजबूती बढ़ेगी, अनुमान है कि डॉलर के मुकाबले रुपये की कीमत 70 तक जा सकती है। भारत में डॉलर के मुकाबले रुपये के मूल्य में गिरावट के कई कारण हैं। भारतीय आयातकों में डॉलर की भारी मांग है। तेल कंपनियां और बड़े-बड़े उद्योग-व्यापार संस्थान विदेशी व्यापारिक उधारी निपटाने के लिए डॉलर खरीद रहे हैं। देश के विदेश व्यापार के तहत निर्यात की तुलना में आयात तेजी से बढ़ने के कारण देश से डॉलर का भुगतान बढ़ गया है। विदेशी संस्थागत निवेशक घबराहट में बाजार से धन निकाल रहे हैं। देश में तेजी से बढ़ते विदेश व्यापार घाटे के कारण भी डॉलर की जरूरत लगातार बढ़ी है। यद्यपि पिछले वित्त वर्ष 2017-18 में देश ने निर्यात के 300 अरब डॉलर के लक्ष्य स्तर को छू लिया है, लेकिन निर्यात की तुलना में आयात डेढ़ गुना बढ़ा, जिससे वित्त वर्ष 2017-18 के लिए व्यापार घाटा बढ़कर 156.83 अरब डॉलर हो गया, जो वित्त वर्ष 2016-17 में 108.50 अरब डॉलर था। पिछले वित्त वर्ष का व्यापार घाटा पिछले चार साल में सबसे ज्यादा है। भारत के पास 425 अरब डॉलर का विदेशी मुद्रा भंडार है, फिर भी डॉलर के विदेश की ओर प्रवाह के कारण रिकॉर्ड स्तर पर पहुंचे विदेशी मुद्रा भंडार में कमी दिखाई देने लगी है।

ऐसे में इस समय डॉलर के मुकाबले रुपये की कीमत संभालने के लिए जरूरी है कि सरकार आयात नियंत्रित करने और निर्यात बढ़ाने के लिए रणनीतिक रूप से आगे बढ़े। पिछले दिनों भारतीय निर्यातक संगठनों के महासंघ ने कहा है कि सरकार द्वारा निर्यातकों को दी जा रही रियायतें वैश्विक निर्यात की बढ़ती हुई चुनौतियों का सामना करने के मद्देनजर कम हैं। वैश्विक संरक्षणवाद की नई चुनौतियों के बीच सरकार को निर्यात प्रोत्साहन के लिए और अधिक कारगर कदम उठाने होंगे। छोटे निर्यातकों की परेशानियां कम करने के लिए जल्द ही ई-वॉलेट लाना चाहिए, जिससे निर्यात कारोबारियों को सीधे भुगतान किया जा सके। बांग्लादेश, वियतनाम, थाईलैंड जैसे छोटे देशों ने निर्यातकों को तमाम सुविधाएं देकर भारतीय निर्यातकों के सामने कड़ी प्रतिस्पर्द्धा खड़ी कर दी है। ऐसे में, भारत में भी सभी निर्यातकों के लिए ब्याज सब्सिडी बहाल की जानी चाहिए। कुछ ऐसे देशों के बाजार भी जोड़ने होंगे, जहां ज्यादा गिरावट नहीं है।

सरकार को भारतीय उत्पादों को प्रतिस्पर्द्धी बनाने वाले सूक्ष्म आर्थिक सुधार लागू करने होंगे। यह आयात में कमी लाने के साथ निर्यात बढ़ाने वाला होगा, जिससे भारत उन प्रतिकूल परिस्थितियों का बखूबी सामना कर पाएगा जो डॉलर की तुलना में रुपये की गिरावट के लिए जिम्मेदार हैं। कच्चे तेल की बढ़ती कीमतों का विदेशी मुद्रा भंडार पर असर कम करने के लिए रिजर्व बैंक का एनआरआई बांड जारी करना सहायक होगा। विदेशी मुद्रा भंडार उच्च स्तर पर संभाले रखने और स्वतंत्र मौद्रिक नीति की डगर पर सावधानी के साथ आगे बढ़ना होगा। यह सब करते हुए ही सरकार द्वारा राजकोषीय घाटे में कमी लाने और आर्थिक विकास दर की रफ्तार के बीच चतुराई से संतुलन बनाकर डॉलर की तुलना में रुपये के मूल्य में आ रही गिरावट को रोका जा सकेगा।


 

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