18-04-2019 (Important News Clippings)

Afeias
18 Apr 2019
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Date:18-04-19

Local resonance of the Notre-Dame fire

ET Editorials

As firefighters worked to douse the flames and save the 850-year old Notre-Dame Cathedral in Paris, people gathered around the engulfed iconic French monument, keeping vigil, praying and hoping that it would be saved. Saving the Notre-Dame became somewhat synonymous with saving a piece of French national identity. The fire at Notre-Dame made it to the pages of newspaper and news channels across the world and struck a chord in India as well.

In a globalised world, sharing this moment does not seem odd. What is perhaps odd is the fact that a devastating fire at the Meenakshi Temple in Madurai, also a Unesco World Heritage site, a little more than a year ago was but a blip on the Indian radar. Why did the fire at the Meenakshi Temple not evoke passion and bring Indians together the way the Notre-Dame managed to galvanise the French? The question raised by Reshmi R Dasgupta in her blog is important. The answer perhaps lies in our flawed sense of historical identity, transcending identities of caste, region, language, faith and ethnicity. Blame past social schism, the colonial experience, attempts to produce an anodyne narrative of history in school textbooks that shy away from causing possible offence at the expense of acquaintance with reality.

Indians must embrace their rich and complex history. It is unlikely to be neat and simple, there will be competing views, but in accepting the differing views, we will be able to put together a history that is reflective of the diversity that is India. But, more importantly, it will be a history with which every Indian will be able to relate. Especially if the reality of the present is one of shared well-being and participation in building and nurturing individual and collective futures of prosperity.


Date:18-04-19

फसल मूल्य का पूर्वानुमान लगाने वाली सेवा किसानों की मददगार

सुरिंदर सूद

कृषि विपणन की एक खास खामी पर अभी तक पर्याप्त ध्यान नहीं दिया गया है। विभिन्न फसलों के अनुमानित मूल्य व्यवहार यानी बाजार बुद्धिमत्ता के बारे में अग्रिम सूचना का भारी अभाव रहा है। यह जानकारी किसानों के लिए सूझबूझ भरा फैसला लेने के लिए महत्त्वपूर्ण है ताकि वे फैसला कर सकें कि किस फसल को कितना उगाया जाए और उसे कब एवं कहां बेचा जाए? कृषि बाजार के बारे में सूचना देने वाली मौजूदा सेवाओं में सामान्य तौर पर केवल बड़ी मंडियों में प्रभावी कीमतों का ही उल्लेख होता है। ये जानकारियां किसानों के लिए सीमित उपयोगिता वाली ही होती हैं क्योंकि अलग स्थानों पर अलग समय पर इनके भावों में अंतर होता है। सब्जियों और फलों जैसे बड़े पैमाने पर उगाए जाने वाले और जल्द खराब होने वाले उत्पादों के दाम में काफी उतार-चढ़ाव देखा जाता है। किसान बेहतर रिटर्न के लिए इनकी खेती करते हैं लेकिन भरोसेमंद विपणन परामर्श नहीं होने से उनकी मेहनत अक्सर बेकार हो जाती है।

विपणन संबंधी परामर्श तमाम दूसरी वजहों से भी जरूरी है। कृषि क्षेत्र में कीमत पड़ताल और मूल्य जोखिम प्रबंधन के तरीके और साधन काफी सीमित हैं। दुनिया भर में मूल्य पड़ताल और मूल्य जोखिम हेजिंग के लिए वायदा कारोबार और उससे भी बढ़कर विकल्प कारोबार साधनों का इस्तेमाल किया जाता है लेकिन भारत में अधिकांश खाद्य उत्पादों के लिए इनकी इजाजत नहीं है। इसके अलावा सरकार द्वारा निर्धारित मूल्य पर कृषि उत्पादों की सरकारी खरीद और भाव-अंतर भुगतान प्रणाली जैसी मौजूदा मूल्य आश्वासन योजनाएं किसानों के एक छोटे हिस्से को ही संरक्षण दे पाई हैं। बाकी किसान अपनी उपज को नजदीकी मंडियों में उसी भाव पर बेच देते हैं जो शोषक कारोबारी उन्हें देता है। भले ही किसान इस बात से बेखबर नहीं हैं कि उपज की कीमत खरीद-बिक्री का असली समय खत्म होने के बाद ही बढ़ती है फिर भी वे उपज की बिक्री को देर तक टाल नहीं सकते हैं क्योंकि उन्हें आगे होने वाली मूल्य वृद्धि का कोई अंदाजा ही नहीं होता है। उपज को अपने पास रखना किसान के लिए उल्टा नतीजा देने वाला भी साबित हो सकता है अगर आलू, प्याज और टमाटर जैसी उपज के भंडारण पर आई लागत की भरपाई नहीं हो पाती है।

ऐसे में उपज की खरीद-बिक्री के बारे में मिलने वालीभरोसेमंद सलाह से होने वाले लाभों का प्रदर्शन कुछ पायलट परियोजनाओं में देखने को मिला है। सार्वजनिक क्षेत्र के कुछ शोध निकायों की तरफ से ये पायलट परियोजनाएं चलाई गई हैं। इनमें सबसे अहम परियोजना भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद (आईसीएआर) ने चलाई थी और 2017-18 की वार्षिक रिपोर्ट में इसका उल्लेख भी किया है। देश भर में फैले 14 संस्थानों के नेटवर्क के जरिये लागू की गई इस पायलट परियोजना में 40 से अधिक कृषि उत्पादों के बारे में साल भर में दो बार मूल्य पूर्वानुमान जारी करना था। उपज के बारे में पहला पूर्वानुमान फसल की बुआई के पहले किया जाना था जबकि दूसरा पूर्वानुमान फसल कटाई के समय लगाया जाना था। इसके बारे में बताने के लिए संचार के हरसंभव साधन का इस्तेमाल किया गया। निजी संपर्क, एसएमएस, पर्चों का वितरण, टीवी, रेडियो, कृषि विश्वविद्यालयों की वेबसाइट, फेसबुक, व्हाट्सऐप और यूट्यूब के जरिये किसानों को इन पूर्वानुमान के बारे में जानकारी दी गई।

इस सेवा के असर का विश्लेषण करने पर पता चला कि उत्तर प्रदेश के आलू उत्पादक किसानों ने बनारस हिंदू विश्वविद्यालय के विशेषज्ञों से मिली सलाह पर अमल करते हुए अपनी उपज मार्च-अप्रैल के परंपरागत वक्त के बजाय मई के महीने में बेची तो उन्हें औसत भाव से 30-40 फीसदी ऊंची कीमतें मिलीं। इस तरह उन्हें प्रति क्विंटल 100-150 रुपये की अधिक आय हुई। इसी तरह गुजरात के कपास उत्पादक किसानों ने जूनागढ़ स्थित राज्य कृषि विश्वविद्यालय की तरफ से मिली सलाह पर अमल करते हुए औसतन 36,000 रुपये अधिक कमाए।

अगर सार्वजनिक क्षेत्र की इकाइयां किसानों को इतनी लाभप्रद सलाह दे सकती हैं तो निजी कंपनियां शायद कहीं बेहतर तरीके से इस काम को अंजाम दे सकती हैं। निजी कंपनियां किसानों की विभिन्न जरूरतों को पूरा करने के लिए कहीं अधिक विविध एवं मूल्य-वद्र्धित सूचनाएं देने के नए मॉडल ईजाद कर सकती हैं। सहकारिता क्षेत्र की खाद कंपनी इफ्को की तरफ से शुरू की गई किसान संचार सेवा इस मामले में एक नजीर बन सकती है। इफ्को ने भारती एयरटेल और स्टार ग्लोबल रिसोर्सेज लिमिटेड के सहयोग से किसानों को फसल कीमत का पूर्वानुमान देना शुरू किया।

वर्ष 2017-18 में इफ्को किसान संचार सेवा ने करीब 20 लाख किसानों को स्थानीय भाषाओं में करीब 75,000 वॉयस संदेश भेजे थे। इस दौरान बाजार के अनुमानित भावों के अलावा खेती एवं पशुपालन से जुड़े अन्य पहलुओं, मौसम पूर्वानुमान, सरकारी योजनाएं और कृषि जगत से संबंधित समाचार भी प्रसारित किए गए। अगर कृषि व्यवसाय में लगी दूसरी कंपनियां भी इसी तरह की परामर्श सेवाएं लेकर आती हैं तो कृषि उपज की मार्केटिंग करना अधिक लाभदायक हो सकेगा। इससे भारतीय कृषि भी अधिक मुनाफा कमाने का क्षेत्र बन सकेगी।


Date:18-04-19

भारतीय निर्वाचन प्रक्रिया और नागरिक कर्तव्य

नितिन देसाई

अप्रैल 1947 में भारत की संविधान सभा ने यह तय किया कि वह आजादी की लड़ाई के दौरान उठी मांग के अनुरूप सार्वभौमिक मताधिकार के आधार पर चुनाव कराएगी। एक तरह से यह औपनिवेशिक काल की सीमित मताधिकार की चुनाव व्यवस्था पर प्रतिक्रिया भी थी। उदाहरण के लिए सन 1935 के चुनाव में देश के कुल वयस्कों के केवल पांचवें हिस्से का नाम मतदाता सूची में शामिल किया गया था। इस सूची में मतदाताओं के नाम समुदाय, पेशे आदि के हिसाब से वर्गीकृत किए गए थे।

नवंबर 1946 में संविधान सभा सचिवालय (सीएएस) ने सार्वभौमिक आधार पर मतदाता सूची तैयार करने का काम शुरू किया। चूंकि इसका सीधा संबंध नागरिकता से था। इसलिए निर्वाचन सूची की तैयारी से जुड़े प्रयास, इस प्रश्न के उत्तर से भी प्रत्यक्षतया संंबंधित थे कि वास्तव में असल भारतीय कौन हैं? यह कोशिश थी एक ऐसा नागरिक राष्ट्र बनाने की जहां धर्म या जातीय संदर्भ न दिए जाएं। सीएएस ने जिन नौकरशाहों को निर्देशों के प्रवर्तन का काम सौंपा, उन्होंने सार्वभौमिकता के सिद्घांत को कुछ ज्यादा ही गंभीरता से ले लिया। उदाहरण के लिए तत्कालीन बॉम्बे के कलेक्टर ने कहा कि सार्वभौमिकता का तकाजा है कि जिन लोगों के पास कोई स्थायी पता नहीं है, उन्हें भी मतदान करने का अधिकार मिले और ऐसे हर व्यक्ति को मतदान का अधिकार मिलना चाहिए जो यह साबित कर सके कि उसका रहवास उस क्षेत्र में है। शरणार्थियों से जुड़े जटिल मुद्दों को भी हल कर लिया गया। इस प्रक्रिया पर किया गया ओर्नित शानी का अध्ययन बताता है कि कैसे सार्वभौम मतदाता सूची तैयार करने की इस प्रक्रिया ने राष्ट्रीय एकता की भावना उत्पन्न करने में मदद की और राष्ट्रीयता का बोध पैदा किया।

अपनी लोकतांत्रिक व्यवस्था की बुनियाद की ओर ध्यान आकर्षित करने का मकसद यह बताना है कि निर्वाचन प्रक्रिया को संचालित करने वाले सरकारी अधिकारियों पर भी काफी कुछ निर्भर करता है। जनता को यह यकीन दिलाना चाहिए कि वे पूरी तरह निष्पक्ष और निरपेक्ष हैं तथा वे चुनाव तथा आदर्श आचार संहिता को कड़ाई से लागू करने के लिए प्रतिबद्घ हैं। चुनाव प्रक्रिया आरंभ हो चुकी है और ऐसी आशंका है कि चुनाव की निगरानी करने वाली सर्वोच्च संस्था इस बार वैसी निरपेक्ष नहीं है जैसा कि हम उसे देखते आए हैं। सेवानिवृत्त नौकरशाहों ने कुछ खास चूक को लेकर जो पत्र लिखा, उसे व्यापक कवरेज मिला (स्पष्टीकरण: मैंने भी उस पत्र पर हस्ताक्षर किए हैं)। इन चिंताओं को हल किए जाने के संकेत मिल रहे हैं और उम्मीद की जानी चाहिए कि जल्दी ही निर्वाचन अधिकारियों की निष्पक्षता में भरोसा बहाल हो जाएगा।

वैधता इस बात पर भी निर्भर करती है कि मतदाता, मतदान और मतगणना की प्रक्रिया की निष्पक्षता पर यकीन करें। इलेक्ट्रॉनिक वोटिंग मशीन (ईवीएम) के इस्तेमाल को लेकर कई सवाल उठे और कहा गया कि उनसे छेड़छाड़ की जाती है। निजी तौर पर मेरा मानना है कि भारत में ईवीएम को लेकर जो सुरक्षा इंतजाम किए गए हैं, वे पर्याप्त हैं। हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि पुरानी मतदान पत्र वाली व्यवस्था में तो बूथ कैप्चरिंग के जरिए ऐसी छेड़छाड़ करना और आसान था। बहरहाल, मतदाताओं का भरोसा बरकरार रखना महत्त्वपूर्ण है और इसलिए वोटर वेरीफाइड ऑडिट ट्रेल (वीवीपैट) का इस्तेमाल काबिलेतारीफ है। एक सवाल यह भी है कि इनमें से कितने नमूने रखे जाएंगे और कितनों की गिनती की जाएगी। जो जानकारी अब आ रही है, उसके मुताबिक प्रति विधानसभा क्षेत्र एक के बजाय अब पांच वीवीपैट चुनी जाएंगी और ईवीएम से उनका मिलान किया जाएगा। पांच वीवीपैट को चुनने का एक तरीका यह है कि दूसरे स्थान पर आने वाले प्रत्याशी से तीन और तीसरे स्थान पर आने वाले प्रत्याशी से दो पर्चियां चुनने को कहा जाए। निर्वाचन अधिकारियों को निष्पक्ष होना होगा और जो राजनेता चुनावी होड़ में होंगे, वे यकीनन अंतर को बढ़ाकर पेश करेंगे, तथ्यों के साथ तोड़ मरोड़ करेंगे और आक्षेपों का प्रयोग करेंगे। परंतु जब यह सब उस मोड़ पर पहुंच जाए जहां देशवासियों के बीच धर्म या जातीय पहचान के आधार पर भेद करने का प्रयास किया जाए तो राजनीतिक प्रकिया प्रत्यक्ष तौर पर समता और नागरिक राष्ट्रीयता के संवैधानिक मानक को चुनौती देती है। यह सीमा पार नहीं होनी चाहिए लेकिन इन चुनावों में ऐसा हो रहा है। आदर्श आचार संहिता में ऐसे प्रावधान हैं कि चुनाव आयोग चाहे तो उल्लंघन करने वालों के खिलाफ कदम उठाए।

मौजूदा राजनीतिक बहस का चिंतित करने वाला एक और पहलू है। राजनेता एक दूसरे के खिलाफ जिस भाषा का प्रयोग कर रहे हैं, वह निहायत असभ्य और असंयमित है। विपक्ष का सम्मान संसदीय लोकतंत्र में अहम है। इतना ही नहीं जब राजनीतिक प्रक्रिया कई दलों तक फैली हो और गठबंधन सरकारों का दौर हो तब निंदा और क्रोध की यह भावना राजनीतिक स्थिरता को नुकसान पहुंचा सकती है। मीडिया कवरेज का स्वरूप बदलने से इस विकृत राजनीतिक बहस का स्वरूप भी बदला है। टेलीविजन एंकर पूर्वग्रह से ग्रस्त नजर आ रहे हैं और सोशल मीडिया फेक न्यूज का प्रसार कर रहा है।

प्रभावी लोकतंत्र को राजनीतिक परिदृश्य में सभी दलों और लोगों के लिए समानता कायम करनी चाहिए। परंतु सत्ताधारी राजनेता बहुत कम अवसरों पर इसका सम्मान करते हैं और चुनावी लाभ के लिए मनमानी करते रहते हैं। राजनीतिक फंड जुटाने की कोशिश में नियमों की मनमुताबिक व्याख्या और हाल में राजनीतिक दलों को कारोबारी चंदे से संबंधित नियमों में बदलाव तथा गोपनीय दान के लिए चुनावी बॉन्ड की व्यवस्था इसका उदाहरण है। एसोसिएशन ऑफ डेमोक्रेटिक रिफॉर्म के मुताबिक नियम में बदलाव के बाद वित्त वर्ष 2017 और 2018 में कॉर्पोरेट दान का बड़ा हिस्सा एक खास दल को गया। करीब 2700 करोड़ रुपये मूल्य के निर्वाचन बॉन्ड खरीदकर दान किए गए। इसका ब्योरा भी उपलब्ध नहीं है। परंतु सारे संकेतक यही बताते हैं कि बॉन्ड में किए गए दान का अधिकांश हिस्सा दल विशेष को गया।

हमारे पुरखों ने जिस लोकतंत्र का स्वप्न देखा था, वह संकट में है। अगर चुनाव विश्वसनीय तरीके से नहीं हुए तो वे मौजूदा सरकार की संवैधानिकवैधता पर सवाल खड़े करते हैं। कानून, नियम और समान परिस्थितियां, चुनाव आचार संहिता और स्वतंत्र चुनाव आयोग द्वारा उनका कड़ाई से क्रियान्वयन आदि केवल शुरुआत हैं। काफी कुछ इस बात पर निर्भर करता है कि क्या हम ऐसा मानक व्यवहार तैयार कर पाते हैं जो किसी समूह के प्रति घृणा को नकार सके, विरोध केअधिकार का सम्मान करे और राजनीतिक बहस के ऐसे मानक तय करे जो आगे चलकर परंपरा बन जाएं। नागरिक और मतदाता के रुप में भी हमें राजनीतिक वर्ग से व्यवहार के ऊंचे व्यवहार मानक की अपेक्षा करनी चाहिए।


Date:17-04-19

प्रशासनिक सुधार के लिए बड़ी पहल

प्रेमपाल शमा , (लेखक शिक्षाविद एवं पूर्व प्रशासक हैं)

भारत सरकार के संयुत सचिव स्तर के पदों पर नौ विशेषज्ञों की नियुति फिर इस बात का प्रमाण है कि मौजूदा केंद्र सरकार में फैसले लेने और उन्हें पूरा करने की दृढ़ इच्छाशति है। मोदी सरकार ने केंद्र सरकार के अति विशेषज्ञता वाले कई मंत्रालयों में संयुत सचिव के पदों को ऐसे विशेषज्ञों से भरने का फैसला पिछले साल जून में लिया था, जो विकास को गति दे सकें।

वैसे इस पर बहस पिछले कई वर्षों से चल रही थी। नीति आयोग ने भी इस बात की सिफारिश की थी कि वैश्विक ज्ञान और विशेषज्ञता को देखते हुए संयुत सचिव स्तर पर अपने-अपने क्षेत्र के ऐसे विशेषज्ञों को लाने की जरूरत है। इसके दो फायदे हैं। एक तो सरकार से बाहर अपने- अपने क्षेत्रों की जो प्रतिभाएं हैं, उसका फायदा सरकार को मिलेगा और उन्हें सरकार को करीब से समझने का मौका भी मिलेगा। जाहिर है कि मौजूदा सरकार के अधिकारी भी उनसे सीख सकते हैं।

लगभग एक दशक पहले प्रशासनिक सुधार आयोग ने भी केंद्र सरकार में लेटरल एंट्री की सिफारिश की थी। सातवें वेतन आयोग ने 2007 में भी ऐसी ही सिफारिश की थी, लेकिन नौकरशाही के आंतरिक विरोध के चलते बात आगे नहीं बढ़ी। स्वाभाविक है कि यथास्थितिवादी मौजूदा नौकरशाही कभी नहीं चाहेगी कि उनके एकछत्र साम्राज्य में कोई बाहरी भी सेंध लगाए। गौर करने लायक बात यह है कि जो नौकरशाही शिक्षा, स्वास्थ्य से लेकर मीडिया, सूचना सभी क्षेत्रों में सुधारों की पक्षधर रही है, उसने अपने संगठन में सुधार का कभी समर्थन नहीं किया।

हालांकि उनके पुरजोर विरोध के बावजूद जून 2018 में विज्ञापन निकाला गया और लगभग 10 मंत्रालयों के लिए 6000 आवेदन आए। इन आवेदनकर्ताओं को पुन: अपनी विशेषज्ञता की विस्तृत जानकारी देने के लिए कहा गया और परिणाम यह निकला कि उसके बाद केवल 40 प्रतिशत आवेदक ही अपनी प्रविष्टियां पूरी कर पाए। अंतत: 6000 में से सिर्फ 90 उम्मीदवारों को संघ लोक सेवा आयोग ने साक्षात्कार और अन्य प्रक्रियाओं के लिए उपयुत माना। अब ये विशेषज्ञ संयुत सचिव के रूप में विा मंत्रालय, कृषि मंत्रालय के अधीन सहकारिता और कृषक कल्याण, नागरिक उड्डयन, वाणिज्य, वन, पर्यावरण एवं जलवायु परिवर्तन, सड़क, परिवहन, ऊर्जा से लेकर जहाजरानी मंत्रालय में तैनात किए जाएंगे। उम्मीद है कि ये अगले दो महीनों में अपना कार्यभार संभाल लेंगे।

एक नजर इन चुने हुए विशेषज्ञों के नामों पर डाली जाए तो पाएंगे कि सभी अपने-अपने क्षेत्र के विशेषज्ञ रहे हैं। काकोली घोष ने संयुत राष्ट्र के खाद्य एवं कृषि संगठन में काम किया है और अब कृषि मंत्रालय में कार्यभार संभालेंगी। इसी तरह पनामा ऊर्जा के मुख्य कार्यकारी अधिकारी दिनेश दयानंद जगदाले अब ऊर्जा मंत्रालय में काम करेंगे। इनके वेतन और दूसरी सुविधाएं वहीं होंगी जो संघ लोक सेवा आयोग से चुने गए भारतीय प्रशासनिक सेवा, पुलिस सेवा या रेल मंत्रालय के इसी स्तर के दूसरे अधिकारियों को मिलती हैं। अंतर इतना ही है कि यह नियुति संविदा के आधार पर की गई है। शुरू में नियुति तीन साल की है। उसके बाद उनके योगदान के आधार पर इसे पांच वर्ष तक बढ़ाया जा सकता है। पर्यावरण, वन, ऊर्जा, जलवायु परिवर्तन जैसे ये सभी मंत्रालय ऐसे हैं जहां नवीनतम ज्ञान और विशेषज्ञता की जरूरत होती है। संघ लोक सेवा आयोग और देश की अकादमिक दुनिया की जानकारी रखने वाले जानते हैं कि केंद्रीय सेवाओं में चुने जाने वाले सभी अयर्थी बहुत कठिन तीन स्तरीय परीक्षा से जरूर चुने जाते हैं, लेकिन इन विषयों की उन्हें इतनी जानकारी नहीं होती जितनी कि आज के जटिल समय में जरूरत है। वे परंपरागत भौतिकी कानून, इतिहास के मेधावी छात्र हो सकते हैं, लेकिन वैश्विक दुनिया आज ज्ञान और शोध के जिस मोड़ पर खड़ी है वहां लगातार स्वयं को अद्यतन बनाए रखने की आवश्यकता होती है। मोटे तौर पर संयुत सचिव के स्तर पर पहुंचने के लिए लगभग 20 वर्ष का समय लग जाता है।

यदि सिविल सेवा परीक्षा द्वारा नौकरियों में भर्ती की औसत आयु 28 वर्ष भी मानें तो इन्होंने अपनी पढ़ाई उससे पांच-सात साल पहले पूरी की होगी। यानी कि इनके पास लगभग 30 वर्ष पुराना ज्ञान है। जबकि इनके मुकाबले बाजार या दूसरे संगठनों से भर्ती किए हुए विशेषज्ञों ने अपना पूरा जीवन उसी एक क्षेत्र में बिताया है और उनकी योग्यता, काम, प्रकाशन भी जगजाहिर हैं। इंग्लैंड और यूरोप के दूसरे देशों की नौकरशाही में इसकी शुरुआत चार दशक पहले ही हो गई थी और इसीलिए वहां की व्यवस्थाएं उतनी तंगहाल नहीं हुईं जितनी कि भारतीय। अमेरिकी अर्थशास्त्री जेके गैलब्रैथ के शब्दों में भारत की नौकरशाही दुनिया की सबसे भ्रष्ट और सुस्त नौकरशाही है। प्रशासनिक सुधार आयोग, सातवें वेतन आयोग, सुप्रीम कोर्ट की चेतावनी और सिफारिशों के बावजूद भी भारतीय नौकरशाही में वे अपेक्षित सुधार नहीं आ पाए जो इतने विशाल देश के विकास के रथ को गति दे सकें।

हालांकि इससे पहले भी सचिव आदि पदों पर ऐसी नियुतियां यदाकदा होती रही हैं। जैसे कि पूर्व प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह, मोंटेक सिंह आहलूवालिया की विा मंत्रालय में, नंदन नीलेकणी की सूचना प्रौद्योगिकी में नियुति हुई थी। इसके अलावा भी पेट्रोलियम सचिव से लेकर विज्ञान मंत्रालय आदि में कई विशेषज्ञों की पूर्व में नियुतियां हुई हैं, लेकिन एक नियमित नीति और व्यवस्था के तहत ऐसा पहली बार हुआ है। अर्थात मीडिया में विज्ञापन देना, आवेदन मंगाना और संघ लोक सेवा आयोग को इस जिम्मेदारी को निभाने के लिए अनुरोध करना पहली बार हुआ है। सभी नियमों को अपनाते हुए लेटरल एंट्री प्रशासनिक सुधार की तरफ संभवत: पहला कदम बन सकता है। परंपरागत नौकरशाही के लिए यह इशारा है कि यदि टिके रहना है तो सक्षम होना पड़ेगा और उस ज्ञान-विज्ञान की भी नवीनतम जानकारी रखनी होगी जिस पर आज दुनिया चल रही है। बाहर से आने वाले भी इस व्यवस्था को समझ पाएंगे कि एक बहुभाषी जटिल देश में कितने अवरोधों के बीच रास्ता निकालना पड़ता है। मौजूदा नौकरशाही और बाजार में उपलब्ध मेधावी पीढ़ी, दोनों को ही देश के विकास और व्यवस्था में सुधार के लिए उपयोग में लेने की जरूरत है। उम्मीद की जानी चाहिए कि ऐसी नियुतियां किसी विचारधारा, वंशवाद, क्षेत्रवाद से ऊपर उठकर अपनी पहचान बनाएंगी।


Date:17-04-19

Sealed disclosure

The Supreme Court order will not alter the influence of electoral bonds on polls

EDITORIAL

The Supreme Court’s interim order asking political parties to disclose, to the Election Commission in sealed covers, details of the donations they have received through anonymous electoral bonds is an inadequate and belated response to the serious concerns raised about the opaque scheme. The scheme, under which one can purchase bonds of various denominations from a designated bank and deposit them in the accounts of any political party, had been challenged in the apex court a year ago. When the matter was taken up last week, it was considered that the time available was too limited for an in-depth hearing. The order, unfortunately, preserves the status quo, and any effect that the possible asymmetry in political funding would have on the election process will stay as it is. The only concession given to those concerned about the dangers of anonymous political funding is that the names would be available with the EC, albeit in sealed envelopes, until the court decides if they can be made public. There is some concern that a disproportionately large segment of the bonds purchased by corporate donors has gone to the Bharatiya Janata Party. This donor anonymity may end if the court decides that the EC should disclose the names at the end of the litigation, but the influence such donations would have had on the electoral outcome would remain undisturbed.

The court notes in its order that the case gives rise to “weighty issues which have a tremendous bearing on the sanctity of the electoral process in the country”. Given this premise, it could be asked whether the judicial intervention could not have come earlier. However, all it has done now is to ensure that its interim arrangement does not ‘tilt the balance’ in favour of either side. The petitioners, the Association for Democratic Reforms, questioned the anonymity-based funding scheme on the grounds that it promotes opacity, opens up the possibility of black money being donated to parties through shell companies and empowers the ruling party, which alone is in a position to identify the donors and, therefore, well placed to discourage donations to other parties. The government, on the other hand, argued that electoral bonds would prevent unaccounted money from entering the system through funding of parties. For the last two decades, the Supreme Court has been proactive in empowering voters and in infusing transparency in the system. It has developed a body of jurisprudence that says the electoral process involves the voter being given information about candidates, their qualifications, assets and crime records, if any. Therefore, it is disappointing to hear the Attorney General arguing that voters do not have a right to know who funds parties. Now that there is no stay on the operation of the scheme, the court must render an early verdict on the legality of the electoral bond scheme.


 

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