18-03-2023 (Important News Clippings)

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18 Mar 2023
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Date:18-03-23

House matters

The government should not avoid a debate on issues of governance 

Editorial

The second leg of the Budget session of Parliament is in a deadlock. The ruling Bharatiya Janata Party (BJP) wants Congress leader Rahul Gandhi to apologise for remarks that he made in London recently about democratic backsliding in India; the Congress is insisting on the constitution of a Joint Parliamentary Committee (JPC) to probe allegations of dubious financial transactions and dishonest business practices against the Adani Group of companies. Available evidence suggests that Mr. Gandhi had categorically stated that the challenges to Indian democracy had to be sorted out domestically, and ruled out any role for foreign forces. With the Indian diaspora expanding, the ripple effects of politics in India are inevitable beyond the country’s geographical boundaries. In fact, the BJP has for long believed in cultural nationalism which is not contained within the geography of India. Mr. Modi has discussed national politics before audiences around the world. A democracy that does not allow criticism, including of democracy itself, is a contradiction in terms. Mr. Gandhi has not been able to speak in Parliament and explain his remarks; meanwhile, a BJP Member has initiated a process to terminate Mr. Gandhi’s Lok Sabha membership. It is an ill-advised move, and if carried out, will further amplify the fears of a democratic deficit in India.

In their clamour for an apology by Mr. Gandhi, BJP Ministers are also evading questions regarding government patronage of the Adani Group. The Congress has been seeking answers from the government on the links between the public sector Life Insurance Corporation of India and the State Bank of India with the Adani Group. The BJP and the government have been silent on this serious issue of governance that spans the government and the public and private sectors. Arbitrariness in decision making, followed by a lack of accountability, amounts to governance failure, if not collusion. The government, the Rajya Sabha chairman and the Lok Sabha Speaker should work with the Opposition for a discussion on the issues arising out of the Adani controversy. Coming clean is essential in maintaining the government’s credibility, the regulatory environment and the private sector. There have been precedents of a JPC in cases of financial scandals. The BJP has the numbers to get away with any disregard for parliamentary norms, but it should rise above that temptation and evolve as a true party of governance. Parliament has a role to play in fixing accountability, and the BJP should not avoid it and betray a new level of executive impunity.


Date:18-03-23

Endless delay

Constitutional functions should not be held hostage to personal differences

Editorial

The frequency with which the conduct or inaction of Governors comes up for judicial scrutiny reflects poorly on the state of relations between incumbents in Raj Bhavans and the respective Chief Ministers. The Supreme Court will soon hear an extraordinary petition from the Telangana government, seeking a direction to the Governor, Dr. Tamilisai Soundararajan, to grant assent to Bills passed by the State Assembly. Recently, the apex court disposed of a petition from the Punjab Government that was aggrieved by an alleged delay in the Governor summoning the Assembly. The matter was resolved when it was submitted on behalf of the Governor that the Assembly would meet on the day desired by the State government. In earlier decades, a petition seeking a direction to Governors or questioning their inaction on constitutional matters would have been thrown out at the threshold itself. However, such is the extent to which the gubernatorial office is being overtly politicised by those holding it that courts may now be constrained to examine whether such inaction is justified. One sees a disturbing tendency in recent years of some Governors making use of the absence of a time-frame in the Constitution to indefinitely delay decisions. This tactic effectively stalls the elected regime’s legislative agenda.

The conflict between Raj Bhavan and the Chief Minister’s office witnessed in several States is quite acute in Telangana. Dr. Soundararajan has alleged that she is being boycotted by Chief Minister K. Chandrashekar Rao and that her queries are not being answered. The State government, for its part, is apparently upset that she may be trying to act independent of the Cabinet. A recent tweet from her account the day after the State government went to court — conveying a message that Raj Bhavan was closer than Delhi — indicates that her stand is linked to her view that the government is unfriendly and discourteous. These considerations ought not to matter on constitutional issues. The Governor can either grant assent to a Bill or decline it, or reserve it for the President’s consideration. In suitable cases, it may also be returned for reconsideration. However, none of this should be based on the Governor’s personal view on the Bill’s content. One can understand an occasional query if any Bill seemingly violates fundamental rights, but a relevant question that requires an authoritative pronouncement from the court is whether the Governor should decide on its legality or the legislature’s competence each time a Bill is presented for assent. As the Supreme Court remarked recently, dialogue between constitutional functionaries should not become a race to the bottom. Constitutional functions should not be held hostage to political and personal differences.


Date:18-03-23

क्या चैटजीपीटी नौकरियों के लिए एक खतरा है ?

चैटजीपीटी को अपने काम को और बेहतर बना सकने वाले उपकरण की तरह देखें

पंकज बंसल, ( डिजिटल रिक्रूटमेंट प्लेटफॉर्म और वर्क यूनिवर्स के सह-संस्थापक )

‘जैसे -जैसे एआई टेक्नोलॉजी का विकास हो रहा है, इस बात को लेकर चिंताएं उठ खड़ी हुई हैं कि जल्द ही ये प्रणालियां मनुष्यों के द्वारा परम्परागत रूप से किए जाने वाले कार्यों की जगह ले लेंगी। ऐसी ही एक टेक्नोलॉजी ने हाल में सबका ध्यान अपनी ओर खींचा है और वह है चैटजीपीटी।

यह ओपनएआई द्वारा विकसित एक बड़ा लैंग्वेज-मॉडल है। लेकिन क्या सच में ही चैटजीपीटी नौकरियों के लिए एक खतरा साबित हो सकता है?’

अभी-अभी आपने यह जो पैराग्राफ पढ़ा, यह चैटजीपीटी ने लिखा था। क्या आपको पता चला?

चैटजीपीटी गत वर्ष 30 नवम्बर को लॉन्च किया गया था और एक महीने के भीतर इसके यूजर्स दस करोड़ की संख्या को पार कर चुके थे। तो आखिर यह काम कैसे करता है? सामान्यतया, हम इंटरनेट पर डाटा और सूचनाओं की खोज करते हैं। लेकिन चैटजीपीटी एक ऐसी जनरेटिव एआई टेक्नोलॉजी का उपयोग करता है तो फ्रेश कंटेंट मुहैया कराती है। सरल शब्दों में कहें तो चैटजीपीटी डाटा की खोज नहीं करता, बल्कि वह सूचनाओं को संकलित कर नया डाटा निर्मित करता है। चैटजीपीटी ने ट्यूरिंग टेस्ट को भी सफलतापूर्वक पास कर लिया है, जो किसी मशीन की मनुष्यों-जैसी बातचीत करने की क्षमता की सटीक तरह से और बिना कोई गलतियां किए माप करता है।

नौकरियों पर असर : अतीत में सामान्यतया यह माना जाता था कि रचनात्मक कार्य ऑटोमैशन से अप्रभावित रहेंगे। लेकिन चैटजीपीटी जैसे शक्तिशाली जनरेटिव एआई टूल्स के उदय से तस्वीर बदल रही है। जहां चैटजीपीटी ने कॉपीराइटिंग, मीडिया लेखन, फिक्शन लेखन, स्क्रीन-लेखन आदि में प्रभावी क्षमताओं का परिचय दिया है, वहीं वह रचनात्मक लोगों की विशिष्ट क्षमताओं की जगह लेने में अभी सक्षम नहीं है। रचनात्मकता के लिए समानुभूति, अंत:प्रेरणा, मानवीय व्यवहार और संस्कृति की गहरी समझ की जरूरत होती है और ये इतनी जटिल चीजें हैं कि मशीन के द्वारा इनका पूरी तरह से अनुसरण नहीं किया जा सकता। ऐसी अनेक भूमिकाएं हैं, जिनमें किसी बिजनेस-विज़न को वास्तविकता में तब्दील करने के लिए मानवीय-बुद्धिमत्ता की जरूरत होती है, जैसे कि प्रोग्राम मैनेजमेंट या एग्रेगेशन। यह एआई नहीं कर सकती। तो चलें, कुछ ऐसे बिजनेस वर्टिकल्स को देखें, जिनमें चैटजीपीटी हमारी मदद कर सकता है :

कस्टमर सर्विस : कम्पनियां चैटजीपीटी का इस्तेमाल सरल के साथ ही जटिल इंक्वायरियों का भी उत्तर देने के लिए कर सकती हैं। हालांकि अंतिम निर्णय लेने के लिए प्रश्नों का उत्तर देने से कहीं अधिक की जरूरत होगी। इसके लिए सक्रिय और तुरंत निर्णय लेने की क्षमता चाहिए, जो केवल मनुष्यों में हो सकती है।

प्रोग्रामिंग : जहां चैटजीपीटी कोडिंग में सहायता कर सकता है, वहीं इस बात की सम्भावना कम ही है कि वह हाई-लेवल डिजाइन के निर्माण में मनुष्यों की जगह ले सकता है। इन कार्यों को करने के लिए मनुष्यों की रचनात्मकता, आलोचनात्मक चिंतन, निर्णय-क्षमता जैसी स्किल्स की जरूरत है। ऐसे में चैटजीपीटी प्रोग्रामर्स और प्रोडक्ट डिजाइनर्स के लिए मददगार उपकरण ही साबित हो सकता है, वह उनकी जगह नहीं ले सकता। हां, बदलते टेक-लैंडस्केप में प्रासंगिक बने रहने के लिए अब सॉफ्टवेयर इंजीनियरों को समस्याओं का समाधान करने, डिजाइन थिंकिंग और प्रोजेक्ट मैनेजमेंट के लिए स्किल्स विकसित करना होंगी।

चैटजीपीटी की सीमाएं और भविष्य के अवसर : अंतत: चैटजीपीटी एक एल्गोरिद्म ही है, जो अपने सिस्टम में भरे गए डाटा पर निर्भर है। अभी इसमें केवल दिसम्बर 2021 तक का डाटा है, उसके बाद के प्रश्नों का सही उत्तर देने के लिए उसके पास न के बराबर डाटा है। सर्ज इंजिनों के विपरीत चैटजीपीटी अपने नॉलेज के स्रोत के बारे में भी नहीं बताता। हो सकता है कि चैटजीपीटी द्वारा उपयोग किए गए ट्रेनिंग डेटा की सीमाओं और उसके पूर्वाग्रहों का मूल्यांकन नहीं कर पाने से जनरेटेड-कंटेंट की गुणवत्ता प्रभावित हो।

आगे की राह : आविष्कार मनुष्यों की मदद के लिए होते हैं और वे नौकरियों के नए अवसर भी सृजित कर सकते हैं। समस्याओं को सुलझाने वाले पेशेवर अगर इस टूल पर महारत हासिल कर लें तो उनके इर्द-गिर्द एक नई इंडस्ट्री भी खड़ी हो सकती है।

अंत में, उत्सुकतावश मैंने चैटजीपीटी से पूछा कि इस लेख का शीर्षक क्या होना चाहिए? उसने जवाब दिया : ‘चैटजीपीटी : क्या यह नौकरियां छीन लेगा?’


Date:18-03-23

देश की अंदरूनी समस्याओं पर विदेश में बातें क्यों ?

हम जो भी कहते या करते हैं, उसे पूरी दुनिया में देखा जाता है, इसे ध्यान में रखना चाहिए

पवन के. वर्मा, ( लेखक, राजनयिक, पूर्व राज्यसभा सांसद )

राहुल गांधी द्वारा कैम्ब्रिज यूनिवर्सिटी और ब्रिटिश संसद में दिए भाषणों पर खासा विवाद खड़ा हो गया है। भाजपा राहुल गांधी से मांग कर रही है कि वे भारत को बदनाम करने के लिए माफी मांगें। यह तो साफ है कि देश की अंदरूनी समस्याओं के बारे में विदेश में बात करने के लिए बड़ी सूक्ष्मता और परिष्कार की आवश्यकता है। देश के भीतर राजनीतिक पार्टियां खुलेआम एक-दूसरे की आलोचना कर सकती हैं, लेकिन जब हम विदेश में होते हैं, तो उन्हीं बिंदुओं पर चर्चा करते समय यह खयाल रखते हैं कि हमारी बातों से देश की सार्वजनिक छवि को नुकसान न पहुंचे। इसका यह मतलब नहीं है कि देश के भीतर एक-दूसरे से भिन्न विचारों का दम घोंट दिया जाए। लेकिन विदेश में बोलते समय हमें श्रोताओं को यह बताना चाहिए कि हमारी दृष्टि में भारत का विचार क्या है और वर्तमान भारत उसके अनुरूप है या नहीं।

तब हम यह कह सकते हैं कि हर लोकतंत्र की तरह भारत भी परफेक्ट नहीं है और उसमें सुधार की जरूरत है, लेकिन अतीत में एकाधिक अवसरों पर भारत ने दर्शाया है कि वह अपनी अंदरूनी समस्याओं को लोकतांत्रिक रूप से सुलझाने में सक्षम है। ऐसा कहना व्यावहारिक भी है और विचारधारागत भी। व्यावहारिक इसलिए, क्योंकि जब हम देश की निंदा करते हैं तो यह आम भारतीय को अच्छा नहीं लगता, फिर वह चाहे भारतवासी हों या प्रवासी भारतीय। वे चाहते हैं कि देश में चाहे जितनी समस्याएं हों लेकिन विदेश में देश की छवि पर बट्‌टा नहीं लगना चाहिए। विचारधारागत इसलिए, क्योंकि कुछ भी पूरी तरह से अच्छा और पूरी तरह से बुरा नहीं होता। जब हम देश में हो रही घटनाओं की आलोचना करते हैं तो साथ ही हमें आने वाले कल में देश की क्षमताओं के प्रति आशाएं और विश्वास भी जताना चाहिए, क्योंकि तब वह अधिक विश्वसनीय, परिपक्व और वस्तुनिष्ठ होता है।

यही कारण है कि जब राहुल विदेशी श्रोताओं के सामने कहते हैं कि नरेंद्र मोदी देश के ढांचे को तहस-नहस कर रहे हैं और देश को विखंडन की ओर ले जा रहे हैं, तब वे किसी भी सूक्ष्म आकलन के लिए जगह नहीं छोड़ते। इससे बेहतर तरीका उन मूल्यों और आदर्शों को याद करना होता, जिन्होंने कांग्रेस को प्रेरित किया है, जिन्होंने स्वतंत्रता आंदोलन को गति दी थी और जो हमारे संविधान में निहित हैं। इस संदर्भ में राहुल कह सकते थे कि अगर भारत के संविधान को कोई खतरा उत्पन्न होता है और नागरिकों की स्वतंत्रता का हनन किया जाता है तो कांग्रेस बढ़-चढ़कर इसका प्रतिकार करेगी। आखिर जब आपातकाल लगाया गया था, तब देश की जनता ने ही उसका प्रतिकार करते हुए कांग्रेस को परास्त कर दिया था। लेकिन अगर कोई यह संकेत करता है कि भारत के अंदरूनी मामलों को सुलझाने के लिए विदेशी हस्तक्षेप की जरूरत है, तो उसके लिए यह राजनीतिक आत्मघात से कम नहीं।

साथ ही, यह कहना एक बात है कि कांग्रेस मीडिया और न्यायपालिका जैसी संस्थाओं को पहुंचाई जा रही क्षति के विरुद्ध आंदोलन करेगी- जैसा कि उसने भारत जोड़ो यात्रा के माध्यम से करके दिखाया भी- पर यह कहना दूसरी बात है कि इन संस्थाओं का अस्तित्व ही अब समाप्त हो चुका है। इस तरह से तो आप भारत को एक ‘बनाना-रिपब्लिक’ के रूप में ही चित्रित करेंगे। मैं खुद एक डिप्लोमैट रहा हूं और देश की छवि की रक्षा करना मेरी पेशेवर जिम्मेदारी रही है। जब मैं राजनीति में आया तो अकसर मेरे श्रोताओं में विदेशी शामिल हुआ करते थे। जब भी मैंने देश की समस्याओं पर बातें रखीं, कभी सरकार को खारिज नहीं किया। हमेशा यही कहा कि भारतीय अपने मतभेदों को सुलझाने में सक्षम हैं और मुझे देश के भविष्य में पूरा भरोसा है।

वैसे भी जब राहुल लोकतंत्र और संवाद की बात करते हैं तो यह इसलिए निष्प्रभावी लगता है, क्योंकि वे लोकतांत्रिक रूप से निर्वाचित किसी पद पर हुए बिना एक ऐसी पार्टी के परोक्ष रूप से प्रमुख बने हुए हैं, जो किसी प्रकार की असहमति या आलोचना को बर्दाश्त नहीं करती। जब राहुल गांधी खुद कांग्रेस कार्यसमिति की बैठक में पार्टी के जी-23 नेताओं पर प्रहार करते हैं तो लोकतांत्रिक संवाद का कोई बहुत अच्छा उदाहरण नहीं प्रस्तुत कर रहे होते हैं। भाजपा ने भी राहुल की बातों की आलोचना करते हुए राष्ट्रवाद की भावनाओं को भड़काने की कोशिश करके बहुत संतुलित प्रतिक्रिया नहीं दी। आज भारत पर सबकी नजर है और हम अपने देश में जो भी कहते या करते हैं, उसे पूरी दुनिया में देखा जाता है, इसे ध्यान में रखा जाना चाहिए।


Date:18-03-23

मतांतरण रोधी कानून

संपादकीय

यह आश्चर्यजनक है कि जब विभिन्न राज्यों के मतांतरण रोधी कानूनों को और प्रभावी बनाने एवं केंद्रीय स्तर पर ऐसा कोई कानून बनाने की आवश्यकता है, तब कुछ ऐसे लोग और संगठन भी हैं, जो ऐसे किसी कानून की कहीं कोई जरूरत नहीं समझ रहे हैं। इतना ही नहीं, वे राज्यों के ऐसे कानूनों को चुनौती देते हुए सुप्रीम कोर्ट भी पहुंच गए हैं। उनकी याचिकाओं पर सुनवाई करते हुए गत दिवस सुप्रीम कोर्ट ने संबंधित राज्यों से उनके मतांतरण रोधी कानूनों पर तीन सप्ताह के अंदर जवाब मांगा है। यह तो स्वाभाविक है कि राज्य अपने मतांतरण रोधी कानूनों को उचित एवं आवश्यक बताएंगे, लेकिन अभी यह कहना कठिन है कि उनके संदर्भ में सुप्रीम कोर्ट किस नतीजे पर पहुंचता है? सुप्रीम कोर्ट को किसी नतीजे पर पहुंचने के पहले इससे अवगत होना आवश्यक है कि छल-छद्म एवं लोभ-लालच से मतांतरण एक यथार्थ है और इसी कारण केंद्रीय स्तर पर मतांतरण रोधी कानून बनाने की मांग हो रही है। सुप्रीम कोर्ट को इससे भी परिचित होना चाहिए कि मत प्रचार की स्वतंत्रता का अनुचित लाभ उठाकर विभिन्न संगठन मतांतरण में जुटे हुए हैं। ऐसे संगठनों ने मतांतरण के जरिये देश के कई हिस्सों में जनसांख्यिकी को बदल दिया है। कहीं-कहीं तो इतना अधिक बदल दिया है कि सामाजिक और राजनीतिक समीकरण ही पूरी तरह बदल गए हैं। पूर्वोत्तर के अधिकांश राज्यों के साथ आदिवासी बहुल प्रांतों में यह काम इतने बड़े पैमाने पर किया गया है कि वहां का सामाजिक ताना-बना ही बदल गया है।

राज्यों के मतातंरण रोधी कानूनों को चुनौती देने वाले चाहे जो तर्क दें, इससे इनकार नहीं किया जा सकता कि छल-कपट और प्रलोभन के माध्यम से कराया जाने वाला मतांतरण देश की संस्कृति और आत्मा को परिवर्तित करने वाला काम है। यह काम स्वतंत्रता के बाद से ही जारी है। अब तो मतांतरण में जुटे संगठन देश के हर हिस्से और यहां तक कि पंजाब जैसे राज्यों में भी सक्रिय हो गए हैं। यह भी किसी से छिपा नहीं कि ऐसे संगठनों को विदेश से पैसा मिलता है और वे मतांतरण रोधी कानूनों में छिद्र तलाशने में भी सफल हैं। इसी कारण कई राज्यों को अपने ऐसे कानूनों में संशोधन करने पड़े हैं। अभी तक लगभग दस राज्यों ने मतांतरण रोधी कानून बना रखे हैं। यह कहना कठिन है कि इन राज्यों में धोखे और लालच से कराया जाने वाला मतांतरण थम गया है। चूंकि मतांतरण अब भी जारी है, इसलिए आवश्यकता इसकी है कि मत प्रचार की स्वतंत्रता की नए सिरे से व्याख्या की जाए। जब तक मत प्रचार की स्वतंत्रता की मनमानी व्याख्या करके उसकी आड़ ली जाती रहेगी, तब तक छल-कपट से कराए जाने वाले मतांतरण पर रोक लगने वाली नहीं है। अच्छा यह होगा कि सुप्रीम कोर्ट यह समझे कि मतांतरण राष्ट्र के मूल चरित्र को बदलने का काम कर रहा है।


Date:18-03-23

खुदकुशी की मानस

संपादकीय

युवाओं में तनाव, अवसाद और फिर आत्महत्या की बढ़ती प्रवृत्ति को लेकर लंबे समय से चिंता जताई जाती रही है। इसे रोकने के लिए अनेक उपाय सुझाए गए हैं। तनाव दूर करने के लिए लगातार जागरूकता पैदा करने की कोशिश की जाती है। जगह-जगह सहायता और सलाह केंद्र खोले गए हैं। इसके बावजूद इस समस्या पर काबू पाना चुनौती है। सबसे चिंताजनक स्थिति तो यह है कि जिन चिकित्सकों के माध्यम से अवसाद जैसी स्थितियों से पार पाने की उम्मीद की जाती है, वे खुद इस समस्या से ग्रस्त होकर खुदकुशी करते देखे जाते हैं। ताजा आंकड़े के मुताबिक 2010 से 2020 के बीच साढ़े तीन सौ मेडिकल छात्रों, रेजिडेंट डाक्टरों और चिकित्सकों ने खुदकुशी कर ली। इसे लेकर इंडियन मेडिकल कांग्रेस ने चिंता जताई और चिकित्सकों और अस्पताल प्रबंधन से इस मामले में सकारात्मक वातावरण बनाने की सलाह दी है। चिकित्सकों में बढ़ते अवसाद के पीछे बड़ा कारण उन पर कामकाज का बढ़ता दबाव और तनाव है। आत्महत्या करने वालों चिकित्सकों का विश्लेषण करने से पता चला है कि वे अत्यंत मेधावी थे, सबसे तेज दिमाग थे, मगर उनका मानसिक स्वास्थ्य कमजोर था। वे अपने पेशेवर जीवन में उत्कृष्ट प्रदर्शन कर सकते थे।

चिकित्सा विज्ञान के अनुसार अवसाद अक्सर ऐसे लोगों को जल्दी अपनी गिरफ्त में ले लेता है, जो अतिरिक्त रूप से संवेदनशील, प्राय: मेधावी और कमजोर मानसिक स्वास्थ्य वाले होते हैं। ऐसे लोगों को सामाजिक संबल की बहुत जरूरत होती है। मगर हैरानी की बात है कि चिकित्सा के पेशे में रहते हुए भी लोगों को इस समस्या की पहचान नहीं हो पाती। ऐसा नहीं माना जा सकता कि अवसाद के लक्षण उनके आसपास रहने वाले लोगों को नजर न आए होंगे। अब तो यह भी छिपा तथ्य नहीं है कि अक्सर पढ़ाई-लिखाई, परीक्षा और काम के दबाव में युवाओं का मानसिक संतुलन बिगड़ जाता है। इसीलिए परीक्षा आदि के समय माता-पिता और अध्यापकों को विद्यार्थियों के प्रति विशेष रूप से ध्यान देने की सलाह दी जाती है। उन्हें स्रेह और प्रोत्साहन पूर्ण वातावरण देने का प्रयास किया जाता है। हैरानी की बात है कि चिकित्सा विज्ञान से जुड़े लोग भी इस मामले में अपने किसी पीड़ित सहकर्मी या सहपाठी के प्रति वैसे ही उदासीन नजर आ रहे हैं, जैसे समाज के सामान्य लोग देखे जाते हैं। अच्छी बात है कि इसे लेकर इंडियन मेडिकल कांग्रेस ने व्यापक रूप से सतर्कता अभियान चलाने की पहल की है।

अवसाद हमारे देश में एक गंभीर समस्या का रूप ले चुका है। खासकर युवा इसकी गिरफ्त में जल्दी आ जाते हैं, इसलिए कि उन पर पढ़ाई-लिखाई और पेशे आदि में अव्वल रहने का दबाव अधिक बढ़ा है। उनकी महत्त्वाकांक्षाएं भी बड़ी हैं। माता-पिता और समाज उन्हें अव्वल देख कर प्रसन्न तो होते हैं, उनकी नजीर भी देते हैं, पर उनके मानसिक स्वास्थ्य का अंदाजा लगाने में प्राय: विफल साबित होते हैं। इसी का नतीजा है कि मामूली विफलता पर भी कई युवा गहरे अवसाद में चले जाते हैं और धीरे-धीरे आत्महंता हो जाते हैं। पिछले दिनों देश के पचपन विश्वविद्यालयों के छात्रों में बढ़ते अवसाद और खुदकुशी की प्रवृत्ति पर चिंता जताई गई थी। कुछ तो युवाओं में यह समस्या इसलिए भी तेजी से घर कर रही है कि पढ़ाई-लिखाई कर चुकने के बाद भी उन्हें जीवन जीने का कोई बेहतर जरिया नजर नहीं आता। ऐसे में युवाओं को अपनी गिरफ्त में लेती इस समस्या के विभिन्न पहलुओं का बारीक अध्ययन और व्यावहारिक उपायों पर विचार की जरूरत है।