18-03-2020 (Important News Clippings)

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18 Mar 2020
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Date:18-03-20

प्रिलिम्स के स्कोर का लक्ष्य

डॉ विजय अग्रवाल, (लेखक पूर्व सिविल सर्वेंट एवं एफईआईएएस के संस्थापक है)

प्रारम्भिक परीक्षा के पाँच मुख्य स्तम्भों; भूगोल, इतिहास, राजनीति विज्ञान, अर्थशास्त्र एवं पर्यावरण के बारे में पिछले लेख में चर्चा की जा चुकी है, जो कुल पूछे गये प्रश्नों में तीन-चैथाई के लगभग होते हैं इसके बाद दो विषय और रह जाते हैं,परीक्षा में इनका योगदान भी बहुत अहम है ये दोनों विषय हैं विज्ञान एवं करेन्ट अफेयर्स आते हैं। अब मैं आपके स्कोर करने की रणनीति के बारे में कुछ चर्चा करना चाहूंगा, जिसे आप तैयारी करने की नीति भी कह सकते हैं।

1. प्रारम्भिक परीक्षा में चयन के लिए आपको न्यूनतम 55 प्रतिशत स्कोर करने का लक्ष्य तो बनाना ही चाहिए। वैसे 60% का लक्ष्य बनाना अधिक सुरक्षित होगा, क्योंकि तीन साल पूर्व कट ऑफ माक्र्स 58 प्रतिशत रह चुका है। लेकिन सवाल यह है कि
ऐसा आप करेंगे कैसे ?

2. वैसे इस परीक्षा में आपकी शैक्षणिक पृष्ठभूमि का इसमें योगदान होता तो है, लेकिन वह इतना अधिक नहीं होता कि आप उसी पर भरोसा करके निश्चिंत हो सकें। इसका कारण है, पूछे जाने वाले प्रश्नों की प्रकृति। हाँ, इसमें शामिल विषयों की पृष्ठभूमि वाले परीक्षार्थियों की मेहनत दूसरों की तुलना में कुछ कम जरूर हो जाती है। लेकिन उन्हें अपने पढ़ने के तरीके में बदलाव करने की जरूरत होती है। और यह बदलाव एक प्रकार से नई तैयारी करने जैसी ही होनी चाहिए।

3. विज्ञान पर पूछे जाने वाले प्रश्नों की औसत संख्या लगभग 8-10 के बीच होती है। ये प्रश्न सामान्य प्रकृति के नहीं होते। इनका न तो कोई निर्धारीत पाठ्यक्रम है, इसलिए यदि आपकी पृष्ठभूमि विज्ञान की नहीं है, तो इसे अपने दिमाग से निकाल देना ही बेहतर नीति होगी। दूसरा यह कि विज्ञान के कुछ प्रश्न करेन्ट अफेयर्स से जुड़े होते हैं। यदि आप सामयिक घटनाओं के प्रति सतर्क हैं, तो 8-10 प्रश्नों में से 2-3 प्रश्न आपको मिल जायेंगे।

4. इसके अलावा 5 प्रमुख विषयों (भूगोल, इतिहास, राजनीति विज्ञान, अर्थशास्त्र एवं पर्यावरण) से हासिल करने चाहिए। के बारे में व्यावहारिक सलाह यह है कि क्या आप इन विषयों से पूछे जाने वाले 75 प्रश्नों में से 50 प्रश्न सही-सही हल कर सकते हैं ? भले ही आपका उत्तर ‘नहीं’ में हो, लेकिन आपकी तैयारी की योजना में यह लक्ष्य शामिल होना ही चाहिए।बस, इसकी तैयारी पर अपना पूरा फोकस रखें । अगर ऐसा कर लेते हैं, तो फिर प्रिलिम्स आसानी से क्लियर हो जायेगा ।


Date:18-03-20

Improper Shift

The engagement between government and retired Justice Gogoi is uncalled for

TOI Editorials

Former Chief Justice of India Ranjan Gogoi’s nomination to Rajya Sabha, four months after his retirement, has triggered an avoidable controversy. The ex-CJI has accepted the nomination but should rethink his decision. The controversy stems from the key constitutional principle of separation of powers, whereby judiciary, executive and legislature ought to be kept separate. The dictum about Caesar’s wife being above all suspicion applies in this case, as judges having truck with other arms of government four months from retirement can lead to suspicion about how independent the judiciary really is. The government, after all, is a key litigant in Supreme Court. To avoid conflict of interest, judges must keep their distance from corridors of power.

A cooling off period for judges, for a minimum of two years if not more, is necessary. Alternatively, the retirement age for judges can be raised to 70, with no more sinecures allowed thereafter. BJP’s leading lights, such as late Arun Jaitley and Piyush Goyal, have gone on record to the effect that post-retirement jobs influence pre-retirement judgments. Justice Gogoi, therefore, may have unwittingly undermined his successors in Supreme Court by accepting the nomination. Unlike judges taking up memberships on tribunals and statutory bodies which would involve a fair degree of adjudication – their core competency – political appointments are more liable to be misinterpreted.

There have been ex-CJIs M Hidayatullah, Ranganath Misra and P Sathasivam who became vice-president (1979), Rajya Sabha member (1998) and governor (2014) respectively. Justice Baharul Islam’s retirement in 1983 and election to Rajya Sabha on a Congress ticket happened in the space of a few months, so did BJP’s appointment of Justice Sathasivam as Kerala governor. Such appointments have been unconscionable in the past and remain so in the present. Justice Gogoi still has time to rethink and the best interests of the institution he was part of until recently must prevail.


Date:18-03-20

गोगोई का आकलन राज्यसभा में उनके काम से हो

विराग गुप्ता, (सुप्रीम कोर्ट के वकील)

सुप्रीम कोर्ट के पूर्व मुख्य न्यायाधीश रंजन गोगोई को राज्यसभा में नामित करने के बाद विवादों का सिलसिला बढ़ता जा रहा है। कुछ लोगों के अनुसार इससे न्यायपालिका की स्वतंत्रता बाधित होगी तो कई लोग इसे इनाम के तौर पर बता रहे हैं। लता मंगेशकर, सचिन तेंदुलकर और राष्ट्रकवि मैथिलीशरण गुप्त जैसे महान लोग राज्यसभा में नामित किए जा चुके हैं। ऐसे में गोगोई जैसे विद्वान विधिवेत्ता के राज्यसभा में आने से विधायी कार्यों का सशक्तिकरण ही होगा। सुप्रीम कोर्ट परिसर की दो इमारतें बड़े कानूनविद एम.सी. सेतलवाड और सी.के. दफ्तरी के नाम पर हैं। सेतलवाड की अध्यक्षता वाले विधि आयोग ने अपनी 14वीं रिपोर्ट में रिटायरमेंट के बाद जजों के पद लेने पर प्रतिबंध लगाने के लिए कानून बनाने की अनुसंशा की थी। इस बारे में सुप्रीम कोर्ट के अनेक पूर्व मुख्य न्यायाधीशों के साथ सभी दलों के बड़े राजनेताओं और बार कौंसिल ने भी सहमति व्यक्त की है। कई साल पहले वोहरा समिति ने नेता, अफसर और उद्योगपतियों के गठजोड़ का बड़ा खुलासा किया था।

आपातकाल के पहले तीन जजों की वरिष्ठता को दरकिनार करके इंदिरा गांधी ने ए.एन. रे को मुख्य न्यायाधीश बनाया था, जिसे न्यायपालिका का काला इतिहास कहा जाता है। सुप्रीम कोर्ट के वरिष्ठ वकील फली एस. नरीमन ने अपनी किताब में आपातकाल के समय न्यायपालिका की दुर्दशा का जिक्र किया है। पुस्तक ‘गॉड सेव द ऑनरेबल सुप्रीम कोर्ट’ के एक प्रसंग में पूर्व अटॉर्नी जनरल सी.के. दफ्तरी कहते हैं कि सबसे अच्छा निबंध लिखने वाला टॉप कर गया। विधि संस्था की रिपोर्ट के अनुसार सुप्रीम कोर्ट के अधिकांश जज रिटायरमेंट के बाद किसी न्यायाधिकरण या फिर अप्रत्यक्ष वकालत से जुड़ जाते हैं। ऐसे जजों पर अब कोई विवाद नहीं होता, लेकिन राजनीति में जाने वाले जजों पर हमेशा से विवाद रहा है। जस्टिस छागला को रिटायरमेंट के बाद नेहरू ने अमेरिका का राजदूत बनाया था। उसके बाद रिटायर्ड जज सांसद, राज्यपाल, लोकसभा स्पीकर और उपराष्ट्रपति समेत अनेक भूमिकाओं में आ चुके हैं। उसी तर्ज पर अब गोगोई के राज्यसभा में मनोनयन पर अनेक सियासी कयास लगाए जाना स्वाभाविक है।

सवाल यह है कि जब पूर्ववर्ती कांग्रेस सरकारों के दौर में जजों को पार्टी टिकट पर चुनाव भी लड़ाया गया तो अब गोगोई के नामांकन पर हाय-तौबा करने का हक विपक्षी नेताओं को कैसे हो सकता है? हालांकि, पूर्ववर्ती नियुक्तियों के हवाले से गोगोई के नामांकन को सही ठहराने की कोशिश सरकार के लिए उलटी भी पड़ सकती है। कहा जाता है कि सिख दंगों में क्लीन चिट देने के लिए पूर्व चीफ जस्टिस रंगनाथ मिश्रा को और बिहार कॉपरेटिव घोटाले में जगन्नाथ मिश्रा को क्लीन चिट देने के लिए बहरूल इस्लाम को सांसद बनाया गया था। इसी को देखते हुए ऐसे ही कयास गोगोई की नियुक्ति पर क्यों नहीं लगाए जाएंगे? राज्यसभा की सदस्यता कितनी महत्वपूर्ण है, यह इस बात से जाहिर है कि मध्य प्रदेश और गुजरात में भाजपा प्रत्याशी को जिताने के लिए अनेक कांग्रेसी विधायकों ने त्यागपत्र ही दे दिए। गोगोई को विधि क्षेत्र में विशेषज्ञता हेतु स्वतंत्र सदस्य के तौर पर नामित किया जा रहा है, लेकिन आगे चलकर अगर वे डाॅ. सुब्रमण्यम स्वामी की तर्ज पर यदि वे सत्तारूढ़ पार्टी का हिस्सा बन जाएंगे तो विवाद और बढ़ेंगे।

सुप्रीम कोर्ट की पांच जजों की बेंच ने एनजेसी का कानून रद्द करते हुए कहा था कि कानून मंत्री की उपस्थिति से न्यायिक आयोग की स्वतंत्रता खत्म हो जाएगी। उस कानून को रद्द करने वाली बेंच में शामिल जस्टिस कुरियन जोसेफ ने न्यायपालिका में सुधार के लिए पेरोस्त्रोइका और ग्लास्त्नोव जैसे क्रांतिकारी उपायों की बात कही थी। लेकिन, पिछले पांच वर्षों में सुप्रीम कोर्ट और केंद्र सरकार ने जजों की नियुक्ति प्रक्रिया को दुरुस्त करने के लिए कोई भी कानून नहीं बनाया, जिससे जजों की नियुक्ति में बंदरबांट जारी है। चीफ जस्टिस बनने से पहले गोगोई ने तीन अन्य जजों के साथ प्रेस कॉन्फ्रेंस करके न्यायिक सुधारों और देश के प्रति अपनी जवाबदेही की बात कही थी। उन्होंने छुट्टी के दिन एक आपातकालीन सुनवाई करके सुप्रीम कोर्ट में माफिया के हस्तक्षेप की बात करते हुए जस्टिस पटनायक को जांच की जिम्मेदारी सौंपी थी। उनके साथ प्रेस काॅन्फ्रेंस में शामिल दो अन्य जजों ने गोगोई को राज्यसभा में नामित किए जाने की आलोचना की है। गोगोई ने कहा है कि शपथ ग्रहण करने के बाद वे राज्यसभा में जाने के अपने फैसले पर प्रकाश डालेंगे। प्रेस कॉन्फ्रेंस में उठाए गए मुद्दे और जस्टिस पटनायक आयोग की जांच रिपोर्ट पर गोगोई द्वारा सदन में अब चर्चा हो तो राज्यसभा में उनका मनोनयन सार्थक हो जाएगा। इसलिए सदन में उनकी भूमिका से ही अगर उनका आकलन किया जाए तो बेहतर होगा।


Date:17-03-20

संकट और मदद

संपादकीय

दक्षिण एशियाई क्षेत्र में कोरोना संकट से निपटने के लिए रविवार को प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने वीडियो कॉन्फ्रेंसिंग के जरिए सार्क देशों के राष्ट्राध्यक्षों के साथ जिस तरह से संवाद किया और मदद के हाथ बढ़ाए, वह सिर्फ सार्क देशों के लिए ही नहीं, बल्कि पूरी दुनिया के लिए बड़ा संदेश है। भारत ने इस तरह की पहल करके यह दिखाया है कि जब दुनिया एक महामारी का सामना कर रही है तो ऐसे में वह सारे मतभेदों को भुलाते हुए सबके साथ मिल कर इस चुनौती से निपटने को तैयार है और जो भी मदद मांगेगा, उसे दी जाएगी। कोरोना वायरस के संकट से निपटने के लिए प्रधानमंत्री ने सार्क देशों के समक्ष एक आपात कोष बनाने का प्रस्ताव रखा और उसमें भारत की ओर से एक करोड़ डॉलर देने की घोषणा भी की गई। यह कदम इसलिए महत्त्वपूर्ण है कि सार्क देशों में दुनिया की कुल आबादी का पांचवां हिस्सा रहता है और सार्क क्षेत्र में कोरोना के अब तक एक सौ चौहत्तर मामले सामने आए हैं, जिनमें एक सौ सात भारत में हैं। भारत का यह प्रयास जरूरी इसलिए भी है कि अभी सार्क देशों में कोरोना की स्थिति चीन या यूरोप की तरह बेकाबू नहीं हुई है। चीन से फैली इस बीमारी ने जिस तरह से पूरी दुनिया को अपनी जद में ले लिया है, उसे देखते हुए यह डर बना हुआ है कि कहीं यह संक्रमण सार्क देशों में फैल जाए। हालांकि थोड़े-थोड़े मामले सभी देशों में देखने को मिले हैं। लेकिन अब सतर्कता जरूरी है। सतत निगरानी और बचाव के जरूरी उपायों से ही इसे फैलने से रोका जा सकता है। नेपाल, भूटान, बांग्लादेश, श्रीलंका, मालदीव, पाकिस्तान और अफगानिस्तान भारत के सबसे करीबी पड़ोसी हैं। ऐसे में इन देशों को बचाना और जरूरत पड़ने पर मदद करना भारत का दायित्व है। भारत ने सिर्फ पैसे के जरिए ही नहीं, बल्कि इलाज में इस्तेमाल होने वाले जरूरी सामान और उपकरणों की मदद भी देने की बात कही है। भारत ने कोरोना के मरीजों और संदिग्धों की पहचान और उनकी गतिविधियों के बारे में जानकारी देने वाला इंटीग्रेटेड डिजीज सर्विलांस पोर्टल तैयार किया है और सभी सार्क देशों को भी इसे उपलब्ध कराने की बात कही है। जरूरत पड़ने पर डॉक्टरों की टीम भी भेजने का भरोसा दिया है। भारत इसी तरह की मदद के लिए वीडियो कॉन्फ्रेंसिंग के जरिए जी-20 समूह के देशों की मदद का भी प्रस्ताव रख चुका है। लेकिन दुख और हैरानी की बात यह है कि संकट के इन क्षणों में भी हमारा सबसे करीबी पड़ोसी देश पाकिस्तान अपनी हरकतों से बाज नहीं आया। जब प्रधानमंत्री मोदी मदद के लिए हाथ बढ़ा रहे थे और दूसरे राष्ट्राध्यक्ष गंभीरता से उन्हें सुन रहे थे, तब पाकिस्तान ने सीधे कश्मीर की बात की। इतना ही नहीं, पाकिस्तान के प्रधानमंत्री तो इस बैठक में शरीक भी नहीं हुए और उन्होंने स्वास्थ्य मामलों के अपने एक विशेष सहायक जफर मिर्जा को बैठक में भेज दिया। इससे पता चलता है कि संकट के वक्त में भी पाकिस्तान की प्राथमिकता क्या है। बेहतर होता इमरान खान खुद बैठक में पहुंचते और कोरोना से निपटने के लिए मदद का कोई ऐसा प्रस्ताव रखते या ऐसी बात करते जिसमें इंसानियत झलकती। इसके उलट जफर मिर्जा ने यह कह दिया कि हालात की गंभीरता को देखते हुए भारत सबसे पहले जम्मू-कश्मीर से सारे प्रतिंबध हटाए। हालांकि पाकिस्तान से किसी अच्छी पहल की उम्मीद भी नहीं की जा सकती। जब दुनिया में लोग महामारी से मर रहे हों और खुद पाकिस्तान भी इससे अछूता नहीं है, ऐसे में कश्मीर का मुद्दा उठा कर उसने अपना असली चेहरा ही दिखाया है।”


Date:17-03-20

इतिहास दोहराने की ओर

रहीस सिंह

कोई समानांतर सरकार बनाने और राजनीतिक मतभेदों को सुलझाने के लिए बल के इस्तेमाल का कड़ाई से विरोध करते हैं।’ अमेरिकी विदेश मंत्री माइक पोंपियो ने बीती ९ मार्च को अफगानिस्तान में घटे राजनीतिक संकट पर यह टिप्पणी की। ध्यान रहे कि ९ मार्च को अफगानिस्तान में एक तरफ राष्ट्रपति अशरफ गनी तो दूसरी तरफ अब्दुल्ला अब्दुल्ला ने भी राष्ट्रपति पद की शपथ ग्रहण की थी। इससे वहां राजनीतिक संकट उत्पन्न हो गया॥। सवाल उठता है कि अमेरिका प्रत्येक किस्म की कड़ी कार्रवाई का विरोध कर रहा है‚ तो इसका मतलब क्या समझा जाएॽ एक तरफ तो वह अशरफ की सरकार को वैध मानता है और दूसरी तरफ अब्दुल्ला अब्दुल्ला के खिलाफ बल प्रयोग का समर्थन नहीं करता। तब तो दोनों सरकारें कैसे अस्तित्व में रहेंगीॽ सवाल यह भी कि दोहा में संपन्न अमेरिका–तालिबान समझौते का अंतिम परिणाम क्या होगाॽ वर्तमान में अफगानिस्तान की स्थिति यह है कि जाबोल से लेकर कुंदूज और जलालाबाद तक इस्लामी स्टेट (आईएस)‚ इस्लामी मूवमेंट उज्बेकिस्तान (आईएमयू) और तालिबान का दबदबा बना हुआ है। चूंकि तालिबान के साथ अमेरिकी समझौते के बाद पाकिस्तान का मनोबल बढ़ेगा जो दक्षिण एशिया में आंतकवाद की नाभि माना जाता है तो क्या माना जाएॽ दरअसल‚ पूरब में भारत तथा चीन और पश्चिम में फारस व मध्यसागरीय दुनिया के बीच एक ऐसा जंक्शन है‚ जहां इतिहास में प्रायः वैश्विक शक्तियों की महवाकांक्षाओं को टकराते देखा गया है। इसलिए यह कई सदियों तक तमाम संस्कृतियों के केंद्र एवं पड़ोसियों का मिलन स्थल तथा प्रवास एवं आक्रमण का ‘फोकल प्वाइंट’ रहा। आज भी स्थितियां बदली नहीं हैं लेकिन अब जब अमेरिका अफगानिस्तान से हटना चाहता है तब पूछना तो बनता ही है कि जिसकी तरफ से ९/११ की घटना के बाद ‘वार इंड्यूरिंग फ्रीडम’ की घोषणा की गई थी और अलकायदा–तालिबान के खात्मे के नाम पर अफगानिस्तान का ध्वंस किया गया‚ वह अब पलायनवादी रवैया क्यों अपना रहा हैॽ क्या वास्तव में अफगानिस्तान में अमेरिका की वह लड़ाई पूरी हो गई है‚ जिसे २००१ में पूरी दुनिया के सामने पेश किया गया थाॽ ॥ ये सवाल कुछ कारणों को ध्यान में रखकर उठाए जा रहे हैं। पहला‚ अमेरिकी अर्थव्यवस्था की सांसें फूली हुई हैं और ‘पोस्ट कोरोना सिनारियो’ और अधिक प्रतिकूल साबित होने वाला है। दूसरा शायद यह कि अमेरिका अफगानिस्तान में तालिबान से लड़ते–लड़ते थक चुका है। वैसे यह बात कुछ वर्ष पहले मुल्ला उमर के गुरु आमिर सुल्तान तरार उर्फ कर्नल इमाम ने कही थी। किसी जमाने में पाकिस्तानी खुफिया एजेंसी के प्रमुख एजेंट रहे कर्नल इमाम १९८० के दौरान अफगानिस्तान के प्रमुख आतंकी सरगनाओं और लडको को प्रशिक्षण दे चुके हैं तथा अफगानिस्तान में सोवियत सेना के खिलाफ युद्ध लड़ चुके हैं। इमाम का कहना था कि तालिबान कभी नहीं थकेंगे क्योंकि उन्हें लड़ने की आदत है। अमेरिकी सेना को खदेड़ तो नहीं सकते लेकिन उसे थका सकते हैं। ॥ सच भी है कि जो तालिबान अस्सी के दशक से लगातार उसी भूमि पर लड रहे हैं‚ उन्हें अफगानिस्तान की भूमि पर युद्ध लड़ने का तजुर्बा अमेरिकी सेना से कहीं अधिक रहा। क्या दूसरी बात पूरी तरह से सच साबित नहीं हो रहीॽ एक बात और‚ कुछ समय पहले अमेरिकी सीनेट की कमेटी के समक्ष संघीय जांच ब्यूरो (एफबीआई) ने कहा था कि सैन्य प्रयासों के बावजूद अफगानिस्तान में तालिबान अपनी स्थिति मजबूत कर रहा है। इसे देखते हुए डिफेंस डायरेक्टर ले. जनरल ने ट्रंप प्रशासन से अपील की थी कि क्षेत्र में मौजूदा दौर में सक्रिय २० आतंकी संगठनों से निपटने के लिए वह अफगानिस्तान के पडोसी देडशों के साथ मिलकर काम करे क्योंकि इन संगठनों से न केवल अफगानिस्तान और पाकिस्तान‚ बल्कि पूरे क्षेत्र को खतरा है। इसके बाद से ट्रंप प्रशासन ने दो मोर्चों पर काम करना शुरू कर दिया। एक‚ पाकिस्तान और तालिबान का तुष्टिकरण ताकि तालिबान के साथ समझौता हो सके; और दूसरा‚ भारत को इस गोल में लाने का प्रयास ताकि भारत इस लड़ाई में और सक्रिय भूमिका निभा सके। अब अमेरिका तालिबान के सामने समर्पण की स्थिति को व्यक्त करता दिख रहा है क्योंकि दोहा में उसने तालिबान के साथ समझौता कर उसे अंतरराष्ट्रीय मान्यता प्रदान कर दी है। ऐसे में बड़ी चिंता का विषय होना चाहिए कि आगे की लड़ाई गनी की सरकार या अफगानिस्तान की लोकल फोर्सेज कैसे लड पाएंगीॽ वह भी उन स्थितियों में जब राजनीतिक व्यवस्था स्वयं संकटग्रस्त होॽ अफगानिस्तान में शांति की स्थापना हो और अमेरिकी फौजें विदाई लें‚ इसके लिए अमेरिका और तालिबान के बीच लगभग ३२ देशों के प्रतिनिधियों की उपस्थिति में २९ फरवरी‚ २०२० को दोहा में शांति समझौते पर हस्ताक्षर हुए। अमेरिका और तालिबान के बीच अगली वार्ता नार्वे की राजधानी ओस्लो में होनी थी‚ लेकिन बदली परिस्थितियों में कुछ कहना मुमकिन नहीं। कारण यह कि अभी अफगान सरकार और तालिबान के बीच में जो समझौता होना था‚ वह नहीं हो पाया है और जब तक अफगानिस्तान में राजनीतिक संकट बना हुआ है‚ तब तक इसकी उम्मीद भी नहीं की जा सकती। ॥ ध्यान देने योग्य बात है कि दोहा समझौते के बाद चूंकि तालिबान को एक प्रकार से अंतरराष्ट्रीय मान्यता प्राप्त हो गई है‚ इसलिए अब वह अफगानिस्तान में अलकायदा और इस्लामी स्टेट सहित उस क्षेत्र में बिखरे तमाम आतंकी संगठनों के साथ बेहतर बॉण्डिंग कर सकते हैं। यह स्थिति पाकिस्तान के लिए भी एक अवसर होगी‚ जिसका प्रयोग वह भारत की पश्चिमी सीमा पर कर सकता है। इसका अर्थ तो यही हुआ कि अमेरिका ने दोहा में जो स्क्रिप्ट लिखी उसमें शांति की संभावनाएं बेहद कम हैं। फिलहाल‚ अफगानिस्तान नया इतिहास लिखने की कोशिश में है‚ लेकिन स्पष्ट नहीं हो पा रहा है कि यह इतिहास कैसा होगाॽ इसके अध्याय में पठान‚ उज्बेक‚ पश्तून‚ हजारा‚ ताजिक.आदि कबीले मिलकर काबुलीवाले के देश को २१वीं सदी की विशेषताओं से विश्लेषित करेंगे या फिर तालिबान उसे मध्ययुग की कट्टरतापूर्ण तानाशानी की ओर ले जाएगाॽ बहरहाल‚ जब गनी और अब्दुल्ला अब्दुल्ला के राजनीतिक हित टकरा रहे हों तथा पाकिस्तान‚ तालिबान व अन्य आतंकी समूह धाक लगाए बैठे हों और अमेरिका पलायनवादी नजरिया अपना रहा हो‚ तब अनुमान लगाया जा सकता है कि अफगानिस्तान का भविष्य कैसा होगाॽ


Date:17-03-20

Drawing together

SAARC conference highlighted urgency of regional approach to coronavirus as well as familiar difficulties of getting there

Editorial

Prime Minister Narendra Modi’s engagement with the leaders of South Asian nations on collectively combating the coronavirus on Sunday marks a long-overdue course correction in Delhi’s regional diplomacy. After the deadly terror attack on the Indian security forces at Uri in 2016, India refused to engage with the SAARC — the South Asian Association for Regional Cooperation that brings the region’s eight nations together. While smaller countries in the region acknowledged Delhi’s deepening concerns on cross-border terrorism emanating from Pakistan, they were also despondent that the main forum for regional cooperation in South Asia had moved from a state of dysfunction to deep coma. Many of them were willing to work with India in alternative forums like the BIMSTEC, centred around the Bay of Bengal, but were not prepared to abandon the SAARC.

No wonder, then, that leaders of smaller countries responded with alacrity to PM Modi’s invitation to confer at short notice on the mounting challenge of coping with the coronavirus. They were one with Delhi in recognising that the problems posed by the coronavirus can’t be addressed only at the national level and that a joint regional effort was needed. At the same time, the conversation among the leaders also highlighted the unique national problems that the countries confronted. For example, the Maldives and Sri Lanka highlighted the massive economic impact of the dramatic decline of tourism that is a major source of revenue and employment. As an archipelagic nation, the Maldives has the challenge of delivering assistance to patients in remote islands. Land-locked Afghanistan is struggling to cope with the open border with virus-infected Iran and Pakistan’s decision to close the border through which much of the nation’s trade flows occur. PM Modi’s proposals for an emergency relief fund to deal with the crisis, sharing India’s capabilities with the neighbours and developing a new regional research platform, were received well. Many leaders had their own proposals. Prime Minister Sheikh Hasina offered to establish a new regional institution to deal with public health challenges in Dhaka. The leaders agreed to take this conversation forward at the official level in the coming days.

If the video conference highlighted the urgent need for a regional approach to the coronavirus crisis as well as the possibilities for it, it also highlighted the familiar difficulties of getting there. Prime Minister Imran Khan chose to duck the meeting and sent his adviser on health, Zafar Mirza, who appeared to be under instructions to inject the Kashmir question into the discussion. Delhi, however, would be wise not to be deterred by Pakistan’s predictable approach. Having ended its recent neglect of South Asian regionalism, Delhi should stay focused on advancing cooperation with neighbours on denting the impact of the coronavirus crisis. As it builds on the positive responses from most of the neighbours, Delhi must hope that Islamabad will not block progress on the collective effort through the SAARC, for Pakistan needs as much support as it can get to deal with the gathering crisis at home.


Date:17-03-20

Back to SAARC

PM Modi did well to engage with leaders of South Asia on combating COVID-19

Editorial

Prime Minister Narendra Modi’s decision to convene a video conference of leaders of the eight-member SAARC on Sunday represents a much-needed “out-of-the-box” thinking as the world faces the COVID-19 coronavirus pandemic. Pandemics do not recognise political borders, and in times of trouble, reaching out to neighbouring countries is the most obvious course of action. To that end, the hour-long discussion with the leaders of Afghanistan, the Maldives, Bangladesh, Bhutan Nepal, Sri Lanka, and the Special Assistant on Health to the Pakistan PM, came up with shared and unique perspectives in dealing with the virus that has affected 1,75,250 people and claimed over 6,700 lives worldwide. The meeting saw Mr. Modi’s proposal for a COVID-19 emergency fund — India will contribute $10-million — as well as a decision on technical task forces. Afghanistan and Pakistan have specific challenges as they share long borders with Iran, which has emerged, after China and Italy, as a major hub of the virus. Bhutan, the Maldives, Nepal and Sri Lanka worry about the impact on tourism, which is a mainstay of their economies. Another concern is of an escalation in the virus’s spread in the subcontinent. With close to 300 positive cases, South Asia has seen a much lower incidence globally, but given its much higher population density, it is clear that any outbreak will lead to far more casualties. Other concerns are about under-reporting, as fewer people are being tested in much of South Asia, and whether public health services can cope. It remains to be seen how closely the SAARC countries will cooperate to deal with the virus.

While speaking to his counterparts was a part of Mr. Modi’s message, it was, however, certainly not the whole. The fact that he decided to make the video conference available live indicates his desire to also reach out to and reassure the public in the SAARC region. Beyond this is the message sent out by deciding to engage with the more or less moribund SAARC neighbourhood grouping, rather than other organisations the government has preferred to engage with recently such as BIMSTEC, BBIN and IORA. In fact the virtual summit is the first high-level SAARC meet since 2014, and comes after India’s pulling out of the 2016 summit following the Uri attack; it was to have been hosted in Islamabad. Pakistan too has made its concerns over Jammu and Kashmir a sticking point in re-engagement, and PM Imran Khan’s absence on Sunday, and his nominee’s attempt to raise the issue of restrictions in Kashmir indicate that this attitude persists. Clearly, reviving the SAARC initiative, which countries in the region including Nepal, Sri Lanka and Bhutan have advised, will not be easy, given poor ties between SAARC’s two largest members, India and Pakistan. But it is significant that New Delhi seems to be willing to try to put politics aside when dealing with the pandemic that confronts all.