17-10-2019 (Important News Clippings)
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Stunting the future
India slides in the Global Hunger Index, which means its children can’t grow to potential
TOI Editorials
Children are our future and it is in dire need of proper feeding. At 20.8%, India’s child wasting ratio is the highest of any country in this year’s Global Hunger Index. This is a measure of the share of under five children who have low weight for their height, reflecting acute undernutrition. India’s child stunting rate, which is the share of under five children with low height for their age, reflecting chronic undernutrition, is a whopping 37.9%. Over the last four years the country has actually plummeted nine ranks in the index – to 102 out of 117 nations – after steady improvement in earlier years. This must ring some alarm bells in government. All our South Asian neighbours, including those we think of as more poverty stricken than us (Pakistan, Nepal), have pulled ahead.
Let us understand why these numbers are calamitous. Scientists say 90% of the brain grows in the first thousand days of human life. Nerves grow and connect and build the scaffolding which will determine how one will think and feel and learn all through adulthood. Studies have shown that proper nutrition and stimulation in these early years can make future decades 50% more productive.
So we have to think about feeding young children not just in terms of saving their lives but beyond this, saving their brains and their future. On the upside, shortage of resources is no longer a huge problem and to some extent, it is not even about distribution of resources. If only 9.6% of all children between 6-23 months are being fed a minimum acceptable diet, obviously even well to do families are somehow failing their children.
Evidently, the general population’s awareness about a good diet needs improvement. And there is an urgent need for a candid reassessment of various nutrition schemes to capture where they are falling short. Supplementary food programmes may be failing to reach the family’s most vulnerable members. It may need focusing on anaemic mothers, to alleviate low birth weight. Suboptimal breastfeeding practices are also a worry. Different states will need different medicine, given wide variations. Six of the ten districts with the highest rates of stunting are in Uttar Pradesh alone. Addressing malnutrition must become a top priority for both Centre and state governments. Not just for humanitarian reasons but also for developmental ones: Weak human capital prepares us badly for the economy of the future.
The kids aren’t all right, not at all
ET Editorials
The state of India’s children is of serious concern. UN agency Unicef ’s ‘the State of the World’s Children’ and the Global Huger Index both find high incidence of malnutrition, stunting and wasting among India’s children under five years of age. While there have been improvements over the years, the pace of change is far too slow to stem the loss in quality of life that early deprivation inflicts on children.
India has a high prevalence of stunted children in the world — 38% of under-fives. South Asia is the global epicentre of wasting — 15.2% of under-fives. Poor sanitation and lack of access to clean water are key drivers of the high levels of wasting and stunting among young children. Globalisation and urbanisation shift diets towards processed foods, with loss in nutrition. Climate shocks, particularly floods and droughts, result in agricultural losses that thrust both lower purchasing power and cheaper, nutrition-deficient food on the poor. Climate shocks impact availability of clean water, result in exponential increase in diseases. Children already suffering from malnutrition are much more vulnerable to these conditions.
In India, there still are sections of the population where access to food is still a problem. But the vast majority suffer malnutrition for reasons other than inadequate intake of food: intestinal parasites spread by poor sanitation and lack of awareness on nutrition and absence of vital micronutrients in the food consumed. There is a need to step up the support for expectant mothers and young children through existing programmes and focus on increasing awareness towards healthier diets. Sanitation and clean drinking water programmes show the way. As does the remarkable progress Bangladesh has achieved on this front.
चेन्नई कनेक्ट के बावजूद चीन से चुनौती बरकरार
सीपीईसी में अपने हितों की वजह से कश्मीर पर सख्त रुख दिखाने को मजबूर है बीजिंग
हर्ष वी पंत , ( प्रो. इंटरनेशनल रिलेशन्स, किंग्स कॉलेज लंदन)
भारत पहुंचने से पहले चीन के राष्ट्रपति शी जिनपिंग ने जिस तरह से पाकिस्तान के प्रधानमंत्री इमरान खान और सेनाध्यक्ष कमर जावेद बाजवा का स्वागत किया, उससे साफ है कि वह कश्मीर के हालात पर नजर रखे हुए हैं और पाकिस्तान को उसके हित के मुद्दों पर समर्थन देते रहेंगे। भारत यात्रा के तुरंत बाद ही वे नेपाल चले गए और उन्होंने अगले दो सालों में नेपाल को 56 अरब रुपए की सहायता देने की घोषणा कर दी। इन दोनों घटनाक्रमों के बीच महाबलीपुरम में उनकी प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के साथ अनौपचारिक बैठक हुई। जहां उन्होंने मोदी से वैश्विक चुनौतियों से निपटने के लिए मिलकर काम करने और लोगों के बीच आपसी संपर्क बढ़ाने पर चर्चा की। असल में यह भारत की चिंता के प्रति संवेदनशीलता दिखाने का चीनी तरीका है।
यह सही है कि दोनों देशों के बीच व्यापार से जुड़े मुद्दों पर बातचीत के लिए एक नई व्यवस्था बनाने और करीबी रक्षा सहयोग की जरूरत का सुझाव आता रहा है। लेकिन, भारत-चीन संबंधों में एक खतरा हमेशा बना रहता है कि यहां प्रक्रियाएं इसके परिणाम पर हावी हो जाती हैं। चीन भारत से काफी बड़ी ताकत है, इसलिए इस बारे में भारत की अपनी सीमा है और मोदी द्वारा चीन के सर्वोच्च नेतृत्व को अनौपचारिक बैठकों में शामिल करना एक बेहतर कदम प्रतीत होता है। चीन में वुहान बैठक ठीक डोकलाम विवाद के बाद हुई थी और इस पर दोनों ओर से परिपक्व भूमिका निभाने में मदद मिली थी। मोदी और शी द्वारा अपनी-अपनी सेनाओं को निर्देश जारी कर आपसी विश्वास और समझ कायम करने के लिए कहने के बाद दाेनों ही ओर से सीमा पर स्थायित्व कायम रखने के संकेत मिले। लेकिन, इस बार की इस बैठक से ठीक पहले इस तरह के कदमों की सीमा भी स्पष्ट दिख गई, जब भारत द्वारा अनुच्छेद 370 समाप्त करने के बाद पाकिस्तान को चीन का ठोस समर्थन मिला।
असल में यह दूसरी अनौपचारिक बैठक वहां से शुरू होनी चाहिए थी, जहां वुहान में मोदी और शी ने दाेनों देशों के मतभेदों को सुलझाने के लिए परिपक्वता व शांतिपूर्ण वार्ता के साथ ही एक-दूसरे की संवेदनाओं, चिंताओं व उम्मीदों को सम्मान देने पर सहमति व्यक्त की थी। लेकिन साफ दिख रहा है कि इस भावना का सम्मान करने में चीन की कोई रुचि नहीं है। मोदी ने महाबलीपुरम में भी शी से इस बारे में बात जरूर की होगी, लेकिन उन्हांने न तो वुहान में इसकी परवाह की और न ही चेन्नई में की गई आवभगत के बाद इसका अनुसरण करने में कोई रुचि प्रकट की।
भारत के लिए चीन की चुनौती हर दिन बढ़ रही है और देश के नीति निर्धारकों ने इसके असर से निपटने के लिए इसका ताकतवर जवाब तलाशने की जरूरत को पहचानकर ठीक ही किया है। भारत द्वारा लद्दाख पर अपने नियंत्रण को मजबूत करने पर चीन का कहना है कि सीमा पर भारत-चीन वार्ता नए दौर में जा रही है। हालांकि, विदेश मंत्री एस जयशंकर साफ कर चुके हैं कि भारत के ताजा कदम से भारत की बाहरी सीमा व चीन के साथ वास्तविक नियंत्रण रेखा में कोई अंतर नहीं आया है। असल में चीन-पाकिस्तान इकोनॉमिक कॉरिडोर (सीपीईसी) में अपने हितों की वजह से कश्मीर पर सख्त रुख दिखाने को मजबूर हो रहा है। चीन सीपीईसी के लिए पाकिस्तान में एक स्थायी मिलिट्री बेस बनाना चाहता है। भारत को इस मसले में चीन से और दखल के लिए तैयार रहना चाहिए। भारत की कूटनीतिक कोशिशों की वजह से ही संयुक्त राष्ट्र में चीन इस मसले पर अलग-थलग पड़ा। इससे पूर्व मसूद अजहर के मामले में उसे मुंह की खानी पड़ी। यही नहीं संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद की कश्मीर पर हुई बैठक भी बिना बयान जारी किए ही खत्म हो गई। इसके बावजूद चीन पाक के साथ भागीदारी जारी रखे है। इस वास्तविकता से भारत को जूझना ही होगा।
भारत द्वारा चीन के करीब आने की कोशिशों के बावजूद दोनों देशों के संबंधों को अकार देने वाले बुनियादी कारकां में पिछले कुछ दशकों में कोई परिवर्तन नहीं हुआ है। जैसे-जैसे भारत अंतरराष्ट्रीय मसलों पर अधिक सक्रिय भूमिका मेें आ रहा है चीन भारत को और निशाना बनाएगा। इस संदर्भ में भारत की घरेलू क्षमताओं को मजबूत करके और समान विचारधारा वाले देशाें के साथ मजबूत गठजोड़ बनाकर ही हम अपने हितों को सुरक्षित रख सकते हैं। ‘वुहान स्प्रिट’ या ‘चेन्नई कनेक्ट’ इसमें कुछ काम नहीं आएगा। भारत को अब दोनों देशों के संबंधों को प्रभावित करने वाले मुद्दों पर ठोस व सकारात्मक परिणाम की मांग करके चीन को यह फैसला करने देना चाहिए कि वह प्रक्रिया को अगे ले जाने के प्रति गंभीर है।
Date:17-10-19
विश्व बाजार में खड़े हाेने के लिए उत्पादकता बढ़ानी ही होगी
संपादकीय
दुनिया के सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) में एक-तिहाई हिस्सेदारी वाली क्षेत्रीय व्यापक आर्थिक साझेदारी (आरईसीपी) के 16 देशों की बैंकॉक में आयोजित बैठक फिर असफल रही। लेकिन भारत को भी सोचना होगा कि दुनिया से वह नहीं कह सकता कि मेरा सामान खरीदो चाहे, वह महंगा ही क्यों न हो। हमें प्रतिस्पर्धा में आना ही होगा।हर साल अनाज, दूध, सब्जियां खासकर प्याज, आलू और चीनी के उत्पादन में रिकॉर्ड बढ़ोतरी के बावजूद भारत की दो समस्याएं बनी हुई हैं। पहला, इस उत्पादन का हम करें क्या? अति-उत्पादन से मूल्य नीचे आने से किसान मरता है और शुगर मिल बंद होने लगती हैं। दूसरा, उत्पादन कम होने से प्याज की तरह भाव आसमान पर पहुंचने से देश के करोड़ों उपभोक्ता परिवार आहत होते हैं। चूंकि, देश के सबसे बड़े प्याज उत्पादक राज्य महाराष्ट्र में चुनाव थे, लिहाजा सरकार ने इसके निर्यात पर रोक लगा दी। हलके-फुल्के उलाहने के अंदाज में यह कहते हुए कि ‘भारत से प्याज के निर्यात पर पाबंदी के कारण हमारे देश में प्याज की कीमत काफी बढ़ गई है और मैंने अपने रसोइये से बिना प्याज के खाना बनाने को कहा है’।बांग्लादेश की प्रधानमंत्री ने पिछले हफ्ते ही दिल्ली में हकीकत से रू-ब-रू कराया। उत्पादन बढ़े तो हम सरकार की और चुनाव हो तो किसान-अन्नदाता, दोनों की पीठ थपथपा सकते हैं, लेकिन सत्य से मुंह नहीं मोड़ सकते। खासकर तब, जब देश में पिछले 29 साल से हर 37 मिनट पर एक किसान आत्महत्या कर रहा हो। असल में हम अपने उत्पादों को काफी महंगे में पैदा करते हैं, क्योंकि हमारी उत्पादकता नहीं बढ़ रही है।इस बैठक में जाने से पहले वाणिज्य मंत्री पीयूष गोयल से दुग्ध सहित अनेक जिंसों के उत्पादक संगठन मिले और मांग की कि विदेश से आयात न किया जाए। उनका तर्क था कि हमारे दूध-पाउडर की उत्पादन लागत जहां 240 से 250 रुपए प्रति किलोग्राम आती है, वहीं न्यूजीलैंड का पाउडर 120 रुपए किलो में मिलेगा, जो दुग्ध उत्पादकों की कमर तोड़ देगा। जरा गौर करें। भारत में एक गाय का औसत दूध उत्पादन वैश्विक औसत के आधे से भी कम है। फिर बढ़ते शहरीकरण के कारण मवेशियों के लिए चारे का संकट हो रहा है। गेहूं की स्थिति अंतरराष्ट्रीय बाजार में पतली है, क्योंकि भारतीय किसानों की लागत काफी ज्यादा है। किसानों के प्रति सहानुभूति तो जरूरी है, लेकिन अवैज्ञानिक खेती से महंगे होते उत्पाद की मार उपभोक्ता क्यों झेले?
गरीबी के अर्थशास्त्री
संपादकीय
अभिजीत बनर्जी भारत की गरीबी पर शोध करने वाले ऐसे पहले अर्थशास्त्री नहीं हैं, जिन्हें नोबेल पुरस्कार से नवाजा गया। इस सिलसिले में सबसे पहला और शायद सबसे बड़ा नाम गुन्नार मिर्डल का है, जिन्होंने भारत की गरीबी को पहला अर्थशास्त्रीय आधार दिया था। इसके बाद गरीबी और खासकर कुपोषण पर अमत्र्य सेन का अध्ययन है, जो आज भी बेजोड़ है। गुन्नार मिर्डल से लेकर अमत्र्य सेन तक विकासवादी अर्थशास्त्र की जो धारा चलती है, वह अभिजीत बनर्जी और उनकी जीवन संगिनी एस्टर डफ्लो तक आती है। दोनों ही केंब्रिज के मैसाच्युसेट्स इंस्टीट्यूट ऑफ टेक्नोलॉजी से जुडे़ हैं। इसके साथ ही यूनिवर्सिटी के ही एक अन्य संस्थान से जुडे़ माइकल के्रमर का जिक्र भी जरूरी है। इन तीनों को ही संयुक्त रूप से 2019 का नोबेल पुरस्कार दिया गया है। तीनों ही विकासवादी अर्थशास्त्री हैं। यह अर्थशास्त्र की वह धारा है, जो गरीबी को आर्थिक व्यवस्था का एक अभिन्न हिस्सा मानकर चुप नहीं हो जाती, बल्कि यह प्रतिबद्धता भी रखती है कि गरीबी को सरकारी प्रयासों से खत्म किया जा सकता है। गरीबी कम या खत्म करने के लिए पिछले काफी समय से देश में कई तरह की जो योजनाएं चल रही हैं, वे सब कम या ज्यादा विकासवादी अर्थशास्त्र की सोच से प्रेरित हैं। इन सभी अर्थशास्त्रियों ने गरीबी का सिर्फ अध्ययन ही नहीं किया, उससे लड़ने और खत्म करने के तरीकों पर भी काफी काम किया है।
इनके दो योगदान सबसे महत्वपूर्ण हैं। कोई भी नीति या गरीबों को लाभ देने का कोई रास्ता कितना कामयाब होगा, इसे जानने के लिए उन्होंने मेडिकल साइंस के उस औजार को उधार लिया, जिसे रेंडम कंट्रोल ट्रॉयल कहा जाता है, यानी वह तरीका है, जिससे किसी भी नई दवा या नए नुस्खे को परखा जाता है कि वह कितना कामयाब हो सकता है। इतना ही नहीं, गरीबी उन्मूलन के लिए उन्होंने जिस संस्था की नींव रखी, उसे भी प्रयोगशाला का ही नाम दिया गया- पॉवर्टी एक्शन लैब। दूसरा महत्वपूर्ण योगदान यह है कि उन्होंने गरीबों से दूर रहकर सिर्फ सिद्धांतों के जरिए गरीबी को समझने की कोशिश नहीं की। पति-पत्नी, दोनों ने ही जगह-जगह पर गरीबों के साथ लंबा समय बिताया, ताकि वे उनके जीवन के दबावों और उसकी वजह से बनने वाली सोच व व्यवहार को अच्छी तरह से समझ सकें। अभिजीत बनर्जी को जो चीज बाकी अर्थशास्त्रियों से अलग करती है, वह उनके यही अनुभव हैं। जब दूसरे अर्थशास्त्री यह कहते हैं कि अगर गरीबों को सीधे धन दे दिया जाए, तो उसका अपव्यय कर देंगे, तब अभिजीत बनर्जी यह कह रहे होते हैं कि यह अपव्यय नहीं है, अतिरिक्त धन से गरीब दरअसल अपनी नीरस जिंदगी में रंग भरने की कोशिश करते हैं।
इस सोच से बहुत सारे लोग सहमत नहीं भी हो सकते। असहमति उस न्याय योजना से भी हो सकती है, जो उन्होंने कांग्रेस पार्टी को सुझाई थी। गरीबों को हर साल 72 हजार रुपये देने वाली इस योजना पर राहुल गांधी ने बड़ा चुनावी दांव खेला था। पर यह योजना भी उनका सियासी उद्धार नहीं कर सकी और उनकी पार्टी चुनाव हार गई। मगर इस चुनावी हार से परे अभिजीत बनर्जी को नोबेल पुरस्कार दिया जाना दरअसल अर्थशास्त्र की उस धारा की जीत है, जो यह मानती है कि गरीबी के अभिशाप को हमेशा के लिए खत्म किया जा सकता है।
Date:16-10-19
अब कोई विकल्प नहीं है प्रकृति को बचाने के सिवा
ऐसी सभी योजनाओं से तौबा करनी ही होगी , जो प्रकृति और पर्यावरण को नुकसान पहुंचती हैं।
माधव गाडगिल
आरे मिल्क कॉलोनी (एएमसी) संजय गांधी राष्ट्रीय उद्यान से बिल्कुल सटा इलाका है। यह उस क्षेत्र का हिस्सा है, जहां कभी मलेरिया पसरा रहता था और आबादी विरले ही बसती थी। इस वजह से इसका पर्याप्त प्राकृतिक वन कायम रहा। भले ही सरकारी दस्तावेजों में यह पूरा क्षेत्र बंजर भूमि के रूप में दर्ज था, पर यहां पर्णपाती जंगल थे और इलाका वन्य जीवों से समृद्ध। निकटवर्ती पहाड़ियां अब संजय गांधी राष्ट्रीय उद्यान का हिस्सा हैं। आरे मिल्क कॉलोनी को 1949 में इसलिए बसाया गया था, ताकि शहर के मवेशियों को यहां लाया जा सके। कुल क्षेत्रफल में से 160 हेक्टेयर का इस्तेमाल चारा उगाने और बाड़े आदि बनाने में किया गया, जबकि बाकी हिस्से को विभिन्न संगठनों को कई बार पट्टे पर दिया गया और बिना किसी विरोध-प्रदर्शन के यहां पेड़ों की कटाई भी की गई।
अब आखिर क्या बदल गया है कि पेड़ों को काटने और आनन-फानन में जंगल खत्म करने संबंधी लिए गए सरकारी फैसले के खिलाफ लोग सड़कों पर उतर आए? लोगों का मूड असल में इसलिए बदल गया, क्योंकि प्राकृतिक आपदाओं की आवक बढ़ गई है। इस वर्ष के मानसून में ही 1,673 लोग बाढ़, भूस्खलन और अन्य प्राकृतिक आपदाओं के शिकार हुए हैं। वे अब इस तर्क को खारिज कर रहे हैं कि विकास-कार्यों की यह स्वाभाविक कीमत है। यह भी वे समझने लगे हैं कि दुनिया अब ऐसे मोड़ पर पहुंच चुकी है, जहां यदि हमने अपना मौजूदा रवैया नहीं बदला, तो तबाही हमें लील लेगी।
तो क्या इसके पर्याप्त सुबूत हैं, जो यह साबित करते हों कि पर्यावरण में हो रही गिरावट से वो मुश्किलें बढ़ने लगी हैं, जिनसे हम जूझ रहे हैं? जवाब है, हां। दुनिया लगातार गरम हो रही है, हवा में नमी बढ़ रही है और कम अंतराल में भारी बारिश होने लगी है। इससे भी अधिक महत्वपूर्ण है, इसका स्थानीय स्तर पर पड़ने वाला प्रभाव। हवा में मौजूद वाष्प तब पानी बनकर बरसती है, जब ‘अपड्राफ्ट’ की स्थिति बनती है, यानी समुद्री हवाएं जब पश्चिमी घाट को छूती हैं। बाकी जगह, जब धरती गरम होती है, तो हवा ऊपर की ओर उठने लगती है। यह तब होता है, जब पेड़-पौधे की जगह सीमेंट और कंक्रीट के जंगल उगाए जाते हैं। इसके अलावा, भारत में एरोसोल (हवा में ठोस या तरल कण) का स्तर भी दुनिया में सबसे ज्यादा है। जब हवा में जलवाष्प बनती है, तो वह एरोसोल से मिलकर पानी की अनगिनत छोटी बूंदें बनाती है। ये छोटी-छोटी बूंदें मिलकर बड़ी बूंदें बनती हैं, जिस वजह से कम अंतराल में तेज बारिश होती है। इस तरह की बारिश से भयंकर बाढ़ आती है और भूस्खलन की आशंका बढ़ जाती है। बांध और इमारतों को नुकसान तो होता ही है।
जमीनी संरचना पर भी इसकी गंभीरता निर्भर करती है। केरल के वायनाड जिले का भूस्खलन इसका ज्वलंत उदाहरण है। इस इलाके में प्राकृतिक सदाबहार वन को खत्म करके वृक्षारोपण किया गया था। यहां भूस्खलन में मजबूत जड़ों के कारण प्राकृतिक वन के बचे पेड़ तो खड़े रहे, पर बाकी उखड़ गए। इसलिए मुंबई की मीठी नदी के जलग्रहण क्षेत्र से 2,000 पेड़ काटकर बगल में 20,000 पेड़ों को लगाने का दावा तर्कसंगत नहीं है। एक और दावा यह किया जाता है कि वायु प्रदूषण से निपटने का सटीक उपाय मेट्रो है। मगर इसके लिए जरूरी है कि आम लोगों को मेट्रो की तरफ प्रोत्साहित किया जाए। मगर ऐसी कोई नीति अब तक नहीं दिखी है। आंकड़े बताते हैं कि दिल्ली और बेंगलुरु में मेट्रो के बावजूद सड़कों पर गाड़ियों की संख्या अनवरत बढ़ रही है। बेंगलुरु में तो मेट्रो के निर्माण और उसके परिचालन-वर्षों के अध्ययन बताते हैं कि वहां हवा में एरोसोल का स्तर हर साल बढ़ रहा है और वायु गुणवत्ता भी गिर रही है।
जाहिर है, मेट्रो-निर्माण के लिए पर्यावरण को नुकसान (कुछ हद तक ही सही) पहुंचाने का तर्क बेजा है। बेंगलुरु अध्ययन का एक महत्वपूर्ण निष्कर्ष तो यह भी था कि मेट्रो-निर्माण के दौरान सांस-संबंधी बीमारियों से बच्चे सबसे ज्यादा प्रभावित हुए। ऐसे में, हमें पुराने ढर्रे से बाहर निकलकर सोचना होगा और नई नीतियां बनानी होगी। देश में जल-प्रवाह अब और बाधित नहीं होगा, प्राकृतिक वनस्पतियों को नुकसान नहीं पहुंचाया जाएगा, शहरों में गरम टापू नहीं बनने दिया जाएगा और एरोसोल का स्तर नहीं बढ़ाया जाएगा, जैसे कुछ तत्व महत्वपूर्ण हैं, जिन्हें नई नीतियों में शामिल किया जा सकता है।
For a wider food menu
Dependence on a few crops has negative consequences for ecosystems and health
Tomio Shichiri , is the FAO representative in India
Announcing in his Mann Ki Baat address that September is to be observed as ‘Rashtriya Poshan Maah’, Prime Minister Narendra Modi urged people to support the government’s nutrition campaign to ensure a healthier future for women and children. He said that both poor and affluent families are affected by malnutrition due to lack of awareness.
Concerted efforts by the government have led to a decline in malnutrition by two percentage points per annum. However, according to the 2017 Global Burden of Disease Study by the University of Washington, malnutrition is among the leading causes of death and disability in India, followed by dietary risks including poor diet choices. The Food and Agriculture Organization (FAO) estimates that 194.4 million people in India, about 14.5% of the total population, are undernourished. The Global Hunger Index 2018 ranks India 103 out of 119 countries on the basis of three leading indicators: the prevalence of wasting and stunting in children under five years of age, child mortality rate under five years of age, and the proportion of undernourished in the population.
Poshan Abhiyaan, India’s flagship programme to improve nutritional outcomes for children, adolescents, pregnant women and lactating mothers, is an amalgamation of scientific principles, political fortitude and technical ingenuity. The key nutrition interventions and strategies, which form the core of it, contribute to the targets of the World Health Assembly for nutrition and the Sustainable Development Goals, particularly the goal of “zero hunger”.
Achieving zero hunger requires not only addressing hunger, but also the associated aspect of malnutrition. World Food Day is observed annually on October 16 to address the problem of global hunger. The theme this year is ‘Our Actions are our Future; Healthy Diets for a #ZeroHunger World’.
Consumption patterns
Healthy diets are an integral element of food and nutrition security. Food consumption patterns have changed substantially in India over the past few decades. This has resulted in the disappearance of many nutritious native foods such as millets. While foodgrain production has increased over five times since Independence, it has not sufficiently addressed the issue of malnutrition. For long, the agriculture sector focused on increasing food production, particularly staples, which led to lower production and consumption of indigenous traditional crops/grains, fruits and other vegetables, impacting food and nutrition security in the process. FAO’s work has demonstrated that dependence on a few crops has negative consequences for ecosystems, food diversity and health. Food monotony increases the risk of micronutrient deficiency. So, we must make food and agriculture more nutrition-sensitive and climate-resilient.
Agricultural biodiversity
Overreliance on a few staple crops coupled with low dietary diversity is a leading cause of persistent malnutrition. Additionally, intensive, monoculture agricultural practices can perpetuate the food and nutrition security problem by degrading the quality of land, water and the food derived through them. Those who have the capacity to make active food choices will have to be more conscious of their choice of food and its traceability. Those who cannot choose must be enabled to exercise that choice. Lifestyles in cities pose other dietary problems. Urban food planning needs to incorporate nutritional security and climate resilience.
Agricultural biodiversity ensures a wider food menu to choose from. Small farmers, livestock and seed keepers in India are on the front-line of conserving the unique agrobiodiversity of the country. The loss of globally significant species and genetic diversity has an adverse impact on diets. FAO supports the government’s efforts to synergise biodiversity conservation, agricultural production and local development for healthy diets and a healthy planet.