
17-07-2025 (Important News Clippings)
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Date: 17-07-25
नागरिकता सिद्ध करने की जिम्मेदारी किसकी?
संपादकीय
अगर एक संस्था अपनी संविधान प्रदत्त सीमा लांघती है तो उसे अपने मकसद को पूरा करने में कई कानूनेतर कदम उठाने पड़ सकते हैं। बिहार में वोटर सूची के पुनरीक्षण में यही हो रहा है। आधे-अधूरे फॉर्म भरवाकर, फॉर्म की प्रतिलिपि आवेदक को न देकर, मीडिया में अपुष्ट खबरें लीक कराके और विसंगतियां उजागर करने वाले पत्रकारों पर मुकदमा करके चुनाव आयोग से सम्बद्ध अधिकारी अनेक कानून तोड़ रहे हैं। संविधान का अनुच्छेद 5 जन्म और निवास के आधार पर स्वतः नागरिकता देता है और अनुच्छेद 326 इसकी निरंतरता सुनिश्चित करता है। जन्म और निवास को लेकर अगर कोई विवाद हो तो राज्य की जिम्मेदारी होती है ( न कि नागरिक की ) कि वह सिद्ध करे कि अमुक व्यक्ति भारत का नागरिक नहीं है। हम नागरिकता के लिए राज्य के समक्ष आवेदन नहीं करते और यह नागरिकता आजीवन रहती है। फिर नागरिकता पर किसी भी राज्य-नीत विवाद के लिए गृह मंत्रालय है, जिसे सर्वोच्च अदालत ने स्पष्ट रूप से तमाम याचिकाओं की सुनवाई के समय भी कहा था। अपराध न्यायशास्त्र में अपराध सिद्धि की जिम्मेदारी आरोपकर्ता पर होती है न कि आरोपित पर अगर कोई व्यक्ति विगत आम चुनावों में मतदाता था तो उसे फिर से कुछ चुनिंदा दस्तावेजों के जरिए मताधिकार सिद्ध करने को कहना अनुच्छेद 326 का उल्लंघन है। लिहाजा सर्वोच्च अदालत की पीठ को तमाम चीजों के साथ ही यह भी देखना होगा कि क्या चुनाव आयोग इस मामले में अपनी सीमा से बाहर गया और क्यों?
Date: 17-07-25
हमें अब ‘अच्छे’ और ‘बुरे’ विकास में अंतर करना भी सीखना होगा
प्रो. चेतन सिंह सोलंकी, ( आईआईटी बॉम्बे में प्रोफेसर )
प्रकृति में विकास बुद्धिमानी से होता है। एक बरगद का पेड़ एक किलोमीटर ऊंचा नहीं हो जाता, भले ही वह 500 साल तक जीवित रहे। जंगल में शेर राजा होता है, लेकिन ऐसी स्थिति कभी नहीं बनती कि जंगल में केवल शेर ही रहते हों। प्रकृति में अनियंत्रित विकास दुर्लभ है, क्योंकि यह सिस्टम को अस्थिर करता है। एकमात्र जगह जहां हम असीमित, अनियंत्रित विकास देखते हैं, वह है बीमारी वास्तव में, यह कैंसर की परिभाषित विशेषता है।
आज मनुष्यों का व्यवहार भी इस विकृति से मिलता-जुलता होने लगा है। निरंतर विस्तार के प्रति अपने जुनून में हम एक महत्वपूर्ण सत्य को भूल गए हैं कि बिना सीमा के विकास प्रगति नहीं, विकृति है। अनियंत्रित विकास न केवल पारिस्थितिकी तंत्र, बल्कि हमारे सामूहिक कल्याण की नींव को भी नुकसान पहुंचाता है। प्रदूषित हवा और पानी, खराब होती मिट्टी, ग्लोबल वार्मिंग, अनियमित मौसम प्रणाली सभी खराब विकास के संकेत हैं।
यूनियन ऑफ कंसर्ल्ड साइंटिस्ट्स सैटेलाइट डेटाबेस के अनुसार 2024 की शुरुआत तक पृथ्वी की परिक्रमा करने वाले 14,000 से अधिक कृत्रिम उपग्रह हो चुके हैं। यह संख्या पिछले कुछ वर्षों में दोगुनी से भी अधिक है, वर्तमान प्रक्षेपण दर को देखते हुए यह संख्या 2030 तक 100,000 को पार कर सकती है जो अंतरिक्ष कभी वैज्ञानिक अन्वेषण का क्षेत्र था, वह अब भीड़भाड़ वाला व्यावसायिक क्षेत्र है- जिसमें टकराव, मलबे और ऑर्बिट के वातावरण को दीर्घकालिक नुकसान का खतरा है।
चाहे वह प्लास्टिक का उपयोग हो या नए इलेक्ट्रॉनिक गैजेट्स में हमारी रूचि, या हमारी अलमारी में कपड़ों की संख्या, स्वयं पर लगाए गए अंकुश की कमी एक समाधान को समस्या में बदल देती है। ऐसे में यह विकास की धारणा पर सवाल उठाने का समय है। हमें अच्छे विकास और एक बुरे विकास के बीच अंतर करना सीखना चाहिए। इसका मतलब यह नहीं है कि विकास रुक जाना चाहिए। लेकिन इसे उद्देश्य से निर्देशित किया जाना चाहिए, सीमाओं से अवगत होना चाहिए, और पूरे सिस्टम के स्वास्थ्य के अनुकूल होना चाहिए। सीमित संसाधनों के साथ असीमित खपत नहीं चलती रह सकती है।
समस्या उपग्रह, कार या गैजेट नहीं है। समस्या यह तर्क है कि अगर कुछ बढ़ सकता है, तो उसे निरंतर बढ़ना चाहिए। अगर खपत जीडीपी को बढ़ावा देती है, तो अधिक खपत बेहतर होगी। यह तर्क अदूरदर्शी है क्योंकि हम वास्तव में जो ईंधन जला रहे हैं वह समृद्धि नहीं है, बल्कि पतन है। इसलिए, द फाइनाइट अर्थ मूवमेंट (एफईएम) हमें रुकने और सोचने के लिए आमंत्रित करता है। यह हम सभी से पूछता है कि क्या आपके पास विकास के लिए कोई व्यक्तिगत योजना है? केवल करियर या आय में ही नहीं, बल्कि आप कितना उपभोग करते हैं, इसकी योजना ? कि क्या आप जानते हैं कब रुकना है?
सीमित संसाधनों वाले हमारे ग्रह पर उपभोग को सीमित करने की जिम्मेदारी प्रत्येक व्यक्ति पर है। कुल वैश्विक प्रभाव अरबों व्यक्तिगत फुटप्रिंट्स के जमा-जोड़ के अलावा और कुछ नहीं है। अगर हम
जलवायु सुधार चाहते हैं, तो यह अपने में सुधार के बिना नहीं हो सकता। इसके लिए हमें तपस्या करने या गुफाओं में जाने की जरूरत नहीं है। हमें संतुलन बनाना होगा। हमें मानव प्रणालियों के भीतर प्रकृति की बुद्धिमत्ता को बहाल करना होगा। तो अगली बार जब आप सुनें कि विकास अच्छा है, तो रुकें और पूछें : किस कीमत पर ? कितने समय तक ?
लेकिन विकल्प क्या है? द फाइनाइट अर्थ मूवमेंट संतुलन बहाल करने के लिए एक सरल, कार्रवाई योग्य ढांचा प्रदान करता है- हमारे दैनिक जीवन से शुरू करना । इसे टीयूपीईई कहा जाता है। यह पांच आदतों का समूह है जो अनावश्यक खपत को कम करने में मदद करता है।
1. टी यानी ट्रैक्ल लेस । अनावश्यक यात्राएं न करें।
2. यू यानी यूज आइटम्स वाइजली । वस्तुओं का बुद्धिमानी से उपयोग करें।
3. पी यानी पर्चेस कॉशियसली सावधानी से खरीदें।
4. ई यानी ईंट केयरफुली खानपान की आदतों में सतर्कता लाएं। और
5. ई यानी एलिमिनेट इलेक्ट्रिसिटी वेस्टा बिजली की बर्बादी को खत्म करें। ये महज नारे नहीं हैं, ये नई तरह जीवित रहने की रणनीतियां हैं।
Date: 17-07-25
खतरे में लोकतंत्र – संविधान का बेसुरा राग
डा. एके वर्मा, ( लेखक सेंटर फार द स्टडी आफ सोसायटी एंड पालिटिक्स में निदेशक एवं राजनीतिक विश्लेषक हैं )
भारतीय लोकतंत्र और संविधान प्रारंभ से ही अनेक झंझावातों से गुजरा है। शुरू में गरीबी, महंगाई, बेरोजगारी, विभाजन, सांप्रदायिक हिंसा, शरणार्थी-पुनर्वास, औपनिवेशिक मानसिकता, पाकिस्तान एवं चीन विवाद आदि से विदेशी विद्वानों को लगता था कि भारत में लोकतंत्र और संविधान ढह जाएगा। भारत की जनता, सरकार और विपक्ष ने उन्हें गलत साबित किया। आज स्थिति विचित्र है। विपक्षी दल सतारूढ़ भाजपा / राजग को अपदस्थ करने हेतु न केवल उस पर आधारहीन आरोप लगाते रहते हैं, वरन देश की संवैधानिक संस्थाओं, प्रक्रियाओं और संविधान को ही लांछित करने का प्रयास करते हैं। यह लोकतंत्र के आत्मा पर प्रहार करने जैस है। संविधान, संवैधानिक संस्थाएं और संवैधानिक प्रक्रियाएं लोकतंत्र का आत्मा हैं। विपक्षी दल इन पर लगातार आक्रामक हैं। नेता प्रतिपक्ष राहुल गांधी और अन्य दलों के नेता संविधान की प्रति लहराकर यह दिखाने की कोशिश करते हैं जैसे संविधान खतरे में है और उन्हें उसे बचाना है। संविधान में संशोधन करने और उसके खतरे में होने में बहुत फर्क है। केशवानंद भारती मामले में सर्वोच्च न्यायालय का निर्णय है कि सरकार / संसद संविधान में बदलाव या संशोधन तो कर सकती है, लेकिन संविधान के मूल ढांचे’ में कोई परिवर्तन नहीं कर सकती ।
जो नेता संविधान की दुहाई देते हैं, वे स्वयं संविधान और कानून की धज्जियाँ उड़ाते दिखते हैं। इसमें सभी दलों के नेता शामिल हैं। साफ है कि किसी के भी द्वारा संविधान नष्ट या उसके खतरे में होने और लोकतंत्र के लिए संकट खड़े हो जाने की बात करना भ्रम फैलाना और संविधान की अस्मिता पर आक्रमण जैसा है। कांग्रेस ने अपने शासनकाल में कई बार संविधान को केवल बदलने का ही नहीं, वरन नष्ट करने का भी प्रयास किया। 1959 में प्रधानमंत्री नेहरू ने केरल में नंबूदरीपाद की निर्वाचित वामपंथी सरकार को अकारण भंग कर अनुच्छेद 356 का मनमाना इस्तेमाल किया। जून 1975 में प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने अपनी सरकार बचाने हेतु अनुच्छेद 352 के अंतर्गत ‘आंतरिक अशांति’ के आधार पर आपातकाल लगाया तथा लोकतंत्र और संविधान को दरकिनार कर हजारों नेताओं एवं बेगुनाह लोगों को ‘मीसा’ और डीआइआर’ जैसे कठोर कानूनों के अंतर्गत जेल भेज दिया। इनमें ‘अपील, दलील और वकील’ का प्रविधान ही न था अनेक दलों के नेता, जिन्हें कांग्रेस ने आपातकाल में जेलों में ठूंस दिया था, वे भी मोदी विरोध के चलते आज उसी कांग्रेस के साथ खड़े दिखते हैं। आपातकाल में अखबारों पर ‘सेंसरशिप’ लगा दी गई थी। उसी दौरान कांग्रेस ने 42वें संविधान संशोधन द्वारा संविधान में कुछ बड़े बदलाव किए और ऐसे प्रविधान जोड़े, जिसे संविधान निर्माताओं ने अस्वीकार कर दिया था। इंदिरा गांधी ने सर्वोच्च न्यायालय तक को नहीं छोड़ा और तीन वरिष्ठ न्यायमूर्तियों की उपेक्षा कर न्यायमूर्ति एएन रे को मुख्य न्यायाधीश बना दिया था।
विपक्ष काफी समय से संवैधानिक संस्थाओं और खासकर चुनाव आयोग को निशाना बना रहा है। चूंकि चुनाव ही सत्ता की सीढ़ी है, इसलिए लोकसभा चुनाव में परास्त होने और अनेक राज्यों में अप्रासंगिक होने से चुनाव आयोग पर आरोप तथा लांछन लगाना विपक्ष के लिए काफी आसान हो गया है। कभी वह चुनाव आयुक्तों की नियुक्तियों और निर्णयों पर अंगुली उठाता हैं, कभी उसे भाजपा के इशारे पर काम करने वाला बताता है, कभी ईवीएम मतदाता सूची में अनियमितता, डाटा देने में विलंब, दलीय पक्षपात आदि का मुद्दा उठाकर चुनाव आयोग की छवि नष्ट करने का प्रयास करता है। अनेक राज्यों में बांग्लादेश, नेपाल और म्यांमार आदि के अवैध घुसपैठियों ने फर्जी तरीकों से आधार, पैन, राशन कार्ड, मतदाता पहचान पत्र आदि दस्तावेज प्राप्त कर कई निर्वाचन क्षेत्रों की मतदाता सूचियों में अपना नाम अंकित करा लिया है। यह लोकतंत्र और राष्ट्रीय सुरक्षा के लिए खतरा है, क्योंकि केवल भारतीय नागरिकों को ही मत देने का अधिकार है। चुनाव आयोग ने इस पर अपना रुख सख्त करते हुए सभी राज्यों में मतदाता सूचियों के गहन पुनरीक्षण’ का निर्णय लिया है। बिहार में वह ऐसे लोगों की पहचान संबंधी पहल कर चुका है, पर विपक्ष को इस पर आपत्ति है और इसे सर्वोच्च न्यायालय में चुनौती भी दी। न्यायालय ने आयोग की इस कार्रवाई पर रोक नहीं लगाई। देखना है कि न्यायालय इस पर क्या अंतिम निर्णय लेता है?
राहुल गांधी तो विदेश में भी चुनाव आयोग की निष्पक्षता पर सवाल खड़े करते रहे हैं। गत अप्रैल में उन्होंने अमेरिका में भारतीय चुनाव प्रणाली पर ‘गंभीर अनियमितताओं का आरोप लगाया। जब नेता प्रतिपक्ष ही लोकतंत्र और संवैधानिक संस्थाओं पर विदेश में ऐसे अनर्गल आरोप लगाएगा, तो न केवल भारतीय लोकतंत्र की वैश्विक छवि खराब होगी, वरन जनता के मन में भी शंका उत्पन्न होगी। देश में मतदाताओं, प्रत्याशियों और दलों की विशाल संख्या, चुनावों की बारंबारता, प्रक्रियाओं की जटिलता, तकनीकी – प्रशासकीय चुनौतियां, संप्रदायिक और लोकतांत्रिक संवेदनशीलता आदि को समायोजित कर अत्यधिक मेहनत से संपन्न की जाने वाली कठिन चुनाव प्रक्रिया पर नेता और राजनीतिक दल एक मिनट में कालिख पोत देते हैं। यह अक्षम्य अपराध है। संभव है कि चुनाव प्रक्रिया में कुछ अधिकारी, कर्मचारी किसी निर्वाचन क्षेत्र में गलती करें, कुछ क्षेत्रों में जाने-अनजाने कोई त्रुटि हो, कुछ मतदाता सूचियों में कहीं अनियमिताएं भी दिखें, लेकिन चुनाव आयोग उसका उत्तरदायित्व निर्धारित करता है और चिह्नित लोगों को विधि अनुसार दंड भी देता है, लेकिन विपक्ष द्वारा संविधान, संवैधानिक संस्थाओं और प्रक्रियाओं को लांछित करना अनुचित और अवांछनीय है।
यदि विपक्षी दलों ने लोकतंत्र, संविधान, संवैधानिक संस्थाओं और संवैधानिक प्रक्रियाओं के प्रति आक्रामक रवैया नहीं छोड़ा, तो जनता की आस्था लोकतंत्र और संविधान में घट सकती है। जो लोकतंत्र, सत्तापक्ष और विपक्ष सभी के लिए हानिकारक होगी।
Date: 17-07-25
समुद्री क्षेत्र में डिजिटल जीवनरेखाओंकी सुरक्षा अहम
अजय कुमार, ( लेखक केंद्रीय लोक सेवा आयोग के अध्यक्ष और पूर्व रक्षा सचिव हैं। ये उनके निजी विचार हैं )
समुद्र के भीतर बिछी केबल (सबमरीन केबल) डिजिटल दौर की मूक जीवनरेखाएं हैं, जो वैश्विक इंटरनेट ट्रैफिक के 99 फीसदी का संचालन करने में अहम भूमिका निभाती हैं और हमारी अर्थव्यवस्था तथा सामाजिक विकास को गति देती हैं। इन केबल की क्षमता हर दो से ढाई साल में दोगुनी हो जाती है। हर साल इनमें 70,000 से एक लाख किलोमीटर का इजाफा होता है और इन पर 10 अरब डॉलर का निवेश होता है।
वर्ष 2024 तक, दुनिया भर में 550 से ज्यादा केबल सिस्टम बिछे हुए थे जिनकी कुल लंबाई 14 लाख किलोमीटर है यानी ये इतनी लंबी हैं कि इनसे पृथ्वी को 35 बार घेरा जा सकता है। भारत में डेटा इस्तेमाल बहुत तेजी से बढ़ रहा है, ऐसे में उसके लिए भी समुद्र के भीतर केबल नेटवर्क का बढ़ना बहुत जरूरी है। अभी तक निजी कंपनियों के बदौलत इस उद्योग में तेज वृद्धि हुई है लेकिन यह काम थोड़ा बेतरतीब रहा है। लूजोन स्ट्रेट और मलक्का स्ट्रेट जैसे कुछ खास जगहों पर इन केबलों का बेहद घना क्लस्टर है, जिससे उनके टूटने का खतरा बना हुआ है। इन सबमरीन केबल के बेहतर प्रबंधन के लिए कोई औपचारिक नियम-कानून नहीं है, जिससे सुरक्षा संबंधी दिक्कतें पैदा होने पर भविष्य में गंभीर रणनीतिक परिणाम हो सकते हैं।
एक रणनीतिक बदलाव यह परिभाषित कर रहा है कि देश समुद्र के नीचे केबलों को किस प्रकार अहमियत दे रहे हैं। दरअसल, अब इन्हें सिर्फ वाणिज्यिक बुनियादी ढांचा ही नहीं बल्कि देश की संप्रभुता और वैश्विक स्तर पर अपना प्रभाव बढ़ाने वाली चीज मानी जा रही है। अमेरिका का लंबे समय से इस क्षेत्र में दबदबा रहा है, लेकिन चीन अपनी ‘बेल्ट ऐंड रोड इनीशिएटिव’ योजना का इस्तेमाल कर, प्रमुख संचार मार्गों पर अपना नियंत्रण करने में तेजी से आगे बढ़ रहा है। पाकिस्तान अपनी भौगोलिक स्थिति का फायदा उठाकर, चीन के साथ मिलकर ‘डिजिटल सिल्क रोड’ में अपनी भूमिका तैयार कर रहा है। चीन द्वारा बनाई गई केबल को लेकर बढ़ती चिंता के कारण, अमेरिका, यूरोपीय संघ और जापान ‘स्वच्छ केबल’ समूह बनाने पर जोर दे रहे हैं। भू राजनीतिक दबाव के कारण, दक्षिण पूर्व एशिया पश्चिम एशिया-पश्चिमी यूरोप 6 केबल परियोजना से चीन की कंपनियों के हटने के बाद, उन्होंने यूरोप- पश्चिम एशिया – एशिया परियोजना के तहत फिर से मिलकर काम शुरू किया। चाइना टेलीकॉम, चाइना मोबाइल और चाइना यूनिकॉम के नेतृत्व में, चीन अब हॉन्गकॉन्ग, हेन्नान, सिंगापुर, पाकिस्तान, सऊदी अरब, मिस्र और फ्रांस को जोड़ रहा है जिसके लिए हुआवे मरीन टेक्नॉलजीज भी मुख्य ठेकेदार कंपनी के रूप में मौजूद है।
दुर्घटना से होने वाले नुकसान के अलावा, सबमरीन केबलों को क्षतिग्रस्त करने का एक बड़ा खतरा है, क्योंकि इसे आसानी से अंजाम दिया जा सकता है। हाल ही में, चीन के एक जहाज शुनशिंग 39 ने ताइवान के कीलंग हार्बर के पास समुद्र के नीचे की केबलों को काट दिया जो चीन की सीधे-सीधे युद्ध घोषित किए बिना किसी को परेशान करने की नीति के तहत ही केबल हमलों के इस्तेमाल का संकेत है। स्नोडेन लीक से पता चला कि दुश्मनों द्वारा स्प्लाइस चैंबर (जोड़ने वाले हिस्से) और ऑप्टिकल स्प्लिटर का उपयोग करके केबल को टैप किया जा रहा है। लूजोन स्ट्रेट, दक्षिण चीन सागर और हिंद महासागर में चीन के खोजी जहाजों की बढ़ती गतिविधि, वास्तव में केबलों का नक्शा बनाने और जासूसी उपकरण लगाने के संकेत देती है ताकि जरूरत पड़ने पर संभावित सामरिक बाधा के लिए तैयारी की जाए।
चीन केबल बिछाने, केबल शिप बनाने और दोहरे उपयोग वाले समुद्री बुनियादी ढांचा तैयार करने में अपनी भूमिका तेजी से बढ़ा रहा है। पश्चिमी देशों और जापान की कंपनियां अब भी केबल मरम्मत में आगे हैं, लेकिन चीन अपनी क्षमता को बढ़ा रहा है और चार से छह मरम्मत करने वाले जहाजों का संचालन कर रहा है, जिनमें से कम से कम एक का संबंध, पीपल्स लिबरेशन आर्मी यानी चीन की सेना से बताया जाता है। इसके विपरीत, भारत के पास ऐसा केवल एक निजी जहाज है और यह बड़े पैमाने पर विदेशी जहाजों पर निर्भर है। यह निश्चित रूप से कमजोर स्थिति को दर्शाता है खासतौर पर संकट के दौरान, क्योंकि इससे देरी का खतरा बना रहता है। भारत को अपनी केबल मरम्मत क्षमता बढ़ाने पर विचार करना चाहिए और यह संभवतः किसी सार्वजनिक क्षेत्र के शिपयार्ड के माध्यम से होना चाहिए। इससे न केवल राष्ट्रीय सुरक्षा बढ़ेगी बल्कि चीन के जहाजों से सावधान रहने वाले क्षेत्रीय भागीदारों को भी सहयोग मिलेगा।
सबमरीन केबल से जानकारी चुराने के खतरे से निपटने के लिए, महत्त्वपूर्ण रास्तों की लगातार निगरानी करने के साथ ही समुद्र तल के नीचे आधुनिक क्षमताएं विकसित करना जरूरी है, जिनमें सेंसर और मानवरहित जहाज शामिल हैं। आईडेक्स पहल के तहत एक दर्जन से अधिक ऐसी तकनीकें खरीदी जा रही हैं और इन्हें तेजी से पूरा किया जाना चाहिए। कई देशों ने अपने विशेष आर्थिक क्षेत्रों ( ईईजेड) और महाद्वीपीय क्षेत्र के दायरे के भीतर सबमरीन केबलों की सुरक्षा के लिए कानून बनाए हैं। अमेरिका में, कानूनों के तहत संस्थाओं को सबमरीन केबल बिछाने के लिए औपचारिक अनुमति लेनी होती है और साथ ही कोई भी गतिविधि न करने वाले सुरक्षित क्षेत्र बनाने होते हैं। इसके अलावा ईईजेड और महाद्वीपीय क्षेत्र के भीतर उल्लंघन करने पर जुर्माना लगता है। इसके विपरीत, भारतीय कानून समुद्री तल के संसाधनों और प्रतिष्ठानों की स्थापना के लिए अधिकार तो देता है, लेकिन नियम तभी लागू करने की अनुमति देता है जब किन्हीं गतिविधियों के कारण सीधे इन अधिकारों में हस्तक्षेप होता है। यह एक बड़ी कमी है जिसे दूर करने की आवश्यकता है। अंतरराष्ट्रीय जलक्षेत्र में सबमरीन केबलों की सुरक्षा करना बहुत मुश्किल है क्योंकि वहां कानून को ठीक से लागू करने की स्थिति कमजोर है और साथ ही अंतरराष्ट्रीय कानून में भी कमियां हैं।
समुद्री क्षेत्र से जुड़े कानून पर संयुक्त राष्ट्र समझौता सभी देशों को खुले समुद्र में केबल बिछाने की अनुमति देता है और उनसे यह भी कहता है कि वे अपने नागरिकों या अपने देश के झंडे वाले जहाजों द्वारा जानबूझकर या लापरवाही से हुए नुकसान को अपराध मानें और इसे लागू करने में सहयोग करें। लेकिन, जब कानून को लागू करने का काम उन जहाजों वाले देश पर छोड़ दिया जाता है तब किसी देश के सरकार समर्थित नुकसान से निपटना बिल्कुल ऐसा ही है जैसे चोर को घर की चाबियां सौंपकर घर के सुरक्षित रहने की उम्मीद करना । अंतरराष्ट्रीय दूरसंचार संघ (आईटीयू) केबल बिछाने और सुरक्षित क्षेत्रों के लिए तकनीकी मानकों और दिशानिर्देशों पर ध्यान केंद्रित करता है, लेकिन नियमन पर नहीं आईटीयू के तहत अंतरराष्ट्रीय केबल संरक्षण समिति (आईसीपीसी), केबल संरक्षण क्षेत्रों के लिए बेहतर कदम और मानदंड की बात करती है। आईसीपीसी के तहत हाल ही में एक और अंतरराष्ट्रीय सलाहकार निकाय स्थापित किया गया है, लेकिन यह भी केवल सलाहकार की भूमिका तक ही सीमित है।
कोई अंतरराष्ट्रीय समुद्री निगरानी व्यवस्था न होने के कारण, भारत को खुले समुद्र में सबमरीन केबलों की सुरक्षा के लिए अपने साधन विकसित करने होंगे। इसमें अंतरिक्ष और नौसेना के संसाधनों का उपयोग करके संदिग्ध जहाजों, खासतौर पर चीन के सर्वेक्षण जहाजों की निगरानी करना और हिंद महासागर के प्रमुख गलियारों के पास नौसेना की मौजूदगी बनाए रखना शामिल है।
भारत को निजी परिचालकों के साथ मिलकर छेड़छाड़ रोधी केबल डिजाइन करने, उन्हें समुद्र तल की अधिक गहराई में दबाने और मजबूत इन्क्रिप्शन (गोपनीयता ) सुनिश्चित करने के लिए भी काम करना चाहिए। इसके लिए क्वाड सहित मित्र देशों के साथ गंभीर सहयोग आवश्यक है।
केबल को इरादतन क्षतिग्रस्त किए जाने के लिए तैयार रहने के लिए, भारत को अतिरिक्त व्यवस्था करने के साथ ही, वैकल्पिक सबमरीन केबल मार्ग तैयार करने होंगे। केबल को राष्ट्रीय स्तर के महत्त्वपूर्ण सूचना अवसंरचना संरक्षण केंद्र के तहत औपचारिक रूप से महत्त्वपूर्ण सूचना अवसंरचना’ घोषित की जानी चाहिए। राष्ट्रीय सुरक्षा परिषद सचिवालय में राष्ट्रीय समुद्री सुरक्षा समन्वयक एक राष्ट्रीय सबमरीन केबल सुरक्षा ढांचा बनाने का नेतृत्व कर सकता है, जिसमें सरकार, भारतीय नौसेना, तटरक्षक और निजी केबल ऑपरेटरों जैसे प्रमुख हितधारकों को एक साथ लाया जा सकता है।
आज की दुनिया में, सबमरीन केबलों की सुरक्षा सिर्फ इंटरनेट परिचालन से ही नहीं बल्कि यह देश को सक्षम करने से जुड़ी है। इनकी रखवाली करना केवल अच्छी नीति नहीं है बल्कि यह परस्पर जुड़ी हुई दुनिया में राष्ट्र की संप्रभुता और रणनीति के प्रमुख आधार की रक्षा करना है।
Date: 17-07-25
दोहरे मापदंड
संपादकीय
आतंकवाद अब पूरी दुनिया में शांति और स्थिरता के लिए गंभीर खतरा बन गया है। इसे जड़ से खत्म करने के लिए सामूहिक प्रयास के दावे तो बहुत किए जाते हैं, लेकिन धरातल पर ऐसा कुछ होता नजर नहीं आ रहा है। इसका कारण है कुछ देशों की कथनी और करनी में अंतर, जो कई अवसरों और मंचों पर साफ नजर आता है। इस मामले में भारत की नीति और नीयत पूरी तरह स्पष्ट है कि आतंक को कतई बर्दाश्त नहीं किया जाएगा। वहीं, पाकिस्तान जैसे मुल्क दोहरे मापदंड अपना कर एक तरफ खुद को आतंकवाद से पीड़ित बताते हैं, दूसरी ओर अपनी जमीन पर आतंकियों की फौज भी तैयार कर रहे हैं। इन तथ्यों का आकलन शंघाई सहयोग संगठन (एससीओ) की हालिया बैठकों में आतंक के मुद्दे पर भारत और पाकिस्तान के रुख से किया जा सकता है। चीन के तियानजिन में बीते मंगलवार को हुई एससीओ के विदेश मंत्रियों की बैठक में विदेश मंत्री एस जयशंकर ने दो टूक कहा कि इस समूह को आतंकवाद से निपटने के अपने स्थापना उद्देश्य पर कायम रहना चाहिए भारत आतंकवाद के खात्मे के लिए पूरी तरह प्रतिबद्ध है और इस दिशा में सामूहिक प्रयासों को मजबूत करने के लिए नए विचारों और प्रस्तावों पर सकारात्मक रुख अपना रहा है।
एससीओ की स्थापना के मूल उद्देश्य में आतंकवाद, अलगाववाद और चरमपंथ से निपटने के मुद्दे भी शामिल थे। हालांकि, इस संगठन में शामिल पाकिस्तान और चीन की दखल से इन मुद्दों को हाशिये पर धकेलने का प्रयास किया जाता रहा है। इसके पीछे नापाक मंसूबे छिपे हुए हैं, जो आतंकियों का वित्त पोषण कर उन्हें हथियार की तरह इस्तेमाल करने से प्रेरित हैं। भारत कई बार अंतरराष्ट्रीय मंचों पर पाकिस्तान के इन खतरनाक इरादों को बेनकाब कर चुका है। हालांकि पाकिस्तान हमेशा इससे इनकार करता आया है। एससीओ सम्मेलन में भी उसने पहलगाम आतंकी हमले में अपनी भूमिका नहीं कबूली। जबकि, कंधार विमान अपहरण से लेकर मुंबई हमले, संसद पर हमला तथा उरी, पठानकोट और पहलगाम हमले में उसका हाथ होने की बात साक्ष्यों के साथ जाहिर हो चुकी है। वैश्विक आतंकवाद वित्त पोषण निगरानी संस्था एफएटीएफ की हालिया रपट में भी इस बात का उल्लेख किया गया है कि पहलगाम आतंकी हमला बिना वित्त पोषण के संभव नहीं था।
इससे पहले जून में हुए एससीओ के रक्षा मंत्रियों के सम्मेलन में रक्षामंत्री राजनाथ सिंह ने आतंकवाद के मुद्दे को प्रमुखता से उठाया था। उन्होंने पहलगाम आतंकी हमले का हवाला देते हुए कहा था कि कुछ देश अपनी नीतियों में सीमापार आतंकवाद को एक हथियार की तरह इस्तेमाल कर रहे हैं और आतंकियों को पनाह दे रहे हैं। इसके बाद जब सम्मेलन का संयुक्त घोषणा पत्र तैयार किया गया, तो उसमें पहलगाम आतंकी हमले का कोई जिक्र नहीं था और भारत ने इसका कड़ा विरोध किया था। इससे पाकिस्तान और चीन के मंसूबों का अंदाजा सहज ही लगाया जा सकता है। अगर ये देश वास्तव में आतंकवाद को खत्म करने की इच्छा रखते हैं, तो संयुक्त घोषणा-पत्र में पहलगाम हमले की निंदा करने से गुरेज क्यों किया गया ? दोराय नहीं कि ऐसे दोहरे मापदंड को खत्म करना बेहद जरूरी है और एससीओ जैसे मंच की ऐसी ताकतों की खुलेआम आलोचना करनी चाहिए। अब जरूरी है कि आतंकवाद के वित्त पोषकों और प्रायोजकों को न्याय के कठघरे में लाने के लिए ईमानदारी से प्रयास किए जाएं।
Date: 17-07-25
भारत और चीन को एक-दूजे की जरूरत
शशांक,( पूर्व विदेश सचिव )
भारतीय विदेश मंत्री एस जयशंकर की सिंगापुर व चीन की यात्रा बदलती विश्व व्यवस्था के अनुकूल मानी जाएगी। सिंगापुर में बेशक ‘एक्ट ईस्ट पॉलिसी’ को आगे बढ़ाने पर जोर दिया गया, मगर गलवान में पांच साल पहले हुई हिंसक झड़प के बाद पहली बार किसी भारतीय विदेश मंत्री के चीन जाने पर चर्चा स्वाभाविक ही है।
जयशंकर शंघाई सहयोग संगठन (एससीओ) के विदेश मंत्रियों की बैठक में शिरकत करने तियानजिन पहुंचे थे। अपने चीनी समकक्ष वांग यी के साथ मुलाकात में दोनों नेताओं ने भारत-चीन द्विपक्षीय संबंधों की समीक्षा की। वास्तव में, यह भारत-चीन संबंधों का भी ‘प्लैटिनम जुबली’ दौर है। दोनों देशों की 75 वर्षों की इस द्विपक्षीय कूटनीतिक यात्रा में कई पड़ाव आए हैं। लिहाजा, उचित ही दोनों नेताओं ने संबंधों की स्थिरता पर जोर दिया। कैलास मानसरोवर यात्रा को फिर से शुरू करने में चीन के सहयोग की सराहना भी की गई। यही नहीं, दोनों ने एक- दूसरे देश में लोगों की आवाजाही बढ़ाने और सीधी उड़ान सेवा की दिशा में अतिरिक्त कदम उठाने पर भी सहमति जताई।
पिछले साल अक्तूबर में ब्रिक्स सम्मेलन के इतर भारतीय प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और चीनी राष्ट्रपति शी जिनपिंग की मुलाकात हुई थी। उसके बाद से ही यह संकेत मिलने लगे थे कि भारत और चीन के रिश्ते पटरी पर लौटने लगे हैं। चूंकि अगले महीने फिर से ये दोनों शासनाध्यक्ष एससीओ बैठक में मिलने वाले हैं, इसलिए भारतीय नेताओं की हाल-फिलहाल में चीन यात्रा बढ़ी है। उल्लेखनीय है, पिछले दिनों एससीओ के रक्षा मंत्रियों की बैठक भी हुई थी, जिसके घोषणापत्र में पहलगाम हमले का जिक्र न होने और बलूचिस्तान का वर्णन करके पाकिस्तानी हितों की वकालत करने के कारण भारतीय रक्षा मंत्री राजनाथ सिंह ने उस पर हस्ताक्षर करने से इनकार कर दिया था। ऐसे में, यह जरूरी था कि भारत आतंकवाद के मसले पर मजबूती से अपनी बात रखे, जो एस जयशंकर ने बखूबी किया।
यह विडंबना है कि एससीओ जब बना था, तब आतंकवाद से मिलकर मुकाबला करना इसके प्राथमिक उद्देश्यों में एक था, लेकिन अब इसी मसले पर इसके सदस्य देशों में मतभेद दिखने लगे हैं। पाकिस्तान आतंकवाद का खुलेआम पोषण करता है, जिसका परोक्ष रूप से चीन साथ दे रहा है। भारत इसी दुरभिसंधि के खिलाफ मुखर है। हालांकि, भारत-चीन रिश्तों में आती गरमाहट को नाटो के हालिया फैसले के बर अक्स भी देखना चाहिए।
दरअसल, नाटो के देशों ने अब निर्णय लिया है कि वे अपने हथियार यूक्रेन को देंगे और बाद में अमेरिका से खरीदकर भी उसे मुहैया कराएंगे। हालांकि, बाद में इस खबर पर स्पष्टीकरण भी जारी किया गया, लेकिन माना यही जा रहा है कि नाटो देश अब यूक्रेन का खुलकर साथ देंगे, वे रूस का मुकाबला करना चाहते हैं। इससे वैश्विक आपूर्ति श्रृंखला पर खासा असर पड़ सकता है, जो भारत और चीन दोनों को प्रभावित करेगा।
वैसे, एस जयशंकर की इस यात्रा से चीन के हित भी सधे । वास्तव में, पिछले कुछ दिनों से उसके नेता शी जिनपिंग सार्वजनिक तौर पर नहीं दिख रहे थे। इसके कारण पश्चिमी मीडिया चीन में संभावित सत्ता- परिवर्तन का दावा करने लगा था। मगर अब जिनपिंग और जयशंकर की मुलाकात की तस्वीरें सार्वजनिक होने के बाद कहा जा रहा है कि चीन ने भारत के माध्यम से विश्व को संदेश दे दिया है।
एक तर्क यह भी दिया जा रहा है कि जब चीन आतंकवाद के मसले पर पाकिस्तान के साथ है, तो उसके साथ संबंध क्यों रखे जाएं? ऐसा कहने वाले लोग वास्तव में दोनों देशों के रिश्तों की जटिलताओं को नहीं समझते। चीन ने पाकिस्तान का साथ दिया, तो वह विश्व मंच पर वेपरदा भी हो गया फिर भारत ने पाकिस्तान, चीन और तुर्किये गठजोड़ से अकेले सफल मुकाबला करके अपनी ताकत का लोहा मनवाया है। चूंकि विश्व व्यवस्था में कोई देश स्थायी दुश्मन नहीं होता, इसलिए अपने हितों के अनुकूल भारत ने चीन के साथ संबंध आगे बढ़ाए हैं। अमेरिका और नाटो देश की बौखलाहट संकेत है कि विश्व बहुध्रुवीय व्यवस्था की ओर बढ़ रहा है। ऐसे में, भारत को सोच-समझकर आगे बढ़ना ही होगा। हम नहीं चाहेंगे कि बीजिंग पूरी तरह से नई दिल्ली के खिलाफ हो जाए।
इतना ही नहीं, अमेरिका ने टैरिफ – जंग छेड़कर विश्व अर्थव्यवस्था में जो उथल-पुथल मचाई है, उससे भारत और चीन दोनों को मुकाबला करना है। अमेरिका हमारा दूसरा सबसे बड़ा निर्यातक देश है, इसलिए हम अमेरिकी बाजार को भी नजरंदाज नहीं कर सकते। मगर उस पर पूरी तरह से निर्भरता हमारे लिए उचित नहीं, इसलिए चीन और रूस जैसे देशों के साथ आपसी संबंधों का भी हमें ख्याल रखना होगा। यदि अमेरिका अपने सीमा शुल्क बढ़ाता है, तो हमारे कारोबार पर इसका असर पड़ सकता है। लिहाजा, समय से पूर्व विकल्प की तलाश ही हमारी बुद्धिमानी मानी जाएगी और जहां-जहां हमारे हित जुड़े हुए हैं, हमें वहां-वहां मिलकर काम करना होगा।
हालांकि, नाटो महासचिव मार्क रूट ने यह चेतावनी दी है कि भारत, चीन और ब्राजील जैसे ब्रिक्स देश रूस पर युद्ध रोकने का दबाव नहीं बनाएंगे, तो उन्हें 100 फीसदी सीमा शुल्क बढ़ोतरी का सामना करना पड़ सकता है। यह कुछ और नहीं, पश्चिमी देशों, खासकर अमेरिका की बौखलाहट है। उसे डर है कि वैश्विक व्यापार अथवा लेन-देन में अमेरिकी डॉलर के उपयोग को कम करने की कवायद चल रही है। हालांकि, ऐसा कुछ नहीं है। उसे अपनी इस घरेलू बहस से ऊपर उठना चाहिए। यह डॉलर, पाउंड और यूरो के बीच की जंग है। सन् 1971 से पहले तो डॉलर स्वर्ण मानक से जुड़ा हुआ था, मगर यही देखा गया कि यूरोप के देश इससे बचने लगे थे, जिसके बाद अमेरिका इस मानक से पीछे हटने को मजबूर हुआ था और ‘पेट्रोडॉलर’ की संकल्पना सामने आई थी, यानी तेल के अंतरराष्ट्रीय बाजार की मुद्रा डॉलर बना दी गई।
बेशक, ब्रिक्स में सऊदी अरब, ईरान, संयुक्त अरब अमीरात जैसे देशों के शामिल होने से अमेरिका में डॉलर के विमुद्रीकरण को लेकर डर पसर रहा है, लेकिन भारत हाल-फिलहाल में इस मुद्रा से पीछे हटने का कोई संकेत नहीं दिया है। हम तो अब भी विदेशी व्यापार डॉलर में ही करने के हिमायती हैं। हां, कभी-कभी ब्रिक्स देशों की एक वैकल्पिक मुद्रा की बातें उठती जरूर हैं, लेकिन इसे हकीकत बनने में अभी खासा वक्त लगेगा।