17-05-2019 (Important News Clippings)
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Date:17-05-19
Play A Better Game
Here are the top five national security challenges the next government must tackle
Indrani Bagchi is The Times of India’s diplomatic editor.
We have crested the final wave of an exhausting election campaign. But there is always a tomorrow, and a nation to run, never mind who will helm things at Lok Kalyan Marg. This was also the first election where national security played a role we hadn’t seen in recent years.
So as New Delhi prepares for a same-old, same-new or new-new government, we take a look at the top five national security imperatives India will need to tackle, both in the immediate and longer term.
The new PM will be haring off to distant capitals within weeks of taking over. (S)he will need to address a growing trade dispute with the US if we don’t want to tank that relationship. But on a bigger scale, India needs to urgently address much more important issues.
Heading the list would certainly be China. President Xi Jinping’s campaign season “gift” of Masood Azhar at the UNSC should not obscure the bigger challenge China poses to India’s national security. Quite apart from China’s economic and military asymmetry, we shouldn’t fool ourselves into thinking that China’s territorial ambitions have somehow dimmed, particularly as a result of the US-China trade war. China challenges India in the Indian Ocean, via Pakistan and through an economic model that keeps India on the losing side in trade.
China has become adept at talking Wuhan but walking Doklam. We like to walk Wuhan and pretend Doklam isn’t happening.
India cannot but develop asymmetrical advantages of its own. These could start with ramping up our investments in Myanmar, Nepal and Bangladesh. But, guess what the Azhar listing taught us? You can squeeze Pakistan to make China squeal. That’s a valuable lesson and should be used by the Indian state in future. More important, India needs to shed its touch-me-not tag in the oceans. New Delhi finally gathered up the courage to do a joint drill with the US, Japan and Philippines last week, but only after it had assuaged China at its fleet review. I can almost hear sarkari strategists saying, but, but, but …. Of course, we have to hedge. But more often than not, India hedges to duck from tough choices.
The new government has an opportunity to play a better game. So, build up the Quad and the India-Japan-US trilateral. Keep up the opposition to Belt, Road and CPEC. Keep Pakistan on its toes regarding support to terrorism, both diplomatically and through the multilateral route like IMF and FATF.
Second, India is staring at a huge decision that will affect not only its national security, but foreign policy and its technological future. Sooner rather than later India will have to make choices on the 5G debate. 5G has the potential to transform India’s knowledge economy, but also its defence structures. With the growing global faultlines, India will not be able to do its normal jugaad, a little bit of one, a little of another. Our decision to go with Huawei and China or with the Western networks will go a long way in determining the tilt of our foreign policy. Those happy swinging days are coming to an end. As intelligence sharing, military interoperability increasingly ride on commercial 5G networks, India will have to walk one road. Artificial intelligence, industry 4/5.0, internet of things, autonomous platforms are bringing civilian and military futures together.
Third, we need to urgently review our system of defence acquisitions. Balakot demonstrated political will to use military force against terror. But the fact remains that after two days of a military conflict with Pakistan, we did not demonstrate military superiority. It is imperative, for the sake of national security, for the new government to streamline this crazy system. One idea might be to set up an autonomous entity for acquisition, populated by MEA, armed services, finance ministry and CAG – keep it clean, keep it quick, while being audited simultaneously, use an apex decision-making leadership headed by the PM.
Fourth, Islamic State has made landfall in South Asia. After the Easter Sunday attacks in Sri Lanka, India cannot be blind to the implications. South India is increasingly vulnerable not merely as a target but as a hub for radical leadership. That will need some hard thinking between the states and Centre.
Simultaneously, India has adopted a hardline no-dialogue approach to Pakistan. After JeM’s Azhar was banned, nothing stops Rawalpindi from activating say, AQIS to operate in India with plausible deniability. We need to open some kind of dialogue with Pakistan, even at the NSA level, without letting up on the pressure. As long as Pakistan remains a state that naturally uses terrorism against India, the threat from IS would be the same as from LeT and JeM or the Haqqani network.
Finally, India needs to build strategic communication into its national security strategy. This is not between MEA/PMO and the media – it is a clear articulation of India’s policies and intents to friends and foes. When India was a smaller and weaker power, ambiguity allowed it to stay afloat. It’s in a different place now. There should be no ambiguity, for instance, what India’s nuclear posture is, which provocation will invite what level of retribution. Same applies for terrorism.
The same applies to India’s Indo-Pacific policy. India needs to think of this to make broad strategies, red lines and intent clear even within its own government. Whether in Islamabad, Beijing or even in North Block, that clarity will be important. This will not only help India’s grand strategy masters, it will also clarify state intent even to investors and business. As India moves to become a bigger power with bigger stakes in the world, predictability and clarity will be very important.
Date:17-05-19
विश्वसनीयता ही संगठन को बनाती है संस्थान
सोमशेखर सुंदरेशन , (लेखक अधिवक्ता एवं स्वतंत्र परामर्शदाता हैं)
यह लेख उच्चतम न्यायालय और विïश्वसनीयता के मौजूदा संकट के केंद्र में मौजूद बिंदुओं के बारे में नहीं है। प्रैक्टिस करने वाला एक वकील होने के नाते ऐसे मसलों पर चर्चा करने को सही और गलत के गुण-दोषों पर टिप्पणी के तौर पर देखे जाने का भी जोखिम जुड़ा है जिसका न्यायिक समुदाय एवं संबद्ध पक्षों के हाथों गंभीर नतीजा भी भुगतना पड़ सकता है। सच तो यह है कि ‘संकट’ शब्द का इस्तेमाल भी एक भावनात्मक मुद्दा हो सकता है। इसके बजाय यह लेख संस्थानों और उन सामाजिक अपेक्षाओं के बारे में है कि ‘संगठन’ किस तरह ‘संस्थानों’ में परिवर्तित होते हैं। जब कोई संगठन न्याय प्रदान करने की व्यवस्था के शीर्ष पर है तो उसे महज कानूनी व्याख्या से परे विश्वसनीयता की अघोषित जरूरत भी होती है। यह शीर्ष अदालत के फैसलों को मिलने वाली सामाजिक स्वीकृति के केंद्र में होता है।
संवैधानिक एवं विधिक तौर पर उच्चतम न्यायालय हमेशा सही होता है क्योंकि यह अंतिम न्यायालय है। यह हमेशा सही होने की वजह से अंतिम नहीं होता है। किसी भी संस्थान के निर्णय सही या गलत ठहराए जाने के लिए मुक्त हो सकते हैं। किसी भी विवाद को एक जगह जाकर खत्म होना होता है और वह रास्ता उच्चतम न्यायालय पर जाकर बंद हो जाता है। हालांकि किसी भी दूसरे संगठन की तरह इसका संचालन भी इंसान ही करते हैं। इंसान होने का बुनियादी गुण यह है कि वह गलती भी कर सकता है, हम गलतियां करने के आदी हैं और काफी गलत भी हो सकते हैं। लिहाजा सभी तरह के विवाद यहीं खत्म हो जाते हैं। समाज मान लेता है कि यह समापन केवल हमारे संविधान एवं मानव-निर्मित कानून के कहने से ही नहीं होता है बल्कि न्यायालय की मौलिक विश्वसनीयता के नाते इसके आचरण को समाज की स्वीकृति मिलने की वजह से भी होता है।
विश्वसनीयता ही किसी ‘संगठन’ को ‘संस्थान’ में परिवर्तित करती है। ऐसा कहने का कोई मतलब नहीं है कि न्याय न केवल किया जाना चाहिए बल्कि न्याय होते हुए दिखाई भी देना चाहिए। ऐसे न्यायाधीश हैं जिनकी अदालतों से दावा ठुकराए जाने के बाद भी वादियों को यह संतोष रहता है कि उनकी बात अच्छी तरह सुनी गई है। वहीं कुछ ऐसे न्यायाधीश भी हैं जिनकी अदालतों से निकलते समय वादी को जीत मिलने के बाद भी किस्मत का साथ मिलने से राहत का भाव रहता है, न कि जीत का हकदार होने के नाते संतोष का भाव होता है। यह सब इसलिए होता है कि इस न्यायिक व्यवस्था को चलाने वाले इंसान ही होते हैं।
जहां भी इंसान काम करते हैं वहां विचारों में अंतर होगा। कहा-सुनी हो सकती है, स्वस्थ बहस हो सकती है। एक-दूसरे पर गलत काम करने के सही एवं गलत आरोप लगाए जा सकते हैं। मानव संसाधनों पर निर्णय लेने के तरीकों में गहरा अनौचित्य हो सकता है और यह किसी भी संगठन का आवश्यक गुण है। लेकिन संगठन में विचारों के अंतर से निपटने के तरीके, विवादों के समाधान के तरीके और आरोपों के निपटान के तरीके से ही यह परिभाषित किया जाता है कि कोई संगठन संस्थान बन पाया है या नहीं।
एक संस्थान के लिए दीर्घकालिक विश्वसनीयता बनाए रखने के लिए यह जरूरी है कि वह अपने लोगों और उसके पास आने वाले लोगों से कैसा बरताव करता है। मत भिन्नता को सेंसर कर देना या आवाज उठाने वाले को प्रताडि़त करना संस्थान में तब्दील नहीं हो पाए किसी भी संगठन के लिए आसान हो सकता है। लेकिन एक वास्तविक संस्थान असहमति, विचारों में भिन्नता को जगह देगा और उसके प्रति पारदर्शिता बरतेगा। अमेरिकी सुप्रीम कोर्ट के न्यायमूर्ति जिंसबर्ग और न्यायमूर्ति स्केलिया के विचार एक-दूसरे से काफी अलग थे- एक लिबरल तो दूसरे कंजर्वेटिव मत के थे। लेकिन दोनों काफी अच्छे दोस्त थे और अपने फैसलों से न्याय एवं कानून के प्रति अपने नजरिये में इस फर्क को जगह भी दी।
अब हमारे देश की एक और संवैधानिक संस्था चुनाव आयोग का रुख करते हैं जिस पर समूची निर्वाचन प्रक्रिया के संचालन का दायित्व होता है। हमें अब मालूम है कि चुनाव आयोग के एक आयुक्त आयोग के हालिया फैसलों से असहमति जता चुके हैं लेकिन बाकी दो आयुक्त तकनीकी एवं आभासी तर्कों के आधार पर बहुमत से फैसले सुनाकर असहमति की इस आवाज को दबाने में लगे हुए हैं। उनकी दलील यह है कि ये फैसले केवल प्रशासनिक प्रकृति के हैं।
सही एवं गलत को लेकर चुनाव आयोग के विचारों को चाहे जितने अलग रूप में देखा जाए लेकिन चुनावों के निर्विघ्न संचालन के लिए वे अहम हैं। चुनाव संपन्न होंगे और उसके नतीजे को मोटे तौर पर पूरा समाज मान्यता देगा (हालांकि इसके कुछ फैसलों को चुनौती भी दी जाएगी)। लेकिन मतदान खत्म होने पर समूचे देश को स्वतंत्र एवं निष्पक्ष चुनाव का अहसास दिलाने के लिए यह विश्वसनीयता जरूरी होगी कि क्या चुनाव आयोग महज एक संगठन की तरह चुनावों का संचालन करता रहा या यह एक ऐसा संस्थान रहा जिसने मतदाताओं को अपने भाग्यविधाता के बारे में फैसला करने लायक चुनावी प्रक्रिया के संचालन का पुनीत पवित्र कार्य पूरा किया? उच्चतम न्यायालय को सिर्फ ऐसे संगठन के रूप में नहीं देखा जाना चाहिए जहां विवादों पर अंतिम एवं आखिरी अपील पर सुनवाई की जाती है। इसके बजाय उसे ऐसे संस्थान के रूप में दिखाई देना चाहिए जो इंसाफ देने के पुनीत कार्य का संचालन कर रहा है।
Date:17-05-19
अमेरिका-चीन व्यापार युद्ध से भारत को खतरा
विदेश में न बिके स्टील का भारतीय बाजार में सैलाब ला सकता है चीन
वस्वती कुमारी , ( बीजिंग में बीस साल से रह रहीं चीनी मामलों की जानकार )
अमेरिका और चीन कटु व्यापार युद्ध में उलझकर एक-दूसरे के सामानों पर दंडात्मक शुल्क लगा रहे हैं। दुनिया की नंबर एक और नंबर दो अर्थव्यवस्थाओं में युद्ध से वैश्विक बिज़नेस में उथल-पुथल मची है। क्या इस व्यापार युद्ध से भारतीय अर्थव्यवस्था को फायदा मिलेगा या यह इससे इतना नुकसान होगा कि बड़े पैमाने पर बेरोजगारी पैदा होगी? यह एक बड़ा सवाल है। चुनावी लड़ाई में व्यस्त मोदी सरकार ने इस पर ज्यादा ध्यान नहीं दिया है। सरकारी नौकरशाह इस नई स्थिति से निपटने के लिए आवश्यक महत्वपूर्ण फैसले टाल रहे हैं। महिन्द्रा समूह के चेयरमैन आनंद महिन्द्रा ने बुधवार को यह कहकर उम्मीद बढ़ाने की कोशिश की कि अमेरिका-चीन व्यापार युद्ध चीनी निवेशकों को भारत में पैसा लगाने के लिए प्रोत्साहित करेगा। चीनी कंपनियां ऐसी चीजें बनाना चाहेंगी, जिन पर ‘मेड इन इंडिया’ का टैग लगा हो ताकि वे अमेरिका में ऊंचे टैक्स से बच सकें, जो उन्हें चीन से भेजने पर लगता है।
जमीनी हकीकत है : अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रम्प ने 200 अरब डॉलर के चीनी सामान पर शुल्क 10 फीसदी से बढ़ाकर 25 फीसदी कर दिया है। बदले में चीन ने 60 अरब डॉलर के अमेरिकी सामान पर टैक्स बढ़ा दिया है। नतीजा यह है कि दोनों देशों के प्रोडक्ट एक-दूसरे के देशों में महंगे हो गए हैं। विवाद दस माह पहले उभरा था, जब ट्रम्प ने चीन द्वारा अमेरिका से खरीद की तुलना में उसे कहीं ज्यादा बिक्री करने के कारण उत्पन्न व्यापार घाटे के खिलाफ कदम उठाने का निर्णय लिया। यही स्थिति भारत-चीन व्यापार की भी है। भारत में विदेशी निवेश बढ़ने की उज्ज्वल संभावनाओं से उत्साहित होना आसान है लेकिन, वास्तविकता अपेक्षाओं के अनुरूप नहीं है। यहां तक कि महिन्द्रा भी जमीनी हकीकत बताने की बजाय सिर्फ अपने उत्पादों के मार्केट की बात कर रहे होंगे।
चीनी कंपनियों ने अपनी फैक्ट्रियां पड़ोसी देशों में ले जाने का काम तीन साल पहले शुरू कर दिया था और इसका व्यापार युद्ध से कोई संबंध नहीं है। श्रम दरें बढ़ने, प्रॉपर्टी महंगी होने और प्रदूषण फैलाने वाली कंपनियों के खिलाफ चीन सरकार की कार्रवाई ने उत्पादन लागत बढ़ा दी है। लेकिन, वियतनाम और कुछ हद तक इंडोनेशिया और मलेशिया ज्यादातर चीनी निवेश आकर्षित करने में कामयाब रहे, क्योंकि वे न सिर्फ चीन के करीब हैं बल्कि जमीन से जुड़े हैं तथा कुछ हद तक उनमें सांस्कृतिक व खान-पान की आदतों में समानता है।
भारत में बहुत कम चीनी निवेश आया, क्योंकि यह सांस्कृतिक व भौगोलिक रूप से चीन से दूर है। फिर दोनों देशों में अत्यधिक राजनीतिक अविश्वास है। केवल मोबाइल फोन के क्षेत्र में ही चीनी कंपनियां ने बड़े पैमाने पर प्रवेश किया है और वह इसलिए कि भारत में इसके लिए 1 अरब डॉलर का बाजार है। कंसल्टिंग फर्म आईडीसी की ताजा रिसर्च बताती है कि भारतीय स्मार्ट फोन बाजार पर चीनी कंपनियों का कब्जा है, जिसमें शियाओमी 2018 में 28.9 फीसदी हिस्सेदारी के साथ सबसे आगे थी। इसे बाद 22.4 फीसदी के साथ सैमसंग है और 10 फीसदी के साथ एक अन्य चीनी कंपनी विवो है। कई वर्षों तक भारतीय बाजार पर प्रभुत्व रखने वाली सैमसंग सालभर पहले शियाओमी से पिछड़ गई। एक अन्य रिसर्च फर्म ई एंड वाई का पूर्वानुमान है कि 2019 में भारत में स्मार्टफोन के यूज़र 37.3 करोड़ और 2022 तक 44.2 करोड़ हो जाएगी, जो 2018 की तुलना में 34 करोड़ अधिक होंगे। मोबाइल डिवाइस पर भारत का 20 फीसदी का ऊंचा आयात शुल्क आई फोन को दुनिया में सबसे महंगा बना देता है। यही वजह है कि यहां बाजार में एपल की हिस्सेदारी सिर्फ 1 फीसदी है। स्थानीय उत्पादन करने से आई-फोन 20 फीसदी शुल्क से बच सकता है।
दूसरा पक्ष : स्मार्ट फोन सेक्टर में चीनी निवेश आकर्षित करने के लिए खुद की पीठ थपथपाने का कोई मतलब नहीं है। यह सिर्फ उस कानून के कारण है, जो ‘मेक इन इंडिया’ नीति के तहत आयातीत फोन व इसके कल-पुर्जों पर ऊंचा शुल्क लगाता है और भारत में उत्पादन के लिए टैक्स छूट देता है। भारत को ऐसा विदेशी निवेश चाहिए, जो या तो नई टेक्नोलॉजी लाए अथवा देश का इस्तेमाल बड़े पैमाने पर उत्पादन के लिए आधार के रूप में करे। टैक्स का फायदा लेकर जो कंपनियां भारतीय बाजार का दोहन कर रही हैं वे संभावित भारतीय निर्माताओं की राह रोक रही हैं। भारतीय कंपनियां भी दोषी हैं, अवसर आने पर उन्हें भुनाती नहीं हैं और विदेशी माल को बाजार पर हावी होने देती हैं। भारतीय कंपनियां अपने फाइनेंशियल सरप्लस का उपयोग उत्पादन क्षमता बढ़ाने में करने की बजाय शेयर व प्रॉपर्टी बाजार में निवेश के लिए करती हैं। जब स्थानीय आंत्रप्रेन्योर पर्याप्त निवेश कर भारतीय बाजार में भरोसा नहीं दिखाते तो, विदेशी निवेशक के लिए यह बहुत कठिन हो जाता है। सच तो यह है कि अमेरिका-चीन व्यापार युद्ध का भारत पर गंभीर विपरीत प्रभाव पड़ सकता है। ताजा टैक्स के कारण अमेरिकी व पश्चिमी दुनिया में चीनी माल का बाजार सिकुड़ेगा। अब संभावना है कि चीनी निर्माता वे प्रोडक्ट अत्यधिक कम कीमतों पर भारतीय बाजार में डम्प करेंगे और ऊंचे टैक्स के बाद भी उन्हें सफलतापूर्वक बेच सकेंगे, क्योंकि भारतीय उत्पादक गुणवत्ता, मात्रा और कीमत के स्तर पर चीनी कंपनियों का सामना नहीं कर पाते। सीधी सी बात है कि भारतीय बिज़नेस ने चीनी उत्पादों की मार का सामना करने के लिए खुद को तैयार नहीं किया है। औद्योगिक क्षेत्रों में एक आशंका यह व्यक्त की जा रही है कि चीन भारत में कम कीमत पर अपने अतिरिक्त स्टील का सैलाब ला सकता है, जिससे भारतीय कंपनियों के सामने बड़ी समस्याएं पैदा हो जाएंगी। अमेरिका द्वारा चीनी स्टील उत्पादों पर शुल्क बढ़ाना इसकी वजह है।
भारतीय स्टील उद्योग ने केंद्र से चीनी स्टील पर ड्यूटी 25 फीसदी तक बढ़ाने की गुहार लगाई है ताकि बढ़ते आयात से इसका बचाव किया जा सके। सूत्रों के मुताबिक चीन में स्टील उत्पादन की अतिरिक्त क्षमता है और चिंता यह है कि वह इसे वियतनाम और कंबोडिया जैसे देशों के जरिये भारत में भेज सकता है। चीन के अलावा जापान व दक्षिण कोरिया जैसे अमेरिका, यूरोप और कनाडा के प्रमुख निर्यातक देशों ने भी अपने बिना बिके स्टील उत्पाद भारत भेजने शुरू कर दिए हैं।
Date:16-05-19
सेना की चिंता
संपादकीय
सेना को बेहद घटिया किस्म का गोला-बारूद मिलने की जो शिकायतें सामने आई हैं, वे चौंकाने वाली हैं। इससे इस बात का अंदाजा आसानी से लगाया जा सकता है कि मोर्चे पर हमारे जवानों को कैसे मुश्किल हालात का सामना करना पड़ता होगा। यह गोला-बारूद अगर निजी कंपनियों में बन रहा होता या किसी दूसरे देश से खरीदा गया होता तो एकबारगी लगता कि इसमें गड़बड़ी हो रही होगी और मुनाफा कमाने के चक्कर में ऐसा खेल चल रहा होगा। लेकिन चिंताजनक बात यह है कि खराब गुणवत्ता वाला गोला-बारूद हमारी ही सरकारी फैक्ट्रियों में बन रहा है। सेना के लिए छोटे हथियार, उपकरण और गोला-बारूद आॅर्डनेंस फैक्टरी बोर्ड (ओएफबी) के तहत चलने वाले कारखाने बनाते हैं। ओएफबी रक्षा मंत्रालय के रक्षा उत्पादन विभाग के अंतर्गत आता है। यह मामला तब प्रकाश में आया जब पिछले कुछ सालों में इसकी वजह से टैंकों और बंदूकों में विस्फोट की कई घटनाएं सामने आर्इं। अपने ही जवानों को घटिया गोला-बारूद देकर हम देश की सुरक्षा से तो खिलवाड़ कर ही रहे हैं, जवानों की जान भी जोखिम में डाल रहे हैं।
सवाल है कि आखिर रक्षा मंत्रालय की फैक्ट्रियों में घटिया गुणवत्ता वाला सामान कैसे बन रहा है, खासतौर से गोला-बारूद, जिसका इस्तेमाल दुश्मन से मोर्चा लेते वक्त किया जाना हो। सेना में इस्तेमाल होने वाले ज्यादातर उपकरण, वाहन, हथियार आदि सरकार के तहत ही चलने वाली फैक्ट्रियों में इसलिए बनाए जाते हैं ताकि उनकी गुणवत्ता से कोई समझौता न हो सके। इनके लिए बजट भी भरपूर होता है। फिर भी अगर कोई सामान घटिया गुणवत्ता वाला बन रहा है तो यह गंभीर बात है। यह सीधे-सीधे राष्ट्रीय सुरक्षा से जुड़ा मामला है। इससे तो यही आभास होता है कि हमारे आयुध कारखाने भी भ्रष्टाचार का अड्डा बन गए हैं। आखिर ऐसी क्या मजबूरी है कि गोला-बारूद तक में गुणवत्ता से समझौता किया जा रहा है। भारतीय सेना को गोला बारूद की आपूर्ति सेना के गुणवत्ता नियंत्रण महानिदेशालय से गहन जांच के बाद की जाती है। गोला-बारूद बनाने में इस्तेमाल होने वाले सभी पदार्थों की अधिकृत प्रयोगशालाओं में जांच की जाती है। सेना को दिए जाने से पहले इनके विशेष परीक्षण भी किए जाते हैं। गुणवत्ता नियंत्रण की इतनी लंबी प्रक्रिया के बाद भी अगर घटिया सामान सेना को मिलता है, तो निश्चित ही यह गंभीर मामला है और इसकी जांच होनी चाहिए।
सेना ने रक्षा मंत्रालय को बताया है कि खराब गोला-बारूद से टी-72, टी-90 और अर्जुन टैंक और बंदूकों में किस तरह से हादसे होते रहे हैं। इस तरह की बढ़ती घटनाओं की कीमत सेना को अपने अधिकारियों और जवानों की जान के रूप में चुकानी पड़ती है। सैनिकों के लिए गोला-बारूद ही एक तरह से पहला हथियार होते हैं। मोर्चे पर टैंकों और बंदूकों में गोला-बारूद ही इस्तेमाल होता है। ऐसे में अगर जवानों को देश की ही फैक्ट्रियों में बना खराब सामान मिलेगा तो मोर्चे पर कैसे टिक पाएंगे, यह किसी ने नहीं सोचा। यह देश के सैन्य साजोसामान बनाने वाले प्रतिष्ठानों की साख पर प्रश्नचिह्न है। गुणवत्ता के प्रति ऐसी गंभीर लापरवाही कहीं न कहीं संदेह तो पैदा करती है। ओएफबी ने तो इससे पल्ला झाड़ते हुए कह दिया कि हम बढ़िया गुणवत्ता वाला गोला-बारूद सेना को देते हैं, लेकिन वह इसका रखरखाव कैसे करती है, यह उसे देखना है। लेकिन सेना ने इस मामले को जितनी गंभीरता से लिया है, वह हमारे आयुध कारखानों को संचालित करने वाले तंत्र को कठघरे में खड़ा करता है। भारत को पाकिस्तान और चीन जैसे देशों से जिस तरह की चुनौतियों का सामना करना पड़ रहा है, उसे देखते हुए सरकार को इस मामले में तत्काल कदम उठाना चाहिए।
Date:16-05-19
Remember This Iconic Iconclast
Abhijit Gupta , [The writer is professor, Department of English, Jadavpur University, Kolkata]
Within a few months’ time, the bicentenary celebrations of the birth of social reformer, educationist, polymath, translator, printer & publisher Ishwarchandra Vidyasagar would have begun. By a strange twist of fate, the bicentennial has begun early. Since Tuesday, Vidyasagar — scandalously little known outside Bengal — is everywhere.
There is a measure of irony in the fact that Tuesday’s assault on the memory of Vidyasagar in Kolkata —when in the clash between Trinamool Congress and BJP workers during BJP president Amit Shah’s roadshow a bust of the man was broken in the college bearing his name — came from the Hindu Right. All his life, Vidyasagar had fought, virtually alone, against the might of Hindu obscurantism in the 19th century. Given the intensity and virulence of the opposition he faced, one suspects he would have swatted Tuesday evening’s vandals like mosquitoes.
Why and how should we remember Vidyasagar? Of all his efforts, the institution of widow remarriage through an Act of 1856 still seems hard to wrap our heads around — how did one person manage to prevail against the combined might of the traditional Hindu samaj? In order to seek religious sanction for widow remarriage, Vidyasagar had to dig deep into scriptures, engage anti-reformist pundits in debate, and write two Bengali pamphlets that instantly became bestsellers.
The first, ‘Should widow remarriage be instituted’ came out in January 1855, and according to Vidyasagar’s elder brother Sambhuchandra, sold 2,000 copies in a week! The second pamphlet came out in October that year, and in between, there was a slew of counter-pamphlets by a galaxy of pundits of the day. The question of widow remarriage did not remain confined to Bengal. When the widow remarriage Bill was placed at the legislative council in November 1855, there were petitions from all over India both for and against the Bill. Support for the Bill came from Brahmins from Secunderabad and 46 inhabitants of Pune, while the pundits in the southern peninsula were sharply divided on the question. In January 1856, a petition opposing the Bill bearing nearly 37,000 signatures was submitted to the government.
Nevertheless, Vidyasagar prevailed, and the Widow Remarriage Act was passed on July 26, 1856. The first such marriage took place in Calcutta on December 7 that year, followed by another in Panihati village the following day. During this time, there were fears of attacks on Vidyasagar, and his father sent a skilled lathiyal — adept in using the lathi as a weapon — from Birsingha village in today’s West Midnapur district to act as his bodyguard. On at least one occasion, an imminent attack was foiled owing to the presence of this Srimanta Sardar.
The other social reform Vidyasagar attempted was the abolition of polygamy among kulin Brahmins. In this, he was part of a larger movement and though the movement did not result in legislation, its social impact was considerable.
If social reform marked the latter half of Vidyasagar’s life, his early career was marked by his reforms in education, and modernisation of Bengali printing. It is impossible to summarise his innovations in the field of education, but modern-day educators in Bengal may be thrilled to know that the class routine and weekly off day were introduced by Vidyasagar. He taught variously at Sanskrit College, Fort William College, and founded the Metropolitan Institution in 1872 almost entirely on his own steam, an incredible feat of persistence and stubbornness in the teeth of ridicule and indifference. This college, later known as Vidyasagar College, was vandalised on Tuesday evening.
All the while Vidyasagar wrote a number of textbooks that are used to this day. His Bengali primer, the two-part Barnaparichay (Introducing the Alphabet) is legion. But he also wrote student-friendly Sanskrit grammars, translated the Betal Pachisee, tales of King Vikramaditya and the Betal, from Sanskrit into Bengali, simplified the Sanskrit epics for pedagogy, translated histories and biographies, and also found time to adapt William Shakespeare’s The Comedy of Errors into Bengali as Bhranti Bilas (The Illusion of Illusion).
His prodigious output necessitated that he turn publisher as well, and in this avatar, he became the first person to standardise the hitherto erratic Bengali orthography and typography. Book historians have only recently begun to measure his role in modernising Bengali printhouse practice.
In popular memory, Vidyasagar has unfortunately been reduced to a number of tall tales that are mostly apocryphal. But there is one story that has a certain resonance. While he was principal of Sanskrit College between 1851and 1858, his students would often fight with students of Hindu College across the street, throwing missiles at one other.Sometimes, the fights would become so bloody that the police had to be called. Vidyasagar would reportedly watch the fight from the balcony, often taking a keen interest in which side won before finally intervening.
If there is a silver lining to Tuesday evening’s events, it is in reminding us about Vidyasagar’s extraordinary modernising efforts, and his radical interventions on behalf of women. If we choose to remember him well, then Tuesday night’s events, however shameful, will have served a purpose.