25-04-2019 (Important News Clippings)

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25 Apr 2019
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Date:25-04-19

खाते में खाद सब्सिडी

संपादकीय

उर्वरक सब्सिडी की राशि सीधे किसानों के खाते में डालने के लिए एक व्यवस्था बनाने के इरादे से वित्त मंत्रालय और नीति आयोग की साझा पहल एक स्वागत-योग्य कदम है जिससे कई उद्देश्य हासिल किए जा सकते हैं। लेकिन दूसरी तरह की सब्सिडी के प्रत्यक्ष लाभ अंतरण (डीबीटी) की तुलना में यह अधिक जटिल है। दरअसल उर्वरक की किस्में हर किसान और फसल के लिए एक जैसी नहीं होती हैं और इनके बारे में अलग से कोई आंकड़ा भी उपलब्ध नहीं है, लिहाजा हरेक किसान को दी जाने वाली सब्सिडी तय कर पाना मुश्किल है। ऐसी मीडिया रिपोर्ट आई हैं कि वित्त मंत्रालय शायद पीएम-किसान आय समर्थन योजना के लिए तैयार आंकड़ों का इस्तेमाल करने की सोच रहा है। अगर वाकई में ऐसा है तो फिर उसे दोबारा सोचना चाहिए। उर्वरक डीबीटी के लिए ये आंकड़े पर्याप्त नहीं हैं क्योंकि पीएम-किसान योजना में केवल छोटे एवं सीमांत भू-स्वामियों को शामिल किया गया है और बंटाई एवं पट्टे पर खेती करने वालों को उसमें जगह नहीं मिली है। सबसे बड़ी पहेली यह है कि इसमें खेती नहीं करने वाले अनुपस्थित भूस्वामियों को भी लाभ देने का प्रावधान है।

हालांकि मंत्रालय के पास नई व्यवस्था का खाका तैयार करने के लिए कुछ वक्त है। असल में, आम चुनाव के बाद बनने वाली नई सरकार ही इस नई व्यवस्था को स्वीकृति दे सकती है और उसे लागू कर सकती है। अहम मुद्दा यह है कि भूमि-स्वामित्व से इतर वास्तव में खेती करने वाले किसानों की पहचान की जाए और उर्वरक क्षेत्र के सभी हितधारकों को स्वीकार्य एक गैर-विभेदकारी डीबीटी प्रणाली बनाई जाए। वर्तमान समय में किसानों को उर्वरक घटी हुई दरों पर बेचा जाता है और उनके वास्तविक मूल्य पर दी गई सब्सिडी की राशि उर्वरक कंपनियों के खाते में जमा कर दी जाती है। इसकी शिनाख्त के लिए खाद के सभी खुदरा बिक्री केंद्रों पर खास उपकरण लगाए हुए हैं। लाभार्थी किसानों की पहचान सुनिश्चित करने के लिए आधार कार्ड का इस्तेमाल किया जाता है। हालांकि यह व्यवस्था राज्य प्रशासन और अन्य मध्यवर्तियों को बाइपास भी करती है। भले ही इसे डीबीटी की तरह मान्यता दी जाती है लेकिन उसके साथ कई अड़चनें भी जुड़ी हुई हैं। उर्वरक उद्योग को सब्सिडी भुगतान में होने वाली देरी और सब्सिडी वाली खाद को फिर से रसायन उद्योग और तस्करी के जरिये पड़ोसी देशों में भेजने जैसी समस्याएं भी रही हैं।

सीधे किसानों के बैंक खातों में उर्वरक सब्सिडी जमा करना कई मायनों में बेहतर विकल्प है। सब्सिडी वाली खाद के गैर-कृषि कार्यों में इस्तेमाल रोकने के अलावा डीबीटी यूरिया का अतिशय इस्तेमाल करने की प्रवृत्ति पर भी रोक लगाएगा जिससे पौधों को अधिक पोषक-तत्त्व देने वाले संतुलित उर्वरक संरचना को प्रोत्साहन मिलेगा। अधिक यूरिया से मिट्टी की उर्वरता कम होने के अलावा पर्यावरण एवं भूजल दूषित भी होता है। इसके अलावा बाजार दर पर उर्वरकों की बिक्री होने से इस उद्योग में प्रतिस्पद्र्धा को भी बढ़ावा मिलेगा। इससे उर्वरक उत्पादक किसानों की जरूरतों को पूरा करने के लिए अपनी क्षमता बढ़ाने, लागत में कटौती और नवाचारी उत्पाद लाने के लिए प्रोत्साहित होंगे। हालांकि सब्सिडी हटाने का उलटा असर यह हो सकता है कि नकदी की कमी से परेशान छोटे एवं सीमांत किसानों की पहुंच से खाद दूर हो जाए। एक और समस्या यह है कि उर्वरक सब्सिडी के मद में भेजी गई राशि का इस्तेमाल किसान कहीं और कर ले। इस तरह उर्वरक डीबीटी की नई व्यवस्था सक्षम, संतुलित एवं फसलों की जरूरत पर आधारित उपयोग को बढ़ावा देने पर ध्यान देने वाली हो और उसमें भू-स्वामियों के अलावा पट्टे एवं बंटाई पर खेती करने वाले सभी तरह के किसानों के हितों को ध्यान में रखे। ऐसा नहीं होने पर उर्वरक डीबीटी का असली मकसद ही धराशायी हो जाएगा।


Date:25-04-19

चीनी पैंतरे को पस्त करता भारत

चीन की महत्वाकांक्षी परियोजना बीआरआई का विरोध करने के साथ भारत इससे जुड़े मुद्दों पर वैश्विक विमर्श को दिशा दे रहा है।

हर्ष वी. पंत , (लेखक लंदन स्थित किंग्स कॉलेज में इंटरनेशनल रिलेशंस के प्रोफेसर हैं)

भारत ने जब भी चीन की महत्वाकांक्षी परियोजना ‘बेल्ट एंड रोट इनिशिएटिव यानी बीआरआई पर कोई रुख अख्तियार किया है, तो ऐसा करके उसने उसे और साथ ही दुनिया को कई संदेश देने का काम किया है। चीन एक बार फिर बीआरआई से जुड़ा आधिकारिक आयोजन करने जा रहा है। इसमें शामिल होने के लिए उसने भारत को भी निमंत्रण दिया था। पहले की तरह इस बार भी भारत ने इस न्यौते को ठुकरा दिया। इससे पहले भी भारत ने चीन के इस आमंत्रण को अस्वीकार कर दिया था। नई दिल्ली ने मई 2017 में प्रथम बेल्ट एंड रोड फोरम (बीआरएफ) सम्मेलन का भी बहिष्कार किया था, जिसमें 129 देशों और कई राष्ट्राध्यक्षों ने भाग लिया था। भले ही अमेरिका, रूस, जापान, ब्रिटेन, जर्मनी और फ्रांस जैसे देशों ने उसमें भाग लिया हो, लेकिन भारत इसे लेकर अपने रुख पर मजबूती से टिका हुआ है। वह इस चीनी पहल पर अपनी आपत्तियों को जाहिर करता रहा है।

बीआरआई के माध्यम से खुद को वैश्विक शक्ति के तौर पर पेश करने की चीनी आकांक्षाओं के लिए भारत का यह रुख एक बड़ा झटका था। भारत के इनकार के बाद से चीन को ऐसे कई झटके लगे हैं जिन्होंने उसके लिए समस्याएं कई गुना बढ़ा दी हैं। चूंकि भारत ने एक बार फिर अपना विरोध जताया है तो बीजिंग भी इस पर अपने पत्ते फेंटेगा। इसके संकेत भी मिल गए हैं। चीनी सरकार के मुखपत्र ‘ग्लोबल टाइम्स ने इसका उल्लेख कुछ इस तरह किया है, ‘अगर भारत बीआरआई के तहत सहयोग से मुंह फेरता है या फिर कुछ परियोजनाओं में हस्तक्षेप करता है तो वह कई बड़ी विकास परियोजनाओं से जुड़ने का अवसर खो बैठेगा। साथ ही कई दक्षिण एशियाई देशों के साथ बेहतर जुड़ाव की उसकी योजनाओं को भी नुकसान होगा।

नई दिल्ली का हालिया निर्णय चीन के उस रुख के बाद सामने आया है, जिसमें चीन जैश-ए-मोहम्मद के सरगना मसूद अजहर को अंतरराष्ट्रीय आतंकी घोषित कराने की भारत की कोशिशों को लगातार झटका देता आया है। पिछले दिनों पुलवामा में हुए आतंकी हमले के बाद भी चीन का रुख इस मसले पर बदला नहीं। अगर वुहान वार्ता को छोड़ दिया जाए तो भारत-चीन रिश्तों के मोर्चे पर कोई बुनियादी बदलाव नहीं आया है। कुछ हालिया रपटों में यह सामने आया है कि डोकलाम पठार पर चीन अपनी स्थिति लगातार मजबूत बना रहा है। यह सरहद पर चुनौती को दर्शाता है।

जो भी हो, भारत की संप्रभुता का मूल प्रश्न बीआरआई को लगातार परेशान करता रहेगा। जैसा कि चीन में भारत के राजदूत विक्रम मिस्री ने दोहराया, ‘कोई भी देश ऐसी परियोजना से नहीं जुड़ सकता जो संप्रभुता और क्षेत्रीय अखंडता पर उसकी मुख्य चिंताओं की अनदेखी करती हो।

हालांकि बीआरआई को लेकर बाकी दुनिया को लुभाने की चीन की मुहिम लगातार जारी है, लेकिन भारत अपने रवैये पर अडिग है और उसे अडिग रहना भी चाहिए। बीआरआई संबंधी इस कार्यक्रम में करीब सौ से अधिक देश हिस्सा लेंगे। इस आयोजन में लगभग 40 देशों के राष्ट्रप्रमुखों के भी शामिल होने की उम्मीद है। पश्चिमी देशों में बीआरआई को लेकर कुछ संशय और संदेह के बावजूद अभी हाल में इटली इस परियोजना के साथ जुड़ा है। चीन ने दुनिया को यह समझाने में कामयाबी हासिल की है कि आर्थिक भूमंडलीकरण के अगले चरण के लिए बुनियादी ढांचा विकास और कनेक्टिविटी की तत्काल सख्त जरूरत है। अन्य प्रमुख शक्तियों को भी इस बात के लिए बाध्य किया गया है कि अपनी इन्फ्रास्ट्रक्चर और कनेक्टिविटी योजनाओं के लिए वे चीन की शरण में आएं। दुनिया भर में इस मोर्चे पर बहुत बड़ी मांग पैदा हो गई है और चीन इस मांग को पूरा करने की कोशिश में समर्थ दिखने वाले प्रमुख देश के रूप में उभरा है।

बहरहाल, इस राह में आने वाली बाधाओं से पार पाने में बीजिंग को कड़ी मशक्कत करनी पड़ रही है। उसमें उसका रवैया और छवि भी आड़े आ रही है। भारत अपनी संप्रभुता के आधार पर चीन की बीआरआई परियोजना का विरोध तो कर ही रहा है, इसके साथ ही वह परियोजना को लेकर वित्तीय और पर्यावरण से जुड़े मुद्दे भी उठा रहा है। ये मुद्दे भी महत्वपूर्ण हैं। कई ऐसे देश, जो शुरुआत में बड़े उत्साह के साथ बीआरआई परियोजना के साथ जुड़े, उनमें से कुछ का रुख-रवैया अब बदला हुआ है और वे भारत के सुर में सुर मिला रहे हैं।

दक्षिण-पूर्व एशियाई देशों ने हाल में चीन की इस महत्वाकांक्षी परियोजना को लेकर कर्ज के जाल में फंसने की आशंका जताई। मालदीव और श्रीलंका से लेकर मलेशिया और थाईलैंड तक तमाम देशों में चीन की कई परियोजनाओं के भविष्य को लेकर सवाल उठाए जा रहे हैं। यहां पर यह भी उल्लेखनीय है कि चीन की आर्थिक उद्दंडता पर पश्चिमी जगत भी सख्ती कर ही रहा है। जर्मन उद्योग परिसंघ ने हाल में यूरोपीय संघ से कहा है कि चीन के साथ वह सख्त शर्तों पर समझौता करे जो बाजार में उत्पादों की डंपिंग, अनिवार्य तकनीक हस्तांतरण और वित्तीय सहारा देने में असमानता जैसे संदिग्ध तौर-तरीकों का इस्तेमाल कर रहा है। बुनियादी ढांचे और कनेक्टिविटी को लेकर भारत ने कई तरह से वैश्विक विमर्श को दिशा दी है। इसमें चीनी बीआरआई के शोषणकारी स्वरूप को भी उकेरा है। अपनी संप्रभुता के मुद्दे पर बीआरआई के विरोध से परे भी भारत इस मुद्दे पर सकारात्मक विमर्श पेश करने में सफल रहा है। इस कवायद में भारत को खुद अपनी क्षमताओं से साक्षात्कार करना पड़ा है कि वह स्वयं कैसे क्षेत्रीय कनेक्टिविटी जैसे मोर्चे पर योगदान दे सकता है। अन्य देशों के साथ साझेदारी को लेकर मौलिक चिंतन के साथ ही उसे स्वयं अपना प्रदर्शन सुधारने पर मजबूर होना पड़ा है। बुनियादी ढांचे और कनेक्टिविटी को लेकर भारतीय दृष्टिकोण में नए किस्म की वह गंभीरता देखने को मिली, जिसका पहले अभाव नजर आता था। बीआरआई के विरोध के साथ ही भारत ने हिंद-प्रशांत क्षेत्र में अमेरिका, जापान और ऑस्ट्रेलिया की संयुक्त परियोजनाओं से भी समान दूरी बनाकर इस मोर्चे पर संतुलन बिठाया है। इसके बजाय भारत द्विपक्षीय साझेदारियों पर ज्यादा ध्यान केंद्रित कर रहा है। इसके लिए दक्षिण एशिया में वह जापान के साथ काम कर रहा है। भारत एशिया अफ्रीका ग्र्रोथ कॉरिडोर जैसी परियोजनाओं वाले मॉडल को तरजीह दे रहा है।

बीआरआई को लेकर शुरुआती विरोध के बावजूद भारत इससे जुड़े मुद्दों पर वैश्विक विमर्श को दिशा दे रहा है। भविष्य में यह भारतीय नीति-नियंताओं पर निर्भर करेगा कि वे चीनी परियोजनाओं पर उठते संदेह के बादलों के चलते बनने वाले अवसरों को किस तरह भुनाते हैं, ताकि भारत क्षेत्रीय कनेक्टिविटी की सुविधा उपलब्ध कराने वाले बड़े खिलाड़ी के रूप में उभर सके।


Date:25-04-19

ईरान के खिलाफ अमेरिका के कड़े रवैये से उपजी चुनौती

संपादकीय

अमेरिका ने ईरान पर परमाणु व बैलिस्टिक मिसाइल कार्यक्रम बंद करने और अंतरराष्ट्रीय समुदाय को उसका मुआयना करने देने के लिए आर्थिक प्रतिबंधों का दबाव बना रखा है। डोनाल्ड ट्रम्प ने राष्ट्रपति बनने के बाद छह देशों के सहयोग से ईरान के साथ हुआ परमाणु समझौता रद्द कर दिया था। पिछले नवंबर में उसने भारत और चीन सहित अपने छह मित्र देशों को ईरान से तेल आयात करने की छह माह की रियायत दी थी। मई की शुरुआत में वह मियाद खत्म हो रही है। इस बार अमेरिका कोई रियायत देने के मूड में नहीं है, क्योंकि अब वह ईरान में आर्थिक व राजनीतिक विरोधाभास खड़े करके किसी समझौते पर पहुंचने की बजाय उसे आर्थिक रूप से मजबूर बनाकर सत्ता बदलने का इरादा रखता है। इसने भारत के सामने आर्थिक चुनौती पेश कर दी है। देश आवश्यकता का 80 फीसदी कच्चा तेल आयात करता है। इसमें से 10 फीसदी कच्चे तेल के लिए वह ईरान पर निर्भर है। इस कमी की पूर्ति के लिए उसे अमेरिका से मदद देने को कहना होगा और हाल ही में संयुक्त अरब अमीरात व सऊदी अरब से संबंधों में आई गर्मजोशी का फायदा उठाना होगा। हालांकि, खाड़ी के देशों व अमेरिका ने उत्पादन बढ़ा दिया है पर ईरानी तेल के अभाव में तेल मूल्यों में वृद्धि से इनकार नहीं किया जा सकता।

यदि 1 डॉलर की वृद्धि भी होती है तो भारत पर करीब 11 हजार करोड़ रुपए का अतिरिक्त भार बढ़ जाता है। इससे देश के चालू खाते पर दबाव बढ़ जाएगा। तेल के अलावा ईरान में भारत के अन्य भी हित हैं। वह ईरान में चाबहार बंदरगाह विकसित कर रहा है, जिससे वह अफगानिस्तान के अलावा मध्यपूर्व से अपना व्यापार बढ़ाना चाहता है। अमेरिका ने अभी इसे मानवीय आधार पर मान्यता दी है पर उसका इरादा कब बदलेगा, कह नहीं सकते। भारत के लिए ईरान के साथ खड़े होकर अमेरिका व खाड़ी के देशों के विरुद्ध जाना संभव नहीं है। सारा अंतरराष्ट्रीय व्यापार अमेरिकी बैंक चैनलों के जरिये डॉलर से होता है। जो देश अमेरिकी प्रतिबंधों को नहीं मानेगा, वह इन चैनलों का इस्तेमाल नहीं कर सकता। इससे भारत की आर्थिक मुश्किलें और बढ़ जाएंगी। चीन सहित अन्य देशों के सामने भी यह चुनौती है। इस तरह भारत को ईरान और अमेरिका दोनों की जरूरत है। फिलहाल भारत ने कड़ी प्रतिक्रिया न देकर दोनों देशों को साधने का प्रयास किया है।


Date:24-04-19

आयोग पर आरोप के बजाय दो दशक से पेंडिंग 40 सुधारों पर बात हो

एस वाई कुरैशी , पूर्व मुख्य चुनाव आयुक्त

आचार संहिता के उल्लंघन और दलों व प्रत्याशियों के अवैधानिक आचरण में अप्रत्याशित बढ़ोतरी से चुनाव आयोग खुद जांच के घेरे में आ गया है। हालांकि आयोग अपनी संवैधानिक शक्तियों का दृढ़तापूर्वक इस्तेमाल कर रहा है। उसने योगी आदित्यनाथ, आजम खान, मायावती और मेनका गांधी पर 48 से 72 घंटे तक प्रचार न करने का प्रतिबंध लगाया। साध्वी प्रज्ञा और नवजोत सिंह सिद्धू को नोटिस जारी किया है। लेकिन, आयोग के पास अधिकार न होने की बात का तार्किक आधार नहीं है। सुप्रीम कोर्ट ने भी याद दिलाया है कि आयोग के पास हमेशा से अधिकार रहे हैं। जरूरत सिर्फ कड़ी कार्रवाई की है।

जैसे ही किसी नेता को नोटिस मिलता है, यह मीडिया में आ जाता है। नेता चुनाव आचार संहिता के तहत प्रतिबंधित किए जाने से भयभीत रहते हैं। ऐतिहासिक तौर पर देखा जाए तो शर्मनाक प्रभाव की वजह से सीनियर नेताओं के लिए तो एडवाइजरी भी काफी रहती है और यह किसी भी कानूनी प्रतिबंध से अधिक काम करती है। कुछ लोग देरी से कार्रवाई पर आयोग को घेरते रहते हैं। क्या आयोग ने तत्काल कार्रवाई की? अभी यह सवाल नहीं है।

महत्वपूर्ण यह है कि मुख्य चुनाव आयुक्त और चुनाव आयुक्तों की नियुक्ति के तरीके की वजह से आयोग पर पहले भी कई बार सरकार के प्रति नरम रहने का आरोप लगता रहा है। आयोग की विश्वसनीयता और उसके बारे में लोगों की राय बदलने के लिए मुख्य चुनाव आयुक्त और चुनाव आयुक्तों की नियुक्ति के लिए कॉलेजियम की जरूरत का मुद्दा लटका हुआ है। प्रधानमंत्री, विपक्ष के नेता और मुख्य न्यायाधीश के प्रतिनिधित्व वाला कॉलेजियम ही इसे आगे ले जाएगा। लॉ कमीशन की 255वीं रिपोर्ट समेत पूर्व चुनाव आयुक्तों और लालकृष्ण आडवाणी जैसे नेताओं ने भी इसका समर्थन किया है।

नियुक्ति के साथ ही चुनाव आयुक्तों को हटाने की प्रक्रिया की भी समीक्षा की जरूरत है। मुख्य चुनाव आयुक्त को महाभियोग के अलावा नहीं हटाया जा सकता। आयोग को तीन सदस्यीय बनाना अब तक का सबसे अच्छा सुधार था। लेकिन, वरिष्ठता के आधार पर पदोन्नति न हाेने से वे सरकार पर निर्भर हो गए। सरकार एक अख्खड़ मुख्य चुनाव आयुक्त पर बाकी दो आयुक्तों के बराबर के वोटिंग अधिकार के जरिए नियंत्रण रख सकती है। लोगों को एक सदस्यीय आयोग का समय याद ही होगा। तीनों आयुक्तों को समान प्रोटेक्शन होनी चाहिए, क्योंकि वे संयुक्त रूप से आयोग का प्रतिनिधित्व करते हैं।

इस सबसे इतर एक अन्य प्रमुख मुद्दा है कागजी राजनीतिक दल। देश मेें इस समय 2300 राजनीतिक दल हैं। इनमें बड़ी संख्या फर्जी या कागजी दलों की है। ये कागजी दल केवल मनी लॉन्ड्रिंग के उद्देश्य से बनाए गए है। यह इसलिए है, क्योंकि पार्टियों को रजिस्टर करने वाले आयोग के पास उन्हें डी-रजिस्टर करने का अधिकार नहीं है। आयोग की इस अधिकार की मांग को सुना नहीं जा रहा।

यह अत्यंत ही दुभाग्यपूर्ण है कि नेताओं के असभ्य और अवैधानिक व्यवहार की जगह चुनाव आयोग चर्चा का हॉट टॉपिक बना हुआ है। आयोग पर आरोप लगाने की जगह दो दशकों से लंबित 40 चुनाव सुधारों पर गंभीर बहस की जरूरत है। आयोग को अपनी शक्तियों के बारे में सुप्रीम कोर्ट से और किसी रिमाइंडर की जरूरत नहीं होनी चाहिए।


Date:24-04-19

ईरान पर पाबंदी और भारत की नई मुश्किलें

रंजीत कुमार , वरिष्ठ पत्रकार

अमेरिका ने ईरान पर आर्थिक प्रतिबंधों को अब पूरी ताकत से लागू करने का एलान करके भारत के लिए नई परेशानी और दुविधा खड़ी कर दी है। अमेरिकी घोषणा पर भारतीय विदेश मंत्रालय ने काफी सधी हुई प्रतिक्रिया दी है और भारतीय पेट्रोलियम मंत्रालय ने भरोसा दिया है कि भारतीय तेल शोधक कारखानों को कच्चे तेल की समुचित सप्लाई दूसरे देशों से होती रहेगी। अमेरिका ने यह प्रतिबंध एकपक्षीय तौर पर लागू किया है और भारत ने हमेशा कहा है कि वह केवल संयुक्त राष्ट्र द्वारा लागू प्रतिबंधों को ही मानता है, लेकिन ईरान पर अमेरिकी प्रतिबंधों का पालन करने को भारत ,चीन सहित अन्य देश इसलिए बाध्य हैं कि अंतरराष्ट्रीय बैंकिंग लेन-देन अमेरिकी बैंकिंग चैनलों के जरिए ही होते हैं और जो देश अमेरिकी प्रतिबंधों का आदर नहीं करेंगे, वे अमेरिकी बैंकिंग चैनलों का इस्तेमाल नहीं कर सकेंगे। इसका असर यह होगा कि भारत को अंतरराष्ट्रीय व्यापार में भारी दिक्कतें होंगी, क्योंकि ज्यादातर व्यापार अमेरिकी डॉलर में ही होता है। यूरोपीय संघ ने अमेरिकी प्रतिबंधों से बचने के लिए अपनी मुद्रा यूरो के लिए एक नया वैकल्पिक बैंकिंग चैनल खोलने का एलान किया था, लेकिन वह अब तक चलन में नहीं आया है। यूरोपीय संघ ने पिछले साल ईरान पर लगे अमेरिकी प्रतिबंधों का विरोध किया था और कहा था कि यूरोपीय कंपनियों को ईरान से लेन-देन करने की पूरी छूट होगी। लेकिन अब अमेरिकी प्रशासन द्वारा अपने प्रतिबंधों में कुछ देशों के लिए दी गई छूट को वापस लेने के बाद यूरोपीय कंपनियों के लिए भी ईरान से लेन-देन करना मुश्किल हो जाएगा, क्योंकि उनके सामने भी अमेरिका से रिश्ते बनाए रखने की मजबूरी है।

प्रतिबंध का तर्क यह है कि ईरान अपने परमाणु और बैलिस्टिक मिसाइल कार्यक्रम को पूरी तरह बंद कर दे और इसके निरीक्षण की अनुमति अंतरराष्ट्रीय समुदाय, यानी अमेरिका को दे। इसके पहले अमेरिका ने ईरान की सेना रिवॉल्युशनरी गार्ड को आतंकवादी करार देकर अपना दवाब बढ़ाया था और ईरान ने इस पर काफी तीखी प्रतिक्रिया जाहिर की थी। राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप ने सत्ता संभालते ही ईरान के साथ अमेरिकी अगुवाई में छह देशों के परमाणु समझौते को रद्द करने का एलान किया था, हालांकि इसके मुख्य साझीदार यूरोपीय संघ ने इसका विरोध किया था। पर अमेरिका अपनी आर्थिक ताकत के बल पर ईरान पर लगाए एकपक्षीय प्रतिबंध को अंतरराष्ट्रीय प्रतिबंध में तब्दील करवाने में सफल हो गया, क्योंकि कोई देश अमेरिकी बैंकिंग सिस्टम को नजरंदाज कर दूसरे देशों से व्यापारिक लेन-देन नहीं कर सकता।

भारत अपनी सालाना पेट्रोलियम जरूरतों का दस प्रतिशत ईरान से आयात करता रहा है, पर पिछले साल जब अमेरिकी प्रशासन ने ईरान पर प्रतिबंध लगाने का एलान किया था, तब भारत सहित सात देशों को कुछ छूट दी गई थी। एक बड़ी दुविधा यह है कि ईरान से भारत के रिश्ते सिर्फ तेल आयात के ही नहीं हैं। भारत ने ईरान के चाबहार बंदरगाह का विकास किया है, जिसका इस्तेमाल वह अफगानिस्तान के अलावा मध्य एशिया के देशों के साथ व्यापार के लिए करना चाहता है। फिलहाल अमेरिका ने चाबहार को लेकर मानवीय आधार पर कुछ छूट दी है, लेकिन देखना होगा कि आगे इस बारे में अमेरिका का क्या रुख होता है।

भारत और ईरान के ऐतिहासिक रिश्ते रहे हैं और मध्य एशिया के साथ रिश्तों को व्यापक आधार देने के इरादे से भारत और ईरान के रिश्तों की विशेष अहमियत है। इसलिए मोदी सरकार ने भी ईरान के साथ रिश्तों को मजबूत बनाने पर जोर दिया है, लेकिन अमेरिका के साथ भी भारत के सामरिक रिश्ते कम अहमियत नहीं रखते। भारत को ईरान और अमेरिका, दोनों की जरूरत है, इसलिए भारत ने कड़ी टिप्पणी करने से यह कहकर बचने की कोशिश की है कि वह अमेरिकी प्रतिबंधों का अध्ययन कर रहा है। ईरान को लेकर ट्रंप प्रशासन के कड़े रुख के बावजूद भारत ने ईरान के साथ शिखर स्तर पर बैठकें की हैं और अमेरिकी चेतावनियों को नजरंदाज किया है, पर अमेरिका ने ईरान पर ‘सिग्निफिकेंट रिडक्शन एक्सेप्सन’ यानी भारी छूट के अपवाद को वापस लेकर यह सुनिश्चित करने की कोशिश की है कि ईरान की आय पूरी तरह रुक जाए, ताकि उसकी मौजूदा सरकार अमेरिका के सामने घुटने टेकने को मजबूर हो जाए।


Date:24-04-19

Tackling Tehran

US move on Iran oil could damage India’s energy and economic security. New Delhi needs to reduce its dependency on Tehran

Editorial

Washington’s decision to end all waivers to the oil sanctions against Tehran, puts the unfolding US-Iran confrontation right at the top of the Indian diplomatic agenda in the middle of a general election. The Trump administration had given short-term waivers to some eight countries, including its allies and friends like Japan, Korea and India as well as China last November. As the US seeks to reduce oil exports of Iran to zero, many of the eight countries except China have either suspended oil purchases from Iran or plan to do so. That puts India, a major importer of Iranian oil, right in the cross-hairs of US sanctions. This is not the first time that the conflict between Washington and Tehran, dating back to the Islamic Revolution that ousted Shah of Iran from power and established a clerical regime in Iran four decades ago, has tested Indian foreign policy. India had managed to navigate the frequent crises around Iran with innovative diplomacy and much luck.

But there have been some moments when India could not simply finesse the issues involved. The last time India had to make an explicit choice was during 2005-08, when President George Bush was mounting great pressure on the Iranian nuclear programme just when he was helping end India’s prolonged international atomic isolation. Despite considerable political resistance within the ruling Congress and the UPA coalition, Prime Minister Manmohan Singh chose to put India’s own nuclear interests above the presumed obligation to defend Iran’s covert nuclear programme in the name of non-alignment.

The gathering crisis in the Gulf does not give India the lazy options of political posturing or strategic hedging, let alone the hard options of standing with Iran against the US and the Gulf Arabs. For the Trump administration is not seeking a specific negotiable outcome from the confrontation with Iran. Washington apparently wants nothing less than a regime change in Tehran. By eliminating Iran’s oil exports, President Trump hopes he can intensify the internal economic and political crisis within the Islamic Republic and hasten its demise. Trump’s plans to collapse the clerical regime in Tehran have the support of key Arab countries as well as Israel. The Islamic Republic, however, is unlikely to go down without a fight. This, in turn, promises a prolonged crisis in the Gulf that will hit the global oil markets badly. Prime Minister Narendra Modi must necessarily make some time during the election campaign to limit the potential damage to India’s energy security and economic stability. His task is two-fold: One is take up Washington on its word to help India replace oil imports from Iran. And the other is to leverage India’s improved relations with Saudi Arabia and the UAE to negotiate long-term alternatives to energy dependence on Iran.


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