16-05-2019 (Important News Clippings)

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16 May 2019
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Date:16-05-19

बुरा विचार

संपादकीय

कंपनी मामलों के केंद्रीय सचिव के हवाले से कहा जा रहा है कि चुनाव के बाद जब देश में नई सरकार बन जाएगी तो ऋणशोधन अक्षमता एवं दिवालिया संहिता (आईबीसी) में संशोधन करके इसे छोटे कर्जदारों के लिए आसान बनाया जा सकता है। जो कर्जदार एक वर्ष में 60,000 रुपये से कम कमाते हैं, जिनके पास 20,000 रुपये से कम की परिसंपत्तियां हैं और जिनका बकाया कर्ज 35,000 रुपये से कम है उन्हें खुद सचिव के शब्दों में एक किस्म की कर्जमाफी दी जा सकती है। यह कर्जमाफी किसानों, दस्तकारों और कारीगरों, छोटे उद्यमियों तथा अन्य लोगों को दी जा सकती है। यह नई योजना भी उन तमाम माफी योजनाओं में शामिल हो जाती है जिनका वादा विभिन्न राजनीतिक दल चुनाव के दौरान करते आए हैं। परंतु यह योजना पहले की गई माफी की तमाम पेशकश पर भारी पड़ सकती है।

दिवालिया के व्यक्तिगत मामलों की बात करें तो छोटे कर्जदारों की दिक्कत दूर करने में कोई समस्या नहीं है। छोटी उधारी वाले लोगों की बात करें तो उन्हें बड़े कारोबारी घरानों की तरह कठिन दिवालिया प्रक्रिया से नहीं गुजारा जाना चाहिए। अधिकारी का यह कहना भी एकदम सही है कि ऐसे छोटे-छोटे मामले आईबीसी की व्यवस्था को जाम कर सकते हैं। ऐसे में बड़े और कहीं अधिक महत्त्वपूर्ण मामलों का निस्तारण बाधित हो सकता है। इन तमाम दिक्कतों को दूर करना आवश्यक है। शायद कम आय स्तर वाले व्यक्तिगत मामलों की दिवालिया प्रक्रिया के लिए अधिक सुसंगत तरीका अपनाना होगा। हालांकि कंपनी मामलों के सचिव ने जिसे सार्वभौमिक ऋण राहत योजना का नाम दिया है वह काफी खतरनाक है। इससे वित्तीय समावेशन का पूरा आधार ही प्रभावित होगा। वित्तीय समावेशन का लक्ष्य है लोगों को उद्यमिता और व्यय के लिए अधिक से अधिक ऋण लेने के लिए प्रोत्साहित करना। बैंकों के लिए प्रोत्साहन समाप्त हो जाएगा। अधिकारी ने यह भी दावा किया कि इसकी लागत बमुश्किल 20,000 करोड़ रुपये आएगी लेकिन यह मानने की कोई वजह नहीं है कि यह राशि बढ़ेगी नहीं। ऐसे में यह सवाल पूछना उचित है कि जिन व्यक्तियों को अपने ऋण संबंधी अतीत की महत्ता का भी ठीक-ठीक ज्ञान नहीं है उनके इस ऋण इतिहास की उपयोगिता ही क्या है? अगर बकाया ऋण 35,000 रुपये से कम है तो कर्जदार को यह प्रोत्साहन मिल सकता है कि वह अपनी अतिरिक्त संपत्ति को अवैध एग्रीगेटर्स को बेच सकता है। नोटबंदी का अनुभव हमें यह बता चुका है कि बैंकों के पास ऐसे समांतर लेनदेन को रोकने का कोई ठोस तरीका नहीं है।

यह सवाल भी पूछा जाना चाहिए कि सार्वभौमिक ऋण राहत कार्यक्रम की अभी क्या आवश्यकता आ पड़ी? क्या सरकार को मुद्रा अल्प ऋण योजना के बारे में कोई ऐसी बात पता है जो सार्वजनिक रूप से उपलब्ध आंकड़ों में सामने नहीं आ रही। पिछले कुछ समय में इस श्रेणी में फंसे हुए कर्ज में इजाफा हुआ है। भविष्य में हालात और बुरे हो सकते हैं। इसमें दो राय नहीं कि छोटे कर्जदारों के लिए दिवालिया घोषित करने का बेहतर ढांचागत तरीका होना चाहिए। एक ऐसा वित्तीय तंत्र बनाने की आवश्यकता है जो ऐसे कर्जदारों तक प्रभावी तरीके से पहुंचे। इसके लिए पुनर्भुगतान का मजबूत तरीका सुनिश्चित करना होगा। ऐसी योजना में यह जोखिम भी है कि यह ऋण संबंधी अनुशासन और ऋण संस्कृति को भंग कर दे और सूक्ष्म वित्त संस्थानों के लिए संकट खड़ा करे। इससे ऋण का एक अहम स्रोत ठप हो सकता है जबकि वह कर्ज देने वाले महाजनों से कहीं बेहतर है। इसमें दो राय नहीं कि गरीबों में काफी निराशा है लेकिन एक सार्वभौमिक ऋण माफी योजना समस्या को हल नहीं करेगी। प्रत्यक्ष नकदी हस्तांतरण योजना इसी काम को बेहतर ढंग से कर सकती है।


Date:16-05-19

क्या आयोग इस चुनाव से कुछ सीख लेगा, साख बनाएगा ?

संपादकीय

चुनाव आयोग को 17वीं लोकसभा के इस चुनाव को आगामी चुनाव में केस स्टडी की तरह लेना चाहिए। क्या लोकसभा के चुनाव सात चरणों में होने चाहिए? इस बार चुनाव में गाली-गलौज, वाद-विवाद, तर्क-वितर्क, मारपीट और तोड़फोड़ की घटनाओं को देखने से शायद यही स्पष्ट होता है कि चुनाव तीन या चार दौर से लंबे नहीं होने चाहिए। लंबे दौर के इस चुनाव कार्यक्रम की वजह से प्रधानमंत्री और राहुल गांधी जैसे नेताओं को एक-एक राज्य में दस से बारह चुनावी सभाएं, रोड शो करने का अवसर मिला। स्थानीय नेता तो हर संसदीय क्षेत्र में दो से चार सभाएं करने में कामयाब हो गए। जितना लंबा समय उतना ही दुरुपयोग। चुनाव आचार संहिता की जिस तरह धज्जियां उड़ीं शायद ही इससे पहले ऐसी नौबत आई हो।

सबसे महत्वपूर्ण बात यह रही कि चुनाव आयोग कई मामलों में फैसला लेने की स्थिति में असहाय, असमजंस में नज़र आया। नेताओं के मुंह से निकलने वाले विवादास्पद बयानों को छोड़ भी दें तो इस बार नेताओं द्वारा चुनाव आचार संहिता को खुलेआम तोड़ा-मरोड़ा गया। पश्चिम बंगाल में तृणमूल कांग्रेस और भाजपा के बीच में जिस तरह की जमीनी जंग देखने को मिली उससे चुनाव आयोग की क्षमता और साख पर सवाल उठे। इस बार चुनाव में जातिवाद, क्षेत्रवाद, वर्गवाद के आधार पर जैसा पक्षपात देखने को मिला शायद ही पहले कभी दिखा हो। राजनीतिक दलों ने तो एक तरह से चुनाव आयोग की पूरी अनदेखी ही की, क्योंकि चुनाव आयोग सख्ती से पेश नहीं आया। बड़ी-से-बड़ी सजा यानी 72 घंटे के बैन से भी बात नहीं बनी। चुनाव आयोग की सख्ती का खौफ तो था ही नहीं आया, आयोग खुद कहीं-न-कहीं सातों चरणों के दबाव में नज़र आया। चुनाव आयोग राजनीतिक दलों के खर्च पर ही कड़ाई करता तो शायद चुनाव कुछ नए फॉर्मेट में नज़र आता लेकिन, हुआ बिल्कुल उल्टा। पार्टियों ने आयोग की हर कड़ाई का रास्ता ढ़ूंढ़ रखा था। लोकसभा चुनाव में अगर चुनाव आयोग जैसी संस्थाओं की विश्वसनीयता पर सवाल खड़े होने लगे तो आगे स्थिति और खराब होगी। बिना भय नेताओं की सेहत पर कोई असर नहीं होता। हर राज्य की अपनी एक कहानी है। ऐसे में चुनाव आचार संहिता के पालन का एक ही मूलमंत्र होना चाहिए- कड़ाई। राजनीतिक दलों को जब तक कुछ खोने का डर नहीं होगा, आचार संहिता यूं ही टूटती रहेगी।


Date:16-05-19

ट्रेड वॉर की चुनौतियां और अवसर

यदि भारत अक्लमंदी से कदम आगे बढ़ाए तो अमेरिका-चीन के मध्य उभरी ट्रेड वॉर की स्थिति का लाभ ले सकता है।

कमलेंद्र कंवर , (लेखक वरिष्ठ पत्रकार व स्तंभकार हैं)

अमेरिका दुनिया का सबसे ताकतवर देश है। ऐसे में जाहिर तौर पर यदि उसका राष्ट्रपति कोई व्यापक नीतिगत फैसला ले या इस आशय की घोषणा करे तो दुनिया पर उसका जबर्दस्त असर देखने को मिलता है। खासकर मौजूदा राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप के कार्यकाल के दौरान तो यह खूब देखा जा रहा है। ट्रंप अक्सर ऐसी घोषणाएं कर देते हैं, जिनसे दुनिया हैरान रह जाती है। ऐसे फैसलों के लिए कई बार उनकी अपने देश में ही नहीं, बल्कि बाहर भी आलोचना होती है, लेकिन वे बाज नहीं आते। ट्रंप का ऐसा ही एक फैसला है चीन के साथ ट्रेड वॉर का आगाज करना, जिसके तहत वे अमेरिका में आयातित होने वाले ज्यादा से ज्यादा चीनी सामानों पर शुल्क बढ़ाना चाहते हैं।

अमेरिका-चीन के मध्य आपसी कारोबार के मसले पर इस बढ़ते तनाव का असर व्यापक है। इसकी वजह से दुनियाभर के शेयर बाजारों में गिरावट का दौर जारी है। एक प्रमुख उभरता बाजार होने के नाते भारत भी इसके प्रभाव से अछूता नहीं रह सकता। हालिया दिनों में भारतीय बाजार अंतरराष्ट्रीय कारकों से बुरी तरह प्रभावित नजर आया। बाजार में गिरावट के चलते निवेशक भी आशंकित हैं। अब आगे चलकर हालात क्या मोड़ लेते हैं, यह कोई नहीं बता सकता। लिहाजा भारत के लिए बेहतर यही होगा कि वह घटनाक्रम पर निगाह रखे और अपने राष्ट्रीय हितों की रक्षा की खातिर दूरदर्शितापूर्ण ढंग से पूरी समझदारी के साथ प्रतिक्रिया दे।

यदि नई दिल्ली अक्लमंदी से कदम आगे बढ़ाए तो भारत को इस घटनाक्रम का फायदा मिल सकता है। संयुक्त राष्ट्र की एक हालिया रिपोर्ट में भी यह कहा गया है कि भारत उन चुनिंदा अर्थव्यवस्थाओं में शुमार है, जिन्हें दुनिया की इन दो शीर्ष अर्थव्यवस्थाओं के मध्य उभरे व्यापारिक तनाव का लाभ मिल सकता है। हालांकि यह भी है कि चीन के बाद ट्रंप अपनी निगाह भारत की ओर घुमा सकते हैं, जैसा कि उन्होंने कहा भी कि वे इस देश (भारत) को भी उच्च टैरिफ की श्रेणी में देखते हैं।

हाल ही में ट्रंप ने 200 अरब डॉलर मूल्य के चीनी सामानों पर आयात शुल्क 10 फीसदी से बढ़ाकर 25 फीसदी करने की घोषणा की। इन चीनी सामानों में हैंडबैग्स, मछली, कपड़े और फुटवियर के अलावा कुछ अन्य सामग्रियां शामिल हैं। इसके अलावा ट्रंप ने चीन से अमेरिका को होने वाले 325 अरब डॉलर के दूसरे आयातों पर भी ‘जल्द 25 फीसदी शुल्क आरोपित करने की धमकी दी। ट्रंप का तर्क है कि अमेरिका के साथ चीन का व्यापार अधिशेष अनुचित कारोबारी गतिविधियों की वजह से है। अमेरिका चीन पर अमेरिकी फर्म्स से बौद्धिक संपदाओं की चोरी के आरोप भी लगा चुका है। उसकी कुछ आलोचनाएं जायज कही जा सकती हैं और इस संदर्भ में ट्रंप का तर्क है कि भले ही उनके पूर्ववर्ती इन चीजों की ओर आंखें मूंदे रहे हों, लेकिन वे ऐसा नहीं करेंगे। ऐसे में अमेरिका चीन के साथ बढ़ते व्यापार घाटे को कम करने की पूरी कोशिश कर रहा है और यही ट्रंप की आर्थिक नीतियों का एक अहम बिंदु भी है।

अमेरिका द्वारा टैरिफ बढ़ाए जाने पर चीन की ओर से भी जरूरी जवाबी कार्रवाई की बात कही जा रही है। इस संदर्भ में अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष (आईएमएफ) की चेतावनी भी गौरतलब है, जिसने कहा कि अमेरिका व चीन के मध्य गहराता व्यापार तनाव वैश्विक अर्थव्यवस्था के लिए गंभीर खतरा है। आईएमएफ का तर्क है कि वैश्विक अर्थव्यवस्था के विस्तार को कमजोर करने में अमेरिका-चीन के मध्य व्यपार तनाव का भी योगदान रहा। इस वजह से आईएमएफ ने अपने 2019 के वैश्विक विकास पूर्वानुमान को भी घटा दिया।

बहरहाल, हाल ही में जब अमेरिका और चीन के वार्ताकार इस मुद्दे पर किसी समझौते तक पहुंचने की मंशा से चर्चा के लिए बैठे तो ट्रेड वॉर के खत्म होने की कुछ उम्मीद जगी। लेकिन उनकी वार्ता असफल रही और इसके बाद ट्रंप ने चीन से चेतावनी भरे अंदाज में कहा कि अगर उसने अभी अमेरिका के साथ व्यापार समझौता नहीं किया तो उसे खामियाजा भुगतना पड़ेगा। ट्रंप यहीं नहीं रुके और बोले कि अगर चीन यह सोचता है कि 2020 के बाद हालात बदल जाएंगे तो ऐसा नहीं है। 2020 में ‘मेरे दूसरे कार्यकाल में चीन के लिए यह व्यापार समझौता करना और भी बुरा हो सकता है।

बहरहाल यह तो तय है कि उच्च अमेरिकी टैरिफ की वजह से चीन का माल महंगा हो सकता है इस संदर्भ में भारत के लिए एक बेहतर परिदृश्य यह हो सकता है कि कुछ सेक्टर्स में उत्पादन क्षमताओं का रुख चीन से हटकर भारत की ओर हो जाए। अब भारत कैसे इसका लाभ लेता है और क्या नीति अपनाता है, इसका दारोमदार 23 मई के बाद गठित होने वाली नई सरकार पर होगा। इस हेतु जरूरी हुनर से लैस श्रमशक्ति, सरकार की जमीन को लेकर अपनाई जाने वाली नीति, लॉजिस्टिक्स व इंफ्रास्ट्रक्चर और मुद्रा की स्थिरता इत्यादि कारक अहम होंगे। उत्पादन का आधार चीन से भारत की ओर खिसकने के लिहाज से इन चीजों का ध्यान रखना होगा।

इस उत्पादन आधार के खिसकने में अमेरिका के साथ भारत के संबंध भी अहम साबित होंगे, लेकिन हम इसी के भरोसे भी नहीं बैठ सकते। आर्थिक निर्णय काफी हद तक व्यावहारिक आर्थिक तर्कों पर टिके होते हैं और ऊपर जो बातें कही गई हैं, वे भी निस्संदेह अहम होंगी। लेकिन चूंकि डोनाल्ड ट्रंप अस्थिर मिजाज के व्यक्ति हैं, लिहाजा भारत को यह ख्याल रखना होगा कि वह अपनी गरिमा और आत्म-सम्मान को बरकरार रखते हुए किस तरह उन्हें साध सकता है, ताकि इन स्थितियों का लाभ लिया जा सके। गौरतलब है कि ट्रंप खुद एक कारोबारी रहे हैं और इस नाते वे एक तगड़े सौदेबाज हैं।

वैसे यह तो तय लगता है कि ट्रेड वॉर जारी रहने की वजह से अमेरिका के मुकाबले चीन को कहीं ज्यादा मार पड़ेगी। यदि इसका कुछ नकारात्मक प्रभाव अमेरिका पर होता भी है, तो वह मामूली ही होगा। अमेरिका की ओर से चीनी वस्तुओं के आयात में जो कटौती होती है, उसकी भरपाई के लिए भारतीय निर्यातकों को तैयार रहना होगा। हालांकि इसमें लागत का फैक्टर अहम साबित हो सकता है। इसके अलावा यह भी संभावना है कि चीन होड़ में बने रहने के लिए अपनी मुद्रा का अवमूल्यन कर सकता है, जैसा कि उसने 2015 में भी किया था।

कुल मिलाकर यही लगता है कि आगे व्यापारिक महासंग्राम की स्थितियां बन रही हैं। वैसे चीन ने भी अमेरिका से मुकाबले के लिए अपनी आस्तीन में कुछ पत्ते छुपा रखे होंगे। लेकिन अब तक तो लगता यही है कि पहला राउंड ट्रंप के पक्ष में गया है जो अपने डेमोक्रेट पूर्ववर्तियों की नाकामियों को प्रोजेक्ट करते हुए यह दिखाने की कोशिश कर रहे हैं कि किस तरह उनके कार्यकाल में अमेरिकी हितों की बलि चढ़ी और चीन लाभ की स्थिति में रहा।


Date:15-05-19

Facing the climate emergency

The politics of the climate crisis needs a radical transformation — people’s movements are a spark of hope

Sujatha Byravan is a scientist who studies science, technology and development policy

A recent paper in the Proceedings of the National Academy of Sciences of the U.S.A. shows that global warming during the past half century has contributed to a differential change in income across countries. Already wealthy countries have become wealthier and developing countries have been made poorer in relative terms during this time. India’s GDP growth penalty between 1961 and 2010 is in the order of 31% for the period, whereas Norway gained about 34% on a per capita basis. More recently, the Intergovernmental Science-Policy Platform on Biodiversity and Ecosystem Services has reported that, worldwide, the abundance of species has reduced by at least one-fifth, about a million species are under threat of extinction in the next few decades and 85% of wetlands have been lost.

None of these stunning scientific findings made banner headlines. The Economic Advisory Council to the Prime Minister did not hold an emergency meeting to discuss the loss of economic output because of climate change or the effects from loss of biodiversity in India. The manifestos of the political parties contesting the Indian general election barely took note of questions relating to climate and environment. Instead, it is “business as usual” or “life as usual” in the familiar news cycles of bickering and politics.

Instances of collusion

What we have, moreover, are numerous instances of elite networks that are taking advantage of the situation to consolidate their control. These networks often involve governments actively or quiescently colluding with fossil fuel companies, agro-industrial elites, financial elites and other big businesses that are ignoring climate change and making a fast buck often even from the growing disasters. The International Monetary Fund estimates in a recent working paper that fossil fuel subsidies were $4.7 trillion in 2015 and estimated to be $5.2 trillion in 2017. It goes on to say that efficient fossil fuel pricing would have reduced global carbon emissions by 28%.

The Arctic is melting rapidly and the tenor of the recent discussions among Arctic countries suggests that even as increasing glacier melt is responsible for opening up shipping in the area, superpowers are angling to access wealth from the oil, gas, uranium and precious metals in the region.

Mozambique recently had two successive intense cyclones, Idai and Kenneth, with widespread devastation. In an article in The Nation, Dipti Bhatnagar, a local activist, describes how big oil and energy companies have been eager to tap into Mozambique’s liquid natural gas, with large banks from many countries involved in the financing. In 2013, bank loans for $2 billion were guaranteed by the Mozambican government. When the government defaulted on its loans and the currency plummeted, it left behind a trail of woes. The story in Mozambique is of how “corrupt local elites collude with plundering foreign elites” and enrich themselves and their partners, while the people are left to bear the burden of debt.

While this kind of corruption may not be new, various versions of this are played out in other countries. Governments’ corporate cronies and plundering elites, of course, need not be foreign. Environmental laws can be broken by old boys’ networks with impunity as penalties are cancelled by a party in control. It is the poorest and those without access to power who become victims of the fallout from these situations. Another recent example is the draft Indian Forest Act of 2019, which enhances the political and police power of the forest department and curtails the rights of millions of forest dwellers.

Ear to the ground

Policies and commitments make it clear that most governments and businesses are not interested in dealing with the climate and ecological crises. They will certainly not give these the central attention they deserve in these times of an emergency; they barely even acknowledge them. Luckily, what we are witnessing is a large-scale movement for “planet emergency”, climate and ecology. Greta Thunberg has been leading this among school-going children, and Extinction Rebellion has been organising “die-ins” in many parts of Europe and now in Asia. Their non-violent civil disobedience is just what is needed and it is indeed inspiring to see children and grandparents protest together. People’s movements, whether made up of students or adults, cannot be ignored for long and governments will have to pay attention.

The atmosphere now has concentrations of over 415 parts per million (ppm) of carbon dioxide, compared to 280 ppm in pre-industrial times. But then, fossil fuel companies and politicians have known about climate change for at least 30 years. They have funded misinformation regarding climate directly, taking lessons from tobacco companies that propagated lies for decades about cigarettes being safe. The documentary film Merchants of Doubt describes how a handful of scientists have obscured the truth on global warming so that business profits can continue to flow. The fossil fuel industry has also funded politicians, so their words and laws are already bought.

About a major overhaul

The only solutions that governments and business are looking for are those that enable them to carry on as before. But the planet is well past that point where small fixes can help take us on a long path to zero carbon earth. We are now at a stage where we need major overhaul of our lifestyles and patterns of consumption. The U.K. Parliament became the first recently to declare a climate emergency. It remains to be seen if appropriate actions will follow this declaration. When a 16-year-old speaks with far greater clarity and conviction than the thousands of dithering policy wonks who have been debating for over three decades, we know the politics of the climate crisis must undergo a radical transformation.


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